Friday, August 7, 2020

वेदाधारित वाल्मीकि रामायण के नैतिक मूल्यों से आदर्श समाज का निर्माण



वेदाधारित वाल्मीकि रामायण के नैतिक मूल्यों से आदर्श समाज का निर्माण

-डा० कृष्ण कान्त वैदिक

भारत में वेद, उपनिषद्, दर्शन, गृह्यसूत्र आदि अनेक शास्त्रों में नीति के तत्त्वों का वर्णन किया गया है। एक प्रसिद्ध ग्रन्थ मनुस्मृति में में कहा गया है-

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।।
अर्थात् इसी ब्रह्मवर्त देश में उत्पन्न हुए विद्वानों के सानिध्य से पृथ्वी पर रहने वाले सब मनुष्य अपने-अपने आचरण अर्थात् कर्तव्यों की शिक्षा ग्रहण करें।

मनुस्मृति में धर्म के धृति, क्षमा आदि दस लक्षण बताए गए हैं। यदि मनुष्य इन पर आचरण करते हुए जीवन बिताये तो सारे विश्व में शान्तिमय वातावरण पैदा कर समस्त मानव जाति को सुखी बनाया जा सकता है। 
‘नीति’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘नी’ धातु से हुई है। जिसका शाब्दिक अर्थ है- ले जाना। नीति का अर्थ है मनुष्य के जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने के साधन-रूप नियम, जिन पर चल कर इस जीवन और परलोक (पुनर्जन्म) में कल्याण की प्राप्ति हो। आचार शिक्षा का सम्बन्ध व्यक्तिगत जीवन से है, जिसमें आत्मोन्नति पर बल दिया गया है। नैतिक शिक्षा में व्यक्ति के आचार-विचार की शुद्धि के साथ ही पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय,  वैश्विक और प्राणि मात्र से सम्बन्धित विषयों पर विचार किया जाता है। मनुष्य अपने-पराये, सजातीय-विजातीय, शत्रु-मित्र, परिचित-अपरिचित, आदि से किस प्रकार का व्यवहार करे यह नैतिक शिक्षा बताती है। इसके द्वारा समाज के प्रत्येक व्यक्ति का वास्तविक कल्याण होता है। नैतिक शिक्षा का मूल वेदों में मिलता है। ‘सर्वं वेदात् प्रसिध्यति’- इस भारतीय सिद्धान्त से ज्ञात होता है कि अपौरुषेय वेदों से ही समस्त विद्यायें प्रादुर्भूत हुई हैं। वेदों में विधि और निषेध  अर्थात् मनुष्यों के कर्तव्य और अकर्तव्य कर्म वर्णित हैं। वेदों के साथ ही ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिषद्, गीता, महाभारत, रामायण, पंचतन्त्र, विदुर, शुक्र, भर्तृहरि, आदि ऋषियों के नीति ग्रन्थों में इनका विस्तृत वर्णन है।

हम इस लेख में वाल्मीकि रामायण में वर्णित नैतिक मूल्यों का विवेचन करेंगे।
वाल्मीकिकृत रामायण भारतीय संस्कृति की एक अमूल्य धरोहर है। इसमें सामाजिक, राजनीतिक और अर्थनीति सम्बन्धी मूल्यों का वर्णन मिलता है। आदि कवि वाल्मीकि ने अपने इस काव्य में परिवार, समाज और राष्ट्र  के सम्बन्ध में अनेक उत्कृष्ट मानदण्ड निर्धारित  किये हैं। कथानक के नायक राम का चरित्र सत्य, दान, तप, त्याग, मैत्री, पवित्रता, करुणा और सरलता से परिपूर्ण है। केवल राम ही नहीं अपितु रामायण के अन्य पात्र भी नैतिकता के उच्च शिखर पर आरूढ थे। आज हम देखते हें कि सारे विश्व में हिंसा, द्वेष, असंतोष, पाखण्ड, शंका, लोभ और अहिंसा का साम्राज्य है। ऐसे में यह कालजयी कृति विश्व के भटके हुए लोगों को सार्थक जीवन का पाठ पढ़ा सकती है। ऋग्वेद में कहा गया है- ‘मनुर्भव जनया दैवं जनम्’ अर्थात् मनुष्य मननशील बने और दिव्यगुण वाले पुत्र और शिष्य को उत्पन्न करें। इस प्रकार हमें सच्चे अर्थों में मनुष्य बनने के लिए संवेदनशील मानवता को स्वीकार करना आवश्यक है। निरुक्त में कहा गया है- ‘मत्वा कर्माणि सीव्यतीति मनुष्यः’ अर्थात् विवेकपूर्ण बुद्धि के अनुसार कार्य करने वाला सच्चे अर्थों में मनुष्य कहलाता है। वाल्मीकि रामायण नामक ग्रन्थ हमें सर्वत्र इसी मानवता का पाठ पढ़ता नजर आता है। एक सच्चा मानव ही नैतिक मूल्यों का अनुपालन करता है। समाज के नियम हमें कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञान कराते हैं। वह हमें सचेत करते हैं कौन कर्म करणीय है और कौन सा कर्म अकरणीय है।
एक मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाने के लिए जिन सद्गुणों की आवश्यकता होती है, राम उन सबके समुच्चय हैं। वह पवित्रता, सरलता और क्षमाशीलता के गुणों के साथ-साथ सत्यवादी भी हैं-
सत्यं दानं तपस्त्यागो मित्रता शौचमार्जनम्।
विद्या च गुरुशुश्रुषा ध्रुवान्येतानि राघवे।।
राम महाधनुर्धर, वृद्धसेवी, जितेन्द्रिय, उदारचेता, दूसरों के सुख-दुःख के सहभागी और संवेदनशील व्यक्ति हैं।

