ईश्वर के दर्शन का साधन 'ओंकार'
प्रियांशु सेठ
वेद ने भी और उपनिषदों ने भी 'ओ३म्' द्वारा ईश्वर के दर्शन का आदेश दिया है।'ओ३म्' के द्वारा पर-ब्रह्म और अपर-ब्रह्म के दर्शन होते हैं।
अरा इव रथनाभौ संहता यत्र नाडय: स एषोअन्तश्चरते बहुधा जायमान:।ओमित्येवं ध्यायथ आत्मानं स्वस्ति व: पाराय तमस: परस्तात्।।
मुण्डक २।२।६।।
मुण्डक २।२।६।।
"जिस प्रकार से रथ के पहिये के केन्द्र में अरे लगे रहते हैं,उसी प्रकार शरीर की समस्त नाड़ियाँ जिस हृदय-देश में एकत्र स्थिर हैं,उसी हृदय में नाना रूप से प्रकट होने वाले परब्रह्म परमात्मा अन्तर्यामी रूप से रहते हैं।इन सबके आत्मा प्रभु का 'ओ३म्' नाम के द्वारा ही ध्यान करो जो अज्ञान-रूप अन्धकार से सर्वथा अतीत और भवसागर के दूसरे पार है,उस प्रभु को प्राप्त करो।तुम्हारा कल्याण हो।"
श्री पण्डित राजाराम जी ने 'ओमित्येवं ध्यायथ आत्मानम्' का अर्थ "उस आत्मा को 'ओ३म्' इस प्रकार ध्यान करो" किया है और पण्डित देवेन्द्रनाथ शास्त्री ने "उस परमात्मा का ओ३म् द्वारा ध्यान करो" अर्थ किया है।भाव यह है कि 'ओ३म्' जो उसका निज नाम है,उसी का ध्यान,उसी का जप और उसी का स्मरण करते रहो।
प्रश्न-उपनिषद् में एक कथा आती है।शैव्य सत्यकाम ने पिप्पलाद से पूछा-
"हे भगवन्!यदि कोई मनुष्य मरण-पर्यन्त सारी आयु ओंकार का ही ध्यान करे,तो वह किस लोक को जीतता है."
इसके उत्तत में पिप्लाद ने कहा-"हे सत्यकाम!यह सचमुच पर और अपर ब्रह्म है,जो ओंकार है।"
निस्सन्देह 'ओ३म्' ईश्वर के प्राप्ति का असंदिग्ध और निश्चित साधन है।इसलिए पूरे निश्चय के साथ ऋषि ने कहा-
"यह सचमुच पर और अपर-ब्रह्म ही है, जो ओंकार है।"
ऋषि पिप्पलाद फिर आदेश करते हैं-
"हे भगवन्!यदि कोई मनुष्य मरण-पर्यन्त सारी आयु ओंकार का ही ध्यान करे,तो वह किस लोक को जीतता है."
इसके उत्तत में पिप्लाद ने कहा-"हे सत्यकाम!यह सचमुच पर और अपर ब्रह्म है,जो ओंकार है।"
निस्सन्देह 'ओ३म्' ईश्वर के प्राप्ति का असंदिग्ध और निश्चित साधन है।इसलिए पूरे निश्चय के साथ ऋषि ने कहा-
"यह सचमुच पर और अपर-ब्रह्म ही है, जो ओंकार है।"
ऋषि पिप्पलाद फिर आदेश करते हैं-
ऋग्भिरेतं यजुर्भिरन्तरिक्षं सामभिर्यत्तत्कवयो वेदयन्ते।तमोंकारेणैवायतनेनान्वेति विद्वान् यत्तच्छान्तमजरममृतमभयं परं चेति।।
प्रश्न० ५।७।।
प्रश्न० ५।७।।
"ओं की(एक मात्र की)उपासना से उपासक ऋग्मन्त्रों द्वारा इस मनुष्य-लोक में(पहुँचाया जाता है);(ओम् की दो मात्राओं की उपासना से)यजुर्वेद-मन्त्रों द्वारा अन्तरिक्ष में(चन्द्रलोक तक पहुँचाया जाता है);पूर्णरूप से 'ओ३म्' की उपासना करने वाला उस ब्रह्म-लोक में(पहुँचाया जाता है)जिसको ज्ञानी जन जानते हैं।विवेकशील साधक केवल ओ३म् के अवलम्बन(सहारे)के द्वारा ही उस पर-ब्रह्म ईश्वर को पा लेता है,जो परम शान्त है,जो न बूढ़ा होता है,न वहाँ मृत्यु है,न भय है,वह सर्वश्रेष्ठ है।"
नचिकेता ने यम से वर माँगने का अधिकार ले लिया,तो यम ने नचिकेता के ज्ञानचक्षु खोलने के लिए भी यही कहा था-
सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति
तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तप्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्।।
तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तप्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्।।
"सारे वेद जिस पद का कथन करते हैं,सारे तप जिसका प्रतिपादन करते हैं,जिसकी इच्छा करते हुए ब्रह्मचर्य का सेवन करते हैं,वह पद तुझे संक्षेप में कहता हूँ।वह 'ओ३म्' यह पद है।"
यम ने इस मन्त्र में जहाँ 'ओ३म्' का वर्णन किया है,वहाँ साथ ही 'ओ३म्' के पाने का साधन(वेद-ज्ञान,तप और ब्रह्मचर्य)भी बतला दिया है।प्रश्नोपनिषद् में भी कहा है-
तेषामेवैष ब्रह्मलोको,येषां तपो ब्रह्मचर्यं येषु सत्यं प्रतिष्ठितम्।
प्रश्न १।१५।।
"जो ब्रह्मचर्य-धारणापूर्वक तप करते हैं,जो सत्य से विचलित नहीं होते,उन्हीं को इस शरीर में ही ब्रह्म-लोक अर्थात् ब्रह्म-ज्ञान प्राप्त होता है।"
प्रश्न १।१५।।
"जो ब्रह्मचर्य-धारणापूर्वक तप करते हैं,जो सत्य से विचलित नहीं होते,उन्हीं को इस शरीर में ही ब्रह्म-लोक अर्थात् ब्रह्म-ज्ञान प्राप्त होता है।"
'ओ३म्' परमात्मा के दर्शन का असंदिग्ध साधन है,क्योंकि वेद भगवान् ने स्वयं यह आदेश दिया है-
ओ३म् क्रतो स्मर।।यजु० ४०।१५।।
"हे कर्मशील!'ओ३म्'का स्मरण कर।"
"हे कर्मशील!'ओ३म्'का स्मरण कर।"
यजुर्वेद के दूसरे ही अध्याय में यह आज्ञा है-
ओ३म् प्रतिष्ठ।।यजु० २।१३।।
"'ओ३म्'में विश्वास-आस्था रख!"
