Thursday, June 20, 2019

वेद, वैदिक और भारतीय ज्योतिष साहित्य में पृथ्वी




वेद, वैदिक और भारतीय ज्योतिष साहित्य में पृथ्वी

-डॉ० ब्रजमोहन जावलिया

प्रस्तुत लेख में ब्रह्माण्ड में अनेक पृथिवियों, पृथ्वी के गोल होने, पृथ्वी की गति, ऊपरी आवरण और गर्भ, आकर्षण-शक्ति, मूल तथा पृथ्वी पर समुद्र और हिन्दुओं के विभिन्न ग्रन्थों (शास्त्रों) में वर्णित वनस्पति के विषय में लेखन का प्रयास किया गया है।

अथर्ववेद (८/९/१) में 'कतमस्या पृथिव्या:' में हमें इस विराट नभोमण्डल में उक्त छन्दांश से ज्ञात होता है कि ब्रह्माण्ड में अनेक पृथ्वीलोक हैं। साथ ही यह भी कहा गया है कि 'कालोऽमूंदिवमजनयत्काल इमा: पृथिवीरुत' और काल ने इस ब्रह्माण्ड के सूर्य और टिमटिमाते तारों के विधान ने इन्हें जन्म दिया है। यहां यह स्पष्ट है कि इस ब्रह्माण्ड में अनेक पृथ्वीलोक हैं। अथर्ववेद (२०/८१/१ तथा १३/२०) में तथा ऋग्वेद (८/७०/५) में यही तथ्य दुहराया गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि जिस पृथ्वी पर हम निवास कर रहे हैं वही नहीं इस नभमण्डल में ऐसी अनेक पृथिवियां हैं।

पृथ्वी गोल है-
दूसरी जानकारी जो हमें मिलती है वह है कि पृथ्वी गोलाकार है। हमें जो सूर्य, ग्रह, नक्षत्र इस नभमण्डल में दिखाई दे रहे हैं वे सभी गोल आकृति के हैं- अतः यह पृथ्वी जिस पर हम रह रहे हैं, भी गोलाकर ही होनी चाहिए। आर्य मनीषियों ने इस तथ्य को बहुत पहले ही जान लिया था अतः ज्योतिष विज्ञान के ग्रन्थ पंच सिद्धान्तिका में इस रहस्य का लेखन बहुत पहले ही कर लिया था। पंच सिद्धान्तिका में कहा गया है कि-

पञ्च महाभूत मयस्तारागण: पञ्जरे महीगोल:।
खऽयस्कान्त: स्थोलोह इवास्थितो वृत।। -त्रैलोक्य सिद्धान्त १३/१
पृथ्वी का यह गोलक, शून्य, वायु, जल और पृथ्वी इन पांचों तत्वों से निर्मित है। इन तत्वों से निर्मित यह गोलक लोह सन्दूक के समान चारों ओर से चुम्बक के समान बना है। अतः भारतीय मनीषियों ने यह ज्ञान अर्जित कर लिया था कि सभी ग्रह गोलकों के आधार पर यह ब्रह्माण्ड भी गोलाकार है। यह ब्रह्माण्ड दो अर्ध गोलकों में विभाजित है। कोलम्बस की यात्रा के उपरान्त ही यूरोपीय विद्वान् इस तथ्य से परिचित हो सके थे।

ऋग्वेद (१/९२/१) में कहा गया है कि यह पृथ्वी गोल है-
'एता उ त्या उषस: केतुमक्रत पूर्वे ... भानुमंजते' अर्थात् जो उषायें (या उषा रश्मियां) अरुण वर्ण (लाल रंग) के प्रकाश का क्षेपण करती हैं, तब ये पृथ्वी के पूर्वी आधे भाग और ग्रहों का निर्माण करती हैं। प्रकाश शब्द से यहां दिन के प्रकाश से अर्थ है। ऐसा तभी सम्भव होता है जब पृथ्वी गोल हो। वेद में यहां स्पष्ट रूप से पृथ्वी की आकृति गोल कही है। आर्य भट्ट नाम के ज्योतिषी ने भी उपर्युक्त कथन की शिक्षा दी है।
उसने अपने ग्रन्थ में कहा है-

