Friday, November 30, 2018

महान राष्ट्रवादी जाट नेता-श्री बच्चू सिंह



महान राष्ट्रवादी जाट नेता-श्री बच्चू सिंह

गुरप्रीत चहल

(30 नवंबर जन्मदिवस पर विशेष रूप से प्रकाशित)

बच्चू सिंह भरतपुर रियासत के राजकुमार थे। भरतपुर के महाराजा किशन सिंह के यहाँ 30 नवंबर 1922 को हुआ हुआ। बच्चू सिंह  देशभक्ति, समर्पण , धर्म के प्रति अनुग्रह प्रेरणादायक हैं।


1. बच्चू सिंह एक देशभक्त के रूप में-

उस समय राजपरिवारों के युवकों के लिए ब्रिटिश सरकार की सेना में शामिल होना सामान्य परम्परा थी। इसलिए ब्रिटिश प्रशासन ने भरतपुर के पूरे राजपरिवार को ‘क्षत्रिय’ नामक सैन्य शक्ति में शामिल करने के लिए मनाया। लेकिन बच्चूसिंह की विशेष शारीरिक अक्षमता के कारण उनको थलसेना में भेजना संभव नहीं था, परन्तु उनकी उपेक्षा करना भी असंभव था, इसलिए उन्हें वायुसेना में फ्लाइंग आॅफिसर (पायलट) के रूप में भेजा गया।1943-44 में जब नेताजी सुभाष चन्द्र की आजाद हिन्द फौज द्वारा उत्तर-पूर्व भारत पर आक्रमण किया गया, तो उसकी प्रतिक्रिया में बच्चूसिंह को आजाद हिन्द फौज पर हमला करने के लिए निर्देश दिया गया। किन्तु इसमें बच्चू सिंह ने पूरी बेरुखी दिखायी, क्योंकि वे पूरे मन से देशभक्त थे और अपने ही देशभक्त देशवासियों पर आक्रमण करना उनको उचित नहीं लगा। बच्चू सिंह की बेरुखी से नाराज होकर ब्रिटिश शासन ने बच्चू सिंह को चिढ़ाने के लिए उनके ही एक मित्र फ्लाइंग आॅफिसर राजेन्द्र सिंह को बच्चू सिंह के युद्ध विमान हरिकेन-2 से ही आजाद हिन्द फौज पर हमला करने के लिए भेजा। नाराज बच्चू सिंह ने अपने विमान में खराबी कर दी जिससे हरिकेन-2 सिलचर और इंफाल के बीच दुर्घटनाग्रस्त हो गया। उसमें राजेन्द्र सिंह की मृत्यु हो गई। बच्चू सिंह को इसका दोषी माना गया, लेकिन ब्रिटिश सरकार हाथ मलती रह गई।



2. 1946 में तलवार विद्रोह और बच्चू सिंह-

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान बच्चू सिंह सर छोटूराम के अधीन आर्य समाज, अजगर और क्षत्रिय आंदोलन से जुड़ गए थे, जो पाकिस्तान की मांग, और जन्म आधारित आरक्षण के विरुद्ध था तथा सयुंक्त भारत और केवल जरूरतमंदों के संरक्षण के लिए प्रयासरत था। 1946 के प्रारम्भ में बच्चू सिंह के नेतृत्व में भारतीय वायुसेना में विद्रोह हुआ। कुछ ही दिन बाद 15 फरवरी 1946 तक यह क्रांति सेना के तीनों अंगों में पहुँच गई। इसके साथ ही मुंबई के कोलाबा तट पर संचार पोत HMIS ‘तलवार’ पर तैनात भारतीय मूल के नौसैनिकों ने हड़ताल की सूचना भेजी। ‘तलवार’ पोत पर हड़ताल करने से पहले उन नौसैनिकों ने पोत के कमांडर एफ.सी. किंग से अत्यंत खराब खाने के विरुद्ध शिकायत की थी, किन्तु किंग ने बदतमीजी से कहा था- ‘भिखारी चयन नहीं कर सकते’। तब ‘तलवार’ पोत पर पंजाब के दो सैनिकों सिग्नलमैन मोहम्मद शरीफ खान और पेट्टी ऑफिसर मदन सिंह के नेतृत्व में एक कमेटी बन गई, जिसने विद्रोह का प्रचार शुरू कर दिया। हालांकि बच्चू सिंह की इस क्रांति में आईएनए के झंडे लहराए गए थे; लेकिन तलवार के नेताओं ने कांग्रेस, लीग और कम्युनिस्ट दलों के झंडे लहराए। ‘तलवार’ समुद्र में सिग्नल का एक संचार पोत था। अतः उसके द्वारा दूसरे जहाजों व सैन्य केन्द्रों को सूचना भेजी गई कि क्रांति का केंद्र तलवार पोत है। इसी के साथ कम्युनिस्ट पार्टी ने इसको आरआईएन का विद्रोह घोषित कर उसी के रूप में समर्थन दिया।

अब हड़ताल के पीछे बच्चू सिंह की क्रांति को खत्म कराने के लिए कांग्रेस ने अरुणा आसफ अली को नियुक्त किया। वह हर क्रांति केंद्र पर जाकर सैनिकों को समर्थन देने के बहाने ‘तलवार’ पोत के नेताओं के संपर्क में रहने की अपील करती थी। जिन्ना और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना आजाद सैनिकों को विश्वास दिलाते थे कि यदि वे आत्मसमर्पण कर देंगे, तो उनके खिलाफ कोई कार्यवाई नहीं होगी और राजनेता उनका साथ देंगे।

24 फरवरी को ‘तलवार’ पोत कमेटी ने हथियार डाल दिए। ‘तलवार’ एक संचार पोत था, अतः इससे हर केंद्र में यह प्रचार हो गया कि हड़ताल खत्म हो गई है; कांग्रेस, लीग, कम्युनिस्ट दलों ने भी हर जगह यह सूचना पहुंचा दी कि हड़ताल वापस ले ली गई है। इससे सभी जगह क्रांतिकारियों का जोश ठंडा पड़ गया और सैनिकों ने हथियार डाल दिये। बाद में इसे ‘तलवार’ पोत पर शुरू हुई हड़ताल बताया गया, जबकि यह ‘तलवार’ पर खत्म हुई थी।
इस तरह विकलांग वीर बच्चू सिंह के नेतृत्व में उभरा यह स्वतन्त्रता संग्राम एक हड़ताल के रूप में समाप्त हो गया।लेकिन इसने ब्रिटिश राज के मन में यह डर बैठा दिया कि यदि अब कोई स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ, तो उसे दबाने के लिए न तो सेना होगी, न पुलिस, केवल राजनेताओं का आश्वासन ही होगा। अतः उन्होंने भी अपनी सुरक्षा के लिए भारत को छोड़ने की योजना बना ली। इस प्रकरण के बाद बच्चू सिंह सेना की नौकरी छोड़कर भरतपुर आ गए।


3. स्वाभिमानी और धर्मरक्षक राजनेता के रूप में बच्चू सिंह-


1932 में “कम्यूनल अवार्ड” और “पूना समझौते” के विरुद्ध “क्षत्रिय आंदोलन” के समय सर छोटूराम ने “अजगर” क्षत्रिय आंदोलन चलाया जो केवल विकलांगों, अनाथों, जरूरतमंदों को संरक्षण देता था। छोटूराम यूनियनिस्ट नेता थे,  बच्चूसिंह भी इनकी राजनीति के उत्साही समर्थक बन गए थे।
पूना समझौते की 10 वर्षीय अवधि 1942 में समाप्त हुई; किन्तु भारत छोड़ो आंदोलन के विरुद्ध श्रम-मंत्री भीमराव अंबेडकर के समर्थन में सरकार ने इसे बनाए रखा जिससे आंतरिक विरोध बढ़ने लगा। 1945 में छोटूराम की मृत्यु के बाद उनके आंदोलन का नेतृत्व बच्चूसिंह के पास आ गया। तब उनके नेतृत्व में जन क्रांति से डरकर सरकार ने महाराजा बृजेन्द्र को “क्षत्रिय कर्तव्य” के नाम से बच्चूसिंह को बंगाल के युद्ध क्षेत्र में भेजने के लिए मना लिया; साथ ही उन्हे संतुष्ट करने के लिए पदोन्नत भी किया।

बंगाल में अजगर समुदाय और आर्य समाज नहीं थे; जापान से डरकर ब्रिटिश सरकार पीछे हट गई थी। इस समय जनता को राहत देने की जगह “कृषक प्रजा पार्टी” के भ्रष्टाचार के कारण अकाल फैला हुआ था; सेना भी मुश्किल से राशन प्रबन्ध कर रही थी। बच्चूसिंह इस राजनीतिक रूप से बेहद आहत हुए, किन्तु वे सुभाषचन्द्र बोस के बड़े भाई शरतचंद्र बोस व आईएनए के सहयोगियों से जुड़ गए जिससे उनका राजनीति उत्साह बना रहा। युद्ध के बाद यद्यपि बच्चूसिंह को युद्ध के समय बंगाल में शांति व्यवस्था रखने और जापान आक्रमण को हराने के लिए मेडल दिये गए; तथापि, उन्होने आईएनए के समर्थन से जनवरी 1946 में स्वतन्त्रता क्रांति करवा दी।
राजनीतिक दलों द्वारा अपने स्वार्थों हेतु क्रांति का विरोध कर षडयंत्र से “तलवार” पोत पर उसे फरवरी 1946 में समाप्त करवाने के कारण बच्चुसिंह राजनीतिक दलों से उखड़ गए। सर छोटूराम की मृत्यु के पश्चात और भरतपुर के जाट राजकुमार होने के कारण यूनियनिस्ट पार्टी के अग्रिम नेता बन गए। 1946 में बंगाल में डायरेक्ट एक्शन डे के नाम पर सुहरावर्दी के गुंडों ने हिन्दुओं पर भयानक अत्याचार किया। बच्चू सिंह चाहते थे कि यूनियनिस्ट के नेता इस हिंसा की पुरजोर निंदा करे। मगर सिद्धांत के ऊपर सदा मज़हब को रखने वाले यूनियनिस्ट के मुस्लिम नेताओं द्वारा 16 अगस्त 1946 को मुस्लिम लीग के आयोजित ‘सीधी कार्यवाही दिवस’  की निंदा करने से स्पष्ट इंकार कर दिया। 1947 में भी यही पुनरावृति हुई। स्वतन्त्रता के समय एक आंतकवादी संगठन “मजगर” ने पंजाब और सिंध के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में आंतक फैला दिया, यह उनसे जुड़े हिन्दू क्षेत्रों में भी फैल गया। हिन्दू बहुल रियासतों ने अपनी प्रजा को बचाने के लिए केंद्र से सहायता मांगी, मगर नेहरू ने कोई चिंता नहीं की, जिससे अव्यवस्था हो गई।

पंजाब में लाहौर हिन्दू-सिख बहुल क्षेत्र था, जहां लाला लाजपत राय और सर छोटू राम के समर्थक थे, जिससे बच्चूसिंह को सीधा समर्थन मिल रहा था; 1946 क्रांति के समय से लाहौर पर ब्रिटिश प्रशासन की पकड़ खत्म हो गई थी, इसलिए लाहौर पर नियंत्रण केवल मुस्लिम पुलिस अधिकारियों को दिया गया था। इसी आधार पर लाहौर को ज़बरदस्ती पाकिस्तान में मिलवाया गया। इसी से कश्मीर जाने वाला मार्ग पाकिस्तान को मिला।रियासतों को ब्रिटिश संसद ने स्वेच्छा का विकल्प दिया था, परंतु मजगर आंतकवाद से सिंध के पूर्वी क्षेत्र में स्थित रियासतों में संकट हो गया। नेहरू ने उनकी मदद करने में कोई रुचि नहीं दिखाई; अत: रियासतें स्वतंत्र हो गईं, किन्तु साथ ही आंतकवाद से पीड़ित भी हो गईं। इस समय जिन्नाह ने पाकिस्तान सीमा से सटी हिन्दू रियासतों को मदद के बदले पाकिस्तान में मिलने का न्यौता दे दिया। इसी कारण अमरकोट जैसी 80% हिन्दू बहुल रियासत भी पाकिस्तान में शामिल हुई। इसी से सरक्रीक तक पाकिस्तान का कब्जा हो गया।
जोधपुर, बीकानेर आदि बड़ी रियासतों के साथ भी जिन्नाह ने समझौता कर लिया; इस समय भरतपुर के पास भी दो ही मार्ग थे – या तो पाकिस्तान में मिलकर शांति से जागीर या कुछ अधिकार ले लेना, या फिर लड़कर ज़बरदस्ती भारत के साथ मिलना। भरतपुर ने दूसरे मार्ग को अपनाया।
बच्चुसिंह ने अपनी जीप में हथियार लादे और भरतपुर की सेना के साथ मजगर आंतकवादियों पर हमला कर दिया। जहां भी आंतकवादी उत्पात करते, बच्चूसिंह अपनी सेना सहित वहाँ पहुँच जाते और उनका सफाया करते। नेहरू द्वारा आंतकवाद पर अपनी उपेक्षा करने से आत्मरक्षा के लिए अलवर, धौलपुर, व करौली रियासतें भी भरतपुर के साथ जुड़ गई; इसी के साथ इनका प्रभाव बढ़ने लगा।

अनेक रियासतों का भारत में पटेल के सहयोग से विलय करवाकर बच्चू सिंह ने अखंड भारत के निर्माण में स्मरणीय भूमिका अपनाई। बच्चू सिंह पहले अंग्रेज फिर जिन्ना से लेकर यूनियनिस्ट के मुस्लिम नेताओं और बाद में नेहरू से सदा प्रजा के अधिकारों के लिए संघर्षरत रहे। आजकल कुछ लोग अपने राजनीतिक हितों के लिए जाट-मुस्लिम गठबंधन की बात करते हैं। बच्चू सिंह को जिन्होंने तब धोखा दिया क्या वो आज फिर से नहीं देंगे?

