Friday, August 14, 2020

15 अगस्त की वह ऐतिहासिक रात



१५ अगस्त की वह ऐतिहासिक रात

लेखक- स्वर्गीय प्रकाशवीर शास्त्री
प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ

देश को पराधीन हुए यूं तो कई सदियां बीत गयी थीं, पर अंग्रेज को भारत में आये अभी पौने दो सौ साल हुए थे। मुगलों और अंग्रेजों के राज में एक अन्तर यह था कि मुगल खून खराबी में अधिक विश्वास रखते थे और अंग्रेज कूटनीति में। यूं अंग्रेजों ने भी बल प्रयोग अथवा अपनी क्रूरता में कोई कसर नहीं उठा रखी थी। १८५७ के अत्याचार और जलियांवाला बाग उसी के उदाहरण थे, फिर भी मुगलों की तुलना में अंग्रेजों के अत्याचार कुछ हल्के थे। लेकिन एक बात दोनों में समान थी, भारत की सम्पदा जैसे और जितने हाथों से लूटी जा सके, लूटो। निरीह भारतवासी मन मसोस कर यह सब देख रहे थे।
आख़िर पन्द्रह अगस्त १९४७ का यह भाग्यशाली दिन आ ही गया, जब देशवासियों की साधना पूरी हुई। पन्द्रह अगस्त का सूरज निकलने से पहले चौदह अगस्त की आधी रात को सबकी आंख घड़ी की सूई पर टिकी हुई थी। कितनी उत्सुकता और तेजी से रात्रि में बारह बजने की प्रतीक्षा हो रही थी। संसद के केन्द्रीय कक्ष में जहां स्वतन्त्रता की यह घोषणा होनी थी वहां अध्यक्ष के आसन पर विराजमान राजेन्द्र बाबू ने जब यह कहा- 'अब घड़ी की सूई को बारह तक पहुंचने में ठीक आधा मिनट शेष रह जाता है, मैं घड़ी की इन तीस सैकेंडों की उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहा हूँ।' उस समय सबको लग रहा था- आज इस घड़ी को हो क्या गया है? कुछ ही क्षणों में सूई वहां पहुंच गयी और बारह बजते ही अध्यक्ष तथा सदस्य खड़े हो गये। राजेन्द्र बाबू ने सदस्यों की प्रतिज्ञा लेने के लिए सावधान किया और पहले हिन्दुस्तानी में सदस्यों से इन शब्दों में प्रतिज्ञा ग्रहण करवायी-

'अब जब कि हिन्दवासियों ने त्याग और तप से स्वतन्त्रता हासिल कर ली है, मैं- जो संविधान परिषद का एक सदस्य हूं, अपने को बड़ी नम्रता से हिन्द और हिन्दवासियों की सेवा के लिए अर्पित करता हूं, जिससे यह प्राचीन देश संसार गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त कर सके और संसार में शान्ति स्थापित करने और मानव जाति के कल्याण में अपनी पूरी शक्ति लगाकर खुशी-खुशी हाथ बटा सके।'