"'ओ३म्'में विश्वास-आस्था रख!"
इसलिए ब्राह्मण-ग्रन्थों में स्थान-स्थान पर 'ओ३म्' की महिमा का गायन है और उपनिषदों में भी इसी का व्याख्यान है।
गोपथ ब्राह्मण में आता है-
गोपथ ब्राह्मण में आता है-
आत्मभेषज्यमात्मकैवल्यमोंकार:।।कण्डिका ३०।।
"ओंकार आत्मा की चिकित्सा है और आत्मा को मुक्ति देने वाला है।"
"ओंकार आत्मा की चिकित्सा है और आत्मा को मुक्ति देने वाला है।"
माण्डूक्योपनिषद् का पहला ही आदेश यह है-
ओमित्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानम्
भूतं भवद् भविष्यदिति सर्वमोंकार एव।।१।।
"यह'ओ३म्'अक्षर क्षीण न होने वाला अविनाशी है,यह सम्पूर्ण भूत,वर्तमान और भविष्यत् ओंकार का उपाख्यान है।सभी कुछ ओंकार में है।"
अर्थात् ओंकार से बाहर कोई नहीं,कुछ भी नहीं।जो कुछ हो चुका,जो कुछ अब है और जो कुछ होने वाला है,वह सब 'ओ३म्' ही कि महिमा है।
भूतं भवद् भविष्यदिति सर्वमोंकार एव।।१।।
"यह'ओ३म्'अक्षर क्षीण न होने वाला अविनाशी है,यह सम्पूर्ण भूत,वर्तमान और भविष्यत् ओंकार का उपाख्यान है।सभी कुछ ओंकार में है।"
अर्थात् ओंकार से बाहर कोई नहीं,कुछ भी नहीं।जो कुछ हो चुका,जो कुछ अब है और जो कुछ होने वाला है,वह सब 'ओ३म्' ही कि महिमा है।
महर्षि स्वामी दयानन्द जी महाराज ने 'पंचमहायज्ञविधि' में 'ओ३म्' के सम्बन्ध में यह आदेश दिया है-
'ओ३म्' यह परब्रह्म का सर्वोत्तम और प्रसिद्धतम नाम है।इस एक नाम में परमेश्वर के अनेक नाम आ जाते हैं।
'ओ३म्' यह परब्रह्म का सर्वोत्तम और प्रसिद्धतम नाम है।इस एक नाम में परमेश्वर के अनेक नाम आ जाते हैं।
छान्दोग्योपनिषद् का ऋषि कहता है-
ओ३म् इत्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत।
"मनुष्य 'ओ३म्' इस अक्षर को उद्गीथ समझकर उपासना करे।"
इस ओ३म्-उपासना का महत्त्व प्रकट करने के लिए ऋषि ने मृत्यु से भयभीत देवताओं के सम्बन्ध में लिखा है कि जब देवों को रक्षा का और कोई स्थान न मिला,तो अन्त में वे स्वर में प्रविष्ट हुए और यह जो 'ओ३म्' अक्षर है,यही स्वर है और यही 'ओ३म्' मृत्यु से रक्षा करने वाला,अभय-दान करनेवाला है।तब देवता 'ओ३म्' स्वर में प्रविष्ट होकर अमृत हो गये।
यह बतलाने के पश्चात् ऋषि कहता है-
स य एतदेवं विद्वान् अक्षरं प्रणौति।
एतदेवाक्षरं स्वरममृतमभयं प्रविशति।
तत्प्रविश्य यदमृता देवास्तदमृतो भवति।।
छान्दो० १।४।५।।
"जो मनुष्य इस रहस्य को जानकर 'ओ३म्' अक्षर की स्तुति उपासना करता है,इस अमृत,अभय और अविनाशी स्वर में प्रवेश करता है,तो जिस प्रकार देव अमृत हो गये थे,वैसे ही वह भी अमृत हो जाता है।"
ओ३म् इत्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत।
"मनुष्य 'ओ३म्' इस अक्षर को उद्गीथ समझकर उपासना करे।"
इस ओ३म्-उपासना का महत्त्व प्रकट करने के लिए ऋषि ने मृत्यु से भयभीत देवताओं के सम्बन्ध में लिखा है कि जब देवों को रक्षा का और कोई स्थान न मिला,तो अन्त में वे स्वर में प्रविष्ट हुए और यह जो 'ओ३म्' अक्षर है,यही स्वर है और यही 'ओ३म्' मृत्यु से रक्षा करने वाला,अभय-दान करनेवाला है।तब देवता 'ओ३म्' स्वर में प्रविष्ट होकर अमृत हो गये।
यह बतलाने के पश्चात् ऋषि कहता है-
स य एतदेवं विद्वान् अक्षरं प्रणौति।
एतदेवाक्षरं स्वरममृतमभयं प्रविशति।
तत्प्रविश्य यदमृता देवास्तदमृतो भवति।।
छान्दो० १।४।५।।
"जो मनुष्य इस रहस्य को जानकर 'ओ३म्' अक्षर की स्तुति उपासना करता है,इस अमृत,अभय और अविनाशी स्वर में प्रवेश करता है,तो जिस प्रकार देव अमृत हो गये थे,वैसे ही वह भी अमृत हो जाता है।"
