(स्वामी दयानन्द के 194 वें जन्मदिवस के अवसर पर प्रकाशित)
डॉ विवेक आर्य
वह मूलशंकर था, चैतन्य था, महाचैतन्य था, दयानन्द था। सरस्वती था, वेदरूपी सरस्वती को वह इस धरातल पर प्रवाहित कर गया। वह स्वामी था, वह सन्यासी था, परिव्राट था। दंडी था, योगी था, योगिराज था, महा तपस्वी था। योग सिद्धियों से संपन्न था-परन्तु उनसे अलिप्त था। मनीषी था, ऋषि था, महर्षि था, चतुर्वेद का ज्ञाता तथा मन्त्रद्रष्टा था। ब्रह्मचारी था, ब्रह्मवेत्ता था, ब्रह्मनिष्ठ था, ब्रहमानंदी था। अग्नि था, परम तपस्वी था, वर्चस्वी था, ब्रह्म वर्चस्वी था। इस धरातल पर शंकर होकर आया था। शंकर के मूल खोज कर गया और दयानन्द बनकर अपनी दया संसार पर कर गया। नश्वर देह के मोह को त्याग कर हंसते हंसते प्रसन्नता से, परम प्रभु के प्रेम में मस्त होकर ब्रह्मानंद में विलीन हो गया। एक अपूर्व जीवन, एक अद्भुत क्रांति, अतीत के गुण गौरव का एक मधुर लक्ष्य, एक महान आशा का संचार, एक अद्भुत जीवन-ज्योति इस जगत में अनंत समय के लिए छोड़ गया।
वह शंकर था- निस्संदेह शंकर ही था। प्राणिमात्र के कल्याण के लिए, विश्व के कल्याण के लिए उसकी अमर साधना थी। उसके जीवन का एक एक क्षण उसकी पूर्ति में लगा। हम जिस धरातल पर हैं, वह उससे बहुत ऊंचाई पर था। शुद्ध चैतन्य था। उसने हमारे अंदर चेतना का संचार किया। हमारे इस विश्व की जातियों में, हमारे देशों में, हमारे धर्म-कर्मों में, निस्तेजता, प्राणहीनता और मलिनता गहरी जड़े जमा चुकी थी। उस शुद्धबुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी ने अपने ब्रहा वर्चस तेज से हम सबके जीवन एवं धर्म-कर्म को चैतन्य, तेजोमय एवं ब्रह्मा से वेद से संयुक्त कर दिया। उस चैतन्य ब्रह्मचारी से चेतना एवं प्राण प्राप्त कर आज हम जीवित हैं, गौरवशाली हैं। हम सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक निस्तेजता को त्याग कर जीवन एवं चेतना का अनुभव कर रहे हैं और दूसरों को भी अब हमारी तेजस्विता का भान होने लगा है। आज विश्व की ऑंखें हमारी ओर किसी आशा से, किसी महान सन्देश को प्राप्त करने के लिए लगी हुई हैं।
वह सरस्वती था। वेद विद्या का अपार और अथाह समुद्र था। काशी की पंडित मण्डली ने उसकी थाह लेनी चाही परन्तु वे सब उसकी गहराई को न पहुंच सके। मत-मतान्तरों के विद्वानों ने भी अनेक बार उनके अगाध ज्ञान की थाह लेनी चाही। उनके ज्ञान सागर में गोते लगाये, परन्तु वे स्वयं अपने प्राण बचाकर भाग खड़े हुये। वह खारा समुद्र नहीं था, अपितु अत्यंत रसवान समुद्र था। उसके पास जो जाता तृप्त होकर ही आता था।
वह स्वामी था। विश्वनाथ मंदिर का वैभव काशी नरेश ने अर्पण करने की प्रार्थना की, उदयपुर महाराणा ने भी एकलिंग की गद्दी उनके चरणों में अर्पित की परन्तु वह लोभ लालच से विचलित होने वाला नहीं था। ब्रिटिश शासन काल में, पराधीन भारत में, स्वराज्य की सर्वप्रथम भावना का उसने निर्भया होकर सूत्रपात किया। वह भय से विकम्पित होने वाला नहीं था। मृत्यु से भी विचलित होने वाला नहीं था। मृत्युंजयी था। आत्मसंयमी था। केवल अपना ही स्वामी नहीं था-अपनी वृतियों का ही स्वामी नहीं था, अपितु संसार का स्वामी था। संसार का स्वामी होने पर ही एक लंगोटधारी, सर्वहुत, सर्वस्व त्यागी, सन्यासी था। राजा, महाराजा और सम्राटों की कृपा की उसे इच्छा नहीं थी। राजा-महाराजा और सम्राटों का भी सम्राट, परिव्राट था। जिनकी चारों दिशायें ही रक्षक थीं और परम प्रभु ही उसका मंत्रदाता था।
वह योगी था। उन्होंने तपस्या से अपने शरीर,मन और अंत:करण को पवित्र किया था। पवित्र अंत: करण में वह नित्य ब्रह्मा का दर्शन किया करता था। ब्रह्मा से नित्य योग-मेल मिलाप किया करता था। ब्रह्म के आनंद में नित्य निमग्न रहता था। अतएव निर्भय था, निर्भ्रम था, निःशंक था। उनके चारों और आनंद का ही साम्राज्य था। आनंद का ही सागर हिलौरें मार रहा था। ब्रह्मा का तेज-ब्रह्मा वर्चस उसके मुख मंडल पर देदीप्यमान था। ज्ञान और तेज की रश्मियां उससे प्रस्फुटित होती रहती थीं। वह कभी न थकने वाला और विश्राम न करने वाला था। वह सदा जाग्रत जागरूक था और सबको जगाने वाला था। सबको ज्ञान ज्योति से उसने प्रबुद्ध किया।
योगसाधना में रत रहकर अपना ही उद्धार करने वाला वह नहीं था। वह योगिराज था। भोगों की लालसाओं के पर्वत उससे टकराकर चकनाचूर हो जाते थे। अज्ञान, अविद्या के भयंकर प्रलयंकारी तूफान , वहां शांत हो जाते थे। लोभ एवं लालच की कीचड़ वहां जाकर शुष्क बालू बन जाती थी और उस परम तेजस्वी को अपने पंक में निमग्न न कर सकती थी। वह त्याग में अनुपम था, तपस्या में अनुपम था, ज्ञान में अनुपम था। अनुपम वक्त था, उसकी वकृतत्व शक्ति सभी को मोह लेती थी। उसकी अद्वितीय तर्कना शक्ति युगों से पड़े हुए रूढ़िग्रस्त विचारों को पल मात्र में छिन्न-भिन्न कर देती थी। जो कार्य कोई अन्य न कर सका। वह कार्य महर्षि दयानन्द ने विश्वकल्याण के लिए कर दिया। इसलिए हम उनके कृतज्ञ हैं, उनके आगे नतमस्तक हैं। उनकी मधुर स्मृति पुन: सजीव बनाने का प्रयास करते रहते हैं।
महर्षि का जन्मदिवस आया है। देश की जनता उसे बड़े हर्ष और उल्लास से बनाती हैं। मैंने सभी को प्रसन्नचित देखकर पूछा - महर्षि दयानन्द क्या थे? उन्होंने तुमुल घोष में कहा-
"वह महर्षि महान् था! महान्तर था!! महानतम था !!!"
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