"आदि सृष्टि मे मनुष्य के उत्पन्न होनेपर शंका"
(पंडित रघुनानंदन शर्मा जी की पुस्तक अक्षरविज्ञान पर आधारित)
प्रस्तुतकर्ता- सहदेव शास्त्री, संपादक, शांतिधर्मी मासिक पत्रिका, जींद, हरियाणा
(केंद्रीय राज्य मंत्री डॉ सत्यपाल सिंह जी के डारविन के विकासवाद के सिद्धांत को अवैज्ञानिक करार देने पर हमारे देश के कुछ तथाकथित लोग अधिक से अधिक शोर कर रहे हैं। जबकि होना यह चाहिये था कि इस विषय पर भारत के शीर्घ वैज्ञानिक बैठकर चिंतन मनन करते। पक्ष और विपक्ष में प्रमाण प्रस्तुत करते। अंत में निष्कर्ष पर पहुँचते। यह लेख उसी कड़ी में विकासवाद के खंडन के लिए प्रस्तुत किया जा रहा हैं।)
विकासवाद वालों के दिलो पर यह शंका भी होती होगी कि अकस्मात् कैसै अनेक प्राणी और मनुष्यादि शरीरवाले सृष्टि की आदि मे अनायास अपने अपने रुप में निकल पडे होंगे ? हम कहते है घबराने की बात नही है . सावधान होकर सृष्टि को देखो, वह आपको जवाब दे देगी । देखो बरसात में बीरबहूटी ( बरसाती किड़ा ), केंचुऐ , मेंढक आदि कैसै उसी रुप में पैदा हो पढते है जिसमे वे सैकड़ों वर्ष पूर्वसे हरसाल बरसात में पैदा होते थे । उनको क्रमक्रम विकासकी जरुरत क्यों नहीं होती मेंढक तो ऐसा विचित्र जन्तु है और अपने जन्मका ऐसा सुन्दर नाटक दिखलाता है कि लोग दंग रह जाते है । किसी मेंढक का चूर्ण बनाकर और बारीक कपडे में छानकर शीशी में बन्द कर लीजिये बरसात में उस चूर्णको पानी बरसते समय जमीनपर डाल दीजीये तुरन्त ही छोटे छोटे मेंढक कूदने लगेंगे । इनको क्रमक्रम उन्नतिकी क्यों दरकार नहीं होती ? आज जब सृष्टि में इतने दिन होजानेपर भी इतना बल मौजूद है कि वह हरसाल बरसात मे एक एक फुट और डेढ़ डेढ़ फुटके कीडे केंचुऐ बिना माता पिताके पैदा कर सकती है तो क्या अरबों वर्ष पूर्व जब सृष्टि में पूर्ण बल मौजूद था, इस पाँच फीट लम्बे कीडे ( मनुष्य ) के उत्पन्न करने में असमर्थ कही जा सकती है ? कभी नहीं । अतः यह निश्चय है निर्विवाद है निसंशय है कि आदिसृष्टि में मनुष्य इसी प्रकारका हुआ जिस प्रकार का अब है । और होना भी तो चाहिये था ।
क्योंकि पूर्व सृष्टि में जिनको मनुष्य शरीरके सुख दुःख भोगने को बाकी रहगये थे उन्हे मनुष्य बनाना ही तो न्याय था क्योंकि यदि कोई मनुष्य दिन समाप्त हो जानेपर रात्रि आजाने के कारण सोजाय तो क्या दूसरे दिन प्रातःकाल उसे मनुष्य ही रुपमें न जागना चाहिये ? अवश्य मनुष्य ही रुपमें जागना चाहिये । बस ठीक इसी भाँति आदि सृष्टि में भी कर्मानुसार अमैथुनी सृष्टी द्वारा प्रथम मनुष्यों की सृष्टि हुई ।
क्योंकि पूर्व सृष्टि में जिनको मनुष्य शरीरके सुख दुःख भोगने को बाकी रहगये थे उन्हे मनुष्य बनाना ही तो न्याय था क्योंकि यदि कोई मनुष्य दिन समाप्त हो जानेपर रात्रि आजाने के कारण सोजाय तो क्या दूसरे दिन प्रातःकाल उसे मनुष्य ही रुपमें न जागना चाहिये ? अवश्य मनुष्य ही रुपमें जागना चाहिये । बस ठीक इसी भाँति आदि सृष्टि में भी कर्मानुसार अमैथुनी सृष्टी द्वारा प्रथम मनुष्यों की सृष्टि हुई ।