'गोपथ ब्राह्मण' के पूर्वभाग के पहले अध्याय की २२वीं कण्डिका में 'ओ३म्' की उपासना तथा जप का और भी एक रहस्य बतलाया है।
वह यह है कि-
"ब्राह्मण की यदि कोई इच्छा हो,तो तीन रात उपवास करे और पूर्व की ओर मुख करके मौन रहकर,कुशासन पर बैठकर,सहस्र बार 'ओम्' का जप करे,इससे सारे मनोरथ तथा कर्म सिद्ध होते हैं।"
वह यह है कि-
"ब्राह्मण की यदि कोई इच्छा हो,तो तीन रात उपवास करे और पूर्व की ओर मुख करके मौन रहकर,कुशासन पर बैठकर,सहस्र बार 'ओम्' का जप करे,इससे सारे मनोरथ तथा कर्म सिद्ध होते हैं।"
'योगदर्शन' समाधिपाद में जहां निर्जीव समाधि का साधन पूर्ण-वैराग्य बतलाया है,वहां इसके सुगम उपाय 'ईश्वर-प्रणिधान' का भी वर्णन किया है।ईश्वर कौन है?क्या है?इसको स्पष्ट करते हुए यह प्रकट किया है कि "जो क्लेश,कर्म-विपाक(कर्मों के फल)और आशय(कर्मों के संस्कार)के सम्बन्ध से रहित तथा समस्त पुरुषों से उत्तम है,वह ही ईश्वर है।"यही नहीं,अपितु वह ईश्वर गुरुओं का भी गुरु है और ईश्वर का नाम 'ओ३म्' है।'ओ३म्' नाम का जप और उसके अर्थों का चिन्तन करने का आदेश 'योगदर्शन' ने किया है तथा 'ओ३म्'के जप से मुक्ति तक पहुँचना बतलाया है;इसके साथ यह अनुभव भी प्रकट कर दिया है कि इस साधना को करते हुए अभ्यासी के मार्ग में जो विघ्न आकर खड़े हो जाते हैं,उनको दूर करने का उपाय क्या है।'योगदर्शन'ने जो उपाय बतलाया है,वह यह है-
तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाभ्यास:।।३२।।
"उन(विक्षेप-विघ्नों)को दूर करने के लिए एक तत्त्व(ओ३म्)का अभ्यास करना चाहिए।"
"उन(विक्षेप-विघ्नों)को दूर करने के लिए एक तत्त्व(ओ३म्)का अभ्यास करना चाहिए।"
'ओ३म्'के द्वारा आत्म-दर्शन का उल्लेख केवल वेद भगवान्,ब्राह्मणग्रन्थों,दर्शनों और उपनिषदों ही में नहीं किया,अपितु पुराणों और तन्त्र-ग्रन्थों तक में भी 'ओ३म्' का विधान किया गया है।
श्रीमद्भागवत के द्वादश स्कन्ध में,जहां सूत जी तथा शौनक जी का संवाद आता है वहां सूत जी ने कहा है-
श्रीमद्भागवत के द्वादश स्कन्ध में,जहां सूत जी तथा शौनक जी का संवाद आता है वहां सूत जी ने कहा है-
यदुपासनया ब्रह्मन् योगिनो मलमात्मन:।
द्रव्यक्रियाककारख्यं धूत्वा यान्त्यपुनर्भवम्।।३८।।
ततोअभूत्त्रिवृदोंकारो योअव्यक्तप्रभव: स्वराट्।
यप्तल्लिङ्गं भगवतो ब्रह्मण: परमात्मन:।।३९।।
द्रव्यक्रियाककारख्यं धूत्वा यान्त्यपुनर्भवम्।।३८।।
ततोअभूत्त्रिवृदोंकारो योअव्यक्तप्रभव: स्वराट्।
यप्तल्लिङ्गं भगवतो ब्रह्मण: परमात्मन:।।३९।।
"हे ब्रह्मन्!जिसको उपासना से योगिजन अपने सारे मल को शुद्ध करके मुक्ति को प्राप्त होते हैं।।३८।।वह नाद अ,उ,म् तीनों अक्षरों से युक्त 'ओ३म्' स्वरूप में प्रकट हुआ,जिसकी उत्पत्ति अव्यक्त है और जो स्वयं विराजमान है,एवं जो भगवान् परमात्मदेव का चिन्ह अर्थात् नाम है।३९।।"
स्वधाम्नो ब्रह्मण: साक्षाद्वाचक: परमात्मन:।
स सर्वमन्त्रोपनिषद् वेदबीजं सनातनम्।।४१।।
स सर्वमन्त्रोपनिषद् वेदबीजं सनातनम्।।४१।।
"परमात्मदेव ब्रह्म का साक्षात् वाचक 'ओम्' शब्द ही है।वही सर्वमन्त्र और उपनिषद् तथा वेदों का बीज है,वही सनातन है।।४१।।
'योगवासिष्ठ' के उपशम-प्रकरण१८ में चित्त के विनाश के दो उपाय योग और ज्ञान बतलाते हुए प्राणों के निरोध के साधनों में मुख्य साधन 'ओम्' का उच्चारण ही बतलाया है-