साभार- जय विजय मासिक पत्रिका





Thursday, November 29, 2018

योगी आदित्यनाथ और दलित "हनुमान" जी



योगी आदित्यनाथ और दलित "हनुमान" जी
डॉ विवेक आर्य
"भारत की परंपरा में एक ऐसे लोक देवता हैं जो स्वयं वनवासी हैं, गिरिवासी हैं, दलित हैं, वंचित हैं, सबको लेकर के सभी पूरे भारतीय समुदाय को लेकर उत्तर से लेकर दक्षिण तक, पूरब से पश्चिम तक सबको जोड़ने का काम बजरंगबली करते हैं। इसलिये बजरंगबली का संकल्प होना चाहिये।"
यही शब्द योगी जी के थे राजस्थान की चुनावी सभा में। मगर सुनने वालों को समझ नहीं आया और उन्होंने योगी जी पर यह आरोप लगा दिया कि योगी जी ने हनुमान जी को दलित कहा है? आप वाल्मीकि रामायण उठा कर देखिये। वीरवार हनुमान जी को अपने मित्र सुग्रीव के साथ किष्किंधा से निकल कर ऋषिमुख पर्वत पर बाली के भय के कारण रहना पड़ा। सुग्रीव की पत्नी को बाली ने जबरन बंदी बनाकर अपने महलों में रखा। यह अत्याचार नहीं तो क्या है? आपको जानकार आश्चर्य होगा कि हनुमान जी के वास्तविक गुण क्या थे?
किष्किन्धा कांड (3/28-32) में जब श्री रामचंद्र जी महाराज की पहली बार ऋष्यमूक पर्वत पर हनुमान से भेंट हुई तब दोनों में परस्पर बातचीत के पश्चात रामचंद्र जी लक्ष्मण से बोले-
न अन् ऋग्वेद विनीतस्य न अ यजुर्वेद धारिणः |
न अ-साम वेद विदुषः शक्यम् एवम् विभाषितुम् || 4/3/28
अर्थात-
“ऋग्वेद के अध्ययन से अनभिज्ञ और यजुर्वेद का जिसको बोध नहीं है तथा जिसने सामवेद का अध्ययन नहीं किया है, वह व्यक्ति इस प्रकार परिष्कृत बातें नहीं कर सकता। निश्चय ही इन्होनें सम्पूर्ण व्याकरण का अनेक बार अभ्यास किया है, क्यूंकि इतने समय तक बोलने में इन्होनें किसी भी अशुद्ध शब्द का उच्चारण नहीं किया है। संस्कार संपन्न, शास्त्रीय पद्यति से उच्चारण की हुई इनकी वाणी ह्रदय को हर्षित कर देती है”।
सुंदर कांड (30/18-20) में जब हनुमान अशोक वाटिका में राक्षसियों के बीच में बैठी हुई सीता को अपना परिचय देने से पहले हनुमान जी सोचते है-
“यदि द्विजाति (ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य) के समान परिमार्जित संस्कृत भाषा का प्रयोग करूँगा तो सीता मुझे रावण समझकर भय से संत्रस्त हो जाएगी। मेरे इस वनवासी रूप को देखकर तथा नागरिक संस्कृत को सुनकर पहले ही राक्षसों से डरी हुई यह सीता और भयभीत हो जाएगी। मुझको कामरूपी रावण समझकर भयातुर विशालाक्षी सीता कोलाहल आरंभ कर देगी। इसलिए मैं सामान्य नागरिक के समान परिमार्जित भाषा का प्रयोग करूँगा।”
इस प्रमाणों से यह सिद्ध होता हैं की हनुमान जी चारों वेद ,व्याकरण और संस्कृत सहित अनेक भाषायों के ज्ञाता भी थे।
ऐसे महान गुणों के ज्ञाता को वन में निर्वासित जीवन जीना पड़ा। यह अत्याचार नहीं तो क्या था? यह शोषण नहीं तो क्या था?
वास्तविकता यह है कि 'दलित' शब्द का ऐसा राजनीतिकरण हुआ है कि दलित शब्द का मूल अर्थ लुप्त हो गया है। दलित शब्द का प्रयोग प्रो इन्द्रविद्यावाचस्पति जी के अनुसार 1920 के दशक में आरम्भ हुआ था। तब दलित शब्द का प्रयोग समाज के वंचित, शोषित, प्रताड़ित वर्ग के लिए हुआ था। स्वतंत्रत भारत में दलित शब्द का राजनीतिकरण हो गया। एक करोड़ों के आलीशान बंगले और महंगी कारों का शौकीन नेता भी अपने आपको दलित कहता हैं। एक परिवार जिसमें तीन पीढ़ी से अनेक सदस्य IAS है। वह परिवार भी अपने आपको दलित परिवार कहता हैं। एक कई सौ करोड़ की कंपनी का मालिक भी अपने आपको दलित कहता हैं। वास्तव में हमारे देश में अगर कोई दलित है तो वह हिन्दू समाज है। पिछले 1200 वर्षों से वह मुस्लिम हमलावरों के अत्याचारों को झेलता आया हैं। यहाँ तक की उसे अपने पुरखों की जमीन अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बंगलादेश के रूप में छोड़नी पड़ी। लाखों मंदिरों के विध्वंश, लाखों के इस्लामिक धर्मान्तरण, लाखों के कत्लेआम के रूप में हमें उत्पीड़न सहना पड़ा। पिछले 300 वर्षों से वह अंग्रेजों के अत्याचारों को झेलता आ रहा हैं। जिन्होंने न केवल उसके अनेक प्रकार से शोषण किया। अपितु उसे उसकी संस्कृति और उसकी सभ्यता से ही इतना दूर कर दिया कि बौद्धिक रूप से वह हर मसले के लिए पश्चिम की ओर देखता हैं। यही कारण है कि हमारे देशवासियों का पहनावा, भाषा, शिक्षा, इतिहास ज्ञान, सोचने-समझने की दिशा, संविधान, देश की नीतियां सभी में आपको पश्चिम का प्रभाव दीखता हैं। हमारी युवा पीढ़ी अपने प्राचीन पूर्वजों के धर्म और संस्कारों के प्रति बेरुखी हो चली है और पश्चिम के भोगवाद में आश्रय खोजने का प्रयास कर रही हैं। वर्तमान में भी असली दलित तो कश्मीरी हिन्दू है जिन्हें कश्मीर से विस्थापित होना पड़ा। असम, बंगाल और केरल के हिन्दू अल्पसंख्यक होकर विस्थापित होने के कगार पर है। वह दलित नहीं तो क्या हैं? अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के खेल में उसके अधिकारों का दमन हो रहा हैं। उसका किसी को भान नहीं हैं। कोई भी अल्पसंख्यक संस्थान आसानी से स्कूल, कॉलेज खोल सकता हैं। उसमें कोई आरक्षण न छात्रों के प्रवेश में और न ही अध्यापकों की नियुक्ति में लागु होगा। जितने भी बड़े हिन्दू मंदिर है उनके दान का हिसाब सरकार रखती हैं। चर्च और मस्जिदों पर यह नियम समान रूप से लागु क्यों नहीं हैं? सत्य यह है कि अल्पसंख्यक के नाम पर मलाई गैर हिन्दुओं को खिलाई जा रही हैं। इसलिए हिन्दुओं को दलित क्यों न कहा जाये? जैसे उस काल में हनुमान जी के सर्वगुण संपन्न होते हुए भी अधिकारों का दमन हुआ ऐसा ही दमन आज भारत देश में बहुसंख्यक कहलाने वाले हिन्दुओं का हो रहा हैं। विडंबना यह है कि हम पिछले 1200 वर्षों से लगातार युद्ध क्षेत्र में हैं। न हमारा इस ओर ध्यान है और न ही हमारी तैयारी हैं। योगी जी ने इसी स्थिति की ओर ईशारा ही तो किया हैं। अगर कोई हिन्दू अधिकारों की बात करता है तो वह कट्टरवादी कहलाता हैं। अगर कोई अल्पसंख्यकों के अधिकारों की बात करता है तो सेक्युलर और बुद्दिजीवी कहलाता हैं। इस स्थिति के लिए दोष किसे देना चाहिए। आप स्वयं निर्णय कीजिये!

रोमिला थापर : एक पाखंडी विद्वान



रोमिला थापर : एक पाखंडी विद्वान

भारतीय परंपरा में साधुओं के साथ-साथ शिक्षकों, विद्वानों को भी सहज सम्मान देने की प्रवृत्ति रही है, लेकिन जिस तरह रंगे कपड़े पहनकर नकली लोग भी कई बार "साधु" कहला लेते हैं, उसी तरह बड़े अकादमिक पद पर रहकर सामान्य लफ्फाज भी "विद्वान" कहलाते हैं। एक उदाहरण से इसे समझा जा सकता है।

गत 18 अगस्त को प्रेसिडेंसी कॉलेज, कोलकाता के दीक्षांत समारोह में इतिहासकार प्रो. रोमिला थापर ने फरमाया, ‘‘उपनिषदों और ब्राह्मण ग्रंथों में एक से अधिक बार यह कहा गया है कि सबसे सम्मानित ऋषि और विद्वान दासीपुत्र होते थे, यानी जिनकी माताएं निम्न कोटि की दासियां थीं।’’ अपनी आदत के मुताबिक, प्रो. थापर ने इसका कोई उल्लेख नहीं किया कि ऐसी अनोखी बात किस उपनिषद् या ब्राह्मण ग्रंथ में कही गई है? या तो उन्होंने किसी बात से नासमझी में मनमाना निष्कर्ष गढ़ लिया, या किसी ने उन्हें ऐसा निष्कर्ष थमा दिया। लेकिन बिना इसकी परीक्षा किए इसे आधार बनाकर प्रो. थापर ने अपना वर्ग-विभेदी व्याख्यान दे डाला। यह निस्संदेह विद्वान की नहीं, सामान्य राजनीतिक प्रचारक की प्रवृत्ति है, जो काम आने लायक किसी भी झूठ-सच को अपने प्रचार का आधार बना लेता है। उसकी परख नहीं करता। आखिर प्रो. थापर वेदों की अधिकारी विद्वान तो क्या, अध्येता तक नहीं रही हैं। छांदोग्य उपनिषद् तथा विविध स्मृतियों, सूत्रों में यह भी कहा गया है कि वेदों को समझने के लिए किसी वेदज्ञ ब्राह्मण के निर्देशन में कम से कम 6 वर्ष तक अध्ययन करना अनिवार्य है। जबकि प्रो. थापर को संस्कृत भाषा तक नहीं आती। उनकी तमाम पुस्तकों से साफ दिखता है कि उनका संपूर्ण अध्ययन प्राय: देशी-विदेशी अंग्रेजी पुस्तकों, वह भी अधिकांश विशेष वैचारिक झुकाव वाली दोयम दर्जे की स्रोत-सामग्री पर आधारित है। उस सामग्री में प्रामाणिक वेदज्ञों का नाम तक नहीं मिलता, उन्हें पढ़ना-जानना तो दूर रहा। अत: प्रो. थापर किसी हाल में वेदों पर बोलने की अधिकारी नहीं हैं।

उनके इस वक्तव्य पर एक वैदिक विद्वान से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि भारतीय ज्ञान परंपरा में कहीं भी जन्म आधारिक विद्वता का कोई उल्लेख नहीं है। किसी ऋषि या ज्ञानी का महत्व उसकी सत्यनिष्ठा तथा ज्ञान की गहराई पर निर्भर रहा है, इस पर नहीं कि उसका जन्म किस पेशे या जाति के परिवार में हुआ। किसी के पिता, माता या वंश का उल्लेख प्राय: परिचय के लिए होता रहा है।

वैदिक प्रार्थनाएं भी सद्विचारों, सद्-उद्देश्यों को ही बार-बार दुहराती हैं। उस संदर्भ में निम्न जाति या उच्च वंश की बात अनर्गल है। प्रो. थापर द्वारा ऐसा कहना और इस पर जोर देना उनके पुराने कम्युनिस्ट दुराग्रह का जोर है, जिसमें वर्ग को केंद्रीय महत्व दिया जाता है। तुम किस वर्ग के, वह किस वर्ग का? पहले यह देखकर तब सारी बात चलती या तय होती है। उसी मतवादी मानसिकता को प्रो. थापर कोलकाता में भोले-भाले युवाओं में वेदों के हवाले से घुसाने की कोशिश कर रही थीं।