अब कुछ विद्वानों युरोपीय और भारतीय के प्रमाण देते है :-
(1) प्रोफेसर मैक्समुलर लिखते हैं कि " हमें इस बात के चिन्तन करने का अधिकार है कि करोड़ों मनुष्यों के होजाने के पहिले आदिमें थोडेही मनुष्य थे । आजकल हमें बताया जाता है कि यह कभी नहीं होसकता कि पहिले पहिले मनुष्य उत्पन्न हुआ हो । एक समय था जब कि थोडेही आदिपुरुष और थोडीही आदि स्त्रियाँ उत्पन्न हुई थी " । ( देखो चिप्स फाॅर्म ए जर्मन वार्कशाॅप जिल्द 1 पृष्ठ 237 क्लासी फिकेशन ऑफ मैन काईंड )
(2) न्यायमूर्ति मद्रास हायकोर्टा के भूतपूर्व जज टी.एल. स्ट्रैअ महोदयने तो अपनी पुस्तक में स्वीकार किया है कि " आदिसृष्टि अमैथुनी होती है और इस अमैथुनी सृष्टि में उत्तम और सुडौल शरीर बनते है "।
संसारकी प्रचलित सभ्यताओं से साबित होता है कि मनुष्य आरम्भ सृष्टि से ही इस आकार प्रकारका है -
मानव उत्पत्ती के बाद से ।
आदिसृष्टी से संकल्पसंवत् = १,९७,२९,४०,११७
वैवस्त मनु से आर्यसंवत् = १२,०५,३३,११७
चीन के प्रथम राजा से चीनी संवत् = ९,६०,०२,५१७
खता के प्रथम पुरुष से खताई संवत् = ८,८८,४०,३८८
पृथिवी उत्पत्ति का चाल्डियन संवत् =२,१५,००,०८७
ज्योतिष -विषयक् चाल्डियन संवत्= ४,७०,०८७
ईरान के प्रथम राजा से ईरानियन संवत्= १,८९,९९५
आर्यों के फिनीशिया जाने के समय से फिनीशियन संवत्=३०,०८७
इजिप्त जाने के समय से इजिप्शियन संवत् = २८,६६९
किसी विशेष घटना से इबरानियन संवत्=६,०२९
कलियुग के आरंभ से कलियुगी संवत्=५,११७
युधियुधिष्के प्रथम राज्यरोहण से युधिष्ठिर सवंत्= ४,१७२
मूसा के धर्मप्रचार से मूसाई संवत् =३,५८३
ईसा के जन्म दिन से ईसाई संवत्= २,०१६
आदिसृष्टी से संकल्पसंवत् = १,९७,२९,४०,११७
वैवस्त मनु से आर्यसंवत् = १२,०५,३३,११७
चीन के प्रथम राजा से चीनी संवत् = ९,६०,०२,५१७
खता के प्रथम पुरुष से खताई संवत् = ८,८८,४०,३८८
पृथिवी उत्पत्ति का चाल्डियन संवत् =२,१५,००,०८७
ज्योतिष -विषयक् चाल्डियन संवत्= ४,७०,०८७
ईरान के प्रथम राजा से ईरानियन संवत्= १,८९,९९५
आर्यों के फिनीशिया जाने के समय से फिनीशियन संवत्=३०,०८७
इजिप्त जाने के समय से इजिप्शियन संवत् = २८,६६९
किसी विशेष घटना से इबरानियन संवत्=६,०२९
कलियुग के आरंभ से कलियुगी संवत्=५,११७
युधियुधिष्के प्रथम राज्यरोहण से युधिष्ठिर सवंत्= ४,१७२
मूसा के धर्मप्रचार से मूसाई संवत् =३,५८३
ईसा के जन्म दिन से ईसाई संवत्= २,०१६
"अब प्राचीन ऋषियों का सिद्धांत"
'तत्र शरीरं द्विविधं योनिजमयोनिजं च ' ।। 5 ।। 4/2/5
ऋषि कणाद = वैशेषिक दर्शन शास्त्र ।
ऋषि कणाद = वैशेषिक दर्शन शास्त्र ।
