Friday, October 28, 2016

Dalit crusader Swami Dayanand



Dalit crusader Swami Dayanand

1. Swami Dayanand was first revolutionary figure to start the crusade against castism by declaring that a person is Brahmin means learned not merely by taking birth to a Brahmin father but by gaining the knowledge of scriptures and a person is Shudra or backward not merely by taking birth to a Shudra father but when he is devoid of qualities.

2. Swami Dayanand was first to declare that son of a king as well as son of a poor dalit all must be provided with the compulsory education by the state king in Gurukula under the supervision of qualified teachers without any discrimination in food, clothing and other facilities.

3. Swami Dayanand was first to provide references from the Vedas that the God’s knowledge is not the monopoly of birth based Brahmins but for all including Shudras.

4. Swami Dayanand was first to declare that the basis of marriage must by education, qualities and actions of both partners rather than the caste.

5. Swami Dayanand was first to promote interdinning between different caste to eradicate the differences of castism.

6. Swami Dayanand was first to grant religious rights to the Shudras in form of right to wear Yagyopavit, Right to Perform Yajna, Right to Read Vedas, Right to Worship God to everyone irrespective of caste, creed and religion.

7. Swami Dayanand was first to reject those verses in Manu Smriti, Ramayana, Mahabharata, Puranas etc which supported Castism and create differences.

8. Swami Dayanand was first to create consciousness in the Hindu society to open orphanages and widow homes, to provide relief work during the natural calamities to help the needy especially the dalit class in grief. He even opposed the harvesting of poor souls in poverty by hook or crook by missionaries.

9. Swami Dayanand was first to openly declare that all are sons and daughters of almighty God and its utter foolishness to declare one as superior and other as inferior on basis of birth.

10. Swami Dayanand was first to declare that Humans must behave like true son of God by acting as Human.

Dr Vivek Arya

अमर हुतात्मा भक्त फूल सिंह



अमर हुतात्मा भक्त फूल सिंह

हरयाणा में नारीशिक्षा के प्रचार प्रसार का श्रेय भक्त फूल सिंह को जाता है । उनका जन्म जिला सोनीपत के ग्राम माहरा में सन 1885 में हुआ । आपके पिता एक साधारण किसान थे । आठ वर्ष की अवस्था में आपको पास के गाँव में प्रारम्भिक शिक्षा के लिए भेजा । बाल्यकाल से ही आपमें सेवाभाव, सरलता, सदाचार, और निर्भयता आदि के गुण थे । शिक्षा के बाद आप पटवारी बने । समाज सेवा की धुन सिर पर स्वर थी , अतः नौकरी से त्यागपत्र दे दिया । अब आप सारा समय आर्यसमाज के प्रचार प्रसार में लगाने लगे । आपने त्यागपत्र देने के बाद एक बड़ी पंचायत बुलवाई और उसमे रिश्वत की सारी राशि लौटा दी ।

कन्याओ की शिक्षा में योगदान
भक्त जी कन्याओ की शिक्षा के लिए विशेष चिंतित थे , अतः 1936 में खानपुर के जंगल में कन्या गुरुकुल की स्थापना की । इस गुरुकुल में आज अनेक विभाग हैं जैसे - कन्या गुरुकुल , डिग्री कॉलेज , आयुर्वेदिक कॉलेज, बी-एड आदि । सन 1937-38 में लाहौर में कसाईखाना बंद करने में आपका प्रमुख योगदान था । हैदराबाद रियासत के आर्यसत्याग्रह में आपने ७०० सत्याग्रही हैदराबाद भेजे ।

जिला हिसार के मोठ नामक स्थान के चमार बंधुओ ने कुआं बनवाना आरम्भ किया । मुसलमानों ने इसका विरोध किया । मोठ के चमार बंधु निराश होकर भक्त जी के पास आये और अपनी कष्ट भरी गाथा सुनाई । भक्त जी ने उन्हें कुआं बनवाने का आश्वासन दिया और 1 सितबर 1940 को मोठ पहुँच गए । उन्होंने लगातार तीन दिनों तक गाँव के मुसलमानों को समझाया । मुसलमानों पर उनकी बातों का कुछ भी प्रभाव नहीं पडा । भक्त जी ने आमरण अनशन शुरू कर दिया और कहा "कुआं बनने पर ही अन्नग्रहण करूँगा, अन्यथा यहीं प्राण त्याग दूंगा ।" मुसलमानों ने भक्त जी को तीन चार दिन बाद उठा कर जंगल में फेंक दिया । भक्त जी बच गए और पुनः 23 दिन के उपवास के बाद उन्हें अपने कार्य में सफलता मिल गई । कुआं बना और चमार बंधुओं की पानी की समस्या हल हो गई ।

विश्व वंद्य महात्मा गांधी जी ने उपरोक्त घटना के विषय में जब सूना तो बहुत प्रसन्न हुए और भक्त जी से मिलने की इच्छा प्रकट की । भक्त जी दिल्ली आये और बापू से लगभग डेढ़ घंटे तक वार्तालाप चला । बापू ने भक्त जी से कहा, "आप आर्यसमाज को छोड़कर मेरे कार्यक्रम के अनुसार कार्य कीजिये । समय-समय पर मैं आपको यथाशक्ति मदद देता रहूँगा , इससे आप देश की अधिक सेवा कर सकेंगे ।" भक्त जी ने निश्छल भाव से कहा -" महात्मा जी मैं आपकी सब आज्ञाओं को मानने को तैयार हूँ परन्तु आर्यसमाज को नहीं छोड़ सकता क्योंकि ऋषि दयानंद और आर्यसमाज तो मेरे रोम रोम में राम चुके हैं ।"

देहांत
भक्त जी ने सामाजिक कुरीतियों को मिटाने के लिए कई बार आमरण अनशन किये और अपनी पत्रिक संपत्ति तक बेच कर सामजिक कार्यों में लगा दी । 14 अगस्त 1942 को चार धर्मांध मुसलमानों ने गोली मारकर हत्या कर दी । ऐसे त्यागी, कर्मनिष्ठ और सर्वत्यागी संत को शत-शत नमन !!

Wednesday, October 26, 2016

RSS द्वारा साई बाबा को लेकर दिए गए बयान का विश्लेषण



RSS द्वारा साई बाबा को लेकर दिए गए बयान का विश्लेषण

डॉ विवेक आर्य

तुम्हारी जैसी इच्छा हो उसे ईश्वर मानो। तुम्हें ईश्वर भक्ति जैसे करनी हो वैसे करो। तुम किसी भी कार्य को धार्मिक और अधार्मिक अपने इच्छा से कह सकते हो।
भारत देश में धर्म के नाम पर अन्धविश्वास को ऐसे ही प्रारूप में विकसित किया जा रहा है। इस कड़ी में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (RSS) का नाम भी जुड़ गया है।
RSS ने मंगलवार (25 अक्टूबर,2016 ) दलील दी कि हिंदू दर्शन कहता है कि हर मानव में भगवान है इसलिए साईंबाबा में भी है। आरएसएस के अखिल भारतीय महासचिव भैयाजी जोशी ने यहां संवाददाताओं से कहा, ‘हमें नहीं लगता कि, क्या साईं बाबा की पूजा की जानी चाहिए ? कोई वाद-विवाद होना चाहिए।’ उन्होंने कहा, ‘यह ऐसा है कि हम मानते हैं कि हर मानव में भगवान है और साईं बाबा में भी भगवान हैं। हर प्राणी में ईश्वर अंश है और हम हमेशा से यह कहते रहे हैं । यह हिंदू दर्शन है। इसलिए प्राणीमात्र में ईश्वर और साईं बाबाजी ईश्वर। जोशी ने कहा, ‘यह उनके (साईं बाबा के) श्रद्धालुओं पर है कि वह आस्था रखें और शिरडी के 19 वीं सदी के संत साईं बाबा की भगवान के तौर पर पूजा करें और साईं बाबा के नाम पर मंदिर बनाएं । और हमें नहीं लगता कि इस पर कोई बहस है।’

क्या संघ के यह नहीं जानते कि साईं बाबा मुसलमान था, मस्जिद में रहता था, मांस मिश्रित बिरयानी का शौक़ीन था? साईं बाबा के नाम पर हिन्दू समाज को चमत्कार रूपी अन्धविश्वास में भ्रमित कर आलसी बनाया जा रहा है। उसे कर्म करने की नहीं चमत्कार रूपी अन्धविश्वास और प्रपंच करना सिखाया जा रहा है। फिर संघ हिंदुओं को आलसी बनने के लिए प्रेरित क्यों कर रहा है?

क्या यह भगवान श्री कृष्ण के गीता में दिए सन्देश की जैसा कर्म करोगे वैसा फल मिलेगा की अवहेलना नहीं है?

