Friday, August 31, 2018

ऋषि दयानन्द


◼️ऋषि दयानन्द◼️
(१९वीं सदी के महान् विभूति)
✍🏻 लेखक -प्रो० सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार, पूर्व संसद सदस्य
उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तथा अन्तिम चरण में भारत का भाग्य एक नया मोड़ ले रहा था । सदियों से सुप्त पड़ी इस देश की चेतना अव्यक्त से व्यक्त की तरफ सुषुप्ति से जागृति की तरफ, अप्रगति से प्रगति की तरफ अग्रसर हो रही थी । इस जागृत चेतना की अभिव्यक्ति का क्या रूप था ? सदियों से सोई पड़ी यह चेतना जब भारत के नव प्रभात में अंगड़ाई लेकर आँख खोलने लगी, तब १७७२ में बंगाल में राजा राम मोहन राय ने और १८३४ में रामकृष्ण परमहंस तथा उसी काल के आस-पास स्वामी विवेकानन्द ने जन्म लिया, १८२४ में गुजरात में महर्षि दयानन्द ने जन्म लिया, १८९३ में मद्रास में थियोसोफिकल सोसाइटी ने जन्म लिया, १८८४ में महाराष्ट्र में प्रार्थना समाज ने और दक्खन एजूकेशन सोसाइटी ने जन्म लिया और इसी काल में मुसलमानों में चेतना का संचार करने के लिए सर सय्यद अहमद ने जन्म लिया । ये सब भारत की विभूतियां थीं और इसके नव-निर्माण का सपना लेकर गंगा और हिमालय की इस देव-भूमि का सदियों का संकट काटने के लिये प्रकट हुई थी।
▪️ जमाने का आह्वान स्वीकार किया :- उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में जिन विभूतियों ने जन्म लिया उनमें से ऋषि दयानन्द का बोधोत्सव पर्व हम आज मना रहे हैं । ऋषि दयानन्द आये, वे समय के दास बन कर नहीं आये, समय को अपना दास बनाने के लिए आये । महापुरुष यही कुछ करते हैं । हम समझते हैं कि हमें जमाने के अनुसार चलना है, महापुरुष जमाने की गर्दन पकड़ कर उसे अपने अनुसार चलाते हैं । वे खुद नहीं बदलते, जमाने को बदलते हैं । एक समाज शास्त्री ने कहा है कि यह जीवन एक ललकार है, एक चैलेज है, एक आह्वान है । साधारण लोग इस ललकार को सुनकर, इस चैलेज और इस आह्वान को देखकर जीवन-संग्राम से भाग खड़े होते हैं, जमाने का रंग पकड़ लेते हैं, महापुरुष जीवन की ललकार का, जीवन के आह्वान का उत्तर देते हैं, वे इस चैलेंज का जवाब देते हुए जीवन की समस्याओं के साथ जूझ जाते हैं, जूझते हुए प्राणों की बाजी लगा देते हैं, परन्तु इस संघर्ष में पीठ नहीं दिखाते जमाने का रंग पकड़ने के स्थान में जमाने को अपने रंग से रंग देते हैं, जमाने को पलट देते हैं ।
▪️ विदेशी राज्य बर्दाश्त नहीं करूंगा :- ऋषि दयानन्द जब इस देश के रणांगन में उतरे तब उन्हें चारों तरफ से ललकार ही ललकार सुनाई दी, चारों तरफ से चैलेंज ही चैलेंज नजर आये । सबसे बड़ा चैलेंज था विदेशी राज्य का । उनके सामने ललकार उठी--क्या विदेशी राज्य को बर्दाश्त करोगे ? ऋषि दयानन्द की आत्मा ने जवाब दिया । विदेशी राजे को बर्दाश्त नहीं करूंगा । उन्होंने राजस्थान के राजाओं को अंग्रेजी शासन के प्रति विद्रोह करने के लिये तैयार करना शुरू किया । ऋषि दयानन्द के जीवन का बहुत बड़ा भाग राजस्थान के राजाओं को संगठित करने में बीता ।
ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन की गतिविधियों का उल्लेख करते हुए सिर्फ १८५६ तक का विवरण दिया है । १८५७-५८-५९ के तीन वर्षों में वे क्या करते रहे इसका उल्लेख उनके जीवन में नहीं मिलता। ये गदर के वर्ष थे। इस समय उनकी आयु ३३ वर्ष की थी। उन जैसा धधकता अंगारा इस आयु में क्या-क्या करता रहा, कहाँ-कहाँ चिनगारियाँ लगातारहा, कहाँ-कहाँ आग सुलगाता रहा। यह अधिकार में छिपा है, परन्तु इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि ऐसे अवसर पर वह चुप करके नहीं बैठ सके होंगे।
१८७३ में इस देश के गवर्नर जनरल लार्ड नार्थब्रुक थे । कलकत्ता के लार्ड विशप ने नार्थब्रुक तथा ऋषि दयानन्द में एक भेंट का आयोजन किया । इस भेट में दोनों में जो बातचीत हुई उसका विवरण लार्ड नार्थब्रुक ने अपनी डायरी में किया । यह डायरी लंडन में इण्डिया-हाऊस में आज भी सुरक्षित है ।
लार्ड नार्थब्रुक ने कहा-पण्डित दयानन्द, आप मत-मतान्तरों का खंडन करते हैं । हिन्दुओं, ईसाइयों, मुसलमानों के धर्म की आलोचना करते हैं। क्या आपको अपने विरोधियों से किसी प्रकार का खतरा नहीं है ? क्या आप सरकार से किसी प्रकार की सुरक्षा नहीं चाहते ?
ऋषि दयानन्द ने उत्तर दिया-अंग्रेजी राज्य में सबको अपने विचार प्रकट करने की पूरी स्वतंत्रता है इसलिये मुझे किसी से किसी प्रकार का खतरा नहीं है। इस पर खुश होकर गवर्नर जनरल ने कहा कि अगर ऐसी बात है तो आप अपने व्याख्यानों में अंग्रेजी राज के उपकारों का वर्णन कर दिया कीजिये । अपने व्याख्यान के प्रारम्भ में जो आप ईश्वर-प्रार्थना किया करते हैं, उसमें देश पर अखण्ड अंग्रेजी शासन के लिये भी प्रार्थना कर दिया कीजिये ।
यह सुनकर ऋषि दयानन्द ने उत्तर दिया- श्रीमान्जी, यह कैसे हो सकता है ? मैं तो सायं प्रात: ईश्वर से यह प्रार्थना किया करता हूँ कि इस देश को विदेशियों की दारता से शीघ्र मुक्त करें।
लार्ड नार्थब्रुक ने इस घटना का उल्लेख अपनी उस साप्ताहिक डायरी में किया जो वे भारत से प्रति सप्ताह हर मैजेस्टी महारानी विक्टोरिया को भेजा करते थे । इस घटना का उल्लेख करते हुए वे लिखते हैं कि मैंने इस बागी फकीर की कड़ी निगरानी के लिये गुप्तचर नियुक्त कर दिये हैं ।
▪️ स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम् रद्दी की टोकरी में :- देश की परतंत्रता ही ऋषि दयानन्द के सन्मुख चैलेंज बनकर नहीं खड़ी थी, वे अपने समाज में जिधर नजर उठाते थे उन्हें चैलेज ही चैलेज दीख पड़ते थे, उनके कान में देश की समस्याओं की ललकार-ही-ललकार सुनाई पड़ती थी । वे महापुरूष इसीलिये थे क्योंकि वे किसी चैलेंज को सामने देखकर दम तोड़कर नहीं बैठते थे, किसी ललकार को सुनकर चुप नहीं रहते थे । समाज की हर समस्या से वे जूझे, हर फ्रंट पर डटे, और हर मैदान, हर अखाड़े में छाती तान कर खड़े रहे । कौन-सी समस्या नहीं थी जो इस देश के महावृक्ष की जड़ों को घुन की तरह नहीं खा रही थी । स्त्रियों को पर्दे में बन्द रखा जाता था, उन्हें शिक्षा का अधिकार नहीं था । ऋषि दयानन्द ने रूढ़िवादी समाज की इस ललकार का उत्तर दिया । ऋषि दयानन्द ने पहले-पहल आवाज उठाई कि स्त्रियों को वे सब अधिकार हैं जो पुरूषों को हैं । जैसे वेद मंत्रों का साक्षात्कार करने वाले पुरूष ऋषि है, वैसे वेद मंत्रों का साक्षात् करने स्त्री-ऋषिकाये भी हैं । लोपामुद्रा, श्रद्धा, विश्ववारा, यमी, घोषा आदि स्त्री ऋषिकाओं के नाम पाये जाते हैं । ऋषि दयानन्द ने स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम् के नारे को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया ।
▪️ अछूत शब्द को मिटा दिया :- ‘‘शूद्र' संज्ञा देकर समाज के जिस वर्ग के साथ हम अन्याय तथा अत्याचार कर रहे थे, जिन्हें हमने मनुष्यता के अधिकारों से भी वंचित कर दिया था, उनके अधिकारों की रक्षा के लिये वे उठ खड़े हुए। ऋषि दयानन्द ने सामाजिक व्यवस्था के लिये एक नया दृष्टिकोण दिया । उन्होंने जन्म की जात-पात को मानने से इन्कार कर दिया । जब जन्म से जात-पात ही नहीं, न कोई जन्म से बड़ा, न जन्म से छोटा, तब शूद्र कौन और अछूत कौन ?
समय था जब समाज के एक वर्ग के लिये “अछूत' शब्द का प्रयोग किया जाता था । आज हम उसके लिये ‘हरिजन'–शब्द का प्रयोग करते हैं । परन्तु किसी को हम 'अछूत' कहें, या 'हरिजन' कहें-अर्थ दोनों का एक ही है, वह हमसे अलग है, एक पृथक वर्ग का है, हमारे समाज का हिस्सा नहीं । आर्यसमाज ने 'अछूत' शब्द का प्रयोग नहीं किया, 'हरिजन' शब्द का भी प्रयोग नहीं किया। आर्य समाज ने ‘दलित’ शब्द का प्रयोग किया। ‘दलित' - अर्थात्, जिसे मैंने दल रखा है, जिसके अधिकारों को मैंने ठुकरा रखा है। ‘अछूत'-शब्द में जिसे 'अछूत' कहा गया उसे बुरा माना गया, ‘दलित' शब्द में वह बुरा नहीं माना गया, मैंने दूसरे को दबाया इसीलिये मैं बुरा माना गया । ये दोनों शब्द एक ही भाव को व्यक्त करते हैं, परन्तु दोनों में दृष्टिकोण कितना भिन्न हो जाता है । आर्यसमाज ने इस बात को समझा कि जब हम अछूत-शब्द का, या हरिजन–शब्द का प्रयोग करते हैं, तब हम समाज की समस्या को समस्या ही बने रहने देते हैं, चैलेंज चैलेंज ही बना रहता है । यही कारण है कि पहले 'अछूत' एक वर्ग बना हुआ था, अब ‘हरिजन' एक वर्ग बन गया है और वह समाज के एक पृथक वर्ग के तौर पर अपने अधिकार मांगता है । जब तक हम अछूत या हरिजन बने रहेंगे तभी तक तो विशेष अधिकारों की मांग कर सकेगे, इसीलिये जिस रास्ते पर हम चल रहे हैं उस पर तो अछूत या हरिजन बने रहना नफे का सौदा है। आज अनेक ब्राह्मण बालक अपने को 'अछूत' या 'हरिजन' कहलाना पसन्द करते हैं क्योंकि उससे उन्हें छात्रवृत्ति मिलती है, राजनीति के अखाड़े के अनेक उम्मीदवार अपने को 'अछूत' या 'हरिजन' सिद्ध करने के लिये अदालतों में दौड़ते हैं क्योंकि इससे उन्हें असेम्बली या पार्लियामेंट की मेम्बरी मिलती है । परन्तु इससे क्या समाज की समस्या हल होगी ? ऋषि दयानन्द इस समस्या से जूझे थे। उन्होंने समाज के शब्द कोष से 'अछूत'-शब्द को ही मिटा दिया था ।
▪️ रूढ़िवाद की थोथी दीवार गिरायी :- समाज-जीता-जागता एक चैलेंज हैं, चारों तरफ ललकार है, आह्वान है, पुकार है । हम इस चैलेंज का जबाब, इस ललकार और आह्वान का प्रत्युत्तर देंगे या नहीं देंगे ? हम समाज के चैलेंज को देखते हुए भी नहीं देखते, ललकार को सुनते हुए भी नहीं सुनते । शरीर में पीड़ा हो । उसे जो अनुभव न करे वह जीवित नहीं मृत है, समाज के शरीर में रोग हो, उसे जो दूर करने के लिये छटपटाने न लगे वह मृत समान है। ऋषि दयानन्द ने समाज के शरीर की पीड़ा को, इसके रोग को अनुभव किया, इसीलिये जीवित थे । उन्हें तो अपने समय का सारा समाज एक चैलेंज के रूप में दिखा । हिन्दुओं को रूढ़िवाद एक महान् चैलेंज था । जहां देखो वहां प्रथा की दासता , रूढ़ि की गुलामी । जो चला आ रहा है। उससे इधर नहीं हो सकते, उधर नहीं हो सकते । ऋषि दयानन्द ने रूढ़िवाद की इस थोथी दीवार को एक धक्के में गिरा दिया । अगर हिन्दू-धर्म उन्हें एक चैलेंज के रूप में दीख पड़ा तो ईसाइयत और इस्लाम भी उन्हें चैलेंज देता हुआ दीख पड़ा । हिन्दुओं की जड़ जहां अपने-अपने कर्मो से खोखली हो रही थी, वहाँ ईसाइयत तथा इस्लाम भी उसे कमजोर करने में कुछ उठा नहीं रख रहे थे। ऋषि दयानन्द जहां अपनों से जूझे, वहां बाहर वालो से भी उसी तरह से जूझे । वे हिन्दुओं से, ईसाइयों से, मुसलमानों से--सब से जूझ पड़े। दुनिया भर के गन्द को जला ड़ालने की उनमें हिम्मत थी । वह एक सूरमा थे जो दुनिया भर के रूढ़िवाद से टक्कर लेने के लिये उठ खड़े हुए थे ।
▪️ शक्ति की धारा फूटी :- ऐसे लोग दुनिया को बदल देने के लिये पैदा हुआ हुआ करते हैं । वे आते हैं, एक नई लहर चला जाते हैं, संसार को एक नया दृष्टिकोण दे जाते हैं। पुराना जड़वाद उन्हें बर्दाश्त नहीं कर सकता और वे उस पुराने जड़वाद को बर्दाश्त नहीं कर सकते । वे जहर उगलते हैं, आग बरसाते हैं, कूड़े-कर्कट को राख करते चले जाते हैं । लेकिन यह दुनियां भी ऐसी है कि उन्हें देर तक बर्दाश्त नहीं कर सकती । वे भी इसके लिये तैयार होते हैं । सुकरात अपने जमाने को बदलने के लिये आया था, उसे जहर का प्याला पीना पड़ा । ईसामसीह एक नई दुनियां का सपना लेकर आया था, उसे जिन्दा शूली पर लटक जाना पड़ा । दयानन्द अपने देश और जाति को नये ढांचे में ढालने को आया था, उसे दूध में पिसा हुआ कांच पीकर प्राण गंवाने पड़े। गांधी एक नया संसार बना रहा था, उसे गोली का शिकार हो जाना पड़ा . दुनियां, दुनियां को बदल देनेवालों को बर्दाश्त नहीं करती, परन्तु जहर देनेवाले, गोली चलानेवाले, तलवार उठानेवाले देखते हैं, और हाथ मल-मलकर देखते हैं कि जहर पीकर, गोली खाकर और प्राण देकर जो चले जाते हैं, वे अपने पीछे एक ऐसी शक्ति छोड़ जाते हैं, जो एक नवीन संसार का निर्माण कर देती है, एक नई दुनियां बना देती हैं । ऋषि दयानन्द भी अपने जमाने से जूझे, जमाने ने उन्हें जहर दे दिया, लेकिन जहर पीने के बाद विदाई की बेला में उनसे जो शक्ति की धारा फूटी, उसने सदियों से ऊसर पड़ी हुई इस भूमि का नक्शा ही बदल दिया ।
परमात्मा करे, हमारा देश भारत, इन ऋषि दयानन्द के सपनों का साकार रूप होकर महानता में हिमालय-सा, पवित्रता में गंगा-सा, शीतलता में शान्ति की धारा बहाने में चन्द्रमा-सा उठ खड़ा हो ।
॥ओ३म्॥
साभार - आर्य संसार (पत्रिका)
✍🏻 लेखक -प्रो० सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार, पूर्व संसद सदस्य
🔥वैचारिक क्रांति के लिए “सत्यार्थ प्रकाश” पढ़े🔥
🌻वेदों की ओर लौटें🌻
प्रस्तुति - 📚आर्य मिलन

