वैदिक कर्मफल व्यवस्था
सुख दुख का कारण मनुष्य के कर्म (काम या कार्य) हैं, ग्रह नहीं। मनुष्य जैसा काम करता है वैसा ही फल पाता है। ऐसा काम जिससे किसी का भला हुआ हो उसके बादले में ईष्वर की व्यवस्था से सुख प्राप्त होता है और ऐसा काम जिससे किसी का बुरा हुआ हो उसके बदले में मनुष्य को दुख मिलता है। ईष्वर पूर्ण रूप से न्यायकारी है। वह किसी की सिफारिष नहीं मानता। वह रिष्वत नहीं लेता। उसका कोई एजेंट या पीर, पैगम्बर या अवतार नहीं है।
अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के कामों का फल अलग अलग भोगना पड़ता है। वे एक दूसरे को काटकर बराबर नहीं करते। अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के कामों का अलग अलग हिसाब रहता है। ऐसा नहीं है कि एक अच्छा काम कर दिया और एक उतना ही बुरा काम कर दिया ओर वे बराबर होकर कट गए और हमें कोई फल न मिले। दोनों का अलग अलग फल भोगना पड़ता है। अच्छे और बुरे कामों के फलस्वरूप सुख और दुख साथ साथ भी चल सकते हैं। कुछ अच्छे कामों का फल हम भोग रहे हैं, साथ ही कुछ बुरे कार्यों का फल भी भोग रहे हैं।
मनुष्य जन्म में किए कामों के अनुसार ही आगे का जन्म मिलता है। अगर बुरे काम की बजाए अच्छे काम ज्यादा हों तो अगला जन्म मनुष्य का ही मिलता है। अगर बुरे काम ज्यादा हों तो अगला जन्म कामों के अनुसार पषु, पक्षी, कीड़ा, मकौड़ा आदि कुछ भी हो सकता है। यह बात सही नहीं है कि चैरासी लाख योनियों में से होकर ही मनुष्य जन्म फिर से मिलता है। हमारे सामने ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जहां बच्चों को अपने पूर्व के जन्म का ज्ञान है और वे पूर्व जन्म में भी मनुष्य योनि में ही थे।
भाग्य या प्रारब्ध क्या है। मनुष्य जो भी अच्छा या बुरा काम करता है उसके बदले में उसके अनुसार उसे जो फल मिलता है वही उसका भाग्य है। इस प्रकार अपना भाग्य मनुष्य खुद बनाता है, कोई और नहीं। कोई भी किसी दूसरे का भाग्य न बना सकता है और न ही बिगाड़ सकता है। किसान ने खेती करके जो फसल घर में लाकर रखली वह उसका भाग्य है, उसकी अपनी मेहनत का फल।
किसी भी अच्छे या बुरे काम का फल षासन-प्रषासन भी दे सकता है। अगर षासन-प्रषासन न दे तो ईष्वर तो देता ही है। कोई भी कर्म बिना फल के नहीं रहता।
जैसे माता पिता अपनी सन्तानों को बुरे कार्यों से हटाकर अच्छे कामों में लगाने की कोषिष करते हैं वैसे ही ईष्वर भी करता है। जब मनुष्य कोई बुरा काम करने लगता है तब उसे अन्दर से भय, षंका, लज्जा महसूस होती है और जब वह कोई अच्छा काम करने लगता है उसे आनन्द, उत्साह, अभय, निषंका महसूस होती है। ये दोनों प्रकार की भावनाएं ईष्वर की प्ररेणा होती हैं।
मनुष्य कुकर्म क्यों करता है। अविद्या अर्थात मान लेना कि कुकर्म के फल से बचने का उपाय कर लेंगे तथा राग, द्वेष और लालच के कारण ही मनुष्य कुकर्म कर बैठता है।
अथर्ववेद (12-3-48) - कर्म का फल करने वाले को ही मिलता है। इसमें किसी और का सहारा नहीं होता, न मित्रों का साथ मिलता है। कर्म फल प्राप्ति में कमी या अधिकता नहीं होती। जिसने जैसा कर्म किया उसको वैसा ही और उतना ही फल मिलता है।
महाभारत में युद्ध की समाप्ति पर गन्धारी श्री कृष्ण से कहती है - निष्चय ही पूर्व जन्म में मैंने पाप कर्म किए हैं जो मैं अपने पुत्रों, पौत्रों और भाईयों को मरा हुआ देख रही हूँ।
महाभारत में ही षान्ति पर्व में कहा गया है - जैसे बछड़ा हजारों गउÿओं के बीच में अपनी माँ के पास ही जाता है ऐसे ही कर्म फल कर्म के करने वाले के पास ही जाता है।
महाभारत में ही षान्ति पर्व में कहा गया है - जैसे बछड़ा हजारों गउÿओं के बीच में अपनी माँ के पास ही जाता है ऐसे ही कर्म फल कर्म के करने वाले के पास ही जाता है।
मनुस्मृति (4-240) - जीव अकेला ही जन्म और मरण को प्राप्त होता है। अकेला ही अच्छे कर्मों का फल सुख और बुरे कामों की फल दुख के रूप में भोगता है।
ब्रह्मवैवत्र्त पुराण (प्रकृति 37-16) - करोड़ों कल्प बीत जाने पर भी बिना कर्म फल को भोगे उनसे छुटकारा नहीं मिल सकता।