वैसे धर्म के मामले में संघ का ऐसा रवैया आज से नहीं पहले से ही ऐसा रहा है।

स्वामी विवेकानंद का महिमामंडन करने वाला संघ का रवैया उनकी मान्यताओं के सम्बन्ध में भी ऐसा ही रहा है। जिन स्वामी विवेकानंद को संघ हिन्दू समाज का शीर्घ और आधुनिक काल का महानतम नेता बता रहा है उनके विचारों को कोई भी सच्चा हिन्दू आंख बंद कर भी ग्रहण नहीं कर सकता। स्वामी विवेकानंद स्वयं मांसभक्षी और धूम्रपान के व्यसनी थे। उनका मानना था कि प्राचीन काल में यज्ञों में पशुबलि दी जाती थी। ऐसे विचारों को प्रोत्साहित करने वाले स्वामी विवेकानंद को संघ द्वारा पोषित करना भ्रम पैदा करने के समान है।

भारत के हिंदुओं द्वारा मुस्लिम कब्रों, मजारों, पीरों पर जाकर सर पटकने पर भी संघ ने आज तक कोई आधिकारिक बयान इस अन्धविश्वास के विरोध में नहीं दिया है। सामान्य हिन्दू जनता को फलित ज्योतिष के नाम पर ठगने और मुर्ख बनाने के धंधे पर भी संघ मौन व्रत धारण कर लेता है। हिन्दू समाज में निर्मल बाबा, राधे माँ, रामपाल कबीरपंथी जैसे पाखंड फैलाने वाले गुरुओं के हिन्दू जनता को मुर्ख बनते हुए संघ कोई प्रतिक्रिया नहीं देता।

यह आज के हिन्दू समाज को समझना होगा की 1200 वर्षों से मुस्लिम आक्रांताओं के समक्ष हिंदुओं की हार का कारण धार्मिक अन्धविश्वास और एकता की कमी ही हैं। विभिन्न मत-मतान्तर एवं उनकी निजी मान्यताओं को धर्म रूपी लबादे में लपेट देने से हिन्दू समाज संगठित नहीं होता अपितु अंदर से खोखला होता जाता है। ईश्वर समस्त सृष्टि में विद्यमान है। यह अटल सत्य है। इसका अर्थ यह नहीं की हम ईश्वर की सृष्टि के समस्त पदार्थ को ईश्वर कहने लगे। ईश्वर, आत्मा और सृष्टि रूपी प्रकृति में भेद ईश्वरीय ज्ञान वेद सिखाता है। जिसका जैसा मन किया उसने वैसे ईश्वर की कल्पना की, जिसका जैसा मन किया उसने वैसे ईश्वर की पूजा करने की विधि की कल्पना की ,जिसका जैसा मन किया उसने वैसे ईश्वर पूजा के फल की कल्पना की और सभी कल्पनाओं को आस्था के कपड़े पहनाकर उसे सनातन धर्म नाम देकर भ्रमित करने के समान है।
जिस दिन वेद रूपी ईश्वरीय ज्ञान का पालन हिन्दू समाज करने लगेगा, उसी दिन से हिन्दू समाज अन्धविश्वास को छोड़कर सत्य मार्ग का पथिक बन जायेगा।


संघ को यह समझना होगा की धर्म के वास्तविक रूप से हिन्दू समाज का परिचय करवाये। इससे हम सभी का भला होगा और हिन्दू समाज संगठित होगा।

Monday, October 24, 2016

संत रविदास और श्री राम



संत रविदास और श्री राम

डॉ विवेक आर्य

 जय भीम, जय मीम का नारा लगाने वाले दलित भाइयों को आज के कुछ राजनेता कठपुतली के समान प्रयोग कर रहे हैं। यह मानसिक गुलामी का लक्षण है। अपनी राजनीतिक हितों को साधने के लिए दलित राजनेता और विचारक श्री राम जी के विषय में असभ्य भाषण तक करने से पीछे नहीं हट रहे है। कोई उन्हें मिथक बताता है, कोई विदेशी आर्य बताता है, कोई शम्बूक शुद्र का हत्यारा बताता है। सत्य यह है कि यह सब भ्रामक एवं असत्य प्रचार है जिसका उद्देश्य अपरिपक्व दलितों को भड़काकर अपना राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करना है। मगर इस कवायद में सत्य इतिहास को भी दलितों ने जुठला दिया है। अगर श्री रामचंद्र जी मिथक अथवा विदेशी अथवा दलितों पर अत्याचार करने वाले होते तो चमार (चर्मकार) जाति में पैदा हुए संत रविदास श्री राम जी के सम्मान में भक्ति न करते।

प्रमाण देखिये

1. हरि हरि हरि हरि हरि हरि हरि
    हरि सिमरत जन गए निस्तरि तरे।१। रहाउ।।
    हरि के नाम कबीर उजागर ।। जनम जनम के काटे कागर ।।१।।
    निमत नामदेउ दूधु पिआइआ।। तउ जग जनम संकट नहीं आइआ ।।२।।
    जन रविदास राम रंगि राता ।। इउ गुर परसादी नरक नहीं जाता ।।३।।

- आसा बाणी स्त्री रविदास जिउ की, पृष्ठ 487

 सन्देश- इस चौपाई में संत रविदास जी कह रहे है कि जो राम के रंग में (भक्ति में) रंग जायेगा वह कभी नरक नहीं जायेगा।

 2. जल की भीति पवन का थंभा रकत बुंद का गारा।
हाड मारा नाड़ी को पिंजरु पंखी बसै बिचारा ।।१।।
प्रानी किआ मेरा किआ तेरा।।  जेसे तरवर पंखि बसेरा ।।१।। रहाउ।।
राखउ कंध उसारहु नीवां ।। साढे तीनि हाथ तेरी सीवां ।।२।।
बंके वाल पाग सिरि डेरी ।।इहु तनु होइगो भसम की ढेरी ।।३।।
ऊचे मंदर सुंदर नारी ।। राम नाम बिनु बाजी हारी ।।४।।
मेरी जाति कमीनी पांति कमीनी ओछा जनमु हमारा ।।
तुम सरनागति राजा राम चंद कहि रविदास चमारा ।।५।।

- सोरठी बाणी रविदास जी की, पृष्ठ 659

सन्देश- रविदास जी कह रहे है कि राम नाम बिना सब व्यर्थ है।


मध्य काल के दलित संत हिन्दू समाज में व्याप्त छुआछूत एवं धर्म के नाम पर अन्धविश्वास का कड़ा विरोध करते थे मगर श्री राम और श्री कृष्ण को पूरा मान देते थे। उनका प्रयोजन समाज सुधार था। आज के कुछ अम्बेडकरवादी दलित साहित्य के नाम पर ऐसा कूड़ा परोस रहे है जिसका उद्देश्य केवल हिन्दू समाज की सभी मान्यताओं जैसे वेद, गौ माता, तीर्थ, श्री राम, श्री कृष्ण आदि को गाली देना भर होता हैं। इस सुनियोजित षड़यंत्र का उद्देश्य समाज सुधार नहीं अपितु परस्पर वैमनस्य फैला कर आपसी मतभेद को बढ़ावा देना है। हम सभी देशवासियों का जिन्होंने भारत की पवित्र मिटटी में जन्म लिया है, यह कर्त्तव्य बनता है कि इस जातिवाद रूपी बीमारी को जड़ से मिटाकर इस हिन्दू समाज की एकता को तोड़ने का सुनियोजित षड़यंत्र विफल कर दे।

यही इस लेख का उद्देश्य है। 

Sunday, October 23, 2016

भेड़ के पीछे भेड़ न बने



भेड़ के पीछे भेड़ न बने

डॉ विवेक आर्य

(पाखंड खंडन)

आधुनिक समाज में मनुष्य जाति में धन-धान्य रुपी प्रगति के साथ साथ मानसिक अशांति,भय,अशक्त भावों का बढ़ना,नैतिक एवं चारित्रिक मूल्यों का हनन भी बड़े पैमाने पर हुआ हैं।  इसका मुख्य कारण मनुष्य का अध्यात्मिक उन्नति में प्रगति न होना एवं भोगवाद में लिप्त होना हैं। आज का मनुष्य किसी भी प्रकार से धनी होना चाहता है।  इसके लिए उसे चाहे कितने भी गलत कार्य करने पड़े, चाहे भ्रष्टाचार में लिप्त होना पड़े, चाहे किसी भी सीमा तक जाना पड़े पर धन कमाना ही जीवन का मूलभूत उद्देश्य बन गया है। इसी अंधी दौड़ का एक दुष्प्रभाव (Side effect) अन्धविश्वास है. जो लोग किसी भी प्रकार से भौतिक उन्नति कर लेते है वे इस भय से अन्धविश्वास में लिप्त भी हो जाते है।  उनका मानना होता है कि अन्धविश्वास का पालन करने से उनकी भौतिक उन्नति बनी रहेगी।  कुछ लोग उनकी भौतिक उन्नति से प्रभावित होकर उनके द्वारा किये गए अन्धविश्वास की नक़ल करते है जिससे उनका भी भला हो जाये। इस अंधी दौड़ का एक उदहारण आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्य मंत्री दिवंगत श्री राजशेखर रेड्डी का है। उनके द्वारा करी गयी राजनैतिक एवं आर्थिक उन्नति का श्रेय उनका धर्म परिवर्तन कर ईसाई बनना बताया गया था। उनके इस धर्म परिवर्तन से रेड्डी समाज में व्यापक स्तर पर धर्म परिवर्तन कर ईसाई बनने की होड़ ही लग गयी थी।  उनकी अकस्मात् मृत्यु से उन सभी अंधभक्तो को बड़ा धक्का लगा, कई सौ के मन में इतनी घोर निराशा उत्पन्न हुई की उन्होंने आत्महत्या तक कर ली। उन्हें लगा की उनके जीवन का उद्देश्य उनकी मृत्यु के साथ ही खत्म हो गया।

आधुनिक मीडिया का सहारा लेकर मार्केटिंग करने वाले निर्मल बाबा का नाम आजकल खासी चर्चा में है।  किसी को समोसे की चटनी खिलाकर , किसी को काले रंग का नया पर्स खरीदवाकर, किसी को गोल-गप्पे खाने का प्रलोभन देकर आप जीवन की कठिनाइयों का समाधान बता रहे है। इस प्रकार के समाधान बताने के लिए निर्मल बाबा अपनी तीसरी आंख (Third eye) का प्रयोग करते है और उसी के प्रभाव से समस्याओं का समाधान करते है।  उनसे सवाल पूछने के लिए दर्शकों को कई हज़ार की महंगी टिकट खरीदनी पड़ती है।  हद तो तब हो गयी जब उन्होंने एक दर्शक से पूछा की शराब पीते हो उसने कहाँ की हाँ, जाओ जाकर काल भैरव को दो बोतल अर्पित कर दो और दो खुद पी लो कल्याण हो जायेगा ,कृपा बरसेगी।  मीडिया का सहारा लेकर अपनी दुकानदारी चमकाने वाले निर्मल बाबा की दुकानदारी को सबसे बड़ी चोट भी खुद मीडिया ने उनके ऊपर खबरे प्रसारित कर लगाई है। कुछ हिन्दुत्व के ठेकेदारों ने निर्मल बाबा पर मीडिया की प्रतिक्रिया को गैर हिन्दू मीडिया द्वारा हिन्दू बाबा को निशाना बनाना बताया है जबकि सत्य यह हैं की निर्मल बाबा हिन्दू समाज में व्यापक रूप में फैले हुए अन्धविश्वास का ही एक पहलु मात्र है। अभी तक जितने भी बाबा अपने आशीर्वाद से ,भभूति से,रुद्राक्ष की माला से, बाबा के नाम स्मरण से, व्रत आदि से, मंत्र तंत्र से, पशु बलि अथवा नरबली से,बाबा के चित्र, माला आदि से चमत्कार का होना बताते थे।  निर्मल बाबा से इस चमत्कारी रुपी बाज़ार में सबसे आसान, सबसे जल्दी पूरा होने वाला, सबसे कम परिश्रम वाला तरीका अपनाकर अपनी दुकान मीडिया के कन्धों पर खड़ी की है।  जिससे उन्हें इतनी अत्यधिक सफलता मिली की धन की वर्षा उनके भक्तों पर हुई हो न हुई हो पर उन पर अवश्य हो गयी है। आगे निर्मल बाबा कृपा बरसने पर दसबंध के आधार पर अपनी कमाई का 10% दान देने को भी कहते है।  निर्मल बाबा सबसे अधिक संदेह के घेरे में इसलिए है क्यूंकि वे खुद एक असफल व्यापारी रह चुके है और अब लोगो का व्यापार सफल बनाने करने का दावा करते है।

