Wednesday, February 28, 2018

होली का वास्तविक स्वरुप



होली का वास्तविक स्वरुप

होली पर्व पर अपनी आदत के अनुसार नवबुद्ध अम्बेडकरवादी सोशल मीडिया में चिल्ला रहे है कि होलिका दहन नारी अधिकारों का दमन है। मैं ऐसे त्योहार की बधाई किसी को क्यों दूँ। होलिका का दोष क्या था ? होलिका को किसने जलाया?क्या होलिका को जलाते समय उसके परिजन वहाँ मौजूद थे ?होलिका भली थी या बुरी यह तो मैं नहीं जानता। पर पढ़ लिखकर इतना जरूर समझा कि होली किसी स्त्री को जिन्दा जलाकर जश्न मनाने की सांकेतिक पुनरावृत्ति है। ऐसा करना ब्राह्मणवादी और मनुवादी सोच है। बला बला बला..........

     
  अब आप होली का वास्तविक स्वरुप समझे।

इस पर्व का प्राचीनतम नाम वासन्ती नव सस्येष्टि है अर्थात् बसन्त ऋतु के नये अनाजों से किया हुआ यज्ञ, परन्तु होली होलक का अपभ्रंश है।

यथा–
*तृणाग्निं भ्रष्टार्थ पक्वशमी धान्य होलक: (शब्द कल्पद्रुम कोष) अर्धपक्वशमी धान्यैस्तृण भ्रष्टैश्च होलक: होलकोऽल्पानिलो मेद: कफ दोष श्रमापह।*(भाव प्रकाश)

*अर्थात्*―तिनके की अग्नि में भुने हुए (अधपके) शमो-धान्य (फली वाले अन्न) को होलक कहते हैं। यह होलक वात-पित्त-कफ तथा श्रम के दोषों का शमन करता है।

*(ब) होलिका*―किसी भी अनाज के ऊपरी पर्त को होलिका कहते हैं-जैसे-चने का पट पर (पर्त) मटर का पट पर (पर्त), गेहूँ, जौ का गिद्दी से ऊपर वाला पर्त। इसी प्रकार चना, मटर, गेहूँ, जौ की गिदी को प्रह्लाद कहते हैं। होलिका को माता इसलिए कहते है कि वह चनादि का निर्माण करती *(माता निर्माता भवति)* यदि यह पर्त पर (होलिका) न हो तो चना, मटर रुपी प्रह्लाद का जन्म नहीं हो सकता। जब चना, मटर, गेहूँ व जौ भुनते हैं तो वह पट पर या गेहूँ, जौ की ऊपरी खोल पहले जलता है, इस प्रकार प्रह्लाद बच जाता है। उस समय प्रसन्नता से जय घोष करते हैं कि होलिका माता की जय अर्थात् होलिका रुपी पट पर (पर्त) ने अपने को देकर प्रह्लाद (चना-मटर) को बचा लिया।

*(स)* अधजले अन्न को होलक कहते हैं। इसी कारण इस पर्व का नाम *होलिकोत्सव* है और बसन्त ऋतुओं में नये अन्न से यज्ञ (येष्ट) करते हैं। इसलिए इस पर्व का नाम *वासन्ती नव सस्येष्टि* है। यथा―वासन्तो=वसन्त ऋतु। नव=नये। येष्टि=यज्ञ। इसका दूसरा नाम *नव सम्वतसर* है। मानव सृष्टि के आदि से आर्यों की यह परम्परा रही है कि वह नवान्न को सर्वप्रथम अग्निदेव पितरों को समर्पित करते थे। तत्पश्चात् स्वयं भोग करते थे। हमारा कृषि वर्ग दो भागों में बँटा है―(1) वैशाखी, (2) कार्तिकी। इसी को क्रमश: वासन्ती और शारदीय एवं रबी और खरीफ की फसल कहते हैं। फाल्गुन पूर्णमासी वासन्ती फसल का आरम्भ है। अब तक चना, मटर, अरहर व जौ आदि अनेक नवान्न पक चुके होते हैं। अत: परम्परानुसार पितरों देवों को समर्पित करें, कैसे सम्भव है। तो कहा गया है–
*अग्निवै देवानाम मुखं* अर्थात् अग्नि देवों–पितरों का मुख है जो अन्नादि शाकल्यादि आग में डाला जायेगा। वह सूक्ष्म होकर पितरों देवों को प्राप्त होगा।

हमारे यहाँ आर्यों में चातुर्य्यमास यज्ञ की परम्परा है। वेदज्ञों ने चातुर्य्यमास यज्ञ को वर्ष में तीन समय निश्चित किये हैं―(1) आषाढ़ मास, (2) कार्तिक मास (दीपावली) (3) फाल्गुन मास (होली) यथा *फाल्गुन्या पौर्णामास्यां चातुर्मास्यानि प्रयुञ्जीत मुखं वा एतत सम्वत् सरस्य यत् फाल्गुनी पौर्णमासी आषाढ़ी पौर्णमासी* अर्थात् फाल्गुनी पौर्णमासी, आषाढ़ी पौर्णमासी और कार्तिकी पौर्णमासी को जो यज्ञ किये जाते हैं वे चातुर्यमास कहे जाते हैं आग्रहाण या नव संस्येष्टि।

*समीक्षा*―आप प्रतिवर्ष होली जलाते हो। उसमें आखत डालते हो जो आखत हैं–वे अक्षत का अपभ्रंश रुप हैं, अक्षत चावलों को कहते हैं और अवधि भाषा में आखत को आहुति कहते हैं। कुछ भी हो चाहे आहुति हो, चाहे चावल हों, यह सब यज्ञ की प्रक्रिया है। आप जो परिक्रमा देते हैं यह भी यज्ञ की प्रक्रिया है। क्योंकि आहुति या परिक्रमा सब यज्ञ की प्रक्रिया है, सब यज्ञ में ही होती है। आपकी इस प्रक्रिया से सिद्ध हुआ कि यहाँ पर प्रतिवर्ष सामूहिक यज्ञ की परम्परा रही होगी इस प्रकार चारों वर्ण परस्पर मिलकर इस होली रुपी विशाल यज्ञ को सम्पन्न करते थे। आप जो गुलरियाँ बनाकर अपने-अपने घरों में होली से अग्नि लेकर उन्हें जलाते हो। यह प्रक्रिया छोटे-छोटे हवनों की है। सामूहिक बड़े यज्ञ से अग्नि ले जाकर अपने-अपने घरों में हवन करते थे। बाहरी वायु शुद्धि के लिए विशाल सामूहिक यज्ञ होते थे और घर की वायु शुद्धि के लिए छोटे-छोटे हवन करते थे दूसरा कारण यह भी था।

*ऋतु सन्धिषु रोगा जायन्ते*―अर्थात् ऋतुओं के मिलने पर रोग उत्पन्न होते हैं, उनके निवारण के लिए यह यज्ञ किये जाते थे। यह होली हेमन्त और बसन्त ऋतु का योग है। रोग निवारण के लिए यज्ञ ही सर्वोत्तम साधन है। अब होली प्राचीनतम वैदिक परम्परा के आधार पर समझ गये होंगे कि होली नवान्न वर्ष का प्रतीक है।

*पौराणिक मत में कथा इस प्रकार है―होलिका हिरण्यकश्यपु नाम के राक्षस की बहिन थी। उसे यह वरदान था कि वह आग में नहीं जलेगी। हिरण्यकश्यपु का प्रह्लाद नाम का आस्तिक पुत्र विष्णु की पूजा करता था। वह उसको कहता था कि तू विष्णु को न पूजकर मेरी पूजा किया कर। जब वह नहीं माना तो हिरण्यकश्यपु ने होलिका को आदेश दिया कि वह प्रह्लाद को आग में लेकर बैठे। वह प्रह्लाद को आग में गोद में लेकर बैठ गई, होलिका जल गई और प्रह्लाद बच गया। होलिका की स्मृति में होली का त्यौहार मनाया जाता है l जो नितांत मिथ्या हैं।।

होली उत्सव यज्ञ का प्रतीक है। स्वयं से पहले जड़ और चेतन देवों को आहुति देने का पर्व हैं।  आईये इसके वास्तविक स्वरुप को समझ कर इस सांस्कृतिक त्योहार को बनाये। होलिका दहन रूपी यज्ञ में यज्ञ परम्परा का पालन करते हुए शुद्ध सामग्री, तिल, मुंग, जड़ी बूटी आदि का प्रयोग कीजिये।

आप सभी को होली उत्सव की हार्दिक शुभकामनायें।

#HappyHoli


Tuesday, February 27, 2018

तमिल भाषा का संस्कृत से सम्बन्ध



तमिल भाषा का संस्कृत से सम्बन्ध

डॉ विवेक आर्य

आईआईटी मद्रास में संपन्न हुए एक कार्यक्रम में संस्कृत गीत द्वारा गणेश वंदना प्रस्तुत की गई। इस कार्यक्रम में दो केंद्रीय मंत्रियों के साथ संस्थान के निदेशक भी उपस्थित थे। इसी बात को लेकर तमिलनाडु की द्रविड़ पार्टी के नेता वाइको ने इसे तमिलनाडु पर संस्कृत और हिंदी थोपन करार दिया। वाइको के अतिरिक्त कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी इसका विरोध किया है। जब भारत ने अपना पहला उपग्रह आर्यभट्ट के नाम से छोड़ा था तब भी तमिलनाडु के राजनेताओं ने अपनी राजनीति चमकाने के लिए उसका विरोध किया था।

जानने योग्य बात यह है कि आईआईटी मद्रास में कुछ वर्षों पहले स्थापित हुए अम्बेडकर पेरियार स्टडी सर्किल के सदस्यों ने भी इस कदम का विरोध किया। इस संगठन के लोगों को यह भी नहीं मालूम कि डॉ अम्बेडकर ने संस्कृत भाषा को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का प्रस्ताव दिया था। जिसका विरोध कांग्रेस और कम्युनिस्ट दोनों पार्टियों ने किया था। ये लोग उन्हीं डॉ अम्बेडकर का नाम लेकर लोगों को केवल भड़काने का काया करते है। उनकी मान्यताओं को अपनी सहूलियत के अनुसार प्रयोग करना इनकी आदत है। 

 सभी जानते है कि तमिलनाडु आर्य-द्रविड़ की विभाजनकारी मानसिकता का केंद्र रहा है। वहां के राजनेता जनता को द्रविड़ संस्कृति के नाम पर भड़काते हैं। वे कहते है कि द्रविड़ संस्कृति, तमिल भाषा हमारी मूल पहचान है। विदेशी आर्यों ने अपनी संस्कृति हमारे ऊपर थोपी है।  उनका यह भी कहना है कि तमिल भाषा एक स्वतंत्र भाषा है एवं उसका संस्कृत से कोई सम्बन्ध नहीं है। संस्कृत आर्यों की भाषा है जिसे द्रविड़ों पर थोपा गया है।

