वेद और पुनर्जन्म
कुछ पाश्चात्य
विद्वानों[i] की यह धारणा रही हैं की वेद पुनर्जन्म के
सिद्धांत का समर्थन नहीं करते हैं। भारतीय लेखक भी पश्चिम के लेखकों का अँधा अनुसरण करते दीखते
हैं[ii]। इसका एक
कारण तो वेदों के अर्थो को सूक्षमता से नहीं समझना हैं और दूसरा कारण मुख्यत: रूप
से सभी पाश्चात्य विद्वान ईसाई मत के थे इसलिए पूर्वाग्रह से ग्रसित थे। ईसाई मत
वेदों में वर्णित कर्म फल व्यस्था और पुनर्जन्म को नहीं मानता इसलिए वेदों में भी
पुनर्जन्म के न होना मानता हैं।
स्वामी दयानंद
अपने प्रसिद्द ग्रन्थ ऋग्वेददिभाष्यभूमिका [iii] में पुनर्जन्म के वेदों से स्पष्ट प्रमाण देते हैं। इसके
अतिरिक्त अन्य विद्वानों ने भी पुनर्जन्म के अन्य प्रमाण दिए हैं।
1. हे सुखदायक परमेश्वर! आप कृपा करे पुनर्जन्म में हमारे बीच में उत्तम नेत्र आदि
सब इन्द्रिया स्थापित कीजिये। तथा प्राण अर्थात मन, बुद्धि, चित, अहंकार, बल, पराक्रम आदि युक्त
शरीर पुनर्जन्म में कीजिये[iv]।
2. हे सर्वशक्तिमान!
आपके अनुग्रह से हमारे लिए वारंवार पृथ्वी प्राण को, प्रकाश चक्षु को और अंतरिक्ष स्थानादि अवकाशों को देते
रहें। पुनर्जन्म में सोम अर्थात औषधियों का रस हमको उत्तम शरीर देने में अनुकूल
रहे तथा पुष्टि करनेवाला परमेश्वर कृपा करके सब जन्मों में हमको सब दुःख निवारण
करनेवाली पथ्यरूप स्वस्ति को देवे[v]।
3. हे सर्वज्ञ
ईश्वर! जब जब हम जन्म लेवें, तब तब हमको शुद्ध
मन. पूर्ण आयु, आरोग्यता,
प्राण, कुशलतायुक्त जीवात्मा, उत्तम चक्षु और
श्रोत्र प्राप्त हो[vi]।
4. हे जगदीश्वर! आप
की कृपा से पुनर्जन्म में मन आदि ग्यारह इन्द्रिय मुझको प्राप्त हो अर्थात सर्वदा
मनुष्य देह ही प्राप्त होता रहे[vii]।
5. जो मनुष्य
पुनर्जन्म में धर्माचरण करता हैं, उस धर्माचरण के
फल से अनेक उत्तम शरीरों को धारण करता और अधर्मात्मा मनुष्य नीच शरीर को प्राप्त
होता हैं[viii]।
6. जीवों को माता और पिता के शरीर में प्रवेश करके जन्मधारण
करना, पुन: शरीर को छोड़ना,
फिर जन्म को प्राप्त होना, वारंवार होता हैं[ix]।
7. तुम तुम शरीरधारी
रूप में उत्पन्न होकर अनेक योनियों में अनेक प्रकार के मुखों वाले भी हो जाते हो[x]।
9. मैंने इन्द्रियों के
रक्षक अमर इस आत्मा का साक्षात्कार किया जो जन्म-मरण के मार्गों से विचरण करता
रहता हैं। वह अपने अच्छे-बुरे कर्मों के अनुसार और प्रीतीपूर्वक अनेक योनियों में
संसार के अंदर भ्रमण करता रहता हैं[xii]।
10. हे जीवों! तुम जब शरीर को
छोड़ो तब यह शरीर दाह के पीछे पृथ्वी, अग्नि आदि और जलों के बीच देह-धारण के कारण को प्राप्त हो और माताओं के उदरों
में वास करके फिर शरीर को प्राप्त होता हैं[xiii]।
11. जीव माता के गर्भ में बार
बार प्रविष्ट होता हैं और अपने शुभ कर्मानुसार सत्यनिष्ठ विद्वानों के घर में जन्म
लेता हैं[xiv]।
इसी प्रकार से
निरुक्त में यास्काचार्य ने पुनर्जन्म को माना हैं।
1. मैंने अनेक वार
जन्ममरण को प्राप्त होकर नाना प्रकार के हज़ारों गर्भाशयों का सेवन किया[xv]।
2. अनेक प्रकार के
भोजन किये, अनेक माताओं के स्तनों का
दुग्ध पिया, अनेक माता-पिता
और सुह्रदयों को देखा[xvi]।
3. मैंने गर्भ में
नीचे मुख ऊपर पग इत्यादि नाना प्रकार की पीड़ाओं से युक्त होके अनेक जन्म धारण किये[xvii]।
दर्शन ग्रन्थ भी पुनर्जन्म का समर्थन करते हैं
1. हर एक प्राणियों की यह
इच्छा नित्य देखने में आती हैं कि मैं सदैव सुखी बना रहूँ। मरूं नहीं। यह इच्छा
कोई भी नहीं करता कि मैं न होऊं। ऐसी इच्छा पुनर्जन्म के अभाव से कभी नहीं हो
सकती। यह "अभिनिवेश" क्लेश कहलाता हैं, जोकि कृमि पर्यन्त को भी मरण का भय बराबर होता हैं। यह
व्यवहार पुनर्जन्म की सिद्धि को जनाता हैं[xviii]।
2. जो उत्पन्न
अर्थात शरीर को धारण करता हैं, वह मरण अर्थात
शरीर को छोड़ के, पुनरुत्पन्न
दूसरे शरीर को भी अवश्य प्राप्त होता हैं। इस प्रकार मर के पुनर्जन्म लेने को
प्रेत्यभाव कहते हैं[xix]।
गीता[xx] में आता
हैं की जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नए वस्त्रों को ग्रहण कर
लेता हैं उसी प्रकार आत्मा पुराने व्यर्थ शरीरों को त्याग कर नवीन भौतिक शरीरों को
धारण कर लेता हैं।
इस प्रकार से रामायण, महाभारत, उपनिषद, पुराण आदि पुनर्जन्म के
सिद्धांत का पुरजोर समर्थन करते हैं। पाश्चात्य विद्वान और उनकी सरणि पर चलने वाले
भारतीय लेखकों को वेदों में पुनर्जन्म न मिलने का कारण उनकी वेदों के मूल अर्थों
को समझने में अक्षमता हैं।
[i] The
doctrine of Transmigration is entirely absent from the Vedas and the early
Brahmans- The Ancient Dravidians by Shri .R.Sheshaiyengar Referring
Macdonald.P.158
As he Rigvedic Aryans were full of the joie de viver
(joy of life) they were not particularly interested in the life after death,
much less had they any special doctrines about it. We can therefore glean only
a few notices of the life beyond, that are scattered throughout the Rigveda-
Vedic Age p.381-382
[ii]
The Aryasamaj accepts the doctrine of Karma and rebirth though they are not
Vedic.- The Encyclopedia Americana, 1971, Vol.2,p.425;Brijen K.Gupta
The Doctrine of Karma and Rebirth ,for instance, on
which Dayananda insists, does not appear in the Samhitas; it makes its first
appearance in the Upanishads- Hinduism, Oxford, 1962,pp.207-8,R.C.Zaehner.
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