अर्थात् दो प्रकारके शरीर होते है । योनिज और अयोनिज, जिनको हम मैथुनी और अमैथुनी सृष्टि कहते है । उपरोक्त सूत्रकी व्याख्या गौतम जीने प्रशस्तपाद में इस प्रकार की है:-
"तत्रयोनिजमनपेक्षित शुक्रशोणित देवपीणां शरीर धर्मविशेषसंहितेभ्योऽणुम्यो जायते "
इन वचनों में अमैथुनी सृष्टि का यह निर्वचन किया है कि अयोनिज शरीर रजवीर्य के बिनाही होते है, यही बात पुरुषसुक्त के इस वचन मे स्पष्ट होती है कि -
'तेन॑ दे॒वा अय॑जन्त । सा॒ध्या ऋष॑यश्च॒ ये '
अर्थात् आदि में देव साध्य ओर ऋषि परमात्मासे ही हुए । यहातक हमने अपनी क्षुद्र बुद्धि के परिणामसे सृष्टि नियमो और विज्ञान के गूढ़ रहस्यों, प्राणी, धर्मशास्त्र और वनस्पति शास्त्र के धर्मों के साथ साथ युरोपीय और भारतीय मान्य पण्डितों के अनुमोदन समर्थन तथा संसारके प्रचलित सभ्यताओं के साथ सावित किया कि आदिसृष्टि में मनुष्य ही पैदा हुआ था । मनुष्य का पिता मनुष्य ही था । साथही साथ यह भी दिखाया कि विकासवाद या डार्विन थ्योरी मतानुसार सृष्टि शृंखला सिद्ध नहीं होती । आशा है कि विचारशील पुरुष इस बात को तनिक समय न लगाते ही ग्रहण कर आगः अनुसंधान करनेकी सुविधा प्राप्त करेंगे ।
आदि सृष्टि एकही स्थानमें हुई
नदीके सूख जानेपर जिस प्रकार रेतमें कोई वृक्ष आपही आप नहीं उग निकलता और न समुद्र में घाटा हो जानेपर वालूसे दरख्त उगता हुआ देखा गया है । इसी प्रकार हम सृष्टि में बडे़ गौरसे देखते है कि जब कोई नई भूमि समुद्र के पेटसे बाहर निकलती है और रेतके मैदानों की भांति स्थल रुप में परिणत होती है । तो उसमें तबतक कोई पदार्थ पैदा नहीं होता, जबतक रेत बारीक होकर कुछ लसदार ( मिट्टी ) न होजाय । लसदार हो जानेपर भी बीज आपही आप उसमे से निकल नहीं आता किंतु अनेक कारणों के द्वारा प्रेरित होकर आँधी तूफान पशु , मक्खी, मच्छर आदिसे प्रभावित होकर वहा पहुचता है । जिन लोगो का ख्याल शायद यह हो कि कुछ दिनके बाद उस जड और निर्जीव रेतसे ही वृक्षों के अंकुर निकलने लगते होंगे, उनका वैसाही अनुमान है जैसा किसीने चक्कीसे आटा गिरता देखकर चक्की के भीतर गेहूँ के खेतों का अनुमान किया था ।
अतएव यह घटना हमे बतला रही है कि -
बीज आप ही आप नहीं निकलता किन्तु बीज तलाश करके बड़े यत्नसे किसी अनुकूल स्थान में बोया जाता है । तब पौधे तैयार होते है ओर अन्य स्थानमे लगाये जाते है । यही क्रम हम रोज बगीचे में देखते है । माली पहले एक क्यारीट में बीज तैयार करता है, फिर वहासे पौधे लेकर, सारी फलवाटिका में लगता है तथा काम पड़ने पर दूर देशको भी भेजता है । कहने का मतलब यह कि बीज सर्वत्र पैदा नहीं होता, वह एक ही स्थानसे सर्वत्र फैलता है । अतः इस बीज क्षेत्रन्यायसे मनुष्य भी पहले किसी एक ही स्थान में पैदा हुआ और फिर संसार में फैला ।
माली को जिस प्रकार बीज बोने के लिए दो बातें ध्यान में रखनी पड़ती है, उसी प्रकार मनुष्य के पैदा करनेमे परमात्मा को भी दो बातें ध्यान में रखनी पड़ी होगी ।
