लेखक: सहदेव समर्पित सम्पादक शांतिधर्मी पत्रिका,जींद, हरियाणा
महर्षि दयानन्द ने 1875 ई0 में मुम्बई में और 1877 में लाहौर में आर्यसमाज की स्थापना की। ऋषि दयानन्द और उनके द्वारा स्थापित आर्यसमाज ने प्राचीन आर्य धर्म के प्रचार के साथ-साथ समाज में व्याप्त कुरीतियों व अंधविश्वासों के विरुद्ध ऐतिहासिक आन्दोलन किया, जिसका प्रभाव आज समाज और राष्ट्र के हर क्षेत्र में दिखाई देता है। महर्षि दयानन्द की इच्छा थी कि उन जैसे सहस्रों उपदेशक हों और वे मानव मात्र के कल्याण के लिये अंद्द परम्पराओं को समाप्त करते हुए वेद का प्रचार करें। स्वामीजी की इस प्रेरणा से आर्यसमाज में इस प्रकार के सहस्रों उपदेशक, पत्रकार, लेखक, साहित्यकार, कवि, गीतकार, भजनोपदेशक तैयार हुए जिन्होंने देश-विदेश में वेद-प्रचार की धूम मचा दी। इस क्षेत्र में भजनोपदेशकों का मोर्चा सर्वाधिक चुनौतीपूर्ण था। उत्तर भारत, विशेषकर हरियाणा के संदर्भ में यह एक कठिनाई भरा मार्ग था। इस क्षेत्र में सांग का जबरदस्त प्रभाव था और शिक्षा का प्रचार-प्रसार न के बराबर था। आर्यसमाज के भजनोपदेशकों ने इस चुनौती को स्वीकार किया था और यह मोर्चा जीतकर दिखाया था। उन्हें न मान-सम्मान की चिन्ता थी न अर्थ-लाभ की। स्वयं ही अपरिचित क्षेत्र में, संसाधन न होने पर भी अपना मंच तैयार करना, स्वयं ही श्रोताओं का आह्वान करना, स्वयं ही संचालन और व्याख्यान करना- यह आर्यसमाज के भजनोपदेशकों का ही कार्य था। पोपों व विधर्मियों के आक्रमण व बहिष्कार से अपने स्तर निपटने वाले, आर्यसमाज द्वारा संचालित आंदोलनों में जेलयात्रा करने वाले ‘पीर बावर्ची भिश्ती खर’ की भूमिका निभाने वाले भजनोपदेशकों को अपने नाम और कीर्ति की इच्छा नहीं थी। तभी इनके त्याग और बलिदान का कोई व्यवस्थित इतिहास सुरक्षित न रखा जा सका। पुस्तकों में जिनका इतिहास चाहे न लिखा जा सका हो, पर हरयाणा के गांव गांव में इनका प्रभाव देखा जा सकता है। बड़ी आयु की माताएँ आज भी विवाह आदि के अवसरों पर उन ज्ञात-अज्ञात भजनोपदेशकों के गीत गातीं देखी जा सकती हैं। हम इन पंक्तियों के माध्यम से हरयाणा के कुछ ऐसे ही भजनोपदेशकों का उल्लेेख कर रहे हैं, जिन्होंने निःस्वार्थ भाव से समाज में सात्त्विकता का प्रचार किया और दयानन्द के कार्य को आगे बढ़ाया।
पं0 बस्तीराम
दादा बस्तीराम को हरियाणा का आद्य भजनोपदेशक कहा जा सकता है, जिन्होंने ऋषि दयानन्द के समय में और उनकी सभाओं में भी अपने तराने प्रस्तुत किये। पं0 बस्तीराम का जन्म आश्विन कृष्ण चतुर्थी संवत् 1898 विक्रमी में झज्जर के खेड़ी सुलतान गांव में पं0 रामलाल के गृह में हुआ था। 