Tuesday, June 4, 2019

प्रस्थानत्रयी और अद्वैतवाद



*🌺प्रस्थानत्रयी और अद्वैतवाद🌺*
✍🏻 लेखक- अमर स्वामी शास्त्रार्थ केसरी
*प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’*

[प्रस्थानत्रयी = (उपनिषद्, वेदान्त दर्शन और गीता)]

श्री शंकराचार्यजी महाराज का मन्तव्य यह है कि ब्रह्म सत्य है। जगत मिथ्या है और ईश्वर तथा जीव एक ही हैं भिन्न-भिन्न नहीं हैं ।

ब्रह्म सत्य है, इस विषय में हमारा श्री शंकराचार्थ्यजी से कुछ भी मतभेद नहीं है, “जगत मिथ्या है'' ऐसा कहना तो प्रत्यक्ष ही मिथ्या है। सम्मुख दीखते हुए सूर्य को कहना कि यह है नहीं। ऐसा कहनेवाले को या तो आँखों का अन्धा कहा जा सकता है या बुद्धि का अन्धा। कोई भी मनुष्य ऐसा कहनेवाले को बुद्धिमान नहीं मानेगा। तो भी इस विषय पर कभी विचार किया जायेगा। इस समय तीसरा जो विषय है ईश्वर और जीव का एक होना। इस पर भी ऐसा विचार नहीं किया जायगा कि ये दोनों एक हैं या नहीं। वैसे 🔥“जीवो ब्रह्मैव नापरः'' जीव ब्रह्म ही है दूसरा नहीं है, यह वाक्य ही स्वयं यह सन्देह उत्पन्न करता है कि यह कुछ नई रचना प्रतीत होती है नहीं तो कहनेवाले को यह कहने की आवश्यकता क्यों नहीं हुई कि- 🔥'जीवो ब्रह्मैव नापर:'। ईश्वर ब्रह्म ही है भिन्न नहीं।

स्पष्ट है कि-सारा जगत यह मानता आ रहा है कि ईश्वर और जीव दो भिन्न-भिन्न सत्ता है, इसीलिये श्री शंकराचार्यजी को यह नया वाक्य अपने नये सिद्धान्त के लिये रचना पड़ा ।

ईश्वर और जीव दो भिन्न-भिन्न सत्ता हैं या दोनों एक ही हैं, इसपर भी कभी फिर विचार करेंगे । आज तो केवल विचार इस विषय पर करना है कि ईश्वर और जीव के एक होने का सिद्धान्त जिन ग्रन्थों के नाम पर पढ़ा गया है उनमें यह है भी कि नहीं। इस सिद्धान्त का नाम अद्वैतवाद है, यह नाम ही अपनी नवीनता का नाम स्वयं द्योतक है इसमें द्वैत का निषेध करनेवालों के विरुद्ध यह नया खण्डनात्मक नाम बनाया गया है।

श्री शंकराचार्यजी ने उपनिषद्, वेदान्त-दर्शन और गीता इनपर भाष्य लिखे हैं वेदो पर नहीं, इन्हीं तीनों के नाम पर इस नवीन मन्तव्य की रचना हुई । इन तीनों के समुदाय का नाम प्रस्थानत्रयी है। आचार्य शंकर ने प्रस्थानत्रयी के अर्थों को तोड़-मरोड़कर इस नवीन मत को जन्म दिया था । मेरा यह दावा है कि अद्वैतवाद का सिद्धान्त प्रस्थानत्रयी (उपनिषद्, वेदान्त-दर्शन और गीता तीनो) में नहीं है । इसके विपरीत ईश्वर, जीव और प्रकृति तीनों के भिन्न-भिन्न अस्तित्व का वर्णन है । इस विषय पर मैं एक छोटी-सी पुस्तक लिखूगा जिसमें इन तीनों ग्रंथों में से अनेकानेक प्रमाण इस विषय पर लिखूगा । इस समय इस लेख में थोड़े से प्रमाण नमूने के रूप में लिखता हूँ ।

◼️ *उपनिषद्* - ११ उपनिषदों पर श्री शंकराचार्यजी ने भाष्य किया है उनमें अन्तिम ग्याहरवीं उपनिषद श्वेताश्वतर है उस एक में से पहिले कुछ प्रमाण देता हूँ--

🔥‘‘पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति॥''
श्वेता० अ० १ मंत्र ६
इसमें कहा है कि अपने आप को और सर्व प्रेरक परमेश्वर को पृथक-पृथक जान और मानकर मनुष्य मोक्ष को प्राप्त करता है

“पृथक् आत्मानं प्रेरितारं च मत्वा' स्पष्ट शब्द हैं आत्मा को=अपने आपको ‘‘च' और प्रेरिता=सर्वप्रेरक परमेश्वर को ‘‘मत्वा'' मानकर “अमृतत्वम् एति'' अमृतत्व=मुक्ति को ‘‘एति'' प्राप्त होता है।

🔥ज्ञाज्ञौ द्वावजावीशानीशावजा ह्येका भोक्तृ भोगार्थयुक्ता। अनन्तश्चात्मा विश्वरूपो ह्यकर्ता त्रयं यदा विन्दते ब्रह्ममेतत्॥
श्वेता० अ० १ मंत्र ९
१. ज्ञानयुक्त सर्वज्ञ है एक अल्पज्ञ है ये दो हैं, एक ईश है। सब का स्वामी है । एक अनीश अर्थात् सेवक है दोनों अजन्मा हैं । एक अजा है जो 🔥‘‘भोक्तृ भोगार्थ युक्ता'' भोगनेवाले जीवात्मा के भोग के अर्थ से युक्त है। इसमें ईश्वर, जीव, प्रकृति तीनों का स्पष्ट वर्णन है।