माली उसी स्थान में बीज बोता है जहाँ का जल वायु उस पौधे के अनुकूल हो और उसका खाद्य बहुत मिल सके दूसरे आँधी, ओले आदि बाहरी अफ़तों से भी पौधे की रक्षा हो सके । इसीतरह मनुष्य भी ऐसे ही स्थान में पैदा किया गया होगा जहाँ का जल वायु उसके अनुकूल हो और उसका खाद्य उसे मिलसके तथा आँधी, तूफान, जल-प्लावन, अग्नि-प्रपात, भूकंप और अनेक आरंभिक दुर्घटनाओं से उसकी रक्षा हो सके अतएव यदि हम मनुष्य के मिजाज ओर उसके असली आहार को जान ले और किसी ऐसे स्थानका पता लागले जहाँ आँधी, तूफान, जल-प्लावन, अग्नि-प्रपात, भूकंप और अनेक आरंभिक दुर्घटना न ही सकती हों और वह स्थान मनुष्य के मिजाज के अनुकूल और उसके खाद्य उत्पन्न करने में भी योग्य होतो निसंदेह वही स्थान मनुष्य की आदिकी सृष्टि योग्य होगा । मनुष्य ही योग्य नहीं अपितु पशु पक्षी और वनस्पति आदि सभी प्राणियोंकी आदि सृष्टि योग्य होगा । क्योंकि संसार में ऋतुएँ चाहे जितनी हों पर सर्दी और गर्मी ये दो मौसम प्रधान है, यही कारण है कि पृथिवी पर दो ही प्रकार के सर्द और गर्म प्रदेश पाये जाते है और दोनोंमें प्राणियोंकी वस्तियाँ भी पाई जाती है । यहाँ तक की मनुष्य पशु पक्षी और वनस्पति सभी पाये जाते है किन्तु मनुष्योंको छोड़कर सर्दी और गर्म देशों में रहनेवाले पशु पक्षियों के शरीरोंपर बाल अधिक वा कम होते है, अर्थात सर्द देशवालोंके बाल बहुत और गर्म देशवालोंके बाल कम होते है ।
ग्रीनलैण्ड आदि शीतल देशोंमें पशु पक्षी नहीं रहते किन्तु मनुष्य और जलजंतु पाये जाते है, तथापि मनुष्योंके शरीरपर बाल नहीं रहते । इसमें यह बात स्पष्ट होगयी की केवल सरद देशोंमें रहने मात्रसे ही बड़े बड़े बाल उगने नहीं लगते बल्कि जीव जन्तुओं को बाल दिए गए है, उनमे ही हे और जिनको नहीं दिए गए उनमे नहीं है । परंतु यह बात तो निर्विवाद है कि जो बालवाले प्राणी है निसंदेह ठन्डे देशोंके लिए बनाये गए है और जो बिना बालवाले है वे गर्म देशोंके लिए पैदा किये गए है । किंतु स्मरण रहे की यहाँ ठन्डे देश से अभिप्राय ग्रीनलैण्ड नहीं है जहाँ पशु और वृक्ष होते ही नहीं किन्तु मातदिल ठन्डे देशसे अभिप्राय है ।
हिमालय के भेड़े (मेष) बकरे गाय घोड़े और अन्य जिव जन्तुओं के बालोंसे पाया जाता है कि वे उसी देश के अनुकूल है । पर मनुष्यके शरीर पर वैसे बालोंके न होनेसे अर्थात ग्रीनलैण्ड आदि देशोमें न जाने कितने दीर्घकालसे (जहाँ वनस्पति तक नहीं केवल मछली खाकर बर्फकी गुफाओं में रहना पड़ता है ) शीत के कारण शरीर ठिगना हो जाने पर भी उसके शरीरमें बालोंके न ठगने से प्रतीत होता है कि मनुष्य इतने ठन्डे देशोंमें रहने के लिए संसार में नहीं पैदा किया गया वह किसी विशेष विशेष स्थान में ही रहने योग्य है । जब मनुष्य पृथ्वीके अमुक अमुक स्थानमें ही रह सकता है तो यह कल्पना निकाल देने योग्य है कि मनुष्य धरती भर में सर्वत्र पैदा हो सकता है ।
