*ओ३म्*
*🌷वेदों का महत्व🌷*
जैसे दही में मक्खन, मनुष्यों में ब्राह्मण, ओषधियों में अमृत, नदियों में गङ्गा और पशुओं में गौ श्रेष्ठ है, ठीक इसी प्रकार समस्त साहित्य में वेद सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
वेद शब्द 'विद्' धातु से करण वा अधिकरण में 'घञ्' प्रत्यय लगाने से बनता है। इस धातु के बहुत-से अर्थ हैं जैसे 'विद ज्ञाने','विद सत्तायाम्','विद विचारणे','विद्लृ लाभे,'विद चेतनाख्याननिवासेषु'(१.अदादि,२.दिवादि, ३.रुधादि, ४.तुदादि,५.चुरादिगण।)―अर्थात् जिनके पठन, मनन और और निदिध्यासन से यथार्थ विद्या का विज्ञान होता है, जिनके कारण मनुष्य विद्या में पारङ्त होता है, जिनसे कर्त्तव्याकर्त्तव्य,सत्यासत्य,पापपुण्य,धर्माधर्म का विवेक होता है, जिनसे सब सुखों का लाभ होता है और जिनमें सर्वविद्याएँ बीजरुप में विद्यमान हैं―वे पुस्तक वेद कहाती हैं।
वेद ईश्वरीय ज्ञान है। यह ज्ञान सृष्टि के आरम्भ में मानवमात्र के कल्याण के लिए दिया गया था।वेद वैदिक-संस्कृति के मूलाधार हैं। वे शिक्षाओं के आगार और ज्ञान के भण्डार हैं। वेद संसाररुपी सागर से पार उतरने के लिए नौकारुप हैं। वेद में मनुष्यजीवन की सभी प्रमुख समस्याओं का समाधान है। अज्ञानान्धकार में पड़े हुए मनुष्यों के लिए वे प्रकाशस्तम्भ हैं, भूले भटके लोगों को वे सन्मार्ग दिखाते हैं। पथभ्रष्टों को कर्त्तव्य का ज्ञान प्रदान करते हैं,अध्यात्मपथ के पथिकों को प्रभु-प्राप्ति के साधनों का उपदेश देते हैं। सक्षेप में वेद अमूल्य रत्नों के भण्डार हैं। महर्षि दयानन्द के शब्दों में "वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है।" महर्षि मनु के शब्दों में―वेदोऽखिलो धर्ममूलम्।(मनु २-६) वेद धर्म की मूल पुस्तक है। वेद वैदिक विज्ञान, राष्ट्रधर्म, समाज-व्यवस्था, पारिवारिक-जीवन, वर्णाश्रम-धर्म, सत्य, प्रेम, अहिंसा, त्याग आदि को दर्पण की भाँति दिखाता है।
वेद मानवजाति के सर्वस्व हैं।महर्षि अत्रि के अनुसार—
*नास्ति वेदात् परं शास्त्रम्।* (अत्रिस्मृति १५१) वेद से बढ़कर कोई शास्त्र नहीं है।
इसलिए महर्षि मनु ने कहा है-
*योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम् ।*
*स जीवनन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः ।।*
―-(मनु० २.१६८)
*अर्थ*―जो द्विज (ब्राह्मण,क्षत्रीय और वैश्य) वेद न पढ़कर अन्य किसी शास्त्र वा कार्य में परिश्रम करता है, वह जीते-जी अपने कुलसहित शीघ्र शूद्र हो जाता है।
वेद के मर्मज्ञ और रहस्यवेत्ता महर्षि मनु ने अपने ग्रन्थ में स्थान-स्थान पर वेद की गौरव-गरिमा का गान किया है। वे लिखते हैं―
