दिल्ली विश्वविद्यालय में 'आर्यो के आगमन' विषय पर विमर्श होने वाला है। समाचारों में जिस तरह इसकी सूचना आई उससे लगता है मानो आर्य नामक कोई नृवंशीय नस्ल थी। यह एक भ्रामक धारणा है जिसका आज तक कोई प्रमाण नहीं मिला है। आर्य वाली पूरी बात कुल पौने दो सौ वर्ष पहले उपजी एक कल्पना है। तब से जितने भी शोध हुए वे बताते हैं कि वैदिक भारतीय यहीं के थे। संपूर्ण प्राचीन भारतीय साहित्य यही बताता है कि आर्य, म्लेच्छ, अघोरी आदि कोई नस्ल नहीं, बल्कि मात्र विशेषण थे जो गुण-अवगुण के आधार पर किसी के लिए प्रयुक्त किए जाते थे। यदि फिर भी आर्य आक्रमण या आर्य आगमन सिद्धांत प्रचारित होता रहता है तो विचारणीय यही है कि ऐसा क्यों? श्री अरविंद ने 'भारतीय संस्कृति के आधार' और डॉ. अंबेडकर ने 'अनटचेबल्स: हू वेयर दे' में किन्हीं बाहरी आर्य वाले विचार का खंडन किया। तब से लेकर नवीनतम शोध तक यही दिखाते रहे हैं। हाल में श्री अरविंद के ही विद्वान शिष्य केडी सेठना उर्फ अमल किरण ने 'कर्पसा इन वैदिक इंडिया' में नए तथ्यों से प्रमाणित किया कि आर्य आक्रमण सिद्धांत सही नहीं हो सकता।
सेठना की खोज के मुताबिक हड़प्पा सभ्यता में कपास के उपयोग के प्रचुर प्रमाण हैं, जबकि ऋग्वेद में कपास का कोई उल्लेख नहीं है। कपास ही नहीं, हड़प्पा सभ्यता के अन्य विवरणों से भी पता चलता है कि ऋग्वेद उससे बहुत पहले की सभ्यता है। अत: वैदिक भारतीयों के कहीं और से आने का आधार नहीं मिलता। नवीनतम शोध में अमेरिकी पुरातत्ववेत्ता जिम शेफर ने भी भारत पर आर्य आक्रमण या आगमन सिद्धांत को गलत बताया है। इधर तीन महत्वपूर्ण पुस्तकें और आई हैं। श्रीकांत तलाघेरी की 'द ऋग्वेद एंड अवेस्ता' (2000), कोएनराड एल्स्ट की 'एस्टेरिक इन भारोपीयस्थान' तथा निकोलस कजानास की 'इंडो-आर्यन ओरिजिन्स' (2010)। यह पुस्तकें विस्तार से इतना नि:संदेह प्रमाणित कर देती हैं कि 'आर्य' कोई नस्ल नहीं थी। यह शब्द भद्र, सज्जन, सुसंस्कृत आदि गुण बताने वाला व्यक्तिवाचक विशेषण ही रहा है, जो उत्तार और दक्षिण भारतीय भाषाओं में समान अर्थ रखता है। 'आर्य आक्रमण सिद्धांत' का उदय अनुमानों, कल्पनाओं के आधार पर हुआ और औपनिवेशिक अंग्रेज सत्ता तथा ईसाई मिशनरी तंत्र ने इसका उपयोग भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और समाज को विभाजित करने में किया। आज भी इसका उपयोग भारत-विरोधी, हिंदू-विरोधी राजनीतिक प्रचार में हो रहा है। आर्य आक्रमण सिद्धांत को हमारे नेताओं, बुद्धिजीवियों की लापरवाही तथा अंतरराष्ट्रीय चर्च संगठनों की वित्ताीय, कूटनीतिक, संगठित ताकत मिलकर गुल खिला रही है। उनकी प्रेरणा से अनगिनत देशी-विदेशी प्रचारक अतिरंजित भेदों को आधार बनाकर भारत को विखंडित कर तोड़ने-लड़ाने के खुले षड्यंत्र में लगे हुए हैं।
