मुहम्मद अली जिन्ना , सर सैयद खान और एमयू
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आप सभी मे से बहोत कम लोगो को ही शायद यह पता होगा कि पाकिस्तान में जिन्ना , इकबाल और सर सैय्यद अहमद खान तीनों व्यक्ति ‘पाकिस्तान के जनक’ के रूप में माने जाते हैं।
वहां के स्कूली पाठ्यक्रमों में तीनों हिंदू-मुस्लिम अलगाववाद पर बल देने और पाकिस्तान निर्माण के लिए आवश्यक विभाजनकारी मानसिकता को प्रोत्साहन देने वाले नेताओं के रूप में वर्णित हैं।
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आप सभी मे से बहोत कम लोगो को ही शायद यह पता होगा कि पाकिस्तान में जिन्ना , इकबाल और सर सैय्यद अहमद खान तीनों व्यक्ति ‘पाकिस्तान के जनक’ के रूप में माने जाते हैं।
वहां के स्कूली पाठ्यक्रमों में तीनों हिंदू-मुस्लिम अलगाववाद पर बल देने और पाकिस्तान निर्माण के लिए आवश्यक विभाजनकारी मानसिकता को प्रोत्साहन देने वाले नेताओं के रूप में वर्णित हैं।
जिन्ना और इकबाल प्रारंभ में जहां स्वतंत्रता के आंदोलन से जुड़े और बाद में औपनिवेशिक प्रपंच का महत्वपूर्ण हिस्सा बने वहीं सैयद अहमद खान ने 19वीं शताब्दी के मध्य के बाद भारत में ‘दो राष्ट्र’ के सिद्धांत का समर्थन किया था ।
पाकिस्तान ने अपनी अलग पहचान को रेखांकित करने के लिए गांधीजी, नेताजी बोस या फिर भगत सिंह के सम्मान में अपने किसी भी सार्वजनिक भवन, संस्था या फिर सड़क का नाम नहीं रखा है।
वहां सैयद अहमद खान के नाम पर कई संस्थान और भवन हैं जिनमें कराची का सर सैयद अहमद इंजीनियरिंग प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, सर सैयद सरकारी कॉलेज और रावलपिंडी स्थित प्रख्यात एफजी सर सैयद अहमद कॉलेज आदि शामिल हैं।
सर सैयद अहमद की 200वीं जयंती पर पाकिस्तान ने उनकी स्मृति में डाक टिकट भी जारी किया और आज भारत में उनकी विरासत को राष्ट्रवाद का प्रतीक बताया जा रहा है। सैयद अहमद खान के भ्रामक और मिथकीय महिमामंडन की पृष्ठभूमि में सत्य की खोज आवश्यक है।
17 अक्टूबर, 1817 को जन्मे सैयद अहमद खान 1838 में ईस्ट इंडिया कंपनी से जुड़े। अंग्रेजो का विश्वास जीतकर वह 1867 में एक न्यायालय के न्यायाधीश भी बने और 1876 में सेवानिवृत्त हुए। अप्रैल 1869 में सैयद अहमद खान अपने बेटे के साथ इंग्लैंड गए, जहां छह अगस्त को उन्हें ‘ऑर्डर ऑफ द स्टार ऑफ इंडिया’ से सम्मानित किया गया। 1887 में उन्हें लॉर्ड डफरिन द्वारा सिविल सेवा आयोग के सदस्य के रूप में भी नामित किया गया। इसके अगले वर्ष उन्होंने अंग्रेजो के साथ राजनीतिक सहयोग को बढ़ावा देने और अंग्रेजी शासन में मुस्लिम भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए अलीगढ़ में ‘संयुक्त देशभक्त संघ’ की स्थापना की। खान बहादुर के नाम से प्रख्यात सैयद अहमद की वफादारी से खुश होकर ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें वर्ष 1898 में नाइट की उपाधि भी दी।
वर्ष 1885 में जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के साथ देश में पूर्ण स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक व्यवस्था की मांग उठनी शुरू हुई तब उन्होंने हिंदू बनाम मुस्लिम, हिंदी बनाम उर्दू, संस्कृत बनाम फारसी का मुद्दा उठाकर मुसलमानों की मजहबी भावनाओं का दोहन किया। उन्होंने यह विचार स्थापित किया कि मुसलमान का दैवीय कर्तव्य है कि वे कांग्रेस से दूर रहें। अपने इस अभियान में वह काफी हद तक सफल भी हुए।
