Wednesday, June 12, 2019

शव-दाह क्या? और क्यों ?



*🌺शव-दाह क्या? और क्यों ?🌺*
(मुर्दा अवश्य जलाना चाहिये)
✍🏻 लेखक - पं० लेखराम आर्यपथिक
*प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’*
[विशेष सम्पादकीय टिप्पणी - पं० लेखराम जी बहुत तार्किक विद्वान् थे। उनकी सोच बहुत वैज्ञानिक थी। सवा सौ वर्ष पूर्व शवदाह पर ऐसा खोजपूर्ण लेख लिखना उन्हीं का काम था। इस विषय पर सन् 1980 ई० तक भी कोई प्रमाण और आंकड़े देकर इतनी ठोस लेख न लिख सका। ऐसी पठनीय पुस्तक और किसने लिखी ? ‘जिज्ञासु']
मृतक के शव के साथ भिन्न भिन्न देशों और जातियों में भिन्न भिन्न व्यवहार होता है। जलाना, दबाना, पशुओं के आगे डाल देना, वायु में अथवा मसाला (औषध) डाल कर शुष्क कर देना, पानी में डाल देना आदि अनेक पद्धतियां प्रचलित हैं। आर्य लोग प्राचीन काल से मृत शरीर को जलाते हैं। यहूदी, ईसाई, मुहम्मदी भूमि में गाड़ते हैं। पारसी (पक्षियों) पशुओं के आगे डाल देते हैं। पूर्व के मिश्रवासी वायु में अथवा मसाला डाल कर शुष्क कर देते थे। कुछ जातियां पानी में बहा देती हैं।
हमारा प्रयोजन इस कथन में यह है कि जो सत्य हो और ज्ञान विज्ञान के अनुकूल हो जिससे हानि सर्वथा न हो अथवा बहुत ही न्यून हो। उस प्रथा का प्रचलन करना चाहिये। जो पद्धति ज्ञान विज्ञान के विरुद्ध हो। रोगवर्द्धक, जड़पूजा प्रसारक, पाप-युक्त, और हानिकारक हो उससे घृणा करके उसका परित्याग करना चाहिये। क्योंकि धर्म और प्रथा वही सत्य है जो सत्य ज्ञानानुसार हो। शेष मिथ्या है।
*◼️मुर्दा दबाने के सम्बन्ध में अनुसन्धान*
तौरेत उत्पत्ति अध्याय 4 आयत 1-16 तक कायन और हाबील की कथा है कि एक की बलि ईश्वर ने स्वीकृत की और दूसरे की अस्वीकृत कर दी। जिस पर क़ायन (जिसे मुसलमान क़ाबील कहते हैं) ने हाबील को मार डाला। इसका पता न लगे इस कारण से उसे दफन कर दिया (भूमि में दबा दिया)। खुदा ने पूछा कि हे कायन ! तेरा भाई हाबील कहां है? उसने कहा कि मैं नहीं जानता। क्या मैं उसकी देख-रेख रखता हूं? खुदा ने कहा कि तेरे भाई का रक्त पृथिवी से पुकार कर कह रहा है कि तूने उसका वध किया है। अन्त में क्रायल ने स्वीकार किया जिस पर खुदा ने उसको वहां से नूद (Nod) की भूमि में चले जाने की आज्ञा प्रदान की।
इसके सम्बन्ध में कुरआन में लिखा है। कि-
*फ़बअसल्लाहो गुराबन्यबहसो फिल् अर्जे लि युरय्यहू केफ़ा पुवारी सौअता अखीहि। क़ाला यावैल अअजसो अन् अकूना मिस्ल हाज़लगुराब फ़अवारी सौअता अख़ी फ़अस्बह मिनन्नादिमीना॥*
इस पर फ़ारसी तफ़सीरें हुसैनी में स्पष्ट रूप से क्राबील और हाबील की सारी कथा लिखी है कि जब क्राबील हाबील को मारने की चिन्ता में था तो उस समय शैतान मनुष्य का रूप धारण करके उसे दिखाई दिया। एक मुर्ग उसने हाथ में पकड़ा हुआ था। तब शैतान ने उस मुर्ग के सिर को पत्थर पर रखा और दूसरा पत्थर उस पर मारा जिससे वह पिस गया और मर गया। क्राबील ने शैतान से यह पद्धति सीख कर जब हाबील को पत्थर पर सिर रखे हुए सोया पाया। उसी प्रकार उसने भी पत्थर उठा कर उसके सिर पर मारा और वह मर गया। क़यामत के दिन दोजख (नरक) का आधा दु:ख उसको होगा। अब क़ाबील नहीं जानता था कि उसे क्या करे। उसे वस्त्र में लपेट कर चालीस दिन प्रत्येक दिशा में घूमता रहा। इब्ने अब्बास कहते हैं कि एक वर्ष तक फिरता रहा, जिससे वह गन्दा दुर्गन्ध युक्त हो गया। पशुपक्षी उस पर गिरते थे कि यह फैंक दे और वे खायें। जिससे वह बहुत बाधित हुआ। इतने में एक कव्वे को क्राबील ने देखा कि उसने अपने दोनों पाँवों से एक गड्डा खोदा और दूसरे मृत कव्वे को लाया। उसमें दफन किया। और ऊपर मिट्टी डाल दी। क़ाबील ने कहा कि मैं इस कव्वे से भी मूर्ख हूं। इसके पश्चात् काबील ने हाबील को कव्वे की भांति दफ़न किया। (तफ़सीरे हुसैनी पृष्ठ 143 144 जिल्द प्रथम नवलकिशोर)
इस पर आनरेबल सर सय्यद ख़ान लिखते हैं कि “हज़रत आदम की सन्तान क़ाबील और हाबील की कथा कि जिसका वर्णन कुरआने मजीद में है, के अनुसार जब एक ने दूसरे का वध किया तो उसकी लाश छिपाने के लिये वह चिन्तित था। उसने एक कव्वे को देखा कि वह हड़ी मिट्टी में छिपाता है। मनुष्य ने मृतक को क़बर में दफन करना वास्तव में उसी से सीखा है।'' (तहज़ीबुल अखालाक जिल्द 1 नं० 4 पृ० 35)
अतः स्पष्ट है कि मुर्दा का दफन करना मनुष्य ने गुराब अर्थात् कव्वे से सीखा अथवा उसका अनुकरण किया। *अतः यह कोई धार्मिक बात नहीं है और न दीन का इससे कोई सम्बन्ध है।*
इन क़बरों के कारण क़ब्रिस्तान के साथ लगे खेतों का अन्न स्वास्थ्य के लिये बहुत हानिकारक है। क़बरों के समीप के कूप का जल स्वास्थ्य को बिगाड़ने वाला है।
इसके अतिरिक्त लाखों बीघा और सैंकड़ों मील भूमि कब्रिस्तान के कारण खेती करने के बिना वीरान पड़ी है। क़ब्रिस्तान प्रायः मैदानों में होते हैं और मैदान की भूमि ही उत्तम उपजाऊ होती है। जब सैकड़ों मील उत्तम भूमि क़ब्रिस्तानों में बदल गई तो बताइये कि खेती की कितनी हानि हुई और हो रही है तथा भविष्य में होगी?
