Sunday, November 11, 2018

प्रथम विश्व युद्ध एवं भारत



प्रथम विश्व युद्ध एवं भारत
डॉ विवेक आर्य
11 नवंबर 2018 को प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) की समाप्ति के 100 वर्ष पूर्ण होते है। इस अवसर पर इस लेख के माध्यम से इस विश्व युद्ध में भारत ने क्या खोया और क्या पाया इस विषय पर चर्चा करेंगे। आपको साम्यवादी लेखक सदा अंग्रेजों की प्रशंसा करते मिलेंगे कि अंग्रेजी राज में रेल, डाक सेवा आदि हमें मिले। मगर वे आपको यह कभी नहीं बताएँगे कि अंग्रेजों ने भारत को ऐसे दो विश्व युद्धों में धकेल दिया जिनका भारत से कोई लेना देना नहीं था। अपितु उन युद्धों ने भारत को जन-माल की ऐसी हानि हुई जिसका कल्पना तक आप नहीं कर सकते। इस विश्व युद्ध में जहाँ एक ओर अंग्रेज भक्त भारतीयों ने सर, राय साहिब, रईस, राय बहादुर जैसे खिताबों को अर्जित किया। वहीं निर्धन भारतीय जनता पर असंख्य अत्याचार हुए। महाराजा पटियाला से लेकर हैदराबाद के निज़ाम ने अपनी अंग्रेज भक्ति का पूरा प्रदर्शन किया। अनेक रियासतों ने अकाल पीड़ित प्रजा की सहायता करने के स्थान पर अपने संसाधनों को अंग्रेजों के चरणों में भेंट कर दिया। इस विषय में प्रकाश डालने वाली दो पुस्तकें कांग्रेस संसद श्री शशि थरूर की An Era of Darkness एवं पंजाब के वर्तमान मुख्यमंत्री कप्तान अमरिंदर की Honour and Fiedility-India's Military Contribution to the Great War 1914-1918 पठनीय हैं।
पाठक इस लेख को पढ़कर आत्मचिंतन अवश्य करेंगे।
1. शशि थरूर के अनुसार प्रथम विश्व युद्ध में आधिकारिक रूप से 1215318 भारतीय सैनिकों ने भाग लिया जिनमें से 101439 मारे गए। 64350 घायल हुए जिनमें से अनेक की मृत्यु बाद में उन्हीं घावों के कारण हुई, 3762 लापता हुए अथवा युद्धबंदी हुए। आपको जानकर अचरज होगा कि युद्ध सम्बंधित अंग्रेजों द्वारा लिखित पुस्तकों में भारतीयों के योगदान चंद शब्दों में अथवा फुटनोट में केवल खानापूर्ति के लिए प्रस्तुत किया गया हैं। यहाँ तक की बीबीसी द्वारा प्रथम विश्व युद्ध पर 12 भागों में बनाई गई 23 घंटे 30 मिनट की डॉक्यूमेंट्री में भारतीयों को एक मिनट से भी कम समय दिया गया। अकेले पंजाब क्षेत्र से उन दिनों 470000 सैनिक लोग अंग्रेज सेना में शामिल हुए जिनमें से 70000 गैर सैनिक थे।
2. अधिकांश भारतीय सैनिक ऐसे विदेशी मोर्चों पर लड़े जहाँ का उन्होंने कभी नाम तक नहीं सुना था। न उनके पास जर्मन फौज के समान आधुनिक हथियार थे। न ही सर्दियों के कपड़े थे। अफ्रीका की गर्मी से लेकर यूरोप की कड़कड़ाती ठण्ड में सैनिकों को लड़ना पड़ा। आवश्यक संसाधनों से विहीन होते हुए भी सिख, गोरखा, बलूच, पंजाबी, कुमायूं, गढ़वाली, पठान,राजपूत, जाट, डोगरा, मराठा और मद्रास रेजिमेंट के अनेक सैनिकों ने अपनी बहादुरी और शौर्य की ऐसी गाथाएं लिखी। जो इतिहास में अपन विशेष महत्व रखती हैं। जिन सैनिकों की युद्ध में वीरगति हुई उन्हें से अनेकों को अंतिम सम्मान तक नहीं मिला। उनकी लाशें या तो युद्धक्षेत्र में ही दबा दी गई अथवा पशुओं का ग्रास बनी।
