Monday, February 19, 2018

वेदों के शिव



वेदों के शिव

प्रियांशु सेठ

हिन्दू समाज में मान्यता है कि वेद में उसी शिव का वर्णन है जिसके नाम पर अनेक पौराणिक कथाओं का सृजन हुआ है। उन्हीं शिव की पूजा-उपासना वैदिक काल से आज तक चली आती है। किन्तु वेद के मर्मज्ञ इस विचार से सहमत नहीं हैं।उनके अनुसार वेद तथा उपनिषदों का शिव निराकार ब्रह्म है।

पुराणों में वर्णित शिव जी परम योगी और परम ईश्वरभक्त थे। वे एक निराकार ईश्वर "ओ३म्" की उपासना करते थे। कैलाशपति शिव वीतरागी महान राजा थे। उनकी राजधानी कैलाश थी और तिब्बत का पठार और हिमालय के वे शासक थे। हरिद्वार से उनकी सीमा आरम्भ होती थी। वे राजा होकर भी अत्यंत वैरागी थे। उनकी पत्नी का नाम पार्वती था जो राजा दक्ष की कन्या थी। उनकी पत्नी ने भी गौरीकुंड, उत्तराखंड में रहकर तपस्या की थी। उनके पुत्रों का नाम गणपति और कार्तिकेय था। उनके राज्य में सब कोई सुखी था। उनका राज्य इतना लोकप्रिय हुआ कि उन्हें कालांतर में साक्षात् ईश्वर के नाम शिव से उनकी तुलना की जाने लगी।


वेदों के शिव--

हम प्रतिदिन अपनी सन्ध्या उपासना के अन्तर्गत नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च(यजु० १६/४१)के द्वारा परम पिता का स्मरण करते हैं।

अर्थ- जो मनुष्य सुख को प्राप्त कराने हारे परमेश्वर और सुखप्राप्ति के हेतु विद्वान् का भी सत्कार कल्याण करने और सब प्राणियों को सुख पहुंचाने वाले का भी सत्कार मङ्गलकारी और अत्यन्त मङ्गलस्वरूप पुरुष का भी सत्कार करते हैं,वे कल्याण को प्राप्त होते हैं।

इस मन्त्र में शंभव, मयोभव, शंकर, मयस्कर, शिव, शिवतर शब्द आये हैं जो एक ही परमात्मा के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुए हैं।

वेदों में ईश्वर को उनके गुणों और कर्मों के अनुसार बताया है--

त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।
                    -यजु० ३/६०
विविध ज्ञान भण्डार, विद्यात्रयी के आगार, सुरक्षित आत्मबल के वर्धक परमात्मा का यजन करें। जिस प्रकार पक जाने पर खरबूजा अपने डण्ठल से स्वतः ही अलग हो जाता है वैसे ही हम इस मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जायें, मोक्ष से न छूटें।

या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी।
तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्ताभि चाकशीहि।।
                         -यजु० १६/२
हे मेघ वा सत्य उपदेश से सुख पहुंचाने वाले दुष्टों को भय और श्रेष्ठों के लिए सुखकारी शिक्षक विद्वन्! जो आप की घोर उपद्रव से रहित सत्य धर्मों को प्रकाशित करने हारी कल्याणकारिणी देह वा विस्तृत उपदेश रूप नीति है उस अत्यन्त सुख प्राप्त करने वाली देह वा विस्तृत उपदेश की नीति से हम लोगों को आप सब ओर से शीघ्र शिक्षा कीजिये।

अध्यवोचदधिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक्।
अहीँश्च सर्वाञ्जम्भयन्त्सर्वाश्च यातुधान्योऽधराची: परा सुव।।
                             -यजु० १६/५
हे रुद्र रोगनाशक वैद्य! जो मुख्य विद्वानों में प्रसिद्ध सबसे उत्तम कक्षा के वैद्यकशास्त्र को पढ़ाने तथा निदान आदि को जान के रोगों को निवृत्त करनेवाले आप सब सर्प के तुल्य प्राणान्त करनेहारे रोगों को निश्चय से ओषधियों से हटाते हुए अधिक उपदेश करें सो आप जो सब नीच गति को पहुंचाने वाली रोगकारिणी ओषधि वा व्यभिचारिणी स्त्रियां हैं, उनको दूर कीजिये।