चरित्रवान् राम के द्वारा परिवार और समाज में व्यवहार करते समय मानो ‘लोकं छिद्रं पृण’ (यजु0 15/59) के सिद्धान्त को सामने रखकर लोक हितार्थ चिन्तन करते हुए सर्वदा ही वैयक्तिक स्वार्थ को दूर रखा गया है।
सामाजिक और पारिवारिक नैतिक मूल्य
रामायाण में एक ऐसे स्वस्थ समाज की संकल्पना है, जहाँ परस्पर प्रेम, सौहार्द और निश्छलता का साम्राज्य है। पारिवारिक नीति के निर्धारक तत्त्वों में मर्यादा और अनुशासन को सर्वोपरि रखा गया है। रामायण में पग-पग पर ‘मातृदेवो भव, पितृदेवो भव आचार्यदेवो  भव’ के वैदिक विचार देखे जा सकते हैं। राम का तो अनन्य विश्वास है कि संसार में माता-पिता के वचनों का सम्मान करना परम धर्म है। रामायण व्यक्ति को पहले मनुष्य और उसके बाद सामाजिक बनाती है। 
जिससे अभ्युदय धारण हो वह धर्म है और इस अभ्युदय को प्राप्त करने के लिए जो उपाय हैं, वे नीति कहलाते हैं, इस प्रकार देखा जाये तो दोनों का एक ही अर्थ होता है। कुछ लोग लौकिक अभ्युदय को प्राप्त करने के साधन को ‘नीति’ और पारलौकिक साधन को धर्म कहते हैं। नीति या नैतिकता से ही शास्त्र और धर्म प्रतिष्ठित होते हैं। नैतिकता के अभाव में शास्त्र और धर्म नष्ट हो जाते हैं। धर्मविहीन नैतिकता का कोई औचित्य नहीं है, भले ही यह आरम्भ में कुछ चमत्कारिक सफलता दिला दे परन्तु अन्ततोगत्वा वह पतन की ओर ही ले जायेगी। मनस्मृति में कहा गया है- ‘धर्मो रक्षति रक्षितः’ अर्थात् हमारे जीवन में जो स्वाभाविक धर्म और संयम रहता है, वह हमारी रक्षा करता है और जो हम धर्मपूर्वक आचरण या सदाचार करते हैं, वह धर्म हमारी रक्षा करता है। नीति या नैतिकता का मूल ही सदाचार है। धर्म की दृष्टि से नैतिकता के चार पाद हैं-सत्य, तप, दया और पवित्रता। इनमें सत्य को सर्वोपरि माना गया है। सामवेद में कहा गया है-‘स्तुहि सत्यधर्माणाम्’ अर्थात् सत्यनिष्ठ की प्रशंसा करे। मुण्डकोपनिष्द् में कहा गया है- 
सत्यमेव जयति नानृतं सत्येन पन्था वितो देवयानः।
येनाक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा यत्र तत्सत्यस्य परमं निधानम्।।
अर्थात् सत्य की विजय होती है, असत्य की नहीं। सत्य धाम में गमन करते हैं जहां सत्य का वह परम आश्रय परमात्मा अनावृत रूप से स्थित है।

तप का अर्थ है- पीड़ा सहना, घोर कड़ी साधना करना, मन का संयम रखना आदि। महर्षि दयानन्द के अनुसार "जिस प्रकार सोने को अग्नि में डालकर इसका मल दूर किया जाता है उसी प्रकार सद्गुणों और उत्तम आचरणों से अपने हृदय, मन और आत्मा के मैल को दूर किया जाना तप है।"

इन्हीं गुणों को रामायण के किष्किन्धा काण्ड में कहा गया है-
दमः शमः क्षमा धर्मो धृतिः सत्यं पराक्रमः।
पार्थिवानां गुणाः राजन् दण्डश्चाप्यपकारिषु।।
अर्थात् इन्द्रिय निग्रह, मनः संयम, क्षमा, धैर्य, सत्य, पराक्रम, अपराधियों को दण्डित करना राजा के कुछ प्रधान गुण हैं।

किष्किन्धा काण्ड में ही कहा गया है- 
नयश्च विनयश्चैव निग्रहानुग्रहावपि।
राजवृत्तिरसंकीर्णः न राजा कामवृत्तयः।।
अर्थात् राजा में नैतिकता, नम्रता, निग्रह और अनुग्रह चार गुण अनिवार्य हैं। यही नहीं जो राजा कर लेकर अपने प्रजा पालन रूपी धर्म का निर्वहन नहीं करता वह नरक का अधिकारी है।