आबादी बढ़ रही है और क़ब्रिस्तान भूमि घटा रहे हैं। इसके अतिरिक्त रोग भी उत्पन्न कर रहे हैं। अतः मुर्दो का दफ़न करना वास्तव में जीवितों का गला काटना है। करोड़ों मनुष्य ईश्वर विश्वास को छोड़, औषध से मुख मोड़, वैद्यक और डाक्टरी के विरुद्ध क़ब्रिस्तान पर जाकर समय व्यर्थ गंवाते और शिर्क (एक ईश्वर की पूजा छोड़ कर जड़ पूजा, मृतक पूजा और मनुष्य पूजा आदि करना) के पाप में लिप्त हो रहे हैं और उसका दु:ख रूप फल भी दिन-प्रतिदिन प्राप्त कर रहे हैं।
इसके अतिरिक्त हाबील का शैतान की प्रेरणा से वध हुआ और कव्वे की प्रेरणा से दफन किया गया। हमारा इससे क्या सम्बन्ध है ? हम वह पद्धति अपनाएं जिससे मनुष्य मात्र का लाभ, रोग निवृत्ति, अन्न वृद्धि,स्वास्थ्य प्राप्ति और शान्ति स्थापना से दुनियां आबाद हो।
*◼️मुर्दे को जानवरों व पक्षी के आगे डाल देना*
यह प्रथा पारसी लोगों में जरदश्त पैगम्बर के पश्चात् चली है। अन्यथा जन्दावस्ती में इसकी कछ भी वर्णन नहीं। वहां केवल दो विधियां लिखी हैं कि *''मुर्दा रा दर खमेतुन्द आब या दर आतिश या ख़ाक सुपरेद। ईं तरीक़ दफ़ने मुर्दाअस्त।''*
इस पर जो भाष्य फ़ारसी में लिखा है उसका अर्थ यह है कि-
"जो कुछ कैश और आबाद के अनुयाई मृतक के सम्बन्ध में करते हैं वह यह है कि शरीर से जीवात्मा के पृथक हो जाने पर शरीर को पानी से धोते हैं और पवित्र वस्त्र (कफ़न) पहनाते हैं। इसके पश्चात् उसे शरीर को तेजाब में डालते हैं। जब पिघल जाता है तब उस तेज़ाब को नगर से दूर ले जाकर गिरा देते हैं। जिससे मृतक शरीर की दुर्गन्ध मनुष्य के लिए हानिकारक न हो । यदि तेजाब न डालें तब पवित्र वस्त्रों से मृतक शरीर को ढांप कर (कफ़न ओढ़ कर) आग में जला देते हैं।'' (फ़िराज़ाबाद व खशूरान व खशूर आयत 154 पृ० 37)
इससे आगे इसी आयत के भाष्यकार ने वर्तमान पद्धति से कूप खोद कर उसमें डाल देने का वर्णन भी किया है परन्तु यह पद्धति रोग प्रसारक और सभ्यता के अनुकूल नहीं है। और अब सभ्य पारसियों ने मृतक शरीर का जलाना स्वीकार कर लिया है। अतः सर्वोत्तम विधि दाहकर्म की ही है।
*◼️वायु में अथवा औषध लेप से मुर्दे को शुष्क करना*
यह पद्धति मिश्र देश के राजाओं की थी क्योंकि वह ईश्वरीय सत्ता से इनकारी फ़िरऔन के विचार के थे। अतः अपनी पूजा करवाने के विचार से उन्होंने स्वयं अथवा उनके शिष्यों ने इस प्रथा का प्रचलने किया। सत्य तो यह है कि अब यह प्रथा नहीं रही। और यह प्रथा अच्छी भी नहीं थी क्योंकि इससे भी रोग फैलने की सम्भावना रहती है तथा जो उद्देश्य है वह भी स्थिर नहीं रह सकता क्योंकि मनुष्यों के लिये यह नियम नहीं चल सकता और इतनी भूमि भी नहीं कि उस पर आरम्भ सृष्टि से आज तक जितने मनुष्य उत्पन्न हुए, उन्हें औषध लगाकर रखा जाए। इतनी गुजायश कहां हो सकती है? पुनः जीवितों को भूमि छोड़कर समुद्र में मकान बनाने होंगे। अतः यह पद्धति केवल अहं पूजा, कपोल कल्पित और आचरण के अयोग्य है।
*◼️मुर्दे को जल में बहा देना*
यह प्रथा गंगा के तटस्थ प्रदेशों में प्रचलित है। और वह केवल मुक्ति प्राप्ति के लिये है। ताकि गंगा में पड़ जाने से मुक्ति हो जाए। अन्यथा यह धार्मिक और वैज्ञानिक मन्तव्य नहीं है।
डाक्टरों और वैद्यों ने सिद्ध कर दिया है कि जल में गन्दगी डालना उसे पीने वालों के लिये बहुत हानि कारक बना देता है। आप लोग देखते होंगे कि यदि किसी कूप अथवा तालाब में कोई मृत पशु पड़ जाए अथवा मर जाए तो पानी कैसा दुर्गन्ध युक्त हो जाता है ? और कितना स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हो जाता है? वास्तव में लोग गंगा का अमृत रूपी जल इसी प्रकार की दुर्गन्ध से दूषित कर देते हैं। यह पद्धति चोर चुकारों, ठगों, डाकुओं के लिये है। वह लोग घटना को छिपाने के लिये ऐसा करते हैं। सभ्य संसार के लिये तो यह विधि अत्यन्त बुद्धि विरुद्ध है।

*◼️मुर्दो का जलाना*
मुर्दो का जलाना एक समय (जब कि समस्त संसार में वैदिक धर्म का प्रचार था) समस्त संसार में प्रचलित था। आर्य जाति जिसमें यूनानी, रूमी, पारसी, अंग्रेज, जर्मन, फ्रेंच और सारा योरुप तथा एशिया की समस्त जातियां सम्मिलित हैं, सदैव से सब स्थानों पर मुर्दा जलाती थीं। जैसा कि *प्रसिद्ध इतिहासकार आनरेबल डाक्टर डब्ल्यू हन्टर साहिब* लिखते हैं कि -
“आर्य क्या हिन्दू क्या यूनान और इटली में भी लोग अपने मुर्दो को चिता पर जलाते थे।'' (तारीखे हिन्द 1884 ईस्वी, पृ० 70)
