आत्म संयम धर्म का प्रदाता ईश्वर है।
यह संसार आशा रूपी एक गहरी नदी है। इस का एक किनारा कामना या इच्छाओं का है और दूसरा किनारा मोक्ष का है। इस नदी के भीतर अर्थ रूपी जल भरा है। इस जल में तृष्णा की बड़ी भारी तरंगें उठती हैं जो दोनों किनारों से टकराती रहती हैं। मनुष्य जब आशा नदी के किनारे पर खड़ा होकर अर्थ के मन मोहने जल को देखता है तो मोहित होकर उस में छलांग लगा देता हैं। तृष्णा की तरंगें इसे इधर उधर बहा ले जाती हैं। इस नदी में काम, क्रोध, लोभ, मोह, ममता आदि भँवर हैं। तृष्णा की तरंगों में बहता ,मनुष्य कभी एक भँवर में फसता कभी दूसरे में भँवर में फसता हैं। कभी कभी तो उसका पूरा जीवन इन भवरों में फंसे फंसे ही निकल जाता हैं। इस नदी को पार करने के लिये सत्य ज्ञान रूपी नौका जिसका नाम वेद हैं विद्यमान हैं। इस नौका पर वही प्रवेश प्राप्त कर सकता हैं जिसके पर आत्म संयम रूपी धर्म हो। परन्तु मनुष्य संयम के स्थान पर भोग रूपी तृष्णा का दास बना रहना चाहता हैं। भोगों के क्षणिक सुखों को मनुष्य जीवन का ;लक्ष्य मान लेता हैं। वेदों के विद्वान मल्लाह बार बार नौका की सवारी करने के लिये पुकारते हैं। मगर मनुष्य आत्म संयम धर्म की कमी के चलते उस नौका की सवारी नहीं कर पाता। अपने संस्कार, दृढ़ निश्चय और तप से ही मनुष्य मोक्ष पथ की नौका का सवार बन पाता हैं।
किसी कवि ने सुंदर शब्दों में इस सन्देश को कहा है-
यह नदी है पुर खतर, तुम वन के दाना छोड़ दो।
भँवर इस में हैं बड़े, तुम दिल लगाना छोड़ दो।।
वेद इसी सन्देश को बड़े भव्य रूप से समझाते हैं। मनुष्य आत्म संयम धर्म की प्राप्ति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करता है। हे (ईश्वर) मित्रा वरुणो आपके बताये हुए सत्य मार्ग से चलकर नौका से नदी की तरह पापरूपी नदी को हम तैर जाएँ। - ऋग्वेद ७/६५/३
आईये ईश्वर से यह सुंदर प्रार्थना कर तृष्णाओं से बचते हुए आत्म संयम धर्म को ग्रहण करे।
डॉ विवेक आर्य
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