 एक सामान्य शंका मेरे मस्तिष्क में सदा रहती है कि तमिल राजनेता हिंदी/संस्कृत का विदेशी भाषा कहकर विरोध करते है परन्तु इसके विपरीत अंग्रेजी का समर्थन करते है। क्या अंग्रेजी भाषा की उत्पत्ति तमिलनाडु के किसी गाँव में हुई थी ? नहीं। फिर यह केवल एक प्रकार की जिद है। तमिलनाडु में हिंदी विरोध कैसे प्रारम्भ हुआ? इस शंका के समाधान के लिए हमें तमिलनाडु के इतिहास को जानना होगा। रोबर्ट कालद्वेल्ल (Robert Caldwell -1814 -1891 ) के नाम से ईसाई मिश्नरी को इस मतभेद का जनक माना जाता है। रोबर्ट कालद्वेल्ल ने भारत आकर तमिल भाषा पर व्याप्त अधिकार कर किया और उनकी पुस्तक A Comparative Grammar of the Dravidian or South Indian Family of Languages, Harrison: London, 1856 में प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक का उद्देश्य तमिलनाडु का गैर ब्राह्मण जनता को ब्राह्मण विरोधी, संस्कृत विरोधी, हिंदी विरोधी, वेद विरोधी एवं उत्तर भारतीय विरोधी बनाना था। जिससे उन्हें भड़का कर आसानी से ईसाई मत में परिवर्तित किया जा सके और इस कार्य में रोबर्ट कालद्वेल्ल को सफलता भी मिली। पूर्व मुख्य मंत्री करूणानिधि के अनुसार इस पुस्तक में लिखा है कि संस्कृत भाषा के 20 शब्द तमिल भाषा में पहले से ही मिलते है। जिससे यह सिद्ध होता हैं की तमिल भाषा संस्कृत से पहले विद्यमान थी। तमिलनाडु की राजनीती ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मण धुरों पर लड़ी जाती रही हैं। इसीलिए इस पुस्तक को आधार बनाकर हिंदी विरोधी आंदोलन चलाये गए। विडंबना देखिये कि भाई भाई में भेद डालने वाले रोबर्ट कालद्वेल्ल की मूर्ति को मद्रास के मरीना बीच पर स्थापित किया गया है। उसकी स्मृति में एक डाक टिकट भी जारी किया गया था।

जहाँ तक तमिल और संस्कृत भाषा में सम्बन्ध का प्रश्न है तो संस्कृत और तमिल में वैसा ही सम्बन्ध है जैसा एक माँ और बेटे में होता है। जैसा सम्बन्ध संस्कृत और विश्व की अन्य भाषाओँ में हैं। संस्कृत जैसे विश्व की अन्य भाषाओं की जननी है वैसे ही तमिल की भी जननी है। अनुसन्धान करने पर हमें मालूम चलता है कि प्राचीन तमिल ग्रंथों में विशेष रूप से तमिल काव्य में बहुत से संस्कृत के शब्द प्रयुक्त किये गए है। यहाँ तक कि तमिल की बोलचाल की भाषा तो संस्कृत-शब्दों से भरी पड़ी है। कम्ब रामायण में भी अपभ्रंश रूप से अनेक संस्कृत शब्द मिल जायेंगे। तमिल भाषा की लिपि में अक्षर कम होने के कारण संस्कृत के शब्द स्पष्ट रूप से नहीं लिखे जाते। इसलिए अलग लिपि बन गई।

“तमिल स्वयं शिक्षक” से तमिल, संस्कृत,हिंदी के कुछ शब्दों में समानता

     तमिल                       संस्कृत                                             हिंदी

1.       वार्ते                     वार्ता                                                बात

2.       ग्रामम्                  ग्राम:                                                गांव

3.       जलम्                   जलम्                                               जल

4.       दूरम्                     दूरम्                                                दूर

5.       मात्रम्                  मात्रम्                                                मात्र

6.       शीग्रम                  शीघ्रम                                               शीघ्र

7.       समाचारम             समाचार:                                        समाचार

इस प्रकार के अनेक उदहारण तमिल, संस्कृत और हिंदी में “तमिल स्वयं शिक्षक” से समानता के दिए जा सकते हैं। 

इसी प्रकार से "तमिल लैक्सिकान" के नाम से तमिल के प्रामाणिक कोष को देखने से भी यही ज्ञात होता है कि तमिल भाषा में संस्कृत के अनेक शब्द विद्यमान है। तमिल वेद के नाम से प्रसिद्द त्रिक्कुरल , संत तिरुवल्लुवार द्वारा प्रणीत ग्रन्थ के हिंदी संस्करण की भूमिका में माननीय चक्रबर्ती राजगोपालाचारी लिखते है कि ‘इस पुस्तक को पढ़कर उत्तर भारतवासी जानेंगे की उत्तरी सभ्यता और संस्कृति का तमिल जाति से कितना घनिष्ठ सम्बन्ध और तादात्म्य हैं’। इस ग्रन्थ में अनेक वाक्य वेदों के उपदेश का स्पष्ट अनुवाद प्रतीत होते है। तमिल के प्रसिद्द कवि भारतियार की काव्य में भी संस्कृत शब्द प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। तमिलनाडु के प्रसिद्द संगम काल के साहित्य में संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों प्रभाव स्पष्ट रूप से मिलता हैं।


एक अन्य उदहारण देखिये। तिरुक्कुल को तमिल वेद भी कहा जाता है। इसके लेखक तिरुवल्लुवर को ऋषि कह कर सम्मानित किया जाता है।
इसे पढ़ कर लगा कि तिरुक्कुल और मनुस्मृति आदि वैदिक ग्रन्थों में बहुत अधिक समानता है। तिरुक्कुल का रचनाकाल 300 इस्वी पूर्व (300 BC) माना जाता है।  कुछ लोग इसका समय इतना पुराना नहीं मानते।  परन्तु इस बात पर सभी सहमत हैं कि यह तमिल की प्राचीनतम रचनाओं में से एक है। मनु स्मृति इससे भी बहुत प्राचीन है।  आश्चर्य है वेद की तरह इसमें भी कोई पाठभेद नहीं है।
.
मनु स्मृति और तिरुक्कुल की तुलना (कोष्ठक में संख्या तुरुक्कुल के पद्य की संख्या है)
1-
संन्यास और ब्राह्मण
तिरुक्कुल- सदाचार पर चलकर संन्यास ग्रहण करना सर्वश्रेष्ठ है. (21 ) मुक्ति के लिए संन्यास ग्रहण करे (22)

मनुस्मृति - सन्यासी का धर्म है कि मुक्ति के लिए इन्द्रियों को दुराचार से रोक कर सभी जीवों पर दया करे।

2- गृहस्थ

तिरुक्कुल- गृहस्थ अन्य 3 आश्रमों के धर्माकुल जीवन जीने में सहायक होता है। (41) धन करते समय पाप से बचे और खर्च करते समय बाँट कर प्रयोग करे। (44) नियमानुसार गृहस्थ जीवन जीने वाला सभी आश्रमों से श्रेष्ठ है। (46)
.
मनुस्मृति- जिसके दान से 3 आश्रमों का जीवन चलता है वह गृहस्थ आश्रम सबसे बड़ा है। जैसे सभी वायु के आश्रित होते हैं वैसे ही सभी आश्रम गृहस्थ के आश्रित है।  गृहस्थ धर्मानुकुल धन का संचय करे।

यह केवल दिग्दर्शन मात्र है।  इस विषय पर पूरी पुस्तक लिखी जा सकती है।

इतिहास के अनुसार पूर्वकाल में दक्षिण भारत से जावा, सुमात्रा, मलेशिया, इंडोनेशिया आदि पूर्व के देशों में व्यापारिक, राजनीतिक, संस्कृति एवं धार्मिक सम्बन्ध थे। भारतीय संस्कृति का प्रभाव आज भी उन देशों की संस्कृति में स्पष्ट रूप से दीखता है। तमिलनाडु से न केवल व्यापारी उन देशों में जाते थे। अपितु संस्कृति का प्रचार बी होता था।  इस सम्बन्ध के लिए प्रयोग होने वाली भाषा कोई अन्य नहीं अपितु संस्कृत ही थी।  इस प्रमाण जावा देश में 1768 तक मनुस्मृति के आधार पर प्रचलित विधि-विधान से मिलता है।(सन्दर्भ- Arnold Thomas, the Preaching of Islam, p.385)। मनुस्मृति संस्कृत में है। इससे यही सिद्ध हुआ कि उस काल में तमिलनाडु में धार्मिक कार्यों में संस्कृत भाषा का व्यापक रूप में प्रचलन था।

संस्कृत भाषा और विश्व की अन्य में सम्बन्ध को सिद्ध करने के लिए पूर्व में कुछ पुस्तकें प्रकाशित हुई है जैसे पंडित धर्मदेव विद्यामार्तंड द्वारा रचित वेदों का यथार्थ स्वरुप, Sanskrit-The Mother of all World Languages, पंडित भगवददृत्त जी द्वारा लिखित भाषा का इतिहास अदि। संस्कृत को विश्व की समस्त भाषाओं की जननी सिद्ध करने के लिए अनुसन्धान कार्य को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। फुट डालो और राज करो की विभाजनकारी मानसिकता का प्रतिउत्तर सम्पूर्ण देश को हिंदी भाषा के सूत्र से जोड़ना ही है। यही स्वामी दयानंद की मनोकामना थी। आर्यसमाज को भाषा वैज्ञानिकों की सहायता से रोबर्ट कालद्वेल्ल की पुस्तक की तर्कपूर्ण समीक्षा छपवा कर उसे तमिलनाडु में प्रचारित करवाना चाहिए। ऐसा मेरा व्यक्तिगत मानना है।

(लेखक ने हिंदी भाषी होते हुए अपने जीवन के 6 वर्ष तमिलनाडु में व्यतीत किये हैं एवं तमिल भाषा से परिचित है।)

Wednesday, February 21, 2018

धर्म के नाम पर ठगी का धंधा




धर्म के नाम पर ठगी का धंधा

सन्दर्भ-स्वामी दयानन्द कृत सत्यार्थ प्रकाश- 11 वां समुल्लास)

(हमारे देश में साधुओं के नाम पर मुफ्तखोरों की फौज बढ़ती जाती है।  स्वामी दयानन्द इन मुफ्तखोरों के प्रबल विरोधी थे। स्वामी जी चाहते थे की गृहस्थ आदि इन सन्यासी के वस्त्र धारण करने वाले ठगों से बचे। सत्यार्थ प्रकाश के 11 समुल्लास में इनकी ठगी की पोल स्वमी जी एक कहानी के माध्यम से देते है। संभवत उन्होंने अपने जीवन में ऐसा होता यथार्थ रूप में देखा था। आज भी यह ठगी का धंधा चल रहा है।  आओ हिन्दू समाज की इन ठगों से रक्षा करे। - डॉ विवेक आर्य)

स्वामी दयानन्द इन ठगों को सम्बोधित करते हुए लिखते है---

"देखो! तुम्हारे सामने पाखण्ड मत बढ़ते जाते हैं, ईसाई, मुसलमान तक होते जाते हैं। तनिक भी तुम से अपने घर की रक्षा और दूसरों का मिलाना नहीं बन सकता। बने तो तब जब तुम करना चाहो! जब लों वर्त्तमान और भविष्यत् में संन्यासी उन्नतिशील नहीं होते तब लों आर्य्यावर्त्त और अन्य देशस्थ मनुष्यों की वृद्धि नहीं होती। जब वृद्धि के कारण वेदादि सत्यशास्त्रें का पठनपाठन, ब्रह्मचर्य्य आदि आश्रमों के यथावत् अनुष्ठान सत्योपदेश होते हैं तभी देशोन्नति होती है। चेत रक्खो! बहुत सी पाखण्ड की बातें तुम को सचमुच दीख पड़ती हैं। जैसे कोई साधु, दुकानदार पुत्रदि देने की सिद्धियां बतलाता है। तब उस के पास बहुत स्त्री जाती हैं और हाथ जोड़कर पुत्र मांगती हैं। और बाबा जी सब को पुत्र होने का आशीर्वाद देता है। उन में से जिस-जिस के पुत्र होता है वह-वह समझती हैं कि बाबा जी के वचन से ऐसा हुआ। जब उन से कोई पूछे कि सूअरी, कुत्ती, गधी और कुक्कुटी आदि के कच्चे बच्चे किस बाबा जी के वचन से होते हैं? तब कुछ भी उत्तर न दे सकेंगी! जो कोई कहे कि मैं लड़के को जीता रख सकता हूं तो आप ही क्यों मर जाता है?"