'योगवासिष्ठ' के उपशम-प्रकरण१८ में चित्त के विनाश के दो उपाय योग और ज्ञान बतलाते हुए प्राणों के निरोध के साधनों में मुख्य साधन 'ओम्' का उच्चारण ही बतलाया है-
ओंकारोच्चारणे प्रान्ते शब्दतत्त्वानुभावनात्।
सुषुप्ते संविदो जात: प्राणस्पन्दो निरुध्यते।।२१।।
सुषुप्ते संविदो जात: प्राणस्पन्दो निरुध्यते।।२१।।
"ऊँचे स्वर में 'ओ३म्' का उच्चारण होने पर प्रान्त में(अन्त्य में)शेष तुर्यमात्रा-रूप शब्द-तत्त्व अनुभूत होता है,उसका अनुसन्धान करने से बाह्य नियमों के विज्ञान का(बहिर्मुख चित्त-वृत्ति का)जब अत्यन्त उपराम हो जाता है,तब प्राण-वायु का स्पन्दन रूक जाता है।"
तन्त्र-ग्रन्थों में 'महानिर्वाणतन्त्र' को अधिक श्रेष्ठ माना गया है।इसमें महादेव(शिवजी)तथा पार्वती का संवाद है।इस तन्त्र के चतुर्दशोल्लास में शिवजी कहते हैं-
ओं तत्सदिति मन्त्रेण यो यत् कर्म्म समाचरेत्।
गृहस्थो बाप्युदासीनस्तस्याभीष्टाय तद् भवेत्।।१५३।।
जपो होम: प्रतिष्ठा च संस्काराद्यखिला: क्रिया:।
ओं तत्सन्मन्त्रनिष्पन्ना: सम्पूर्णा: स्युर्न संशय:।१५४।।
गृहस्थो बाप्युदासीनस्तस्याभीष्टाय तद् भवेत्।।१५३।।
जपो होम: प्रतिष्ठा च संस्काराद्यखिला: क्रिया:।
ओं तत्सन्मन्त्रनिष्पन्ना: सम्पूर्णा: स्युर्न संशय:।१५४।।
"गृहस्थी हो या उदासीन,कोई भी क्यों न हो,हे पार्वती!जप,हवन,प्रतिष्ठा और संस्कार आदि सारी क्रियाएँ यदि 'ओ३म् तत्सत्' इस मन्त्र से की जाय तो वे अवश्य सम्पूर्ण होती है,इसमें सन्देह नहीं है।"
वेदानुयायी हों या पुराणों के भक्त,तन्त्र-ग्रन्थों पर चलनेवाले हों या अद्वैतवादी,द्वैत मानने वाले हों या त्रित्,कोई भी हों,यदि सारे-के-सारे एक स्थान पर पहुंचकर,एक स्वर से,एक मन होकर एक ही बात कहते हैं तो वह यह है कि 'ओ३म्' ईश्वर के दर्शन का बहुत सुन्दर, सरल और सुगम उपाय है।और तो और,बुद्ध भगवान् के अनुयायी,जिनको नास्तिक कहा जाता है,वे भी 'ओ३म्' का जप करते हैं।
गंगोत्री जाते समय मार्ग में एक ग्राम हर्षल आता है,इसमें तिब्बत और भूटान के लोग आबाद हैं।उन्होंने वहां एक नन्हा-सा मन्दिर बना रखा है,जिसकी लगभग हर ईंट,हर पत्थर पर भूटानी अक्षरों में 'ओ३म् मणी पदमे होम' लिखा है और वे लोग इसी मन्त्र का जप करते हैं।कितना महत्त्वपूर्ण 'ओ३म्' का मन्त्र है!'ओ३म्' का जागते,चलते,बैठे,सोते,जंगल में,बस्ती में,हर समय जप करते रहने का स्वभाव बना लेना बड़ा लाभ देता है।
'ओम्' को ईश्वर के दर्शन का साधन बनाने का यह ढंग है कि यम और नियम के व्रत पूरे करके,दृढ़ आसान लगाकर रेचक,पूरक,कुम्भक प्राणायाम की जो विधि महर्षि स्वामी दयानन्द जी ने सर्व-साधारण के लिए 'सत्यार्थप्रकाश' में अपने पूरे अनुभव से लिखी है,उसके अनुसार प्राणायाम करें।स्वामी जी लिखते हैं-
"जैसे अत्यन्त वेग से वमन होकर अन्न-जल बाहर निकल जाता है,वैसे प्राण को बल से बाहर फेंककर,बाहर की यथाशक्ति रोक देवें।जब बाहर निकलना चाहें,तब मूलेन्द्रिय को ऊपर खींच रखें,जब तक कि प्राण बाहर रहता है।इसी प्रकार प्राण बाहर अधिक ठहर सकता है।जब घबराहट हो,तब धीरे-धीरे वायु को भीतर लेके फिर भी वैसे ही करते जायें, जितना सामर्थ्य और इच्छा हो;परन्तु मन में 'ओम्' इसका जप करते जायें।इस प्रकार करने से आत्मा और मन की पवित्रता और स्थिरता होती है।'