अब यह बात निर्विवाद होगयी कि "मनुष्य प्रधान खाद्य दूध और फल है" दूध पशुओंसे और फल वृक्षोंसे पैदा होते है । इससे पाया जाता है कि मनुष्य के पाहिले वृक्ष और पशु हो चुके है तथा मनुष्य ऐसे मातदिल देशोंमें रह सकता है जहाँ पशु रह सकते हों और वनस्पति उग सकती हों । पहाड़ोंके सबसे ऊंचे बरफानी स्थानों और ग्रीनलैण्ड आदि देशों में वनस्पति नहीं उग सकती इसलिए वहां पशुपक्षी भी नहीं रहते, उससे ज्ञात होता है कि वनस्पति और पशुपक्षी भी मनुष्य की भाँति किसी मातदिल देशके ही रहने वाले है। अर्थात सारी सृष्टि किसी एकही स्थानमें पैदा हुई मालूम होती है ।
इस में आपको दो शंकाये हुई होंगी :- पहिली यह की " ग्रीनलैण्ड आदि में मनुष्य क्यों पाये जाते है " दूसरी यह की " दो प्रकारके सर्द और गर्म प्रदेशोंमें रहनेवाले, बालवाले और बिना बालवाले प्राणी एकही देशमें कैसे उत्पन्न हुए ?"
( 1 ) पहिले प्रश्न के उत्तर में तो आप समझ सकते है कि जब मनुष्य, वृक्ष और पशुओंको बिना अर्थात् दूध और फलोंके बिना रह ही नही सकता और पशु बिना वनस्पतिके नही रह सकते तो ऐसे देशमे जहा ये दोनो पदार्थ न होते हों वहा पैदाही नही हो सकता । विकासवादके अनुसार भी वह वहाँ पैदा नही हो सकता, क्योंकि मनुष्यके पहिले बन्दर होना आवश्यक है और बन्दर विजिटेरियन ( शाकाहारी ) है इसलिऐ वह बन्दर ऐसे देशमे मनुष्यको उत्पन्न नही कर सकता । अतः मालूम होता है कि उन देशोंके निवासी मनुष्य जल स्थलके परिवर्तनों, युद्धों और सभ्यता के समय प्रवासोंके कारण वहाँ गये होंगे और पश्चात् सृष्टि के परिवर्तनों के कारण वहाँ से न आसके होंगे, किन्तु प्रश्न यह है कि पशु पक्षी ऐसे स्थानों मे से किस प्रकार बाहर आ सकते है और किस प्रकार अपने अनुकुल स्थानों को जा सकते है ? इसके उत्तर में निवेदन है कि सृष्टि मे जब कभी कुछ अनुकुलता प्रतिकुलता होती है तो पशु पक्षियों को मालूम हो जाता है और वे वहासे चले जाते है ।
यदि किसी जगह कोई अज्ञात कुआँ बन्द हो और बाहरसे जाहिर न होता हो वहाँ आप भेड़ों को लेजाऐ भेड़ें उस कुऐके ऊपर जमीनसे आ जाएँगी । यदि उनका गोल बैठेगा तो कुएँ का हिस्सा छोड देगा । इनसे भुगर्भ विद्याका बहुतसा हाल मालूम होता है । किंतु शिक्षाका भिखारी केवल मनुष्यही बिना बतलाऐ कुछ भी मालूम नही कर सकता और आफत आनेपर वही फँस जाता है ।
(जो प्राणी जिस देशके अनुकुल बनाया गया है । वहाँ की भूमि, वहाँका जल, वायु उसको खींच लेता है । हिमालयके पक्षी अपने आप वहाँ चले जाते है, जल जन्तु आपसे आप पानीमे चले जाते हैं और पशु आपसे आप अपने अनुकुल जल वायुमे चले जाते है । मिसाल मशहूर है कि " ऊँट नाराज होता है तो पश्चिम को भागता है, क्योंकि मेरु देश पश्चिममे है और ऊँट मेरु देशों मे सुखी रहता है । पशु अपना अनुकुल प्रतिकुल स्थान जानने मे बड़े कुशल होते है ।)