*'सर्वज्ञानमयो हि सः।'*
(मनु० २.७)वेद सब विद्याओं के भण्डार हैं।
मनुजी ने तो यहाँ तक लिखा है―तप करना हो तो ब्राह्मण सदा वेद का ही अभ्यास करे, वेदाभ्यास ही ब्राह्मण का परम तप है (मनु० २/१६६)। "जो वेदाध्ययन और यज्ञ न करके मुक्ति पाने की इच्छा करता है, वह नरक (दुःखविशेष) को प्राप्त होता है" (मनु० ६/३७)। "क्रम से चारों वेदों का, तीन वेदों का, दो वेदों का अथवा एक वेद का अध्ययन करके, अखण्ड ब्रह्मचारी रहकर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहिए" (मनु० ३/२)।
आज यदि महर्षि मनु का विधान लागू हो जाए तो सारे विवाह अयोग्य, अनुचित (unfit) हो जाएँ।
महर्षि मनु ईश्वर को न मानने वाले को नास्तिक नहीं कहते, अपितु वेदनिन्दक को नास्तिक की उपाधि से विभूषित करते हैं―
*नास्तिको वेदनिन्दकः (मनु० २/११)*
यद्यपि मनुस्मृति ही सर्वाधिक प्रामाणिक है, अन्य स्मृतियाँ बहुत पीछे बनी हैं और उनमें प्रक्षेप (मिलावट) भी खूब हुए हैं, परन्तु वेद के विषय में सभी स्मृतियाँ एक ही बात कहती हैं, अतः यहाँ कुछ स्मृतियों के वचन दिये जाते हैं―
महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं―
*यज्ञानां तपसाञ्चैव शुभानां चैव कर्मणाम् ।*
*वेद एव द्विजातीनां निःश्रेयसकरः परः ।।*
―(याज्ञ० स्मृ० १/४०)
*अर्थ*―यज्ञ के विषय में, तप के सम्बन्ध में और शुभ-कर्मों के ज्ञानार्थ द्विजों के लिए वेद ही परम कल्याण का साधन है।
अत्रिस्मृति श्लोक ३५१―
*श्रुतिः स्मृतिश्च विप्राणां नयने द्वे प्रकीर्तिते ।*
*काणःस्यादेकहीनोऽपि द्वाभ्यामन्धः प्रकीर्तितः ।।*
*अर्थ*―श्रुति=वेद और स्मृति―ये ब्राह्मणों के दो नेत्र कहे गये हैं। यदि ब्राह्मण इनमें से एक से हीन हो तो वह काणा होता है और दोनों से हीन होने पर अन्धा होता है।
बृहस्पतिस्मृति ७९ में वेद की प्रशंसा इस प्रकार की गई है―
*अधीत्य सर्ववेदान्वै सद्यो दुःखात् प्रमुच्यते।*
*पावनं चरते धर्मं स्वर्गलोके महीयते।।*
*अर्थ*―वेदों का अध्ययन करके मनुष्य शीघ्र ही दुःखों से छूट जाता है वह पवित्र धर्म का आचरण करता है और स्वर्गलोक में महिमा को प्राप्त होता है।
दर्शनकारों ने भी मुक्तकण्ठ से वेद की महिमा वर्णित की है।
वैशेषिकदर्शन में कहा है―
*तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम् ।।*
―(वै० १०/१/३)
*अर्थ*―ईश्वर द्वारा उपदिष्ट होने से वेद स्वतःप्रमाण हैं।
एक अन्य स्थान पर वेद की महिमा का वर्णन इस प्रकार है―
*बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे।*
―(वै० ६/१/१)