कितने ही धूर्त्त लोग ऐसी माया रचते हैं कि बड़े-बड़े बुद्धिमान् भी धोखा खा जाते हैं, जैसे धनसारी के ठग। ये लोग पांच सात मिल के दूर-दूर देश में जाते हैं। जो शरीर से डौलडाल में अच्छा होता है उस को सिद्ध बना लेते हैं। जिस नगर वा ग्राम में धनाढ्य होते हैं उस के समीप जंगल में उस सिद्ध को बैठाते हैं। उसके साधक नगर में जाके अजान बनके जिस किसी को पूछते हैं-‘तुम ने ऐसे महात्मा को यहां कहीं देखा वा नहीं? वे ऐसा सुनकर पूछते हैं कि वह महात्मा कौन और कैसा है?

साधक कहता है-बड़ा सिद्ध पुरुष है। मन की बातें बतला देता है। जो मुख से कहता है वह हो जाता है। बड़ा योगीराज है, उसके दर्शन के लिए हम अपने घर द्वार छोड़कर देखते फिरते हैं। मैंने किसी से सुना था कि वे महात्मा इधर की ओर आये हैं।

गृहस्थ कहता है-जब वह महात्मा तुम को मिले तो हम को भी कहना। दर्शन करेंगे और मन की बातें पूछेंगे। इसी प्रकार दिन भर नगर में फिरते और प्रत्येक को उस सिद्ध की बात कहकर रात्रि को इकट्ठे सिद्ध साधक होकर खाते पीते और सो रहते हैं। फिर भी प्रातःकाल नगर वा ग्राम में जाके उसी प्रकार दो तीन

दिन कहकर फिर चारों साधक किसी एक-एक धनाढ्य से बोलते हैं कि वह महात्मा मिल गये। तुम को दर्शन करना हो तो चलो। वे जब तैय्यार होते हैं तब साधक उन से पूछते हैं कि तुम क्या बात पूछना चाहते हो? हम से कहो। कोई पुत्र की इच्छा करता, कोई धन की, कोई रोग-निवारण की और कोई शत्रु के जीतने की। उन को वे साधक ले जाते हैं। सिद्ध साधकों ने जैसा संकेत किया होता है अर्थात् जिस को धन की इच्छा हो उस को दाहिनी, और जिस को पुत्र की इच्छा हो उसको सम्मुख, और जिस को रोग-निवारण की इच्छा हो उस को बाईं ओर और जिस को शत्रु जीतने की इच्छा हो उस को पीछे से ले जा के सामने वाले के बीच में बैठाते हैं। जब नमस्कार करते हैं उसी समय वह सिद्ध अपनी सिद्धाई की झपट से उच्च स्वर से बोलता है-‘क्या यहां हमारे पास पुत्र रक्खे हैं जो तू पुत्र की इच्छा करके आया है? इसी प्रकार धन की इच्छा वाले से ‘क्या यहां थैलियां रक्खी हैं जो धन की इच्छा करके आया है? ‘फकीरों के पास धन कहां धरा है? ’ रोगवाले से ‘क्या हम वैद्य हैं जो तू रोग छुड़ाने की इच्छा से आया? हम वैद्य नहीं जो तेरा रोग छुड़ावें; जा किसी वैद्य के पास’ परन्तु जब उस का पिता रोगी हो तो उस का साधक अंगूठा; जो माता रोगी हो तो तर्जनी; जो भाई रोगी हो मध्यमा, जो स्त्री रोगी हो तो अनामिका; जो कन्या रोगी हो तो कनिष्ठिका अंगुली चला देता है। उस को देख वह सिद्ध कहता है कि तेरा पिता रोगी है। तेरी माता, तेरा भाई, तेरी स्त्री, और तेरी कन्या रोगी है। तब तो वे चारों के चारों बड़े मोहित हो जाते हैं। साधक लोग उन से कहते हैं-देखो! हम ने कहा था वैसे ही हैं वा नहीं?

गृहस्थ कहते हैं-हां जैसा तुमने कहा था वैसे ही हैं। तुम ने हमारा बड़ा उपकार किया और हमारा भी बड़ा भाग्योदय था जो ऐसे महात्मा मिले। जिस के दर्शन करके हम कृतार्थ हुए।

साधक कहता है-सुनो भाई! ये महात्मा मनोगामी हैं। यहां बहुत दिन रहने वाले नहीं। जो कुछ इन का आशीर्वाद लेना हो तो अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुकूल इन की तन, मन, धन से सेवा करो, क्योंकि ‘सेवा से मेवा मिलती है।’ जो किसी पर प्रसन्न हो गये तो जाने क्या वर दे दें। ‘सन्तों की गति अपार है।’ गृहस्थ ऐसे लल्लो-पत्तो की बातें सुनकर बड़े हर्ष से उनकी प्रशंसा करते हुए घर की ओर जाते हैं। साधक भी उनके साथ ही चले जाते हैं क्योंकि मार्ग में कोई उन का पाखण्ड खोल न देवे। उन धनाढ्यों का जो कोई मित्र मिला उस से प्रशंसा करते हैं। इसी प्रकार जो-जो साधकों के साथ जाते हैं उन-उन का वृत्तान्त सब कह देते हैं। जब नगर में हल्ला मचता है कि अमुक ठौर एक बड़े भारी सिद्ध आये हैं; चलो उन के पास। जब मेला का मेला जाकर बहुत से लोग पूछने लगते हैं कि महाराज! मेरे मन का वृत्तान्त कहिये। तब तो व्यवस्था के बिगड़ जाने से चुपचाप होकर मौन साध जाता है और कहता है कि हम को बहुत मत सताओ। तब तो झट उसके साधक भी कहने लग जाते हैं जो तुम इन को बहुत सताओगे तो चले जायेंगे और जो कोई बड़ा धनाढ्य होता है वह साधक को अलग बुला कर पूछता है कि हमारे मन की बात कहला दो तो हम सच मानें। साधक ने पूछा कि क्या बात है? धनाढ्य ने उस से कह दी। तब उस को उसी प्रकार के संकेत से ले जा के बैठाल देता है। उसे सिद्ध ने समझ के झट कह दिया, तब तो सब मेला भर ने सुन ली कि अहो ! बड़े ही सिद्ध पुरुष हैं। कोई मिठाई, कोई पैसा, कोई रुपया, कोई अशर्फी, कोई कपड़ा और कोई सीधा सामग्री भेंट करता है। फिर जब तक मानता बहुत सी रही तब तक यथेष्ट लूट करते हैं और किन्हीं-किन्हीं दो एक आंख के अन्धे गांठ के पूरों को पुत्र होने का आशीर्वाद वा राख उठा के दे देता है और उस से सहस्रों रुपये लेकर कह देता है कि तेरी सच्ची भक्ति होगी तो तेरा पुत्र हो जायगा। इस प्रकार के बहुत से ठग होते हैं जिन को विद्वान् ही परीक्षा कर सकते हैं और कोई नहीं। इसलिए वेदादि विद्या का पढ़ना, सत्संग करना होता है जिस से कोई उस को ठगाई में न फंसा सके। औरों को भी बचा सके क्योंकि मनुष्य का नेत्र विद्या ही है। विना विद्या शिक्षा के ज्ञान नहीं होता। जो बाल्यावस्था से उत्तम शिक्षा पाते हैं वे ही मनुष्य और विद्वान् होते हैं। जिन को कुसंग है वे दुष्ट पापी महामूर्ख हो कर बड़े दुःख पाते हैं। इसीलिये ज्ञान को विशेष कहा है कि जो जानता है वही मानता है।

सन्देश- मनुष्य का नेत्र विद्या ही है क्योंकि बिना विद्या के ज्ञान नहीं होता इसलिए वेदादि विद्या को ग्रहण करने के लिए सभी को पुरुषार्थ करना चाहिये।- स्वामी दयानंद

Monday, February 19, 2018

वेदों के शिव



वेदों के शिव

प्रियांशु सेठ

हिन्दू समाज में मान्यता है कि वेद में उसी शिव का वर्णन है जिसके नाम पर अनेक पौराणिक कथाओं का सृजन हुआ है। उन्हीं शिव की पूजा-उपासना वैदिक काल से आज तक चली आती है। किन्तु वेद के मर्मज्ञ इस विचार से सहमत नहीं हैं।उनके अनुसार वेद तथा उपनिषदों का शिव निराकार ब्रह्म है।

पुराणों में वर्णित शिव जी परम योगी और परम ईश्वरभक्त थे। वे एक निराकार ईश्वर "ओ३म्" की उपासना करते थे। कैलाशपति शिव वीतरागी महान राजा थे। उनकी राजधानी कैलाश थी और तिब्बत का पठार और हिमालय के वे शासक थे। हरिद्वार से उनकी सीमा आरम्भ होती थी। वे राजा होकर भी अत्यंत वैरागी थे। उनकी पत्नी का नाम पार्वती था जो राजा दक्ष की कन्या थी। उनकी पत्नी ने भी गौरीकुंड, उत्तराखंड में रहकर तपस्या की थी। उनके पुत्रों का नाम गणपति और कार्तिकेय था। उनके राज्य में सब कोई सुखी था। उनका राज्य इतना लोकप्रिय हुआ कि उन्हें कालांतर में साक्षात् ईश्वर के नाम शिव से उनकी तुलना की जाने लगी।


वेदों के शिव--

हम प्रतिदिन अपनी सन्ध्या उपासना के अन्तर्गत नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च(यजु० १६/४१)के द्वारा परम पिता का स्मरण करते हैं।

अर्थ- जो मनुष्य सुख को प्राप्त कराने हारे परमेश्वर और सुखप्राप्ति के हेतु विद्वान् का भी सत्कार कल्याण करने और सब प्राणियों को सुख पहुंचाने वाले का भी सत्कार मङ्गलकारी और अत्यन्त मङ्गलस्वरूप पुरुष का भी सत्कार करते हैं,वे कल्याण को प्राप्त होते हैं।

इस मन्त्र में शंभव, मयोभव, शंकर, मयस्कर, शिव, शिवतर शब्द आये हैं जो एक ही परमात्मा के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुए हैं।

वेदों में ईश्वर को उनके गुणों और कर्मों के अनुसार बताया है--

त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।
                    -यजु० ३/६०
विविध ज्ञान भण्डार, विद्यात्रयी के आगार, सुरक्षित आत्मबल के वर्धक परमात्मा का यजन करें। जिस प्रकार पक जाने पर खरबूजा अपने डण्ठल से स्वतः ही अलग हो जाता है वैसे ही हम इस मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जायें, मोक्ष से न छूटें।

या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी।
तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्ताभि चाकशीहि।।
                         -यजु० १६/२
हे मेघ वा सत्य उपदेश से सुख पहुंचाने वाले दुष्टों को भय और श्रेष्ठों के लिए सुखकारी शिक्षक विद्वन्! जो आप की घोर उपद्रव से रहित सत्य धर्मों को प्रकाशित करने हारी कल्याणकारिणी देह वा विस्तृत उपदेश रूप नीति है उस अत्यन्त सुख प्राप्त करने वाली देह वा विस्तृत उपदेश की नीति से हम लोगों को आप सब ओर से शीघ्र शिक्षा कीजिये।

अध्यवोचदधिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक्।
अहीँश्च सर्वाञ्जम्भयन्त्सर्वाश्च यातुधान्योऽधराची: परा सुव।।
                             -यजु० १६/५
हे रुद्र रोगनाशक वैद्य! जो मुख्य विद्वानों में प्रसिद्ध सबसे उत्तम कक्षा के वैद्यकशास्त्र को पढ़ाने तथा निदान आदि को जान के रोगों को निवृत्त करनेवाले आप सब सर्प के तुल्य प्राणान्त करनेहारे रोगों को निश्चय से ओषधियों से हटाते हुए अधिक उपदेश करें सो आप जो सब नीच गति को पहुंचाने वाली रोगकारिणी ओषधि वा व्यभिचारिणी स्त्रियां हैं, उनको दूर कीजिये।