चाणक्य नीति - किए हुए अच्छे और बुरे कर्मों का फल अवष्य भोगना पड़ता है।
गीता (5-15) - हमारे सुखों और दुखों के लिए परमात्मा उत्तरदायी नहीं है, बल्कि हमारे अच्छे और बुरे कर्म उत्तरदायी हैं। अज्ञानता के कारण हम अपने सुख दुख के लिए परमात्मा को उत्तरदायी ठहराते हैं, जबकि वह न हमारे पापों के लिए जिम्मेदार है और न ही पुण्यों के लिए जिम्मेदार है।
वाल्मीकि रामायण (युद्ध काण्ड 63-22) - रावण के मारे जाने के बाद जब हनुमान लंका में सीता को राम की विजय का समाचार सुनाने गए तब सीता ने हनुमान से कहा - मैंने यह सब दुख पूर्व जन्म में किए हुए कामोें के कारण ही पाया है क्यांेकि अपना किया हुआ ही भोगा जाता है।
वाल्मीकि रामायण (अरण्य काण्ड 35-17,18,19,20) - सीताहरण के पष्चात श्री राम सीता के वियोग में विलाप करते हुए कहते हैं - हे लक्ष्मण! मैं समझता हूँ इस सारी भूमि पर मेरे समान बुरे काम करने वाला पापी पुरुष और कोई नहीं है क्योंकि एक के पष्चात एक दुखों की परस्परा मेरे हृदय और मन को चीर रही है। पूर्व जन्म में निष्चय ही मैंने एक के पष्चात एक बहुत से पाप किए हैं। उन्हीं पापों का फल आज मुझे मिल रहा है। राज्य हाथ से छिन गया, अपने लोगों से वियोग हो गया, पिता जी परलोक सिधार गए, माता जी से बिछोड़ा हो गया। इन घटनाओं को याद करके मेरा हृदय षोक से भर जाता है। है लक्ष्मण, ये सारे दुख इस रमणीक वन में आने पर षान्त हो गए थे। परन्तु आज सीता के वियोग से वे सभी भूले हुए दुख उसी प्रकार फिर से ताजा हो गए हैं जैसे लकड़ी डालने से आग जल उठती है।
पष्चाताप (मनुस्मृति 11-230) - पाप कर्म होने पर उस पर पष्चाताप करके मनुष्य उस पाप भावना से छूट जाता है। फिर वह पाप कर्म नहीं करता। यही पष्चाताप का फल है। जो कर चुका उसका फल तो भोगना ही पड़ेगा। किए कर्म के फल से बचने का षास्त्रों में कहीं कोई उपाय नहीं बताया। पाप का फल अवष्य मिलेगा यह सोचकर मनुष्य को पाप कर्म नहीं करना चाहिए।
कुकर्म से बचने के उपाय - अपने आप को ईष्वर के साथ जोड़ने से मनुष्य पाप कर्म से बच सकता है। यह जानकर कि ईष्वर हर समय मेरे साथ है, मेरे सभी कामों को देखता है तथा उसके अनुसार मुझे फल भी देता है मनुष्य दुष्कर्म से बच सकता है।
महाभारत - धर्म का सर्वस्व जानना चाहते हो तो सुनो। दूसरों का जो व्यवहार आपको अपने प्रतिकूल (विरुद्ध) लगता है अर्थात दूसरों का जो व्यवहार आपको पसन्द नहीं वैसा व्यवहार आप दूसरों के साथ मत करो।
जैसे अग्नि अपने पास आई लकड़ी को जला देती है ऐसे ही वेद का ज्ञान मनुष्य में पाप की भावना को जला देता है अर्थात वेद के स्वाध्याय से मनुष्य में पापकर्म करने की भावना समाप्त हो जाती है।
यजुर्वेद (40,3) - जो मनुष्य अपनी आत्मा का हनन करते हैं अर्थात मन में और जानते हैं, वाणी से और बोलते हैं और करते कुछ ओर हैं, वे ही मनुष्य असुर (दैत्य, राक्षस, पिषाच आदि) हैं। वे कभी भी आनन्द को प्राप्त नहीं करते। जो आत्मा, मन, वाणी और कर्म से कपट रहित एक सा आचरण करते हैं वे ही देवता हैं, वे इस लोक और परलोक मंे सुख भोगते हैं।
यजुर्वेद (40,3) - जो मनुष्य अपनी आत्मा का हनन करते हैं अर्थात मन में और जानते हैं, वाणी से और बोलते हैं और करते कुछ ओर हैं, वे ही मनुष्य असुर (दैत्य, राक्षस, पिषाच आदि) हैं। वे कभी भी आनन्द को प्राप्त नहीं करते। जो आत्मा, मन, वाणी और कर्म से कपट रहित एक सा आचरण करते हैं वे ही देवता हैं, वे इस लोक और परलोक मंे सुख भोगते हैं।
सत्यमेव जयते नानृतं, सत्येन पन्था विततो देवयानः। - सत्य की ही जीत होती है, झूठ की नहीं। सत्य पर चलकर ही मनुष्य देवता बनता है। ऋृिष लोग सत्य पर चलकर ही परमात्मा को पाकर आनन्द प्राप्त करते हैं।
ईष्वर की न्याय व्यवस्था में जो किसी का जितना भला करेगा उसको उतना ही सुख मिलेगा और जितना किसी का बुरा करेगा उतना ही उसे दुख मिलेगा। इस प्रकार सत्य और पक्षपात रहित न्याय का आचरण तथा परोपकार के कार्य ही सुख रूप फल देने वाले हैं।
कृष्ण चन्द्र गर्ग
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