भूग्रहमाना गोलार्धानि स्वछाययानि वर्णानि।
अर्धानि यथा सारं सूर्याभिमुखानि दीव्यते।। -आर्यभट्ट ४/५
यह पृथ्वी गोल है अतः प्रत्येक मनुष्य स्वयं यह सोचता है कि वह स्वयं ऊपर की ओर है और पृथ्वी के दूसरी ओर का भाग मानो उसके अधीन है। वास्तविकता यह है कि पृथ्वी गोल होने से उसमें न तो कोई ऊपर है और न नीचे ही। पृथ्वी का व्यापन (व्यास) सूर्य सिद्धान्त के अनुसार १६०० योजन है जो एक योजन चार कोशों के हिसाब से ६४०० कोश होता है। एक कोश सवा मील का होने से पृथ्वी का कुल व्यास ८००० मील होता है।
पृथ्वी का व्यास ८००० मील होने से और इसकी परिधि २५०० मील होने से विद्यमानता दृढ़ होनी चाहिए कि क्या है वह जो हम सोचते हैं? पृथ्वी अपनी धुरी पर (कीली पर) चक्कर लगाती है यह सही है पर इसके लिए कुछ अवरोध है या आधार है जो इसको दूर नहीं जाने देता। इस विषय में वेद के मन्त्र में हमें इसके आधार के विषय में जानकारी देते हैं। यथा-
आधारयत्पृथिवीं विश्वधायसमस्तभ्नान्मायया द्यामवस्त्रस:।। -ऋग्वेद २/१७/५
अर्थात् सूर्य पृथ्वी को नियन्त्रित रखता है। इन्द्र (सूर्य) ने पृथ्वी को पकड़ रखा है जो समस्त संसार (निर्माण) को संलग्न ब्रह्माण्ड के साथ विराम देता है। अथर्ववेद भी यही कहता है कि समस्त विश्व (पृथ्वी सहित) सूर्य (अनड्वान) पर आश्रित है। सूर्य समस्त सृष्टि और आकाशीय दिशा में सूर्य के द्वारा संयोजित (संचालित) है।

दाधर्थ पृथिवीमभितो मयूखै:। -ऋग्वेद ७/९९/३, यजुर्वेद ५/१६
ऋग्वेद आगे और कहता है कि-
'सविता यन्त्रै: पृथिवीमरम्णादस्कम्भने। -ऋग्वेद १०/१४९/१
अर्थात् सूर्य ने इस पृथ्वी को अपनी रश्मियों से नभ में बिना किसी की सहायता के पकड़ रखा है। इसकी परिधि ने इस पृथ्वी को गोल (या नभ) में लटका रखा है।

पृथ्वी का परिभ्रमण-
सभी ग्रहों का घूर्णन नहीं होते हुए भी वे चक्कर लगाते हैं। ये सभी आकाशीय पिण्डों के तीन केन्द्र हैं। अतः प्रत्येक गोलक के तीन तरह का घूर्णन होता है।
(प्रधयश्च क्रमेकं त्रीणि नभ्यानि) वे केन्द्र हैं।
१. पदार्थ (धातु) केन्द्रों पर पश्चिम से पूर्व की ओर
२. सूर्य के चारों ओर
३. इसके ध्रुव के साथ केन्द्र के रूप में भ्रमण करता है।
अक्ष गति या अक्ष चलन में तीन प्रकार के घूर्णन को हम सुगमता से नभ में ग्रह नक्षत्रों को देख सकते हैं पर हम यह नहीं देख सकते कि हमारे निवास स्थान युक्त यह पृथ्वी घूम रही है फिर भी यह पृथ्वी भी घूर्णाती (चक्कर लगाती) है।
यह पृथ्वी अपनी धुरी पर प्रतिदिन घूमती रहती है।
येषाम न्येषु पृथ्वी जुजर्वां इव विश्पति भिया यामेषु रेजते।
यह पृथ्वी गैसों, और तूफानों में आठों प्रहर किसी बूढ़े आदमी की तरह अपने पुत्रों और पौत्रों के साथ समान रूप से कमर झुकाये औए कांपते पांवों से अपने चारों ओर अपने ही मार्ग पर घूमती है। इन मन्त्र में यह स्पष्ट होता है कि पृथ्वी भ्रमण करती है। वेद में इसके लिए 'रेजते' शब्द प्रयुक्त हुआ है। इसके साथ तीन और भी महत्वपूर्ण बातें कही गई हैं-
पृथ्वी गैसों (तूफानों) के द्वारा भ्रमण करती है। जिस तरह कोई वस्तु पानी में तैरती है और उसी समय पानी का बहाव और उस बहती हुई वस्तु का बहाव एकसा होता है। यही कारण है कि दिनभर घूम-फिर कर रात को पक्षी अपने घोसलों में बिना किसी परेशानी के आ जाते हैं।