या ते रुद्र शिवा तनू: शिवा विश्वाहा भेषजी।
शिवा रुतस्य भेषजी तया नो मृड जीवसे।।
                     -यजु० १६/४९
हे राजा के वैद्य तू जो तेरी कल्याण करने वाली देह वा विस्तारयुक्त नीति देखने में प्रिय ओषधियों के तुल्य रोगनाशक और रोगी को सुखदायी पीड़ा हरने वाली है उससे जीने के लिए सब दिन हम को सुख कर।

उपनिषदों में भी शिव की महिमा निम्न प्रकार से है-

स ब्रह्मा स विष्णु: स रुद्रस्स: शिवस्सोऽक्षरस्स: परम: स्वराट्।
स इन्द्रस्स: कालाग्निस्स चन्द्रमा:।।
                 -कैवल्यो० १/८
वह जगत् का निर्माता, पालनकर्ता, दण्ड देने वाला, कल्याण करने वाला, विनाश को न प्राप्त होने वाला, सर्वोपरि, शासक, ऐश्वर्यवान्, काल का भी काल, शान्ति और प्रकाश देने वाला है।

प्रपंचोपशमं शान्तं शिवमद्वैतम् चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः।।७।।
     -माण्डूक्य०
प्रपंच जाग्रतादि अवस्थायें जहां शान्त हो जाती हैं, शान्त आनन्दमय अतुलनीय चौथा तुरीयपाद मानते हैं वह आत्मा है और जानने के योग्य है।
यहां शिव का अर्थ शान्त और आनन्दमय के रूप में देखा जा सकता है।

सर्वाननशिरोग्रीव: सर्वभूतगुहाशय:।
सर्वव्यापी स भगवान् तस्मात्सर्वगत: शिव:।।
                       -श्वेता० ४/१४
जो इस संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का कर्ता एक ही है, जो सब प्राणियों के हृदयाकाश में विराजमान है, जो सर्वव्यापक है, वही सुखस्वरूप भगवान् शिव सर्वगत अर्थात् सर्वत्र प्राप्त है।
इसे और स्पष्ट करते हुए कहा है-
सूक्ष्मातिसूक्ष्मं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य सृष्टारमनेकरुपम्।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्तमेति।।
                         -श्वेता० ४/१४
परमात्मा अत्यन्त सूक्ष्म है, हृदय के मध्य में विराजमान है, अखिल विश्व की रचना अनेक रूपों में करता है। वह अकेला अनन्त विश्व में सब ओर व्याप्त है। उसी कल्याणकारी परमेश्वर को जानने पर स्थाई रूप से मानव परम शान्ति को प्राप्त होता है।

नचेशिता नैव च तस्य लिंङ्गम्।।
               -श्वेता० ६/९
उस शिव का कोई नियन्ता नहीं और न उसका कोई लिंग वा निशान है।

योगदर्शन में परमात्मा की प्रतीति इस प्रकार की गई है-

क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:।। १/१/२४

जो अविद्यादि क्लेश, कुशल, अकुशल, इष्ट, अनिष्ट और मिश्र फलदायक कर्मों की वासना से रहित है, वह सब जीवों से विशेष ईश्वर कहाता है।

स एष पूर्वेषामपि गुरु: कालेनानवच्छेदात्।। १/१/२६

वह ईश्वर प्राचीन गुरुओं का भी गुरु है। उसमें भूत भविष्यत् और वर्तमान काल का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है,क्योंकि वह अजर, अमर नित्य है।


महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने भी अपने पुस्तक सत्यार्थप्रकाश में निराकार शिवादि नामों की व्याख्या इस प्रकार की है--

(रुदिर् अश्रुविमोचने) इस धातु से 'णिच्' प्रत्यय होने से 'रुद्र' शब्द सिद्ध होता है।'यो रोदयत्यन्यायकारिणो जनान् स रुद्र:' जो दुष्ट कर्म करनेहारों को रुलाता है, इससे परमेश्वर का नाम 'रुद्र' है।

यन्मनसा ध्यायति तद्वाचा वदति, यद्वाचा वदति तत् कर्मणा करोति यत् कर्मणा करोति तदभिसम्पद्यते।।

यह यजुर्वेद के ब्राह्मण का वचन है।

जीव जिस का मन से ध्यान करता उस को वाणी से बोलता, जिस को वाणी जे बोलता उस को कर्म से करता, जिस को कर्म से करता उसी को प्राप्त होता है। इस से क्या सिद्ध हुआ कि जो जीव जैसा कर्म करता है वैसा ही फल पाता है। जब दुष्ट कर्म करनेवाले जीव ईश्वर की न्यायरूपी व्यवस्था से दुःखरूप फल पाते, तब रोते हैं और इसी प्रकार ईश्वर उन को रुलाता है, इसलिए परमेश्वर का नाम 'रुद्र' है।

(डुकृञ् करणे) 'शम्' पूर्वक इस धातु से 'शङ्कर' शब्द सिद्ध हुआ है। 'य: शङ्कल्याणं सुखं करोति स शङ्कर:' जो कल्याण अर्थात् सुख का करनेहारा है, इससे उस ईश्वर का नाम 'शङ्कर' है।

'महत्' शब्द पूर्वक 'देव' शब्द से 'महादेव' शब्द सिद्ध होता है। 'यो महतां देव: स महादेव:' जो महान् देवों का देव अर्थात् विद्वानों का भी विद्वान्, सूर्यादि पदार्थों का प्रकाशक है, इस लिए उस परमात्मा का नाम 'महादेव' है।

(शिवु कल्याणे) इस धातु से 'शिव' शब्द सिद्ध होता है। 'बहुलमेतन्निदर्शनम्।' इससे शिवु धातु माना जाता है, जो कल्याणस्वरूप और कल्याण करनेहारा है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम 'शिव' है।


निष्कर्ष- उपरोक्त लेख द्वारा योगी शिव और निराकार शिव में अन्तर बतलाया है। ईश्वर के अनगिनत गुण होने के कारण अनगिनत नाम है। शिव भी इसी प्रकार से ईश्वर का एक नाम है। आईये निराकार शिव की स्तुति, प्रार्थना एवं उपासना करे।



राजा जयसिंह के नाम शिवाजी का पत्र



राजा जयसिंह के नाम शिवाजी का पत्र

(एक मुस्लिम मित्र ने अपनी अलपज्ञता का परिचय देते हुए कहा की वीर शिवाजी का उद्देश्य केवल राज्य विस्तार था। उनका धर्म से कुछ भी लेना देना नहीं था। मुझे अपने मित्र की अज्ञानता को दूर करना लाभदायक लगा। इसलिए मैं राजा जयसिंह के नाम शिवाजी का पत्र प्रस्तुत कर रहा हूँ। इस पत्र में कूटनीति का परिचय देते हुए वीर शिवाजी ने राजा जयसिंह को औरंगज़ेब जैसे कपटी एवं धर्मविरोधी का साथ न देने की सलाह दी थी। इस पत्र में शिवाजी ने स्पष्ट रूप से राजा जय सिंह को कहा था कि अगर जय सिंह ने औरंगज़ेब का साथ दिया तो वह न केवल अपने पूर्वज श्री राम के नाम पर बट्टा लगायेगा अपितु धर्म और देश का नाश भी करेगा। पाठकों की सेवा में यह ऐतिहासिक पत्र प्रस्तुत है।  - डॉ विवेक आर्य )

राजा जयसिंह के नाम शिवाजी का पत्र

भारतीय इतिहास में दो ऐसे पत्र मिलते हैं जिन्हें दो विख्यात महापुरुषों ने दो कुख्यात व्यक्तिओं को लिखे थे। इनमे पहिला पत्र "जफरनामा" कहलाता है जिसे श्री गुरु गोविन्द सिंह ने औरंगजेब को भाई दया सिंह के हाथों भेजा था। यह दशम ग्रन्थ में शामिल है जिसमे कुल 130 पद हैं। दूसरा पत्र छ्त्रपति शिवाजी ने आमेर के राजा जयसिंह को भेजा था जो उसे 3 मार्च 1665 को मिल गया था। इन दोनों पत्रों में यह समानताएं हैं की दोनों फारसी भाषा में शेर के रूप में लिखे गए हैं। दोनों की पृष्टभूमि और विषय एक जैसी है। दोनों में देश और धर्म के प्रति अटूट प्रेम प्रकट किया गया है।

शिवाजी पत्र बरसों तक पटना साहेब के गुरुद्वारे के ग्रंथागार में रखा रहा। बाद में उसे "बाबू जगन्नाथ रत्नाकर" ने सन 1909 अप्रैल में काशी में काशी नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित किया था। बाद में अमर स्वामी सरस्वती ने उस पत्र का हिन्दी में पद्य और गद्य ने अनुवाद किया था। फिर सन 1985 में अमरज्योति प्रकाशन गाजियाबाद ने पुनः प्रकाशित किया था।

राजा जयसिंह आमेर का राजा था। वह उसी राजा मानसिंह का नाती था, जिसने अपनी बहिन अकबर से ब्याही थी। जयसिंह सन 1627 में गद्दी पर बैठा था और औरंगजेब का मित्र था। शाहजहाँ ने उसे 4000 घुड सवारों का सेनापति बना कर "मिर्जा राजा" की पदवी दी थी। औरंगजेब पूरे भारत में इस्लामी राज्य फैलाना चाहता था लेकिन शिवाजी के कारण वह सफल नही हो रहा था। औरंगजेब चालाक और मक्कार था। उसने पाहिले तो शिवाजी से से मित्रता करनी चाही। और दोस्ती के बदले शिवाजी से 23 किले मांगे। लेकिन शिवाजी उसका प्रस्ताव ठुकराते हुए 1664 में सूरत पर हमला कर दिया और मुगलों की वह सारी संपत्ति लूट ली जो उनहोंने हिन्दुओं से लूटी थी। फिर औरंगजेब ने अपने मामा शाईश्ता खान को चालीस हजार की फ़ौज लेकर शिवाजी पर हमला करावा दिया और शिवाजी ने पूना के लाल महल में उसकी उंगलियाँ काट दीं और वह भाग गया। फिर औरंगजेब ने जयसिंह को कहा की वह शिवाजी को परास्त कर दे।

जयसिंह खुद को राम का वंशज मानता था। उसने युद्ध में जीत हासिल करने के लिए एक सहस्त्र चंडी यज्ञ भी कराया। शिवाजी को इसकी खबर मिल गयी थी जब उन्हें पता चला की औरंगजेब हिन्दुओं को हिन्दुओं से लड़ाना चाहता है। जिस से दोनों तरफ से हिन्दू ही मरेंगे। तब शिवाजी ने जयसिंह को समझाने के लिए जो पत्र भेजा था। उसके कुछ अंश नीचे दिये हैं -

1 जिगरबंद फर्जानाये रामचंद ज़ि तो गर्दने राजापूतां बुलंद।

हे रामचंद्र के वंशज, तुमसे तो क्षत्रिओं की इज्जत उंची हो रही है।
2 शुनीदम कि बर कस्दे मन आमदी -ब फ़तहे दयारे दकन आमदी।

सुना है तुम दखन कि तरफ हमले के लिए आ रहे हो
3 न दानी मगर कि ईं सियाही शवद कज ईं मुल्को दीं रा तबाही शवद।

