Monday, August 17, 2020

स्वतन्त्रता संग्राम के अमर बलिदानी मदनलाल धींगड़ा



स्वतन्त्रता संग्राम के अमर बलिदानी मदनलाल धींगड़ा

(१७ अगस्त, क्रान्तिकारी मदलनलाल धींगड़ा की पुण्यतिथि पर विशेष रूप से प्रचारित)

-प्रियांशु सेठ

पंजाब तो वैसे भी वीरता का गढ़ है। यहां के नौजवानों ने स्वतन्त्रता आन्दोलन में अद्वितीय भूमिका निभाई है। यहीं के एक ऐसे नवयुवक थे मदनलाल धींगड़ा।
मदनलाल धींगड़ा का जन्म पंजाब के एक समृद्ध परिवार में हुआ था। माता-पिता की रुचि आपको इंजीनियर बनाने में थी, लेकिन आपके शरीर में भारत की आज़ादी के लिए बलिदान देने वाला लहू दौड़ रहा था। माता-पिता ने आपको पढ़ाने के लिए इंग्लैण्ड भेजा। जबकि उस समय भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध आन्दोलन भी कब से आरम्भ हो चुका था। देशभक्तों ने तो देश को आज़ाद कराने की क़समें खाकर अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। कितने ही जेलों में यातनायें सहते रहे। लेकिन सबकी आंखों में देश को आजाद देखने की उम्मीद की किरण थी। कुछ क्रान्तिकारी विदेशों में भी चले गए थे और वहीं से स्वतन्त्रता आन्दोलन में अपना अंशदान कर रहे थे। इंग्लैण्ड में भी ऐसे वीर तरुण रह रहे थे जिन्होंने अंग्रेज सरकार की रातों की नींद हराम कर रखी थी। इंग्लैण्ड में अध्ययन कर रहे मदनलाल धींगड़ा को भी वहां भारतीय क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वहां 'भारत भवन' नाम की एक संस्था स्थापित हो चुकी थी। आप भी इस संस्था के सक्रिय सदस्य बन गए। वीर सावरकर इस संस्था के द्वारा कितने ही दृढ़ निश्चय वाले भारतीय तरुणों को देश सेवा की दीक्षा दे चुके थे। क्रान्तिकारी नौजवान कन्हाईलाल दत्त, सत्येन्द्र वसु व खुदीराम बोस को फांसी दी जा चुकी थी। वीर सावरकर के भाई को एक कविता लिखने के कारण ही काले पानी की सज़ा काटनी पड़ी थी। ऐसा घोर अन्याय उन विद्या समृद्ध नवयुवकों को कहां सहनीय हो सकता था। आपने भी जब क्रान्तिकारी गतिविधियों में अपनी सेवायें अर्पित की तो आपको वीर सावरकर से बातचीत करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उसी समय वीर सावरकर ने एक कील मंगवायी और आपके हाथ में गाड़ दी। खून बह निकला, परन्तु वीर मदन धींगड़ा ने उफ़ तक न की। सावरकर गद्गद हो उठे। कील दूर फेंके और आपको सीने से लगा लिया। आप क्रान्तिकारियों की पहली परीक्षा में सफल हो गए।
भारत भवन में आपने जाना बन्द कर दिया क्योंकि आप नीतिपूर्वक अपनी क्रान्ति को गति दे रहे थे। आपने बहुत-से अंग्रेज अधिकारियों से सम्बन्ध स्थापित कर लिए। लार्ड कर्जन वाइली, जिसने भारत में निर्दयता, नीचता व अत्याचार की हद कर दी थी, इंग्लैण्ड के भारत भवन में मुकाबले में एक क्लब स्थापित कर लिया था। आप भी इसी क्लब के सदस्य बने। आपने मन ही मन में लार्ड कर्जन को पहला निशाना बनाने का निश्चय कर लिया था। लार्ड कर्जन के अत्याचारों का बीस वर्ष का लम्बा इतिहास था। इसने न जाने कितने भारतीय नौजवानों को फांसी के तख़्ते पर लटकवाया था। नीति सम्बन्धी कार्यों में कुशल होने के कारण वह भारत सचिव व भारत सरकार पर नियन्त्रण करे बैठा था। इंग्लैण्ड में जितने भी विद्यार्थी अध्ययन करने आते, उन सब पर लार्ड कर्जन हमेशा निगरानी रखता था। वीर सावरकर के अग्रज गणेश सावरकर को उसी ने देश-निर्वासन की सजा दिलवाई थी। यद्यपि मदनलाल के पिता का लार्ड कर्जन से मधुर सम्बन्ध था इसलिए ऐसे दैत्य की हत्या का काम आपको सौंपा गया।

१ जुलाई सन् १९०९ की बात है, लार्ड कर्जन इम्पीरियल इंस्टीट्यूट जहांगीर हाल में एक सभा आयोजित की गई थी, जिसकी अध्यक्षता लार्ड कर्जन कर रहे थे। वहां उनके द्वारा किये जुल्मों की सराहना हो रही थी। जब लार्ड कर्जन वाइली खड़े हुए तो वीर मदनलाल धींगड़ा ने उसपर गोली चला दी। अंग्रेज के एक नीच पिट्ठू ने आपको पकड़ने का प्रयास भी किया और आपने उसे भी गोलियों से भून डाला। अंग्रेजों के अपने घर में ही उनके लिए सम्मानित एक अंग्रेज की हत्या ने सारे इंग्लैण्ड को हिला डाला। इस घटना का पता जब आपके पिता को लगा तो उन्होंने लार्ड मोरेल को एक तार द्वारा इस हत्या पर खेद प्रकट करते हुए लिखा कि वे ऐसे कपूत को अपना पुत्र स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे।
१० जुलाई को आपको वेस्टमिंस्टर की एक अदालत में पेश किया गया। आपने सिंहनाद करते हुए कहा कि मैंने जो हत्या की थी वो उस व्यक्ति के अमानवीय कुकृत्यों का प्रतिशोध था। वह भारतभूमि पर जुल्म करने और ईश्वर का अपमान करने वाला व्यक्ति था। जज ने फैसला दिया, सज़ा मिली मौत की। सज़ा सुनकर आपके मुख से "वन्दे मातरम्" का उद्घोष निकला।

१७ अगस्त आपकी शहादत का दिवस था। आप प्रातः उठकर तैयार हो गए थे। आपने ईश्वर से प्रार्थना की कि मैं फिर उसी माता की कोख से पैदा होऊं व फिर उसी पावन भारतभूमि के लिए अपने आपको अर्पित कर सकूं। इसके बाद फांसी के फंदे को स्वयं अपने गले में डालकर झूल गए। भारत की स्वतन्त्रता में बलिदान देने वाले वीर नौजवान मदनलाल धींगड़ा को शत् शत् नमन!

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