(जो प्राणी जिस देशके अनुकुल बनाया गया है । वहाँ की भूमि, वहाँका जल, वायु उसको खींच लेता है । हिमालयके पक्षी अपने आप वहाँ चले जाते है, जल जन्तु आपसे आप पानीमे चले जाते हैं और पशु आपसे आप अपने अनुकुल जल वायुमे चले जाते है । मिसाल मशहूर है कि " ऊँट नाराज होता है तो पश्चिम को भागता है, क्योंकि मेरु देश पश्चिममे है और ऊँट मेरु देशों मे सुखी रहता है । पशु अपना अनुकुल प्रतिकुल स्थान जानने मे बड़े कुशल होते है ।)
(2) दूसरे प्रश्न का उत्तर कि ' सरद और गर्म देशों मे रहनेवाले प्राणी एकही स्थानमे कैसै हुऐ '? उत्तर बडा़ही युक्तियुक्त और सरल है । हम पहिले बता चुके है कि बीज किसी एक ही स्थान मे बोया जा सकता है अतः इस बृहसृष्टिका बीज जिससे दो प्रकारके सर्द और गर्म तासीर रखनेवाले वृक्ष और प्राणी उत्पन्न हुए है ऐसे ही देश मे बोया जा सकता था, जहाँ सरदी और गर्मी कुदरती तौरसे मिली हों और जो पृथ्वी के सब विभागों से अधिक ऊँची हो अब आप पृथ्वी के गोलेको हाथ मे ले और एक एक रेखा एक एक अंश देख डाले जहा ये दो गुण पाये जाये - अर्थात जहाँ :-
(1) सरदी और गरमी कुदरती तौरसे मिलती हों,
(2) और वह सरदी और गरमी मिलने वाला सन्धिस्थान पृथ्वीभरसे ऊँचा हो । बस उसीको सृष्टिका आदिस्थान समझले । इसमे अधिक प्रमाण देने की यद्यपि आवश्यकता नही है तथापि हम यहा कतिपय विद्वानों के वचन उद्धृत करते हैं ।
(1= जहाँ सरदी और गरमी कुदरती तौरसे मिलती है वह देश वनस्पति पशु और मनुष्यों के मिजाज के अनुकुल तथा सबका खाद्य उत्पन्न करनेवाला होता है । और सरद गर्म दोनों देशों मे जाने लायक मिजाजवाले प्राणि पैदा कर सकता है ।
2= आदि सृष्टि मे सबसे ऊँचे स्थान की इसलिये जरुरत है कि उस समय पृथिवी भरमे कही आँधी, कही तुफान, कहीं ज्वालामुखी, कहीं जल-प्लावन, कहीं भूकंप की वृक्षों के जलने का कारबनगैंस कहीं वृष्टि बडी़ धूमसे पडती है पर जो स्थान सबसे ऊँचा है न तो वहाँ पानी ( जलप्लावन ) आसके, न अग्नि-प्रपात निकल सके, न भूकंप से पृथिवी फट सके और न वहाँ आँधी हो । अतएव आदि सृष्टि के लिये सबसे ऊँचा ही स्थान उपयुक्त है । )
(2) और वह सरदी और गरमी मिलने वाला सन्धिस्थान पृथ्वीभरसे ऊँचा हो । बस उसीको सृष्टिका आदिस्थान समझले । इसमे अधिक प्रमाण देने की यद्यपि आवश्यकता नही है तथापि हम यहा कतिपय विद्वानों के वचन उद्धृत करते हैं ।
(1= जहाँ सरदी और गरमी कुदरती तौरसे मिलती है वह देश वनस्पति पशु और मनुष्यों के मिजाज के अनुकुल तथा सबका खाद्य उत्पन्न करनेवाला होता है । और सरद गर्म दोनों देशों मे जाने लायक मिजाजवाले प्राणि पैदा कर सकता है ।