तुम क्या यह नही जानते कि इस से देश और धर्म बर्बाद हो जाएगा।
4 बगर चारा साजम ब तेगोतबर दो जानिब रसद हिंदुआं रा जरर

अगर मैं अपनी तलवार का प्रयोग करूंगा तो दोनों तरफ से हिन्दू ही मरेंगे।
5 बि बायद कि बर दुश्मने दीं ज़नी बुनी बेख इस्लाम रा बर कुनी।

उचित तो यह होता कि आप धर्म दे दुश्मन इस्लाम की जड़ उखाड़ देते।
6 बिदानी कि बर हिन्दुआने दीगर न यामद चि अज दस्त आं कीनावर।

आपको पता नहीं कि इस कपटी ने हिन्सुओं पर क्या क्या अत्याचार किये है।
7 ज़ि पासे वफ़ा गर बिदानी सखुन चि कर्दी ब शाहे जहां याद कुन

इस आदमी की वफादारी से क्या फ़ायदा। तुम्हें पता नही कि इसने बाप शाहजहाँ के साथ क्या किया।
8 मिरा ज़हद बायद फरावां नमूद -पये हिन्दियो हिंद दीने हिनूद

हमें मिल कर हिंद देश हिन्दू धर्म और हिन्दुओं के लिए लड़ाना चाहिए।
9 ब शमशीरो तदबीर आबे दहम ब तुर्की बतुर्की जवाबे दहम।

हमें अपनी तलवार और तदबीर से दुश्मन को जैसे को तैसा जवाब देना चाहिए।
10 तराज़ेम राहे सुए काम ख्वेश - फरोज़ेम दर दोजहाँ नाम ख्वेश

अगर आप मेरी सलाह मामेंगे तो आपका लोक परलोक नाम होगा।

Friday, February 16, 2018

नौका शास्त्र आर्यवर्त की देन



नौका शास्त्र आर्यवर्त की देन

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एक  ,  वामपंथी थे बाद में बौद्ध हुए हुआ करते थे जिनका नाम था राहुल सांकृत्यायन उर्फ केदारनाथ पांडेय "घुमक्कड़" अपनी यात्रा वृतांत में लिखते है हिन्दू शाश्त्र कहते है कि समुद्र को पार मत करना लिखा है। जबकि मित्रो मेने कहि भी ऐसा नही पढ़ा कि कहि ऐसा लिखा हो खैर हम आते है अपने मुद्दे पर ,


 समुद्र यात्रा भारतवर्ष में प्राचीन काल से प्रचलित रही है। महर्षि अगस्त्य समुद्री द्वीप-द्वीपान्तरों की यात्रा करने वाले महापुरुष थे। इसी कारण अगस्त्य ने समुद्र को पी डाला, यह कथा प्रचलित हुई होगी। संस्कृति के प्रचार के निमित्त या नए स्थानों पर व्यापार के निमित्त दुनिया के देशों में भारतीयों का आना-जाना था। कौण्डिन्य समुद्र पार कर दक्षिण पूर्व एशिया पहुंचे। मैक्सिको के यूकाटान प्रांत में जवातुको नामक स्थान पर प्राप्त सूर्य मंदिर के शिलालेख में महानाविक वुसुलिन के शक संवत् 885 में पहुंचने का उल्लेख मिलता है। गुजरात के लोथल में हुई खुदाई में ध्यान में आता है कि ई. पूर्व 2450 के आस-पास बने बंदरगाह द्वारा इजिप्त के साथ सीधा सामुद्रिक व्यापार होता था। 2450 ई.पू. से 2350 ई.पू. तक छोटी नावें इस बंदरगाह पर आती थीं। बाद में बड़े जहाजों के लिए आवश्यक रचनाएं खड़ी की गर्इं तथा नगर रचना भी हुई।

प्राचीन काल से अर्वाचीन काल तक के नौ निर्माण कला का उल्लेख प्रख्यात बौद्ध संशोधक भिक्षु चमनलाल ने अपनी पुस्तक "हिन्दू अमेरिका" में किया है। इसी प्रकार सन् 1950 में कल्याण के हिन्दू संस्कृति अंक में गंगा शंकर मिश्र ने भी विस्तार से इस इतिहास को लिखा है।

भारतवर्ष के प्राचीन वाङ्गमय वेद, रामायण, महाभारत, पुराण आदि में जहाजों का उल्लेख आता है। जैसे बाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में ऐसी बड़ी नावों का उल्लेख आता है जिसमें सैकड़ों योद्धा सवार रहते थे।


नावां शतानां पञ्चानां

कैवर्तानां शतं शतम।

सन्नद्धानां तथा यूनान्तिष्ठक्त्वत्यभ्यचोदयत्।।


अर्थात्-सैकड़ों सन्नद्ध जवानों से भरी पांच सौ नावों को सैकड़ों धीवर प्रेरित करते हैं।

इसी प्रकार महाभारत में यंत्र-चालित नाव का वर्णन मिलता है।


सर्ववातसहां नावं यंत्रयुक्तां पताकिनीम्।


अर्थात्-यंत्र पताका युक्त नाव, जो सभी प्रकार की हवाओं को सहने वाली है।


कौटिलीय अर्थशास्त्र में राज्य की ओर से नावों के पूरे प्रबंध के संदर्भ में जानकारी मिलती है। 5वीं सदी में हुए वारहमिहिर कृत "बृहत् संहिता" तथा 11वीं सदी के राजा भोज कृत "युक्ति कल्पतरु" में जहाज निर्माण पर प्रकाश डाला गया है।


नौका विशेषज्ञ भोज चेतावनी देते हैं कि नौका में लोहे का प्रयोग न किया जाए, क्योंकि संभव है समुद्री चट्टानों में कहीं चुम्बकीय शक्ति हो। तब वह उसे अपनी ओर खींचेगी, जिससे जहाज को खतरा हो सकता है।

नौकाओं के प्रकार- "हिन्दू अमेरिका" (पृ.357) के अनुसार "युक्ति कल्पतरु" ग्रंथ में नौका शास्त्र का विस्तार से वर्णन है। नौकाओं के प्रकार, उनका आकार, नाम आदि का विश्लेषण किया गया है।


(1) सामान्य-वे नौकाएं, जो साधारण नदियों में चल सकें।

(2) विशेष-जिनके द्वारा समुद्र यात्रा की जा सके।

उत्कृष्ट निर्माण-कल्याण (हिन्दू संस्कृति अंक-1950) में नौका की सजावट का सुंदर वर्णन आता है। चार श्रंग (मस्तूल) वाली नौका सफेद, तीन श्रीग वाली लाल, दो श्रृंग वाली पीली तथा एक श्रंग वाली को नीला रंगना चाहिए।

नौका मुख-नौका की आगे की आकृति यानी नौका का मुख सिंह, महिष, सर्प, हाथी, व्याघ्र, पक्षी, मेढ़क आदि विविध आकृतियों के आधार पर बनाने का वर्णन है।

भारत पर मुस्लिम आक्रमण 7वीं सदी में प्रारंभ हुआ। उस काल में भी भारत में बड़े-बड़े जहाज बनते थे। माकर्पोलो तेरहवीं सदी में भारत में आया। वह लिखता है "जहाजों में दोहरे तख्तों की जुड़ाई होती थी, लोहे की कीलों से उनको मजबूत बनाया जाता था और उनके सुराखों को एक प्रकार की गोंद में भरा जाता था। इतने बड़े जहाज होते थे कि उनमें तीन-तीन सौ मल्लाह लगते थे। एक-एक जहाज पर 3 से 4 हजार तक बोरे माल लादा जा सकता था। इनमें रहने के लिए ऊपर कई कोठरियां बनी रहती थीं, जिनमें सब तरह के आराम का प्रबंध रहता था। जब पेंदा खराब होने लगता तब उस पर लकड़ी की एक नयी तह को जड़ लिया जाता था। इस तरह कभी-कभी एक के ऊपर एक 6 तह तक लगायी जाती थी।"


15वीं सदी में निकोली कांटी नामक यात्री भारत आया। उसने लिखा कि "भारतीय जहाज हमारे जहाजों से बहुत बड़े होते हैं। इनका पेंदा तिहरे तख्तों का इस प्रकार बना होता है कि वह भयानक तूफानों का सामना कर सकता है। कुछ जहाज ऐसे बने होते हैं कि उनका एक भाग बेकार हो जाने पर बाकी से काम चल जाता है।"

बर्थमा नामक यात्री लिखता है "लकड़ी के तख्तों की जुड़ाई ऐसी होती है कि उनमें जरा सा भी पानी नहीं आता। जहाजों में कभी दो पाल सूती कपड़े के लगाए जाते हैं, जिनमें हवा खूब भर सके। लंगर कभी-कभी पत्थर के होते थे। ईरान से कन्याकुमारी तक आने में आठ दिन का समय लग जाता था।" समुद्र के तटवर्ती राजाओं के पास जहाजों के बड़े-बड़े बेड़े रहते थे। डा. राधा कुमुद मुकर्जी ने अपनी "इंडियन शिपिंग" नामक पुस्तक में भारतीय जहाजों का बड़ा रोचक एवं सप्रमाण इतिहास दिया है।


क्या वास्कोडिगामा ने भारत आने का मार्ग खोजा: अंग्रेजों ने एक भ्रम और व्याप्त किया कि वास्कोडिगामा ने समुद्र मार्ग से भारत आने का मार्ग खोजा। यह सत्य है कि वास्कोडिगामा भारत आया था, पर वह कैसे आया इसके यथार्थ को हम जानेंगे तो स्पष्ट होगा कि वास्तविकता क्या है? प्रसिद्ध पुरातत्ववेता पद्मश्री डा. विष्णु श्रीधर वाकणकर ने बताया कि मैं अभ्यास के लिए इंग्लैण्ड गया था। वहां एक संग्रहालय में मुझे वास्कोडिगामा की डायरी के संदर्भ में बताया गया। इस डायरी में वास्कोडिगामा ने वह भारत कैसे आया, इसका वर्णन किया है। वह लिखता है, जब उसका जहाज अफ्रीका में जंजीबार के निकट आया तो मेरे से तीन गुना बड़ा जहाज मैंने देखा। तब एक अफ्रीकन दुभाषिया लेकर वह उस जहाज के मालिक से मिलने गया। जहाज का मालिक चंदन नाम का एक गुजराती व्यापारी था, जो भारतवर्ष से चीड़ व सागवान की लकड़ी तथा मसाले लेकर वहां गया था और उसके बदले में हीरे लेकर वह कोचीन के बंदरगाह आकार व्यापार करता था। वास्कोडिगामा जब उससे मिलने पहुंचा तब वह चंदन नाम का व्यापारी सामान्य वेष में एक खटिया पर बैठा था। उस व्यापारी ने वास्कोडिगामा से पूछा, कहां जा रहे हो? वास्कोडिगामा ने कहा- हिन्दुस्थान घूमने जा रहा हूं। तो व्यापारी ने कहा मैं कल जा रहा हूं, मेरे पीछे-पीछे आ जाओ।" इस प्रकार उस व्यापारी के जहाज का अनुगमन करते हुए वास्कोडिगामा भारत पहुंचा। स्वतंत्र देश में यह यथार्थ नयी पीढ़ी को बताया जाना चाहिए था परन्तु दुर्भाग्य से यह नहीं हुआ। (उदयन इंदुरकर-दृष्टकला साधक- पृ. 32)


उपर्युक्त वर्णन पढ़कर मन में विचार आ सकता है कि नौका निर्माण में भारत इतना प्रगत देश था तो फिर आगे चलकर यह विद्या लुप्त क्यों हुई? इस दृष्टि से अंग्रेजों के भारत में आने और उनके राज्य काल में योजनापूर्वक भारतीय नौका उद्योग को नष्ट करने के इतिहास के बारे में जानना जरूरी है। उस इतिहास का वर्णन करते हुए श्री गंगा शंकर मिश्र कल्याण के हिन्दू संस्कृति अंक (1950) में लिखते हैं-