3. केवल सैनिक ही नहीं भारत देश के बाहर जब इतनी बड़ी सेना लड़ रही हो तो देश के संसाधन जैसे अन्न, गोला-बारूद, राशन, युद्ध सामग्री, कपड़े ,घोड़े से लेकर धन को भी विदेश भेजा गया। 1914 में भारत से युद्ध के नाम पर 100 मिलियन पौंड की राशि भी ब्रिटेन भेजी गई। इसके अतिरिक्त अन्य राशि भी भेजी गई जिसका कुल जोड़ उस काल में 146.2 मिलियन पौण्ड बैठता था। उस काल में भारत में न केवल अकाल पड़ा था, अपितु इन्फ्लुएंजा का भी देशव्यापी प्रकोप था। गरीबी, अशिक्षा से ग्रस्त देश में पहले से ही कठिन परिस्थितियां थी। ऐसे में देश पर युद्ध के नाम पर अतिरिक्त कर भी अंग्रेजों ने लाद दिया था।
4. सन 1914 से 1916 तक सेना में भारतीयों ने प्रवेश अपनी इच्छा से लिया। 1917 से अंग्रेजों ने जोर-जबरदस्ती करना आरम्भ कर दिया। पंजाब के तत्कालीन गवर्नर डायर ने 2 लाख लोगों की सेना में भर्ती का संकल्प लिया। उसके संकल्प के कारण स्थानीय जमींदारों और लम्बरदारों ने प्रजा पर अत्याचार आरम्भ कर दिया। उन परिवारों की सूची बनाई गई जिनके पास एक से अधिक युवा लड़के थे। धन-बल का भर्ती के लिए प्रयोग किया गया। जिन किसानों ने अपने बेटों को देने से मना कर दिया उन पर भारी कर लगा दिया गया। यह कर 300% तक भी गया। अटक और मियांवाली के किसान भाग कर नार्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस चले गये ताकि भर्ती से बच सके। मुल्तान में खेतिहर किसानों के भर्ती न होने पर खेतों को पानी तक रोक दिया गया। ऐसे अनेक अत्याचार उस काल में किये गए। एक सिपाही को 11 रुपये मासिक, एक तोपची को 14 रुपये और एक घोड़े के साथ 34 रुपये मासिक दिए जाते थे।
5. युद्ध क्षेत्र में बिमारियों की भरमार थी। बड़ी संख्या में सिपाही बीमारी से हताहत हो जाते थे। जत्थे के जत्थे एक ही बीमारी से एकसाथ ग्रस्त हो जाते थे। इनका नाम भी उस बीमारी के नाम से हो जाता था जैसे खसरा जत्था, काली खांसी जत्था, स्कारलेट बुखार जत्था, ट्रेंच बुखार जत्था आदि। अनेक सिपाहियों की मृत्यु तो रात में बर्फ में जम जाने से भी हो जाती थी। अंग्रेज सैनिक जहाँ कुछ दिनों के युद्ध के पश्चात छुट्टी पर चले जाते थे वहीं भारतीय सैनिकों को कभी कोई छुट्टी नहीं मिलती थी। एक तो वे अपने घरों से बहुत दूर थे। दूसरे उन्हें वापिस भारत लाने के लिए समुद्री जहाज उपलब्ध नहीं थे। तीसरे भेदभाव के चलते अंग्रेज उन्हें केवल युद्ध में लगाए रखना चाहता था। युद्धरत सैनिक अपनी मातृभाषा जैसे हिंदी, उर्दू, गुरुमुखी आदि में जो खत अपने परिवार को लिखते थे। वे सभी खत सीधे घर नहीं जाते थे। उनका न केवल अंग्रेज लोग अनुवाद करवाते थे अपितु उनमें से अनेकों को नष्ट कर दिया जाता था। युद्ध की