(शिवरात्रि ऋषिबोधत्सव पर विशेष रूप से प्रकाशित)
-अमर हुतात्मा स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज
क्या 27 वीं बार फिर व्याख्यान सुन, बाद में चार आने भेंट चढ़ा कर पल्ला छुड़ाओगे? ऋषि ने तुम्हें सीधा मार्ग दिखाया था, उस पर चलने की कभी तुम्हारी बारी आयेगी वा नहीं?
ऋषि दयानन्द ने जन्म से मृत्यु पर्यन्त ब्रह्मचारी रहकर दिखा दिया। कटा तुम्हें ब्रह्मचर्य के पालन का बोध अभी हुआ है वा नहीं? यदि विद्यार्थी और अविवाहित हो, तो क्या वीर्य का संयम करके पवित्र वेद का अध्ययन करते हो? यदि गृहस्थ हो तो ऋतुगामी होने का दावा कर सकते हो, वा प्रामाणिक व्यभिचार में ही लिप्त हो? यदि अध्यापक हो तो कहीं अब्रह्मचारी रह कर तो ब्रह्मचारियों के पथ प्रदर्शक नहीं न रहे?
प्रकृति पूजा का अनौचित्य समझ कर ऋषि दयानन्द ने उसका खंडन किया और ईश्वर पूजा का समर्थन किया। परमात्मा देव में निमग्न होकर उन्होंने इस संसार को त्याग दिया। क्या तुम नियमपूर्वक दोनों काल प्रेम से संध्या करते हो वा केवल खंडन में ही अपने कर्त्तव्य की इति श्री कर देते हो? क्या तुम्हारी संध्या तोते की रटन्त ही है वा कभी उस समय की हुई प्रतिज्ञाओं पर अमल भी शुरू किया है? क्या सदा कड़े खंडन द्वारा सर्व साधारण को धर्म के शत्रु ही बनाते रहोगे या उपासना द्वारा पवित्र होकर गिरे से गिरे व्यक्तियों को उठाकर धर्म की ओर खींचने में कृत कार्य होना चाहोगे?
क्या तुम्हारा धर्मभाव और सिद्धांत प्रेम अन्यों की निर्बलताओं को जगत प्रसिद्द करने में ही व्यय होगा, वा तुम कभी अपने सदाचार को ऊंचे ले जाकर निर्बलों को ऊपर उठाने का भी प्रयत्न करोगे?
ऋषि ने योगाभ्यास से अलंकृत होकर वेदों का मर्म बतलाया, परन्तु विनय भाव इतना कि अपनी भूल सुधारने के लिए हरदम तैयारी जाहिर की। क्या तुम सिद्धान्ति होने के अभिमान ो छोड़कर कभी दूसरे की सुनने को तैयार होगे?
माना कि तुम अपनी अपूर्व तर्कशक्ति से सब कुछ सिद्ध कर सकते हो, परन्तु क्या तुमने कभी सोचा है कि जिस ऋषि ग्रन्थ से भाव चुराकर तुम ने तर्क का महल खड़ा किया है, उसने कोरे तर्क को अपने कार्यक्रम में क्या स्थान दिया था?
आर्य संतान! आओ! आज से फिर अपने जीवन [पर गहरी दृष्टि डालो और समझ लो जिस सत्य की प्राप्ति के लिए मूलशंकर के हृदय में इस रात्रि उत्कट इच्छा उत्पन्न हुई उसकी तलाश में उसने शारीरिक कष्टों की कुछ भी परवाह नहीं की और जंगल और बियाबान पहाड़ और मैदान -सब की खाक छानने और जन जन से, विनय भाव के साथ, उसी का पता लगाते हुए अंत को सत्य स्वरुप में ही लीन हो गए। चारों आश्रमों में ब्रह्मचर्य का पालन करते, गुण कर्मानुसार वर्णों की व्यवस्था स्थापन करते, उपासना से हृदय को सत्याग्राही और प्राणिमात्र के लिए कल्याणकारी बनाते हुये जो आर्य पुरुष कल्याण मार्ग में चलने का आज शुभ संकल्प करेंगे, उनका मैं भी ऋणी हूंगा।
शमित्यो३म्
ऋषि बोध उत्सव के अवसर पर अमर हुतात्मा स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज जी का यह प्रेरणादायक लेख लाहौर से प्रकाशित "आर्य" पत्रिका के 1926 के अंक में प्रकाशित हुआ था। आज भी इस लेख का एक एक शब्द ऋषि दयानन्द के प्रति श्रद्धा एवं उनसे प्रेरणा लेने का सन्देश दे रहा हैं। प्रेषक- डॉ विवेक आर्य
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