डॉ विवेक आर्य
सच्चिदानन्द। यह शब्द तीन शब्दों से बना हैं। सत्+चित्+आनन्द। स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में इस शब्द का प्रयोग ईश्वर के अनेक नामों की व्याख्या में किया हैं।
सत् शब्द पर विचार
स्वामी दयानन्द लिखते है- (अस भुवि) इस धातु से ‘सत्’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यदस्ति त्रिषु कालेषु न बाधते तत्सद् ब्रह्म’ जो सदा वर्त्तमान अर्थात् भूत, भविष्यत्, वर्त्तमान कालों में जिसका बाध न हो, उस परमेश्वर को ‘सत्’ कहते हैं।
वेदों में सत् शब्द यजुर्वेद के 32/8 मन्त्र में मिलता है।
वेनस् तत् पश्यन् निहितम् गुहा सद् (सत्) अत्र विश्वं भवत्येकनिडम् .
अर्थात ब्रह्मज्ञानी पुरुष ही बुद्धिरूपी गुफा में स्थित उस ब्रह्मा को (सत्) "जो तीनों कालों में विद्यमान है" प्रत्यक्ष अनुभव करता है। जिस ब्रह्मा में सारा संसार एक आश्रय को प्राप्त होता है।
अगले मन्त्र में भी सत् शब्द आया है विभृतं गुहा सत् अर्थात वेद धारक विद्वान ही गुहा में (सत्) सदा विद्यमान भगवान् के विषय में उपदेश कर सकता है।
गीता श्लोक 17/26 में भी सत् शब्द का वर्णन मिलता है-
सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः (सत् शब्द:) पार्थ युज्यते।।17.26।।
अर्थात हे पार्थ सत्य भाव व साधुभाव में सत् शब्द का प्रयोग किया जाता है? और प्रशस्त (श्रेष्ठ शुभ) कर्म में सत् शब्द प्रयुक्त होता है।।
छान्दोग्योपनिषद 8/3/5 में तद्यत् सत् तदमृतम में सत् शब्द का प्रयोग ब्रह्मा के लिए हुआ है।
इस प्रकार से वैदिक वांग्मय में शब्द का प्रयोग हुआ है।
चित् शब्द पर विचार
स्वामी दयानन्द सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में लिखते है- (चिती संज्ञाने) इस धातु से ‘चित्’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यश्चेतति चेतयति संज्ञापयति सर्वान् सज्जनान् योगिनस्तच्चित्परं ब्रह्म’ जो चेतनस्वरूप सब जीवों को चिताने और सत्याऽसत्य का जनानेहारा है, इसलिए उस परमात्मा का नाम ‘चित्’ है।
अथर्ववेद 18/4/14 में ईजानशिचितमारूक्षदग्निं नाकस्य में चित् शब्द आया है। यहाँ वेद सन्देश दे रहे है कि सुख के आधार से प्रकाश की ओर उठने की इच्छा करनेवाला परमात्मा भक्त सर्वाग्नि चित्=चेतन भगवान् को प्राप्त करना चाहता है।
निरुक्त 5/7 में चित् शब्द को निरुक्तकार ने निपात भी माना है और नाम भी। यहाँ पर नाम शब्द होने से यह शब्द भगवान् के लिए प्रयुक्त हुआ है।
आनन्द शब्द पर विचार
स्वामी दयानन्द सत्यार्थ प्रकाश में लिखते है-
(टुनदि समृद्धौ) आङ्पूर्वक इस धातु से ‘आनन्द’ शब्द बनता है। ‘आनन्दन्ति सर्वे मुक्ता यस्मिन् यद्वा यः सर्वाञ्जीवानानन्दयति स आनन्दः’ जो आनन्दस्वरूप, जिस में सब मुक्त जीव आनन्द को प्राप्त होते और सब धर्मात्मा जीवों को आनन्दयुक्त करता है, इससे ईश्वर का नाम ‘आनन्द’ है।
तैतरीय उपनिषद् 3/6 में आनन्दात् ह्रोव मिलता है। जिसका अर्थ है स्वयं आनंद स्वरुप होने से तथा अन्यों को आनंद प्रद होने से आनंद कहाने वाले भगवान् से ही यह सम्पूर्ण जगत उत्पन्न होता है। आनंद से ही इसकी स्थिति है और वे ही आनंद इसके प्रलय के कारण हैं और यह आनंद ब्रह्मा है।
वृहदारण्यक उपनिषद् 3/9/28 में विज्ञानं आनंद ब्रह्मा आनंदमय ब्रह्मा सबसे बड़ा है सन्देश दिया गया है।
वेदांतसूत्र 1/1/12 में आनंद मयो अभ्यासात में आनंद शब्द आया है।
इन तीनों शब्दों के विशेषण होने से परमेश्वर को ‘सच्चिदानन्दस्वरूप’ कहते हैं।
सत् प्रकृति को भी कहते है। कोई भी वह पदार्थ जो शाश्वत रहने वाला हो, वह जड़ हो या चेतन, सत् कहलाता है। प्रकृति भी अनादि और अजा है अत: सत् कहलाती है। जीवात्मा भी सत् है किन्तु साथ में चित् भी है। प्रकृति केवल मात्र जड़ पदार्थ है। जीवात्मा सत् और चेतन दोनों हैं। जीवात्मा अनादि, अमर, अजर आदि रूप के साथ चेतन भी है। इसलिए जीवात्मा सच्चित भी कहलाता है।
परमात्मा सच्चिदानन्द अर्थात सत्+चित्+आनन्द तीनों है। केवल ईश्वर ही आनंद स्वरुप है। इसलिए ईश्वर का नाम सच्चिदानन्द है। यही आर्यसमाज के दूसरे नियम में ईश्वर की परिभाषा में प्रयुक्त हुआ है। स्वामी विद्यानंद के अनुसार सच्चिदानन्द शब्द रमोत्तरतापिनी उपनिषद् में हुआ है। भावेश मेरजा जी के अनुसार
तेजोबिन्दु उपनिषद् में इस शब्द का प्रयोग हुआ है।
आईये सच्चिदानन्द स्वरुप परमात्मा की उपासना कर जीवन को आनंदमय बनाये।
सन्दर्भ ग्रन्थ-
सत्यार्थ प्रकाश- स्वामी दयानन्द
यजुर्वेद भाष्य- स्वामी दयानन्द
उपनिषद् रहस्य- महात्मा नारायण स्वामी
सत्यार्थ भास्कर-स्वामी विद्यानन्द
वैदिक सिद्धांत रत्नावली-प्रोफेसर सत्यपाल शास्त्री
अष्टोत्तरशतनाम मालिका- विद्यासागर शास्त्री
नमस्कार आर्य जी
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