कठिन परिस्थितियों, युद्धनीति, अंग्रेज महिलाओं के विषय में जानकारी, युद्ध क्षेत्र में शत्रु की बमवर्षा से लेकर संसाधनों की घोर कमी, बिमारियों , जर्मन सैनिकों की प्रशंसा , भारतीय सैनिकों का अंग्रेजों के प्रति विरोध आदि के विषय में अगर कोई जानकारी होती तो उसे छुपा लिया जाता था। ऐसे अनेक खत थे जिनमें लिखा था कि शत्रु की गोलीबारी ऐसे होती है, जैसा वर्षा हो रही हो। लाशों के ढेर मक्की की फसल के समान युद्धक्षेत्र में लगे हुए है। अंग्रेज नर्स भारतीय सैनिकों की चिकित्सा सेवा नहीं करती थी। क्यूंकि अंग्रेजों को लगता था कि उनकी जाति श्रेष्ठ है और काले भारतीयों की उनसे कोई तुलना नहीं हैं। उन्हें यह किसी भी प्रकार से स्वीकार नहीं था कि किसी भारतीय सैनिक का किसी गोरी महिला से किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध स्थापित हो।
6. अफ्रीका से लौटकर आये महात्मा गाँधी की भूमिका विश्व युद्ध के सम्बन्ध में जानना अत्यंत आवश्यक है। यह सत्य है कि अंग्रेजों ने विश्व युद्ध भारत के सैनिक और संसाधनों के बल पर लड़ा। अगर भारत का साथ अंग्रेजों को न मिलता तो उनकी जर्मन के आगे हार सुनिश्चित थी। ऐसी परिस्थिति में भारत स्वत: ही स्वतंत्र हो जाता। मगर महात्मा गाँधी को अंग्रेजों ने युद्ध में साथ देने के बदले एक वायदा दिया कि बदले में भारतीयों को शासन में भागीदारी दी जाएगी। यह अधिकार कनाडा, ऑस्ट्रेलिया जैसे कामनवेल्थ देशों को मिले अधिकारों के जैसा होगा। मगर हुआ बिलकुल विपरीत। युद्ध समाप्त होने पर अंग्रेज अपने वायदे को भूल गए। उन्होंने भारतीयों के अधिकार देने के विपरीत उस काल का सबसे विवादित काला कानून रौलेट एक्ट दिया। जिसमें किसी को कभी भी बिना कारण बताये कितने भी समय के लिए राष्ट्रद्रोह के लिए हिरासत में लिया जा सकता था। इस कानून के विरोध में हुई जनसभा पर निरीह भीड़ पर गोलीबारी कर डायर ने 1919 में जलियांवाला कांड को अंजाम दिया था। भारतीयों के घावों पर नमक लगाते हुए नग्रेजों ने इस अत्याचार के लिए उसे सम्मानित किया था। महात्मा गाँधी की असफलताओं की लम्बी सूची में यह यह एक ओर असफलता थी।
इन उदहारणों से यह स्पष्ट होता है कि सोने की चिड़िया कहलाने वाले हमारे देश को अंग्रेजों ने किस प्रकार से खोखला कर दिया। उस काल में अंग्रेजों की नौकरी करने वाले भारतीयों को आर्यसमाज के शीर्घ नेता स्वामी श्रद्धानन्द कहा करते थे कि
" क्या तुम चंद रुपयों के लिए गोरे साहिब को सल्यूट करते हो। क्या तुम्हारा आत्म-स्वाभिमान समाप्त हो चूका है?"
यही प्रश्न अंग्रेजों के हिमायती साम्यवादी से भी है जो इन सत्य तथ्यों को कभी स्वीकार नहीं करते।
[यह लेख संक्षिप्त रूप में दिया गया है। हिंदुस्तान टाइम्स दिनांक 11 नवंबर, दिल्ली, अंग्रेजी संस्करण के आधार पर यह सामग्री लिखी गई है।]

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