Wednesday, August 29, 2018

धर्म और संस्कृति का रक्षक: सत्यार्थ प्रकाश



धर्म और संस्कृति का रक्षक: सत्यार्थ प्रकाश
स्व० स्वामी वेदानन्द 'वेदतीर्थ' ने देश विभाजन से पूर्व मुलतान (अब पाकिस्तान में) की आर्यसमाज में उपदेश देते हुए सत्यार्थ प्रकाश की गरिमा एवं महत्ता विषयक् रोचक संस्मरण सुनाया था, जो इस प्रकार है-
"मैं एक बार हरिद्वार के मायापुर क्षेत्र में घूम रहा था। मैंने देखा कि कुछ सनातनी साधु 'सत्यार्थ प्रकाश' लेकर आ रहे हैं। मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ। मैंने उनसे पूछा तो उन्होंने बताया कि अमुक स्थान पर महामना पं० मदन मोहन मालवीय जी यह पुस्तक साधुओं को बांट रहे हैं। मेरा आश्चर्य और भी बढ़ा। मैं स्वयं वहां गया और साधुओं की पंक्ति में खड़ा हो गया।
मेरी बारी आने पर मालवीय जी ने मुझे भी वह पुस्तक दी और कहा कि 'बाबा इस पुस्तक को पढ़ना।' मैंने उनसे कहा- "मैं एक नास्तिक की लिखी पुस्तक नहीं पढूंगा।" मालवीय जी ने पुनः पुस्तक ले लेने का आग्रह करते हुए कहा- 'इस पुस्तक का पाठ करके तो देखो।' तब मैंने पुनः कृत्रिम क्रोध में कहा- 'जिस पुस्तक में हमारे देवी-देवताओं एवं पुराणों तथा मूर्ति-पूजा का खण्डन किया गया है, मैं इसे पढ़ना तो क्या स्पर्श भी नहीं कर सकता। आप क्यों मुझे विवश करते हैं?' तब मालवीय जी मुस्कुराकर कहने लगे- 'स्वामी जी! सनातनी तो मैं भी हूं। मूर्ति पूजक भी हूं। फिर भी मैं आपसे आग्रह करूंगा कि एक बार इस पुस्तक को अवश्य पढ़िये। क्योंकि इस पुस्तक में वह जादू है कि जो एक बार इसको पढ़ लेगा वह अपनी संस्कृति और धर्म से कभी पतित नहीं हो सकता, इसके विपरीत वह पतितों का उत्थान कर सकता है।'
प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ

Manu and the Modern World




MANU AND THE MODERN WORLD[i]
Dr. Kewal Motwani
Reproduced by Dr. Vivek Arya
The word Manu is usually associated with his Dharma Sastra, which is wrongly translated as the Law of Manu or the Code of Manu. There is nothing legal or judicially binding in the Sastra. It is an exposition of the fundamental principles which should guide the life of the creatures known as Manavas, endowed with the faculty of mind (manes). When philologically analyzed, the expression means the science (shastras) of integration (dharma) of the human beings (manus). Here a distinction is implied between integration and organization of human beings as distinct from that of sub-human orders of life. Let us take a few illustrations to bring out the point. A large quantity of building materials may be lying about on a plot of land till eternity, without any value or use for it, unless that material is put together into a house when its usefulness and value emerge. This, it may be remarked parenthetically, is the significance of the contribution of man. But let us go on. Take a house in which numerous articles of furniture, utensils, cupboards for clothes etc., are placed in perfect order, but they do not constitute an interactive organism in which they affect each other. There is no communication between them. Physical proximity does not constitute dharma or integration. Let us take an example from life. Even here, a well knit and organized unit does not represent dharma, in a hive of bees, there are workers, watchers, nectar-gatherers, rulers. But their organization is not planned, conceived or carried out on mental basis. It is hereditary or instinctive. It is not cultural achievement as the building of a house. The latter implies knowledge of engineering, acquired through mental effort, conscious communicability, and is based on symbols.
The word Manu represents not a person but an office. There have been many Manus and names and numbers have been mentioned, it is maintained that each Manu is in charge of a manvantara a vast cycle of time, guiding the destinies of human beings and civilizations.[ii]
We now come to the words Dharma Sastra, without which the word Manu by itself can have little significance. When understood as a treatise (Sastra) of integration, synthesis togetherness call it what we will, it cannot but cover the entire gamut the physical experience of man, this vision of the cosmic universe embracing the terrestrial, organic, biological, psychological, ethnical, numerical, ethical, aesthetical and spiritual aspects of the human dharma. These are major segments or aspects of life and man has to come to terms with them through understanding and their interaction. Having outlined the task, the treatise plunges into a detailed discussion of every aspect of human existence, in parts or segments, and as an integrated whole.[iii]
This is the main task of the Dharma Sastra of Manu.
The book opens with the description of Nirguna Brahman, the Causeless Cause of the Universes and its division into Saguna Brahman and Mulaprakrti, and man’s descent from these two aspects of the Divine Reality. It deals with the totality of human nature, the path of descent of the Divine and its ascent back to its original source, and with the human drama as but an interlude in the cosmic process. It deals with the empirical existence of man, his physical, psychic and spiritual endowments, but not forgetting the constitution of matter that forms his physical being. The interaction between the two, i.e. the physical and psychological (which also includes his affective nature) constitutes human personality. The identity between spirit, the Divine in man and matter, is studiously maintained. Conflict between the two is strictly eschewed, never accepted or acknowledged. The ultimate purpose of human goal, the merging into the Cosmic consciousness, “the drop merging in the ocean”, is never lost sight of. In fact, the entire empirical existence is planned in the light of this ideal. It behooves us, humble mortals, then to attempt to get a grasp of the vast, cosmic consciousness and vision of Manu, the Great Rishi, catch a glimpse of his Purpose and cooperate with Him, notwithstanding our limited faculties.
It is, perhaps, relevant to remark here that in attempting this task it will be necessary to dispense with the empirical method of interpretation of the Dharma Sastra and the historical emphasis or Indological approach as developed in the west by Max Muller and his students and colleagues and turn the interpretation as given by some of the leading esotericists of the world. Their names are not many: perhaps, a few leading ones may be recorded for the benefit of the reader. H. P. Blavatsky the great Russian Occultist, Swami Dayanand Saraswati, the Founder of the Arya Samaj, and Sri Aurobindo in India and P. D. Guspensky of Russia, have rendered yeoman services to the cause of esoteric interpretation of Manu. To be sure, a great many philosophers and leaders of thought, have devoted their time and energy to the elucidation of the teachings of Manu, but the esoteric interpretation has come from only a few. This is not a subject of intellectual dilettantism, but one on which the accumulated knowledge of man and the future of civilization depend.
In the text, there is an orderly procession of discussion of human nature, the psychic constituent element of the nature of matter constituting his body, Sattva, rajas, and tamas, and the psychic factors constituting his consciousness, such as Sat, Chit and Ananda, the interaction between the two in accordance with hereditary affiliations, past achievements and failures and the ultimate goal set in view (karma, reincarnation and purusartha for the present life). We call this totality of various factors, under one blanket term, human personality, and this is in strong contrast with the western conception that concentrates its attention only on the interaction between heredity and environment.
Manu posits four types of human personality, easily classifiable into four groups. These are men of intellect, men of action, men of feeling or desire and the fourth, being unclassifiable into any of these three. These are Brahmanas, Ksatriyas, Vaisyas and Sudras mentioned in the text. The Brahmana, being a man of Sattvic nature, is a priest, preacher and teacher of the group. The Ksatriya, being man of action, uses his brawn in defense of the entire nation from internal disruption and outer attack. The third group that of Vaisya, is devoted to commerce, production and promotion of economy. The last, the Sudra, devotes himself to the physical needs of the society, and learns to rise through association with the three higher groups.
This is the social aspect of human life. But Manu goes in detail into the work and path of progress of the individual as well. During the first stage as a student, he must learn to yoke his mental faculties to hard study, conserve his physical energies through self-control and service of his teacher, eschew the life of luxury, realise the esoteric significance of the ritual handed down by the ancestors and prepare himself to continue the spiritual and cultural heritage of the group. As a family man, in the second stage of his life, he must earn a livelihood, support the family and other non-earning groups of the social order, practise yoga and sacraments to discharge his debt to the ancient Rishis, his ancestors and human and the animal world. All along, he must study the sacred scriptures to keep reminding himself of his essential divinity and the divine nature of the universe. The third stage is that of the vanaprastha , one who has one foot in the forest and the other in the maelstrom of social drama. Through accumulated experience, he should help the rising generation in civic and political matters and thus save them from the fatiguing process of trial and error. The last stage is that of sanyasa, the man in whom all desire has ceased to exist, who has cultivated silence and is determined to prepare himself to face the Finale. With him the social hierarchy comes to an end. He is above all classification. He is mendicant by practice, he is above royalty.
But classification of individuals and groups into professional categories is not enough. Manu lays great stress on ethical preparation, along with professional efficiency, for each stage of the individual’s life and preparation to rise to the next. The classification of individuals and formation of functional groups is intended to help both to transform their inborn propensities, transform their weaknesses and transcend them through appropriate training and thus keep ascending to the appointed goal of Supreme Bliss.
It is important and relevant at this point to emphasize the fact that it is not Manu’s intention to create a rigid, inflexible social hierarchy in which the Brahman is placed at the top of the ladder, while the Sudra is left to grovel at the bottom. We have to bear in mind the numerous factors that Manu has in mind in devising this type of social order. The mutability and multiplicity of human temperament, the hereditary changes and mutations, the ceaseless flux of the human temperament, the hereditary changes and mutations, the ceaseless flux of the human temperament to meet the challenge of time, the influence of karma in the life of man, the use of his free will, the change of varna and ashrama due to personal effort in one life time, the provision for caste less ness of the individual who has risen to spiritual afflatus by force of his present effort and discipline, must confirm the view of the baseless ness of the western charge on hierarchical inflexibility in Manu’s teachings.
There are one or two other questions that need to be answered before we proceed further. It has always been asked, with a touch of mockery, “Did such a social order, as conceived by Manu ever exist?” My submission based on study of sociology of knowledge and numerous utopias with which the west abounds, is that it did. Social knowledge is based on social fact: without which it has no basis, no body of reality. And if we take into consideration the various utopias, beginning with Plato’s Republic and ending with Edward Bellamy’s Looking Backward or Orwell’s 1984, or Aldous Huxley’s the Brave New World Revisted, we shall, see quite clearly and convincingly that they deal, one and all, with situations as they exist today and, do not indulge in day dreams. Similarly, Manu’s Dharma Yuga, the Age the Synthesis, the Golden Age of the Hindus, existed and in course of time, parts of it fell into disuse till we come to the last age of Kali, the present age of iron, smoke, mental and moral bleakness of the individual and the group.
Nor can we forget that it is Manu’s teachings that have been responsible for creation and continuity of India’s ethnic virility, intellectual supremacy, a vast cultural empire in both south and south-east Asia, embracing Indonesia, Malayasia, Thailand, Burma,Cambodia, Laos, Indo-China, Phillipine Islands, China and Japan in the east and many countries in the west with which I shall deal presently. India’s vast resources and wealth attracted alien invaders and the process of their amalgamation and assimilation was done in an orderly manner, so that the invaders became absorbed in India’s politic and became sons of the soil, rather than strangers.
Various ethnic groups have been absorbed into India’s life, enriching the heredity of various communities and regions, the intellectual and spiritual heritage of the sons of the soil. It is the spirit of tolerance and nature of man as taught by Manu that have added to India s opulence in this direction. Through selective amalgamation, India retained her ethnic identity and viability, formed a bastion of cultural impenetrability kept the fundamentals of Indian ethos against alien antagonistic forces, and yet promoted the right type of admixture, giving to India a national identity that has defied death and decay. The history of her ancient contemporaries, going back to 5,000 B.C., lies buried in sand dunes. But India still lives and throbs with life and the continuity of her historic existence unbroken.
A brief history of the knowledge and impact of Manu on nations ancient and modern is worth recording. Beginning with the Mohan-Jo-Daro and Harrappa we find evidences of life, with all its institutions, educational, social, and political, akin to those described in Manu. A similar situation obtained in Sumeria, the contemporary of Mohan-jo-Daro. The spirit of tolerance with which the various communities lived bears the impact of teachings higher than what the native teachers could have provided. The cosmogony, law, poetry, mythology bear close resemblance to those of her Indian contemporaries. The Sumerians were not aware of the deluge, but were conscious of the physical, biological and social organization and evolution as described in Manu. The word Manu came to be shortened to ME, representing the universal rhythm the working of the cosmos and the social life of man. The various institutions essential for human existence and social progress were well developed. Briefly, evidences of the impact of Manu’s teachings on Sumerian life are abundant, as historians and archaeologists have proved it to be.[iv]
The early Egyptians, known to belong to the Caucasian group, knew of Manu. Who became their first emperor? He changed the course of the river Nile, united northern and southern Egypt. He came to be called Muenes, and bull, Apis, which was a symbol among the Hindus (vrsa), was his symbol. He was also known as the law-giver of Egypt. Crete, a neighboring country, called their ancient king and law-giver, Minos, which bears a close resemblance to the word Manu. Tradition has it that he went to India to learn the art of ruling and on his return was given the honorific title of Minos. Sir William Jones, writing in 1794, had a correct intuition of these events which he has recorded then, and which have been later confirmed by archaeologists. He said : “There is certainly a strong resemblance, though obscured and faded by time, between our Manu, with his divine Bull, whom he names Dharma himself, or the genius of abstract justice, and the Meunes of Egypt with his companion or symbol, Apis ; and though we should be constantly on our guard against the delusion of etymological conjecture, yet we cannot but admit that Minos and Meunes or Meunis, have only Greek terminations, and that the crude noun is composed of the same radical letters both in Greek and Sanskrit ; that Apis and Meunes, says the analyst of ancient mythology, were both representatives of some ancient personage, appears from the testimony of Mycophron and his scholiasts ; and that personage was the same who in Crete was styled Minos, and who was also represented under the emblem of minotaur. Diodorus, who confines himself to Egypt, speaks of him by the title of bull Meunes as the first lawgiver, and says ‘that he lived after the age of the gods and the heroes, when a change was made in the manner of life among men; that he was a man of most exalted soul, and a great promoter of civil society, which benefited by his laws; that those laws were unwritten and received by him from the chief Egyptian deity, Harmes, who conferred them on the world as a gift of the highest importance. He was the same, adds my learned friend, as Meunes whom the Egyptians represented as their first king and principal benefactor who first sacrificed to the gods and brought about changes in diet. If Minos, the sun of Jupiter, whom the Cretans, from national vanity, might have made a native of the land, was really the same person as Manu, we have the good fortune to restore by means of Indian literature, the most celebrated system of heathen jurisprudence and this work might have been entitled the laws of Minos; but the paradox is too singular to be confidently asserted, and the geographical part of the book with most allusions to the natural history, must indubitably have been written after the Hindu race  had settled to the south of Himalayas.”[v]
Following these ancient civilisations of Mohan-Jo-Daro-Harrappa, Sumeria and Egypt came Babylon, Assyria, Hatti and Mittanis and we find in all of them a distinct record of the teachings of Manu or a close resemblance to them. Their ethnic composition, names of some of their kings relatives and of their cities have Indian origin. According to Dr. Harshe, we find some relatives of mentioned in one of these civilisations. Babylon is known to have had a College of Sanskrit. Its knowledge of astronomy and calculations of epochs, bearing identity with those of Manu, give us an assurance that Manu’s teachings were a part of the mental equipment of the people. Manu’s teachings were known in Palestine. Not a few of their customs resemble those of the Hindus, while the word Moses is said to be an adaptation from the Hindu word Manu, via Minos, of Crete.[vi]
When we come to ancient Greece, we see ancient India transplanted there en bloc. Confining our attention to the impact of Manu, it is maintained that Plato’s Republic copied many ideas from Manu. According to Professor E. J. Utwick, formerly of London University, and later of Toronto, in his Message of Plato, has maintained the position that those without a knowledge of Hindu philosophy, would call Plato the first original thinker of Europe.
Tacitus, the Roman historian, (78 A.D.) records that the early German tribes described Manusc as the founder of their race. See his Germania , verses no. 3-4. This name sounds like Manu who is the progenitor of man. According to contemporary historians, the social organization of Germany was fourfold, like that of the Hindus, and the functions assigned to each group were the same as their Indian analogues, Rightly or wrongly, Chamberlain, the German ethnologist attributes to Manu the racial psychology of Germany of modern times.
It is a well-known fact that when Emperor Justinian wanted the Laws of his Empire to be systematized and codified, he appointed jurists from Greece and they were deeply influenced by Manu’s thought. This is also the opinion of H. G. Wells and Sir Paul Vinogradoff, former Professor of Jurisprudence of the University of London. This was in 600 A.D. Earlier, when King Darius, (5th cent. BC) of Iran, was framing a Code of Laws, he is said to have turned to Manu, since India was near to him and it was a part of his empire.
During the last decades of the 18th century, Europe was caught in a great economic, social, political and cultural ferment. The various wars, the emergence of science and machine, involving complete transformation of life, rapid communication between villages and cities and nations, changes in agricultural and economic patterns of life, and secularization of all knowledge had burst upon Europe and there was a feeling of utter helplessness and loss of values. People thought that there was to be no more joys of simple rural life, and that they would have to live in a world of power and economic imperialism and quick change. Then something appeared that led to a revival of hope and some semblance of joy among both the masses and the intellectuals, and that was the translations by William Jones of the Bhagavad Gita, Manu Dharma Shastra and Sakuntala of Kalidasa. The first laid emphasis on the fundamentals of Indian philosophy, the second on the principles of social organization, while the last revealed the dramatic and poetical genius of India.
The English translations were quickly translated into other European languages and the leaders of thought in each country went into ecstasies over the discovery of this new continent of knowledge. In Germany, Kant, Hegel, Schopenhauer, Schlegel brothers, Heine, Herder, Humboldt and many others took part in painting verbal pictures of the type of the country that could have given birth to such profound systems of philosophy, sociology and drama.[vii]
This is what is known as the Romantic Movement in European thought. It found expression in France in translations by various scholars. Count Bonald and Count Maistre wrote extensively on politics and government along lines of Manu’s teachings, while the latter used to lecture on this subject in salons of St. Petersburg when accredited to the Russian Court as representative of the King of Sardinia. Comte, considered to be the father of modern sociology came under the influence of Manu’s teachings through the writings of these scholars and of his teacher St. Simon, while numerous other thinkers, poets, novelists wrote and spoke of India extensively.
Voltaire considered Manu, one of the books translated into French as the best book that had ever come from the East, while Emile zola, Victor Hugo, Chateuabriand praised Indian thought to the skies. It is said that the framers of the Napoleanic Code drew on Manu when commissioned by Napoleon to do the job.[viii]
The revelations of Manu s impact on English writers has not been complete. Of course, when the book was published in 1795, one Joseph Priestley wrote a volume of many hundred pages, opposing Manu’s teachings and defending the Christian theology and sociology. But other thinkers of Romantic Movement were familiar with Manu’s teachings. Some of these were Thomas Carlyle, S. T. Coleridge, Shelley, Byron, Keats, Southey and others, till we come down to the present century when E. J. Urwick compared Republic of Plato with Manu's Dharma Sastra, and Professor H. S. Mackenzie, one of the leading thinkers of England, referred to Manu’s teachings.
From Europe, Manu went to the U.S. and influenced the leaders of the Transcendentalist movement, Emerson, Walt Whitman and Thoreau. Thoreau had received a copy of Sir William Jones’s translation from a friend and passed it on to Emerson. Emerson studied the book, carefully saw its implications for the rising civilization of the U.S. and, with the permission of the publishers, serialized it, chapter by chapter, in this weekly journal, The Dial. The book was extensively studied by American scholars, not a few of whom became leading sociologists of the U.S. on their return from German universities where they came under its influence. The leading sociologists of the US. Of those times who refer to Manu’s teachings were Lester F. Ward and Thomas Harris, a Professor of Washington University in St. Louis, who later became the first Commissioner of Education of the United States. According to Walter Leifer, the Romantic Movement of Europe affected the Russian world of letters. As remarked earlier, Count Bonald used to lecture on Manu in Russian Salons. A Russian translation was published during the fifties and its new translation appeared during the fifties of the present century.
We must now face the question as to why Manu Dharma Sastra has enjoyed such popularity and continuity since ancient times, beginning with the Indus Valley civilization and continuing up to today ? Our statement of the causes of this phenomenon must be brief. There are four outstanding features of Manu’s social theory that have imparted to it a touch of eternity, and these are monistic cosmology, supremacy of consciousness, design in the universe and freedom, moksha, as the ultimate goal of human life.
There is another characteristic of Manu which we must mention in passing. First with regard to social progress, Manu maintains that it is possible to ensure social progress, provided the laws that give continuity to human civilization are properly observed and put into practice. Firstly social progress must be distinguished from evolution. The latter is a neutral category, snatched from the science of biology, while progress is a social and positive phenomenon. Secondly progress involves evaluation from time to time, as every planner in modern times knows. Thirdly, progress implies control of the situation. Progress in the animal world just happens, but at the human level it has to be willed and planned.
We now come to the second part of this paper, the Modern world. Manu has given an indication of what can happen to man and the social fabric if man ignores these fundamental laws and invents myths of his own making. The present-day world labors under numerous myths: the myth of uniformity of human nature, the myth of equality, the myth of democracy involving social, economic political equality, the myth of classless society, the myth of non-hierarchical ‘‘social order, the myth of proletarian dictatorship, the myth of multiple party government, the myth of centralization of power, the myth of the omniscience of inconspicuous politicians catapulted into position of power, the myth of bigness, and so on. All these militate against what Manu has taught throughout ages, and he may be credited with also having anticipated results of our non-compliance with these eternal principles.
The observance and compliance with these eternal varieties slowly deteriorates. From Satya Yuga, the Golden Age, man descends into Kali Yuga, the age of darkness, iron, steel, etc. of interpersonal and inter-group conflicts and tensions. The myth making age, which is the modern age, is the age of adharma in which there ‘is complete reversal of value and virtues, of standards and ideals’. Manu gives salient features of this social disorganization, culminating in ‘Brahmahatya’, extensive use of intoxicants, and other great sins (the pancamaha patakas); also several other sins.
Put in modern sociological jargon, the description means this. “These are the marks of the individual and groups who are in a state of moral and spiritual collapse, and of the age which is in a state of advanced decadence. They together represent social disorganization in excelsis. Expressed in the language of our times, they represent man’s senseless destruction of the fine web of ecological balance, a wanton destruction of natural resources, such as minerals, plants, and animals, a false class-consciousness, use of intoxicants, a highly incensed populace whose sexual propensities know no limits or decency, and is capable of grossest transgression, low business ethics, neglect of spiritual study and discipline, of normal domestic life, exercise of ruthless power of man over man and liquidation of his body, mind and soul. It represents the age when man’s entire intelligence is devoted to a debauch of his sense-life, and the human and spiritual elements are in complete abeyance. It is the age of conflict between man and Nature, between man and woman, between various groups, between individual and state, between the country and the city, between man’s natural and spiritual being.” Has any author in human history given such accurate description of the modern situation and could anyone improve on it? Man must retrace his steps or Self-annihilation is the destiny that awaits him.


