क्या ऋग्वेद का दशम मंडल पीछे से मिलाया गया है?
पश्चिमी लेखकों का यह मत हैं कि ऋग्वेद का दशम
मंडल अर्वाचीन है एवं उसे बाद में मिलाया गया है। उनकी इस मान्यता का आधार दसवें मंडल
में भाषा की भिन्नता है।
शंका 1- पश्चिमी लेखकों की मान्यता की ऋग्वेद का दसवां मंडल बाद में मिलाया
गया है का आधार क्या हैं?
समाधान- पश्चिमी लेखक
मक्डोनेल[i]
द्वारा अपनी पुस्तक में अपनी इस मान्यता के समर्थन में कुछ युक्तियाँ दी गई हैं।
जैसे
१. ऋग्वेद के दशम मंडल की भाषा भिन्न है।
२. मन्यु और श्रद्धा जैसे अमूर्त विचारों की
अधिकता हैं।
३. विश्वेदेवा की प्रधानता हो गई है।
४. उषा देवी का मान कम होता दीखता है।
५. 20-26 सूक्तों का
कर्ता अग्निमीले से आरम्भ करता हैं, अत पहिले 9 मंडल पुस्तक
रूप में भी आ चुके थे।
६.
क्यूंकि यह सोम अध्याय के पश्चात रखी गई हैं।
७. क्यूंकि इसके सूक्तों की संख्या प्रथम मंडल
के बराबर हैं।
८. यहाँ तक की दशम मंडल के सूक्त अन्य मंडलों
में की गई मिलावट से अधिक प्राचीन प्रतीत होते हैं।
पश्चिमी के साथ साथ अनेक भारतीय विद्वान भी इस
विचार को सही मानते हैं। जैसे
ऋग्वेद का दशम मंडल स्पष्टया पीछे की मिलावट है
जिसमें अथर्ववेद जैसी जादू-टोने की बातें पाई जाती हैं[ii]।
ऋग्वेद का दशम मंडल अर्वाचीन माना जाता हैं[iv]।
ऋग्वेद मंडल १०, सूक्त ९० मंत्र
११,१२ का पुरुष सूक्त अपनी भाषा और भावना से अर्वाचीन प्रतीत होता है[v]।
दशम मंडल में लोक, मोघ, विसर्ग,
गुप्
इत्यादि अनेक शब्द आते हैं जो सिवाय प्रक्षिप्त भागों और बालखिल्य सूक्तों के
ऋग्वेद के अन्य भागों में नहीं पाये जाते हैं[vi]।
शंका 2- इस मान्यता को आप सही मानते है अथवा गलत मानते है?
समाधान- पश्चिमी लेखकों की मान्यता का विश्लेषण करते समय हमने यह पाया कि वास्तव में इस
मान्यता का समाधान शुष्क एवं दुरूह हैं क्यूंकि यह भाषाविदों का विषय हैं। अधिक
जानकारी के लिए शोध में रूचि रखने वाले विद्वान पंडित भगवत दत्त रिसर्च स्कॉलर[vii], पंडित शिवपूजन सिंह कुशवाहा[viii], पंडित धर्मदेव विद्यामार्तण्ड[ix]
द्वारा कृत लेख एवं पुस्तकें देख सकते हैं।
इस लेख में हम केवल लोक, मोघ, विसर्ग आदि शब्दों का विश्लेषण करेंगे।
'लोक' शब्द पर विचार
लोक: शब्द ऋग्वेद के दशम मंडल के अतिरिक्त
ऋग्वेद 1/93/6,
2/30/6,3/2/9,4/17/17,6/23/7,6/47/8,6/73/2,7/20/2, 7/33/5, 7/60/9,
7/84/2,7/99/4, 8/100/12, 9/92/6 आदि मन्त्रों में आया हैं फिर
यह अयथार्थ एवं तथ्य विरुद्ध बात कैसे लिख दी।
'मोघ' शब्द पर विचार
मोघं का प्रयोग ऋग्वेद के दशम मंडल के अतिरिक्त
ऋग्वेद के सप्तम मंडल में दो मन्त्रों 7/104/14, 7/104/15 में
मिलता हैं फिर यह अयथार्थ एवं तथ्य विरुद्ध बात कैसे लिख दी।
'विसर्ग' शब्द पर विचार
विसर्ग का प्रयोग ऋग्वेद के दशम मंडल के
अतिरिक्त ऋग्वेद के सप्तम मंडल में 103 सूक्त में मिलता है फिर यह
अयथार्थ एवं तथ्य विरुद्ध बात कैसे लिख दी।
पंडित सत्यव्रत जी सामश्रमी ने त्रयीपरिचय
ग्रन्थ में भाषा भेद की मान्यता का स्पष्ट रूप से निष्काशित करते हुए लिखते है कि
हमारे सुनने में तो दशममण्डल और दूसरे मंडलों की भाषा एक ही तरह की है और हमारी
बुद्धि में उनका तात्पर्य भी एक ही जैसा (अन्य मंडलों के सदृश) है। हम नहीं जानते
कि किनकी बुद्धि मलिन है और कौन हठी हैं[x]?