यह विद्वता या ज्ञान की पहचान नहीं है। ज्ञान की पहली सीढ़ी है खोज, अन्वेषण। प्रो. थापर और उनकी मार्क्सवादी जमात के लिए यह चीज सिरे से महत्वहीन रही है। आरंभ से ही उनका संपूर्ण लेखन कुछ तयशुदा मार्क्सवादी, राजनीतिक अंधविश्वासों को जैसे-तैसे थोपने की परियोजना भर रहा है। उन्होंने किसी विषय-बिंदु पर तथ्यों का भंडार इकट्ठा कर फिर निष्कर्ष नहीं निकाले, बल्कि किसी बने-बनाए निष्कर्ष को जमाने के लिए जहां-तहां से आधे-अधूरे तथ्यों, अनुमानों, मनमानी व्याख्या और अपने ही जैसे दूसरे प्रचारकों को उद्धृत करके काम चलाया।

एक प्रकार से यह धोखाधड़ी भी थी कि जिस बात का स्वयं प्रामाणिक परीक्षण न किया हो, न उस पर किसी प्रामाणिक विद्वान से अनुशंसा ली हो, उसे सत्य की तरह प्रचारित करना। प्रो. थापर जैसों में यह प्रवृत्ति आज तक नहीं बदली है! इसीलिए कहना पड़ता है कि उनकी गणना पाखंडी विद्वानों में होनी चाहिए। इनसे भी समाज को गंभीर हानि होती है, यह ध्यान रखना चाहिए। प्रो. थापर और उनके संप्रदाय के ‘विद्वानों’ ने पिछले चार-पांच दशक में हमारे देश को भारी क्षति पहुंचाई है। उदाहरण के लिए, हाल में प्रतिष्ठित पुरातत्ववेत्ता तथा आर्कियोलॉजिकल सर्वे आॅफ इंडिया के निदेशक रहे श्री के.के. मुहम्मद की आत्मकथा आई है। इसमें उन्होंने लिखा है कि 1976-77 में ही अयोध्या के राम-जन्मभूमि-बाबरी ढांचे वाले स्थल की खुदाई में मंदिर के अनेक प्रमाण मिले थे। तब कोई आंदोलन शुरू नहीं हुआ था। जब आंदोलन उठा तब मुहम्मद ने वहां मंदिर रहे होने की बात प्रकाशित कराई थी, किन्तु प्रो. थापर समेत कई मार्क्सवादी इतिहासकारों ने समवेत् ताकत लगाकर प्रचार किया कि वहां कभी कोई मंदिर नहीं था, सारा आंदोलन हिन्दू संगठनों की करतूत है। आज संपूर्ण साक्ष्यों के सामने अपने पर अंतत: न्यायालयों ने भी माना कि वहां मंदिर रहा था। तब प्रो. थापर द्वारा झूठा प्रचार किस प्रकार का काम था? इस प्रसंग पर श्री मुहम्मद ने जो टिप्पणी की है वह विचारणीय है। वे कहते हैं कि "जब तक मार्क्सवादी इतिहासकार अयोध्या मामले में नहीं कूदे थे, तब तक मुस्लिम उसके शान्तिपूर्ण समाधान के लिए तैयार थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उसकी तैयारी भी कर ली थी। यह इसलिए संभव था कि तथ्यों पर हिन्दू और मुस्लिम पक्ष में मतभेद नहीं था। दोनों जानते थे कि अयोध्या में राम-जन्मभूमि मंदिर स्थल पर ही बाबर ने ढांचा खड़ा किया था। विवाद मात्र समाधान के स्वरूप और जमीनी लेन-देन का था। लेकिन प्रो. थापर और उनके मार्क्सवादी संप्रदाय के इतिहासकारों ने अपने दबदबे का प्रयोग कर मुस्लिमों को यह कहकर समाधान से विमुख किया कि हिन्दू संगठनों का दावा फर्जी है, उनसे समझौता करना गलत होगा।"

इसके लिए 1989 में प्रो. थापर के नेतृत्व में जे.एन.यू. के 25 इतिहास प्रोफेसरों ने समवेत् रूप से एक पुस्तिका प्रकाशित की थी- ‘पोलिटिकल एब्यूज आॅफ हिस्ट्री’ (इतिहास का राजनीतिक दुरुपयोग)। इसमें उन्होंने दावा किया कि ‘‘अब तक ऐसा कोई प्रमाण नहीं जिससे सिद्ध हो कि बाबरी मस्जिद वहीं बनाई गई जहां पहले मंदिर था।’’ इस तरह, जो आरोप हिन्दुओं पर कभी किसी ने नहीं लगाया, न मुसलमानों ने, न अंग्रेजों ने, वह प्रो. थापर ने जड़ दिया था! यह आरोप कि हिन्दू लोग झूठ-मूठ वहां राम-जन्मभूमि होने का नाम ले रहे हैं!!

चूंकि यह झूठा प्रचार बड़े पैमाने पर मीडिया के माध्यम से देश-विदेश में फैला, इसलिए शह पाकर मुस्लिम नेता अड़ गए! श्री मुहम्मद के अनुसार, ‘‘मार्क्सवादी इतिहासकारों और कुछ बड़े अखबारों के घातक संयोजन ने मुस्लिम समुदाय को बिल्कुल गलत जानकारी दी। यदि वह न हुआ होता तो मुस्लिम शान्तिपूर्ण समाधान स्वीकार कर लेते। यदि यह हो गया होता, तो आज अनेक दूसरे मुद्दे जो देश झेल रहा है, सुलझ गए होते।’’ इस बात पर विचार करें, तभी उस गंभीर राष्ट्रीय हानि का अंदाजा होगा, जो अयोध्या पर प्रो. थापर जैसे मार्क्सवादियों के हस्तक्षेप से हुई थी। नोट करने की बात यह है कि थापर या अन्य मार्क्सवादी इतिहासकारों ने आज तक अपने उस कुकृत्य पर पश्चाताप नहीं किया है। यह उनके पाखंडी कार्यों का एक उदारण मात्र है।

गत चार-पांच दशकों से उन्होंने ऐसे अनेक कार्य किए हैं। पिछले साल रोमिला थापर ने अपने लिए स्वयं यह नाम घोषित किया: ‘जेएनयू के डायनासोर’! यह उन्होंने जे.एन.यू. में मुहम्मद अफजल तथा 9 फरवरी की घटना के बाद एक भाषण देते हुए कहा। कुछ अर्थों में यह संज्ञा सटीक है। खासकर, नाम बड़े और दर्शन छोटे या कि "बुद्धि छोटी" वाले अर्थ में।

जे.एन.यू. में अफजल वाली घटना का उल्लेख करके भी प्रो. थापर ने ‘जेएनयू के टूटने’ की संभावना पर चिन्ता की, मगर ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाअल्लाह, इंशाअल्लाह!’ पर कुछ नहीं कहा! इसका यही मतलब हुआ कि भारत टूटे तो टूटे, पर जेएनयू में वामपंथी, इस्लाम-परस्त प्रचार यथावत् चलता रहे, ऐसी बुद्धि यदि क्षुद्र और पाखंडी विद्वता का उदाहरण नहीं, तो और क्या है? वस्तुत: प्रो. थापर के उस भाषण की पूरी धार केवल संघ-भाजपा केंद्र सरकार के विरुद्ध थी। उसमें न राष्ट्र की चिंता थी, न राष्ट्रवाद की परिभाषा की। भारत को तोड़ने की उग्र नारेबाजी पर थापर की बेफिक्री यूं ही नहीं थी। अनेक पुराने मार्क्सवादियों की तरह वे भी भारत की एकता या विखंडन के प्रति बेपरवाह हैं। इसे दूसरे लोगों ने भी नोट किया है।

प्रो. थापर की भाभी राज थापर (प्रसिद्ध अंग्रेजी मासिक "सेमिनार" की संस्थापक, संपादक) की आत्मकथा ‘आॅल दीज ईयर्स’ में एक घटना का उल्लेख मिलता है।

यह बात 1980 की है। तब डॉ. कर्णसिंह केंद्रीय कैबिनेट में मंत्री थे। उन्होंने अपने मित्र रोमेश थापर से एक दिन शिकायत की कि उनकी बहन रोमिला ‘अपने इतिहास लेखन से भारत को नष्ट कर रही है।’ इस पर उनकी रोमेश से तकरार भी हो गई। राज थापर ने यह प्रत्यक्षदर्शी वर्णन लिखते हुए रोमिला का कोई बचाव नहीं किया। उलटे अपने पति रोमेश को ही झड़प में कमजोर पाया जो ‘केवल भाई’ के रूप में कर्ण सिंह से उलझ पड़े थे।

दुर्भाग्यवश, यह सब देखने, इसके गंभीर निहितार्थ समझने, और इसकी काट या उपाय करने पर जैसा ध्यान दिया जाना चाहिए था, वह किसी ने नहीं दिया। अन्यथा तो जो चीज डॉ. कर्णसिंह को दिखाई पड़ी, वह राष्ट्रवादी राजनीति को भी दिखनी चाहिए थी। पर स्वतंत्र भारत में हिन्दू-द्वेषी प्रचार के दुष्प्रभाव को गंभीरता से नहीं लिया गया। अयोध्या प्रसंग पर उनकी घातक भूमिका इसीलिए सफल हुई।

इस उपेक्षा का ही दुष्परिणाम है कि भारत में समाज ज्ञान और साहित्य का अध्ययन-अध्यापन हर तरह की हिन्दू-द्वेषी और देश-विरोधी राजनीति का अड्डा बन गया। दुनियाभर में कम्युनिस्ट राजनीति के पतन के बावजूद यहां ‘जेएनयू के डायनासोर’ अभी भी उसी तरह बेफिक्र, बल्कि घमंड के साथ वैदिक ज्ञान का उपहास उड़ाने तथा देशद्रोहियों के प्रति एकजुटता दिखाने में लगे हुए हैं। दशकों के प्रयत्नों से अब उनके चेले-चेलियां असंख्य अकादामिक पदों, मीडिया और अधिकारी वर्ग में भी हैं। उन्हें भी भारत के टूटने की नहीं, बल्कि समाज ज्ञान शिक्षण को यथावत् भारत-विरोधी प्रचार के रूप में बचाने की चिंता है।

इसीलिए संसद पर हमला करने वाला अफजल या आतंकी सूत्रधार याकूब मेमन, इशरत जहां आदि हर तरह के घाती यदि जेएनयू में हीरो बनाये जाते हैं, तो यह सब संयोग नहीं। आखिर ये लोग भारत को नष्ट ही तो करना चाहते थे! यानी, ठीक वह चीज जो बकौल डॉ. कर्ण सिंह, रोमिला थापर का लेखन चार दशक पहले से करता रहा है।

निस्संदेह, स्वतंत्र भारत में मार्क्सवादी प्रचारकों ने विद्वत पदों को हथियाकर शिक्षा को दूषित करने में भारी सफलता पाई है। उन्होंने भारतीय परंपरा में शिक्षकों-लेखकों को मिलने वाले सहज आदर का भारी दुरुपयोग किया है। नतीजतन पूरी सामाजिक और साहित्यिक शिक्षा का बंटाढार हो जाने पर भी ऐसे पाखंडी विद्वानों की पूछ बनी हुई है। जो लोग नकली साधुओं पर दुखी या कुपित होते हैं, उन्हें कभी पाखंडी प्रोफेसरों पर भी नजर फेरनी चाहिए, क्योंकि इनके द्वारा पहुंचाई जा रही हानि दूरगामी और अधिक घातक रही है।

लेखक : डॉ. शंकर शरण

धर्म (Magic or Logic)