[i] This article is reproduced from Proceedings of the World First Sanskrit Conference held in March 26-31, 1972, Vigyan Bhavan, Delhi.
[ii] This subject is dealt with in detail in the author’s larger work, Manu Dharma Sastra, A Sociological and Historical Analysis. 1958
[iii] See Chapter i. Laws of Manu. Buhler’s translation in the Sacred Books of the East Series.
[iv] Kramer, S. N., Keeper of the Sumerian Museum in the University of Pennsylvania, see his From the Tablets of Sumer ,Colorado 1956. Also his article in the Scientific Monthly , October, 1957. On a letter regarding close resemblence between the wordings of a verse found in a Sumerian Stone the Rig Vedic verse, “God is one. We call him by many Names, “Professor Karmer wrote : “We have noted some possible parallels between the Rig Veda and the Sumerican material, but very little that is tangible. In any case, most of us admit that we are only ‘scratching the surface,* although put in another way we are also’ laying the foundation.’ See author’s work on Manu, page 259.
[v] Jones, Sir William, Works of Sir William Jones , edited by Lord Teignmouth, Vol. VII., pp. 81-882, London, 1794,]
[vi] See author’s Manu Dharma Shastra , pages 287-290
[vii] The reader will find considerable material in Glassenapp’s book, still not translated into English, in A Mythical Image : The Ideal of India., On German Romanticism, by Leslie Wilson, Duke University Press, 1964, and in India and the Germans : 500 Years of Indo-German Contact, by Walter Leifer, by Shakuntala Publishing House , Bombay, 1971.
[viii] See Bible in India , by Mons Louis Jacolliot. See also the present author’s lectures at the Bangalore University, 1971.