आगे ईसाई समाज से सम्बंधित पॉल दिनाकरन का वर्णन करते है। मुझे करीब 13 वर्ष पहले कोयम्बतूर तमिलनाडू में इनकी सभा में भाग लेने का अवसर प्राप्त हुआ था।  जहाँ पर यह प्रचारित किया जा रहा था की पॉल दिनाकरन महोदय सीधे प्रभु यीशु मसीह से बातचीत है और उनके प्रताप से जो भी “जीसस काल्स” के नाम से उनकी प्रार्थना सभा में भाग लेगा।  उसके सभी दुःख दूर हो जायेगे।  सभी के बिगड़े काम बन जायेगे।  रोगी निरोगी बन जायेगे।  बेरोजगारों को नौकरी मिल जाएगी। प्रभु जीसस उन सभी पर कृपा करते है जो उन पर विश्वास लाते है।  पॉल महोदय भी निर्मल बाबा की तरह अपने कार्यक्रमों में निर्धारित फीस लेते है और उस व्यक्ति पर कृपा बरस जाने पर उसे जो फायदा होता है उसका 10% उन्हें दान में देने की अपील करते है।
इन  पॉल महोदय से हमारे कुछ प्रश्न है?

1. आपके अनुसार अगर ईसाइयत में विश्वास लाने वाले की काया पलट हो सकती हैं तो अफ्रीका महाद्वीप में जहाँ पर उत्तर और पश्चिमी अफ्रीका को छोड़कर मध्य, पूर्वी और दक्षिणी अफ्रीका मुख्यत: ईसाई मत को मानने वालो में से विश्व के सबसे निर्धन कुछ देश क्यूँ हैं?

2. ईसाई मत के कई सौ वर्षों के प्रचार के बावजूद उनकी प्रगति का न होना संदेह के घेरे में लाता है। सबसे अधिक संदेह प्रार्थना से चंगाई की ईसाई मान्यता का है।  प्रभु जीसस और प्रार्थना से चंगाई में विश्वास रखने वाली मदर टेरेसा खुद विदेश जाकर तीन बार आँखों एवं दिल की शल्य चिकित्सा करवा चुकी थी।  क्या उनको प्रभु ईशु अथवा अन्य ईसाई संतो की प्रार्थना कर चंगा होने का विश्वास नहीं था? दिवंगत पोप जॉन पॉल स्वयं पार्किन्सन रोग से पीड़ित थे और चलने फिरने में भी असमर्थ थे। क्यों उन पर किसी भी ईसाई संत की प्रार्थना से कृपा नहीं हुई? जब ईसाई मत के दो सबसे बड़े सदस्यों पर जिन्होंने पूरा जीवन ईसाई मत को समर्पित कर दिया की प्रार्थना से चंगाई न हुई, तो आम जनता का क्या भला होगा? इसलिए प्रार्थना से चंगाई अन्धविश्वास के अलावा कुछ भी नहीं है।  यह प्रपंच केवल और केवल धर्म भीरु हिन्दू जनता को मुर्ख बनाकर, अन्धविश्वास में रखकर उनका धर्मांतरण करने का षडयन्त्र मात्र है।

आगे अजमेर स्थित ख्वाजा मुइनुद्दीन चिस्ती उर्फ़ गरीब नवाज़ का वर्णन करते है। तमाम फिल्मी हस्तियाँ और क्रिकेट सितारों ने तो एक फैशन सा ही बना लिया है कि किसी भी फ़िल्म के रिलीज़ होने से पहले अथवा क्रिकेट टूर्नामेंट से पहले वे अजमेर स्थित गरीब नवाज़ की दरगाह पर जाकर मन्नत मांगते है।  उनका मानना है की केवल एक खवाजा ही है जोकि उनके जीवन में आने वाली सभी परेशानियों को दूर कर सकते है। उन्हें सफलता दिला सकते है। फिल्मकार और सितारे को देखकर हिन्दू समाज के सदस्यों में भी एक भेड़ चाल शुरू हो गयी है। वे सोचते है की हम भी चले हमारा भी भला होगा। वे  यह तक नहीं जानते की ख्वाजा भारत के अंतिम हिन्दू राजा पृथ्वीराज चौहान को इस्लामिक सेना से हराने की भविष्यवाणी करने वाला सबसे पहला व्यक्ति था। भारत पर हमला कर लाखों हिन्दुओं को मारने वाले, सैकड़ों हिन्दू मंदिरों को नष्ट करने वाले, लाखों को इस्लाम ग्रहण करवाने वाले मुहम्मद गौरी का अध्यात्मिक गुरु और मार्ग दर्शक भी था। ऐसे व्यक्ति की कब्र पर हिन्दू समाज माथा टेककर अपने परिवार की भलाई मांगता है। अपनी बच्चों की खुशहाली मांगता है।

 अन्धविश्वास की ऐसी पराकाष्ठा आपको शायद ही विश्व में कहीं और देखने और सुनने को मिलेगी।

निर्मल बाबा अथवा पॉल दिनाकरन अथवा अजमेर के ख्वाजा गरीब नवाज़ हो अथवा इनके समान और कोई भी हो जो भी चमत्कार से, किसी भी प्रकार के शोर्ट कट (short cut ) से आपकी समस्या का समाधान करने का दावा करता हो।  तो वह चमत्कारी नहीं अपितु ढोंगी है। कर्म फल के अटूट सिद्धांत से आज तक कोई भी नहीं बच सका है। जो जैसा बोयेगा वैसा ही काटेगा।  अगर किसी भी व्यक्ति को जीवन में अत्यंत छोटे समय में आशा से अधिक सफलता मिलती है तो उसमे उसके पूर्वजन्मों और वर्तमान में किये गए कर्मों का प्रभाव है। अगर किसी को श्रम करने का बावजूद सफलता नहीं मिलती तो भी इसमें पूर्वजन्मों में किये गए कर्मों का ही प्रभाव है।  इसलिए धैर्य रखे और इस अन्धविश्वास की दुकान से बचे।  इस जन्म में उचित कर्म करते रहे उसका फल निश्चित रूप से कल्याणकारी ही होगा।

Saturday, October 22, 2016

खुली चुनौती



खुली चुनौती

डॉ विवेक आर्य

आजकल सभी अखबारों में ,रेलवे स्टेशनों पर रेल गाड़ियों ने बसों में तथा लगभग सभी सार्वजानिक दीवारों पर आपको औलियाओं ,मोलवियों ,बंगाली मियां जादूगर बाबाओ और तांत्रिको के विज्ञापन , स्टिकर व् पोस्टर लगे मिल जाएंगे जिनमे तरह–तरह के झूठे आश्वासनों और घटिया हथकंडो का सहारा लेकर भोले-भाले और मूर्ख ( विशेषकर महिलाओं ) लोगों को उनकी तकलीफों ,समस्याओं, गृहकलेशों, आर्थिक व पारिवारिक समस्याओं ,प्रेम संबंधों आदि से छुटकारा दिलाने का झूठा और बेबुनियाद झांसा देकर फसाया जाता है।  उनका आर्थिक ,मानसिक और शारीरिक शोषण किया जाता है। उनके दुःख-दर्द आदि का नाजायज फ़ायदा उठाया जाता हैं तथा उन्हें मानसिक रूप से विकृत बना दिया जाता है। जबकि इन बदमाश औलियाओं ,मौलवियों ,बंगाली मियां जादूगर बाबाओ और तांत्रिको आदि के पास ऐसी कोई अलौकिक ताक़त या इल्म आदि नहीं होता, जिससे ये किसी का भला कर सकें अपितु ये खुद व्यभिचारी, धूर्त, नशेड़ी, अय्याश, चालबाज़ ,धोकेबाज़ और अपराधिक प्रवृति के होते है।

जैसा कि हम अखबारों में पढ़ते हैं और टीवी पर समाचारों में देखते है कि आये दिन फलां मौलवी या औलिया ने किसी महिला को नशीला पदार्थ खिला कर उसका शील भंग कर दिया और उसकी विडियो फिल्म बना कर उसे ब्लैक मेल करने लगा या किसी व्यक्ति का कोई काम करवाने के एवज़ में लाखो रूपये ठग लिए या किसी बाँझ महिला से किसी निरपराध बच्चे की बलि दिलवा कर उसे अपराधी बना दिया आदि।  इसलिए आज मैं  उन सभी करामाती औलियाओं ,मोलवियों ,बंगाली मियां जादूगर बाबाओ और तांत्रिको को खुली चुनौती देता हूँ कि वे निम्न में से किसी एक चुनौती पर भी खरे उतर कर दिखा दे तो मैं आजीवन उनका चेला बनकर रहूँगा।