🔥‘‘क्षरं प्रधानं अमृताक्षरं हरः क्षरात्मानावीशते देव एकः॥''
श्वे० अ० १मं० १०
प्रकृति, जीव, परमात्मा तीन हैं। प्रकृति और आत्मा दोनों को एक देव शासन करता है।

🔥“भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा०'' श्वे० अ० १।१२
१ भोक्ता जीव, २ भोग्य प्रकृति, ३ प्रेरिता परमात्मा।

🔥अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णबह्ली: प्रजा: सृजमानां सरूपाः। अजोत्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनांभुक्तभोगामजोऽन्यः॥
श्वे० अ० ४ मंत्र ५
(लोहित शुक्ल कृष्ण) रजोगुण, सतोगुण, तमोगुण युक्त प्रकृति को अपने ही स्वरूपवाली प्रजा उत्पन्न करनेवाली को जीवात्मा भोगता है और उसमें हीं शयन करता है। परमेश्वर जीव से भोगी हुई को त्यागे रहता है। इसमें भी तीनों कहे हैं।

◼️ *अब वेदान्त दर्शन देखिये*
🔥गुहां प्रविष्टावात्मानौहितद्दर्शनात्। वेदान्त० १।२।१९
हृदय गुहा में दो आत्मा प्रविष्ट हैं, जीवात्मा और परमात्मा। यहां दोनों पृथक्- पृथक् कहे हैं।

◼️ *गीता*
🔥प्रकृति पुरुषं चैव विद्धयनादीउभावपि॥
गीता० १३।१९
प्रकृति और पुरुष इन दोनों को अनादि जान।

यहां प्रकृति और पुरुष दोनों को अनादि कहा, तो जगत मिथ्या न हुआ, क्योकि जगत का कारण प्रकृति अनादि है। पुरुष से अभिप्राय जीव और परमात्मा दोनो है। गीता में पुरुष शब्द का प्रयोग प्रकृति, जीव और परमेश्वर तीनों के लिये हुआ है और तीनों को भिन्न-भिन्न बताया गया है। यथा-गीता अ० १५ श्लोक १६-१७।

🔥द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षाराश्चाक्षर एव च।
क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥
🔥उत्तमः पुरुषस्त्वन्य:परमात्मेति उदाहृतः।
यो लोक त्रयमाविश्य विभर्त्यव्यय ईश्वरः॥
इस लोक में दो तो क्षर और अक्षर पुरुष हैं क्षर तो पंचभूत (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथिवी ) अक्षर जीवात्मा है। उत्तम पुरुष जो परमात्मा कहा जाता है वह इन दोनों से अन्य है, तीनों लोकों में व्यापक अविनाशी है और सब का भरण-पोषण करता है। यहां तीनों का पृथक्-पृथक् स्पष्ट वर्णन है। जीवात्मा और परमात्मा दोनों चेतनत्व के कारण एक जाति हैं। अतः दोनों का आत्मा या पुरुष इस एक वचन में भी वर्णन होता है। जीवात्मा असंख्य हैं पर उनकी एक जाति होने से एक वचन में भी वर्णन किया जाता है । यथा-जीवात्मा बहुत हैं -

🔥शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्यपुत्राः। श्वेता० २।५
अमृत=अजर अमर परमेश्वर के सारे पुत्र सुनें। यहां जीवों के लिये बहुवचन का प्रयोग है।

🔥एतद्वितद्विदुरमृतास्ते भवन्ति। श्वे० ३।१
जो इस परमेश्वर को जानते हैं वे अमर हो जाते हैं। स्पष्ट है कि जीवात्मा बहुत हैं।

🔥ईशं तं ज्ञात्वाऽमृता भवन्ति॥ श्वे० ३।७
उस ईश्वर को जानकर वे अमर हो जाते हैं। तीनों प्रमाणों में स्पष्ट है कि जीव बहुत हैं।

*एकवचन में वर्णन* -

🔥नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:॥ गीता २।२३
न इस (जीव) को शस्त्र काटते हैं न इसको सुखाता है। गीता २।२२-२४ भी इसके प्रमाण हैं।

इस छोटे से लेख में थोड़े से प्रमाणों से भलीभांति स्पष्ट और सिद्ध हो गया है कि प्रस्थानत्रयी (उपनिषद्, वेदान्त दर्शन और गीता) में अद्वैतवाद नहीं है। प्रत्युत स्पष्ट रूप में ईश्वर और जीव दो भिन्न भिन्न सत्ता बताई गई हैं एवं प्रकृति तीसरी पृथक सत्ता कही गई है। इसी प्रकार वेदों में भी अद्वैतवाद (ईश्वर और जीव की एकता) नहीं है। पाठक पढ़े और विचार करें।

✍🏻 लेखक- अमर स्वामी शास्त्रार्थ केसरी (पूर्व नाम - ठाकुर अमर सिंह आर्यपथिक)
*प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’*

॥ ओ३म् ॥

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