धर्म (Magic or Logic)
इस विवरण में दी गई घटनाए वास्तविक हैं. नाम और समय इसलिए नहीं लिखा है क्योंकि नाम कोई भी हो स्थान कोई भी हो सकता है.
1- उत्तरप्रदेश मेरठ के निकट -
गुरु जी ने बहुत बड़ा हाल कमरा बनवाया. कमरे में कंक्रीट का लेंटर ( RCC Slab) लगाया. कंक्रीट डालने के 5 दिन बाद गुरु जी ने निर्माण करने वाले राज मिस्त्री को कहा कि शटरिंग हटा दें. उसने कहा कि कम से कम 15 दिन का समय लगता है. अभी शटरिंग हटाई तो चोट लग जाएगी और छत गिर जाएगी. गुरु ने कहा कि गुरु के वचन में बहुत शक्ति है. तुम्हे विश्वास नहीं है. तुम पीछे हट जाओ. अपने अनुयायियों को शटरिंग हटाने का आदेश दिया. शटरिंग हटाते समय छत्त टूट कर गिर गई. कई श्रद्धालु मर गए और बहुत से बुरी तरह घायल हो गए . मरे हुए श्रद्धालू स्वर्ग में गए यह गुरु जी ने बताया.
2-- उत्तर प्रदेश मथुरा के निकट -
करोड़ पति गुरु जी का जन्मदिन. गरीबों को मुफ्त सामान बांटने का लालच दिया. आश्रम के दरवाजे पर गरीबों की जबरदस्त भीड़. कई घण्टे तक इन्तजार के बाद गुरु जी आए. धोती, कटोरी, गिलास आदि इस तरह बंटवाया कि भगदड़ मच गई. कई गरीब मारे गए. गुरु जी ने यह कहकर पल्ला झाड लिया कि मेरे आश्रम के बाहर मरे हैं. मेरी कोई जिम्मेवारी नहीं. पुलिस चुप. इन गुरु जी ने भी मुगल बादशाहों की तरह केवल अपने पुत्रों का विवाह किया था. पुत्रियों का नहीं.
3-- राजस्थान - मेहन्दीपुर-
एक नवविवाहित युवती मानसिक रोगी. घर वाले एक तान्त्रिक के कहने पर उस नव विवाहिता को बालाजी धाम लाए. साथ में वह तांत्रिक भी आया. 3 दिन के बाद तान्त्रिक ने कहा कि भूत इसलिए बाहर नहीं आ रहा है क्योंकि इसका पति साथ है. युवती की सास के कहने पर पति वापिस घर आ गया. सास, बहु और तांत्रिक वहीँ रह गए. अगले दिन तांत्रिक ने बहु को धर्मशाला में अपने कमरे में इलाज के बहाने बुला लिया और सास को दर्शन करने वालों की लाइन भेज दिया.
4--
रोमन कैथोलिक में किसी को सन्त घोषित करना हो तो उसकी पहली शर्तें होती है, उपरोक्त व्यक्ति के नाम के साथ कोई चमत्कार घटित होता दिखाया जाये। अगर चमत्कार का 'प्रमाण' पेश किया गया तो उपरोक्त व्यक्ति का 'बीटिफिकेशन' होता है अर्थात उसे ईसा के प्रिय पात्रों में शुमार किया जाता है, जिसका ऐलान वैटिकन में आयोजित एक बड़े धार्मिक जलसे में लाखों लोगों के किया जाता है तथा दूसरे चरण में उसे सन्त घोषित किया जाता है जिसे 'कननायजेशन' कहते हैं।
अभी कुछ साल पहले मदर टेरेसा के बीटिफिकेशन हुआ था , जिसके लिए राईगंज के पास की रहनेवाली किन्हीं मोनिका बेसरा से जुड़े 'चमत्कार' का विवरण पेश किया गया था। गौरतलब है कि 'चमत्कार' की घटना की प्रामाणिकता को लेकर सिस्टर्स आफ चैरिटी के लोगाें ने लम्बा चौड़ा 450 पेज का विवरण वैटिकन को भेजा था। यह प्रचारित किया गया था कि मोनिका के टयूमर पर जैसे ही मदर टेरेसा के लॉकेट का स्पर्श हुआ, वह फोड़ा छूमन्तर हुआ। दूसरी तरफ खुद मोनिका बेसरा के पति सैकिया मूर्म ने खुद 'चमत्कार' की घटना पर यकीन नहीं किया था और मीडियाकर्मियों को बताया था कि किस तरह मोनिका का लम्बा इलाज चला था। दूसरे राईगंज के सिविल अस्पताल के डाक्टरों ने भी बताया था कि किस तरह मोनिका बेसरा का लम्बा इलाज उन्होंने उसके टयूमर ठीक होने के लिए किया।
इसी कड़ी में कुछ हिन्दुओं की मूर्खता देखिये उन्होंने इंग्लैंड के वेम्ब्ली में 16 मिलियन पौंड खर्च करके आलीशान मंदिर का निर्माण किया उसमें हिन्दू देवी देवताओं के अतिरिक्त वीर शिवाजी, महाराणा प्रताप या बन्दा बैरागी नहीं अपितु मदर टेरेसा की मूर्ति लगा डाली।
5-
उत्तर प्रदेश - बहराइच--
यहाँ गाज़ी मियां की कब्र है। गाज़ी मियां का असली नाम सालार गाज़ी मियां था एवं उसका जन्म अजमेर में हुआ था। इस्लाम में गाज़ी की उपाधि किसी काफ़िर यानि गैर मुसलमान को क़त्ल करने पर मिलती थी। गाज़ी मियां के मामा मुहम्मद गजनी ने ही भारत पर आक्रमण करके गुजरात स्थित प्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर का विध्वंश किया था। कालांतर में गाज़ी मियां अपने मामा के यहाँ पर रहने के लिए गजनी चला गया। कुछ काल के बाद अपने वज़ीर के कहने पर गाज़ी मियां को मुहम्मद गजनी ने नाराज होकर देश से निकला दे दिया। उसे इस्लामिक आक्रमण का नाम देकर गाज़ी मियां ने भारत पर हमला कर दिया। हिन्दू मंदिरों का विध्वंश करते हुए, हजारों हिन्दुओं का क़त्ल अथवा उन्हें गुलाम बनाते हुए, नारी जाति पर अमानवीय कहर बरपाते हुए गाज़ी मियां ने बाराबंकी में अपनी छावनी बनाई और चारों ओर अपनी फौजे भेजी। मानिकपुर,बहराइच आदि के 24 हिन्दू राजाओ ने राजा सोहेल देव के नेतृत्व में जून की भरी गर्मी में गाज़ी मियां की सेना का सामना किया और उसकी सेना का संहार कर दिया। राजा सोहेल देव ने गाज़ी मियां को खींच कर एक तीर मारा जिससे की वह परलोक पहुँच गया। उसकी लाश को उठाकर एक तालाब में फेंक दिया गया। हिन्दुओं ने इस विजय से न केवल सोमनाथ मंदिर के लूटने का बदला ले लिया था बल्कि अगले 200 सालों तक किसी भी मुस्लिम आक्रमणकारी का भारत पर हमला करने का दुस्साहस नहीं हुआ।
कालांतर में फ़िरोज़ शाह तुगलक ने अपनी माँ के कहने पर बहरीच स्थित सूर्य कुण्ड नामक तालाब को भरकर उस पर एक दरगाह और कब्र गाज़ी मियां के नाम से बनवा दी जिस पर हर जून के महीने में सालाना उर्स लगने लगा। मेले में एक कुण्ड में कुछ बेहरूपियें बैठ जाते है और कुछ समय के बाद लाइलाज बिमारिओं को ठीक होने का ढोंग रचते है। पूरे मेले में चारों तरफ गाज़ी मियां के चमत्कारों का शोर मच जाता है और उसकी जय-जयकार होने लग जाती है। हजारों की संख्या में मुर्ख हिन्दू औलाद की, दुरुस्ती की, नौकरी की, व्यापार में लाभ की दुआ गाज़ी मियां से मांगते है, शरबत बांटते है , चादर चदाते है और गाज़ी मियां की याद में कव्वाली गाते है। इसी के बारे में तुलसीदास जी दोहावली” में कहते हैं –लही आँखि कब आँधरे, बाँझ पूत कब ल्याइ ।कब कोढ़ी काया लही, जग बहराइच जाइ॥अर्थात “पता नहीं कब किस अंधे को आँख मिली, पता नहीं कब किसी बाँझ को पुत्र हुआ, पता नहीं कब किसी कोढ़ी की काया निखरी, लेकिन फ़िर भी लोग बहराइच क्यों जाते हैं
6- राजस्थान - अजमेर -
साल में एक बार उर्स (मेला) लगता है. यात्रा निकाली जाती है. मूर्ख हिन्दू बहुत बड़ी मात्रा में चढ़ावा चढ़ाता है और गीत गाता है -
ख्वाजा मेरे ख्वाजा. दिल में समा जा.
उसी कब्र पर जाकर मन्नत मांगी जाती हैं. सन्त दादू जी कहते हैं -
दादू दुनिया बावरी, कब्रे पूजें ऊत्त,
जिनको कीड़े खा गए उनसे मांगे पूत
ये वह आक्रान्ता है जिसने अन्तिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान को नष्ट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. यह है अन्धभक्ति जिसमे बुद्धि के दरवाजे को बंद करके ताला लगा दिया जाता है. अजमेर में ख्वाजा की कब्र के आस पास बिकने वाले साहित्य में साफ़ साफ़ उसका सम्बन्ध मुहम्मद गौरी से बताया जाता है.
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इसलिए धर्म का सम्बन्ध तर्क से है, बुद्धि से अन्धानुकर्ण से नहीं.

ईसाई मिशनरी का मायाजाल



ईसाई मिशनरी का मायाजाल

-संजय कुमार

गैर ईसाईयों को ईसाई बनाने के लिए किस तरह के षड्यंत्रों का प्रयोग किया जाता है वह विचारणीय है। क्या आपने कभी सुना है कि कुछ मुस्लिम आज तक इसाई बने है? आखिर हिन्दू ही इतना आसान क्यों है? कुछ समय पहले झारखण्ड सरकार ने No Conversion ( धर्मान्तरण रोकने का कानून बनाया तो समस्त ईसाइयों ने इसका जबर्दस्त विरोध किया।


जानिए इनके कुछ छल कपट जो पूर्व में अपनाए गए थे या आज अपनाए जा रहे हैं

1-उत्तरी सेंटिनल द्वीप के मूल निवासियों ने 27 वर्षीय अमेरिकी नागरिक जॉन एलन चाउ को मार दिया था। जांच में स्पष्ट हुआ कि चाउ ने हर एक भारतीय नियम, कानून और अधिनियम की अवहेलना की। ऐसा नहीं है कि चाउ पहली बार अंडमान निकोबार आया था। वह सितंबर 2016 से लेकर अपनी मौत से पहले तीन बार पोर्ट ब्लेयर आ चुका था।

आखिर चाउ कौन था? किस मानसिकता और किस उद्देश्य की पूर्ति हेतु उसने अपनी जान दांव पर लगा दी? जहां एक तरफ भारत में चाउ के वास्तविक उद्देश्य पर पर्दा डालने का संगठित प्रयास हो रहा है वहीं ‘इंटरनेशनल क्रिश्चियन कन्सर्न’ नामक ईसाई संगठन और अधिकांश विदेशी मीडिया ने सच्चाई उजागर करते हुए चाउ का वर्णन ईसाई मिशनरी/प्रचारक के रूप में किया है। दर्दनाक मौत से पहले चाउ ने अपने माता-पिता के नाम छोड़े पत्र में लिखा, ‘आप लोगों को लगता होगा कि मैं सनक गया हूं, किंतु उन्हें (सेंटिनल द्वीपवासी) जीसस के बारे में बताना आवश्यक है। उन लोगों से मेरा मिलना व्यर्थ नहीं है। मैं चाहता हूं कि वे लोग भी अपनी भाषा में प्रभु की आराधना करें। यदि मेरी मौत हो जाए तो आप इन लोगों या प्रभु से नाराज मत होना। मैं आप सभी से प्यार करता हूं और मेरी प्रार्थना है कि आप दुनिया में ईसा मसीह से अधिक किसी और से प्यार न करें।’ 13 पन्नों की यह चिट्ठी चाउ ने अपनी मदद करने वाले मछुआरों को सौंपी थी।

2. जिसे आज हम झारखंड कहते वह उस समय बिहार का हिस्सा था। आदिवासियों में एक अफवाह फैलाई गई कि आदिवासी हिन्दू नहीं ईसाई हैं।
उस समय कार्तिक उरांव, जो वनवासियों के समुदाय से थे एवं कांग्रेस में इंदिरा गांधी के समकक्ष नेता थे, ने इसका बहुत ही कड़ा और कारगर विरोध किया। उन्होंने कहा कि पहले सरकार इस बात को निश्चित करे कि बाहर से कौन आया था ? यदि हम यहाँ के मूलवासी हैं तो फिर हम ईसाई कैसे हुए क्योंकि ईसाई पन्थ तो भारत से नहीं निकला। और यदि हम बाहर से आये ईसाईयत को लेकर, तो फिर आर्य यहाँ के मूलवासी हुए। और यदि हम ही बाहर से आये तो फिर ईसा के जन्म से हज़ारों वर्ष पूर्व हमारे समुदाय में निषादराज गुह, शबरी, कणप्पा आदि कैसे हुए ? उन्होंने यह कहा कि हम सदैव हिन्दू थे और रहेंगे।

उसके बाद कार्तिक उरांव ने बिना किसी पूर्व सूचना एवं तैयारी के भारत के भिन्न भिन्न कोनों से वनवासियों के पाहन, वृद्ध तथा टाना भगतों को बुलाया और यह कहा कि आप अपने जन्मोत्सव, विवाह आदि में जो लोकगीत गाते हैं उन्हें हमें बताईए। और फिर वहां सैकड़ों गीत गाये गए और सबों में यही वर्णन मिला कि यशोदा जी बालकृष्ण को पालना झुला रही हैं, सीता माता राम जी को पुष्पवाटिका में निहार रही हैं, कौशल्या जी राम जी को दूध पिला रही हैं, कृष्ण जी रुक्मिणी से परिहास कर रहे हैं, आदि आदि। साथ ही यह भी कहा कि हम एकादशी को अन्न नहीं खाते, जगन्नाथ भगवान की रथयात्रा, विजयादशमी, रामनवमी, रक्षाबन्धन, देवोत्थान पर्व, होली, दीपावली आदि बड़े धूमधाम से मनाते हैं।

फिर कार्तिक उरांव ने कहा कि यहाँ यदि एक भी व्यक्ति यह गीत गा दे कि मरियम ईसा को पालना झुला रही हैं और यह गीत हमारे परम्परा में प्राचीन काल से है तो मैं भी ईसाई बन जाऊंगा। उन्होंने यह भी कहा कि मैं वनवासियों के उरांव समुदाय से हूँ। हनुमानजी हमारे आदिगुरु हैं और उन्होंने हमें राम नाम की दीक्षा दी थी। ओ राम , ओ राम कहते कहते हम उरांव के नाम से जाने गए। हम हिन्दू ही पैदा हुए और हिन्दू ही मरेंगे।
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3--जेमो केन्याटा केन्या की जनता के बीच राष्ट्रपिता का दर्जा रखते हैं। उन्होंने कहा था

-जब केन्या में ईसाई मिशनरियां आर्इं उस समय हमारी धरती हमारे पास थी और उनकी बाइबिल उनके पास।

उन्होंने हम से कहा – “आँख बंद कर प्रार्थना करो.”