अब हम आर्यावर्त की पवित्र पुस्तकों से खोज करते हैं तो यजुर्वेद में लिखा है कि-
🔥भस्मान्त शरीरम्॥ यजु:० 40.15
अर्थ-इस मनुष्य शरीर का मनुष्य से अन्तिम सम्बन्ध जलाने और भस्म कर देने तक है। इस पर महर्षि मनु जी की आज्ञा है कि-
🔥“निषेकादि श्मशानान्तो मन्त्रैर्यस्योदितो विधिः ॥'' मनु० 2.16
अर्थ-गर्भस्थापना से लेकर श्मशान में जलाने तक मनुष्य शरीर के लिये मन्त्रों से वैदिक विधि कही गई है। अर्थात् गर्भ से लेकर जलाने तक जो-जो कार्य मनुष्यों के लाभार्थ स्वयं अथवा लोगों को करने योग्य हैं उनकी आज्ञा वेदों में है। शरीर के जल जाने के पश्चात् मन्त्रों में उसके लिये पीछे कुछ करने की आज्ञा नहीं है। ऋग्वेद मण्डल 10, सूक्त 16, मन्त्र 3-7, 13; ऋग्वेद मंडल 10 सूक्त 14 मन्त्र 6 से 16; ऋग्वेद मण्डल 10 सूक्त 20 मन्त्र 19; यजुर्वेद 39.1-63; अथर्ववेद काण्ड 18 सूक्त 2 मन्त्र 1-10 तक और तैतरीय ऋषि की व्याख्या में भी इन मन्त्रों के सम्बन्ध में विस्तृत वर्णन है। प्रपाठक 6 अनुवाक 1-10 तक स्पष्ट रूप से मृतक के जलाने के लाभ और उसकी हड्डियों को जलाने के पश्चात् पानी अथवा खेत में डालने का वर्णन है। जिनका लाभ सूर्य प्रकाशवत् प्रकट है। चूना, हड्डी, कोयला, रेत इत्यादि से पानी निर्मल होता है।

*◼️मुर्दा जलाने के लाभ*
▪️(1) मृतक को जलाने में भूमि न्यून व्यय होती है। एक बीघा अथवा कनाल वा मरला भूमि में चाहे संसार भर के मृतकों को जलावें तो भी वह भूमि वैसी की वैसी पाई जाती है। इससे न्यून भूमि हो तो भी काम चल जाता है।
▪️(2) जड़पूजा अथवा ईश्वर के स्थान पर अन्य की पूजा का आधार उखड़ जाती है। क्योंकि न कबरें होंगी और न कोई उनसे मुराद मांगेगा तथा न पापों का प्रारम्भ होगा। वास्तव में इसी पीर परस्ती अथवा क़बर-पूजा से मृतक-पूजा की प्रथा प्रचलित हुई है।
▪️(3) जो रोग क़ब्रिस्तान के कारण फैलते हैं, सर्वथा बन्द हो जाएंगे। जल-वायु तथा अन्न दृषित न होगा। ईश्वरीय प्रजा का नाश न होगा और उत्तम अन्न, निर्मल जल, शुद्ध वायु आदि प्रयोगार्थ मिलेंगे।
अर्वाचीन और प्राचीन वैद्यों ने स्पष्ट, खुले, सुदृढ़ हेतुओं से सिद्ध किया है और समस्त उदार हृदय वाले लोगों का अनुभव है कि श्रेष्ठ, पवित्र और खुली वायु, निर्मल जल मनुष्यों के स्वास्थ्य के लिये अत्यावश्यक हैं। वायु के न मिलने से मनुष्य जीवित नहीं रह सकता। इसी प्रकार जल के बिना भी जीवन नहीं रहता। क्योंकि सबसे अच्छी श्रेष्ठ वस्तु जिस पर मनुष्य जीवन का आधार है, वह यही है। वास्तव में स्वभाव और आचरण का आयु के साथ बहुत बड़ा सम्बन्ध है जिसका श्रेष्ठ और उच्च आधार जल वायु है। जिस समय मुर्दो के जलाने का सर्व संसार में प्रचलन था अर्थात् तीन सहस्र वर्ष से पूर्व उस समय मनुष्य के जीवन सुदृढ़, पूर्ण और ठीक थे। वह पूर्ण युवा, दृढ़ शरीर और बलवान् होते थे। यदि मुर्दा जलाने की प्रथा पूर्ववत् पुनः प्रचलित हो जाए। तो स्वास्थ्य बहुत अच्छा हो जाएगा।
▪️(4) बिज्जू नाम का एक प्रकार का पशु, क़ब्रों को उखाड़ कर मुर्दो को ले जाता है और कुछ कफन चोर लोग क़ब्रे उखाड़ कर कफन का वस्त्र उतार लेते हैं। इन कुकर्मों से मुर्दो का अपमान होता है तथा चोरी आदि दुष्कर्म बढ़ते हैं इनकी रोक थाम हो जाएगी।
▪️(5) क़ब्रे खोदने वाले लोग और क़ब्रिस्तान के मुजाविर (ख़ानक़ाहों में रहने वाले) लोग जो लोगों की मृत्यु की इच्छा रखते हैं तथा इसी व्यवसाय के द्वारा रोटी कमाते हैं, ऐसे लोग किसी अच्छे काम धन्धे में लग जाएंगे।
▪️(6) सैंकड़ों लोग की ख़ानक़ाहों पर जो हजारों और लाखों करोड़ों रुपये खर्च करके बड़े बड़े मक़बरे (समाधियां) और भवन बनाये गये हैं अथवा बनाये जाते हैं। वह धन आगे को व्यर्थ न होने पाएगा। प्रत्युत वह धन किसी अच्छे, प्राणीमात्र के लाभ-प्रद कार्य, अर्थात् शिक्षा, अनाथालय, औषधालयादि में व्यय होगा।
▪️(7) *कव्वे अथवा शैतान का अनुसरण छोड़ कर हम बुद्धिवादी, ज्ञान विज्ञान और सत्य के प्रसारक कहलाएंगे।*
(8) तेल अथवा उर्स (मुर्दो की स्मृति के मेले) आदि का व्यय जो लाखों रुपये वार्षिक के लगभग है वह भी सर्वथा न होगा। यह धन भी शुभ कार्यों में लगेगा। अब तो केवल मुर्दा के सिरहाने तेल जलता है जिसका उसे कुछ भी ज्ञान नहीं। यह मसजिदों, धर्मशालाओं, मन्दिरों में जलेगा अथवा चौराहों पर, जहां मनुष्यों का बहुत लाभ होगा और पुण्य प्राप्त होगा।