ऐसा अनुमान है कि उस कालखंड में देश के बहुत कम मुस्लिम ही गांधीजी के अखंड भारत के सिद्धांत के साथ खड़े रहे। शेष मुस्लिम समाज की सहानुभूति पाकिस्तान के साथ थी। यह ठीक है कि उनमें से अधिकांश भारत में ही रह गए।
16 मार्च, 1888 को मेरठ में दिए सैयद अहमद खान के भाषण ने भारत में मजहब आधारित विभाजन के वैचारिक दर्शन का शिलान्यास कर दिया।
उनके अनुसार,
‘सोचिए यदि अंग्रेज भारत में नहीं हों तो कौन शासक होगा? क्या दो राष्ट्र-हिंदू और मुसलमान एक ही सिंहासन पर बराबर के अधिकार से बैठ सकेंगे? निश्चित रूप से नहीं। आवश्यक है कि उनमें से एक-दूसरे को पराजित करें। जब तक एक कौम दूसरे को जीत न ले तब तक देश में कभी शांति स्थापित नहीं हो सकती। मुस्लिम आबादी हिंदुओं से कम हैं और अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त मुस्लिम तो और भी कम, किंतु उन्हें कमजोर नहीं समझा जाए। वे अपने दम पर मुकाम पाने में सक्षम हैं। ’
16 मार्च, 1888 को मेरठ में दिए सैयद अहमद खान के भाषण ने भारत में मजहब आधारित विभाजन के वैचारिक दर्शन का शिलान्यास कर दिया।
उनके अनुसार,
‘सोचिए यदि अंग्रेज भारत में नहीं हों तो कौन शासक होगा? क्या दो राष्ट्र-हिंदू और मुसलमान एक ही सिंहासन पर बराबर के अधिकार से बैठ सकेंगे? निश्चित रूप से नहीं। आवश्यक है कि उनमें से एक-दूसरे को पराजित करें। जब तक एक कौम दूसरे को जीत न ले तब तक देश में कभी शांति स्थापित नहीं हो सकती। मुस्लिम आबादी हिंदुओं से कम हैं और अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त मुस्लिम तो और भी कम, किंतु उन्हें कमजोर नहीं समझा जाए। वे अपने दम पर मुकाम पाने में सक्षम हैं। ’
सैयद अहमद के अनुसार, ‘सात सौ वर्षों तक हमने जिन पर शासन किया, उनके अधीन रहना हमें अस्वीकार्य है। अल्लाह ने कहा है कि मुसलमानों का सच्चा मित्र केवल ईसाई ही हो सकता है, अन्य समुदाय के लोगों से दोस्ती संभव नहीं है। हमें ऐसी व्यवस्था को अपनाना चाहिए जिससे वे हमेशा के लिए भारत में राज कर सकें और सत्ता कभी भी ‘बंगालियों’ के हाथों में न जाए।’ वह कांग्रेसियों को अक्सर ‘बंगाली’ कहकर संबोधित करते थे, क्योंकि उस समय कोंग्रेसी नेतृत्व के बड़े हिस्से पर बंगाली काबिज थे।
अपने एजेंडे के तहत सर सैयद अहमद खान ने 1875 में एक शैक्षणिक संस्था की शुरुआत की जो बाद में मुस्लिम एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज और अंतत: वर्ष 1920 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय यानी एएमयू के रूप में स्थापित हुआ। यह एक तथ्य है कि मोहम्मद अली जिन्ना ने वर्ष 1941 में इस विश्वविद्यालय को ‘पाकिस्तान की आयुधशाला’ की संज्ञा दी थी।
इसी तरह 31 अगस्त, 1941 को एएमयू छात्रों को संबोधित करते हुए मुस्लिम लीग के नेता लियाकत अली खान ने कहा था,
‘हम मुस्लिम राष्ट्र की स्वतंत्रता की लड़ाई जीतने के लिए आपको उपयोगी गोला-बारूद के रूप में देख रहे हैं।’
बाद में लियाकत अली खान पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री बने थे।
वर्ष 1954 में आगा खान ने अलीगढ़ के छात्रों के लिए कहा था,
‘सभ्यता के इतिहास में विश्वविद्यालय देश के बौद्धिक और आध्यात्मिक जागरण में मुख्य भूमिका निभाते हैं। हम यह गौरव के साथ दावा कर सकते हैं कि संप्रभु पाकिस्तान का जन्म अलीगढ़ के मुस्लिम विश्वविद्यालय में हुआ।