बाह्य विषय'अर्थात् बाहर की अधिक रोकना,दूसरा'आभ्यन्तर'अर्थात् भीतर जितना प्राण रोका जाये उतना रोक के,तीसरा 'स्तम्भवृत्ति' अर्थात् एक ही बार जहां-का-तहां प्राण को यथाशक्ति रोक देना,चौथा 'बाह्याभ्यन्तराक्षेपी' अर्थात् जब प्राण भीतर से बाहर आने लगे,तब उसके विरुद्ध न निकलने देने के लिए बाहर से भीतर लें;और जब बाहर से भीतर आने लगे,तब भीतर से बाहर की ओर प्राण को धक्का देकर रोकता जाये।ऐसे एक-दूसरे के विरुद्ध किया करें तो दोनों की गति रुककर प्राण अपने वश में होने से मन और इन्द्रिय भी स्वाधीन होते हैं।बल-पुरुषार्थ बढ़कर बुद्धि तीव्र,सूक्ष्म-रूप हो जाती है और बहुत कठिन तथा सूक्ष्म विषय को शीघ्र ग्रहण करती है।इससे मनुष्य के शरीर में वीर्य वृद्धि को प्राप्त होता है;बल,पराक्रम,जितेन्द्रियता,सब शास्त्रों को थोड़े ही काल में समझकर उपस्थित कर लेगा।स्त्री भी इसी प्रकार योगाभ्यास करे।"
आगे चलकर ऋषि दयानन्द जी महाराज ने लिखा है-"जंगल मे अर्थात् एकान्त में जा,सावधान हो के,जल के समीप स्थित हो के,नित्यकर्म को करता हुआ 'सावित्री' अर्थात् 'गायत्री-मन्त्र' का उच्चारण,अर्थ-ज्ञान और उसके अनुसार अपने चाल-चलन को करे,परन्तु यह जप मन से करना उत्तम है।"
इस प्रकार प्राणायाम तथा 'ओम्' का जप करता हुआ साथ ही भृकुटि या आज्ञा-चक्र में 'ओम् को ध्यान से लिखा देखे।
महर्षि दयानन्द ने उपासना के लिए एकान्त देश का भी उल्लेख किया है,इसलिए इस सम्बन्ध में भी कुछ लिख देना उचित समझता हूँ-
'ओम्' का जप तथा 'गायत्री' का जप एकान्त,सुन्दर स्थान पर करना चाहिए, क्योंकि स्थान या देश का भी बड़ा प्रभाव होता है।
वेद भगवान् का भी आदेश है-
उपह्वरे गिरीणां सङ्गमे च नदीनाम्।
धिया विप्रो अजायत।।ऋ० ८।६।२८।।
"पहाड़ों की गुफाओं में और नदियों के संगम पर ध्यान करने से विद्वान् ब्राह्मण बना करते हैं।"
वेदानुयायी हों या पुराणों के भक्त,तन्त्र-ग्रन्थों पर चलनेवाले हों या अद्वैतवादी,द्वैत मानने वाले हों या त्रित्,कोई भी हों,यदि सारे-के-सारे एक स्थान पर पहुंचकर,एक स्वर से,एक मन होकर एक ही बात कहते हैं तो वह यह है कि 'ओ३म्' ईश्वर के दर्शन का बहुत सुन्दर, सरल और सुगम उपाय है।और तो और,बुद्ध भगवान् के अनुयायी,जिनको नास्तिक कहा जाता है,वे भी 'ओ३म्' का जप करते हैं।
गंगोत्री जाते समय मार्ग में एक ग्राम हर्षल आता है,इसमें तिब्बत और भूटान के लोग आबाद हैं।उन्होंने वहां एक नन्हा-सा मन्दिर बना रखा है,जिसकी लगभग हर ईंट,हर पत्थर पर भूटानी अक्षरों में 'ओ३म् मणी पदमे होम' लिखा है और वे लोग इसी मन्त्र का जप करते हैं।कितना महत्त्वपूर्ण 'ओ३म्' का मन्त्र है!'ओ३म्' का जागते,चलते,बैठे,सोते,जंगल में,बस्ती में,हर समय जप करते रहने का स्वभाव बना लेना बड़ा लाभ देता है।
'ओम्' को ईश्वर के दर्शन का साधन बनाने का यह ढंग है कि यम और नियम के व्रत पूरे करके,दृढ़ आसान लगाकर रेचक,पूरक,कुम्भक प्राणायाम की जो विधि महर्षि स्वामी दयानन्द जी ने सर्व-साधारण के लिए 'सत्यार्थप्रकाश' में अपने पूरे अनुभव से लिखी है,उसके अनुसार प्राणायाम करें।स्वामी जी लिखते हैं-