▪️(9) चर्स, गांजा, अफीम, तम्बाकू पीना, दुराचार छूतकर्म (जो प्रायः ऐसे स्थानों तकिया आदि)) पर अधिक होते हैं उसका भी निवारण हो जाएगा।
अब कुछ वर्षों से मुर्दा जलाने की ओर डाक्टरों और वैज्ञानिकों का ध्यान खिंचा है। उन्होंने सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया है कि वास्तव में दफनाने से जलाना अति लाभप्रद है तथा प्रत्येक प्रकार के रोग (जो दफ़नाने से उत्पन्न होते हैं) उनका निवारक है।
जापान, अमेरिका और योरुप के सभी देशों में इसकी अधिक प्रथा प्रचलित होती जा रही है। क्योंकि ज्ञान इसका साथी है। अत: आशा है कि एक समय समस्त सभ्य सजग संसार में यह प्रथा प्रचलित हो जाएगी।
सम्प्रदाय वादियों में ईसाई अधिक ज्ञान-प्रिय हैं। एक विद्वान् अन्वेषण कर्ता के वचनानुसार “योरुप में आजकल ज्ञान की समस्त शक्ति है और ज्ञान का ही वहां राज्य है।'' अतः योरुप और अमेरिका के ईसाईयों ने भी न्याय और विद्या की दृष्टि से गुणदोषों का विश्लेषण करके यही बुद्धि संगत प्रथा स्वीकार की है। जिसका समर्थन समस्त सर्व प्रिय समाचार पत्रों में मिलता है।
[न जाने मुसलमान इतने संकीर्ण व मतान्ध क्यों हैं जो स्वर्गीय छागला सरीखे प्रबुद्ध मुस्लिमों की दाहकर्म करने
की मृत्यु इच्छ का घोर विरोध करते हुये दाहकर्म का बहिष्कार करते हैं। 'जिज्ञासु']
*◼️समस्त धार्मिक समाचारपत्रों की सम्मतियां*
▪️लुधियाना का ईसाई पत्र 'नूर अफशां' लिखता है कि
“भारत का इंग्लिश पत्र प्वायेनीयर लण्डन की स्वास्थ्य कांग्रेस की इस प्रस्तावना को अच्छा समझता है कि मुर्दो का जलाना दफनाने की अपेक्षा लाभ दायक है।"
(17 सितम्बर 1891 ईस्वी, पृ० 10)
▪️पत्र' अख़तर रोम', जो टर्की की राजधानी कुस्तुन्तुनिया से निकलता है “इंग्लैण्ड में मृतकों का जला देना'' इस शीर्षक से अपने लेख में लिखता है कि -
"कुछ वर्षों से योरुप और इंग्लैण्ड में अग्नि पूजकों की एक प्रथा प्रचलित हुई है। वह यह है कि जो लोग मर जाते हैं उनके शरीरों को अग्नि में जला देते हैं। जैसा कि 1885 ईस्वी में लाशों को जलाने के लिये एक भट्टी बनाई गई । उक्त वर्ष से 1890 ईस्वी तक तीन अंग्रेजों को उनकी वसीयत (अन्तिम सन्देश) के अनुसार और 54 मनुष्यों को वसीयत के बिना जला दिया गया। इसी प्रकार इसी वर्ष भी 99 मनुष्यों के शवों को उनकी वसीयत के अनुसार जला कर उनकी राख को वायु में उड़ा दिया गया। निकट भविष्य में मानचेस्टर और अन्य नगरों में भी ऐसी भट्टियां बनने वाली हैं।" (अखतर रोम फ़ारसी कुस्तुन्तुनिया 1892 ईस्वी)
▪️'शम्सुल अखबार' मद्रास ने भी (जिसके प्रबन्धक मुहम्मद सैफुद्दीन आफ़न्दी हैं) अपने अंक 28 मार्च 1892 ईस्वी जिल्द 134 में इसकी नक़ल की है।
▪️'रफीके हिन्द लाहौर' (जिसके सम्पादक एक मुसलमान महरम अली थे) उस में लिखा है कि “योरुप के विद्वानों ने इसका स्वीकरण किया है कि योरुप में मुर्दा जलाने की प्रथा फैलती जाती है। इटली के रोम नगर में 1885 में 119 मुर्दे जलाए गए। 1887 ईस्वी में 155 परन्तु इस वर्ष 200 से अधिक मुर्दे जलाए गए।
इंग्लैंड में वोकिंग नामी स्थान पर मुर्दा जलाने की आज्ञा दी गई है। तब से 99 मुर्दै जले हैं। अंग्रेज विद्वानों की यही सम्मति है। जब तक ऐसे लोग जो हैजा (विषुचिका) चेचक आदि संक्रामक रोगों से मरते हैं दफ़न किये ( दबाए) जाएंगे तब तक इन रोगों की जड़ कट जाना सर्वथा असम्भव है। क्योंकि क़ब्रों में उनकी उत्पत्ति के एकत्र हुए बीज विद्यमान रहते (रफ़ीके हिन्द 19 अक्तूबर 1890 ईस्वी पृ० 9)
▪️'कायस्थ सम्मेलन गज़ट' लिखता है कि “जापान और योरुप में मुर्दा जलाने की प्रथा बढती जाती है। गत चार मास में इंग्लैंड के मान्चिस्टर लिस्टर और अन्य कसबों (परगनों) में पर्दा जलाने के समर्थन में सोसाइटियां बन गई हैं।'' (18 सितम्बर 1891 ईस्वी जिल्द 1 नं० 46)
▪️'दबदबाए कैसरी' बरेली के प्रमाण से आर्य समाचार मेरठ अंक 4 संवत् 1939 नंबर 10 पृष्ठ 298 मासिक पत्र में लिखा है कि -
“योरुप के देश इटली, जर्मनी, स्विटजरलैंड, अमेरीका के यूनाइटिड स्टेट्स में मुर्दो को दफनाने के स्थान पर जलाने की आज्ञा मिली है। उक्त देशों में स्थान स्थान पर मरघट (भट्टियां) निर्मित हो गये हैं और बनाये जा रहे हैं।''
इस पर समाचार के सम्पादक ने सम्मति दी है कि ”ऐसे कार्यों से सर्वथा सिद्ध हो रहा है। कि ईसाई धर्म पर विश्वास शिक्षित संसार के हृदय से दिन प्रतिदिन समाप्त होता जा रहा है।''