सैयद अहमद खान मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा का प्रसार इसलिए चाहते थे ताकि मुस्लिम समाज औपनिवेशिक साम्राज्य की बेहतर तरीके से खिदमत कर सके और अंग्रेजो के साथ मिलकर हिंदुओं के खिलाफ एक संयुक्त मोर्चा बनाए।
सैयद अहमद खान मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा का प्रसार इसलिए चाहते थे ताकि मुस्लिम समाज औपनिवेशिक साम्राज्य की बेहतर तरीके से खिदमत कर सके और अंग्रेजो के साथ मिलकर हिंदुओं के खिलाफ एक संयुक्त मोर्चा बनाए।
सर सैयद के समय से लेकर जिन्ना के समय तक मुसलमान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को हिंदू पार्टी कहकर आलोचना करते रहे। क्रांग्रेस ने मुसलमानों की आम भागीदारी अल्प रही। 1946 का अंतरिम चुनाव ने मुस्लिम मतदाताओं का मुस्लिम लीग के प्रति भारी समर्थन दर्शाया। मुस्लिम लीग साधारणत: अग्रेजों का वफादार रहा। फिर भी क्या कारण है कि मुस्लिम लीग स्वतंत्र भारत में कई दशकों तक यह मुसलमानों का सर्वाधिक प्रिय पार्टी बनी रही। यह बात तय हैं कि स्वतंत्रता-सह-बंटवारा की सुबह मुसलमान हिंदुओं के प्रति कोई विशेष प्रेम विकसित नहीं कर पाए। कांग्रेस शासन के दौरान अनेक बड़े दंगे भारत को अपने चपेट में लेता रहा। इस विरोधाभास का उत्तर तब मिलता है, जब हम सुविधा के गठजोड़ की तरफ देखें।
एक तथ्य यह भी है कि अल्पसंख्यक दर्जा के बिना ही यूनिवर्सिटी के 90 प्रतिशत छात्र और शिक्षक मुस्लिम हैं।
एक तथ्य यह भी है कि अल्पसंख्यक दर्जा के बिना ही यूनिवर्सिटी के 90 प्रतिशत छात्र और शिक्षक मुस्लिम हैं।
फखरूद्दीन अली अहमद के जीवनीकार रहमानी बंटबारे में अलीगढ़ की भूमिका के बारे में कहते हैं, ‘… 1940 के बाद मुस्लिम लीग ने अपने राजनैतिक सिध्दांतों के प्रसार के लिए इस यूनिवर्सिटी को एक सुविधाजनक और उपयोगी मीडिया के रूप में इस्तेमाल किया और द्विराष्ट्र सिध्दांत का जहरीली बीज बोया।… यूनिवर्सिटी के अध्यापक व छात्र सारे देश में फैल गए और मुसलमानों को यह समझाने की कोशिश की कि पाकिस्तान बनने का उद्देश्य क्या है और उससे फायदे क्या हैं।
अक्टूबर 1947 में ऐसा पाया गया कि पाकिस्तानी सरकार ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से अपनी सेना के लिए अफसरों की नियुक्ति की। उस समय उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत को यूनिवर्सिटी के उप-कुलपति को आदेश देना पड़ा कि कोई पाकिस्तानी अफसर यूनिवर्सिटी न आने पाए। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संदिग्ध इतिहास के बावजूद सेक्युलर गुट कानून बनवाने में व्यस्त हैं कि मुस्लिम यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाए।
अक्टूबर 1947 में ऐसा पाया गया कि पाकिस्तानी सरकार ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से अपनी सेना के लिए अफसरों की नियुक्ति की। उस समय उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत को यूनिवर्सिटी के उप-कुलपति को आदेश देना पड़ा कि कोई पाकिस्तानी अफसर यूनिवर्सिटी न आने पाए। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संदिग्ध इतिहास के बावजूद सेक्युलर गुट कानून बनवाने में व्यस्त हैं कि मुस्लिम यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाए।