*अर्थ*―वेद की वाक्य-रचना बुद्धिपूर्वक है। उसमें सृष्टिक्रम-विरुद्ध गपोड़े और असम्भव बातें नहीं हैं, अतः वह ईश्वरीय ज्ञान है।
सांख्यकार महर्षि कपिल को कुछ लोग भ्रान्ति से नास्तिक समझते हैं। वस्तुतः वे नास्तिक थे नहीं।महर्षि कपिल ने भी वेद को स्वतः प्रमाण माना है―
*न पौरुषेयत्वं तत्कर्तुः पुरुषस्याभावात्।।*
―(सांख्य ५/४६)
*अर्थ*―वेद पौरुषेय-पुरुषकृत नहीं हैं, क्योंकि उनका रचयिता कोई पुरुष नहीं है। जीव अल्पज्ञ और अल्पशक्ति होने से समस्त विद्याओं के भण्डार वेद की रचना में असमर्थ है। वेद मनुष्य की रचना न होने से उनका अपौरुषेयत्व सिद्ध ही है।
*निजशक्त्यभिव्यक्तेः स्वतःप्रामाण्यम्।।*
―(सांख्य० ५/५१)
*अर्थ*―वेद अपौरुषेयशक्ति से, जगदीश्वर की निज शक्ति से अभिव्यक्त होने के कारण स्वतःप्रमाण हैं।
मन्त्र और आयुर्वेद के प्रमाण के समान आप्तजनों के वाक्यों के प्रामाणिक होने से वेद की भी प्रामाणिकता है। परमेश्वर परम-आप्त है तथा वेद असत्य,परस्पर विरोध और सृष्टिक्रम के विरुद्ध बातों से रहित है, अतः वेद परम-प्रमाण है।
योगदर्शनकार महर्षि पतञ्जलि का कथन है―
*स एष पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्।*
―(योग० १/२६)
*अर्थ*―वह ईश्वर नित्य वेद-ज्ञान को देने के कारण सब पूर्वजों का भी गुरु है।
अन्य गुरु काल के मुख में चले जाते हैं, परन्तु वह काल के बन्धन से रहित है।
वेदान्तदर्शन में वेद का गौरव निम्न शब्दों में प्रकट किया गया है―
*शास्त्रयोनित्वात्।*
―(वेदान्त० १/१/३)
ईश्वर शास्त्र=वेद का कारण है, अर्थात् वेदज्ञान ईश्वर-प्रदत्त है। इस सूत्र पर शंकराचार्य का भाष्य पठनीय है। हम यहाँ उसका हिन्दी रुपान्तर दे रहे हैं―
"ऋग्वेदादि जो चारों वेद हैं, वे अनेक विद्याओं से युक्त हैं। सूर्यादि के समान सब सत्यार्थों का प्रकाश करने वाले हैं। उनको बनाने वाला सर्वज्ञत्वादि गुणों से युक्त सर्वज्ञ-ब्रह्म ही है, क्योंकि ब्रह्म से भिन्न कोई जीव सर्वगुणयुक्त इन वेदों की रचना कर सके ऐसा सम्भव नहीं है।"
ब्राह्मणग्रन्थों में अनेक स्थानों पर वेद के महत्व का प्रदर्शन करने वाले स्थल उपलब्ध होते हैं। यहाँ हम केवल तैत्तिरीयब्राह्मण ३/१०/११/३ की एक आख्यायिका देना पर्याप्त समझते हैं―
"महर्षि भरद्वाज ने ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए ३०० वर्षपर्यन्त वेदों का गहन एवं गम्भीर अध्ययन किया। इस प्रकार निष्ठापूर्वक वेदों का अध्ययन करते-करते जब भरद्वाज अत्यन्त वृद्ध हो गये तो इन्द्र ने उनके पास आकर कहा―"यदि आपको सौ वर्ष की आयु और मिले तो आप क्या करेंगे?"