निम्न प्रकार के कार्य धोखारहित परिस्थितियों में करके दिखाएँ –

1- जो किसी सीलबंद करेंसी नोट की ठीक नकल पैदा कर दिखा दे।
2- जो किसी सीलबंद करेंसी नोट का नंबर पढ़ कर दिखा दे।
3- जो जलती आग में अपने पीर आदि की सहायता से दस मिनट के लिए नंगे पैर खड़ा हो सकता हो।
4- ऐसी वस्तु जो मैं चाहूं, हवा में से तुरंत प्रस्तुत कर दे।
5- टेलीपैथी द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति के विचार पढ़ कर बता सकता हो।
6- मनोवैज्ञानिक शक्ति से किसी वस्तु को हिला या मोड़ सकता हो।
7- इबादत , रूहानी ताक़त जम-जम पानी से या पाक राख से अपने शरीर को एक इंच बढ़ा सकता हो।
8- जो रूहानी ताक़त से हवा में उड सके। ( पीर बाबा ध्यान दें )
9- रूहानी ताक़त से पांच मिनट के लिए किसी अन्य व्यक्ति को मृत करके दोबारा जीवित कर सके।
10- पानी पर पैदल चलकर दिखा सके।
11- अपना शरीर एक स्थान पर छोड़ कर दूसरी जगह हाजिर हो सके ।
12- रूहानी ताक़त से 30 मिनट के लिए श्वास क्रिया रोक सके।
13- रचनात्मक बुद्धि का विकास करे। इबादत या आसमानी ताक़त से अत्मज्ञान प्राप्त करे।
14- करामाती या रूहानी इल्म से किसी भी विदेशी -प्रादेशिक भाषा में बोल सके।
15- ऐसी रूह ,जिन्न, मुवकिल या खबीस हाजिर करे, जिसकी फोटो खींची जा सकती हो।
16- फोटो खींचने के बाद वह फोटो से अलोप हो सके।
17- ताला लगे कमरे में से रूहानी ताक़त से बाहर निकल सके।
18- किसी चीज का वज़न बढ़ा सके।
19- छिपी हुई वस्तु को खोज सके।
20- पानी को शराब या पेट्रोल में बदल सके।
21- शराब को रक्त में बदल सके।

 ऐसे आलमी ,औलिया ,मौलवी व बंगाली मिया जादूगर जो यह कह कर लोगों को गुमराह करते हैं कि काला जादू वगराह वैज्ञानिक है, तो मेरी चुनौती स्वीकार करें।  जैसी कि मुझे उम्मीद ही नहीं पूरा विश्वास है कि मेरी ये कुछ तुच्छ चुनौतियाँ कोई माई का लाल आलिम ,औलिया ,मौलवी व् बंगाली मिया जादूगर स्वीकार करने का दम नहीं रखता तो मै अपने सभी भाइयों-बहनों से से ये प्रार्थना करता हूँ  की आप इन बदमाशों के चक्कर में पड़कर अपना धन ,समय ,स्वास्थ्य और इज्जत न गवाएं। ये सभी मुर्ख बनाते है। आप अपनी बुद्धि का प्रयोग करते हुए इस छल -कपट से बचे।

आपकी समस्याओं का सबसे बेहतर समाधान केवल इश्वर के पास है जिसे आप अपने विवेक से ही प्राप्त कर सकते है।

भगत छनकू राम-धर्मरक्षा के लिए प्राण न्योछावर करने वाली महान आत्मा



भगत छनकू राम-धर्मरक्षा के लिए प्राण न्योछावर करने वाली महान आत्मा

डॉ विवेक आर्य

यह घटना उनीसवीं सदी के शुरुआत में बहावलपुर (आज के पाकिस्तान में) की मुसलमानी रियासत की है।  छनकू नाम का एक दुकानदार इस रियासत में था जो श्री राम जी का अनन्य भक्त था।  एक बार कुछ जिहादियों ने इसकी दुकान से कुछ सामान माँगा और इसके तौलने पर तौल कम बताकर छनकू को  राम की गाली दी। छनकू रामभक्त से श्री राम का अपमान सहन न हुआ। छनकू ने पैगम्बर ए इस्लाम पर कुछ कह दिया।  जिहादियों ने क़ाज़ी (इस्लामी न्यायाधीश) तक बात पहुंचा दी जिस पर क़ाज़ी का फतवा आया कि या तो इस्लाम क़ुबूल करे या मौत।  छनकू ने गर्व से उत्तर दिया "राम के भक्त रसूल के भक्त नहीं बन सकते!" काज़ी ने हुकुम दिया - इस कम्भख्त काफिर को संगसार कर दो। इसकी इतना हिमाकत जो रसूल की शान में गलत कसीदे बोले। इस्लामिक शरिया के अनुसार छनकू को आधा जमीन में गाढ़ कर पत्थरों से मार दिया जाये।
मज़हबी उन्माद एवं इस्लामिक शासन के दौर में हिंदुओं की कौन सुनता था।  कुछ धर्मभीरु हिंदुओं ने छनकू को इस्लाम स्वीकार कर अपने प्राण बचाने की सलाह दी। मगर छनकू किसी और मिटटी का बना था। वह उन हिंदुओं के समान कायर नहीं था जिन्होंने इस्लाम स्वीकार करने के लिए राम और कृष्ण को छोड़ दिया था। बंदा बैरागी और वीर हकीकत राय के महान बलिदान को स्मरण करते हुए छनकू ने धर्मरक्षा हेतु अपने आपको बलिदान कर दिया।

  आज हम सभी हिंदुओं को महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, बंदा बैरागी, हकीकत राय और भक्त छनकू जैसे महान पूर्वजों पर गर्व होना चाहिए जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में 1200 वर्ष तक अपना बलिदान देकर धर्म की रक्षा की। शीश दिया मगर धर्म नहीं छोड़ा।


प्रसिद्द आर्यकवि पंडित चमूपति जी द्वारा यह कविता 1920 के दशक में भगत छनकू के अमर बलिदान को स्मरण करते हुए रची गई थी

कहूँ क्योंकर था रियासत का हकीकत छनकू
बढ़के थी तेरी हकीकत से शहादत छनकू
सह गया तू जो मिली तुझको अजियत छनकू
लैब पै आया न तिरे हरफे शिकायत छनकू

तोल कम था? कि तुझे झूठे गिले की चिढ थी
गाली के बदले जो दी तूने यकायक गाली

गाली देना तो कभी था न तेरी आदत में
और न कुछ बदला चुका देना ही था तीनत में
जाय शक क्या तेरी पाकीजगीय फितरत में
जलवा गर एक अदा गाली की थी सूरत में

गाली देने का चखाना ही था बदगों को मजा
लुत्फ़ कुछ उसको भी मालूम हो बदगोई का

राम से तेरी मुहब्बत का न था कुछ अंदाज
लो धर्म में तेरी अकीदत का न था कुछ अंदाज
तेरी हिम्मत का शजाअत का न था कुछ अंदाज
सबर का जौके सदाकत का न था कुछ अंदाज

तुझ पै थूका भी घसीटा भी तुझे मारा भी
बल बे मर्दानगी तेरी! तू कहीं हारा भी?

नेकदिल काजी था बोला कोई भंगड़ होगा
कब भले चंगे को यूँ हौंसला बोहराने का
कोठरी पास थी छनकू को यहाँ भिजवाया
और कहा नशा उतरने पे उसे पूछूंगा

देते थे मशवरा सब स्याने मुकर जाने को
पर तुला बैठा था तू धर्म पर मर जाने को

रोंगटा रोंगटा तकला है वहीँ बन जाता
छेदना तेरी जबाँ का है जहाँ याद आता
हाय इस दर्द में भी तो नहीं तू घबराता
इक कदम राहे सच से नहीं बाज आता

गर्म लोहे ने है गरमाया लहू को तेरे
सिदक छिन छिन के टपकता है पड़ा छेदों से

कहते हैं होने को दींदार, पै याँ किस को कबूल
राम के भगत भी होते हैं परस्तारे रसूल?
माल क्या चीज है? डाली है यहाँ जीने पै वसूल
धर्म जिस जीने से खो जाय, वो जीना है फजूल

धर्म की राह में मर जाते हैं मरने वाले
मरके जी उठते हैं जी जाँ से गुजरने वाले

दे दिया काजी ने फतवा इसे मारो पत्थर
गाड़कर आधे को आधे पे गिराओ पत्थर
दायें से बाएं से हर पहलू से फैंको पत्थर
और पत्थर भी वो फैंको इसे कर दो पत्थर

पत्थरों की थी बरसती तिरे सर पर बोछाड
और तू साकत था खड़ा जैसे तलातम में पहाड़

राम का नाम था क्या गूँज रहा मैदां में
नाखुदा भूला न था डूबते को तुगयां में
एक रट थी कि न रूकती थी किसी तूफां में
एक भी छेद न हुआ भगति के दामां में

कब अबस हाथ से बदखाह के छूटा पत्थर
धर्म पर कोड़ा हुआ तन पर जो टूटा पत्थर

एक जाबांज को हालत पै तेरी रहम आया
देखकर तुझको अजिय्यत में घिरा घबराया
और कुछ बन न पडा हाथ म्यां पर लाया
खींच कर म्यां से तलवार उसे चमकाया

आन की आन में सर तेरा जुदा था तन से
पर वही धुन थी रवां उड़ती हुई गर्दन से

जान है ऐ जाँ, तू फिर इस मार्ग पे कुर्बां हो जा
जिंदगी, छनकू की सी मौत का सामां हो जा
राम का धर्म, दयानंद का ईमां हो जा
दर्द बन दर्द, बढे दर्द का दरमाँ हो जा

देख यूँ मरते हैं इस राह में मरने वाले
मरके जी उठते हैं जी जां से गुजरने वाले

हाय छनकू का न मेला ही कहीं होता है
याद में उसकी न जलसा ही कहीं होता है
कोई तकदीर न खुतबा ही कहीं होता है
इस शहादत का न चर्चा ही कहीं होता है

दाग इस दिन के खुले रहते हैं इक सीने पर
याद आते ही बरस पड़ते हैं हर सू पत्थर II

– पंडित चमूपति

हिन्दू समाज के मार्गदर्शक फ़िल्मी सितारें और क्रिकेट खिलाडी नहीं अपितु भगत छनकू जैसे महान बलिदानी होने चाहिए।  