आगा खां ने 1954 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्रों को निम्न शब्दों में भेंट दी:
‘प्राय: विश्वविद्यालय ने राष्ट्र के बौध्दिक व आध्यात्मिक पुनर्जागरण के लिए पृष्ठभूमि तैयार की है।…अलीगढ़ भी इससे भिन्न नहीं है। लेकिन हम गर्व के साथ दावा कर सकते हैं कि यह हमारे प्रयासों का फल है न कि किसी बाहरी उदारता का। निश्चित तौर यह माना जा सकता है कि स्वतंत्र, सार्वभौम पाकिस्तान का जन्म अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में ही हुआ था।’
‘प्राय: विश्वविद्यालय ने राष्ट्र के बौध्दिक व आध्यात्मिक पुनर्जागरण के लिए पृष्ठभूमि तैयार की है।…अलीगढ़ भी इससे भिन्न नहीं है। लेकिन हम गर्व के साथ दावा कर सकते हैं कि यह हमारे प्रयासों का फल है न कि किसी बाहरी उदारता का। निश्चित तौर यह माना जा सकता है कि स्वतंत्र, सार्वभौम पाकिस्तान का जन्म अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में ही हुआ था।’
मार्च 16, 1888 को मेरठ में दिए गए सर सैयद अहमद के भाषण का संक्षिप्त उल्लेख जरूरी है:
क्या इन परिस्थितियों में संभव है कि दो राष्ट्र-मुसलमान व हिंदू-एक ही गद्दी पर एक साथ बैठे और उनकी शक्तियां बराबर हों। ज्यादातर ऐसा नहीं। ऐसा होगा कि एक विजेता बन जाएगा और दूसरा नीचे फेंक दिया जाएगा। ऐसी उम्मीद रखना कि दोनों बराबर होंगे, असंभव और समझ से परे है। साथ ही इस बात को भी याद रखना चाहिए कि हिंदुओं की तुलना में मुसलमानों की संख्या कम है। हालांकि उनमें से काफी कम लोग उच्च अंग्रेजी शिक्षा हासिल किए हुए हैं, लेकिन उन्हें कमजोर व महत्वहीन नहीं समझना चाहिए। संभवत: वे अपने हालात स्वयं संभाल लेंगे। यदि नहीं, तो हमारे मुसलमान भाई, पठान, पहाड़ों से असंख्य संख्या में टूट पड़ेंगे और उत्तरी सीमा-प्रांत से बंगाल के आखिरी छोर तक खून की नदी बहा देंगे। अंग्रेजों के जाने के बाद कौन विजेता होगा, यह ईश्वर की इच्छा पर निर्भर करेगा। लेकिन जब तक एक राष्ट्र दूसरे को नहीं जीत लेगा और उसे आज्ञाकारी नहीं बना लेगा, तब तक शांति स्थापित नहीं हो सकेगी। यह निष्कर्ष ऐसे ठोस प्रमाणों पर आधारित है कि कोई इसे इनकार नहीं कर सकता।
आखिर इस सब सच की अनदेखी करने का क्या मतलब?
क्या इन परिस्थितियों में संभव है कि दो राष्ट्र-मुसलमान व हिंदू-एक ही गद्दी पर एक साथ बैठे और उनकी शक्तियां बराबर हों। ज्यादातर ऐसा नहीं। ऐसा होगा कि एक विजेता बन जाएगा और दूसरा नीचे फेंक दिया जाएगा। ऐसी उम्मीद रखना कि दोनों बराबर होंगे, असंभव और समझ से परे है। साथ ही इस बात को भी याद रखना चाहिए कि हिंदुओं की तुलना में मुसलमानों की संख्या कम है। हालांकि उनमें से काफी कम लोग उच्च अंग्रेजी शिक्षा हासिल किए हुए हैं, लेकिन उन्हें कमजोर व महत्वहीन नहीं समझना चाहिए। संभवत: वे अपने हालात स्वयं संभाल लेंगे। यदि नहीं, तो हमारे मुसलमान भाई, पठान, पहाड़ों से असंख्य संख्या में टूट पड़ेंगे और उत्तरी सीमा-प्रांत से बंगाल के आखिरी छोर तक खून की नदी बहा देंगे। अंग्रेजों के जाने के बाद कौन विजेता होगा, यह ईश्वर की इच्छा पर निर्भर करेगा। लेकिन जब तक एक राष्ट्र दूसरे को नहीं जीत लेगा और उसे आज्ञाकारी नहीं बना लेगा, तब तक शांति स्थापित नहीं हो सकेगी। यह निष्कर्ष ऐसे ठोस प्रमाणों पर आधारित है कि कोई इसे इनकार नहीं कर सकता।
आखिर इस सब सच की अनदेखी करने का क्या मतलब?
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