त्यागपूर्वक भोग से ही जीवन के लक्ष्य कि प्राप्ति है।
एक गुरु थे। उनके अनेक शिष्य उनसे शिक्षा ग्रहण करते थे। एक बार एक शिष्य ने अपने गुरु से पूछा कि गुरूजी मैं साधना कर अपने चित को साधना चाहता हूँ मगर सांसारिक भोगों की ओर मेरा चित निरन्तर भागता रहता हैं। आप मेरी शंका का समाधान कीजिये। गुरु जी ने कहा कि इस राज्य के राजा सांसारिक भोगों के मध्य रहते हुए भी तपस्वी जीवन जीते हैं। आप उनके पास जाकर इस रहस्य को जानने का प्रयत्न कीजिये। वह शिष्य निश्चित दिन राजा का दर्शन हेतु राजमहल पहुँच गए। राजा ने कहा मैं आपकी शंका का उत्तर अवश्य दूंगा। आप पहले एक जलता हुआ दीपक लेकर मेरे अंत:पुर का एक चक्कर लगा कर आईये। वहां सुख और भोग की सभी सामग्री उपलब्ध हैं, जिसकी कामना संसार का हर व्यक्ति करता हैं। ध्यान रहे यह जलता हुआ दीपक बुझ न पाये। वह शिष्य राजा की आज्ञा मानकर जलता हुआ दीपक लेकर अंत: पुर में प्रवेश कर कुछ काल पश्चात वापिस आ जाते है। राजा ने पूछा वहां सब भोग सामग्री जी, आपने किसी का भोग किया। शिष्य ने उत्तर दिया, मेरा ध्यान तो केवल इस दीपक पर था। कहीं यह बुझ न जाए। राजा ने उत्तर दिया यही इस संसार में भोग करने का नियम है। सांसारिक पदार्थों का भोग करते समय उनका दास नहीं बनना है। आत्मा रूपी दीपक की उन्नति सैदेव होती रहे ऐसा स्मरण करते हुए इस संसार में जीवन यापन करना हैं। त्यागपूर्वक भोग करते हुए हम जीवन में आगे बड़े तभी आत्म कल्याण संभव हैं। वह शिष्य राजा के सन्देश से प्रभावित हुआ एवं उसका अनुसरण करते हुए जीवन में प्रसिद्द तपस्वी के रूप में प्रसिद्द हुआ।
वेदों में जीवन में त्यागपूर्वक भोग करने का सन्देश अनेक मन्त्रों में बताया गया हैं। अथर्ववेद 6/84/1 मंत्र में सन्देश दिया गया है कि जो लोग इस स्थूल जगत में भोग जैसे खाना पीना, संतान उत्पन्न करना, इन्द्रियों से सुख आदि ग्रहण करने के लिए जीते हैं। सभी भोगों में पर्याप्त आनंद और आश्रय मानते हैं। योगी लोग ऐसे भोगों के दासों को भारी विपत्ति में फॅसा हुआ, बंधा हुआ और कलेशरूप में मानते हैं। इन बंधनों को तोड़ने के लिए एवं उच्च, शांत परम सुख की प्राप्ति के लिए सांसारिक भोगों का त्यागपूर्वक भोग करना ही एकमात्र विकल्प हैं। त्यागपूर्वक भोग करने वाले के लिए ये भोग रमणीय नहीं अपितु नरक के समान प्रतीत होते है। इसलिए हे मनुष्य भोगों को जीवन का लक्ष्य मत मान। अपितु उस महान ईश्वर की प्राप्ति को जीवन का लक्ष्य मान।
डॉ विवेक आर्य
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