"जैसे अत्यन्त वेग से वमन होकर अन्न-जल बाहर निकल जाता है,वैसे प्राण को बल से बाहर फेंककर,बाहर की यथाशक्ति रोक देवें।जब बाहर निकलना चाहें,तब मूलेन्द्रिय को ऊपर खींच रखें,जब तक कि प्राण बाहर रहता है।इसी प्रकार प्राण बाहर अधिक ठहर सकता है।जब घबराहट हो,तब धीरे-धीरे वायु को भीतर लेके फिर भी वैसे ही करते जायें, जितना सामर्थ्य और इच्छा हो;परन्तु मन में 'ओम्' इसका जप करते जायें।इस प्रकार करने से आत्मा और मन की पवित्रता और स्थिरता होती है।'बाह्य विषय'अर्थात् बाहर की अधिक रोकना,दूसरा'आभ्यन्तर'अर्थात् भीतर जितना प्राण रोका जाये उतना रोक के,तीसरा 'स्तम्भवृत्ति' अर्थात् एक ही बार जहां-का-तहां प्राण को यथाशक्ति रोक देना,चौथा 'बाह्याभ्यन्तराक्षेपी' अर्थात् जब प्राण भीतर से बाहर आने लगे,तब उसके विरुद्ध न निकलने देने के लिए बाहर से भीतर लें;और जब बाहर से भीतर आने लगे,तब भीतर से बाहर की ओर प्राण को धक्का देकर रोकता जाये।ऐसे एक-दूसरे के विरुद्ध किया करें तो दोनों की गति रुककर प्राण अपने वश में होने से मन और इन्द्रिय भी स्वाधीन होते हैं।बल-पुरुषार्थ बढ़कर बुद्धि तीव्र,सूक्ष्म-रूप हो जाती है और बहुत कठिन तथा सूक्ष्म विषय को शीघ्र ग्रहण करती है।इससे मनुष्य के शरीर में वीर्य वृद्धि को प्राप्त होता है;बल,पराक्रम,जितेन्द्रियता,सब शास्त्रों को थोड़े ही काल में समझकर उपस्थित कर लेगा।स्त्री भी इसी प्रकार योगाभ्यास करे।"
आगे चलकर ऋषि दयानन्द जी महाराज ने लिखा है-"जंगल मे अर्थात् एकान्त में जा,सावधान हो के,जल के समीप स्थित हो के,नित्यकर्म को करता हुआ 'सावित्री' अर्थात् 'गायत्री-मन्त्र' का उच्चारण,अर्थ-ज्ञान और उसके अनुसार अपने चाल-चलन को करे,परन्तु यह जप मन से करना उत्तम है।"
इस प्रकार प्राणायाम तथा 'ओम्' का जप करता हुआ साथ ही भृकुटि या आज्ञा-चक्र में 'ओम् को ध्यान से लिखा देखे।
महर्षि दयानन्द ने उपासना के लिए एकान्त देश का भी उल्लेख किया है,इसलिए इस सम्बन्ध में भी कुछ लिख देना उचित समझता हूँ-
'ओम्' का जप तथा 'गायत्री' का जप एकान्त,सुन्दर स्थान पर करना चाहिए, क्योंकि स्थान या देश का भी बड़ा प्रभाव होता है।
वेद भगवान् का भी आदेश है-
उपह्वरे गिरीणां सङ्गमे च नदीनाम्।
धिया विप्रो अजायत।।ऋ० ८।६।२८।।
"पहाड़ों की गुफाओं में और नदियों के संगम पर ध्यान करने से विद्वान् ब्राह्मण बना करते हैं।"
परन्तु इसका यह प्रयोजन नहीं कि शेष स्थानों,नगरों,ग्रामों या बस्तियों में ईश्वर के दर्शन नही हो सकते;निस्सन्देह हो सकता है।'सांख्यदर्शन'के अन्तिम अध्याय के ३१वें सूत्र में कहा गया है कि ध्यान के लिए किसी पर्वत,वन या गुहा का नियम नहीं है।जहां भी चित्त एकाग्र करने में सुभीता हो,वहीं उपासना और भजन हो सकता है।
जिस प्रकार एक प्रेमी अपने प्रियतम के साथ एकान्त में बैठकर मन की बातें करता है,आप भी अपने प्रियतम से मिलाप का यत्न करते समय,बाकी सब-कुछ भूल जाएं और 'ओ३म्' प्रभु ही में अपने आत्मा को जोड़कर उससे निवेदन करें-
जिस प्रकार एक प्रेमी अपने प्रियतम के साथ एकान्त में बैठकर मन की बातें करता है,आप भी अपने प्रियतम से मिलाप का यत्न करते समय,बाकी सब-कुछ भूल जाएं और 'ओ३म्' प्रभु ही में अपने आत्मा को जोड़कर उससे निवेदन करें-
(१)तुम प्रभु दीनदयाल जी,आय पड़ा हूँ द्वार।
जैसा-कैसा हूँ हरी, कीजै यह न विचार।।
जैसा-कैसा हूँ हरी, कीजै यह न विचार।।
(२)प्रभु वे दिन कब आएंगे,बैठूंगा एकान्त।
नित्य करूं स्वाध्याय को,आप हृदय में शान्त।।
नित्य करूं स्वाध्याय को,आप हृदय में शान्त।।
(३)वर दीजो हे ओ३म् यह,कृपा करो प्रिय नाथ।
ओम् ओम् जपता रहूं,सदा प्रेम के साथ।।
ओम् ओम् जपता रहूं,सदा प्रेम के साथ।।
(४)तोर लगन मन में रहे,जब लग घट में प्राण।
तेरा ही सुमिरन रहे,तेरा ही हो ध्यान।।
तेरा ही सुमिरन रहे,तेरा ही हो ध्यान।।