संविधान परिषद में सदस्यों द्वारा शपथ ग्रहण करने के बाद लार्ड माउंटबेटन को वायसराय की बजाय उन्हें गवर्नर जनरल के पद पर नियुक्त करने की सूचना देने का भी निश्चय हुआ। अध्यक्ष श्री राजेन्द्र बाबू ने प्रस्ताव करते हुए कहा- अब वायसराय को इस बात की सूचना दे दी जाय कि भारतीय विधान परिषद ने भारत का शासनाधिकार ग्रहण कर लिया है, इस सिफ़ारिश को भी स्वीकार कर लिया है कि १५ अगस्त १९४७ से लार्ड माउंटबेटन भारत के गवर्नर जनरल होंगे। यह सन्देश स्वयं अध्यक्ष तथा श्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा लार्ड माउंटबेटन तक पहुंचाने का भी निश्चय हुआ।
भारत का वर्तमान राष्ट्रध्वज भी इसी अवसर पर भारतीय महिला समाज की ओर से श्रीमती हंसा मेहता ने अध्यक्ष महोदय को भेंट किया। जिन महिलाओं की ओर से अशोक चक्रांकित यह तिरंगा ध्वज अध्यक्ष महोदय को भेंट किया गया, उन ७४ महिलाओं में श्रीमती विजयलक्ष्मी पण्डित, श्रीमती सरोजिनी नायडू, राजकुमारी अमृतकोर, कुमारी मणिबेन पटेल आदि के अतिरिक्त वर्तमान प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी भी सम्मिलित थीं। श्रीमती हंसा मेहता ने राष्ट्रध्वज भेंट करते हुए कहा- 'पहली राष्ट्रीय पताका जो इस महिमामण्डित भवन पर सुशोभित हो, उसे भारतीय महिला समाज एक उपहार की तरह उपस्थित कर रहा है। अपनी स्वतन्त्रता के प्रतीक स्वरूप इस पताका को उपस्थित करते हुए हम पुनः राष्ट्र के लिए अपनी सेवाएं अर्पित करती हैं। महान् भारत का प्रतीक यह पताका सदा फहराती रहे और विश्व पर आज जो संकट की कालिमा छाई है, उसे यह प्रकाश दे।'

भारतीय स्वाधीनता की घोषणा से पूर्व अध्यक्ष श्री राजेन्द्र बाबू, प्रधानमन्त्री श्री जवाहरलाल नेहरू और सर्वपल्ली डाक्टर राधाकृष्णन के संक्षिप्त ऐतिहासिक भाषण भी हुए। राजेन्द्र बाबू ने तो यहीं से अपनी बात प्रारम्भ की- 'आज हम अपने देश की बागडोर अपने हाथों में ले रहे हैं। इस अवसर पर हमें उस परमपिता को याद करना चाहिए जो मनुष्य और देशों के भाग्य बनाता है।' डा० राधाकृष्णन ने भी अपने भाषण में भारत की सांस्कृतिक विरासत की चर्चा करते हुए कहा- 'इस देश का भविष्य फिर वैसा ही महान् होगा जैसे इसका अतीत महिमामय रहा है।'
चौदह अगस्त की उस चिरप्रतीक्षित रात्रि में भारतीय नेताओं ने अपने मन के जो उद्गार प्रगट किये उनमें प्रसन्नता के साथ-साथ उनकी व्यथा भी अलग बोल रही थी। कार्यवाही संक्षिप्त थी पर एक-एक शब्द अपना अध्याय बनाता चल रहा था। देश के विभाजन को लेकर सबके मन दुःखी थे। आख़िर दम तक सब ने यत्न किया कि किसी तरह विभाजन रुक जाय, पर मुस्लिम लीग की हठ और अंग्रेज की कूटनीति के आगे उन्हें हार माननी पड़ी। देश में जो लूटपाट और मार-काट का दौर चल रहा था, उससे और भी अधिक सब परेशान थे। नेहरू जी अपने मन की उस व्यथा को न रोक सके और कह उठे-
'हमारे दिल में खुशी है। लेकिन यह भी हम जानते हैं कि हिन्दुस्तान भर में खुशी नहीं है। हमारे दिल में रज के टुकड़े काफ़ी हैं, दिल्ली से बहुत दूर नहीं- बड़े-बड़े शहर जल रहे हैं, वहां की गर्मी यहां आ रही है। ऐसे में खुशी पूरे तौर से नहीं हो सकती, लेकिन फिर भी हमें इस मौके पर हिम्मत से सब बातों का सामना करना है। न हाय-हाय करनी है, न परेशान होना है। जब हमारे हाथ में बागडोर आयी है तो फिर ठीक तरह से गाड़ी को चलाना है।'