ये गैसें मारुत कही गई हैं। ये सात परतों में होती हैं जिनमें प्रत्येक में सात मारुत (गैसें) होती हैं। सब मिलाकर उनचास मारुत होते हैं। एक मारुत सात कोशों तक के वातावरण में फैला होता है। इस प्रकार पृथ्वी के चारों ओर सात गण उनचास (४९) योजन में होते हैं। इस प्रकार इस पृथ्वी की आकर्षण शक्ति २३९ मील तक उसके वातावरण में प्रभावित होती है। इस प्रकार प्रत्येक मारुत के आकर्षण का अपना प्रभाव एक योजन (५ मील) तक होता है। यही कारण है कि कोई भी पर्वत पांच मील से ऊंचा नहीं हो सकता है।
दूसरी बात जो कही गई है वह है पृथ्वी किसी बूढ़े आदमी के समान अपने पुत्र और पौत्रों के साथ कांपते हुए चलती है। अर्थात् वह सीधे मार्ग पर भ्रमण नहीं करती। यदि वह सीधे मार्ग पर भ्रमण करती होती तो बिना किसी लड़खड़ाहट के पृथ्वी पर रात और दिन का समय बराबर होता।
तीसरी बात यह है कि यह पृथ्वी याम या प्रहरों में भ्रमण करती है। दिन और रात में आठ याम या प्रहर होते हैं। अतः पृथ्वी अपनी कीली पर २३ घण्टे ५६ मिनट और ४ सेकण्ड में भ्रमण करती है। इसके प्रतिदिन के भ्रमण बराबर होते हैं।
अहोरात्रे पृथिवी नो दुहाताम्। -अथर्ववेद १२/२/३६
वायु की गैसों का प्रवाह पृथ्वी को भ्रमण कराता है। यह स्पष्टतः वात सूत्र और सूर्य सिद्धान्त के परिधि मण्डन को वर्णित करता है। वहां वायु का प्रवाह और रश्मियों का विवरण भ्रमण के कारण और सभी ग्रहों के भ्रमण में वर्णित किया गया है।
पृथ्वी अपनी धुरी पर भ्रमण करती है। आर्यभट्ट कहते हैं कि जिस प्रकार नाव में सवारी करते व्यक्ति वृक्षों और अन्य वस्तुओं को, जो नदी के किनारे पर स्थित होते हैं को दूसरी ओर विपरीत दिशा में चलते हुए देखते हैं उसी प्रकार भ्रमण करती हुई पृथ्वी पर रहते हुए व्यक्ति स्थित नक्षत्रों को ऐसे देखते हैं जैसे वे पश्चिम की ओर दौड़ रहे हैं।
जैसाकि कहा गया है कि सूर्यदेव पृथ्वी की पूर्व दिशा का कारण है, यह भी दिखाता है कि पृथ्वी अपनी धुरी पर पूर्व की ओर भ्रमण करती है।

पृथ्वी का सूर्य के साथ अपने केन्द्र के समान भ्रमण करना-
अथर्ववेद ३/८/१ के अनुसार सूर्य पृथ्वी को विस्तर के समान समेट कर भ्रमण कर रहा है और अपनी रश्मियों से उन्हें आने वाली विभिन्न ऋतुओं को प्रदान करता है। यहां यह स्पष्ट है कि सूर्य अपनी रश्मियों के साथ पृथ्वी को भ्रमण कराता है और इसे ऋतुओं के साथ कर देता है यह पृथ्वी का वार्षिक परिभ्रमण ऋतुओं के परिभ्रमण के कारण है।

अथर्ववेद में कहा गया है कि ग्रीष्मऋतु आदि पृथ्वी की ऋतु से वार्षिक भ्रमण के कारण होती हैं।
पृथ्वी के तीसरे प्रकार का भ्रमण उसके ध्रुव के धुरी के केन्द्र के साथ होता है। यह २५९२० वर्ष पूर्ण भ्रमण कर लेता है। विष्णु चन्द्र कहते हैं कि वह २१००० वर्षों से अधिक समय लेता है।

पृथ्वी का आवरण और पृथ्वी-
वेद के अनुसार उसके विभाग, वस्तुएं, परतें आदि महाद्वीप, परते आदि होते हैं। अथर्ववेद (१२/१/११) में कहा है-
पृथ्वी वभ्रू (भूरे) रंग की, गहन (काले) रंग की, आरक्त (लाल) रंग की है और ये सभी रंग चमकीले श्वेत रंग के होते हैं ये सभी चार रंगों के अतिरिक्त, अधिक भी पृथ्वी के प्रायः सभी भागों में पाए जाते हैं। वेद में इसी कारण कहा गया है कि पृथ्वी अनेक आकृतियों वाली है। अथर्ववेद १२/१/२ के अनुसार यह 'भूरिवर्णस्' अर्थात् यह पृथ्वी अनेक रंगों वाली है।
अथर्ववेद १२/१/२ के अनुसार यह पृथ्वी सपाट न होकर ऊंची, ऊंडी (गहरी) या अधिक सपाट है। यह बताता है कि पृथ्वी का आवरण सपाट (समतल) नहीं है पर इसके ऊंचे और नीचे भाग भी होते हैं अधिकांशत: यह समतल है। इसका उच्चतम भाग पहाड़ की चोटियों और निम्नतम भाग समुद्र तल भाग है। उनके बीच में यह समतल होती है।
इसकी समतलीय भूमि तीन तरह की होती है। वे हैं-