ऐसी विनती करने के पश्चात् प्राणायाम करें।रेचक,पूरक,कुम्भक आदि प्राणायामों के द्वारा अन्तर की शुद्धि होती है।प्राणायाम के पश्चात् सर्वथा शान्त-स्थिर हो जायें।न शरीर हिले,न मन को कोई चेष्टा करने दीजिए।अपना ध्यान 'ओ३म्' अक्षर में अथवा आज्ञा-चक्र 'भृकुटि' में रखें।इसी को अपना निशाना बना लीजिए।इसी में आपने आत्मा का तीर लगाना है।
पिप्पलाद ऋषि ने ईश्वर के दर्शन का जो साधन बतलाया है,वह यह है-
"ज्ञान के धनुष को पकड़(भारी अस्त्र है)उसमें उपासना,लगातार ध्यान से तेज किये हुए तीर को जोड़ो और फिर केवल उसी सत्ता में लगाया हुआ जो चित्त है,उससे इसको खींचकर,उस अविनाशी लक्ष्य(निशाने)को बींधो।ओंकार धनुष है,आत्मा तीर है और उसका लक्ष्य ब्रह्म कहलाता है।इसको एक अप्रमत्त(पूरा सावधान)पुरूष बींध सकता है और यह तीर की नाई(जो लक्ष्य पर लगकर उसके साथ एकरूप हो गया है,इस प्रकार वह ब्रह्म के साथ)अन्दर-बाहर सब-कुछ भूलकर-तन्मय हो जाये।"
(मुण्डक २।२)
"ज्ञान के धनुष को पकड़(भारी अस्त्र है)उसमें उपासना,लगातार ध्यान से तेज किये हुए तीर को जोड़ो और फिर केवल उसी सत्ता में लगाया हुआ जो चित्त है,उससे इसको खींचकर,उस अविनाशी लक्ष्य(निशाने)को बींधो।ओंकार धनुष है,आत्मा तीर है और उसका लक्ष्य ब्रह्म कहलाता है।इसको एक अप्रमत्त(पूरा सावधान)पुरूष बींध सकता है और यह तीर की नाई(जो लक्ष्य पर लगकर उसके साथ एकरूप हो गया है,इस प्रकार वह ब्रह्म के साथ)अन्दर-बाहर सब-कुछ भूलकर-तन्मय हो जाये।"
(मुण्डक २।२)
श्वेताश्वतर ऋषि ने अपना अनुभव इस प्रकार से प्रकट किया है-
"जैसे आग लकड़ी के अन्दर है,पर उसकी मूर्ति बाहर दिखाई नहीं पड़ती और न ही उसके चिन्ह का नाश होता है।वह आग फिर लकड़ी से ग्रहण की जाती है।लकड़ियों के रगड़ने से उनमें छिपी हुई आग प्रकाशित हो पड़ती है,ऐसे ही 'ओ३म्' के द्वारा आत्मा इस देह में ग्रहण किया जाता है।अपने देह को(नीचे की)अरणि(लकड़ी)बनाकर और 'ओ३म्' को ऊपर की अरणि बनाकर और 'ध्यान-रूपी' रगड़ के अभ्यास से अपने इष्टदेव ईश्वर के दर्शन करो।"
(श्वेता० १।१३।१४)
"जैसे आग लकड़ी के अन्दर है,पर उसकी मूर्ति बाहर दिखाई नहीं पड़ती और न ही उसके चिन्ह का नाश होता है।वह आग फिर लकड़ी से ग्रहण की जाती है।लकड़ियों के रगड़ने से उनमें छिपी हुई आग प्रकाशित हो पड़ती है,ऐसे ही 'ओ३म्' के द्वारा आत्मा इस देह में ग्रहण किया जाता है।अपने देह को(नीचे की)अरणि(लकड़ी)बनाकर और 'ओ३म्' को ऊपर की अरणि बनाकर और 'ध्यान-रूपी' रगड़ के अभ्यास से अपने इष्टदेव ईश्वर के दर्शन करो।"
(श्वेता० १।१३।१४)
'ओ३म्' अद्भुत शक्ति है।यह ईश्वर के दर्शन का अचूक साधन है।सारे वेदों में,सारे प्राचीन ग्रन्थों में,सारे उपनिषदों में इसी एक ओम् ही के द्वारा ईश्वर के दर्शन का आदेश किया गया है।कठ उपनिषद् ने इसी लिए ऊँचे स्वर से गाया है-
एतद्ध्येवाक्षरं ब्रह्म एतद्ध्येवाक्षरं परम्।
एतद्ध्येवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत्।।२।६१।।
एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम्।
एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते।।२।१७।।
एतद्ध्येवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत्।।२।६१।।
एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम्।
एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते।।२।१७।।
"यही (ओम्) अक्षर ब्रह्म है,यही अक्षर परब्रह्म है,इसी अक्षर को जानकर जो,जो कुछ चाहता है,वह,वही पाता है"।।१६।।