हाल में दुर्गापूजा के समय मिशनरी पोषित संगठनों ने दुर्गा को 'बाहरी आर्य' और महिषासुर को 'देशी अनार्य' कहकर महिषासुर पूजा का प्रचार करने की कोशिश की थी। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि भारत-हिंदू-विरोधी मुहिम को छल-बल पूर्वक मजबूत किया जा सके। आर्य मुद्दे पर खोज करने पर तमाम आश्चर्यजनक बातें मिलती हैं। दो सौ वर्ष पहले तक कल्पना यही थी कि आयरें का मूल स्थान भारत था, जहां से वे दूसरे महाद्वीपों में गए। इसके सांस्कृतिक, भाषाई, धार्मिक, साहित्यिक आदि संकेत भी विभिन्न देशों में मिलते थे। प्रसिद्ध यूरोपीय दार्शनिक इमैन्युल कांट और वाल्तेयर जैसे कई विद्वान मानते थे कि भारतीय-यूरोपीय (भारोपीय) जाति का मूल स्थान भारत था। यह विचार 19वीं सदी के आरंभ तक रहा। किंतु 1830 के लगभग यह कहना शुरू हुआ कि वह मूल स्थान पूर्वी-मध्य यूरोप था, जहां से भारोपीय जाति दूसरी जगहों पर गई। यही 'आर्य आक्रमण सिद्धांत' का आरंभ था। उसी से कल्पना की गई कि भारत पर उन आयरें का आक्रमण हुआ होगा जो इसे जीतकर यहीं बस गए। फिर उन्होंने यहां के मूल अनार्य निवासियों से संबंध जोड़े, जिससे उनका गोरा रंग भूरा हो गया, जबकि दक्षिण भारतीय लोग यहीं के थे जो काले रंग के थे। यह कहने वाले विदेशी ईसाई मिशनरी थे। मैक्स मूलर जैसे प्रसिद्ध भारतविद् ने भी यही किया। बाद में 'आर्य आक्रमण' सिद्धांत का राजनीतिक उपयोग होने लगा। अंग्रेजों ने इसे बड़ा उपयोगी पाया कि भारत पर 'बाहरी' शासन पहले भी रहा है। इस तरह भारत पर अंग्रेजी राज की सहज वैधता के लिए तथा यहां उत्तार तथा दक्षिण के बीच तथा उच्च जाति और निम्न जाति के बीच फूट डालने के लिए, बल्कि हर तरह के अलगाववादी विचार को वैचारिक आधार देने के लिए 'आर्य आक्रमण' का विचार बहुत मुफीद था। फलत: हर तरह की अलगाववादी धाराओं ने, विशेषकर ब्राह्मण विरोधी द्रविड़वादी नेताओं ने इसे कसकर पकड़ लिया। अंग्रेजों और मिशनरियों ने उन्हें हरसंभव प्रोत्साहन दिया। उनके विरुद्ध जस्टिस पार्टी जैसे धुर ब्राह्मण विरोधी, द्रविड़-अलगाववादी, विभाजनकारी आंदोलन को अंग्रेजों ने भरपूर सहायता दी। आज भी द्रविड़ विशेषकर तमिल अलगाववाद का मूल स्नोत उस 'आर्य आक्रमण सिद्धांत' में ही है। इसके बिना कथित द्रविड़वाद के पास कोई वैचारिक आधार नहीं। स्वयं डॉ. अंबेडकर जैसे विद्वान और सबसे बड़े दलित नेता द्वारा 'आर्य आक्रमण सिद्धांत' को गलत मानने के बावजूद आज के दलित नेता उसी सिद्धांत को पकड़े हुए हैं, आखिर क्यों? इसीलिए कि अलगाववादी राजनीति के लिए वह उपयोगी है।
आर्य नस्ल वाली कल्पना को खारिज करके यहां आपसी अलगाव जैसी भावना भरने, तदनुरूप घृणा और लड़ाई करने का कोई ठोस कारण न पहले था और न आज है। कुछ जातियों को 'आर्य', 'वैदिक' तथा दूसरों को 'अनार्य' या 'द्रविड़' कहकर जो विखंडनकारी राजनीति मजे से चलती है वह उस सिद्धांत के बिना निराधार हो जाती है। अंग्रेजों द्वारा प्रचारित-प्रसारित विचार आज भी विदेशी मिशनरी की सक्रियता और समर्थन से ही हमारे अकादमिक-राजनीतिक वर्ग में जमा हुआ है। इसकी सच्चाई सबको बताई जानी चाहिए।
[लेखक एस. शंकर, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं]
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