▪️'खत्री ( क्षत्रिय) हितोपदेश' लिखता है कि ''गत वर्ष इंगलैंड में 54 मुर्दै जलाए गए। अब मुर्दा जलाने के लिये एक भट्ठी लंडन में बनाई जाएगी। धन एकत्र हो रहा है। ड्यूक आफ बैडफोर्ड ने इसके लिये पच्चास सहस्र रुपया दान दिया।'' (संस्करण 1 नम्बर 2 पृष्ठ 22 सन् 1891 ईस्वी)
▪️'अख़बारे आम' लाहौर लिखता है कि '1890 ईस्वी में फ्रांस की राजधनी पैरस में 3388 मुर्दै जलाए गए और टोकियो में 29013" (अखबारे आम 7 जौलाई 1891)।
▪️'आर्यावर्त कलकत्ता' में लिखा है कि "अमरीका में 22 श्मशान मृतकों को जलाने के लिये तैयार किये गए हैं। बहुत मृतक जलाये जा चुके हैं। लंडन में इसके लिये एक बहुत बड़े मकान का प्रबन्ध हो रहा है।'' (आर्यावर्त 15 अगस्त 1891 ईस्वी)
▪️'धर्म जीवन' के परिशिष्ट में लिखा है जिसका शीर्षक शवदाह है।
स्वास्थ्य कांग्रेस लंडन ने इस प्रयोजन के लिये एक प्रस्ताव स्वीकार किया है कि जब कोई संक्रामक रोग से मर जाए तो शव को जलाना अत्यावश्यक है। (30 अगस्त 1891 ईस्वी पृ० 4)
▪️'आर्य पत्रिका लाहौर में लिखा है कि ‘''वायेनियर' नामी पत्र में यह लिखा हुआ ईसाइयों को आश्चर्य के साथ पसंद होगा कि स्वास्थ्य रक्षक कांग्रेस ने जो प्रस्ताव जलाने के लिये स्वीकार किया है वह सिद्ध करता है कि सर हेनरी टामसन और स्वास्थ्य रक्षक समिति के यत्न अन्ततो गत्वा अपना प्रभाव दिखाने लगे हैं और वहां साधारण जनता में यह विचार फैलता जाता है। जहां बहुत देर से पक्षपात मतांधता ने राज्य स्थापित किया हुआ था।'
यह बात सत्य है कि इस कांग्रेस ने केवल ऐसे व्यक्तियों को जलाना उचित समझा जो संक्रामक रोगों से मरे। परन्तु यह युक्ति उनके साम्प्रदायिक विचारों को धक्का पहुँचाती क्योंकि वह मनुष्य जो संक्रामक रोग से मरा है, उसकी आगामी अवस्था ऐसी है जैसे कि उस जो संक्रामक रोग से न मरा हो। यह बात सत्य है कि यह विचार कि समस्त ईसाई दबाए जा बहुत ही ( भद्दा) है। ज्ञान विज्ञान और बुद्धि, जिसका युग प्रशंसक है, ऐसी पक्षपात पूर्ण निष्प्रयोजन प्रथा पर अन्ततो गत्वी विजय प्राप्त करेगी। चाहे यह एक ऐसी पवित्र पुस्तक (बाईबल) की सहायता अपने साथ रखती हो। यह बात अर्थात् असत्य से सत्य की ओर आकर्षित होना एक वीरता पूर्ण कार्य है। सत्य के विरुद्ध जाना कोई वीरता नहीं है। बहुत बड़ी निर्बलता है। (आर्य पत्रिका लाहौर 15 सितम्बर 1891 ईस्वी पृ० 2)
▪️दैनिक पत्र विक्टोरिया' स्यालकोट लिखता है कि "ब्रिटिश मैडीकल एसोसीयेशन शव-दाह के सिद्धान्त का समर्थन कर रही है।'' (17 सितम्बर 1891 ईस्वी पृ० 4)
▪️साप्ताहिक 'सद्धर्म प्रचारक' जालन्धर लिखता है कि ''स्वास्थ्य रक्षक कांग्रेस ने जो इस वर्ष विलायत (इंग्लैंड) में प्रिंस आफ वेलज इंगलिस्तान के युवराज की आधीनता में सम्पन्न हुई थी और जिस में दो सहस्र तीन सौ बड़े-बड़े योग्य विद्वान् । अमेरिका, जापान, ईरान, मिश्र और भारत आदि से सम्मिलित हुए थे, स्वीकार कर लिया है कि मुर्दो को दबाने से जलाना बहुत अच्छा है। तथा संक्रामक रोगों से मरने वालों को तो अवश्य ही जलाना चाहिये।'' (सद्धर्म प्रचारक 29 सितम्बर 1891 ईस्वी पृ० 7)
▪️‘विक्टोरिया पेपर' लिखता है कि ''पैरस में शव-दाह की प्रथा उन्नति पर है।''
▪️‘दोस्ते हिन्द' भेरा जिला शाहपुर लिखता है कि
‘फ्रांस और अमेरिका में मुर्दो को जलाना शीघ्रता से प्रचलित होता जा रहा है। इंग्लैण्ड में सब बड़े नगरों में मुर्दै जलाने के मरघट बन रहे हैं।'' (18 सितम्बर 1891 ईस्वी)
▪️‘कैसर उलाख़बार' करनाल लिखता है कि
अमेरिका में मुर्दो का जलाना दबाने की अपेक्षा अधिक अच्छा समझा गया है। दिन प्रतिदिन इसकी उन्नति पाई जाती है। इंग्लैंड में शव-दाह के मरघट बनाये जा रहे हैं।'' (19 सितम्बर 1891 ईस्वी)
▪️‘सद्धर्म प्रचारक' जालन्धर लिखता है कि
“मुर्दा जलाने की प्रथा फ्रांस में उन्नति पर है। गतवर्ष में तीन सहस्र चार सौ इक्तालीस शव फ्रांस में जलाए गए। (जिल्द 4 नम्बर 6 पृष्ठ कालिम 1, 21 मई 1892 ईस्वी) ।
न्यूयार्क अमरीका से हनरी ऐस कर्नल आलकाट प्रधान थ्योसाफीकल सोसायटी अपने पत्र नम्बर 17 तिथि 18 फर्वरी 1878 ईस्वी में लिखते हैं कि -
"18 मास बीते। इस बड़े नगर में जिस में 10 लाख से अधिक ईसाई आबादी है। हम ने अपनी सोसायटी के एक व्यक्ति को उन गंवारू प्रथाओं के साथ दफनाया और अग्नि प्रकाश, केचली जो कि सांप के साथ थी इत्यादि चिह्न ले गये थे। अन्य और चिह्नों को भी प्रयुक्त किया। *छः मास के पश्चात् हम ने उस शव को उस कबर से निकाल कर उस को अपनीआर्य जाति के पूर्वजों की भांति दाह कर्म विधि के अनुसार जला दिया।''* (पृष्ठ 4 ज्वाला प्रकाश प्रैस मेरठ)