Tuesday, October 18, 2016

गढ़वाल में डोला-पालकी समस्या और आर्यसमाज



गढ़वाल में डोला-पालकी समस्या और आर्यसमाज 


डॉ विवेक आर्य 

गढ़वाल में सवर्णों तथा स्थानीय मुसलमान युवक -युवतियां के विवाह के अवसरों पर डोला-पालकी के उपयोग की परंपरा सदियों से रही है।  बारात में डोला-पालकी उठाने का कार्य मुख्यत शिल्पकार ही करते थे। किन्तु सवर्ण समाज ने उन्हें अपने ही पुत्र पुत्रियों के विवाह के अवसर पर डोला-पालकी के प्रयोग से वंचित कर दिया था।  शिल्पकार वर वधुओं को डोला-पालकी तथा ऐसी सवारियों पर बैठने का सामजिक अधिकार नहीं दिया गया था। नियम के प्रतिकूल आचरण करने वाले शिल्पकारों को दण्डित किया जाता था। 

गढ़वाल में आर्य समाज की स्थापना के प्रारम्भ में गंगादत जोशी (तहसीलदार) जोतसिंह नेगी (सेंताल्मेंट आफसर),नरेंद्र सिंह (चीफ रीडर) आदि प्रबुद्ध लोगों ने आर्य समाज के विचारों को जनता तक पहुँचाने का कार्य किया था।  किन्तु असंगठित और कम व्यापक होने के कारण इनके प्रयत्न सीमित क्षेत्र तक ही प्रभाव स्थापित कर सके। 

यह वर्ग सवर्णों की अपेक्षा आर्थिक दृष्टि  से भी बहुत पिछड़ा हुआ था। 20वीं शताब्दी के नवजागरण के प्रभाओं से उत्पन्न चेतना के फलस्वरूप शिल्पकार नेतृत्व के रूप में जयानंद भारती का आविर्भाव हुआ। सन 1920 के पश्चात जयानंद भारती के नेतृत्व मैं शिल्पकारों की सामजिक,आर्थिक,समस्याओं तथा,उनमें व्याप्त  कुरीतियों के हल के लिए संघठित प्रयास किये गए।  नेता जयानंद भारती ने सवर्ण नरेंद्र सिंह तथा सुरेन्द्र सिंह के साथ मिलकर शिल्पकारों में व्याप्त कुरीतियाँ दूर करने बच्चों को शिक्षा के लिए स्कूल भेजने के लिए प्रेरित किया। 

कुमाऊ में लाला लाजपत राय की उपस्थिति में सन 1913 में आर्य समाज के शुद्धिकरण के समारोह में शिल्पकारों को जनेऊ देने का कार्यकर्म चलाया गया। 
शिल्पकारों को जनेऊ दिए जाने के फलस्वरूप गढ़वाल में भी आर्य समाज द्वारा सन 1920 के पश्चात् जनेऊ देने का कार्यक्रम चलाया गया था। शिल्पकारों के मध्य जन-जागरण कार्यक्रम के अर्न्तगत सवर्णों के एक वर्ग विशेष द्वारा शिल्पकारों के साथ संघर्ष की घटनाएं इस तथ्य की ओर संकेत करती है कि रूढिवादी व्यक्ति समाज मैं परिवर्तन में अवरोधक बन गए थे। 

गढ़वाल में ईसाई मिशनरियों के कारण निर्बल शिल्पकार वर्ग में धर्मांतरण की बढती रूचि बढ़ना एक बड़ी चुनौती थी । फलस्वरूप आर्यसमाज द्वारा ईसाई मिशनरियों के कुचक्र को रोकने के लिए शिल्पकारों के मध्य उनके सामाजिक, आर्थिक पिछडेपन को दूर करने के लिए प्रयत्न किये गए। इन प्रयासों में 1910 में  दुग्गाडा में पहला आर्य समाज का स्कूल स्थापित किया गया था। तत्पश्चात 1913 में स्वामी श्रद्धानंद द्वारा आर्य समाज का स्कूल प्रारंभ किया गया। गढ़वाल में  आर्य समाज से इन प्रारम्भिक प्रयत्नों से एक ओर जहाँ आर्य समाज के कार्य क्षेत्र में अपेक्षाकृत वृद्धि ही वही दूसरी ओर शिल्पकार में शिक्षा के प्रति रुझान भी बढ़ा। इससे शिल्पकारों के ईसाईकरण के प्रयास शिथिल पड़ने लगे। शिल्पकारों में अशिक्षा कितनी थी इसका अनुमान इसी तथ्य से चलता है कि प्रथम विश्व युद्ध से पूर्व तक गढ़वाल में एक भी शिल्पकार इंट्रेस परीक्षा उतीर्ण नहीं था। 

 गढ़वाल मेंआर्य समाज को विस्तार देकर शिल्पवर्ग की सहानुभूति अपने पक्ष में करने के उद्देश्य से आर्य प्रतिनिधि सभा के उपदेशक सन 1920 में गढ़वाल के प्रमुख नगरो कोटद्वार,दुगड्डा,लेंसिदौन,प ोडी,श्रीनगर में भेजे गए। इनमें गुरुकुल कांगडी के प्रचारक नरदेव शास्त्री जी प्रमुख व्यक्ति थे। गढ़वाल में आर्य समाज के आन्दोलन के रूप में गाँवों तक पहुँचने के उद्देश्य से नगर-कस्बों के पश्चात् चेलू सैन,बीरोंखाल,उदयपुर,अवाल्सु ं,खाटली,रिन्ग्वाद्स्युं आदि ग्रामीण क्षेत्रों में आर्य समाज की शाखाएं और विद्यालय आदि स्थापित कर ईसाई मिशनरी की चुनौती को स्वीकार किया गया। 

1920 में आर्य समाज के तत्वावधान में अकाल राहत व शैक्षणिक कर्यकर्मों के प्रारम्भ होने के पश्चात् शिल्पकारों को सवर्णों के समान सामजिक अधिकार दिलाने के उद्देश्य से उनका जनेऊ संस्कार भी आर्यसमाज द्वारा आरंभ किया गया। इस प्रकार सन1924 में जयानंद भारती के नेतृत्व में डोला-पालकी बारातें संगठित की गई। इस प्रयास में कुरिखाल तथा बिंदल गाँव के शिल्पकारों की बारात ने डोला-पालकी के साथ कुरिखाल से बिंदल गाँव के लिए प्रस्थान किया। मार्ग में कहीं भी सवर्णों के गाँव नहीं पड़ते थे। 

कुरिखाल के कोली शिल्पकार भूमि हिस्सेदार होने के कारण अन्य शिल्पकारों की तुलना में संपन्न थे। दूसरी ओर उन्नी व्यवसाय के कुशल शिल्पी के रूप में इनके कुटीर उद्योग भी समृद्ध थे। इस स्थिति का लाभ उठाकर जातिवाद को चुनौती देने के उद्देश्य से आर्य समाजी नेताओं के संरक्षण में डोला-पालकी बारात निकाली गई। किन्तु एक घटना के अनुसार दुगड्डा के निकट चर गाँव के संपन्न मुस्लिम परिवार के हैदर नामक युवक के नेतृत्व में हिन्दू सवर्णों द्वारा जुड़ा स्थान पर शिल्पकारों की बारात रोकी गई।  तत्पश्चात डोला-पालकी तोड़कर बारातियों के साथ मार- पीट की गयी। प्रशासन के हस्तक्षेप  किये जाने के उपरांत भी चार दिन तक बारात मार्ग में ही रुकी रही।  ऐसी अनेक घटनाएं उस काल में हुई। आर्य समाज के प्रभाव में आकर जब जब दलितों ने डोला-पालकी में नवविवाहितों को बैठाने का प्रयास किया तब तब उनके साथ मारपीट और लूटपाट की गयी। ऐसा व्यवहार दलितों की सैकड़ों बारातों के साथ हुआ। भारती जी न केवल संघर्ष के मोर्चे पर खड़े हुए बल्कि अदालतों में भी वाद दायर किये। 

इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दलित शिल्पकारों के हक़ में फैसला दिया गया। लेकिन सवर्णों का अत्याचार रुका नहीं। जयानंद भारतीय ने सत्याग्रह समिति बना कर इन अत्याचारों के विरुद्ध लड़ाई जारी रखी। देश के बड़े नेताओं गोविन्द बल्लभ पन्त, जवाहर लाल नेहरु और महात्मा गांधी को भी उन्होंने इन अत्याचारों से अवगत कराया गया।  गांधी जी को पत्र लिख कर,उन्होंने आग्रह किया कि गढ़वाल में शिल्पकारों की बारातों पर अत्याचार बंद होने तक वे व्यक्तिगत सत्याग्रह पर रोक लगा दे। गांधी जी ने भारतीय जी के पत्र को गंभीरता पूर्वक लिया और गढ़वाल में हरिजनों के उत्पीड़न बंद होने तक व्यक्तिगत सत्याग्रह पर रोक लगा दी।  अखिल राष्ट्रीय स्तर पर डोला-पालकी के लिए यह संघर्ष किया गया।  

अंत में अनेक प्रयासों जनजागरण के पश्चात शिल्पकारों को अपना हक आर्यसमाज ने दिलवाया। डोला-पालकी आंदोलन लगभग 20 वर्ष तक चला। इस आंदोलन के प्राण जयानंद भारती थे। एक निम्न शिल्पकार परिवार में जन्म लेकर जयानंद भारती ने स्वामी दयानंद के समानता के सन्देश को जनमानस तक पहुँचाने के लिए जो संघर्ष किया। यह अपने आप में एक कीर्तिमान है। 


आज हमारे देश की दलित राजनीति में जयानंद भारती और आर्यसमाज के दलितौद्धार के कार्य को पुनः स्मरण तक नहीं किया जाता। केवल डॉ अम्बेडकर और ज्योतिबा पहले के प्रयासों का स्मरण किया जाता हैं। कारण वोट बैंक की राजनीती है। आईये हम उन महापुरुषों के योगदान से समाज को अवगत करवाये। 

Saturday, October 15, 2016

वाल्मीकि समाज हिन्दू समाज का अभिन्न अंग क्यों है?



वाल्मीकि समाज हिन्दू समाज का अभिन्न अंग क्यों है?