जब हमारी आंखें खुलीं तो हमने देखा कि उनकी बाइबिल हमारे पास थी और हमारी धरती उनके पास।

4-- छत्तीसगढ़ - एक मिशनरी के हाथ में 2 मूर्तियाँ हैं। एक भगवान कृष्ण की औरदूसरी यीशु की हैं। ईसाई मिशनरी (प्रचारक) गाँव वालों को कहता है कि देखो जिसका भगवान सच्चा होगा वह पानी में तैर जाएगा। यीशू की मूर्ति तैरती है ( क्योंकि वह लकड़ी की बनी थी) और श्रीकृष्ण की मूर्ति पानी में डूब जाती है (क्योंकि वह POP या मिट्टी की बनी थी) ये छल कई गाँवों में अजमाई गई। एक गाँव में एक युवक ने कहा कि हमारे यहाँ तो अग्नि परीक्षा होती है तो मिशनरी बहाना बनाकर निकल जाता है।
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5-इसाई चमत्कारिक प्रेरक/ प्रचारक – पाल दिनाकरन – प्रार्थना के पैक बेचते हैं।

पॉल दिनाकरण प्रार्थना की ताकत से भक्तों को शारीरिक तकलीफों व दूसरी समस्याओं से छुटकारा दिलाने का दावा करते हैं। पॉल बाबा अपने भक्तो को इश्योरेंस या प्रीपेड कार्ड की तरह प्रेयर पैकेज बेचते हैं। यानी, वे जिसके लिए भगवान से प्रार्थना करते हैं, उससे मोटी रकम भी वसूलते हैं। मसलन 3000 रुपये में आप अपने बच्चों व परिवार के लिए प्रार्थना करवा सकते हैं। पॉल दिनाकरन जो कि एक इसाई प्रेरक हैं उनकी संपत्ति 5000 करोड़ से ज्यादा है,बिशप के.पी.योहन्नान की संपत्ति 7000 करोड़ है, ब्रदर थान्कू (कोट्टायम , करेला ) की संपत्ति 6000 हज़ार करोड़ से अधिक है.

6- अभी कुछ साल पहले मदर टेरेसा के बीटिफिकेशन हुआ था अर्थात मदर टेरेसा को सन्त घोषित किया गया। जिसके लिए राईगंज के पास की रहनेवाली किन्हीं मोनिका बेसरा से जुड़े 'चमत्कार' का विवरण पेश किया गया था। गौरतलब है कि 'चमत्कार' की घटना की प्रामाणिकता को लेकर सिस्टर्स आफ चैरिटी के लोगाें ने लम्बा चौड़ा 450 पेज का विवरण वैटिकन को भेजा था। यह प्रचारित किया गया था कि मोनिका के टयूमर पर जैसे ही मदर टेरेसा के लॉकेट का स्पर्श हुआ, वह फोड़ा छूमन्तर हुआ। दूसरी तरफ खुद मोनिका बेसरा के पति सैकिया मूर्म ने खुद 'चमत्कार' की घटना पर यकीन नहीं किया था और मीडियाकर्मियों को बताया था कि किस तरह मोनिका का लम्बा इलाज चला था। दूसरे राईगंज के सिविल अस्पताल के डाक्टरों ने भी बताया था कि किस तरह मोनिका बेसरा का लम्बा इलाज उन्होंने उसके TB के टयूमर ठीक होने के लिए किया।

भारत की सनातनी परंपरा सदियों से भय, लालच और धोखे का शिकार रही है। देश में अधिकांश चर्चों और ईसाई मिशनरियों की विकृत ‘सेवा’ उसी गुप्त एजेंडे का हिस्सा है जिसकी नींव 15वीं शताब्दी में गोवा में पुर्तगालियों के आगमन और 1647 में ब्रितानी चैपलेन ने मद्रास पहुंचने पर रखी थीं। 1813 में चर्च के दवाब में अंग्रेजों ने ईस्ट इंडिया चार्टर में विवादित धारा जोड़ी, जिसके बाद ब्रिटिश पादरियों और ईसाई मिशनरियों का भारत में ईसाइयत के प्रचार-प्रसार का मार्ग साफ हो गया। तभी से भारतीय समाज के भीतर मतांतरण का खेल जारी है। आज भी स्वतंत्र भारत के कई क्षेत्रों में खुलेआम कथित आत्मा का कुत्सित व्यापार-विदेशी वित्तपोषित स्वयंसेवी संगठनों के समर्थन और वामपंथियों सहित स्वयंभू सेक्युलरिस्टों की शह पर धड़ल्ले से चल रहा है।

स्वतंत्रता से पूर्व नगालैंड और मिजोरम-दोनों आदिवासी बहुल क्षेत्र थे। 1941 में नगालैंड की कुल आबादी में जहां गिनती के केवल नौ ईसाई (लगभग शून्य प्रतिशत) थे और मिजोरम में ईसाइयों की संख्या केवल .03 प्रतिशत थी, वह यकायक 1951 में बढ़कर क्रमश: 46 और 90 प्रतिशत हो गई। 2011 की जनगणना के अनुसार, दोनों प्रांतों की कुल जनसंख्या में ईसाई क्रमश: 88 और 87 प्रतिशत है। मेघालय की भी यही स्थिति है। अब इतनी वृहद मात्रा में मतांतरण के लिए क्या-क्या हथकंडे अपनाए गए होंगे, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। क्या यह सत्य नहीं कि इसी जनसांख्यिकीय स्थिति के कारण इन इलाकों में चर्च का अत्यधिक प्रभाव है और वहां का एक वर्ग भारत की मुख्यधारा से कटा हुआ है?

ईसाई दयालुता केवल तभी तक है जब तक कोई व्यक्ति ईसाई नहीं बनता. यदि इन्हें लोगों की भूख, गरीबी और बिमारी की ही चिन्ता होती तो अफ्रीका महाद्वीप के उन देशों में जाते जहाँ 95% जनसंख्या ईसाई है। आज जरूरत है कि प्रत्येक भारतीय महर्षि दयानन्द कृत सत्यार्थ प्रकाश पढ़े और विधर्मियों के छल कपट को समझे। यदि हम आज नहीं जागे तो कल तक बहुत देर हो जाएगी।