*◼️योरुप में मुर्दा जलाने की प्रथा*
नरक में मृतक-"प्रथम यह समाचार प्रकाशित किया जा चुका है कि योरुप में मुर्दा जलाने की प्रथा दिन प्रति दिन उन्नति पर है। अभी समाचार मिला है कि नेपल्ज में मुर्दो के जलाने के लिये सर्व साधारण के दान से एक मरघट बनवाया गया। पोप आफ रोम ने बहुत विरोध किया और कहा कि जलाने से मुर्दा नरक में जाएगा। किन्तु सर्व साधारण ने इस सम्मति को न माना। सभी ने इसे ठुकरा दिया तथा बहुत से सम्प्रदाय वादियों की लाशें जलाई गईं। योरुप में यह विचार फैलता जा रहा है कि संक्रामक रोगों के निवारण का बड़ा साधन मुर्दो का जलाना ही है।''
(ताजुल अखबार रावलपिंडी १ जौलाई 1892 ईस्वी)

*◼️मुर्दो को जलाने की प्रथा*
“परशिया की राजधानी बरलिन नगर में एक इन्टर नैशनल कान्फ्रेंस गत मास में हुई ताकि पता लगायें कि शव के ठिकाने लगाने का बढ़िया साधन क्या है? कान्फ्रेंस ने सर्वसम्मति से निश्चय किया कि जलाने की प्रथा बहुत श्रेष्ठ है। जैसा कि बहुत वादविवाद के पश्चात् एक प्रस्ताव सर्वसम्मत स्वीकृत हुआ कि समस्त योरूपियन राज्यों से प्रार्थना की जाए कि वह इसे पद्धति की श्रेष्ठता को स्वीकार करें और अपने अपने देश में इस प्रथा को प्रचलित करें।''
(आर्यदर्पण-मासिक शाहजहांपुर जिल्द 10 नंबर 4 पृ० 81 अप्रैल 1891 ईस्वी)
*◼️मुर्दा जलाने की प्रथा*
इस्लामी पत्र 'आजाद' ने लिखा- ''ब्रिटिश मैडीकल एसोसीएश्न इंगलिस्तान ने प्रस्ताव किया है कि भविष्य में दफ़न करने की प्रथा समाप्त की जाए और मुर्दा जलाने की प्रथा आरम्भ की जाय ! यह एक बहुत बड़ी सभा में कहा गया। और प्रस्ताव उपस्थित हुआ। 'वर्णन किया जाता है कि दफन करने से जल वायु दूषित हो जाते हैं। सैंकड़ों रोग इसी कारण फैलते हैं। संक्रामक रोगों का कारण भी इसी को बताया जाता है। अतः इसी विचार की उन्नति हो रही है । कि मुर्दै जलाये जाएं।''
इस पर इस्लामी समाचार पत्र लिखता है कि हम इस बात के बहुत बड़े विरोधी हैं। इसका कारण यह है कि यदि इस प्रथा पर इंगलैण्ड में अधिक बल दिया गया तो सम्भव है कि इसका प्रभाव धीरे धीरे भारत में भी पहुँचे। मुसलमानों का शरीयत का कानून (नियम) इन्हें केवल दफन करने की आज्ञा देता है। और इसके अतिरिक्त कोई पद्धति नहीं बताई गई। अत: यह एक मज़हबी कर्तव्य और मज़हबी आज्ञा है। हम इस सम्मति के बहुत विरोधी हैं। और ऐसे कार्यों में हमें इस्लाम की अपनी मजहबी प्रथा का अधिक ध्यान रहेगा। इस्लाम जलाने को कभी उचित नहीं समझ सकता। जो पद्धति इस्लाम ने बताई है वही उचित है। यदि परमात्मा न चाहे इस सम्मति का कोई प्रभाव भारत पर भी पड़ा तो उस समय मानो सरकार भारत के एक बड़े मजह मन्तव्य में दखल देगी जो सम्भवतः मुसलमानों को बहुत ही चिढ़ाने वाली बात होगी।'' (मुसलमान ज्ञान, विज्ञान तथा बुद्धिमत्ता की प्रत्येक सीख को इस्लाम का अपमान मानकर उसके विरोध लट्ठ लेकर खड़े हो जाते हैं। ‘जिज्ञासु')
इस पर 'आर्य समाचार' के सम्पादक ने नोट दिया है कि यह समय से पूर्व का वावेला है। सरकार क्यों इस विषय में बल का प्रयोग करेगी ? जैसे शिक्षा ने योरुप वालों की आँखें खोली और इस मन्तव्य को लाभदायक समझ कर अपने यहां प्रचलित किया वैसे जब मुसलमानों में विद्या की उन्नति होगी और वह दफन करने की प्रथा को हानिकारक समझेंगे, तब उन में भी मज़हब की न चलेगी। सौ सयाने एक मत।''
(आर्य समाचार (मासिक) मेरठ अगस्त 1894 ईस्वी जिल्द 13 नं० 7 पृ० 203)
एक और इस्लामी पत्र लिखता है कि-''गत वर्ष फ्रांस में तीन सहस्र मृतक जलाए गए। इसी प्रकार इटली में मुर्दा जलाने की भट्टियां 20 के लगभग हैं।'' (पैसा अखबार लाहौर 4 जौलाई 1892 ईस्वी, पृ० 5 कालम 2)
'भारत सुधार' में लिखा है कि अमरीका में मुर्दो के जलाने की प्रथा दिन प्रतिदिन उन्नति पर है।'' (17 सितंबर 1892 ईस्वी, जिल्द 4 अंक 32)
'अख़बारे आम' में लिखा है कि ''ब्रिटिश डाक्टरों ने सम्मति दी है कि जो व्यक्ति विषूचिका से मरें उनके शव जलाये जाएं।'' (12 सितम्बर 1892 ईस्वी)
पुनः इसी पत्र में लिखा है कि ''डाक्टर बैलों भूतपूर्व कमिश्नर स्वास्थ्य रक्षक विभाग पंजाब मर गए। उनका मृतक शरीर जलाया गया।'' (12 सितम्बर 1892 ईस्वी)
*◼️दाह कर्म*