Saturday, August 25, 2018

सत्यार्थ प्रकाश में नाम प्रकरण को लेकर शंका



अश्विनी आदि नाम की स्त्रियों से विवाह क्यों न करें?

मनुस्मृति व सत्यार्थप्रकाश पर किये प्रश्न का उत्तर

- कार्तिक अय्यर

यह प्रश्न कुछ लोग करते हैं कि मनुस्मृति में अश्विनी,रोहिणी आदि नक्षत्रवाचक, व गंगा,यमुना,तुलसी आदि नाम रखने का निषेध क्यों है और क्या ऐसी लड़कियों से विवाह ही न करें? इस लेख में इसका समाधान करते हैं-

न र्क्षवृक्षनदीनाम्नीं नान्त्यपर्वतनामिकाम् ।
न पक्ष्यहिप्रेष्यनाम्नीं न च भीषननामिकाम् ।।3/9।।

न ऋक्ष अर्थात् अश्विनी, भरणी, रोहिणीदेई, रेवतीबाई चित्तारि आदि नक्षत्र नाम वाली; तुलसिया, गेंदा, गुलाबा, चंपा, चमेली आदि वृक्ष नाम वाली; गंगा, जमना आदि नदी नाम वाली; चांडाली आदि अन्त्य नाम वाली; विन्ध्या, हिमालया, पार्वती आदि पर्वत नाम वाली; कोकिला, मैना आदि पक्षी नाम वाली; नागी, भुजंगा आदि सर्प नाम वाली; माधोदासी, मीरादासी आदि प्रेष्य नाम वाली और भीमकुंअरि, चण्डिका, काली आदि भीषण नाम वाली कन्या के साथ विवाह न करना चाहिए । क्यों कि ये नाम कुत्सित तथा अन्य पदार्थों के भी हैं ।
(स० प्र० चतुर्थ समु०)

यहां महर्षि ने स्पष्ट कहा हैे,कि ये सारे नाम कुत्सित हैं या दूसरे ही जड़ पदार्थों के हैं। नाम ऐसा होना चाहिए ,जिसे सुनकर व्यक्ति में उत्तम भावनायें जागृत हों।वरना जड़ नाम से पुकार-पुकारकर व्यक्ति में वैसे गुण भी आने लगते हैं। नाम ऐसे हों,जिसके गुणों को व्यक्ति धारण करे। ऐसा न हो कि किसी को अपने ही नाम से घृणा हो जाये!

देखिये, अश्विनी आदि जड़ तारों के नाम हैं। इनकी जगह यदि प्लूटो,नेप्च्यून,सन,मून, आदि नाम भारतीय लोग रखें तो कितने अटपटे लगेंगे,क्यों जी? ये भी तो ग्रह-नक्षत्रों के नाम हैं, बस अंतर है कि इंग्लिश में हैं!? तुलसी,गेंदा आदि जड़ फूल हैं,इन नामों को सुनकर कौन से महान गुण मन में आयेंगे? तोता,मैना आदि भी मानवों के नहीं,पक्षियों के नाम है। गंगा,जमुना आदि नदियों के व पार्वती आदि पर्वतविषयक नाम भी भ्रांति पैदा करते हैं,जैसाकि हम आगे बतायेंगे। यदि कोई स्त्री रेगिस्तानी इलाके में हो, व पर्वतों से दूर हो तो पार्वती नाम व्यर्थ है वा नहीं? नागी,भुजंगा आदि सांपों के नाम है।ऐसी नाम वाली स्त्रियों को सांप-जैसा मानकर चिढ़ाया जा सकता है, व लोग ऐसी महिलाओं को इच्छाधारी नागिन मान लेते हैं!! माधोदासी आदि नाम दासीवाचक है। पत्नी को "ब्रह्मा" यानी गृहस्थ की मुखिया कहा है,उसके नाम दासवाचक क्यों हो? पत्नी स्वामिनी है,नाकि दासी। चंडिका,भीमा, चांडाली,डाकिनी,शाकिनी आदि नाम भयंकर हैं। जबकि महिलायें आमतौर पर शांत,सरल,सुकुमार व मृदु प्रकृति की होती हैं,ये नाम स्वतः ही स्त्री स्वभाव के विपरीत हैं। ऐसे नाम रामायण व महाभारतकाल में राक्षसियों के होते थे, नाकि हमारी शांत-सुंदर शुभाचरण वाली महिलाओं के!! ऐसे नाम अच्छे भी नहीं लगते, न ऐसे नाम सुनकर किसी स्त्री में श्रेष्ठ भावनायें आयेंगी।
मनु जी व दयानंद जी भी स्त्रियों के नाम उत्तम गुणयुक्त रखना मानते हैं-

स्त्रीणां सुखोद्यं अक्रूरं विस्पष्टार्थं मनोहरम् ।
मङ्गल्यं दीर्घवर्णान्तं आशीर्वादाभिधानवत् ।2/33।।
( मनुस्मृति)

"स्त्रीणाम् स्त्रियों का नाम सुखोद्यम् सुखपूर्वक उच्चारण किया जा सकने वाला अक्रूरम् कोमल अर्थ और वर्णों वाला विस्पष्टार्थम् स्पष्ट अर्थ वाला मनोहरम् मन को आकर्षक लगने वाला मंगल्यम् मंगल अर्थात् शुभ - भावयुक्त दीर्घवर्णान्तमहै।अन्त में दीर्घ अक्षर वाला, तथा आशीर्वाद, अभिधान वत् आशीर्वाद का वाचक होना चाहिए । जैसे - कल्याणी, वन्दना, विद्यावती, कमला, विमला सुषमा, सुशीला, भाग्यवती, सावित्री, यशोदा, प्रियंवदा आदि ।"

‘‘जो स्त्री हो तो एक, तीन वा पांच अक्षर का नाम रखे श्री, हृी, यशोदा, सुखदा, सौभाग्यप्रदा इत्यादि ।’’ (सं० वि० नामकरण सं०)
अतः निषिद्ध नाम स्त्रियों के स्वाभाविक गुणों के विपरीत हैं, अतः त्याज्य है।

डॉ सुरेंद्रकुमार आर्य जी, अपने "सत्यार्थप्रकाश" के शुद्ध (वृहद) संस्करण में, इस श्लोक के नीचे टिप्पणी करते हैं कि-

"इस श्लोक के विधान पर प्रश्न उपस्थित होता है कि -'वर्णित नामों के कारण विवाह क्यों न करें'।इसका उत्तर यह है कि इस प्रकार के नाम शास्त्रीय विधि के अनुसार नहीं हैं,जो यह संकेत देते हैं कि इन नामों वाली कन्याएं या वर न तो वैदिक परंपरा से संबंध रखते हैं और न वे सुशिक्षित व सुसंस्कृत परिवारों के हैं। यदि उनके परिवार सुशिक्षित और वैदिक परंपरा के होते विधि-विरुद्ध,अवैदिक अथवा अशिक्षितों के नामकरण नहीं करते।कुत्सित या गंवारू नाम सभ्य समाज में भी वर्जित होते हैं क्योंकि यह शिष्टाचार के विरुद्ध माने जाते हैं। अतः उनके स्थान पर सांकेतिक,प्रतीकात्मक अथवा अन्य अरुण शब्दों का प्रयोग किया जाता है। जैसे विधिपूर्वक ना किया गया विवाह माननीय या कानून सम्मत नहीं होता,वैसे ही विधि रहित नाम वर्जित है।

अन्य कारण है ,पर्वत, नदी,नक्षत्र आदि नाम रखने से कालांतर में और विचारशील होने अनेक भ्रांतियां भी जन्म ले लिया है ।जैसे "गंगा" नाम के कारण गंगा नदी और भीष्म की माता गंगा को एक रूप मानकर नदी में ही स्त्री का आरोप कर लिया गया। "सीता" हल की रेखा को भी कहते हैं नाम सामने से सीता को हल चलाते समय पृथिवी से उत्पन्न मान लिया गया। "कार्तिकेय" को कृत्तिका नक्षत्र से उत्पन्न दिखाया गया है। "दशानन" नाम के कारण रावण के असंभव दस शिर कल्पित कर लिए । "ऋक्षवान" मानव को रीछ (भालू) का रूप दे दिया आदि -आदि । *नाम विवाह में बाधक नहीं है केवल विधि ही नाम रखने के निषेध पर बल देने के लिए यह कथन है।*

[महर्षि दयानंद ने भी संस्कार विधि में इस तरह के नाम रखने का निषेध किया है। यही नियम ऋषिवर पुरुषों पर भी लागू करते हैं। क्योंकि संविधान की धारायें भले एक ही लिंगवाचक शब्द से कही हो,पर लागू सब पर होती है। इससे पता चलता है कि ऋषि-परंपरा को ज्ञान था कि ऐसे नाम अन्य पदार्थों के, व अयोग्य हैं। इनका उच्चारण करने पर व्यक्ति में उदात्त भावनायें नहीं आ सकतीं।यही नहीं,आगे मूर्ख लोग इससे गपोड़े बनाकर वैदिक धर्म का ही मजाक उड़वायेंगे। इसलिये उन्होंने पहले से ये चेतावनी दे दी कि ऐसे नाम नामकरण संस्कार के ही बाहर कर दो!]