Wednesday, November 28, 2018

सूफीवाद का असली चेहरा



सूफीवाद का असली चेहरा
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(ढाई वर्ष पूर्व दिल्ली में आयोजित "विश्व सूफी सम्मेलन" के संदर्भ में लिखा गया यह लेख कुछ पुराना है, पर आज भी पठनीय व प्रासंगिक है।)
दिल्ली में चल रहे 'विश्व सूफी सम्मेलन' और उसके द्वारा आतंकवाद की निन्दा की खबर आश्वस्तकारी होनी चाहिए थी, किन्तु अंग्रेजी कहावत है, "तफसील में शैतान मिलता है।" इस पूरे आयोजन, आयोजक, अब तक के वक्तव्य तथा प्रस्तावित वक्ताओं, आदि की तफसील निराशाजनक है। बल्कि संदेह पैदा करती है। कि यह किस सूफी परंपरा वाला सम्मेलन हैः सरहिन्दी, चिश्ती, औलिया वाला या बुल्लेशाह, जफर, गालिब वाला? पहली परंपरा छल-बल से केवल इस्लाम के प्रसार के लिए कटिबद्ध थी, जबकि दूसरी मानवतावादी थी। इसे बिना स्पष्ट किए गोल-मोल सूफीवाद की बात करना घातक हो सकता है।
यह सम्मेलन 'ऑल इंडिया उलेमा और मशाइख बोर्ड' द्वारा आयोजित किया गया है। इस संस्था का जन्म हुए अभी साल भर भी नहीं हुआ। इस की वेबसाइट पर सारी गतिविधि, सामग्री राजनीति-केंद्रित है। इसके स्मरणीय, मार्गदर्शक सूफियों की तफसील से यह पहली परंपरा वाला ही साबित होता है! जैसे, जुनैद बगदादी और मोइनुद्दीन चिश्ती का नाम उस में दर्ज है। बगदादी ने कहा था, “जो खुदा के पैगम्बर (मुहम्मद) के मार्ग पर चलता हो, उसके सिवा सभी रहस्यवादी रास्ते निषिद्ध हैं।”
यही बात समझने की है। आखिर क्या कारण है कि ऐसा सूफी सम्मेलन किसी मुस्लिम देश में नहीं होता? इसलिए, क्योंकि वहाँ इस्लाम के प्रसार का काम नहीं बचा है। अतः केवल भारत में ही ऐसी गतिविधियाँ चर्च-मिशनरियों की तरह काफिरों को नूरे-इलाही देने की जुगत भिड़ाने, इस्लाम के प्रति आदर पैदा करने, और इस्लामी कारनामों के कुरूप इतिहास-वर्तमान पर पर्दा डालने का एक मिशन जो है।
यह कोई आज की बात नहीं। सूफियों का पूरा इतिहास मुख्यतः राजनीति से जुड़ा रहा है। सूफी सक्रियता इस्लाम के प्रभुत्व की सीमाओं पर ही होती थी। अर्थात्, जहाँ अभी तक इस्लामी राज कायम नहीं हुआ वहाँ भी इस्लाम का ‘नूर’ फैले, इसके लिए अनेक सूफियों ने खूनी लड़ाइयाँ भी लड़ी। कर्नाटक और महाराष्ट्र मे ऐसे अनेक सूफियों की दास्तानें सर्वविदित हैं। मुहम्मद इब्राहीम जुबैरी द्वारा संकलित 'सूफियों की जीवनी' (तजकिरा-ए-औलिया) में ऐसे सूफियों का विवरण पढ़ लें।
अधिकांश सूफी इस्लामी विस्तारवाद के सचेत अंग रहे हैं। यहाँ सूफी अरब या मध्य एसिया से आते थे। अक्सर वे किसी नए इलाके पर कब्जे को जाने वाली इस्लामी सेनाओं के साथ जाते थे और लड़ाइयाँ लड़ते थे। जैसे, पीर मबारी खंदायत। वे दिल्ली से अल्लाउद्दीन खिलजी की सेनाओं के साथ दक्षिण गए थे और बीजापुर पर नियंत्रण करने में बड़ी भूमिका निभाई थी। दक्षिण-पश्चिमी भारत में मशहूर शेख सूफी सरमस्त की ख्याति अपने चुने हुए लड़ाकों के साथ सैनिक अभियान चलाकर हिन्दू राजाओं के खात्मे की ही है।
सूफी सरमस्त अरब से आए थे। शेख अली पहलवान, शेख शाहिद, पीर जुमना आदि जैसे इस तरह के कई अन्य सूफी थे। इसीलिए, अनातोलिया से अफगानिस्तान तक, कई सूफी एक साथ 'गाजी' (जिहाद लड़ने वाले) और 'औलिया' दोनों कहलाते थे। ‘गाजी-बाबा’ शब्द का चलन उसी से हुआ जो आज भी तालिबानों के बीच चलता है।
रिचर्ड ईटन की प्रसिद्ध पुस्तक "सूफीज ऑफ बीजापुर" (प्रिंसटन, 1978) में सूफी इतिहास की चार शताब्दी का विस्तृत वर्णन है। इस में ‘योद्घा सूफियों’ पर एक पूरा अध्याय है। ईटन के अनुसार सूफियों के बारे में शान्ति-प्रेमी ईश्वरभक्त होने की सामान्य धारणा गलत है। दक्षिण भारत की ओर जाने वाले पहले सूफी "जिहादी" लड़ाके ही थे। तब उत्तर भारत में जहाँ दिल्ली सल्तनत थी, उनकी भूमिका समझी जा सकती है।
ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती भी बारहवीं सदी में मध्य एसिया से शहाबुद्दीन घूरी के सैन्य आक्रमण के साथ ही अजमेर आए थे। उनके बीच सहयोग पूर्ण संबंध थे। चिश्ती की मदद से ही शहाबुद्दीन घूरी ने पृथ्वीराज चौहान को अंततः हराया और मार डाला था। खुद मोइनुद्दीन चिश्ती के शब्दों में, “हम ने पिथौरा (पृथ्वीराज चौहान) को जीवित पकड़ा और उसे इस्लामी सेना के सुपुर्द कर दिया।” (एस. ए. ए. रिजवी, "ए हिस्ट्री ऑफ सूफीज्म इन इंडिया") यही मोइनुद्दीन चिश्ती इस ‘ऑल इंडिया उलेमा और मशाइख बोर्ड’ के मार्गदर्शक हैं, जिसने 'विश्व सूफी सम्मेलन' आयोजित किया! अतः इन की सूफी-सूची में राबिया, बुल्लेशाह या गालिब का नाम न होना अर्थपूर्ण है। यदि चिश्ती वाला इतिहास दुहराया जा सके, तो वर्तमान सूफी साहबान नरेंद्र मोदी को इस्लामी स्टेट के हवाले कर फख्र महसूस करेंगे।
यदि हमारी बात विचित्र लगे, तो कारण यही है कि उच्च-वर्गीय हिन्दुओं को सूफीवाद के बारे में नशा पिला के रखा गया है। नशा ऐसा कि वे खुली आँख सामने रखी किताब या अपने कान सूफी महोदय का व्याख्यान सुन कर भी नहीं समझ पाते कि जनाब का इरादा और संदेश क्या है! जबकि यह देखा सकता है कि आज या पहले, ऐसे सूफियों की किसी आध्यात्मिक उपलब्धि का जिक्र खोजे नहीं मिलता। यह संयोग नहीं कि इस सम्मेलन में या इन आयोजकों की पिछली गतिविधियों में केवल राजनीतिक वक्तव्य और हरकतें मिलती हैं। किसी ‘हिन्दू-मुस्लिम दार्शनिक समन्वय’ जैसी बात की झलक दूर से भी नहीं मिलती। यही पहले भी था। चिश्ती हो या औलिया, सूफियों की तमाम शोहरत ‘काफिरों को इस्लाम तले लाने’ में सफलता की ही नोट की गई है। चाहे वह जैसे हो।
दरअसल, सूफियों की राजनीतिक भूमिका मुख्यतः इस्लाम का प्रभुत्व फैलाने की, भाषणों, बयानों में हिन्दू धर्म पर कीचड़ उछालने की, यानी दारुल-हरब को दारुल-इस्लाम में बदलने की रही है। यह इस से भी स्पष्ट होगा कि जहाँ इस्लामी राज पूरी तरह जम चुका हो, वहाँ से वे चले भी जाते थे। ईटन के शब्दों में, “जिस क्षेत्र में इस्लाम का राजनीतिक दबदबा पूरी तरह कायम हो चुका, वहाँ उन की जरूरत नहीं रह जाती थी।” ठीक चर्च-मिशनरियों की तरह, जो एसिया, अफ्रीका में जमे रहते हैं; यूरोप, अमेरिका में नहीं।
निस्संदेह, ऐसे सूफी भी हुए जो कुरान के बंधनों को नहीं मानते थे, मगर रहस्यवाद, प्रेम की बात करने और राजनीति से निरपेक्ष रहने वाले ऐसे सूफी बहुत कम हुए, जो बिना किसी मध्यस्थ, यानी पैगम्बर, के ईश्वर की लौ लगाते थे। जैसे, राबिया, बुल्लेशाह, गालिब या अंतिम मुगल बादशाह जफर। पर इस्लामी इतिहास में उन की कोई कद्र नहीं है। शायर इकबाल ने तो ऐसे सूफियों को ‘इस्लाम के पतन के दौर की उपज’ बताया था। इस से समझें कि दूसरे प्रकार के सूफी क्या होते थे! सूफियों के उलेमा से जो वैचारिक मतभेद रहे हों, शरीयत को सर्वोच्च मानने और हिन्दुओं को नीच समझने में वे प्रायः एक रहे हैं।
आखिर क्या कारण है कि किसी सूफी ने हिन्दुओं पर जजिया-टैक्स लगाने का विरोध नहीं किया था? किसी सूफी ने सल्तनत के सुलतानों और मुगल बादशाहों को हिन्दू मंदिर तोड़ने से मना नहीं किया था। महमूद गजनवी से लेकर औरंगजेब तक, सदियों में, किसी सूफी का जिक्र नहीं मिलता जिसने हिन्दुओं पर उनकी क्रूरता का विरोध किया हो या उस पर अफसोस भी दिखाया हो। उलटे, कई सूफियों ने विदेशी मुस्लिमों को भारत पर हमले का न्योता दिया। यह सूफी शाह वलीउल्ला ही थे जिन्होंने अफगानिस्तान के अहमद शाह अब्दाली को मराठाओं पर हमला करने के लिए बुलाया था, ताकि यहाँ फिर इस्लामी राज स्थापित हो! यही पानीपत की तीसरी लड़ाई थी।
इस्लामी आक्रांताओं को न्योतने की सूफी परंपरा यहाँ बीसवीं सदी तक चलती रही है। उन्हीं वलीउल्ला के पोते शाह इस्माइल और उनके संगी सैयद अहमद बरेलवी ने सिखों के खिलाफ जिहाद करने के लिए पख्तून सरदार अखुंद गफूर और दोस्त मुहम्मद खान को बुलाया था। गफूर खुद सूफी माना जाता था। बीसवीं सदी में भी कुछ सूफियों ने अफगानों को भारत पर हमले के लिए बुलाया था, जिसकी एनी बेसेंट, रवीन्द्रनाथ टैगोर, आदि ने भर्त्सना की थी। क्या सूफी राजनीति की वह अदाएं आज खत्म हो गई है, या उस ने केवल भेष बदला है? ‘वर्ल्ड सूफी फोरम’ के आयोजकों से और उन पर मेहरबान नेताओं से यह प्रश्न जरूर पूछा जाना चाहिए।
लेखक : डॉ. शंकर शरण

Thursday, November 22, 2018

खण्डन का फल




खण्डन का फल

✍🏻 लेखक - पंडित चमूपति एम॰ए०

[श्री पण्डितजी की ज्ञान प्रसूता लेखनी से लिखा गया यह लेख ‘आर्य' मासिक लाहौर के माघ सम्वत् १९७२ के अंक में छपा था।]
एक ओर अल्पशक्ति आर्यसमाज है और दूसरी ओर नीतिमत्ता तथा वैभव के शस्त्रों से सजा हुआ साम्प्रदायिक संसार। ख्वाजा हसन निज़ामी का और किसी से वैर नहीं। सनातनियों के वह मित्र हैं, आर्यसमाज के जन्म-वैरी। अहमदियों के पत्र तथा व्याख्याता यदि किसी पर दाँत पीसते हैं तो आर्यसमाज पर और तो और, सनातनियों की वक्र दृष्टि भी आज इसी आर्यसमाज ही पर है। सनातन धर्म कान्फ्रेंस के स्वागताध्यक्ष का भाषण यदि किसी के अत्याचार के हाथों छिपा-छिपा करुण क्रन्दन करता था तो आर्यसमाज के। पण्डित मौलीचन्द का भाषण उस विकट विष का एक कण था, जो कुछ समय से सनातनी महादेव के कण्ठ में फंसा हुआ आर्यसमाज के विरुद्ध परवश फनियर की तरह मुँह बढ़ाता है पर दाँत नहीं पाता। इन सभाओं, सोसाइटियों, समुदायों का बस चले तो इकट्टे आर्यसमाज की इतिश्री करें और मिलकर उसकी चिता पर सन्तोष का श्वास लें । 
आर्यसमाज! तूने क्यों पाप किया है जिसका प्रायश्चित तेरी मौत से कराने की चारों ओर से तैयारियाँ हो रही हैं। तेरा अपराध है खण्डन, तीव्र खण्डन, निर्भय निश्शंक खण्डन। महात्मा गांधी जैसा सहनशक्ति का देवता इसी असह्य अपराध पर तेरी पीठ में छुरा घोंपने को उद्यत हो गया था। हृदय काँपता है जब स्मरण आता है, महात्मा ने तुझ पर स्त्री-अपहरण का कुत्सित पाप आरोपित किया और उसकी असत्यता प्रमाणित हो जाने पर भी अपनी भूल को पी गया। आज लाला लाजपत राय कहते हैं तेरी शास्त्रार्थ की प्रचार प्रथा मध्यकालीन है, यूरोप में इस विधि को कभी को छोड़ दिया गया है। हाय यूरोप का जादू! हम धर्म प्रचार का ढंग भी अब यूरोप से सीखने जायेंगे! लालाजी का उद्देश्य क्या है? क्या आर्यसमाज ईसाइयों की भाँति अपना प्रचार प्रलोभन से करे-छल से करे-राजभक्ति के ढोंग से करे? यूरोप की और विधि कौन सी है? लालाजी ने पश्चिम का साक्षात् अवलोकन किया है और यहाँ केवल सुने सुनाए का परिचय है। तो भी आए दिन के Fundamentalists फण्डेमेण्टेलिस्ट और Modermists मौडर्निस्ट ईसाइयों के परस्पर वाद विवाद की सूचनाएँ पत्रों में प्रकाशित होती हैं। यह शास्त्रार्थ नहीं तो और है क्या? पण्डित मदनमोहनजी मालवीय ने भरी सभा में शास्त्रार्थ का आव्हान चाहा है। इसका उत्तर अब आर्यसमाज क्या दे? मौन?
नेताओं को विचार एकता का है और आर्यसमाज को सुधार का । नेता बल के भूखे हैं, सुधारक सत्य और सदाचार के। इनकी भ्रान्त दृष्टि में सदाचार सबसे बड़ा बल है। देखें इतिहास किसके परिश्रम की प्रशंसा करता है। भावी विजयी हम होंगे या हमारे राजनैतिक नेता। इसमें हमारी अपनी अब की साक्षी तो कोरा पक्षपात होगी। समय बदल गया है। नहीं तो महात्माजी का तथा लालाजी का लक्ष्य-बिन्दु एक है। महात्मा को भारतीयता के नाते हम पर रोष था, लाला को हिन्दुत्व के नाते है। यदि हमें अपनी सफलता अथवा सत्य परायणता का प्रमाण राजनैतिक नेताओं से लेना हो, तो हम तो पहिली ही बार इनके सम्मुख होते ही अनुत्तीर्ण हैं। हमारा परीक्षक अन्तरात्मा है। इससे अधिक स्थूल साक्षी हमारे शत्रु मन्यों की है- अर्थात् उनकी जो आज हमारी जान के प्यासे प्रतीत हो रहे हैं।
🌺 मुसलमानो! कुरान की कसम है। अहमदियो! कलामे पाक को हाथ में लेकर सच कहो, हमने तुम्हारा हित किया है या अहित? मौलाना मुहम्मद अली! तुम्हीं कहना, हमारे खण्डन की छाप मात्र से ही क्या तुमने कुरान को सिर से पाँव तक सद्भावों के भूषणों से मण्डित करने का प्रयत्न नहीं किया? क्या हमारे खण्डन-कुठार के घाव कुरान के कलेवर पर वीरों के प्रसाद की भाँति कुरान को शर-शय्या पर लेटाए हुए भी उससे अमरता का स्वाँग नहीं भरवा रहे? लो! कुरान स्वयं बोल उठा?
🔥 १. कुरान सूरा २७. आयात ६० मुहम्मद महोदय के परमात्मा के दर्शनार्थ सातवें आसमान पर जाने का वर्णन किया है। बुराक नाम का गधा इस पुण्य यात्रा में खुदा के रसूल की सवारी होने से अमरता प्राप्त कर चुका है परन्तु मो० अली अपने कुरान-भाष्य में लिखते हैं
भाष्यकार प्राय: सहमत हैं कि यहाँ संकेत आरोहण के स्वप्न की ओर है जिससे पवित्र सन्देशहर को अपने पलायन (हिजरत) के पश्चात् बड़ी सफलताओं का वचन दिया गया। (Holy Quran Note 1441)
🔥 २. सूरा ४१ आयत १०में पृथिवी के छह: दिनों में बनाए जाने की कथा है जैसे तौरा (Old Testament) में सूर्य के चौथे दिन निर्मित होने का वृतान्त है। हमारे ईसाई भाइयों ने दिन का अर्थ स्टेज कर लिया तो अहमदी क्यों पीछे रहने लगे! उक्त भाष्यकार के अपने शब्दों में -
‘छ: समयों या दिवसों में सृष्टि होने का अर्थ आसमानों और जमीनों के निर्माण में लगे काल की इयता प्रकाशित करना नहीं........वास्तव में छ: काल.......इन पदार्थों की सृष्टि की स्थितियाँ-स्टेजें-हैं।' (Holy Quran Note 2199)
🔥 ३. शैतान पर मौलाना की टिप्पणी देखने योग्य है। सूरा ७ आयत १२ पर आप लिखते हैं
‘इस प्रकार यहाँ दिया वर्णन इन दो प्रकार के प्राणियों के शील के मुख्य गुणों का द्योतक है। यहाँ इसका अभिप्राय केवल यह है कि आग्नेय शील (के मनुष्य) ही पूर्ण पुरुष अथवा सच्चे सन्देशहर के अनुकरण से नकार करते हैं।' (Holy Quran Note 862)
कुरान में यहाँ वर्णन शैतान के आदम के पूजन से इनकार करने का है। सो देख लीजिये यहाँ आदम मुहम्मद हो गया और शैतान के विरुद्ध विद्रोही लोग।
🔥 ४. आदम से यों छुट्टी हुई तो उसके पुत्र आबील काबील कहाँ बच सकते हैं? सूरा ५ आयात २७ पर यह आलोक चढ़ाया है-
‘परन्तु इस सारी कथा का अभिप्राय आलंकारिक लिया जा सकता है जिसका संकेत पवित्र सन्देशहर के विरुद्ध यहूदियों के षड्यन्त्रों की ओर है। यहाँ अत्याचारी तथा पापी भ्राता (एक वचन) का अर्थ इस्राइली (बहुवचन) है और धर्मात्मा भाई (एकवचन) को अर्थ इस्माइली है जिनका प्रतिनिधि पवित्र सन्देशहर है।' (Holy Quran Note 686) 
कथा ही उड़ गई। वे सिर पैर की बात को सिर पैर देने का प्रयत्न किया है। यह और बात है, हाथी का सिर गणेश की गर्दन पर पूरा आए या न आए।
🔥 ५. कुरानी बहिश्त को सर सैयद ने वेश्या-गृह का नाम दिया था वह अब क्या बन रहा है? अहमदी भाष्यकार के अपने शब्दों में-
‘स्वर्ग और नरक दो स्थानों के नाम नहीं, किन्तु वास्तव में दो अवस्थाएँ हैं। क्योंकि यदि स्वर्ग हो तो नरक नहीं हो सकता। इन आयतों के अनुसार स्वर्ग सारे आकाश (Space) पर व्यापक है।(Holy Quran Note 2554) 
कुर्आन कर्ता इतनी अन्वय-कारक बुद्धि के मालिक न थे। इसका भाव कुअन के अन्य स्थल हैं। शुक्र है १३०० वर्ष के पीछे कोई नाम लेवा ऐसा भी हुआ जिसने पूर्वजों की भूल सुधार दी। सपूत ऐसी ही सन्तति को कहा है।