हम सब जानते हैं कि वायु हमारे जीवन के लिये कितना बड़ा आवश्यक पदार्थ है। बिना वायु के कोई जीवित नहीं रह सकता। जीवन से मृत्यु पर्यन्त हम प्रतिक्षण वायु में श्वास लेते हैं। हमारा स्वास्थ्य अधिकतर उस वायु की पवित्रता और स्वच्छता पर निर्भर है जिससे कि हम श्वास लिया करते हैं। वह लोग जो दूषित वायु में श्वास लेते हैं, जैसा कि घनी बस्तियों के लोग, ऐसे स्वस्थ नहीं होते जैसा कि वह लोग जो खुले मैदान में रहते हैं। जहां बहुत से वृक्ष लगे होते हैं और उनके चारों ओर शाकादि के खेत होते हैं। दूषित वायु के प्रभाव से, जिससे हम बड़े (जनसमूह) वाले अथवा रोग युक्त स्थान में श्वास लिया करते हैं, सर्दी-जुकाम उत्पन्न होता है। अथवा कई दिन तक स्वास्थ्य में अवनति आ जाती है। यह बात सब पर प्रकट है। जहां कहीं सड़ा हुआ पदार्थ फेंका जाता है वहां की वायु उसकी दुषित गैस से भारी हो जाती है। यदि तुम किसी बूचड़ अथवा मछली बेचने वाले की दुकान और किसी वधस्थली के समीप होकर चलो तथा किसी फूल बेचने वाले माली और उद्यान के निकट से निकलो तो तुम तुरन्त इन दोनों स्थानों के वायु-भेद को जान लोगे। कुछ स्थानों में वायु में विष ऐसे फैला हुआ होता है कि मन्द गन्धी नासिका से उसका कुछ ज्ञान नहीं होता। सूंघने की शक्ति ऐसी वायु के संयक्त होने से मन्द हो जाया करती है और शारीरिक संस्थानों पर भी उसका गहरा प्रभाव पड़ता है। स्वास्थ्य की रक्षा के लिये सबसे श्रेष्ठ उपाय यह है कि वायु के दूषित होने के कारणों को न्यून किया जाए। उन कारणों में से जो वायु को दूषित करते हैं एक मुख्य कारण शव को दबाना है। कुछ दिनों में उनसे गल सड़ कर विषैली गैस निकलती है। यह गैस पहले भूमि में प्रभाव डाल कर पुनः कबरों से बाहर निकल कर इधर उधर उड़ती हुई आसपास की वायु को भारी करती है। ऐसी बातें सुनी गई हैं कि अकस्मात् कबरों के खुलने से टाइफाइड अथवा विषुचिका फैल गया। बहुत से लोगों ने कबर के समीप एक प्रकाश देखा है जो कि फासफोर्स के अतिरिक्त और कुछ नहीं। और यह फासफोर्स लाशों के सड़ने से कबरों में से निकलता है। अत: यह वायु के भारी होने का कारण शव जलाने के द्वारा सरलता से दूर किया जा सकता है। जिससे शीघ्र ही शव की राख हो जाती है और कोई हानि नहीं पहुँचती। क्योंकि इससे शव सड़ने नहीं पाती।
वायु को स्वच्छ रखने के लिये पशुचिकित्सक विभाग ने मृत घोड़ों के शवों का जलाना स्वीकार किया है। यह पद्धति शवों को ठिकाने लगाने के लिये प्रयोग में लाई जा सकती हैं। निम्न प्रमाण से, जो कि एक प्रसिद्ध लेख से प्राप्त किया गया है, स्पष्ट प्रकट होगा कि यह प्रस्तावना है कि मृत शरीरों को जलाने का प्रचार किया जाए। तथा (एक कानूनी निर्णय 1884 ई० में हुआ था कि शव दाह उचित है। किसी प्रकार रोका नहीं जा सकता। जब तक उसका प्रभाव दूसरों के लिये हानिकारक न हो) होम सैकरेट्री के कंट्रोल में कुछ ऐसे नियम नियत किये जायें जो वह जलाने के लिए निश्चित करे। एक प्रकार का प्रमाण पत्र जो मृत्यु का कारण बताए, जलाने से पूर्व उपस्थित किया जाए। किसी अधिकारी को शव को बिना रोक टोक दिखाया जाए। इस प्रस्ताव का समर्थन निम्न हेतुओं से किया गया है ।
▪️(1) जीवितों का ध्यान रखना मृतकों से अधिक आवश्यक है। दबाने का वर्तमान नियम मनुष्य जीवन के लिये हानिकारक है। क्योंकि क़ब्रिस्तान बहुत बढ़ते हैं। उन में तथा उनके निकटस्थ क्षेत्रों में विषैली गैस प्रभाव डालती जाती है।
▪️(2) (क) कब्रिस्तानों के बनने में संकट बहुत है। तथा अधिक जनसंख्या के स्थानों की कठिनाईयां बढ़ती जा रही हैं।
(ख) बहुत से कब्रिस्तान, जो आबादी की सीमा से परे थे, अब वह घरों से घिरे हुए हैं।
▪️(3) दबाने का कोई ढंग इससे अधिक कुछ नहीं कर सकता कि वह शरीर के अवयवों की पृथकता को रोके। किसी प्रकार से दफ़नाएं, वास्तव में बात एक ही है। किन्तु जला देना वायु का शोधक है। और दफ़न करना शरीरों का सड़ाना है। अथवा यूं कहें कि एक शीघ्र जलाने वाली आग के बदले में धीरे-धीरे सड़ा गला देना है।
▪️(4) यद्यपि धनी लोग अच्छी प्रकार से दफनाए जा सकते हैं। परन्तु निर्धनों की कबरे आबाद स्थानों पर केवल गंदगी के गढ़े हैं। निर्धन लोग शीघ्र सड़ने वाले कफन में दबाए जाते हैं। जो एक दूसरे से पृथक् कठिनता से होते और लगभग समीप-समीप होते हैं। तथा बहुत ही न्यून मिट्टी में ढांपे जाते हैं जो समय से पूर्व अर्थात् मिट्टी बन जाने से पूर्व ही खोदे जाते हैं।