2= आदि सृष्टि मे सबसे ऊँचे स्थान की इसलिये जरुरत है कि उस समय पृथिवी भरमे कही आँधी, कही तुफान, कहीं ज्वालामुखी, कहीं जल-प्लावन, कहीं भूकंप की वृक्षों के जलने का कारबनगैंस कहीं वृष्टि बडी़ धूमसे पडती है पर जो स्थान सबसे ऊँचा है न तो वहाँ पानी ( जलप्लावन ) आसके, न अग्नि-प्रपात निकल सके, न भूकंप से पृथिवी फट सके और न वहाँ आँधी हो । अतएव आदि सृष्टि के लिये सबसे ऊँचा ही स्थान उपयुक्त है । )
डाक्टर ई.आर.एलन्स, एल आर.सी.पी अपनी किताब ' मेडिकलखसे ' लिखते है कि " मनुष्य निसंदेह गर्म और मोअतदिल मुल्कों का रहनेवाला है, जहाँ कि अनाज और फल उसकी खुराक के लिये उग सकते है । इनसान की खालपर जो छोटे छोटे रोम है उनसे साफ मालूम होता है कि मनुष्य गर्म और मोअतदिल मुल्कों का रहनेवाला है । किन्तु बडे़ रोम सरद मुल्कों के रहनेवाले मनुष्यों के नही होते इसमे साफ प्रकट है कि मनुष्य बर्फानी मुल्कों में रहनेके लिये नहीं पैदा किया गया " ।
इसप्रकार विद्वान अलफर्ड रसल एस.एल.एल.डी.एल.एस. आदिने ' डारविन दी ग्रेट ' मे भी लिखा है । देखो सफा 460 सन् 1889 लंदन छापा और ऐसाही डाक्टर जबकिन साहबने भी लिखा है ।
मशहूर सोशलिस्ट कालचेंटर साहब कहते है कि " मनुष्य मोअतदिल गर्म मुल्कों का रहनेवाले है, कुदरती फल अनाजकी खुराक खाते हैं और वहीं मुल्क उनका स्वाभाविक निवास स्थान है, जहाँ ऐसी खुराक पैदा होती हो " । देखो रसाले सत्यका बल 28 वुल्लियात प○ लेखराम-आर्य मुसाफिर ।
उपरोक्त विद्वानों की जाच भी बतलाती है कि ऐसा ही मुल्क मनुष्यका जन्म स्थान हो सकता है जो गर्म मोअतदिल हो यह "गर्म मोअतदिल " वाक्य बहुतही विज्ञान भरा है । मोअतदिल उर्दू मे सम शीतोष्ण को कहते है । अर्थात् जहाँ सरदी और गर्मीका मेल हो, किंतु जहा गर्मी का हिस्सा अधिक हो वहो देश गर्म मोअतदिल कहलाता है और वही देश मनुष्यका असली वतन है ।
इस आदि भूमिका कर्ता प्रोफेसर मैक्समूलर बड़ी जाफिशानीसे जॉच कर बतलाते है कि ' मनुष्य जातिका आदि ग्रह एशियाका कोई स्थल होना चाहिए, यद्यपि उन्होंने एशिया में कोई स्थान निर्दिष्ट नहीं किया किंतु अपनी पुस्तकों मे इसी प्रकार से विचार प्रकट किये है। परन्तु इन विषयोंकी अधिक खोज करनेवाले अमेरिका निवासी विद्वान डेविस ' हारमोनिया ' नामी पुस्तक के पाँचवें भागमें जर्मनी के प्रोफेसर ' ओकन ' की साक्षी सहित इस बातको प्रतिपादन करते है कि -
'क्योंकि हिमाचल सबसे ऊँचा पहाड है इसलिये आदिसृष्टि हिमालयके निकट ही कही पर हुई ' ( देखो डेविस रचित हारमोनिया भाग 5 पृष्ठ 328 )
'क्योंकि हिमाचल सबसे ऊँचा पहाड है इसलिये आदिसृष्टि हिमालयके निकट ही कही पर हुई ' ( देखो डेविस रचित हारमोनिया भाग 5 पृष्ठ 328 )
पहिले और इन दोनों युरोपीय विद्वानों की साक्षीसे यह बात सिद्ध होगई कि मनुष्यों की आदिसृष्टि 'गर्म मोअतदिल और पृथिवी के सबसे ऊँचे स्थान भे हुई साथही वह देश और स्थान भी मालूम होगया कि वह देश एशिया और स्थान हिमालय है जो शीत और उष्ण से मिलता और पृथिवी भरमे सबसे ऊचा है '। अब हम सिद्ध करते है कि वह स्थान कौनसा है ?