या ते रुद्र शिवा तनू: शिवा विश्वाहा भेषजी।
शिवा रुतस्य भेषजी तया नो मृड जीवसे।।
                     -यजु० १६/४९
हे राजा के वैद्य तू जो तेरी कल्याण करने वाली देह वा विस्तारयुक्त नीति देखने में प्रिय ओषधियों के तुल्य रोगनाशक और रोगी को सुखदायी पीड़ा हरने वाली है उससे जीने के लिए सब दिन हम को सुख कर।

उपनिषदों में भी शिव की महिमा निम्न प्रकार से है-

स ब्रह्मा स विष्णु: स रुद्रस्स: शिवस्सोऽक्षरस्स: परम: स्वराट्।
स इन्द्रस्स: कालाग्निस्स चन्द्रमा:।।
                 -कैवल्यो० १/८
वह जगत् का निर्माता, पालनकर्ता, दण्ड देने वाला, कल्याण करने वाला, विनाश को न प्राप्त होने वाला, सर्वोपरि, शासक, ऐश्वर्यवान्, काल का भी काल, शान्ति और प्रकाश देने वाला है।

प्रपंचोपशमं शान्तं शिवमद्वैतम् चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः।।७।।
     -माण्डूक्य०
प्रपंच जाग्रतादि अवस्थायें जहां शान्त हो जाती हैं, शान्त आनन्दमय अतुलनीय चौथा तुरीयपाद मानते हैं वह आत्मा है और जानने के योग्य है।
यहां शिव का अर्थ शान्त और आनन्दमय के रूप में देखा जा सकता है।

सर्वाननशिरोग्रीव: सर्वभूतगुहाशय:।
सर्वव्यापी स भगवान् तस्मात्सर्वगत: शिव:।।
                       -श्वेता० ४/१४
जो इस संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का कर्ता एक ही है, जो सब प्राणियों के हृदयाकाश में विराजमान है, जो सर्वव्यापक है, वही सुखस्वरूप भगवान् शिव सर्वगत अर्थात् सर्वत्र प्राप्त है।
इसे और स्पष्ट करते हुए कहा है-
सूक्ष्मातिसूक्ष्मं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य सृष्टारमनेकरुपम्।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्तमेति।।
                         -श्वेता० ४/१४
परमात्मा अत्यन्त सूक्ष्म है, हृदय के मध्य में विराजमान है, अखिल विश्व की रचना अनेक रूपों में करता है। वह अकेला अनन्त विश्व में सब ओर व्याप्त है। उसी कल्याणकारी परमेश्वर को जानने पर स्थाई रूप से मानव परम शान्ति को प्राप्त होता है।

नचेशिता नैव च तस्य लिंङ्गम्।।
               -श्वेता० ६/९
उस शिव का कोई नियन्ता नहीं और न उसका कोई लिंग वा निशान है।

योगदर्शन में परमात्मा की प्रतीति इस प्रकार की गई है-

क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:।। १/१/२४

जो अविद्यादि क्लेश, कुशल, अकुशल, इष्ट, अनिष्ट और मिश्र फलदायक कर्मों की वासना से रहित है, वह सब जीवों से विशेष ईश्वर कहाता है।

स एष पूर्वेषामपि गुरु: कालेनानवच्छेदात्।। १/१/२६

वह ईश्वर प्राचीन गुरुओं का भी गुरु है। उसमें भूत भविष्यत् और वर्तमान काल का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है,क्योंकि वह अजर, अमर नित्य है।


महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने भी अपने पुस्तक सत्यार्थप्रकाश में निराकार शिवादि नामों की व्याख्या इस प्रकार की है--

(रुदिर् अश्रुविमोचने) इस धातु से 'णिच्' प्रत्यय होने से 'रुद्र' शब्द सिद्ध होता है।'यो रोदयत्यन्यायकारिणो जनान् स रुद्र:' जो दुष्ट कर्म करनेहारों को रुलाता है, इससे परमेश्वर का नाम 'रुद्र' है।