गिरयस्ते पर्वता हिमवन्तोऽरण्यं ते पृथिवी स्योनमस्तु। -अथर्व० १२/१/११
पठार, पहाड़ियों और बर्फ से आवृत्त पर्वत। निम्नस्थ पृथिवियों, झीलें, ताल और समुद्र हैं।

भूप्रदेश विभाग-
तीन परतों वाली भूमि स्वाभाविक रूप से छः प्रकार की जानी जाती है।
ऋग्वेद ७/८७/५ में कहा है- तिस्रो ... भमीरूपरा षड्विधाना।
वेद में पृथ्वी के छह महाद्वीपों की ओर संकेत किया गया है। ये छहों महाद्वीप सात महाद्वीपों की ओर संकेत करते हैं। ये ही छह महाद्वीप महाभाष्य व्याकरण १/११/११ में सात सात महाप्रदेश (द्वीपों) हैं। ये हैं १. जम्बू २. प्लक्ष ३. शाल्मल ४. कुश ५. क्रौंच ६. शोक और सातवां पुष्कर।

अथर्ववेद १२/१/४४ में कहा गया है कि भूमि की अपनी गुहों (गर्भों) में अनेक प्रकार के कोष निहित हैं ये मुझको स्वर्णादि बहुमूल्य धन दे।
तीसरे प्रकार की चट्टानों से सम्बन्धित गंधक, और अन्य पांच वस्तुएं निहित रहती हैं। अद्भुत ब्रह्माण्ड में कहा गया है कि-
पृथ्वी तटति, स्फुटती, कूजती, कम्पति।
ज्वलति, रुदति धूमायति।।
अर्थात् इस पृथ्वी में सात विकार होते हैं वे चट्टानी भागों में उत्पन्न होते हैं। ये सात विकार हैं-
तटति- अर्थात् पृथ्वी की परतें सात परतों या श्रेणियों में बदल कर ऊपर की ओर उठती हैं।
स्फुटति- पृथ्वी की परतों में स्फोटन होता है।
कूजति- यह पृथ्वी हर समय कुछ गर्जना करती रहती है।
कम्पति- यह पृथ्वी कांपती (कम्पन करती) रहती है।
रुदति- यह तरल पदार्थों (पेट्रोल, गैस आदि) को अपने से बाहर क्षेपण करती हुई रुदन करती है।
धूमायति- यह पृथ्वी गहरे काले धुएं और अन्य गैसों को अपने से दूर फेंकती है।

उपर्युक्त कारणों से पृथ्वी की तीन परतों में अनेक प्रकार के परिवर्तन हो जाते हैं। इन तीन परतों का ज्ञान सहज ही में हो जाता है। पर ये तीन परतें पृथ्वी में नहीं हैं। भू तांत्रिक (भूगर्भ विद्या विशारद) इन परतों को नहीं समझ सके हैं। पृथ्वी के अन्दर के भागों से उष्ण (गर्म) भाप से आग्न्यांतक लहर इन सात परतों में होकर निकलती है। अग्नि का प्रवाह (धारा) पृथ्वी की भीतर के निम्न भाग में इन सात धाराओं में गुजरती हुई बाहर निकलती है। यही बात ऋग्वेद के निम्न मन्त्र में कही गई है-
अतो देवा अवन्तु नो यतो विष्णुर्विचक्रमे।
पृथिव्या: सप्त धामभि:।। -ऋग्वेद १/२२/१६
भौतिक तत्त्व जो पृथ्वी के प्रमुख भीतरी भागों में हैं- वे सात परतों के द्वारा जो पृथ्वी के प्रत्येक भागों में विस्फोट करती है भगवान! ये वैज्ञानिक हमारी उस विशेष भाग से रक्षा करें।
यहां दर्शाया गया है कि पृथ्वी का लावा तरल पदार्थ पृथ्वी की उन सात परतों में से होता हुआ निकलता है और यह कतिपय दुर्घटनाओं को जन्म देता है। उस दुर्घटना के कारण पर्वतों की चोटियां गिरती हैं, झीलें, समुद्र और पृथ्वी पर कतिपय पठारों का जन्म होता है। कहा गया है कि पृथ्वी की ये सात परतें पृथ्वी में स्थित हैं।

[स्त्रोत- सत्यार्थ सौरभ मासिक जून २०१९ का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]

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