मुंबई की ज्ञान प्रसारक मण्डलीकी प्रेरणासे फ्रामनी कावमजी हॉल मे संसारकी साक्षी मिस्टर खुरशेदजी रस्तमजी ( जो एक मशहूर विद्वान थे ) 'मनुष्यों की मूल जन्भ स्थान कहाँ था ' इस विषयपर व्याख्या दिया था । उहका सारांश यहाँ उद्धृत करते है ।
" जहाँ से सारी मनुष्य जाति संसार में फैली । उस मूलस्थानका पता हिन्दुओं, पारसियों, यहूदियों और क्रिश्चियनोंके धर्म पुस्तकों से इस प्रकार लगता है कि यह स्थान कही मध्य एशिया मे था । युरोपीय निवासियों की दन्तकथाओ मे वर्णन है कि हमारे पूर्वज राजा कहीं उत्तर मे रहते थे पारसियों की धर्म पुस्तकों मे वर्णन है कि जहाँ आदि सृष्टि हुई वहाँ 10 महिने सरदी और दो महिने गर्मी रहती है । माऊट-स्टुअर्ट , एलफिन्स्टन, थरनस आदि मुसाफिरों ने मध्य एशिया की मुसाफिरों करके बतलाया है कि इन्दुकुश पहाड़ोंपर 10 महिने सरदी और दो महिने गरमी होती है । इससे ज्ञात होता है कि पारसी पुस्तकों मे लिखा हुआ ' ईरानवेज ' नामका मूलस्थान जो 37° से 40° अक्षांश उत्तर तथा 86° से 90° रेखांश पूर्वमे है निसंदेह मूल स्थान है, क्योंकि वह स्थान बहुत उचाईपर है । उसके ऊपरसे चारों ओर नदियाँ बहती है । इस स्थान के ईशान मे कोणमे 'बालूर्ताग ' तथा 'मुसाताग' पहाड है । ये पहाड 'अलवुर्न' के नामसे पारसियोंकी धर्म पुस्तकों और अन्य इतिहासोमें लिखे है । बलूर्तागसे 'अमू' अथवा 'आक्सरा' और 'जेक जार्टस' नामकी नदिया 'अरत' सरोवर में होकर बहती है । इसी पहाड में से 'इन्डस' अथवा 'सिन्धु' नदी दक्षिणकी ओर बहती है । इसीचर के पहाडों मे से निकलकर बडी़ बडी़ नदियाँ पूर्व तरफ चीन मे और उत्तर तरफ साइबेरिया में भी बहती ऐसै रम्य और शांत स्थान मे पैदा हुए अपने को आर्य कहते थे और इस स्थान को 'स्वर्ग' का करते थे " यह देश उत्तर इन्दुकुश से लेकर तिब्बत तक फैला था यहीं कहीं कैलास और मान सरोवर भी था यही कारण है कि स्वर्ग और त्रिविष्टप ( तिब्बत ) पर्याय माने गये है । अमरकोश में लिखा है कि ' स्वरव्यय् स्वर्ग नाक त्रिदिव त्रिदशालयाः । सुरलोको द्यो दिवौ द्वे स्त्रिया क्लीबे त्रिविष्टपम् , अर्थात् स्वर्ग और त्रिविष्टप ( तिब्बत ) एक ही स्थान है ।
दुनियाभर के विद्वानों और एतदेशीय पण्डितों की सम्मतियों को ध्यान मे रखकर अपने समयका सबसे बडा़ आर्यावर्तीय विद्वान स्वामी दयानंद सरस्वती अपने सत्यार्थ प्रकाश मे लिखते है कि ' आदिसृष्टि त्रिविष्टप अर्थात् तिब्बत में हुई ' । तिब्बत यथार्थ मे दक्षिणकी गर्मी और उत्तर की सरदी को जोडता है वह ऊँचा भी है तथा मनुष्यके मिजाज के अनुकुल और उसका खाद्यभी उपजानेवाला है । अतएव अब हम अपने द्वितीय प्रश्न का उत्तर खतम करते हुए विद्वानों का ध्यान इसओर आकर्षित करते है कि आदि सृष्टि हिमालय पर ही हुई और वहीसे मनुष्य सारी पृथिवी मे गये । यह ख्याल गलत है कि मनुष्य पृथिवी के हरभाग मे पैदा हुए ।
पंडित रघुनानंदन शर्मा:- अक्षरविज्ञान
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