यन्मनसा ध्यायति तद्वाचा वदति, यद्वाचा वदति तत् कर्मणा करोति यत् कर्मणा करोति तदभिसम्पद्यते।।

यह यजुर्वेद के ब्राह्मण का वचन है।

जीव जिस का मन से ध्यान करता उस को वाणी से बोलता, जिस को वाणी जे बोलता उस को कर्म से करता, जिस को कर्म से करता उसी को प्राप्त होता है। इस से क्या सिद्ध हुआ कि जो जीव जैसा कर्म करता है वैसा ही फल पाता है। जब दुष्ट कर्म करनेवाले जीव ईश्वर की न्यायरूपी व्यवस्था से दुःखरूप फल पाते, तब रोते हैं और इसी प्रकार ईश्वर उन को रुलाता है, इसलिए परमेश्वर का नाम 'रुद्र' है।

(डुकृञ् करणे) 'शम्' पूर्वक इस धातु से 'शङ्कर' शब्द सिद्ध हुआ है। 'य: शङ्कल्याणं सुखं करोति स शङ्कर:' जो कल्याण अर्थात् सुख का करनेहारा है, इससे उस ईश्वर का नाम 'शङ्कर' है।

'महत्' शब्द पूर्वक 'देव' शब्द से 'महादेव' शब्द सिद्ध होता है। 'यो महतां देव: स महादेव:' जो महान् देवों का देव अर्थात् विद्वानों का भी विद्वान्, सूर्यादि पदार्थों का प्रकाशक है, इस लिए उस परमात्मा का नाम 'महादेव' है।

(शिवु कल्याणे) इस धातु से 'शिव' शब्द सिद्ध होता है। 'बहुलमेतन्निदर्शनम्।' इससे शिवु धातु माना जाता है, जो कल्याणस्वरूप और कल्याण करनेहारा है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम 'शिव' है।


निष्कर्ष- उपरोक्त लेख द्वारा योगी शिव और निराकार शिव में अन्तर बतलाया है। ईश्वर के अनगिनत गुण होने के कारण अनगिनत नाम है। शिव भी इसी प्रकार से ईश्वर का एक नाम है। आईये निराकार शिव की स्तुति, प्रार्थना एवं उपासना करे।



17 comments:

  1. Apni bat sahi siddh karne ke liye bhgawan shiv ko keval yogi raja bata rahe ho...murkhta ki bhi had hoti he....ye mana ki vedo me shiv ke nam gun vachak he....per isse ye sidh nahi ho jata ke sakar shiv jiski puja sansar karta he vo koi sadharan yogi ya raja he...

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  2. शिव ईश्वर है,

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  3. ये भंड प्रचार मत करिए,
    शिव ईश्वर था हैं और रहेगा,
    शिव एक राजा था तो बोलिए उसका पिता अर माता का नाम क्या है ?
    ऐसे भंड प्रचार बंद करिए,

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    1. शिव ही शिव है हर ओर शिव ही शिव है । ॐ नमः शिवाय। आपकी बात सही है अगर वो एक राजा राजा है तो उनके माता पिता कोंन है ।ये नहीं बोल के गए स्वामी दयानंद ।

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  4. शिव वेदो का सार है
    पुराणो के आधार हैं
    सनातन की पहचान हैं
    परमपरमेश्वर शिव शुन्य हैं

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  5. शिव वेदो का सार है
    पुराणो के आधार हैं
    सनातन की पहचान हैं
    परमपरमेश्वर शिव शुन्य हैं

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  6. Insaan m 4 kalaye hoti hai rishi munni saint m 5-6 kalaye hoti h aur vishnu ji ke kush avtar m 10 kalaye thi bhagwaan ram m 12 kalaye thi vahi krishna ji m 16 kalaye thi aur jisme 16 kalaye hoti hai ve ishwar tulya hota h ya ishwar hi hota hai aur jo ye 16 kalayo ke bhi pare h ve bhagwaan shiv hai

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  7. Shiv Tu suyam Suyambhu h aur bhagwaan narayan ko bhi Suyambhu btaya gaya hai aur maa adi Prashaakti ko bhi Suyambhu bataya gaya hai