देश जिनके त्याग, तप और बलिदानों से स्वतन्त्र हुआ, उन्हें इस अवसर पर भला कैसे भुला जा सकता था। राजेन्द्र बाबू ने कहा- 'जिन्होंने इस दिन को लाने के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिये, हंसते-हंसते फांसी के तख़्तों पर चढ़ गये, गोलियों के शिकार बने, जेलखानों और कालेपानी के टापू में घुल-घुल कर अपने जीवन का उत्सर्ग किया, आज का यह दिन उनकी तपस्या और त्याग का ही फल है। नेहरू जी ने भी उन्हें भाव भरे हृदय से श्रद्धांजलि दी।'
पन्द्रह अगस्त को प्रातः दस बजे भारतीय विधान परिषद की बैठक फिर कांस्ट्रीट्यूशन हाल नई दिल्ली में सम्पन्न हुई। अध्यक्ष राजेन्द्र बाबू के साथ भारत के प्रथम गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन और उनकी धर्मपत्नी भी इसमें पधारीं। प्रारम्भ में भारत के ऐतिहासिक स्वाधीनता पर्व के लिए विदेशों से आए कुछ विशेष स्वाधीनता सन्देश पढ़कर सुनाए गए। इनमें चीन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, इण्डोनेशिया, नेपाल और संयुक्त राज्य के प्रधानमन्त्री के सन्देश भी सम्मिलित थे। उसके बाद गवर्नर जनरल ने ब्रिटिश सम्राट का एक सन्देश पढ़कर सुनाया-

'इस ऐतिहासिक दिन, जब कि भारत ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल में एक स्वतन्त्र और स्वाधीन उपनिवेश के रूप में स्थान ग्रहण कर रहा है, मैं आप सबको अपनी हार्दिक शुभकामनाएं भेजता हूं। आपके इस स्वाधीनता महोत्सव में प्रत्येक स्वतन्त्रताप्रिय राष्ट्र भाग लेना चाहेगा, क्योंकि पारस्परिक स्वीकृति द्वारा सत्ता का जो यह हस्तांतरण हुआ है, उससे एक ऐसे महान् लोकतन्त्रीय आदर्श की पूर्ति हुई है जिसे ब्रिटेन और भारत दोनों देशों के लोग समान रूप से कार्यान्वित करने के लिए कटिबद्ध रहे हैं। यह बड़ी ही उत्साहवर्धक बात है, यह सब शान्तिपूर्ण परिवर्तन द्वारा सम्पन्न हो सका है।
भविष्य में आपको बड़ी जिम्मेदारियों का भार वहन करना है किन्तु जब मैं आपके द्वारा प्रकट की गई राजनीतिज्ञता तथा किए गए त्यागों का विचार करता हूं, तो मुझे विश्वास हो जाता है कि भविष्य का भार आप समुचित रूप से वहन कर सकेंगे।'

भारतीय स्वाधीनता के इस ऐतिहासिक पर्व पर जहां भारतवासी फूले नहीं समा रहे थे और हंसी-खुशी और नाच-गानों द्वारा अपनी प्रसन्नता व्यक्त कर रहे थे, वहां देश के दूरदर्शी नेता आने वाले भारत की तस्वीर बनाने के लिए कड़े परिश्रम और संकल्प का स्वप्न देख रहे थे। पण्डित जी ने तो अपने भाषण का प्रारम्भ ही यहां से किया- कई वर्ष हुए जब हमने क़िस्मत की एक बाज़ी लगाई थी। अब समय आ गया जब हम उसे पूरा करें। एक मंज़िल पूरी हुई, लेकिन भविष्य के लिए एक प्रण और प्रतिज्ञा हमें करनी है, वा हिन्दुस्तान के लोगों की सेवा करनी है।
हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि रंग जी ने इन्हीं भावों को अपनी क़लम में पिरो कर लिखा था-
ओ विप्लव के थके साथियों!
विजय मिली विश्राम न समझो।।

स्वाधीनता का यह अट्ठाइसवां पर्व आज फिर विकासोन्मुख भारत के कानों में उन्हीं शब्दों को दोहरा रहा है।

['सार्वदेशिक' (साप्ताहिक) के १९८५ अंक से साभार]

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