आर्य महापुरुषों के रोचक प्रसंग।
“जब गांधी जी का नकली अहिंसावाद फीका पड़ गया”।
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जब सिंध की मुस्लिम लीगी सरकार ने सत्यार्थ प्रकाश के चौदहवें समुल्लास पर प्रतिबन्ध लगाने का विचार किया तो सार्वदेशिक सभा के तत्कालीन प्रधान स्व० घनश्यामसिंह गुप्त महात्मा गांधी से विचार-विमर्श करने के लिए १६ नवम्बर १९४४ को उनसे मिले। दोनों में जो वार्तालाप हुआ, वह इस प्रकार था –
गुप्त जी – बापू जी ! हमारे सत्याग्रह को आपका आशीर्वाद चाहिए।
गांधी जी – मैं आशीर्वाद कैसे दे सकता हूँ ? सत्यार्थप्रकाश के १४वें समुल्लास में तो इस्लाम की बहुत कटु तथा नाजायज आलोचना की गयी है जो अहिंसा की परिधि से कोसों दूर है। उस समुल्लास को तो उस पुस्तक से निकाल देना चाहिए।
गुप्त जी – बापू जी ! आप इस पुस्तक को अपनी आज की तराजू से तोल रहे हैं। किन्तु १४वां समुल्लास आपकी आज की भावना के अनुसार नहीं लिखा गया है। उसकी तुलना तो कुरआन शरीफ में जो काफिरों (गैर-मुसलमान) के प्रति उद्गार हैं, उनसे करनी चाहिए। कुरआन और हदीसों में कई ऐसे वाक्य हैं जिनमें काफिरों और गैर-मुस्लिमों की हत्या करना न केवल जायज अपितु फर्ज बतलाया गया है।
गांधी जी – मैं तो चाहूंगा कि उक्त १४वां समुल्लास आप लोग निकाल दो।
गुप्त जी – बापू जी ! सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के प्रधान के नाते, बिना सभा के प्रस्ताव किये ही मैं उक्त १४वां समुल्लास निकालने को तैयार हूँ, बशर्ते कि आप मुसलमान मुल्ला-मौलवियों को इस बात पर राजी कर लें कि वे कुरआन शरीफ से भी उक्त आयतों को निकाल लें।
महात्मा जी – तूने तो मुझे चुप करा दिया ! बोल, कया चाहता है ?
गुप्त जी – मैं तो आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप सिंध के मुख्यमंत्री (सर गुलाम हुसैन हिदायतुल्ला) को एक पत्र लिख दें कि जिससे उक्त १४वें समुल्लास पर लगाया हुआ प्रतिबन्ध निरस्त कर दिया जावे।
महात्माजी ने ऐसा कोई पत्र नहीं लिखा। आर्यसमाज को सिंध में सत्यार्थ प्रकाश पर प्रतिबन्ध को हटवाने के लिए सत्याग्रह करना पड़ा। आर्य नेताओं ने खुलेआम घोषणा कर सत्यार्थ प्रकाश को प्रचारित किया। किन्तु १९४७ में देश-विभाजन के साथ ही परिस्थितियाँ बदल गईं। जब पाकिस्तान में हिन्दुओं का अस्तित्व ही समाप्त हो रहा था तो सत्यार्थप्रकाश की तो चिन्ता ही किसे थी।
[‘घनश्यामसिंह गुप्त की आत्मकथा’]
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स्रोत - बिखरे मोती।
लेखक – डॉ भवानी लाल भारतीय।
प्रस्तुति – आर्य रमेश चन्द्र बावा।
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