वैदिक परंपरा में गुरुकुल में प्रवेश के समय,वानप्रस्थ,सन्यास के समय नाम परिवर्तन कर दिया जाता है।ऐसे ही विवाह में अनेक क्षेत्रों में आज भी नाम बदला जाता है।यदि कोई कन्या गुणवती है तो उसका उपयुक्त नामकरण करके पुनः उससे विवाह किया जा सकता है। जैसे कि पंजाब के कुछ समुदायों में आज भी विवाह के अवसर पर उपयुक्त नाम परिवर्तन किया जाता है,पुनः विवाह होता है।

[ पं गंगाप्रसाद उपाध्याय भी इस श्लोक पर कुछ ऐसी ही टिप्पणी अपने मनुस्मृति भाष्य में करते हैं-
"नोट-लोग प्रश्न करते हैं कि क्या ऐसे नाम वाली स्त्रियाँ बिन ब्याही रह जाएँ ? यह व्यर्थ प्रश्न हैं। नाम सुगमता से बदला जा सकता है।"]

महर्षि मनु का कथन है,- "स्त्रियो .... सामदेयानि" " अपने गुण कर्म स्वभाव के अनुकूल उत्तम स्त्रियां सभी परिवारों और देशों से स्वीकार कर लें"-( मनुस्मृति २/२४०)। महाभारत काल में विदेशों में अनेक विवाह हुए थे।

( सत्यार्थप्रकाश पृष्ठ ४८६ पर विवरण)।"

इस नामकरण या नामपरिवर्तन से समाज में कोई भी अव्यवस्था देखी नहीं गई। आज भी सभ्य,पढ़े-लिखे लोग "अश्विनी,रोहिणी आदि" नामवाली कन्याओं से विवाह कर लेते हैं। ऐसा कभी सुना नहीं गया कि मनु के अनुसार ऐसी नामवाली औरतें बिना शादी के कुंवारी ही रह गई हों! जब तक इस नियम से समाज में कुछ अव्यवस्था नहीं होती,तब तक इसे गलत नहीं कहा जा सकता। और जैसाकि ऊपर स्पष्ट है, यह नाम मूर्ख,अशिक्षित या वैदिक परंपरा से वंचित लोग ही रखते हैं। इनका परिवर्तन करके भी विवाह हुये हैं, कोई अव्यवस्था नहीं हुई।

Wednesday, August 22, 2018

अहिंसा के संदेशवाहक श्रीरामचन्द्र जी



अहिंसा के संदेशवाहक श्रीरामचन्द्र जी

लेखक- प्रियांशु सेठ

रामायण के अध्ययन से हमें यह उपदेश मिलता है कि श्रीरामचन्द्र जी वैदिक धर्म के मानने वाले आर्यशील पुरुष थे। बालकाण्ड सर्ग १ श्लोक १२,१३,१५,१६ में श्रीराम जी के यथार्थ गुणों का वर्णन इस प्रकार मिलता है- 'धर्मज्ञ, सत्य प्रतिज्ञा, प्रजा हितरत, यशस्वी, ज्ञान सम्पन्न, शुचि तथा भक्ति तत्पर हैं। शरणागत रक्षक, प्रजापति समान प्रजा पालक, तेजस्वी, सर्वश्रेष्ठ गुणधारक, रिपु विनाशक, सर्व जीवों की रक्षा करने वाले, धर्म के रक्षक, सर्व शास्त्रार्थ के तत्ववेत्ता, स्मृतिमान्, प्रतिभावान् तेजस्वी, सब लोगों के प्रिय, परम साधु, प्रसन्न चित्त, महा पंडित, विद्वानों, विज्ञान वेत्ताओं तथा निर्धनों के रक्षक, विद्वानों की आदर करनेवाले जैसे समुद्र में सब नदियों की पहुंच होती है वैसे ही सज्जनों की वहां पहुंच होती है। परम श्रेष्ठ, हंस मुख, दुःख सुख के सहन कर्ता, प्रिय दर्शन, सर्व गुणयुक्त और सच्चे आर्य पुरूष थे।' अयोध्याकाण्ड सर्ग ३३ श्लोक १२ में भी उनकी महिमा का गायन इस प्रकार है- 'अहिंसा, दया, वेदादि सकल शास्त्रों में अभ्यास, सत्य स्वभाव, इन्द्रिय दमन करना, शान्त चित्त रहना, यह छ: गुण राघव (रामचन्द्र) को शोभा देते हैं।' 

यद्यपि मौलाना समीर मुहम्मद को रामायण में राम के द्वारा पशु-हत्या, हिंसा एवं कौशल्या द्वारा पशु-सम्भोग का वर्णन मिलता है। यह लोग अपने धर्मग्रन्थों को छूते तक नहीं, जिसमें हिंसा, भोग-विलासादि का वर्णन यत्र-तत्र बिखरा पड़ा है बल्कि हमारे धर्मग्रन्थों से अधूरे और प्रक्षेपयुक्त सन्दर्भ देकर हमारे ऋषियों, महापुरुषों पर आक्षेप करते हैं। इस लेख में हम इनके प्रत्येक आक्षेपों का खण्डन करते हैं-

आक्षेप १. राम के पिता दशरथ भी शिकार के लिए जाया करते थे। उन्होंने निर्दोष श्रवण कुमार पर तीर चलाकर हत्या की। -जगदीश्वरानंद कृत वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड ४८/९-१५
इससे उनपर हत्या और हिंसा का आरोप लगता है।

उत्तर- मौलाना साहब हमें इस श्लोक में 'शिकार' शब्द दिखा दें, बड़ी कृपा होगी।
जब राम को वनवास लिए छठी रात बीत रही थी तब राजा दशरथ को उसके पहले किये हुए दुष्कर्म का स्मरण हुआ। वह कौशल्या से कहने लगे-

'कल्याणि! मनुष्य शुभ या अशुभ जो भी कर्म करता है, अपने उसी कर्म के फलस्वरूप सुख या दुःख कर्ता को प्राप्त होते हैं।'
'...श्रीराम को खोकर मैं पश्चाताप कर रहा हूं। मेरी बुद्धि कैसी खोटी है!
'कौशल्ये! पिता के जीवनकाल में जब मैं केवल राजकुमार था, एक अच्छे धनुर्धर के रूप में मेरी ख्याति फैल गयी थी। सब लोग यही कहते थे कि "राजकुमार दशरथ शब्द-वेधी बाण चलाना जानते हैं।" इस ख्याति में पड़कर मैंने यह एक पाप कर डाला था।
'देवी! उस अपने ही किये हुए कुकर्म का फल मुझे जस महान् दुःख के रूप में प्राप्त हुआ है...। -वाल्मीकि रामायण, अयोध्याकाण्ड सर्ग ६३ श्लोक ४,६,१०,११,१२, गीताप्रेस गो०

आगे दशरथ जी कहते हैं-

'वर्षा ऋतु के उस अत्यन्त सुखद सुहावने समय में मैं धनुष-बाण लेकर रथपर सवार हो व्यायाम करने के संकल्प से सरयू नदी के तट पर गया।'
'मेरी इन्द्रियाँ मेरे वश में नहीं थीं। मैंने सोचा था कि पानी पीने के घाटपर रात के समय जब कोई उपद्रवकारी भैंसा, मतवाला हाथी अथवा सिंह-व्याघ्र आदि दूसरा कोई हिंसक जन्तु आवेगा तो उसे मारूंगा।'
'उस समय वहां सब ओर अंधकार छा रहा था। मुझे अकस्मात् पानी में घड़ा भरने की आवाज सुनायी पड़ी। मेरी दृष्टि तो वहां तक पहुंचती नहीं थी, किंतु वह आवाज मुझे हाथी के पानी पीते समय होनेवाले शब्द के समान जान पड़ी।'
'तब मैंने यह समझकर कि हाथी ही अपनी सूंड़ में पानी खींच रहा होगा; अतः वही मेरे बाण का निशाना बनेगा। तरकस से एक तीर निकाला और उस शब्द को लक्ष्य करके चला दिया। वह दीप्तिमान् बाण विषधर सर्प के समान भयंकर था।' -वाल्मीकि रामायण, अयोध्या० ६३/२०,२१,२२,२३

टिप्पणी- पाठक ध्यान दें! दशरथजी कहते हैं "मेरी इन्द्रियां मेरे वश में नहीं थीं अर्थात् मुझे डर लग रहा था। मैंने सोचा था कि पानी पीने के घाटपर जब कोई उपद्रवकारी भैंसा, मतवाला हाथी अथवा सिंह-व्याघ्र आदि दूसरा कोई हिंसक जन्तु आवेगा तो उसे मारूंगा।" ऐसा उन्होंने राज्य की रक्षा के उद्देश्य से कहा था ताकि हिंसक जन्तुओं से राज्य में। उपद्रव न हो।

मैं पूछता हूं- प्रजा की रक्षा हेतु उपद्रवकारी जन्तुओं को मार भगाना क्या यह जीव-हत्या व हिंसा है? सब ओर अंधकार हो जाने के कारण उन्हें ज्ञात नहीं था कि वह एक मनुष्य है। इसे मात्र आकस्मिक घटना ही कहा जा सकता है। इस घटना के बाद उन्होंने स्वीकार भी किया कि मैंने जो पाप किया था, आज उसी का फल मुझे महान् दुःख के रूप में प्राप्त हुआ है। अतः उनपर हत्या का आरोप निर्मूल है।

नोट- कई टीकाकारों ने उक्त श्लोक के अर्थ में 'शिकार' शब्द जोड़ दिया है। जबकि मूल में 'शिकार' शब्द है ही नहीं। चाहे सौ टीकाकार अन्यथा अर्थ करें, लेकिन प्रामाणिक तो वाल्मीकि का ही लेख है। श्लोक इस प्रकार है-

तस्मिन्नतिसुखे काले धनुष्मानिषुमान् रथी।
व्यायामकृतसंकल्प: सरयूमन्वगां नदीम्।।

यहां संस्कृत में "व्यायामकृतसंकल्प:" शब्द है अर्थात् 'व्यायाम के कृत संकल्प से दशरथ वन में गए।' अतः व्यायाम अर्थ ही सही और प्रमाणिक है।

व्यायाम अर्थ करने पर कुछ प्रश्न उभरते हैं जिसका उत्तर इस प्रकार दिया जाता है-

प्रश्न- व्यायाम करने जंगल में ही क्यों गए? व्यायाम तो महल में भी हो सकता है। वह क्षेत्र वन एवं हिंसक जन्तुओं से घिरा था अतः वहां मनुष्यों का जाना कैसे संभव है?

उत्तर- दशरथ जी व्यायाम के साथ संध्या करने भी जंगल जा सकते हैं। और राजा लोग जंगल जाकर ही व्यायाम करते थे; जैसाकि घुड़सवारी इत्यादि। नदी तट पर व्यायाम भी होता है व संध्योपासना तो नदी के पास कर ही सकते हैं। वह क्षेत्र इतना जंगली भी नहीं था कि वहां कोई न आये। देखो, जब वहां श्रवणकुमार आ गया, मतलब कि वहां इंसान आते जाते रहे होंगे। ये नहीं कि वीरान जंगल ही होगा। आज भी बहुत से वन क्षेत्रों में मनुष्य रहते हैं तथा वहां कुछ हिंसक पशुओं का आना-जाना भी लगा रहता है।

आक्षेप २. सीता के कहने पर राम हिरणों को पकड़ने गए और हिरन पर तीर चलाकर जान से मार डाला। -अरण्यकाण्ड २७/७-८
अब भला हिरण हिसंक कैसे हो सकता है?