"पाश्चात्यों का जब भारत से सम्पर्क हुआ तब वे यहां के जहाजों को देखकर चकित रह गए। सत्रहवीं शताब्दी तक यूरोपीय जहाज अधिक से अधिक 6 सौ टन के थे, परन्तु भारत में उन्होंने "गोघा" नामक ऐसे बड़े-बड़े जहाज देखे जो 15 सौ टन से भी अधिक के होते थे। यूरोपीय कम्पनियां इन जहाजों को काम में लाने लगीं और हिन्दुस्थानी कारीगरों द्वारा जहाज बनवाने के लिए उन्होंने कई कारखाने खोल लिए। सन् 1811 में लेफ्टिनेंट वाकर लिखता है कि "ब्रिटिश जहाजी बेड़े के जहाजों की हर बारहवें वर्ष मरम्मत करानी पड़ती थी। परन्तु सागौन के बने हुए भारतीय जहाज पचास वर्षों से अधिक समय तक बिना किसी मरम्मत के काम देते थे।" "ईस्ट इण्डिया कम्पनी" के पास "दरिया दौलत" नामक एक जहाज था, जो 87 वर्षों तक बिना किसी मरम्मत के काम देता रहा। जहाजों को बनाने में शीशम, साल और सागौन-तीनों लकड़ियां काम में लायी जाती थीं।

सन् 1811 में एक फ्रांसीसी यात्री वाल्टजर सालविन्स अपनी "ले हिन्दू" नामक पुस्तक में लिखता है कि "प्राचीन समय में नौ-निर्माण कला में हिन्दू सबसे आगे थे और आज भी वे इसमें यूरोप को पाठ पढ़ा सकते हैं। अंग्रेजों ने, जो कलाओं के सीखने में बड़े चतुर होते हैं, हिन्दुओं से जहाज बनाने की कई बातें सीखीं। भारतीय जहाजों में सुन्दरता तथा उपयोगिता का बड़ा अच्छा योग है और वे हिन्दुस्थानियों की कारीगरी और उनके धैर्य के नमूने हैं।" बम्बई के कारखाने में 1736 से 1863 तक 300 जहाज तैयार हुए, जिनमें बहुत से इंग्लैण्ड के "शाही बेड़े" में शामिल कर लिए गए। इनमें "एशिया" नामक जहाज 2289 टन का था और उसमें 84 तोपें लगी थीं। बंगाल में हुगली, सिल्हट, चटगांव और ढाका आदि स्थानों पर जहाज बनाने के कारखाने थे। सन् 1781 से 1821 तक 1,22,693 टन के 272 जहाज केवल हुगली में तैयार हुए थे।


अंग्रेजों की कुटिलता-ब्रिटेन के जहाजी व्यापारी भारतीय नौ-निर्माण कला का यह उत्कर्ष सहन न कर सके और वे "ईस्ट इण्डिया कम्पनी" पर भारतीय जहाजों का उपयोग न करने के लिए दबाने बनाने लगे। सन् 1811 में कर्नल वाकर ने आंकड़े देकर यह सिद्ध किया कि "भारतीय जहाजों" में बहुत कम खर्च पड़ता है और वे बड़े मजबूत होते हैं। यदि ब्रिटिश बेड़े में केवल भारतीय जहाज ही रखे जाएं तो बहुत बचत हो सकती है।" जहाज बनाने वाले अंग्रेज कारीगरों तथा व्यापारियों को यह बात बहुत खटकी। डाक्टर टेलर लिखता है कि "जब हिन्दुस्थानी माल से लदा हुआ हिन्दुस्थानी जहाज लंदन के बंदरगाह पर पहुंचा, तब जहाजों के अंग्रेज व्यापारियों में ऐसी घबराहट मची जैसा कि आक्रमण करने के लिए टेम्स नदी में शत्रुपक्ष के जहाजी बेड़े को देखकर भी न मचती।


लंदन बंदरगाह के कारीगरों ने सबसे पहले हो-हल्ला मचाया और कहा कि "हमारा सब काम चौपट हो जाएगा और हमारे कुटुम्ब भूखों मर जाएंगे।" "ईस्ट इण्डिया कम्पनी" के "बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स" (निदेशक-मण्डल) ने लिखा कि हिन्दुस्थानी खलासियों ने यहां आने पर जो हमारा सामाजिक जीवन देखा, उससे भारत में यूरोपीय आचरण के प्रति जो आदर और भय था, नष्ट हो गया। अपने देश लौटने पर हमारे सम्बंध में वे जो बुरी बातें फैलाएंगे, उसमें एशिया निवासियों में हमारे आचरण के प्रति जो आदर है तथा जिसके बल पर ही हम अपना प्रभुत्व जमाए बैठे हैं, नष्ट हो जाएगा और उसका प्रभाव बड़ा हानिकर होगा।" इस पर ब्रिटिश संसद ने सर राबर्ट पील की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की।

काला कानून- समिति के सदस्यों में परस्पर मतभेद होने पर भी इस रपट के आधार पर सन् 1814 में एक कानून पास किया, जिसके अनुसार भारतीय खलासियों को ब्रिटिश नाविक बनने का अधिकार नहीं रहा। ब्रिटिश जहाजों पर भी कम-से कम तीन चौथाई अंग्रेज खलासी रखना अनिवार्य कर दिया गया। लंदन के बंदरगाह में किसी ऐसे जहाज को घुसने का अधिकार नहीं रहा, जिसका स्वामी कोई ब्रिटिश न हो और यह नियम बना दिया गया कि इंग्लैण्ड में अंग्रेजों द्वारा बनाए हुए जहाजों में ही बाहर से माल इंग्लैण्ड आ सकेगा।" कई कारणों से इस कानून को कार्यान्वित करने में ढिलाई हुई, पर सन् 1863 से इसकी पूरी पाबंदी होने लगी। भारत में भी ऐसे कायदे-कानून बनाए गए जिससे यहां की प्राचीन नौ-निर्माण कला का अन्त हो जाए। भारतीय जहाजों पर लदे हुए माल की चुंगी बढ़ा दी गई और इस तरह उनको व्यापार से अलग करने का प्रयत्न किया गया। सर विलियम डिग्वी ने ठीक ही लिखा है कि "पाश्चात्य संसार की रानी ने इस तरह प्राप्च सागर की रानी का वध कर डाला।" संक्षेप में भारतीय नौ-निर्माण कला को नष्ट करने की यही कहानी है।

लेखक - सुरेश सोनी जी ( पांचजन्य )

Thursday, February 15, 2018

ईश्वर-प्राप्ति का उपाय यम और नियम



ईश्वर-प्राप्ति का उपाय यम और नियम

प्रियांशु सेठ

मूर्तिपूजा अर्वाचीन है,वेदादि शास्त्रों के विरुद्ध और अवैदिक है फिर हम अपने ईश्वर को कैसे प्राप्त करें? हमारी उपासना-विधि क्या हो?
उपासना का अर्थ है समीपस्थ होना अथवा आत्मा का परमात्मा से मेल होना।महर्षि पतञ्जलि द्वारा वर्णित अष्टाङ्गयोग के आठ अङ्गब्रह्मरूपी सर्वोच्च सानु-शिखर पर चढ़ने के लिए आठ सीढ़ियाँ हैं।उनके नाम हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।

यहां प्रत्येक का संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत किया जाता है-

१-- यम पाँच हैं-

(१)अहिंसा- अहिंसा का अर्थ केवल किसी की हत्या न करना ही नहीं अपितु मन,वचन और कर्म से किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार कष्ट न देना,किसी को हानि न पहुंचाना और किसी के प्रति वैरभाव न रखना अहिंसा है।उपासक को चाहिए कि किसी से वैर न रखे,सबसे प्रेम करे।उसकी आँखों में सबके लिए स्नेह और वाणी में माधुर्य हो।पशुओं को मारकर अथवा मरवाकर उनके मांस से अपने उदर को भरनेवाले तीन काल में भी योगी नहीं बन सकते।साधक को प्रत्येक स्थान में,प्रत्येक समय और प्रत्येक परिस्थिति में अहिंसाव्रती होना चाहिए।'अहिंसा परमो धर्म:'अहिंसा परम धर्म है।अहिंसा का उद्देश्य है मनुष्य के अन्दर छिपी हुई उग्र, क्रूर और पाशविक वृत्तियों को जड़मूल से उखाड़ फेंकना।जब मन में हिंसा की छाया तक न दिख पड़े,तब समझना चाहिए कि अहिंसा की सिद्धि हो गई, अहिंसा का फल क्या है?
महर्षि पतंजलि लिखते हैं-

अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्संनिधौ वैरत्याग:।
                  -योगदर्शन साधन० ३५
हृदय में अहिंसा के प्रतिष्ठित होने पर अहिंसक के समीप सांप,बाघ आदि हिंसक प्राणी भी वैरभाव का परित्याग कर देते हैं।
अहिंसा की सिद्धि के बिना अन्य यमों की सिद्धि नहीं हो सकती,इसलिए यमों में इसे सर्वप्रथम स्थान दिया गया है।

(२)सत्य- सत्य द्वितीय यम है।साधक मन,वचन और कर्म से सत्य जाने, सत्य माने,सत्य बोले और सत्य ही लिखे,मिथ्या-असत्य न बोले,न मिथ्या व्यवहार ही करे।सत्यस्वरूप परमेश्वर को पाने के लिए साधक को सर्वथा सत्यनिष्ठ बनना होगा।सत्यस्वरूप प्रभु का साक्षात्कार करने के लिए उपासक को सत्य में ही जीना होगा,सत्यस्वरूप ही बनना होगा और सत्य के प्रति आंशिक नहीं सम्पूर्ण तथा सर्वोपरि लगाव रखना होगा।साधना की नींव रखने के लिए सत्यव्रती बनना अत्यावश्यक है।सत्य सबसे बड़ा व्रत है।
उपासक कहता है-

अहमनृतात्सत्यमुपैमि। -यजु० १/५

मैं असत्य को त्याग कर जीवन में सत्य को ग्रहण करता हूँ।

वेदादिशास्त्र सत्य की महिमा से भरे पड़े हैं।
उपनिषदों में कहा है-

सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा। -मुण्डको० ३/१/५

परमात्मा सत्य और तप से ही प्राप्त होता है।

सत्यमेव जयते नानृतम्। -मुण्डको० ३/१/६

सत्य की ही विजय होती है,असत्य की नहीं।

महाभारत में कहा गया है-

सत्यं स्वर्गस्य सोपानम्। -महा० उद्यो० ३३/४७

सत्य स्वर्ग की सीढ़ी है।

महर्षि मनु का कथन है-

नास्ति सत्यात्परो धर्मो नानृतात्पातकं परम्। -मनु० ८/८२

सत्य से बढ़कर कोई धर्म और असत्य से बढ़कर कोई पाप नहीं है।

सत्यभाषण का फल बताते हुए महर्षि पतञ्जलि कहते हैं-

सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्।
                 -यो० द० साधन० ३६
सत्य में प्रतिष्ठित होने पर व्यक्ति वाक्सिद्ध हो जाता है।

सत्य के महत्त्व को समझकर जीवन में सत्य को धारण करो।सत्य में निवास करो।सत्य में मूर्त्तरूप बन जाओ।मन,वाणी और कर्म से सच्चे रहो।

(३)अस्तेय- यमों में तीसरा यम है अस्तेय।स्तेय का अर्थ है चोरी करना,अस्तेय का अर्थ है मन,वचन और कर्म से चोरी न करना।साधक चोरी न करे,सत्य व्यवहार करे।स्वामी की आज्ञा के बिना किसी पदार्थ को न उठाये।