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  8. Swam bhagwan Krishna ne arjun ko apna virat roop dikaya jisme ananat universe samay hue thae aur kaha ki mene hi sabko utpann kiya hain mujhe kisi NE nahi aur Jo ye shivji durga Ji Ganesh Ji kartikye Ji etc sab mere hi roop hain mere hi ansh hain magar sab ek hi hain bhagwan Mein koi bhi chota bada nahi hain ye bhi asli sacchai hain

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    1. श्री कृष्ण और अर्जुन के द्रोण पर्व के अध्याय 80 में भगवान शिव का दर्शन करते हैं और उन्हें प्रणाम करते हैं –

      वासुदेवस्तु तं दृष्ट्वा जगाम शिरसा क्षितिम ।
      पार्थेन सह धर्मात्मा गृणन ब्रम्ह सनातनम ।।

      अर्थात – अर्जुन सहित धर्मात्मा वासुदेवनंदन कृष्ण ने भगवान शिव को देखा पृथ्वी पर माथा टेक कर प्रणाम किया और उन सनातन ब्रम्ह स्वरुप भगवान शिव की स्तुति करने लगे –

      लोकादिं विश्वकर्माणमजमीशानमव्ययम् ।
      मनसः परमं योनिं खं वायुं ज्योतिषां निधिम ।।
      स्रष्टारं वारिधराणां भुवश्च प्रकृतिं पराम ।
      देवदानवयक्षाणां मानवानां च साधनम ।।
      योगानां च परं धाम दृष्टं ब्रम्हविदां निधिम ।
      चराचरस्य स्रष्टारं प्रतिहर्तारमेव च ।।
      कालकोपं महात्मानं शक्रसूर्यगुणोदयम ।
      ववन्दे तं तदा कृष्णो वाञ्गनोबुद्धिकर्मभि ।।

      अर्थात – वे(शिव) जगत के आदि कारण, लोकस्रष्टा,अजन्मा, ईश्वर, अविनाशी, मन की उत्पत्ति के प्रधान कारण ,आकाश और वायुस्वरुप ,तेज के आश्रय, जल की सृष्टि करने वाले, पृथ्वी के भी परम कारण , देवताओं, दानवों और यक्षों के भी प्रधान कारण, संपूर्ण योगों के परम आश्रय, ब्रम्हवेत्ताओं की प्रत्यक्ष निधि, चराचर जगत की सृष्टि और संहार करने वाले , इंद्र के ऐश्वर्य आदि और सूर्यदेव के प्रताप आदि गुणों को प्रगट करने वाले परमात्मा थे ।उनके क्रोध में काल का निवास था । उस समय भगवान श्रीकृष्ण ने मन, वाणी, बुद्धि और क्रिया के द्वारा भगवान शिव की स्तुति की ।


      अंधे हो चुके कृष्ण भक्तों को महाभारत की ये बातें भी पढ़ने चाहिए।

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    2. महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 18 में श्रीकृष्ण द्वारा शिव की महिमा का वर्णन हुआ है।[1]
      श्रीकृष्ण द्वारा शिव की महिमा का वर्णन
      भगवान श्रीकृष्ण बोले- राजन! सूर्य के समान तपते हुए-से तेजस्वी उपमन्यु ने मेरे समीप कहा था कि ‘जो पापकर्मी मनुष्य अपने अशुभ आचरणों से कलुशित हो गये हैं, वे तमोगुणी या रजोगुणी वृति के लोग भगवान शिव की शरण नहीं लेते हैं। ‘जिनका अन्तःकारण पवित्र है, वे ही द्विज महादेव जी की शरण लेते हैं जो परमेश्वर शिव का भक्त है, वह सब प्रकार से बर्तता हुआ भी पवित्र अन्तःकरण वाले वनवासी मुनियों के समान है। ‘भगवान रुद्र संतुष्ट हो जाये तो वे ब्रह्मपद, विष्णुपद, देवताओं सहित देवेन्द्र पद अथवा तीनों लोकों का आधिपत्य प्रदान कर सकते है। ‘तात! जो मनुष्य मन से भी भगवान शिव की शरण लेते हैं, वे सब पापों का नाश करके देवताओं साथ निवास करते हैं। ‘बारंबार तालाब के तटभूमि को खोद-खोदकर उन्हें चौपट कर देने वाला और इस सारे जगत को जलती आग में झोंक देने वाला पुरुष भी यदि महादेव जी की आराधना करता है तो वह पाप से लिप्त नहीं होता है। ‘समस्त लक्षणों से हीन अथवा सब पापों से युक्त मनुष्य भी यदि अपने हदय से भगवान शिव का ध्यान करता है तो वह अपने सारे पापों को नष्ट कर देता है। ‘केशव! कीट, पतंग, पक्षी तथा पशु भी यदि महादेव जी की शरण में आ जायं तो उन्हें भी कहीं किसी का भय नहीं प्राप्त होता है। ‘इसी प्रकार इस भूतलपर जो मानव महादेव जी के भक्त हैं, वे संसार के अधीन नहीं होते-यह मेरा निश्चित विचार है।’ तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण स्वयं भी धर्मपुत्र युधिष्ठिर कहा-[1]