-अरुण लवानिया

अंग्रेजों के समय से ही हिंदुत्व की इमारत से एक-एक कर ईंटों को हटाने का षड़यंत्र चला आ रहा है। इसके पीछे ईसाइयों और मुसलमानों का हाथ तो है ही , स्वतंत्रता पश्चात उपजी नयी प्रजातियां जैसे नवबौध्द , बामसेफ और वामपंथी भी इस कार्य में जुटी हैं।जातिविहीन समाज की बात करने वाले ऐसे तत्व जातियों की ही दुहाई देकर हिंदू समाज को तोड़ने में लगे हैं। अंबेडकर तो बिना आरक्षण के विपरीत परिस्थितियों में अपने पुरुषार्थ के बल पर उन्नति किये।लेकिन आज के नवबौध्दों और बामसेफियों को तो सरकार से आरक्षण और अनेक प्रकार की आर्थिक सुविधायें उपलब्ध हैं।फिर भी अंबेडकर के नाम पर दुकानें चलाना पाखंड के सिवाय कुछ नहीं है।ये अंबेडकर का जयकारा केवल आरक्षण के लिये ही लगाते हैं परंतु अंबेडकर के अन्य राष्ट्रवादी विचारों से इन्हें कोई सरोकार नहीं है। बुध्द से तो ये कोसों दूर हैं।आरक्षण समाप्त , अंबेडकर गायब ! इसीलिये, बिना अपवाद के, सभी तथाकथित अंबेडकरवादी अपनी-अपनी जातियों को मजबूती से पकड़कर जातिवाद के विरोध में हो-हल्ला करते हैं।
दोहराने की आवश्यकता नहीं कि आर्य समाज अपने उद्भव से ही छूआछूत , जातिवाद और विधर्मियों के विरुध्द सार्थक परिणामों के साथ संपूर्ण देश में संघर्षरत है।अंबेडकर भी इसीलिये प्रारम्भ से ही इन मुद्दों पर आर्य समाज के साथ मधुर संबंधों सहित आजीवन खड़े दिखाई देते हैं। बस यही बामसेफियों और नवबौध्दों की छटपटाहट का कारण है।इसी छटपटाहट में वो दलित आंदोलन की शुरुआत 1920 के दशक से ही मानकर वाल्मीकियों को को दिग्भ्रमित करते हुये कहते हैं कि 1925 से पहले इतिहास में हमें वाल्मीकि शब्द नहीं मिलता। इनको हिंदू धर्म में बनाये रखने , वाल्मीकि से जोड़ने और वाल्मीकि नाम देने की योजना बीस के दशक में आर्य समाज ने बनाई थी और इस काम को अंजाम दिया था एक आर्य समाजी अमीचंद शर्मा ने। अमीचंद शर्मा से इतना क्रोध मात्र इसलिये कि वो वाल्मीकियों की बस्तियों में उनके उत्थान और शिक्षा के लिये लंबे समय से ईमानदारी से कार्यरत थे। उन्होंने इसी दौरान 'श्री बाल्मीकि प्रकाश' नामक पुस्तक लिखकर वाल्मीकियों को उनके गौरवशाली अतीत और महर्षि वाल्मीकि से उनके अटूट संबंधों को साबित कर फैलाये जा रहे समस्त भ्रम दूर कर दिये। फलस्वरूप अपने उद्देश्य में असफल होने पर इनकी झल्लाहट कुछ यूं निकलती रही है :
" अमीचंद शर्मा का षड़यंत्र सफल हुआ ,सबके सामने है। आदि कवि वाल्मीकि के नाम से सफाई कर्मी समाज वाल्मीकि समुदाय के रूप में पूरी तरह स्थापित हो चुका है। 'वाल्मीकि समाज' के संगठन पंजाब से निकल कर पूरे उत्तर भारत में खड़े हो गए हैं।आज भी जब हम वाल्मीकि समाज के लोगों के बीच जाते है तो सफाईकर्मी वाल्मीकि के खिलाफ सुनना तक पसंद नहीं करते। "
कहावत है चोर चोरी से जाये सीनाजोरी से न जाये।हालांकि वाल्मीकि समाज इनके षड़यंत्र को समझ जागरूक हो गया , चोर सेंधमारी में फिर भी लगे रहे। अमीचंद के साठ साल पश्चात् लगातार हो रही सेंधमारी से तंग आकर फरीदाबाद के प्रबुध्द वाल्मीकियों ने 14 प्रश्न हिंदू धार्मिक विद्वानों को उत्तर देने के लिये भेजे। ये प्रश्न दैनिक प्राण , फरीदाबाद , बुधवार 8 मार्च 1989 के अंक में प्रकाशित हुये।ये प्रश्न थे :
1- हमारा धर्म क्या है ?
2- अगर हम हिंदू हैं तो अस्पृश्यता क्यों है ?
3- कोई भी धर्म हमें बराबर मानने को तैयार नहीं।ऐसा क्यों ?
4- हमें इतना नीचे क्यों जाना पड़ा ?
5- हम कहां के रहने वाले हैं और हमारी जायदाद कहां है ?
6- हमारी संस्कृति क्या है ?
7- हमें ही भूत पूजा क्यों करनी पड़ी ?
8- अब हम सामाजिक , आर्थिक व राजनीतिक समानता किस तरह हासिल कर सकते हैं ?
9- हमारा महर्षि वाल्मीकि जी से क्या रिश्ता है ?
10- अकेले महर्षि वाल्मीकि जी के नाम पर एक कौम का नाम वाल्मीकि क्यों पड़ा ?
11- महर्षि जी ने शिक्षा कहां प्राप्त की जबकि हरिजनों के लिये स्कूल के दरवाजे चार हजार साल बंद रहे ?
12- महर्षि वाल्मीकि जी ने रामायण में अपने लिये दो शब्द क्यों नहीं लिखे जबकि उन्हें समाज द्वारा चोर डाकू कहा गया है ?
13- महर्षि वाल्मीकि जी ने श्रीराम के पुत्रों को शिक्षा दी । क्या एक भी अछूत शिक्षा के काबिल नहीं था ?
14- महर्षि जी जब इतने अज्ञानी थे कि जब उन्हें राम-राम के दो शब्द भी याद नहीं रहे और वह मरा-मरा रटने लगे तो इतनी बड़ी रामायण उन्होंने कैसे लिख दी ?

आज से नब्बे वर्ष पूर्व अमीचंद शर्मा ने अपनी पुस्तक में इनसे मिलते जुलते प्रश्नों के उत्तर संक्षेप दे दिये थे। दोबारा राजेंद्र सिंह ने अत्यंत विस्तार से इन सभी 14 प्रश्नों के उत्तर श्रुति और स्मृतियों से प्रामाणिक संदर्भों के साथ दिये जो इसी पत्रिका के संपादकीय पृष्ठों पर लगातार 9 अप्रिल 1989 तक छपते रहे।
आइये अत्यंत संक्षेप में जाने कैसे राजेंद्र सिंह के प्रश्नवार उत्तरों ने विधर्मियों के झूठ का सदा के लिये पर्दाफाश कर दिया।

प्रश्न 1- हमारा धर्म क्या है ?

उत्तर - अच्छे और बुरे कर्मों को अलग अलग भलीभांति जानकर सदाचार का पालन करना हर मनुष्य का कर्तव्य है। भारत में लंबे समय की मुस्लिम- अंग्रेजी दासता के प्रभाव से शास्त्र से अनभिज्ञ बुध्दिजीवियों ने रिलीज़न और मजहब शब्दों का अनुवाद धर्म कर दिया। धर्म का पर्यायवाची शब्द विश्व की किसी भी प्राचीन या अर्वाचीन भाषा में प्राप्त नहीं है।शास्त्र में सदाचार को धर्म और दुराचार को अधर्म कहा गया है। मनुस्मृति 6/12 के अनुसार धैर्य , क्षमा , मन को वश में रखना , इंद्रियों का निग्रह, बुध्दि का कल्याणकारी सदुपयोग करना , विद्या प्राप्त करना , सत्य का पालन और क्रोध न करना ये धर्म के दस लक्षण हैं। यही मानव धर्म हैं जिसका सर्वप्रथम परिचय विश्व में हमें ही हुआ।इसी तरह धर्म के विपरीत अधर्म होता है।जो भी इन दस आचारों को जान , समझ और मानकर इनके अनुसार जीवन यापन करता है वह हिंदू है।वाल्मीकि समाज भी चूंकि इन दस मर्यादाओं को मन से मानता और कर्म में ढालता है, वह हिंदूधर्मी है।उसके कुछ और होने का प्रश्न ही नहीं है।

प्रश्न 2- अगर हम हिंदू हैं तो अस्पृश्यता क्यों है ?

उत्तर - हिंदूधर्मी होने के कारण नहीं बल्कि अज्ञानतावश ऐसा मान लिया गया है।शास्त्र में स्पृश्य और अस्पृश्य का किसी वर्ग विशेष से कोई संबंध नहीं बताया गया है।परिस्थितिवश कोई भी अस्पृश्य हो सकता है।एक ब्राह्मण भी यदि मैले और दुर्गंधयुक्त वस्त्र पहन समाज में स्वच्छंद घूमता है तो धर्म के पांचवें लक्षण शौचधर्म के उल्लंघन से अस्पृश्य हो जाता है। उल्लंघन करने वाला यदि राजा भी है तो शास्त्र के अनुसार अशौचकाल तक वह अस्पृश्य ही माना जायेगा।अत: अस्पृश्यता को किसी भी एक वर्ग विशेष के मत्थे मढ़ देना अशास्त्रीय और दुर्भाग्यपूर्ण है।

प्रश्न 3- कोई भी धर्म हमें बराबर मानने को तैयार नहीं।ऐसा क्यों ?

उत्तर - धर्म की सही परिभाषा और इसका मजहब के अर्थ से अंतर प्रथम प्रश्न के उत्तर में में देखें ।वाल्मीकि समाज को यदि कोई मजहब अपने समान नहीं मानता तो यह उस मजहब विशेष की विचारधारा-विशेष का विषय है , धर्म का विषय नहीं।इसलिये किसी मजहब विशेष की एकपक्षीय विचारधारा को छोड़कर वाल्मीकि समाज को यह देखना चाहिये कि वह धर्म के कितना अनुकूल है।दो विभिन्न मजहब तो किसी न किसी अंश में विरोधी होते ही हैं।उनमें जो सदाचार की सांझी बातें थोड़ी-बहुत कहीं-कहीं देखने को मिलती है, वो धर्म के कारण है। अत: महत्व किसी मजहब की समानता-असमानता का नहीं अपितु महत्व धर्म के अनुकूल होने में है। हिंदू समाज ने इस तथ्य को भलीभांति समझा है।इसी कारण वह इतना सहिष्णु बन पाया है। धर्म के इस महत्व को विदेशी मजहब ना समझ पाने के कारण असहिष्णु हो गये।

प्रश्न 4- हमें इतना नीचे क्यों जाना पड़ा ?