स्तेयरूपी अवगुण सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है।व्यक्ति के लिए जितना आवश्यक है उससे अधिक पर अधिकार करने के लिए जो भी कार्य किया जाता है वह नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से चोरी ही है।आवश्यकता से अधिक खाना भी चोरी है।बस या रेल में टिकट न लेना और मेरे पास पास(Pass)अथवा 'सीजनल टिकट'है,ऐसा कहकर निकल जाना चोरी है।खोटा सिक्का चलाना अथवा दुकानदार द्वारा अज्ञान के कारण दिए गए अधिक धन को जेब में रख लेना भी चोरी है।उत्कोच(घूस)देकर काम बना लेना भी चोरी है।

मनुष्य चोरी क्यों करता है?चोरी का वास्तविक कारण मनुष्य की अनगिनत इच्छाएं और अनियन्त्रित इन्द्रियाँ हैं।चोरी से बचने के लिए साधक को अपनी इच्छाओं को नियन्त्रित, इन्द्रियों को अनुशासित और मन को वश में करना होगा।

अस्तेय की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए महर्षि पतञ्जलि लिखते हैं-

अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्।।
                  -यो० द० साधन० ३७
मनुष्य के हृदय में अस्तेय की प्रतिष्ठा हो जाने पर उसके सामने संसार के सब रत्न स्वयमेव उपस्थित हो जाते हैं अर्थात् अस्तेय में प्रतिष्ठित व्यक्ति को कभी धन-रत्न का अभाव नहीं रहता।

(४)ब्रह्मचर्य- ब्रह्मचर्य दो शब्दों के मेल से बना है-ब्रह्म और चर्य।ब्रह्म का अर्थ है ईश्वर, वेद, ज्ञान और वीर्य।चर्य का अर्थ है चिन्तन, अध्ययन, उपार्जन और रक्षण।इस प्रकार ब्रह्मचर्य का अर्थ होगा-साधक ईश्वर का चिन्तन करे, ब्रह्म में विचरे, वेद का अध्ययन करे, ज्ञान का उपार्जन करे और वीर्य का रक्षण करे।

ब्रह्म में विचरण के लिए मन का विषय-वांसनाओं से सर्वथा मुक्त होना अत्यावश्यक है।विषय-वासनाओं में कामवासना सबसे प्रबल और घातक है,अतः ब्रह्मचर्य का अर्थ प्रमुख रूप से वीर्यरक्षण किया जाता है।साधक जितेन्द्रिय हो, लम्पट न हो।

ब्रह्मचर्य का उद्देश्य है- खाये हुए अन्न को ओजशक्ति में परिवर्तित कर देना है।ब्रह्मचर्य का अर्थ है- मनुष्य में विद्यमान पाशविक शक्तियों को संयमित करना, उनका संरक्षण करना, उन्हें उच्च स्तर की ओर उन्मुख करना और खाये हुए अन्न को ओजशक्ति में रूपान्तरित कर देना।

ब्रह्मचर्य की महिमा महान् है।उपनिषदों में कहा गया है-

नाअयमात्मा बलहीनेन लभ्य:। -मुण्डको० ३/२/४

ब्रह्मचर्य से हीन व्यक्ति परमात्मा को नहीं पा सकता।

साधक के लिए ब्रह्मचर्य उसी प्रकार आवश्यक है,जैसे विद्युत से चलनेवाली गाड़ी के लिए विद्युत्।इसके बिना साधक योगमार्ग में उन्नति नहीं कर सकता।ब्रह्मचर्य की शक्ति द्वारा ही चंचल इन्द्रियों और कुटिल मन पर विजय पाई जा सकती है।वेद में ब्रह्मचर्य की महिमा के सम्बन्ध में कहा गया है-

ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत।
                   -अथर्व० ११/५/१९
ब्रह्मचर्य और तप के द्वारा विद्वान् लोग मौत को भी मार भगाते हैं।

महर्षि पतञ्जलि लिखते हैं-

ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः। -यो० द० साधन० ३८

ब्रह्मचर्य में प्रतिष्ठित होने पर वीर्यलाभ होता है।अर्थात् ब्रह्मचर्य-प्रतिष्ठित व्यक्ति के देह में परमेश्वर की विमल ज्योति प्रकाशित होती है।

उपस्थेन्द्रीय के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों पर भी नियन्त्रण रखना चाहिए।आंखों के रूप में जाने से,कानों को शब्दों की ओर दौड़ लगाने से,नासिका को गन्ध की ओर भागने से,जिह्व को रसपान से,त्वचा को स्पर्श-आनन्द में मग्न होने से रोको।सभी इन्द्रियों का निरोधरूपी ब्रह्मचर्य साधक को ब्रह्म-साक्षात्कार की ओर ले जाएगा।

(५)अपरिग्रह- अपरिग्रह का अर्थ है-आवश्यकता से अधिक पदार्थों का संग्रह न करना।साधक उतने ही पदार्थों का संग्रह करे जितने सादा जीवन के लिए आवश्यक हैं।किसी भी वस्तु को क्रय करने से पहले गम्भीरतापूर्वक सोच लो।यदि उनके बिना काम न चलता हो तभी खरीदो।पदार्थों के अधिक संग्रह से आज मानव दुःख पा रहा है।

विषयों के अर्जन, रक्षण, क्षय(नाश), सङ्ग(उपभोग), हिंसा(संग्रह में पर-पीड़ा) आदि दोषों को देखकर उनको स्वीकार न करना,उन्हें त्याग देना अपरिग्रह है।

अपरिग्रह का एक अर्थ अभिमान न करना भी है।साधक विनम्र बने।वह निरभिमानी हो,अभिमान कभी न करे।विद्या, धन, जल, बल आदि जिन बातों पर मनुष्य अभिमान करता है,उनमें से एक भी ऐसी नहीं है,जिस पर अभिमान किया जा सके।

अपरिग्रह का फल क्या है?
महर्षि पतञ्जलि लिखते हैं-

अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्ता सम्बोध:।
                  -यो० द० साधन० ३९
अपरिग्रह में प्रतिष्ठा-दृढ़ता होने पर पूर्वजन्म के कारणों का बोध होता है।

ये पांच यम मिलकर उपासना-योग का प्रथम अङ्ग है।

२-- नियम भी पांच हैं-

(१)शौच- शौच के अर्थ है पवित्रता।साधक अन्दर और बाहर से पवित्र रहे।राग-द्वेष के त्याग से आन्तरिक और जलादि के द्वारा बाह्य सम्पादित करनी चाहिए।शरीर की दशा का मन पर बहुत प्रभाव पड़ता है,अतः शरीर को स्नान से पवित्र करना चाहिए।वेश-भूषा भी पवित्र हो रहने का स्थान भी साफ-सुथरा हो।गन्दे और जहां समान अस्त-व्यस्त पड़ा हो ऐसे स्थान पर भी मन नहीं लग सकता।अन्तः शुद्धि का भी ध्यान रखना चाहिए।अण्डा, मांस-मछली खानेवाले, शराब पीनेवाले, सिगरेट, बीड़ी, चरस, गांजा, अफीम सेवन करने वालों का मन भी दूषित हो जाता है।

शौचात् स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्ग:।
                  -यो० द० साधन० ४०
पवित्रता में प्रतिष्ठित होने पर अपने अङ्ग से विरक्ति और दूसरे स्त्री-पुरुषों के साथ सङ्गति से भी वितृष्णा हो जाती है।

शौच से बुद्धि की शुद्धि, मन की विमलता, एकाग्रता, इन्द्रियजय और आत्मदर्शन की योग्यता प्राप्त होती है।

(२)सन्तोष- सन्तोष का अर्थ बहुत गलत समझा गया है।सन्तोष का अर्थ हाथ पर हाथ रखकर निठल्ला बैठना नहीं है।सन्तोष का अर्थ है- आलस्य छोड़कर सदा पुरुषार्थ करना।धर्मपूर्वक पुरुषार्थ करके लाभ में प्रसन्न और हानि में अप्रसन्न न होना।'सन्तोष' सुख और शान्ति प्राप्त करने की कुञ्जी है।महर्षि पतंजलि कहते हैं-

सन्तोषादनुत्तमसुखलाभ:। -यो० द० साधन० ४२

सन्तोष की सिद्धि होने पर ऐसा सुख प्राप्त होता है जिससे बढ़कर और कोई सुख नहीं है।वह सुख वर्णनातीत है।

महर्षि व्यास लिखते हैं-

यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम्।
तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हत: षोडशीं कलाम्।।
                     -महा० शान्ति० १७६/४६
इस संसार में काम्य वस्तु का जो उपभोगजनित सुख है अथवा स्वर्ग का जो महान् सुख है, वह तृष्णाक्षय से उतपन्न होने वाले सुख के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं है।

हां, एक बात का ध्यान रखें।सन्तोष सांसारिक बातों में ही करना चाहिए, साधना में नहीं।साधना में तो असीम असन्तोष होना चाहिए।साधक को प्रभु के प्रति अपनी भक्ति और प्रेम से कभी सन्तुष्ट नहीं होना चाहिए।

(३)तप- तप के सम्बन्ध में भी अनेक भ्रान्तियाँ फैली हुई हैं।कोई समझता है कि एक पाँव पर खड़े रहना अथवा एक या दोनों हाथ ऊपर खड़े रखने का नाम तप है।कोई समझता है कि शीत ऋतु में ठण्डे पानी में खड़ा रहना तप है।कोई समझता है कि ग्रीष्मकाल में पञ्चाग्नि तपना तप है।किसी के अनुसार स्वयं को पृथिवी में गाड़ देना तप है।किसी के मत में कीलों पर लेटना तप है।वस्तुतः यह सब-कुछ तप नहीं है।तप का वास्तविक अर्थ है-'द्वन्द्वसहनं तप:'-कष्ट आने पर भी धर्मकार्यों को करते जाना तप है।हानि-लाभ, जीवन-मरण, सुख-दुःख, भूख-प्यास, हर्ष-शोक में सम रहने का नाम तप है।

तप का धातु-अर्थ है-'तप दाहे'-जलना-जलाना।अग्नि के दो गुणों का सदा ध्यान रखना चाहिए-यह पदार्थों को शुद्ध करती है और तेजयुक्त है।तप भी एक प्रचण्ड प्रक्रिया है जो मनुष्य के मलों को जलाकर उसे आत्मचैतन्य के प्रकाश से उद्भासित करती है।

तप का फल है बल की प्राप्ति।जिस तप से शरीर में कान्ति, ओज और तेज की वृद्धि नहीं होती,वह तप नहीं है।

तप न करने पर योग में गति नहीं हो सकती।जैसा कि कहा गया है-

नातपस्विनो योग: सिध्यति।

जो तपस्वी नहीं है,उससे योग में सिद्धि-लाभ नहीं हो सकता।

उपनिषदों में कहा गया है-

तपसा चीयते ब्रह्म। -मुण्डको० १/१/८

ब्रह्म की प्राप्ति तप द्वारा ही सम्भव है।

वेद में कहा है-

अतप्ततनूर्न तदामो अश्नुते। -ऋ० ९/८३/१

जिसने तप की भट्टी में अपने शरीर को तपाया नहीं है,ऐसा कच्चा व्यक्ति उस प्रभु को नहीं पा सकता।

महर्षि पतंजलि ने लिखा है-

कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात्तपस:। 
               -यो० द० साधन० ४३
तप से अशुद्धि का नाश होकर शरीर और इन्द्रियों की सिद्धि मिलती है।तप के द्वारा शारीरिक क्रान्ति और इन्द्रियों में सूक्ष्म विषयों को ग्रहण करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है।