      श्रीकृष्ण बोले- अजमीढ वंशी धर्मराज! जे सूर्य, चन्द्रमा, वायु, अग्नि, स्वर्ग, भूमि, जल, वसु, विश्वदेव, धाता, अर्यमा, शुक्र, बृहस्पति, रुद्रगण, साध्यगण, राजा वरुण, ब्रह्मा, इन्द्र, वायुदेव, उकार, सत्य, वेद, यज्ञ, दक्षिणा, वेदपाठी, सोमरस, यजमान, हवनीय, हविष्य, रक्षा, दीक्षा, सब प्रकार के संयम, स्वाहा, वौषट, गौ, श्रेष्ठ धर्म, कालचक्र, बल, यश, दम,बुद्धिमानों की स्थिति, शुभाशुभ कर्म, सप्तर्षि, श्रेष्ठ बुद्धि, मन, दर्शन, श्रेष्ठ स्पर्श, कर्मों की सिद्धि, सोमप, लेख, याम, तथा तुषित आदि देवगण, दीप्तिशाली गन्धप, धूमप ऋषि, वाग्निरुद्ध और मनोविरुद्ध भाव, शुद्धभाव, निर्माण-कार्य में तत्पर रहने वाले देवता, स्पर्शमात्र से भोजन करने वाले, दर्शनमात्र से पेय रस का पान करने वाले, घृत पीने वाले हैं, जिनके संकल्प करने मात्र से अभीष्ट वस्तु नेत्रों के समक्ष प्रकाशित होने लगती है, ऐसे जो देवताओं मे मुख्य गण है, जो दूसरे-दूसरे देवता हैं, जो सुपर्ण, गन्धर्व, पिशाच, दानव, यक्ष, चारण तथा नाग हैं, जो स्थूल, सूक्ष्म, कोमल, असूक्ष्म, सुख, इस लोक के दुःख,परलोक के दुःख, सांख्य, योग एवं पुरुषार्थों में श्रेष्ठ मोक्षरूप परम पुरुषार्थ बताया गया है, इन सबको तुम महादेव जी से ही उत्पन्न हुआ समझो। जो इस भूतल में प्रवेश करके महादेव जी की पूर्वकृत सृष्टि की रक्षा करते है, जो समस्त जगत्के रक्षक,विभिन्न प्राणियोंकी सृष्टि करने वाले और श्रेष्ठ हैं, वे सम्पूर्ण देवता भगवान शिवसे ही प्रकट हुए है।। ऋषि-मुनि तपस्याद्वारा जिसका अन्वेषण करते हैं, उस सदा स्थिर रहने वाले अनिर्वचनीय परम सूक्ष्म तत्त्वस्वरूप सदा शिव को मैं जीवन-रक्षा के लिये नमस्कार करता हूँ। जिन अविनाशी प्रभु की मेरे द्वारा सदा ही स्तुति की गयी है, वे महादेव यहाँ मुझे अभीष्ट वरदान दें। जो पुरुष इन्द्रियों को वश में करके पवित्र होकर इस स्तोत्र का पाठ करेगा और नियमपूर्वक एक मास तक अखण्डरूप से इस पाठ को चलाता रहेगा, वह अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त कर लेगा। कुन्तीनन्दन! इसके पाठ से सम्पूर्ण वेदों के स्वाध्याप का फल पाता है। क्षत्रिय समस्त पृथ्वी पर विजय प्राप्त कर लेता है। वैश्य व्यापार कुशलता एवं महान लाभ का भागी होता है और शुद्र इहलोक में सुख तथा परलोक में सद्गति पाता है। जो लोग सम्पूर्ण दोषों का नाश करने वाले इस पुण्यजनक पवित्र स्तवराज का पाठ करके भगवान रुद्र के चिन्तन में मन लगाते हैं, वे यशस्वी होते हैं। भरतनन्दन! मनुष्य के शरीर मे जितने रोमकूप होते हैं, इस स्तोत्र का पाठ करने वाला मनुष्य उतने ही हजार वर्षो तक स्वर्ग में निवास करता है।[2]