उत्तर - जब कोई मानव या मानव समाज स्वाध्याय और अभ्यास को आलस और अज्ञानता के कारण त्याग देता है तो एक दिन उसका पतन हो जाता है।ऐसी ही असावधानी के काल में विदेशी ताकतों का आक्रमण हुआ।प्रथम मुसलमान आक्रांता और फिर अंग्रेजों के दुष्प्रभाव से मनीषी वर्ग प्रताड़ित और पथभ्रष्ट दोनों एक साथ बड़ी संख्या में व्यापक स्तर पर हुये।परिणामस्वरूप शास्त्रज्ञ ब्राह्मणों के स्थान पर शास्त्र से अनभिज्ञ ब्राह्मणों का प्रभाव बढ़ गया।ऐसा होने पर राष्ट्र का क्षत्रिय वर्ग असावधान और उदंड रहने लगा। दुष्परिणाम यह हुआ कि शास्त्र के कल्याणकारी मार्ग पर चलने वाली वर्णव्यवस्था अपने गुण कर्म के शास्त्र सम्मत आधार को त्याग कर मात्र जन्म के आधार पर स्वीकार कर ली गयी।

मानवधर्मशास्त्र मनुस्मृति में स्पष्ट कहा गया है : ब्राह्मण की श्रेष्ठता ज्ञान से होती है (2/155) , सिर के सफेद बालों से कोई बड़ा नहीं होता (2/156) और अनपढ़ विप्र नाममात्र का ब्राह्मण होता है (2/157) इत्यादि।जन्मना अनपढ़ ब्राह्मणों के अभिमान और शूद्रवर्ण की हीनभावना के मिलेजुले विचारों के कारण वाल्मीकि समाज का पतन हुआ है। शास्त्र में अनपढ़ व्यक्ति को शूद्र कहा गया है , दुराचारी को नहीं दुराचारी अधर्मी होता है , उसका कोई वर्ण नहीं होता।इसलिये वह म्लेच्छ कहलाता है।इसलिये मिथ्या थोपी हुई हीन भावना का त्याग करें। ब्राह्मणादि वर्ण किसी वर्ग या समुदाय विशेष की बपौती नहीं है।कोई भी व्यक्ति पढ़ लिखकर अच्छे आचार को धारण कर इन पदों को प्राप्त कर सकता है।आवश्यकता अपने अंदर ऐसे गुणों को उत्पन्न करने की है।इसी संदर्भ में शुक्राचार्य का भी स्पष्ट कथन है कि इस संसार में जन्म से कोई भी ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य , शूद्र या म्लेच्छ नहीं होता है।वस्तुत: इन सबके भेद का कारण गुण-कर्म ही हैं (शुक्रनीतिसार 1/38)। महर्षि वाल्मीकि का जीवन , आचार और लेखनी भी यही कहती है। अत: महर्षि वाल्मीकि के आप सब अनुयायी भी किसी आचारवान ,सुयोग्य शास्त्रज्ञ से ज्ञान प्राप्त करें तो कोई कारण नहीं कि आपकी उन्नति न हो सके।

प्रश्न 5- हम कहां के रहने वाले हैं और हमारी जायदाद कहां है ?

उत्तर - वाल्मीकि समाज भारत का ही वासी है और पूरा भारत उसका अपना है।यह उसका और हम सबका बड़ा सौभाग्य है कि हम सबको इस श्रेष्ठ कर्मभूमि भारतवर्ष में जन्म प्राप्त हुआ है।अत: वाल्मीकि समाज भी अपने आपको बड़ा सौभाग्यशाली समझे कि सारा भारत उसका अपना है तथा उसे इसको अपना समझकर ही श्रेष्ठ कर्मभूमि से लाभान्वित होना चाहिये।इसके लिये बड़े विवेक की आवश्यकता है।

प्रश्न 6- हमारी संस्कृति क्या है ?

उत्तर - अपनी ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से मनुष्य जो अनुभव प्राप्त करता है उस अनुभव से बने संस्कारों से जो उसका स्वभाव परिपक्व होता है उसे संस्कृति कहते हैं।ये संस्कार धर्म के अनुकूल भी हो सकते हैं और प्रतिकूल भी। यह संस्कृति मानव की व्यक्तिगत पूंजी अर्थात् संपदा होती है।धर्म के अनुकूल संस्कृति दैवी संपदा और अधर्म के अनुकूल संस्कृति आसुरी संपदा कहलाती है।वाल्मीकि समाज चूंकि धर्म की शास्त्रसम्मत परिभाषा से सहमत है , इसलिये मानसिक रूप से वो हिंदू संस्कृति का पक्षधर है।हिंदू संस्कृति दैवी संपदा की समर्थक है।वाल्मीकि समाज स्वयं दैवी संपदा के कितना अनुकूल है , यह वह स्वयं आत्मविश्लेषण कर जान सकता है।

प्रश्न 7- हमें ही भूत पूजा क्यों करनी पड़ी ?

उत्तर - भूत-पूजा शब्द दो अर्थों में आता है।एक है पंचमहाभूतों से बने भौतिक जगत की पूजा।दूसरा अर्थ है भूत-प्रेतों की पूजा।आपका प्रश्न किस अर्थ में है स्पष्ट करना चाहिये था।यहां दोनों ही अर्थ के अनुसार उत्तर दिये जाते हैं।

भौतिक जगत मोक्ष प्राप्ति का एक साधन मात्र है साध्य नहीं।जब मनुष्य इसे साध्य समझ लेता है तो वह अज्ञानमय स्वप्नलोक में विचरने लगता है।आकाश में किन्हीं स्वर्ग-नर्क इत्यादि लोकों के होने की मिथ्या कल्पना करके भूत-प्रेतों और भटकती आत्माओं के अशास्त्रीय और कल्पनापूर्ण कुविचारों से भयभीत होकर यह जन्म और अगला जन्म दोनों बिगाड़ लेता है। पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाले सभी पदार्थ पंचमहाभूतों के संयोग से बने हैं।सुयोग्य गुरु के मार्गदर्शन में इन पदार्थों का समुचित मात्रा में निष्काम भाव से प्रयोग मानव को मोक्ष दिलाने में सहायक सिध्द होता है। विद्या और कलाओं के ज्ञाता होने के कारण महर्षि वाल्मीकि सुयोग्य गुरू थे।जो गुण कर्म से शुद्र अर्थात अनपढ़ थे उन्हें महर्षि ने विभिन्न कलाओं जैसे शिल्पकर्म में पारंगत होने की शिक्षा दी , हस्तकौशल से मानव के कल्याण के लिये जीवनोपयोगी वस्तुओं को बनाना सिखाया।ऐसा करने के कारण वह पंचमहाभूतों का उचित दिशा में सदुपयोग करने के कारण भूतपूजक माना जाता है।इस दृष्टि से वाल्मीकि समाज विद्या में पारंगत अथवा प्रशिक्षित न होने पर भी अपने हस्तकौशल द्वारा भौतिक वस्तुओं का सुयोग्य निर्माता होने से सही अर्थों में भूतपूजक था।इसी कारण उसे शास्त्र सम्मत भूत पूजा करनी पड़ी।कोई भी वाल्मीकि गुण कर्म से विद्या पूजन भी कर दूसरे वर्ण में प्रवेश कर सकता है। यही शास्त्रों का कथन है।

प्रश्न 8- अब हम सामाजिक , आर्थिक व राजनीतिक समानता किस तरह हासिल
कर सकते हैं ?

उत्तर - धर्म के सत्त्वगुणी मार्ग पर चलते हुये विद्या ग्रहण कर समानता प्राप्त हो सकती है।इसके लिये हीन भावना त्यागनी होगी कि हम असहाय और असमर्थ हैं।कोई भी मनुष्य जन्म से नहीं अपितु सद्गुण और सत्कर्म से श्रेष्ठ बनता है।जन्म से सभी शूद्र अर्थात् अनपढ़ होते हैं।पुरुषार्थ में अशक्त मनुष्य ही नपुंसको की भांति भाग्य भरोसे बैठे रहते हैं।पुरुषार्थ करते रहने से मनुष्य एक दिन मोक्ष भी पा लेता है , फिर पढ़ा-लिखा द्विज बनना कौन सी बड़ी बात है।

प्रश्न 9- हमारा महर्षि वाल्मीकि जी से क्या रिश्ता है ?

उत्तर - महर्षि वाल्मीकि विद्या और कला दोनों के सुयोग्य अधिकारी विद्वान थे।अमर ऐतिहासिक महाकाव्य वाल्मीकीय रामायण के अतिरिक्त भी उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की थी।वो विमान निर्माण कला के एक प्रमुख आचार्य थे। उन्हीं के शिष्य भरद्वाज ने यंत्रकला पर ' यंत्रसर्वस्व ' नामक एक ग्रंथ रचा था। इस ग्रंथ में 40 प्रकरण थे।इनमें से एक का नाम वैमानिक प्रकरण है।वैमानिक प्रकरण मूलत: 8 अध्याय , 100 अधिकरण और 500 सूत्रों में रचा गया है। इससमय यह ग्रंथ बृहद् विमानशास्त्र के नाम से अधूरा उपलब्ध होता है। विमान निर्माण कला संबंधी इस वैज्ञानिक तकनीकि ग्रंथ पर यति बोधानंद ने वृत्ति टीका लिखी है।वृत्तिकार बोधानंद ने अपनी इस महत्वपूर्ण टीका में वाल्मीकि द्वारा रचित वाल्मीकीय गणितम् नामक ग्रंथ के अनेक अंशों को कई स्थलों पर उद्धृत किया है।वाल्मीकीय गणितम् से ज्ञात होता है कि वाल्मीकि मुनि को आकाश परिमंडल के रेखामार्ग , मंडल ,कक्ष्य , शक्तिपथ और केंद्रमंडल आदि की निश्चित संख्या का ज्ञान था जिनका उन्होंने इस गणितशास्त्र में सविस्तार उल्लेख किया है ( बृहद् विमानशास्त्र , सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा , नई दिल्ली , माघ 2015 विक्रमी , पृष्ठ 19-20)।वस्तुत: महर्षि वल्मीकि 32 विद्याओं और विविध कलाओं के असाधारण ज्ञाता थे। जो व्यक्ति अपने गुण कर्म के अनुरूप शास्त्र में वर्णित ब्राह्मकर्म , क्षत्रिय कर्म अथवा वैश्य कर्म को कुशलता पूर्वक धारण करने में समर्थ नहीं , उसकी जीविका का निर्वहन कैसे हो ? इस प्रश्न के उत्तर में शास्त्र का कथन है कि ऐसा व्यक्ति यदि किसी के अधीन रहना नहीं चाहता तो वह अपने जीवन यापन के लिये कला पक्ष का विकास करे।इसप्रकार वह आत्मनिर्भर हो सकता है।