इस प्रकार से अनेक तर्कों और प्रमाणों द्वारा
ऋग्वेद को अर्वाचीन बताने का जो प्रयास किया जा रहा है वह असत्य सिद्ध लिया जा
सकता है।
शंका 3- पश्चिमी लेखक
वेदों में बाद में मिलावट की कल्पना से क्या सिद्ध करना चाहते हैं?
समाधान- पश्चिमी लेखकों की वेदों पर मान्यता का
आधार ईसाई मत की मान्यताओं के पूर्वाग्रह से प्रभावित रहा हैं। इन्हीं मान्यताओं
के चलते वेदों में बहुदेवतावाद्, वेदों में इतिहास, वेदों
में जादू टोना, विकासवाद आदि को बलात सिद्ध करने का प्रयास
किया गया। वेदों को जंगली लोगों की निकृष्ठ मान्यता एवं बाइबिल को सभ्य लोगो की
उच्च मान्यता इसी प्रदूषित सोच का परिणाम था। जब उन्होंने ऋग्वेद के दसवें मंडल
में हिरण्यगर्भ सूक्त में प्रतिपादित एकेश्वरवाद, नासदीय सूक्त
आदि में ईश्वर द्वारा सृष्टि उत्पत्ति एवं पालन, श्रद्धा सूक्त,
मन्यु
सुक्तादि में आध्यात्मिक, दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक विषयों को
देखा तो उन्होंने बच निकलने रास्ता सोचा
और इस मंडल को पीछे का बनाया हुआ प्रचारित कर दिया। भाषा-भेद तो एक बहाना भर था।
उदहारण के लिए हम मैक्समूलर की मान्यता का विश्लेषण करते है।
हिरण्यगर्भ सूक्त को मैक्समूलर महोदय ने यूरोपियन
व्याख्याकारों द्वारा नवीन होना बताया है[xi]।
इस सूक्त के अंतिम मंत्र ''प्रजापते न तवदेतान्यन्यो विश्वा
जातानि परि ता बभूव' पर मैक्समूलर महोदय लिखते है कि मेरे विचार में
यह अंतिम मंत्र तो अत्यंत संदिग्ध है[xii]।
सत्य यह है कि ऋग्वेद के इस सूक्त में एकेश्वरवाद
अर्थात 'ईश्वर एक है' के मन्त्रों को देखकर मैक्समूलर ईसाईमत
जन्य पक्षपात के शिकार हुए। पर वेदों के अनेक मंडलों में 'ईश्वर के एक'
होने
के पर्याप्त प्रमाण वर्णित हैं[xiii]।
शंका 4-क्या वेदों में मिलावट की जा सकती है?