उत्तर- हिरण हिंसक नहीं होते अपितु राक्षस हिंसक होते हैं। आपको तो आधा-अधूरा सन्दर्भ देने का रोग है। इस पूरे प्रसंग को हम संक्षेप में लिख देते हैं-

राम द्वारा खर आदि राक्षसों के वध के पश्चात् उसमें एक अकम्पन नाम का राक्षस किसी तरह जान बचाकर रावण के पास भाग आता है। उसी के सलाह से रावण सीता के अपहरण का निश्चय करता है। कुछ दूर स्थित एक आश्रम में जाकर वह ताटका-पुत्र मारीच से मिलता है। मारीच के कुशलता पूछने पर रावण उसे बताता है कि राम ने मेरे राज्य की सीमा के रक्षक खर-दूषण आदि राक्षसों को मार डाला है अतः मैं उसी का बदला लेने के लिए उसकी स्त्री का अपहरण करना चाहता हूं। लेकिन मारीच के सावधान करने पर वह लंका वापस लौट जाता है। उधर शूर्पणखा देखती है कि श्रीराम ने अकेले ही हजारों राक्षसों को मौत के घाट उतार दिया है। तभी शूर्पणखा रावण को लक्ष्मण द्वारा अपने नाक-काटने का वृतान्त सुनाती है और वह रावण को श्रीराम से बदला लेने के लिए कहती है। वह रावण को राम, लक्ष्मण तथा सीता का परिचय देते हुए सीता को भार्या बनाने के लिए प्रेरित करती है। अब रावण पुनः मारीच के पास जाता है और उससे सीता के अपहरण के लिए सहायता मांगता है। रावण कहता है, मेरा भाई खर, महाबाहु दूषण, मेरी बहिन शूर्पणखा, मांसभोजी राक्षस महाबाहु त्रिशिरा आदि राक्षसों को राम ने मौत के घाट उतार दिया। उससे बदला लेने के लिए मैं भी उसकी देवकन्या के समान सुन्दरी पत्नी सीता को बलपूर्वक हर लाऊंगा। तुम उस कार्य में मेरी सहायता करो। तुम सोने के बने हुए मृग जैसा रूप धारण करके रजतमय बिन्दुओं से युक्त चितकबरे हो जाओ और राम के आश्रम में सीता के सामने विचरो। विचित्र मृग के रूप में तुम्हें देखकर सीता अवश्य ही अपने पति राम तथा लक्ष्मण से भी कहेगी कि आपलोग इसे पकड़ लावें। जब वे दोनों तुम्हें पकड़ने के लिए दूर निकल जाएंगे तो मैं बिना किसी विघ्न-बाधा के सीता को हर लूंगा। अब मारीच जाने के लिए तैयार हो जाता है। तथा मृग का रूप धारण करके राम के आश्रम पर विचरने लगता है। सीता उस मृग को देखकर राम से कहती है, आर्यपुत्र! यह मृग बड़ा ही सुन्दर है। इसने मेरे मन को हर लिया है। महाबाहो! इसे ले आइये। यह हम लोगों के मन-बहलाव के लिए रहेगा। -वाल्मीकि रामायण, अरण्यकाण्ड सर्ग ३० श्लोक २७,२८, सर्ग ३१ श्लोक १,२,३१,३३,३६,३८,४०,४१,४६,५०, सर्ग ३२ श्लोक १,२५, सर्ग ३३, सर्ग ३४ श्लोक २५, सर्ग ३५, सर्ग ३६ श्लोक २,३,८,९,१३,१८,१९,२०, सर्ग ४२ श्लोक १,४,१४, सर्ग ४३ श्लोक १०, गीताप्रेस गो०

चूंकि लक्ष्मण को वह मृग देखकर पूर्व ही सन्देह हो जाता है। वह श्रीराम से कहते हैं- भैया! मैं तो समझता हूं कि इस मृग के रूप में वह मारीच नाम का राक्षस ही आया है। श्रीराम लक्ष्मण से कहते हैं, लक्ष्मण! तुम मुझसे जैसा कह रहे हो यदि वैसा ही यह मृग हो, यदि यह राक्षस की माया ही हो तो मुझे उसका वध करना चाहिए। वह मृग उछल-कूद करके श्रीराम को बहुत दूर ले जाता है। अंत में श्रीराम जी ने उसपर बाण छोड़ दिया और वह मृगरूपधारी मारीच मर गया। -वाल्मीकि रामायण, अरण्य० सर्ग ४३ श्लोक ५,३८, सर्ग ४४ श्लोक ४,५,१३,१४,१५,१६,१७,१८ गीताप्रेस गो०

टिप्पणी- शूर्पणखा जब रावण को अपने अपमान का वृतान्त सुनाती है तो रावण निश्चय करता है कि वह श्रीराम से बदला लेगा। उसने मारीच नाम के राक्षस को सुनहरे हिरण के रूप में भेजा। स्वर्णरूप हिरण देखकर सीता का मन ललचाया। वह उसके रूप पर मुग्ध हो गईं और रामचन्द्र को उसके पकड़ने के लिए प्रार्थना की। उसके हठ के कारण पहले राम पुनः लक्ष्मण दोनों गए और जब पकड़ा तो ज्ञात हुआ कि वह छल था, वास्तविक हिरण न था। मारीच नाम का एक दैत्य या असभ्य जंगली मनुष्य हिरण का स्वांग धारण कर व खाल ओढ़कर भरमाने आया था। जिसके पीछे रावण सीता को भगा ले जाने में सफल हो पाया।

नोट- राक्षस शब्द संस्कृत का है। वैदिक में इसका अर्थ- सहनशक्ति से रहित, हठी, क्रोध से मारने वाला, कठोर भोजन में रुचि रखने वाला, मांस प्रेमी, सोने के लिए श्रमशील, ईषालु को राक्षस कहते हैं।

अब मुल्ला जी बतायें कि श्रीराम जी ने हिरण को मारा या राक्षस को? राक्षस हिंसक था या हिरण?

प्रश्न- इस बात का और क्या प्रमाण है कि वह हिरण मारीच था? अन्य कोई हिरण भी हो सकता है।
उत्तर- मारीच श्रीराम के आश्रम पर विचरने के तैयार हो जाता है एवं मृगरूप धारण करता है, इसका प्रमाण हमने ऊपर ही दे दिया है। इसका और भी प्रमाण है कि वह हिरण मारीच ही था। देखो-
शरीर में काला मृगचर्म और सिरपर जटाओं का समूह धारण किये मारीच नामक राक्षस निवास करता था। -वाल्मीकि रामायण, अरण्य० ३५/३९, गीताप्रेस गो०

प्रश्न- आपने कहा राक्षस हिसंक होते हैं। मारीच भी हिंसक था, इसका प्रमाण दीजिये।
उत्तर- मारीच रावण से कहता है, मैं महान् बलशाली तो था ही, मेरी जीभ आग के समान उद्दीप्त हो रही थी। दाढ़ें भी बहुत बड़ी थीं, सींग तीखे थे और मैं महान् मृग के रूप में मांस खाता हुआ दण्डकारण्य में विचरने लगा। दण्डकारण्य के भीतर धर्मानुष्ठान में लगे हुए लोगों को मारकर उनका रक्त पीना और मांस खाना यही मेरा काम था। मैं ऋषियों का मांस खाता था। -वाल्मीकि रामायण, अरण्य० ३९/३,५,६, गीताप्रेस गो०

आक्षेप ३. राम और लक्ष्मण दोनों ने मिलकर ४ किस्म के महामृर्गों का तीर से प्रहार करके वध कर दिया। -वाल्मीकि रामायण, गीताप्रेस, अयोध्याकाण्ड ५२/१०२

उत्तर- मृग का अर्थ हिरण ही नहीं अपितु जंगली जानवर भी है, यह बात किसी संस्कृत ज्ञाता से छिपी नहीं है। उन्होंने जंगली सुअर आदि हिंसक जानवर ही मारे, निर्दोष प्राणियों को नहीं। वहां वराह आदि स्पष्ट लिखा है। देखिए-

तौ तत्र हत्वा चतुरो महामृगान्
वराहमृश्यं पृषतं महारुरुम्।
आदाय मेध्यं त्वरितं बुभुक्षितौ
वासाय काले ययतुर्वनस्पतिम्।।

अर्थ- वहां उन दोनों भाइयों ने मृगया-विनोद के लिये वराह, ऋश्य, पृषत् और महारुरु- इन चार महामृगों पर बाणों का प्रहार किया। तत्पश्चात् जब उन्हें भूख लगी, तब पवित्र कन्द-मूल आदि लेकर सायंकाल के समय ठहरने के लिए (वे सीताजी के साथ) एक वृक्ष के नीचे चले गए।

अब देखिए, मुल्लामण्डल में पशु-हत्या का आदेश-

(क़ुरबानी के) ऊँटों को हमने तुम्हारे लिए अल्लाह की निशानियों में से बनाया है। तुम्हारे लिए उनमें भलाई है। अतः खड़ा करके उनपर अल्लाह का नाम लो। फिर जब उनके पहलू भूमि से आ लगें तो उनमें से स्वयं भी खाओ औऱ संतोष से बैठनेवालों को भी खिलाओ और माँगनेवालों को भी। ऐसी ही करो। हमने उनको तुम्हारे लिए वशीभूत कर दिया है, ताकि तुम कृतज्ञता दिखाओ। -कुरान मजीद, सूरा अल-हज़ (२२), आयत ३६

आक्षेप ४. साधु के वेश में रावण को सीता ने कहा उनके स्वामी आते होंगे और जंगली सुअर को मारकर खाना लाते होंगे। -वाल्मीकि रामायण, गीताप्रेस, अरण्यकाण्ड ४७/२३,२४
यहां भी राम का पशु-हत्या करना साबित हुआ।

उत्तर- पूरा सन्दर्भ दिया करें अन्यथा मांस-भक्षण का आरोप भी लग सकता है। उक्त सन्दर्भ का अर्थ इस प्रकार है-

"रुरु, गोह और जंगली सुअर आदि हिंसक पशुओं का वध करके तपस्वी जनों के उपभोग में आने योग्य बहुत-सा फल-मूल लेकर वे अभी आयेंगे।" -श्लोक २३

पाठक ध्यान दें! जिन्हें मांसभक्षण विदित होता है वह यह वाक्य पढ़ें- 'तपस्वी जनों के उपभोग में आने योग्य फल आदि लेकर वह आएंगे।' ठीक ऐसा ही इसके पूर्व श्लोक में भी कहा है- 'अभी मेरे स्वामी प्रचुर मात्रा में जंगली फल-मूल लेकर आते होंगे।' -श्लोक २२, अस्तु!