दया की महिमा भी नैतिक कृत्यों के रूप में शास्त्रों में सर्वत्र मिलती है। तुलसीदास कहते हैं- 
दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छोड़िये जब लौं घट में प्राण।।
मनुष्यों को न केवल शरीर अपितु मन, बुद्धि और आत्मा को भी पवित्र रखना चाहिए।

मनुस्मृति में कहा गया है- 
अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति। विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति।।
अर्थात् जल से शरीर के बाहरी अवयव, सत्याचरण से मन, विद्या और तप से जीवात्मा और ज्ञान या विवेक से बुद्धि निश्चित रूप से पवित्र होती है।

मानव-जीवन में जो कुछ श्रेष्ठ और नैतिकतापूर्ण है, उसके पीछे विवेक विद्यमान होता है। नीति बोध से जब धर्म का उदय होता है तो मनुष्य अपनी अपूर्णता के प्रति जागरूक हो जाता है। व्यक्तित्व का आध्यात्मिक विकास दिव्य जीवन का शिलान्यास है जो नीतिबोध पर निर्भर रहता है। नीतिबोध की सार्थकता भी दिव्य जीवन की ओर अग्रसर होने में ही है। आदि कवि वाल्मीकि ने राम के माध्यम से उन चौदह दोषों को गिनाया है जो एक राजा के लिए त्याज्य हैं-

नास्तिक्यमनृतं क्रोधं प्रमादं दीर्घसूत्रताम्।
अदर्शनं ज्ञानवतामालसयं पन्न्चवृतिाम्।।
एकचिन्तनमर्थानामनर्थज्ञैश्च मन्त्रणाम्।
निश्चितानामनारम्भं मन्त्रस्यापरिरक्षणम्।।
मंगलाद्यप्रयोगं च प्रत्युत्थानं च सर्वतः।
कच्चित्वं वर्जयस्येतान् राजदोषांश्चतुदर्श।।
अर्थात् नास्तिकता, असत्य भाषण, क्रोध, प्रमाद, दीर्घ सूत्रता (टालमटोल), सज्जनों से न मिलना, इन्द्रियों की परवशता, मंत्रियों की अवहेलना कर अकेले ही राज्य सम्बनधी बातों पर विचार करना, अशुभ चिन्तकों अथवा उल्टी बात समझाने वाले मूर्खों से परामर्ष करना, निश्चित मंगल कृत्यों का त्याग, नीच-ऊँच सबको देख खड़े़ होना, शत्रुओं का एक साथ आक्रमण- इन चौदह दोषों को क्या तुमने त्याग दिया है?

ये सूत्र वास्तव में ऐसे हैं, जिनका आज भी कुशल राजनीतिज्ञों और शासकों द्वारा पालन किया जाना चाहिए। इस प्रकार वाल्मीकि रामायण में न केवल नीति अपितु राजनीति का भी सम्यक् ज्ञान दिया गया है।
सम्पूर्ण विश्व में भारत जैसे धर्माधारित नैतिक मूल्यों का विशाल भण्डार नहीं है और न ही आज की ज्वलन्त समस्याओं को दूर करने हेतु कोई दूसरा मार्ग है। केवल वैदिक सनातन नैतिक पद्धतियों से ही विश्व का कल्याण सम्भव है। यदि अपने नैतिक मूल्यों को सुरक्षित रखना है तो हमें वाल्मीकि रामायण आदि उपरोक्त शास्त्रों से प्रेरणा लेनी होगी। सबसे पहले स्वयं को सुधारते हुए सत्य, प्रेम, दया, अहिंसा, निरव्यसन, जितेन्द्रियता, अक्रोध, अलोभ, परोपकारिता आदि सद्गुणों को अपनाना होगा। नैतिकता के प्रारम्भिक संस्कार माता की गोद से ही बनते हैं। माता की शिक्षा, उसके आदर्श संस्कार और घर का वातावरण बच्चों के कोमल मन का विकास करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। माता-पिता ओैर आचार्य बालक/बालिकाओं के आदि गुरु होते हैं, वे इन आदर्शों को संस्कार रूप में बच्चें में स्थापित करें क्योंकि मनुष्य जीवन की विकासधारा उसके शैशव-कालीन अनुभवों से निर्धारित मार्ग का ही अनुसरण करती है। धर्म, संस्कृति और इतिहास से बच्चों को उपदेशात्मक कथाएं सिखलायी जानी चाहिएं जिसे उनमें ईश्वर भक्ति और समर्पण की भावनायें विकसित हों। इस प्रकार की शिक्षा से युवा पीढ़ी में मनसा-वाचा-कर्मणा सत्प्रवृत्तियां का विकास हो सकेगा। यह उनके चरित्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी और उनमें सत्य, दया, त्याग तप, विनय, न्याय-प्रियता और राष्ट्र प्रेम आदि के गुण विकसित होंगे। प्राचीन परम्परागत नैतिक मूल्यों को पुन: स्थापित करके ही हम विश्व में एक आदर्श और समृद्ध समाज का निर्माण कर सकते हैं।

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