महर्षि के गुरुकुल में जो विद्यार्थी विद्या और इससे जुड़े सूक्ष्म विषयों ठीक से समझने की योग्यता नहीं रखते थे उनको ऐसी कलाओं में प्रवीण बनाया जाता था। एक अनपढ़ अर्थात शूद्र भी राष्ट्रीय कार्य में समान रूप से सहायक हो इसलिये उसे इन कलाओं में पारंगत बनाया जाता था।यह इसलिये भी आवश्यक था क्योंकि विद्याविहीन स्वयं को हीन भावना से ग्रसित कर जुआ , मद्यपान और चोरी जैसे दुष्कर्म से बचा रहे। ऐसा नहीं कि कोई जन्म से शुद्र अर्थात अनपढ़ होकर विद्या योग्य नहीं था। जो योग्यता रखते थे वो शास्त्रों के ज्ञाता होकर गुण कर्म से ब्राह्मण हो जाते थे।ऐसे लोगों के प्रेरणा के स्त्रोत होने के कारण महर्षि वाल्मीकि शूद्रों के गुरु कहलाये।इसलिये वाल्मीकि समाज का महर्षि वाल्मीकि से वही संबंध है जो एक प्रज्ञावान सुयोग्य गुरु और एक श्रद्धावान् शिष्य में होता है।

प्रश्न 10- अकेले महर्षि वाल्मीकि जी के नाम पर एक कौम का नाम वाल्मीकि क्यों पड़ा ?

उत्तर - वाल्मीकि नाम किसी कौम का नाम नहीं है।वाल्मीकि समाज ने महर्षि वाल्मीकि के नाम से 'वाल्मीकि कौम' की कल्पना कर स्वयं को संदेहास्पद बना दिया है। वाल्मीकि कौम की कल्पना का अभिप्राय तो यह हुआ कि जो अशास्त्रीय वर्णव्यवस्था मात्र जन्म पर आधारित मानने की महती भूल से भारत के चतुर्दिक् पतन का कारण बनी , उसी जन्म पर आधारित कथित वर्णव्यवस्था को प्रकारांतर से स्वीकार कर लेना।शास्त्र के अनुसार वर्ण गुणकर्म के आधार पर माना गया है।कौम की कल्पना जन्ममात्र पर आधारित होती है।जब आप स्वयं ही कौम शब्द का प्रयोग करके अपने आप को जन्म पर आधारित करने लगे हैं तब आप सामाजिक , धार्मिक , आर्थिक और राजनैतिक समानता कैसे प्राप्त करेंगे? फिर तो वही बात हो गई कि किसी वेदों के विद्वान ब्राह्मण के घर में जन्म लेने मात्र से उनके अनपढ़ बेटे को केवल इसलिये वेदों का विद्वान मान लिया जाये क्योंकि उसके पिता वैदिक विद्वान हैं।

कौम शब्द में निहित संकीर्णता को महर्षि वाल्मीकि के उदार विचारों के समतुल्य बैठाना उचित नहीं है। इस शब्द में निहित आसुरी विचार महर्षि के धर्मसम्मत शास्त्रीय विचारों से मेल नहीं खाते।इसलिये यदि वाल्मीकि समाज स्वयं को महर्षि का सच्चा और श्रद्धावान अनुयायी मानता है तो उसे अपने आप को कौम मान लेने का राष्ट्रघाती विचार त्यागना होगा।वैदिक वर्णव्यवस्था के अनुसार उसे ज्ञान द्वारा ब्राह्मण बनने का पूरा अधिकार है। यही महर्षि का उपदेश है।

प्रश्न 11- महर्षि जी ने शिक्षा कहां प्राप्त की जबकि हरिजनों के लिये स्कूल के दरवाजे चार हजार साल बंद रहे ?

उत्तर - आपका प्रश्न भ्रांतिकारक है। इसमें सबसे बड़ी भ्रांति है महर्षि वाल्मीकि को हरिजन समझ लेना और वह भी चार हजार वर्ष पूर्व का।प्राचीन भारत में शिक्षा गुरुकुलों में दी जाती थी। उस समय हरिजन शब्द का प्रयोग कहीं नहीं होता था।इस शब्द का प्रयोग गांधी ने किया।प्राचीन काल की गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था के अनुसार प्रत्येक भारतीय के लिये पढ़ना अनिवार्य था।यदि पाठशालाओं में जाकर कोई सीख न सके, वह दूसरी बात थी। वस्तुत: किसी के लिये भी पाठशाला के द्वार बंद नहीं थे।

प्रश्न 12- महर्षि वाल्मीकि जी ने रामायण में अपने लिये दो शब्द क्यों नहीं लिखे
जबकि उन्हें समाज द्वारा चोर डाकू कहा गया है ?

उत्तर - महर्षि वाल्मीकि ने वाल्मीकीय रामायण में अपने कुल का परिचय दिया है।आश्चर्य है कि उनके अनुयायी होते हुये भी आपने रामायण के उस विशेष स्थल का अध्ययन नहीं किया।उनका कुल और उनके कुल से शिक्षा प्राप्त विद्वान मनीषी वंदनीय हैं। वाल्मीकि मुनि को भ्रमवश चोर-डाकू कहा जाता है।

प्रश्न 13- महर्षि वाल्मीकि जी ने श्रीराम के पुत्रों को शिक्षा दी । क्या एक भी अछूत शिक्षा के काबिल नहीं था ?

उत्तर : निवेदन है कि महर्षि वाल्मीकि त्रेता युग में हुये थे।उस प्राचीन काल में अछूतपन की कल्पना भी नहीं थी।छूआछूत संबंधी कल्पना मुस्लिम-अंग्रेजी गुलामी काल की देन है। अत: इस निराधार कल्पना को त्रेता युग में देखना अदापि उचित नहीं है। विशेषकर अंग्रेजों और उनके मानसपुत्रों ने अछूत प्रसंग को अतिरंजित रूप से उभारा था। इन मानसपुत्रों ने इसे सांप्रदायिक वैमनस्य की राष्ट्रघाती सीमा तक उभार दिया।वामपंथी लेखक भी दशकों से इस घातक प्रसंग को उछाले जा रहे हैं।

प्रश्न 14- महर्षि जी जब इतने अज्ञानी थे कि जब उन्हें राम-राम के दो शब्द भी याद नहीं रहे और वह मरा-मरा रटने लगे तो इतनी बड़ी रामायण उन्होंने कैसे लिख दी ?

उत्तर - महर्षि वाल्मीकि अज्ञानी नहीं थे।अज्ञानी व्यक्ति किसी साधारण से काव्य की भी रचना नहीं कर सकता , रामायण जैसी अति श्रेष्ठ कृति की रचना करना तो बहुत दूर है।रामायण काव्य मात्र नहीं अपितु यह एक काव्यात्मक ऐतिहासिक ग्रंथ है जो अधर्म और अन्याय पर धर्म और न्याय की महत्वपूर्ण विजय का प्रतीक है।भारतवर्ष के प्राचीन मनीषियों के मत में किसी पूर्वघटित घटना विशेष को लेखनीबध्द कर देना मात्र इतिहास नहीं है।किसी लेखनीबध्द घटना में जबतक पुरुषार्थ चातुष्टय संबंधी दिशा निर्देश न हो तबतक वह इतिहास नहीं कहला सकती।अत: इतिहास की एक विशिष्ट परिभाषा है।

इतिहास पूर्ववर्ती सत्य घटनाओं की स्मृति पर आधारित होता है।दीर्घदर्शी वाल्मीकि की स्मृति जन्म-जन्मांतर तक का ज्ञान रखती थी।राम-राम के स्थान पर मरा-मरा रूप उल्टे मंत्र को जपना किसी अज्ञानी का नहीं अपितु महाज्ञानी का काम है। वाल्मीकीय रामायण का प्रारम्भ तप:स्वाध्यायनिरतं तपस्वी वाग्विदां वरम् शब्दों से होता है। जिस ग्रंथ का प्रारंम्भ ही तप और स्वाध्याय ( कर्म और विद्या ) से होता हो उसका रचयिता कदापि अज्ञानी नहीं हो सकता।

प्रश्नों के उत्तर पाने के पश्चात् फरीदाबाद का प्रबुध्द वाल्मीकि समाज संतुष्ट और प्रसन्न हो गया। उनके समस्त भ्रम दूर हो गये।तुरंत ही समाचार पत्र के 26 जुलाई 1989 के अंक में नीलम-बाटा मार्ग पर स्थित अंबेडकर नगर के वाल्मीकि मंदिर में महर्षि की प्रतिमा स्थापित होने का समाचार वाल्मीकि समुदाय के नाम से प्रकाशित हुआ।इस समारोह में वाल्मीकि समुदाय के प्रतिनिधि रमेश पारछा ने धन्यवाद देते हुये कहा:

" पत्र में प्रकाशित उत्तर से हमें पता चला कि हम अछूत नहीं बल्कि हिंदू समाज के अभिन्न अंग हैं।"

और इस प्रकार हिंदुओं को विभाजित करने वालों को मुंह की खानी पड़ी।

विदेशी ताकतों के हाथ की कठपुतली बने अम्बेडकरवादी राष्ट्रवादी और हिंदुत्ववादी वाल्मीकियों को भ्रमित करने का प्रयास कर रहे है। इस लेख को पढ़कर कोई भी छदम अम्बेडकरवादियों के मुँह बंद कर सकता है।