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  9. Swam bhagwan Krishna ke ansh hain Maha vishnu Jo ananat universe ke ekmatra swami unse sada shiv aur adishakti nikale jaise doodh se hi dahi aur unhi Maha vishnu ke ansh hain ananat universe ke ananat bramha vishnu Mahesh durga ganesh etc unke ansh hain ek ek Universe ke Governor yahi sacchai hain sabhi vedshashtra ka nichoad hain magar bhagwan Mein chota bada nahi hain ye bhi asli sacchai hain

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    1. पूर्णतया मूर्खता वाली बात ये बातें अंधे कृष्ण और विष्णु भक्तों द्वारा बनाई गयी है।

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  10. श्री कृष्ण और अर्जुन की शिव की एक साथ स्तुति :
    इसके बाद भगवान शिव कृष्ण और अर्जुन से पूछते हैं कि हे नर श्रेष्ठों आपका आगमन किस प्रयोजन से हुआ है ।आप जिस भी कार्य के लिए आए हैं मैं वह सब सिद्ध कर दूंगा, मैं आप दोनों को सब कुछ दे सकता हूं । भगवान शिव का यह वचन सुनकर तब श्री कृष्ण और अर्जुन आनंदित होकर हाथ जोड़ कर भगवान शिव की अराधना करने लगते हैं –

    नमो भवाय शर्वाय रुद्राय वरदाय च ।
    पशूनां पतये नित्यमुग्राय च कपर्दिने ।।
    महादेवाय भीमाय त्रयम्बकाये च शान्तये ।
    ईशानाय मखघ्नाय नमोSस्तवन्धकघातिने।।
    कुमारगुरवे तुभ्यं नीलग्रीवाय वेधसे ।
    पिनाकिने हविष्याय सत्याय विभवे सदा ।।
    विलोहिताय ध्रूमाय व्याधायानपराजिते ।
    नित्यनीलशिखंडाये शूलिने दिव्यचक्षुषे ।।
    हन्त्रे गोप्त्रे त्रिनेत्राय व्याधाय वसुरेतसे ।
    अचिन्तयायाम्बिकाभर्ते सर्वदेवस्तुताय च ।।
    वृषध्वाजय मुण्डाय जटिने ब्रम्हचारिणे ।
    तप्यमानाये सलिले ब्रम्हण्यायाजिताय च ।।
    विश्वात्मने विश्वसृजे विश्वमावृत्य तिष्ठते ।
    नमो नमस्ते सेव्याय भूतानां प्रभवे सदा ।।
    ब्रम्ह वक्त्राय सर्वाय शंकराय शिवाय च ।
    नमोस्तुते वाचस्पतये प्रजानां पतये नमः ।।
    नमो विश्वस्य पतये महतां पतये नमः ।
    नमः सहस्त्रशिरसे सहस्त्रभुजमृत्यवे ।।
    सहस्त्रनेत्रपादाय नमोSसंख्येयकर्मणे ।
    नमो हिरण्यवर्णाय हिरण्यकवचाय च ।
    भक्तानुकंपिने नित्यं सिध्यतां नो वरः प्रभु।।
    महाभारत, द्रोण पर्व , अध्याय 80

    अर्थात: श्री कृष्ण और अर्जुन बोले – भव (सबकी उत्पत्ति करने वाले ), शर्व (संहारकारी), रुद्र (दुख दूर करने वाले ), वरदाता, पशुपति सदा उग्र रुप में रहने वाले जटाजूटधारी भगवान शिव को नमस्कार है ।