▪️(5) (क) यदि ठीक नियमानुसार कार्य किया जाए तो जलाना किसी प्रकार अनुचित नहीं। जलकर शरीर के श्वेत बिल्लौर जैसे खण्ड हो जाएंगे जो हानिकारक नहीं होते और चिरकाल तक रखे जा सकते हैं।
(ख) दाहकर्म बहुत बड़ी सभ्यता से हो सकता है। धार्मिक विश्वासों में भी कोई भेद नहीं पड़ता। साधारण कर्म कांड भी इस अवसर पर पूर्ण किया जा सकता है।
(ग) इससे साधारण जनता के विचारों पर कोई चोट नहीं पहुँच सकती। यदि पहले जन साधारण के छोटे और संकीर्ण विचारों पर कुछ बुरा प्रभाव पड़ेगा तो यह शीघ्र दूर हो जाएगा और जलाने के लाभ भी स्वीकार कर लिये जाएंगे।
(घ) जलाने वाली वर्तमान भट्टियों से लाभ उठाने के मार्ग में बहुत सी कठिनाइयां डाली गई हैं और जो प्रवृत्ति नियमित पद्धति और बौद्धिक उत्साह से होती है उसका अनुमान इस थोड़े से प्रयोग से, जो आज कल हो रहा है, नहीं हो सकता। (पहले होम सैकरेट्री साहब लार्डक्रास ने अपने एक भाषण में जो अप्रैल 1884 ईस्वी में हुआ था, स्वीकार
किया था कि मैं होम आफ़िस में था तो मैंने वर्किग होम की भट्टियों में जलाने में रुकावट डालने का अनुचित यत्न किया था।)
▪️(6) अपने परिवार के क़ब्रिस्तान और गांव के गिरजाघर से लोगों को बहुत प्रेम है परन्तु यह प्रेम वहां नहीं रहता जब कि मुर्दा को किसी दूर के कब्रिस्तान अथवा अपरिचितों में ले जाकर दफ़न करते हैं। जहां न कोई उसकी देख-भाल करता है और न कोई कबर का मान करता है।
▪️(7) (क) इस जलाने की प्रथा को चाहने न चाहने का सब को अधिकार है। यह आवश्यक नहीं कि किसी मनुष्य को अपनी अथवा अपने सम्बन्धियों की इच्छा के विरुद्ध जलावें। इसमें बहुत बड़ा स्वार्थ पाया जाता है कि जो लोग स्वयं अथवा अपने सम्बन्धियों के शवों को जलाने की इच्छा रखते हैं, उन्हें इस गांरटी से इनकार किया जाए, जो बुद्धि पूर्वक और उचित है।
(ख) अभिप्राय यह है कि दाहकर्म को नियम में लाया जाए। उसकी उन्नति हो और आज्ञा दी जाए। जलाने के सम्बन्ध में कोई नियम निर्धारित होना चाहिये। अभी इसकी आज्ञा तो है परन्तु इसके नियम नियत नहीं।
▪️(8)(क) दाहकर्म को उचित मान लेने से विष प्रयोग अथवा छल से वध करने के जुम की वृद्धि नहीं होगी। इसके विपरीत जो कठोर नियम प्रस्तावित किये गये हैं, उनसे दुष्टों को रोक होगी कि वह अपने मारे हुए मनुष्यों के शरीरों को न जलाने पाएंगे। क्योंकि प्रमाणपत्र तथा निरीक्षण कार्य आवश्यक होने से विष और मारपीट के रहस्य खुल जाएंगे।
(ख) अभी दबाने के सम्बन्ध में नियम ऐसे दोषयुक्त हैं कि तीस सहस्र मनुष्य विशेष कर बालक प्रतिवर्ष मृत्यु प्रमाण-पत्र के बिना दबाये जाते हैं। इससे विष प्रयोग और छल कपट द्वारा वध करने का साहस बढ़ता है।
(ग) संदिग्ध अवस्थाओं में अथवा यदि उचित प्रतीत हो तो सदैव परीक्षण के लिये अन्तड़ियों के रखे जाने में सरलता होगी।
(घ) वनस्पति सम्बन्धी तथा पाशविक विषों का जानना समस्त अवस्थाओं में अति कठिन है और धातुज विषों का विश्लेषण सरलता से होगा।
(ड) विष अग्नि में कुछ न्यून हो जाता है तो भी कीम्याई विश्लेषण के लिये उसका पर्याप्त भाग रह जाता है।
(च) गला सड़ी शरीर स्वयं कुछ विषों को उत्पन्न करता है और बहुत से विषों पर भी. अपना कीम्याई प्रभाव डालता है। क्योंकि मृत्यु के थोड़ी देर पश्चात् ही उस वास्तविक विष के कारण का फिज्यालोजी से यथार्थ ज्ञात होना कठिन हो जाता है।
▪️(9) आजकल शरीर बहुत कम कबरों से खोद कर निकाले जाते हैं।
▪️(10) सम्भव है कि कभी मुर्दा जलाने से अन्वेषण में कठिनता और धोखा हो। परन्तु यह परिणाम प्रायः वर्तमान प्रबन्ध के कारण निकलता है। (हाबिंजर आफ हैल्थ फर्वरी 1892 ईस्वी पृ० 8-10)
प्रिय पाठक वृन्द! हम आपकी सेवा में एक आवश्यक और लाभ-प्रद मन्तव्य विचार के लिये उपस्थित करते हैं। ज्ञान और बुद्धि दोनों इसके साथी हैं। समस्त विद्वान् और अन्वेषण कर्ता डाक्टर और वैद्य इसके समर्थक हैं। सभ्य संसार इसके मानने के लिये उद्यत हो रहा है। परन्तु हमारे देश के भाई अभी तक बेसुध हैं। ईश्वर करे कि ये (मुसलमान) भी इस लाभ-प्रद प्रथा की स्वीकृति में शीघ्र यत्न करके स्वास्थ्य और सुख विस्तार के समर्थक हों।
आपका शुभचिन्तक
✍🏻 लेखक- पं० लेखराम आर्यपथिक
📖 पुस्तक - पं० लेखराम ग्रन्थ-संग्रह (कुल्लियाते आर्य मुसाफ़िर)[भाग-१]
*प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’*
॥ ओ३म् ॥

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