"यही श्रेष्ठ सहारा है,यही सबसे बढ़कर सहारा है,इस सहारे को पकड़कर ब्रह्मलोक में मान पाता है"।।१७।।
"यही श्रेष्ठ सहारा है,यही सबसे बढ़कर सहारा है,इस सहारे को पकड़कर ब्रह्मलोक में मान पाता है"।।१७।।
प्रश्न उपनिषद् में कहा है-
जो तीन मात्रा (अ,उ,म) वाले अक्षर से परम पुरुष का ध्यान करता है,वह तेज में(सूर्य में)पहुँचकर जैसे साँप केंचुली से छूट जाता है,इसी प्रकार पाप से छूट जाता है।"
।।प्रश्न० ५।५।।
जो तीन मात्रा (अ,उ,म) वाले अक्षर से परम पुरुष का ध्यान करता है,वह तेज में(सूर्य में)पहुँचकर जैसे साँप केंचुली से छूट जाता है,इसी प्रकार पाप से छूट जाता है।"
।।प्रश्न० ५।५।।
छान्दोग्य उपनिषद् ने 'ओ३म्' के ध्यान की महिमा इस प्रकार गाई है-
"वह ओम् पर ध्यान जमाता हुआ जाता है(जब उसने ब्रह्मलोक को जाना होता है,जो उसने उपासना से जाना है)सो वह जितनी देर में मन फेंका जाता है,उतनी देर में सूर्य में पहुंच जाता है।क्योंकि वह(सूर्य) लोक(ब्रह्मलोक)का द्वार है,जो ज्ञानियों के लिए खुला है और अज्ञानियों के लिए बन्द है।"
(छा० ८।३।५)
"वह ओम् पर ध्यान जमाता हुआ जाता है(जब उसने ब्रह्मलोक को जाना होता है,जो उसने उपासना से जाना है)सो वह जितनी देर में मन फेंका जाता है,उतनी देर में सूर्य में पहुंच जाता है।क्योंकि वह(सूर्य) लोक(ब्रह्मलोक)का द्वार है,जो ज्ञानियों के लिए खुला है और अज्ञानियों के लिए बन्द है।"
(छा० ८।३।५)
श्वेताश्वतर उपनिषद् ने फिर कहा है-
तिलेषु तैलं दधिनीव सर्पिराप: स्त्रोत: स्वरणीषु चाग्नि:।
एवमात्मात्मनि गृह्यतेअसौ सत्येनैनं तपसा योअनुपश्यति।।
१।१५।।
"जैसे तिलों में तेल,दही में मक्खन,स्त्रोतों में जल और अरणियों में अग्नि(पेलने,बिलोने,खोदने और रगड़ने से)ग्रहण किया जाता है,इसी प्रकार परमात्मा भी आत्मा से ग्रहण किया जाता है।यदि कोई सत्य और तप से उसे देखता है,तो एक अद्भुत ज्योति प्रकट हो जाती है;आत्मा परमात्मा को ज्योति-रूप में देखता है।"
तिलेषु तैलं दधिनीव सर्पिराप: स्त्रोत: स्वरणीषु चाग्नि:।
एवमात्मात्मनि गृह्यतेअसौ सत्येनैनं तपसा योअनुपश्यति।।
१।१५।।
"जैसे तिलों में तेल,दही में मक्खन,स्त्रोतों में जल और अरणियों में अग्नि(पेलने,बिलोने,खोदने और रगड़ने से)ग्रहण किया जाता है,इसी प्रकार परमात्मा भी आत्मा से ग्रहण किया जाता है।यदि कोई सत्य और तप से उसे देखता है,तो एक अद्भुत ज्योति प्रकट हो जाती है;आत्मा परमात्मा को ज्योति-रूप में देखता है।"
श्वेताश्वतर के अनुभव में तब-
यदाअतमस्तन्न दिवा न रात्रिर्न सन्न चासच्छिव एव केवल:।
श्वेता० ४।१८।।
"जब प्रकाश उदय होता है,तो वहां न दिन,न रात,न व्यक्त,न अव्यक्त है।वहां केवल शिव है।"
यदाअतमस्तन्न दिवा न रात्रिर्न सन्न चासच्छिव एव केवल:।
श्वेता० ४।१८।।
"जब प्रकाश उदय होता है,तो वहां न दिन,न रात,न व्यक्त,न अव्यक्त है।वहां केवल शिव है।"
सम्पूर्ण विश्व में ही नहीं,सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में ओ३म् शब्द की महिमा है।विपत्ति में,मृत्यु में,ध्यान के अन्तिम क्षणों में बस ओ३म् ही शेष रह जाता है,शेष सब मन्त्र,ज्ञान-विज्ञान धूमिल हो जाता है।पौराणिकों की मूर्तियों व मन्दिरों के ऊपर ओ३म्,आरती में ओ३म्,नवजात शिशु के मुख में ओ३म्,सब स्थानों में ओ३म् ही ओ३म् है।
प्रयत्न करो व ईश्वर के कृपा की प्रतीक्षा करो!दर्शन अवश्य ही होंगे।
No comments:
Post a Comment