    महान देवता, भयंकर रुपधारी, त्रिनेत्र धारण करने वाले, शांति स्वरुप, सबका शासन करने वाले , दक्ष के यज्ञ के नाशक, तथा अंधकासुर का विनाश करने वाले भगवान शंकर को नमस्कार है ।

    हे प्रभु ! आप कुमार कार्तिकेय के पिता, कंठ में नील चिन्ह धारण करने वाले लोकसृष्टा, पिनाक धनुष धारण करने वाले, हविष्य के अधिकारी, सत्य स्वरुप और सर्वत्र व्यापक हैं ।आपको सदैव नमस्कार है ।

    हे शिव आप विशेष लोहित और धूम्रवर्ण वाले हैं, मृगव्याध स्वरुप, समस्त प्राणियों को पराजित करने वाले, त्रिशूलधारी, दिव्यलोचन, संहारक, पालक, त्रिनेत्रधारी, पापरुपी मृगों के बधिक, हिरण्यरेता (अग्नि), अचिन्त्य, अंबिकापति, संपूर्ण देवताओं द्वारा प्रशंसित,वृषभ चिन्ह से युक्त ध्वजा धारण करने वाले, मुंडित मस्तक, जटाधारी, ब्रम्हचारी, जल में तप करने वाले, ब्राह्मण भक्त, अपराजित, विश्वात्मा, विश्वसृष्टा, विश्व को व्यापत करके स्थित सबके सेवन करने के योग्य तथा समस्त प्राणियों के कारणभूत हैं । आपको बार बार नमस्कार है ब्राह्ण जिनके मुख हैं, उन सर्वस्वरुप कल्याणकारी भगवान शिव को नमस्कार है । वाणी के अधिश्वर और प्रजाओं के पालक आपको नमस्कार है ।

    विश्व के स्वामी और महापुरुषों के पालक भगवान शिव को नमस्कार है, जिनके हजारों सिर और हजारों भुजाएं हैं , जो मृत्यु स्वरुप है और जिनके नेत्र और पैर भी हजारों की संख्या में हैं तथा जिनके कर्म असंख्य हैं उन भगवान शिव को नमस्कार है । सोने के समान जिनका रंग है ,जो सोने के कवच धारण करते हैं । उन भक्तवत्सल भगवान शिव को मेरा नमस्कार है । हे प्रभों आप हमें इच्छित वर दें ।

    कृष्ण और अर्जुन की शिव की एक साथ स्तुति
    भगवान शिव का कृष्ण- अर्जुन को वर देना :
    कृष्ण- अर्जुन को वर देना
    भगवान शिव, श्रीकृष्ण और अर्जुन की स्तुति से प्रसन्न हो जाते हैं और वर मांगने के लिए कहते हैं ।तब भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को वर मांगने के लिए कहते हैं। अर्जुन भगवान शिव से पशुपातास्त्र को वास्तविक रुप में प्राप्त करने का वरदान मांगते हैं, भगवान शिव अर्जुन की भक्ति से प्रसन्न होकर वही पशुपातास्त्र देते हैं जो उन्होंने पहले अर्जुन की तपस्या से प्रसन्न होकर देने का वचन दिया था भगवान शिव इस बार पशुपातास्त्र को अर्जुन के उपयोग के लिए जाग्रत कर देते हैं । इसके बाद स्वप्न में ही श्रीकृष्ण अर्जुन को लेकर वापस कुरुक्षेत्र लौट जाते हैं और अगले दिन अर्जुन जयद्रथ का वध कर देते हैं

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  11. Ishwar ek he or wo kon h hume pta nhi parantu mene jb ved or puran ko dhyan se padha toh pta chla ek hi Ishwar h or wo om he or om or koi nhi svayam shiv bhagwan hi he

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  12. एक गलती प्रजापति दक्ष ने की थी भगवान महादेव का अपमान कर कर और दक्ष का सिर काट दिया था वीरभद्र ने और वकरे का सिर लगा दिया था,
    दक्ष भी वृहमपुत्र था और अधिक ज्ञानी भी

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