🔥 ६. बहिश्त की यह गति है तो हूरों का ठिकाना? इसपर एक बृहत् टिप्पण दिया है। प्रमाण कोई नहीं। 
‘इसलिए श्वेत आँखें वाली, विशाल नेत्रों वाली, पवित्र सुन्दरियाँ-इस आयत में आई हूर और ईन-इस जीवन की सुन्दर स्त्रियाँ नहीं। यह स्वर्गीय आल्हाद (वर) है जो धर्मात्मा स्त्रियाँ भी पुरुषों के साथ भोगेंगी। ...... पवित्रता और सुन्दरता का प्रतिनिधि स्त्रीत्व है, पुरुषत्व नहीं।(Holy Quran Note 2356) 
हम जानते हैं कुरआन के निष्पक्ष अध्येता उपर्युक्त टिप्पणियों के रचयिता पर खेंचातानी का दोष आरोपित करेंगे। हम भी उनके साथ सहमत हैं। परन्तु एक सुधारेच्छुक के लिए यह कुछ थोड़े सन्तोष का स्थान नहीं कि अरब के उपजे धर्म से विज्ञान और पवित्र आचरण की कवितात्मक ध्वनि निकले। अटकलपच्चू कहानियों को इस्लाम के प्रारम्भिक इतिहास का आलंकारिक रूप दिया जाए। बहिश्त का विलासिनी-गृह उखाड़ उसके स्थान आध्यात्मिक अवस्थाओं का स्वप्न देखने की ओर प्रवृत्ति हो । मोटी आँखों और पवित्र भावों में क्या सम्बन्ध है, यह चाहे एक साहित्यिक समस्या ही रहे परन्तु स्त्रीत्व को पुण्य भावों का प्रतिनिधि अरबी सन्देशहर के मुख से - नहीं हम भूल गए, उसके भी खुदा के मुख से-कहलवाना बीसवीं शताब्दी का चमत्कार कहो तो है, चौदहवीं सदी का कयामत का निशान कहो तो है।
विस्तार भय से पुराण और बाइबल का उद्धरण आज उपस्थित नहीं करते।
यह है खण्डन का मीठा फल, जिसका आस्वाद हमारे विरोधी होंठ चाटकर लेते जाते हैं और बस नहीं करते। यह और बात है खाते भी हैं और खिलाने वाले को गाली भी देते जाते हैं। अभी इस फल का सहवर्ती विष है जो आर्यसमाज देख रहा है और उसका उन्मूलन अपना पवित्र कर्तव्य समझ रहा है। हम भविष्य-वक्ता नहीं। सम्भव है, इस घोर संग्राम का परिणाम जो आर्यसमाज ने अपने खण्डन-कुठार की पैनी धारा से संसार के या कम से कम भारत के कोने-कोने में मचा दिया है, समस्त आर्यों को प्राण-घात हो। सम्भव है, वैरी जन-बाहुल्य के बल से आर्यसमाज को धराशायी कर उस पर सुख की नींद सोएँ। हमें सन्तोष होगा यदि हमारे दहकते हुए शरीरों की अग्नि कम से कम रोग कीटों को स्वाहा कर दे जो अभी कुरान में है, पुराण में हैं, और इजील आदि सांप्रदायिक पुस्तकों में हैं। यदि हमारी राख पर पवित्र जातीयता का मन्दिर खड़ा हो जाए तो अहो भाग्य हैं हमारे प्राणों के जो इस यज्ञ में आहुति बनकर गिरें । हम समझौता नहीं, सच्चाई चाहते हैं। मिश्रण नहीं, एकीकरण चाहते हैं। हम भेदभाव को सहना नहीं, ऐक्य के भाव में लीन कर देना चाहते हैं। हमारे उद्दिष्ट ऐक्य का दूसरा नाम सत्य है। हम गांधी नहीं, मालवीय नहीं, लाजपत नहीं, दयानन्द के चेले हैं। 
*महात्मा ने सच कहा, दयानन्द असहिष्णु थे-असत्य के असहिष्णु, कदाचार के असहिष्णु, वैमनस्य के असहिष्णु। उनका लक्ष्य ऐक्य था और उनका वह ऐक्य पर्याय था शुद्ध स्वच्छ सत्य का। वे नेता ने थे, सुधारक थे।*
*कोई ज़ुबान पर लाए न लाए* 
*महर्षि महिमा गाये न गाये*
*दिल से मगर सब मान चुके* 
*योगी ने जो उपकार कमाये* 
(ऊपर लिखी चार पंक्तियाँ मूल लेख का हिस्सा नही है - अवत्सार)
✍🏻 लेखक - पंडित चमूपति एम॰ए०
साभार - राजेंद्र जिज्ञासु जी (📖 पुस्तक -विचार वाटिका)
प्रस्तुति - 📚 अवत्सार
॥ ओ३म् ॥