जंगली सुअर हिंसक होते हैं, यह सर्वविदित है। प्रजा आदि रक्षा हेतु उन्हें मारना हिंसा नहीं, इसपर हम पूर्व भी लिख आये हैं। यहां भी कहीं हिंसा करना नहीं लिखा।
लेकिन मुल्लामण्डल का यह हदीस दर्शनीय है-

१. जिसका गोश्त खाया जाय उसका पेशाब "पाक" है। -"मिश्कात" जिल्द १ हदीस नम्बर ४७१

२. एक कुएं में हैज़ (महावारी) के चिथड़े (कपड़े) और मरे हुए कुत्ते डाले जाते थे लोगों में उसकी पानी की बाबत पूछा?, हजरत ने कहा "पाक" है। -"मिश्कात" जिल्द १ हदीस नम्बर ४३८

पाठकगण, देख सकते हैं कि इस्लाम की शिक्षायें कितनी उच्च और पवित्र विचार की हैं?

आक्षेप ५. राम के सेना में निषाद लोगों को मुर्गा और मांस खाने को दिया गया। -वाल्मीकि रामायण, गीताप्रेस ९१/७०

उत्तर- १. इस सर्ग में राम के सेना नहीं अपितु भरत के सेना का वर्णन है। वाल्मीकी रामायण, आयोध्याकाण्ड सर्ग ९१ श्लोक ५ एवं १० (गीताप्रेस गो०) मेरे कथन की पुष्टि करता है।

२. आपने जो श्लोक दिया है, वह श्लोक रामायण का भाग नहीं अथवा इस कारण से प्रक्षिप्त है-

• मुनिराज के चारों ओर पालतु मृग, पक्षी और मुनि लोग बैठे थे। सबके साथ रामचन्द्र जी की पूजा कर भरद्वाज जी धर्मयुक्त वचन रामचन्द्र से बोले। (अयो० ५४/१९,२०)

इस आधार पर मांस आदि मनगढ़ंत बातें विश्वासनीय नहीं हैं। पुनरपि यहां भरत और रामचन्द्र के मांस खाने का उल्लेख नहीं। अतः हम तो इन महात्माओं की जीवनी बतलाते हैं अन्य सेवाकारों की नहीं।

आक्षेप ६. पुत्र प्राप्ति हेतु अश्वमेध यज्ञ में राजा दशरथ ने कई पशुओं की बलि दी थी। वाल्मीकि रामायण, गीताप्रेस, बालकाण्ड सर्ग १४
शतपथ ब्राह्मण में भी पशु-हत्या का वर्णन है तथा घोड़े के साथ रातभर औरत के चादर चढ़ाकर सम्भोग करने का भी विधान है। -शतपथ ब्राह्मण १३/५/२/१,२ जैसा कि राम की मां कौशल्या ने रात्रि घोड़े के साथ बितायी थी। -बालकाण्ड १४/३४
वैदिक कोष पेज २९ के अनुसार अश्वमेध यज्ञ में ३०० पशुओं के हत्या का वर्णन है।

उत्तर- पहली बात तो यहां कहीं पशुओं की बलि देने का वर्णन नहीं है। दूसरी बात यह है कि दशरथ को पुत्र चाहिए था तो अश्वमेध यज्ञ करना ही यहां मिलावट है क्योंकि अश्वमेध यज्ञ पुत्र के लिये नहीं होता। रामचरितमानस, पद्मपुराण, भागवतपुराण आदि जहां भी रामकथा है- वहां केवल 'पुत्रेष्टि यज्ञ' है अश्वमेध यज्ञ का वर्णन वहां नहीं है। और न ही अश्वमेध यज्ञ की जरूरत वहां पर है। यह किसी वाममार्गी का प्रक्षेप है।

शतपथब्राह्मण में यह प्रक्षेप है। हां, मगर वाल्मीकि रामायण, गीताप्रेस, बालकाण्ड सर्ग १४ में 'हस्तेम समयोजयन्' लिखा है अर्थात् हाथ से अश्व को छुआ। किन्तु चौधरी द्वारिकालाल नामक वामपंथी ने 'हयेन समयोजन्' कर दिया, यानी घोड़े से संभोग कर दिया। घोड़े के साथ कौशल्या का रात बिताना अश्वमेध यज्ञ के वृतान्त के अंतर्गत आता है। हमने इसे पहले ही प्रक्षिप्त सिद्ध कर दिया है। यदि मात्र आपके अनुसार यह सत्य भी है तो वहां कोई भी चादर चढ़ाकर संभोग करना नहीं लिखा।

आपका वैदिक कोष से प्रमाण भी गलत है। पेज २९ पर अश्वमेध के बारे में कोई वर्णन नहीं है। अब मुल्ला जी तो हैं अनपढ़! मेध शब्द के तीन अर्थ होते हैं- १. मेध अथवा शुद्धि-बुद्धि को बढ़ाना। २. लोगों में एकता अथवा प्रेम को बढ़ाना। ३. हिंसा।
इस हेतु मेध शब्द से केवल हिंसा शब्द का ग्रहण करना उचित नहीं है। यज्ञ को "अध्वर अर्थात् हिंसा रहित" कहा गया है।
अब मुल्लामण्डल पर दृष्टि करते हैं-

१. हजरत ने अहले अर्ना को ऊंट का पेशाब पीने का हुक्म दिया। -शरह बकाया सफा ३२

२. गुदा मैथुन के बारे में लिखने योग्य नहीं है। इस हेतु प्रमाण मात्र दे रहा हूँ-

•शरह बकाया (उर्दू)- (सफा ३२, सतर १०)
•शरह बकाया (उर्दू)- (सफा १८२, सतर ५ व ६)
•हाशिये चलपी- (सफा १६४, अरबी)
•शरह बकाया- (सफा ३०८, का फुटनोट)
•गायतुल औतार- (जिल्द १, सफा ७२, सतर १३)
•गायतुल औतार- (जिल्द २, सफा ४१०, सतर ५)
•हफवातुल मुसलमीन- (सफा ४२, सतर ५ से ४६ तक)

अभी अनेकों प्रमाण है लेकिन विस्तारभय से उसे नहीं लिखा जा रहा है।

आक्षेप ७. हिसंक और अहिंसक दोनों प्रकार के पशुओं को मारने का आदेश दयानंदकृत यजुर्वेदभाष्य १०/८६/१४ में मिलता है।

उत्तर- आपने तो झूठ बोलने का नमक खाया है। जब यजुर्वेद में केवल अध्याय और मन्त्र हैं तो आपने यह तीसरा क्या दिया है? आप अपने अज्ञात सन्दर्भ को ठीक करें। जब पता ही गलत है तो खण्डन क्या करना?

आक्षेप ८. रामायण के अनुसार राम इन्द्र के तुल्य हैं। ऋग्वेद सायणभाष्य १०/८६/१४ के अनुसार इन्द्र १५ से २० सांड और बैल पका खा-खाकर मोटा होता है।

उत्तर- सायण का भाष्य मान्य नहीं है, यह बात किसी से छिपी नहीं है। कारण सायण अपने वेदभाष्य भूमिका में 'तस्माद्यज्ञात्सर्व हुत ऋच: सामानि...', 'शास्त्रयोनित्वात्' तथा 'अत एव च नित्यवम्' जैसे वाक्यों को उद्धृत करके वेदों को नित्य एवं अपौरुषेय ज्ञान स्वीकार किया है लेकिन ऐसा लिखकर भी सायण अपने वेदभाष्य में रामायण, महाभारतकालीन तथा पौराणिक पात्रों जैसे वशिष्ठ, गौतम, उर्वशी, दिवोदास, कण्व, इन्द्रादि नामों को उद्धृत करके काल्पनिक कथाओं का सृजन करते हैं। रावण, उव्वट, सायण और महीधर एक ही थाली के चट्ट-बट्टे हैं। आइये, उपरोक्त मन्त्र का सही अर्थ करें-

उक्ष्णो हि मे पञ्चदश साकं पचन्ति विंशतिम्।
उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तर:।। -ऋ० १०/८६/१४

पदार्थ:- (पंचदश) दश प्राण और पांचभूत ये पन्द्रह पदार्थ, (मे) मेरे द्वारा बनाये गये (उक्ष्ण:) सुखों के वर्षक शरीरों को (विंशतिम्) २० अंगों को (सांकम् हि) साथ ही (पचन्ति) पका कर पुष्ट करते हैं (उत) और (मे) मेरे द्वारा प्रदत्त शरीर के (उभाकुक्षी) दोनों पार्श्वों को (पृणन्ति) पूर्ण करते हैं। (अहम्) मैं (पीव इत्) सर्वदा परिपुष्ट इस सबको प्रलयकाल में (अदिम्) अपने अन्दर समा लेता हूं, (इन्द्र:) परमैश्वर्यवान् प्रभु (विश्वस्मात्) सब पदार्थों से सूक्ष्म और उत्कृष्ट है।

भावार्थ:- दश प्राण और पंचभूत मुक्त परमेश्वर द्वारा बनाये गए शरीरों के बीस अङ्गों को साथ ही परिपक्व करके पुष्ट करते हैं और मेरे द्वारा प्रदत्त दोनों पार्श्वों को भी परिपूर्ण करते हैं। मैं सर्वदा परिपुष्ट इन्द्र=परमेश्वर इन सबको प्रलयकाल में अपने अन्दर समेट लेता हूं। परमैश्वर्यवान् प्रभु सब पदार्थों से सूक्ष्म और उत्कृष्ट है।

हम बड़े ही सौभाग्यशाली हैं कि हम ऐसे आदर्श, सच्चरित्र, आर्यश्रेष्ठ श्रीरामजी के वंशज हैं। आइये, श्रीरामचन्द्र जी के प्रत्येक गुणों को अपनायें एवं हिंसा त्यागकर वेदों में वर्णित अहिंसा के संदेश पर चलें।

।।मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र की जय।।