भरद्वाज ने उत्तर दिया―मैं उस आयु को भी ब्रह्मचर्य-पालन करते हुए वेदाध्ययन में ही व्यतीत करुंगा। तब इन्द्र ने तीन ज्ञान-राशिरुप वेदों को दिखाया और प्रत्येक राशि में से मुट्ठी भरकर भरद्वाज से कहा―"ये वेद इस प्रकार ज्ञान की राशि या पर्वत के समान हैं, इनके ज्ञान का कहीं अन्त नहीं है। *'अनन्ता वै वेदाः'* वेद तो अनन्त हैं। यद्यपि आपने ३०० वर्ष तक वेद का अध्ययन किया है तथापि आपको सम्पूर्ण ज्ञान का अन्त प्राप्त नहीं हुआ। ३०० वर्ष में इस अनन्त ज्ञान-राशि से आपने तीन मुट्ठी ज्ञान प्राप्त किया है।"
ब्राह्मणकार की दृष्टि में वेदों का क्या महत्त्व है, यह इस आख्यायिका से स्पष्ट है।
महर्षि वाल्मीकि ने ब्राह्मणों के मुख से वेद का गौरव इस प्रकार व्यक्त कराया है―
*या हि नः सततं बुद्धिर्वेदमन्त्रानुसारिणी ।*
*त्वत्कृते सा कृता वत्स वनवासानुसारिणी ।*
*ह्रदयेष्वेव तिष्ठन्ति वेदा ये नः परं धनम् ।*
*वत्स्यन्त्यपि गृहेष्वेव दाराश्चारित्ररक्षिताः ।।*
―(वा० रा० अयो० ५४/२४,२५)
*अर्थ*―जब श्रीराम वन को प्रस्थान कर रहे थे, उस समय अनेक ब्राह्मणों ने भी उनके साथ जाने का निश्चय कर श्रीराम से कहा था―हे वत्स! हमारा मन जो अब तक केवल वेद के स्वाध्याय की और ही लगा रहता था, अब उस और न लग आपकी वन-यात्रा की ओर लगा हुआ है। हमारा परम धन जो वेद है वह तो हमारे ह्रदय में है और हमारी स्त्रियाँ अपने-अपने पातिव्रत्य से अपनी रक्षा करती हुई घरों में रहेंगी।
रामायण के पश्चात् अब महाभारत में देखिए। वेद की गौरव-महिमा का गान करते हुए महर्षि व्यास लिखते हैं―
*अनादिनिधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा ।*
*आदौ वेदमयी दिव्या यतः सर्वाः प्रवृत्तयः ।।*
―(महा० शान्ति० २३२/२४)
*अर्थ*―सृष्टि के आरम्भ में स्वयम्भू परमेश्वर ने वेदरुप नित्य दिव्यवाणी का प्रकाश किया, जिससे मनुष्यों की प्रवृत्तियाँ होती हैं।
अब कुछ पाश्चात्य विद्वानों के विचार वेद के विषय में सुनिये-
प्रो० हीरेन (prof. Heeren) महोदय लिखते हैं-
The Vedas stand alone in their solitary splendour serving as beacon of Divine Light for the onword march of humanity. -(Historical Researches Vol. Il P. 127)
*अर्थ*-जिस प्रकार वेद देदीप्यमान हैं, इस प्रकार अन्य कोई ग्रन्थ नहीं चमकता। वे मनुष्यमात्र की उन्नति और प्रगति के लिए दिव्य प्रकाशस्तम्भ का काम देते हैं।
लार्ड मोर्ले ने घोषणा की-
What is found in the Vedas exists now-where else.-(The Nineteenth Century and after)
*अर्थ*-जो कुछ वेदों में मिलता है,वह अन्यत्र कहीं नहीं है।
१४ जुलाई १८८४ को पेरिस में आयोजित अन्तर्राष्ट्रिय साहित्य संघ (International Literary Association) के समक्ष निबन्ध पढ़ते हुए फ्रांसदेशीय विद्वान् लेओ देल्बो (Mons. Leon Delbos) ने कहा था-
The Rigveda is the most sublime conception of the great highways of humanity.-(हरबिलास शारदा लिखित Hindu Superiority पृ० १७९ से उद्घृत)
*अर्थ*-ऋग्वेद मनुष्यमात्र की उच्चतम प्रगति और आदर्श की उच्चतम कल्पना है।
*[साभार: 'वैदिक धर्म प्रश्नोत्तरी' पुस्तक से, लेखक–स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती]*
No comments:
Post a Comment