आत्मदर्शी दयानन्द



आत्मदर्शी दयानन्द
✍🏻 लेखक – पंडित चमूपति एम॰ए०
[स्वर्गीय पं० चमूपतिजी एम०ए० का यह लेख तब का लिखा हुआ है जब वे गुरुकुल काँगड़ी के मुख्याधिष्ठाता थे। यह लेख साप्ताहिक प्रकाश उर्दू और ‘आर्य मुसाफिर’ में भी छपा था। आचार्य दयानन्द ने आर्यसमाज को स्कूल कमेटी नहीं बनाया था। महर्षि का लक्ष्य वेद-प्रचार व ईशोपासना की रीति चलाना था। ऋषि, महर्षि, यति योगेश्वर दयानन्द का अनूप रूप समझना हो तो यह लेख बारम्बार पढ़िए ।]
ऋषि दयानन्द का जन्म एक भ्रान्ति-प्रधान युग में हुआ था। कोई ऐसी असम्भव बात न थी जिसे योग की सिद्धि के नाम पर सम्भव न समझा जाता हो । योगियों की विशेषता ही चमत्कार था । धार्मिक नेताओं का गौरव ही उनके आलौकिक कारनामों के कारण था।
धर्म की इस प्रवृत्ति को आर्यसमाज ने अन्धविश्वास समझा और इसका घोर खण्डन किया। परिणाम यह हुआ कि आर्यसमाज की श्रद्धा विभूति मात्र से उड़ गई। सौभाग्यवश
आर्यसमाज का अपना ऋषि मूर्त सदाचार था। ऋषि की इस विभूति को आर्यसमाज के प्रचारकों ने हाथों हाथ उठा लिया और इसी चमत्कार की कसौटी पर संसार भर के सिद्धों के जीवन परखे जाने लगे। भला इस क्षेत्र में किसी की ताव थी कि दयानन्द से लोहा लेता? दयानन्द का निष्पाप कुन्दन-सा जाज्वल्यमान उज्ज्वल चरित्र आर्यसमाज का वह अमोघ हथियार था जिसके आगे विरोधी चारों खाने चित्त थे। आर्यसमाज को अपने मन्तव्यों के गौरव की स्थापना के लिए किसी आलौकिक कारनामे का आश्रय लेना ही नहीं पड़ा।
तो क्या अलौकिक कारनामों की कथाएँ वस्तुत: मिथ्या हैं? क्या संसार की सम्पूर्ण घटनाओं के संचालक केवल भौतिक नियम तथा भौतिक शक्तियाँ ही हैं? या क्या आत्मा भी कोई सचमुच की वस्तु है- ऐसी वस्तु जिसके अस्तित्व का संसार के जीवन पर मूर्त-अनुभव में आने वाला-प्रभाव पड़ता हो?
उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ का विज्ञान प्रधान यूरोप आत्मा तथा परमात्मा की सत्ता को ही जवाब दे चुका था। जब विश्वचक्र की सभी घटनाओं का समाधान प्राकृतिक नियमों के द्वारा हो जाता है तो अप्राकृतिक सत्ताओं को स्वीकार करने की आवश्यकता ही क्या है? उन दिनों विज्ञान का अर्थ ही प्राकृतिक समझा जाता था। मनोविज्ञान का भी एक ऐसा रूप निकल आया जिसका नाम ही पड़ा मनः शरीर-शास्त्र(psychophysics)। इसके द्वारा मानसिक घटनाओं की व्याख्या शारीरिक-तन्तुओं (nerves) ही की-परिभाषा में की जाने लगी। परन्तु विज्ञान का तो काम ही गवेषणा करना है। मानव जीवन का मानसिक पहलु वैज्ञानिक अन्वेषण के लिए एक विशेष क्षेत्र पेश करता है। इस क्षेत्र की साधारण घटनाओं की व्याख्या भी भौतिक नियमों द्वारा करनी असम्भव है। परन्तु साधारण घटनायें फिर साधारण थीं, इनकी ओर अन्वेषणकर्ताओं का विशेष ध्यान क्यों जाता? आँख देखती क्यों है? जिन भौतिक अंशों के संयोग से यह बनी है उन्हें कोई रासायनिक अब मिला देखे। एक कृत्रिम चक्षु बन जाएगा, परन्तु वह देख नहीं सकेगा। भूख का रूप भौतिक भोजनाभाव के अतिरिक्त एक विशेष प्रकार की मानसिक वेदना का है। उसकी भौतिक व्याख्या करना असम्भव है। अन्वेषणकर्ता आश्चर्यचकित तब हुए जब सैकड़ों मील की दूरी पर हो रही घटनाओं का साक्षात्कार कई मनुष्यों ने इस प्रकार किया मानो वे घटनायें उनकी आँखों के सामने हो रही हैं । बरसों बाद होने वाली बात इसी वर्तमान क्षण में मूर्त होकर दृष्टि के सामने आ गई। एक हृदय में उद्बुद्ध हो रही भावना, दूसरे हृदय में झट संचारित हो गई। विचार का संचार बिना किसी भौतिक बिजली के तार के किया गया। इन विचित्र कार्यों की भौतिक व्याख्या क्या हो सकती थी?
आज विज्ञान किसी अप्राकृतिक सत्ता होने का विरोध नहीं करता और यद्यपि सदाचार का पक्का भौतिक आधार किसी अलौकिक सत्ता की अनुभूति ही हो सकती है-बिना आध्यात्मिक विचार के, सदाचार युक्ति के क्षेत्र में ठहर ही नहीं सकता-तो भी सदाचार के नियमों का क्रियात्मक पालन बिना इस अनुभूति के भी भली प्रकार होता रहा है। मानव समाज के कई अद्वितीय सेवक नास्तिक-कट्टर निरीश्वरवादी-हुए हैं।
यह सच है कि बिना सदाचार के धर्म का कोई रूप नहीं बनता। किसी पुरुष में आध्यात्मिक विभूतियाँ चाहे कितनी भी स्पष्ट क्यों न हों, यदि उसके आचार पर उन विभूतियों का कोई विशेष रंग नहीं चढ़ा तो धर्म के क्षेत्र में वह पुरुष पाँव नहीं रख रहा, किन्तु दुलत्ति चलाने की चेष्टा मात्र कर रहा है। आध्यात्मिक अनुभूति की पूर्ण परिणति सन्त स्वभाव युक्त सदाचार में ही है। इसी सन्त-स्वभाव को आधुनिक मनोवैज्ञानिक धर्म कहते हैं। सदाचार ही धर्म का बाह्य अंग है, परन्तु इसमें आन्तरिक मधुरता-अलौकिक संजीवनी का सा रस- आध्यात्मिक भावना से ही आता है।
ऋषि दयानन्द में सदाचार की पराकाष्ठा है, परन्तु क्या इनके इस सदाचार का आधार कोई आध्यात्मिक अनुभूति थी? वे तर्क के पुतले थे, परन्तु क्या वह तर्क नीरस था? या उसमें रसपूर्ण भावना का भी एक प्रबल पुट था? तर्क ने उनकी भक्ति को आँख मींचकर ‘बाबा वाक्यं प्रमाणम्’ की प्रवृत्ति से दूर ही रखा, परन्तु उनके महत्व की इतिश्री इसी में हो जाती है कि उन्हें तर्क के क्षेत्र में धोखा नहीं दिया जा सकता था।
‘साक्षात् कृत धर्माण ऋषयोबभूव:’-यास्क की इस उक्ति के अनुसार ऋषि कहते ही उस पुरुष को हैं जिसने धर्म का अर्थात् उस शक्ति का जो समस्त सत् पदार्थों को धारण करती है, साक्षात्कार किया हो । भौतिक संसार की आधारभूत एक आध्यात्मिक सत्ता है। सदाचार का वास्तविक मूल यही है। ऋषि अपने आध्यात्मिक नेत्रों से उसका दर्शन करता है। इसी में उसका ऋषित्व है। दूसरे शब्दों में हमारे प्रश्न का एक और रूप यह हो जाएगा कि क्या स्वामी दयानन्द ऋषि थे? ।
इस प्रश्न का उत्तर किसी और की साक्षी से दे सकना असम्भव है। सन्तों के जीवन में कुछ ऐसे बाह्य गुण पाये जाते हैं, जिनसे वे प्राणिमात्र को अपनी ओर खींच लेते हैं। उनसे उनका आत्मसाक्षात्कार प्रमाणित होता है, परन्तु बाह्य लक्षण फिर भी बाहर ही वस्तु है। उसके सम्बन्ध में भ्रान्ति हो सकती है। अपने आन्तरिक अनुभव को अन्तिम गवाह तो प्रत्येक पुरुष अपने आप ही हो सकता है। विभु परमेश्वर का सम्बन्ध प्रत्येक आत्मा से उसके हृदय की गुफा में ही होता है। वेदों तथा उपनिषदों में इन आध्यात्मिक अनुभूतियों के मुँह बोलते चित्र मिलते हैं, यद्यपि किसी उपनिषत्कार ने अपने वैयक्तिक अनुभव का वर्णन अपने नाम के साथ जोड़कर नहीं किया। फिर वेद तो है ही वेद, उनमें नामों का क्या काम?
यद्यपि ऋषि दयानन्द ने भी इस विषय में मौनावलम्बन किए रहने की प्राचीन ऋषियों की शैली का पूर्णतया अनुसरण किया है तो भी कई स्थानों पर उनकी आध्यात्मिक अनुभूति की अनायास झाँकी सी मिल जाती है। हम नीचे कतिपय उक्तियों और घटनाओं का उल्लेख करेंगे, जिनमें ऋषि के जीवन के इस पहलु पर प्रकाश पड़ सके।
ऋषि दयानन्द के योग-प्रत्यक्ष का पहला उल्लेख उनकी आत्मकथा ही में मिलता है। ऋषि लिखते हैं-
🌺 फिर एक मास के पश्चात् मैं भी उनकी आज्ञा के अनुसार दूधेश्वर-महादेव के मन्दिर में उनसे जाकर मिला। वहाँ उन्होंने योगविद्या के अन्तिम रहस्य और उसकी प्राप्ति की विधि बताने की प्रतिज्ञा की थी सो उन्होंने भी अपना वचन पूरा किया और कथनानुसार-मुझको भी निहाल कर दिया ।
ऋषि ने भौतिक क्षेत्र में भी प्रत्यक्ष ही की साक्षी का अवलम्बन किया था। यह बात उनके अपने हाथ से शवछेदन की क्रिया करने से प्रकट होती है। आध्यात्मिक क्षेत्र में भी उनकी यही अवस्था थी। सुनी-सुनाई पर विश्वास कर लेना उनकी प्रकृति के सर्वथा प्रतिकूल था। उनके एक पत्र में नीचे लिखी सारगर्भित उक्ति ध्यान देने योग्य है –
🔥 बहूनामार्याणां वेदशास्त्र बोध समाधि योग विचाराभ्याम्।
जीव स्वरूप ज्ञानं बभूव भवति भविष्यति वेति॥
(ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन भा० १ पृ० ५७ )
इस वाक्य में भवति शब्द ध्यान देने योग्य है।
कुछ समय महर्षि केवल समाधि ही का आनन्द लेते रहे थे। तत्पश्चात् वे देशसुधार का कार्य करने लगे। वे लिखते हैं –
🌺 हमने केवल परमार्थ और स्वदेशोन्नति के कारण समाधि और बह्मानन्द को छोड़ कर यह कार्य ग्रहण किया है।( पत्र और विज्ञापन भाग ४ पृ० १८ )
आर्याभिविनय में ऋषि दयानन्द के हृदय के आन्तरिक उद्गार प्रकट हुए हैं। परमेश्वर को सम्बोधित कर कहते हैं –
🌺 ‘हम से अलग आप कभी मत हों ।'( पृ० ११० )
🌺 ‘आप (स्वमुख) स्वशक्ति से सब जीवों के हृदय में सत्योपदेश नित्य ही कर रहे हो।'(पृ० ८७ )
🌺 ‘आप साम को सदा गाते हो, वैसे ही हमारे हृदय में सब विद्या का प्रकाशित गान करो।'(पृ० ११८ )
🌺 जैसे सूर्य की किरण, विद्वानों का मन और गाय, पशु अपने-अपने विषय और घासादी में रमण करते हैं व जैसे मनुष्य अपने घर में रमण करता है वैसे ही आप स्वप्रकाशयुक्त हमारे हृदय (आत्मा) में रमण कीजिए।( पृ० ८४ )
परमेश्वर से ऋषि दयानन्द का सम्बन्ध साक्षात् था। सदा उसे अपने अंग संग पाते थे और उससे अलग न होने का आग्रह करते थे। प्रभु के मधुर आलाप को सुनते थे और उसके अति रमणीय रमण का आनन्द लेते-लेते स्वयं भी उसी में रत हो जाते थे।
इस सम्बन्ध के परिणामस्वरूप कुछ विशेष मानसिक शक्तियाँ योगी को अनायास प्राप्त हो जाती हैं। उन्हें सिद्धि कहा जाता है। योगी इन शक्तियों की आकांक्षा नहीं करती। उनमें आसक्त हो जाने से समाधि के रास्ते में बाधा खड़ी हो जाने की सम्भावना है।ऋषि अपने विषय में लिखते हैं –
🌺 मैं इन तमाशों की बातों को देखना दिखलाना उचित नहीं समझता। चाहे वे हाथ की चालाकियों से हों चाहे योग की रीति से हों, किन्तु कोई चाहे तो उसको योग की रीति सिखला सकता हूँ कि जिसके अनुष्ठान करने से वह स्वयं सिद्धि को प्राप्त हो जाए।( पत्र और विज्ञापन भाग १ )
🌺 एक और स्थान पर लिखा है-देखो पूर्वकाल में हमारे ऋषि मुनियों को कैसी पदार्थ विद्या आती थी कि जिससे आत्मा के बल से सब अन्त:करण के भेद को शीघ्र ही जान लिया करते थे-भीतर के पदार्थों के योग से योगी लोग अपने अद्भुत कर्म कर सकते थे।( पत्र विज्ञापन भाग २ पृ० २० )
इन दो उद्धरणों को मिलाने से स्पष्ट हो जाएगा कि ऋषि दयानन्द जब किसी मानसिक तथ्य का वर्णन सामान्य संज्ञा द्वारा ऋषियों की सम्पूर्ण श्रेणी के विषय में करते हैं तो वह तथ्य उनका अपना अनुभूत होता है। जीवन-स्वरूप-ज्ञान के सम्बन्ध में जो एक संस्कृत वाक्य ऊपर उद्धृत किया गया है उसका निर्देश ऋषि को अपनी ओर होने में अब कोई सन्देह नहीं रहेगा।
ऋषि दयानन्द को दूर देश तथा भविष्य काल की घटनाओं का साक्षात्कार हो जाने के अनेक उदाहरण उनके जीवन चरित्र में मिलते हैं। ऋषि ने एक नवयुवक को एक विशेष अवधि तक विवाह करने से रोक दिया था। अवधि के समाप्त होते ही उसका देहान्त हो गया। ऋषि की योग दृष्टि ने एक आर्यबाला को उम्र भर के वैधव्य से बाल-बाल बचा लिया। एक भक्त दूध लाया। ऋषि ने पूछा-क्या रास्ते में साँप देखा था? वह आश्चर्यचकित था- ऋषि को इस घटना का ज्ञान कैसे हुआ इत्यादि।
आध्यात्मिक अनुभूति का एक फल यह भी प्राप्त होता है कि जब वह अनुभूति किसी को प्राप्त हो जाती है तो लोगों के हृदय में उसके लिए अनायास भक्ति का भाव उमड़ने लगता है। यह बात यहाँ तक पहुँचती है कि भक्त जन जब कभी आँखे मींचते हैं उनके सामने गुरुदेव का चित्र सा आ जाता है और वे चाहते हैं कि गुरुदेव हमेशा उनके अंगसंग रहें। गुरु से सम्बन्ध रखने वाली प्रत्येक वस्तु में भी एक विशेष भक्ति का भाव पैदा हो जाता है। ऋषि दयानन्द के जीवन में यह बात जगह-जगह पर उल्लिखित है। हम केवल दो उदाहरणों का उल्लेख करेंगे –
ऋषि की सेवा में ईश्वरानन्द सरस्वती का एक पत्र मिलता है जिसमें लिखा है-
🌺 मेरे पर भगवचरणों की धूरी स्वप्न में वर्षी है सो मैंने खूब स्नान किया।( पत्र व्यवहार पृ २० )
जोशी लालजी कल्याणजी एक पत्र में लिखते हैं –
🌺 आपके हस्ताक्षर कुं बोहोत प्रेम में दण्डवत किया।( पत्र व्यवहार पृ २९५)
ऋषि के प्रति राजस्थान के राजाओं, उच्च अधिकारियों तथा सर्वसाधारण-यहाँ तक कि एक पापताप से सन्तप्त दुखिया देवी के भाव अत्यन्त भक्तिपूर्ण थे। यह बात मैं ऋषि के पत्र व्यवहार की ही साक्षी से “आर्य” की किसी पूर्व संख्या में सिद्ध कर चुका हूँ।
मेरे इस लेख का प्रयोजन केवल यह दिखाना है कि ऋषि दयानन्द सचमुच ऋषि थे, उन्होंने आध्यात्मिक अनुभूति तथा उससे सम्बन्ध रखने वाली सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। उसी अनुभूति का चमत्कार उनका निष्कलंक सच्चरित्र-सम्पन्न जीवन था। उनकी सर्वस्व स्वाहा करने वाली असीम परोपकार की प्रवृत्ति, उनके प्राणिमात्र के लिए उन्नत दयाभावे, उनका जगत् के उद्वारार्थ अनथक अविरल परिश्रम, आपत्तियों की उमड़ रही बाढ़ के सामने उनकी अदम्य अटल धैर्य, अपने उद्देश्य की सफलता में उनका निरपेक्ष विश्वास, ये सब उसी एक अनुभूति के परिणाम थे।
ऋषि ब्रह्म का ध्यान करते-करते ब्रह्ममय हो गये थे। उनसे ब्रह्म अलग न था। वे ब्रह्म में रम रहे थे और ब्रह्म उनमें । कहने को तो उन्होंने ब्रह्मानन्द को छोड़कर परोपकार का कार्य आरम्भ किया था, परन्तु ब्रह्मानन्द ने एक क्षण भी उनका पल्ला नहीं छोड़ा।
किसी भक्त के प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने स्वयं भी तो यही कहा था कि यह महान् कार्य मैं बिना किसी योग सिद्धि के नहीं कर रहा हूँ। ऋषि का योग की सिद्धि उनका आत्मदर्शन था।
✍🏻 लेखक – पंडित चमूपति एम॰ए०
साभार – राजेंद्र जिज्ञासु जी (📖 पुस्तक -विचार वाटिका)
प्रस्तुति – 📚 अवत्सार