(४)स्वाध्याय- नियम का चतुर्थ अङ्ग है स्वाध्याय।स्वाध्याय का अर्थ है-वेद का अध्ययन-अध्यापन और ऋषि-मुनियों द्वारा लिखित सत्यशास्त्रों को पढ़ना-पढ़ाना।वेद परमात्मा का दिव्यज्ञान है।यह मानव-कर्त्तव्यों का बोधक शास्त्र है,ज्ञान और विज्ञान का अगाध भण्डार है।अपने कर्त्तव्यों को जानने के लिये वेद का स्वाध्याय करना ही चाहिए।ऋषि-मुनिकृत ग्रन्थों में वेदों का व्याख्यान है,इसलिए उन्हें भी पढ़ना चाहिए।इस विषय में महर्षि दयानन्द सरस्वती लिखते हैं-

"महर्षि लोगों का आशय जहां तक हो सके वहां तक सुगम और जिसके ग्रहण में समय थोड़ा लगे,इस प्रकार की रचना करने का होता है और क्षुद्राशय लोगों की मनसा ऐसी होती है कि जहां तक बने वहां तक कठिन रचना करनी,जिसको बड़े परिश्रम से पढ़के अल्प-लाभ उठा सकें;जैसे पहाड़ का खोदना,कौड़ी का लाभ होना,और आर्ष ग्रन्थों का पढ़ना ऐसा है कि एक गोता लगाना,बहुमूल्य मोतियों का पाना।"
                    सत्यार्थप्रकाश,तृतीय समुल्लास
मोक्ष-विधायक ग्रन्थों का पढ़ना ही स्वाध्याय है।समाचार-पत्र पढ़ना,नावल,किस्से,कहानियां और अश्लील पुस्तकें पढ़ना स्वाध्याय नहीं है।साधक को सदा उत्तम ग्रन्थों का स्वाध्याय करना चाहिए।
उपनिषदों में कहा है-

स्वाध्यायान्मा प्रमद:। -तैत्तिरीयोप० शिक्षा ११

स्वाध्याय में, वेद के अध्ययन में कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए।स्वाध्याय का अर्थ है सत्पुरुषों का सङ्ग।साधक को सदा सज्जनों की संगति में रहना चाहिए।सत्सङ्ग से मनुष्य ऊंचा उठता है।महर्षि दयानन्द सरस्वती का सत्सङ्ग पाकर नास्तिक, शराबी और कबाबी मुंशीराम परम आस्तिक स्वामी श्रद्धानन्द बन गए।महता अमीरचन्द भी बदल गए।पं० लेखराम आर्यमुसाफिर, पं० गुरुदत्त जी विद्यार्थी आदि कितनों के जीवन पलट गए।

स्वाध्याय का एक और अर्थ है-प्रतिदिन परमात्मा के सर्वोत्तम नाम 'ओ३म्' का अर्थपूर्वक जप करना।
वेद में कहा है-

ओ३म् क्रतो स्मर। -यजु० ४०/१५

हे कर्मशील जीव!तू ओ३म् का स्मरण कर।
और
ओ३म् प्रतिष्ठ। -यजु० २/१३

तू ओ३म् में प्रतिष्ठित हो जा अथवा ओ३म् को ओ३म् नामक परमात्मा को अपने हृदय-मन्दिर में बिठा ले।

महर्षि पतंजलि में स्वाध्याय का फल बताते हुए कहा है-

स्वाध्यायादिष्टदेवतासंप्रयोग:। -यो० द० साधन० ४४

स्वाध्याय से इष्ट देवता-परमेश्वर का दर्शन,साक्षात्कार होता है।

(५)ईश्वरप्रणिधान- नियमों में ईश्वरप्रणिधान का स्थान सर्वोच्च है।ईश्वरप्रणिधान के दो अर्थ हैं-एक,बिना किसी इच्छा, आकांक्षा और मांग के अपने-आपको,अपने सब कामों को,अपने सब संकल्पों को प्रभु को समर्पित कर देना।जो परमात्मा से कुछ मांगते हैं,उन्हें तो प्रभु केवल वही वस्तु देता है,जो वे मांगते हैं,परन्तु जो कुछ नहीं मांगते,उन्हें परमेश्वर सब-कुछ देता है।और अन्त में अपने आपको भी दे देता है,अपना साक्षात्कार भी करा देता है।दूसरा अर्थ है-हृदय में ईश्वर का प्रेम रखते हुए,ईश्वर की विशेष भक्ति या उपासना करते हुए ईश्वर की कृपा,दया और प्रसन्नता का पात्र बनना।ईश्वरप्रणिधान से अहं-भाव नष्ट होता है और जीवन में नम्रता आती है।इसका फल क्या है?

समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात्। -यो० द० साधन० ४५

ईश्वरप्रणिधान से योग के सर्वोच्च फल समाधि की सिद्धि होती है।

ये पांच नियम मिलकर उपासना योग का दूसरा अङ्ग कहलाता है।

३-- आसन- यह योग का तीसरा अंग है।महर्षि पतंजलि के अनुसार आसन का अर्थ है-

स्थिरसुखमासनम्। -यो० द० साधन० ४६

शरीर न हिले,न डुले,न दुखे और चित्त में किसी प्रकार का उद्वेग न हो,ऐसी अवस्था में दीर्घकाल तक सुख से बैठने को आसन कहते हैं।

साधक को ऐसे आसन में बैठना चाहिए जिसमें कष्ट न होकर स्थिर सुख की प्राप्ति हो।आसन के दृढ़ होने पर उपासना सरल हो जाती है।एक आसन में निश्चलतापूर्वक बैठने से श्वास-प्रश्वास की गति संयत होने लगती है और मन भी लय होने लगता है।आसन निरन्तर अभ्यास से ही सिद्ध किया जा सकता है।बिना हिले-डुले तीन घण्टे तक एक ही आसन में बैठना आसनजय कहलाता है।आसनजय के पश्चात् साधक योग के श्रेष्ठ और गुरुतर विषय प्राणायाम की ओर अग्रसर होने लगता है।योगसाधना के लिए मुख्यासन चार हैं--सिद्धासन, पद्मासन, स्वस्तिकासन और सुखासन।

४-- प्राणायाम- प्राणायाम राजयोग का चौथा अङ्ग है।प्राण और मन का घनिष्ठ सम्बन्ध है।जहां-जहां प्राण जाता है,वहां-वहां मन भी जाता है।यदि प्राण वश में हो जाए तो मन बिना प्रयास के स्वयं वश में हो जाता है।

प्राणायाम क्या है?
महर्षि पतंजलि लिखते हैं-

तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद: प्राणायाम:।
                       -यो० द० साधन० ४९
आसन सिद्ध होने पर श्वास और प्रश्वास की गति को रोकने का नाम प्राणायाम है।

महर्षि मनु ने प्राणायाम की महत्ता के सम्बन्ध में लिखा है-

दह्यन्ते ध्मायमानानां धातूनां हि यथा मला:।
तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषा: प्राणस्य निग्रहात्।।
                        -मनु० ६/७१
जैसे अग्नि में तपाने से स्वर्णादि धातुओं के मल नष्ट होकर वे शुद्ध हो जाते हैं,वैसे ही प्राणायाम के द्वारा मन आदि इन्द्रियों के दोष दूर होकर वे निर्मल हो जाती हैं।

५-- प्रत्याहार- प्रत्याहार का अर्थ है-पीछे लौटाना।इन्द्रियों को उनके भोंगों से लौटाने का नाम प्रत्याहार है।जब आंखें खुली रहने पर भी रूप को देखना बन्द कर दें,कान शब्दों का सुनना बन्द कर दें,नासिका गन्ध का ग्रहण न करे,जिह्वा रस को न चखे और त्वचा स्पर्श का अनुभव न करे,उस अवस्था का नाम प्रत्याहार है।
मोटे शब्दों में कहें तो मन को एक लक्ष्य पर एकाग्र करने के लिए उसे बाह्य विषयों से समेटने का नाम प्रत्याहार है।बाह्य विषयों से हटने पर ही मन को ध्यान-लक्ष्य पर केन्द्रित किया जा सकता है प्रत्याहार वह महान् कुञ्जी है जो धारणा, ध्यान और समाधि के द्वारों को खोल देती है।

६-- धारणा- अष्टाङ्ग योग के पूर्वकथित यमादि पांच अङ्ग योग का बहिरङ्ग है,भूमिकामात्रा है,वास्तविक योग नहीं है।योग का आरम्भ धारणा से होता है।धारणा का अर्थ है-मन को एकाग्र करना,मन को किसी एक विषय पर केन्द्रित करना।
महर्षि पतंजलि लिखते हैं-

देशबन्धश्चित्तस्य धारणा। -यो० द० विभूति० १

चित्त को किसी देश-स्थानविशेष में,शरीर के भीतर या बाहर बांधने-लगाने का नाम धारणा है।

नाभिचक्र, हृदय, भ्रूमध्य, नासिकाग्र या ब्रह्मरन्ध आदि किसी स्थान पर चित्त को ठहरा रखने का नाम धारणा है।

७-- ध्यान- धारणा की परिपक्वता का नाम ही ध्यान है-

तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्। -यो० द० विभूति० २

धारणा में प्रत्यय-ज्ञान का एक-सा बना रहना ही ध्यान है।जिस स्थान पर चित्त को एकाग्र किया गया है,उस एकाग्रता का ज्ञान तैलधारावत् निरन्तर एक-सा बना रहे और उस समय अन्य किसी प्रकार का ज्ञान या विचार चित्त में न आने पाए, इस अवस्था को ही ध्यान कहते हैं।

८-- समाधि- निरन्तर अभ्यास और वैराग्य में सम्यक् अवस्थिति होने से एकाग्रता बढ़ती है तथा अखण्ड क्रम से गतिमान रहती है,फिर अन्ततः प्रगाढ़ ध्यान में निमग्न होने की अवस्था आती है,जो राज-योग की आठवीं अवस्था है।इसी को समाधि कहते हैं।
पतंजलिजी कहते हैं-

तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधि:।-यो० द० विभूति० ३

ध्यान में जब अर्थ-ध्येयमात्र का प्रकाश रह जाए और ध्याता(उपासक)अपने स्वरूप से शून्य-सा हो जाये,उस अवस्था का नाम समाधि है।

योग के इन आठ अङ्गों को साधे बिना कोई भी साधक साधना में सफल नहीं हो सकता,अतः प्रत्येक उपासक, साधक, भक्त को इनका अभ्यास करना चाहिए।

यहां प्रार्थना की एक रूपरेखा दी जा रही है-

योगेयोगे तवस्तरं वाजेवाजे हवामहे।
सखाय इन्द्रमूतये।। -ऋ० १/३०/७

हे सच्चिदानन्दस्वरूप! हे सर्वाधार! हे करुणामृतवारिधे! हे सर्वशक्तिमन्! हे न्यायकारिन्! हे परमदेव प्रभो! आप ज्योतिपुत्र और आनन्द के अथाह सागर हो। देव! आपको मेरा नमस्कार हो,बारम्बार नमस्कार हो।

ओ३म्। भूर्भुवः स्व:। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्।। -यजु०३६/३

हे सर्वरक्षक! सच्चिदानन्दस्वरूप परमेश्वर! आप सकल जगत् के उत्पादक और वरण करने योग्य हैं। हम आपसे कामना करने योग्य, आनन्दप्रद, शुद्ध एवं तेजस्वरूप का ध्यान करते हैं। आप हमारी बुद्धियों को श्रेष्ठ मार्ग की ओर प्रेरित करें।

अतः अपने प्रियतम प्रभु को अष्टाङ्गयोग के इन्हीं आठ अङ्गब्रह्मरूपी सर्वोच्च आठ सीढ़ियों द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।