समाधान- वेद नित्य ईश्वर का नित्य ज्ञान है। इसलिए
जिस रूप में वेद इस कल्प में आज उपलब्ध होते हैं, उसी रूप में में
वे पिछले कल्पों में भी अनादिकाल से ईश्वर द्वारा प्रकट किये जाते रहे हैं तथा
भविष्य में आने वाले अनंत कालों में भी वे इसी रूप में प्रकट किये जाते
रहेंगे। स्वामी दयानंद इस विषय को स्पष्ट
रूप से लिखते है कि "जैसे इस कल्प की सृष्टि में शब्द, अक्षर और
सम्बन्ध वेदों में हैं, इसी प्रकार से पूर्व कल्प में थे और आगे भी
होंगे। क्यूंकि जो ईश्वर की वोद्या है सो नित्य एक ही रस बनी रहती है। उनके एक
अक्षर का भी विपरीत भाव कभी नहीं होता। सो ऋग्वेद से लेके चारों वेदों की संहिता
अब जिस प्रकार की है, इनमें शब्द, अर्थ, सम्बन्ध,
पद
और अक्षरों का जिस क्रम से वर्तमान है, इसी प्रकार का क्रम सब दिन बना रहता
है। क्यूंकि ईश्वर का ज्ञान नित्य है। उसकी वृद्धि, क्षय और
विपरीतता कभी नहीं होती[xiv]।"
इस तथ्य को पाणिनि ने अष्टाध्यायी में भी नित्य
माना हैं 'वेद में स्वर
तथा वर्णानुपूर्वी भी नित्य होती है[xv]। निरुक्त में यास्क भी वेदमंत्रों की शब्द रचना
और उनकी आनुपूर्वी को नियत मानते हैं[xvi]।
वेदों की नित्यता के पश्चात वेदों की शुद्धता
की रक्षा का प्रबंध भी इतना वैज्ञानिक है कि उसमें प्रक्षेप करना असंभव हैं। क्रम
के अतिरिक्त जटा, माला, शिक्षा, लेखा, ध्वजा,
दण्ड,
रथ,
घन
इन आठ प्रकारों से वेद मन्त्रों के उच्चारण का विधान किया गया हैं। इस पाठ्क्रम का
विधान ऐतरेय अरण्यक, प्रतिशाख्यादि में भी उसका उल्लेख है। इन जटा,
माला,
शिखा
के नियम व्याड़ी ऋषि प्रणीत विकृति वल्ली[xvii]
नामक ग्रन्थ में पाये जाते हैं। वेदों के शुद्ध पाठ को सुरक्षित रखने के लिए इसी
प्रकार से अनुक्रमणियां भी पाई जाती है।
विदेशी से लेकर स्वदेशी विद्वान वेदों की
शुद्धता की रक्षा पर मोहित होकर अपने विचार लिखते है।
मैक्समूलर महोदय - ऋग्वेद की अनुक्रमणी से हम
उसके सूक्तों और पदों की पड़ताल करके निर्भीकता से कह सकते हैं कि अब भी ऋग्वेद के
मन्त्रों, शब्दों और पदों की वही संख्या है जो कात्यायन के समय थी[xviii]।
वेदों के पाठ हमारे पास इतनी शुद्धता से
पहुंचायें गए है कि कठिनाई से कोई पाठभेद अथवा स्वरभेद तक सम्पूर्ण ऋग्वेद में मिल
सके[xix]।
मक्डोनेल महोदय लिखते है-
आर्यों ने प्राचीन काल से असाधारण सावधानता का
वैदिक पाठ की शुद्धता रखने और उसे परिवर्तन अथवा नाश से बचाने के लिए उपयोग किया।
इसका परिणाम यह इतनी शुद्धता से सुरक्षित
रखा गया है जो साहित्यिक इतिहास में अनुपम है[xx]।
इस प्रकार से पश्चिमी विद्वान वेदों में बाद के
काल में हुई मिलावट की कल्पना ल स्वयं खंडन कर अपनी परिकल्पना को स्वयं सिद्ध कर
रहे हैं।
[ii]
Vedic age P. 228
[iii]
Vedic age P. 229
[vi]
Vedic age
[viii]
सन्दर्भ लेख
ऋग्वेद के 10 वें
मंडल पर पश्चिमी विद्वानों का कुठाराघात प्रकाशक -सार्वदेशिक पत्रिका मई, जून, जुलाई अंक 1949
[xi]
This is one of the hymns which have always been suspected as modern by European
interpreters.- Vedic Hymns by Prof. Max Muller
[xii]
The last verse is to my mind the most suspicious of all.- Vedic Hymns by Prof.
Max Muller
[xiii]
ऋग्वेद 1/164/46, ऋग्वेद 2/1/3, ऋग्वेद 2/1/4, ऋग्वेद 3/30/4, ऋग्वेद 3/30/5, ऋग्वेद 4/17/5, ऋग्वेद 5/32/11, ऋग्वेद 6/45/16, ऋग्वेद 2/26/3,
[xviii]
Ancient Sanskrit Literature p. 117
[xix]Origin
of Religion p. 131
[xx]
A History of Sanskrit Literature by MacDonnell p. 50
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