1924 विक्रमी में कुम्भ मेले के अवसर पर स्वामी दयानन्द के विचारों को सुनकर आप अत्यंत प्रभावित हुए। उसके बाद दिल्ली दरबार में स्वामी दयानन्द जी के उपदेशों को सुनकर आपने स्पष्ट रूप से वैदिक धर्म को स्वीकार करने की घोषणा कर दी। गाते तो पहले भी थे, पर अब वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार करने के लिये गाने लगे। स्वामी दयानन्द के रेवाड़ी आगमन पर स्वामी जी के व्याख्यान के पहले और बाद में आपका गायन होता था। अपना शेष जीवन पं0 बस्तीराम ने आर्यसमाज के प्रचार में लगाया। लगभग 35 वर्ष की आयु में शीतला रोग के कारण आप नेत्र ज्योति विहीन हो गए थे, पर नेत्रहीनता उनके संकल्प में बाधा नहीं बनी। उन्होंने कोई बहुत बड़ी औपचारिक शिक्षा नहीं प्राप्त की थी, परन्तु उनकी रचनाओं में उनके स्वाध्याय और प्रखर बुद्धि के दर्शन होते हैं। उनकी गाने की एक विशिष्ट शैली थी। वे इकतारे पर बहुत मीठी लोकधुन में गाते थे जिसे सुनकर जनता मंत्र मुग्द्द हो जाती थी। उनका पाखण्ड-खण्डन का तरीका बहुत प्रखर और उग्र था। वे पोप लीला पर बहुत तीखे प्रहार करते थे। उनके भजनों का प्रभाव आज भी हरयाणा के गांव गांव में देखा जा सकता है। अपने प्रभावशाली प्रचार के कारण वे दादा बस्तीराम के नाम से प्रसिद्ध हुए। जब कुछ विरोधियों ने कहना शुरु कर दिया कि आर्यसमाजियों ने दयानन्द को उनके देहान्त के बाद ऋषि कहना शुरु कर दिया, उनके जीवन काल में किसी ने उनको ऋषि नहीं कहा तब उनका एक गीत तो ऐतिहासिक प्रमाण बन गया जो वे ऋषि के जीवन काल में गाते थे- ‘बस्ती राम ऋषि का चेला इकतारे पै गावै सै।’ लगभग 117 वर्ष की आयु में 26 अगस्त 1958 को आपका देहान्त हुआ। आपने दर्जनों भजन पुस्तकों की रचना की, जिनमें पाखण्ड ख्ण्डनी बहुत प्रसिद्ध है। स्व0 चैधरी मित्रसेन आर्य ने ‘पं0 बस्तीराम सर्वस्व’ के नाम से उनकी सभी रचनाओं का पुनप्र्रकाशन कराया था। खेद है कि पिछले दिनों रोहतक में आरक्षण के नाम पर हुए उपद्रव में वह अनमोल साहित्य अग्नि भेंट हो गया।
स्वामी भीष्म
स्वामी भीष्म जी का जन्म 7 मार्च 1859 ई0 में कुरुक्षेत्र जिले के तेवड़ा ग्राम में श्री बारूराम पांचाल के गृह मेें हुआ था। बचपन में इनका नाम लाल सिंह था। इनकी बचपन से ही अध्ययन में रूचि थी। आपने 11 वर्ष की आयु में गाना शुरु कर दिया था और उस समय उपलब्ध नवीन वेदान्त की बहुत सी पुस्तकों का अध्ययन किया था। प्रबल वैराग्य के कारण 1881 में इन्द्रिय छेदन की कड़ी शर्त का पालन करके एक पौराणिक साधु से संन्यास लिया। उन्होंने इनका नाम ब्र0 आत्मप्रकाश रखा, पर आप को भीष्म के नाम से जाना गया। इनकी आर्यसमाजी बनने की कथा बड़ी रोचक है। आर्यसमाज को आप धर्म विरोधी समझते थे और आर्यसमाज का नाम सुनना भी पसन्द नहीं करते थे। एक बार बली ग्राम के डेरे में कोई नया नया आर्यसमाजी इनको साधु समझकर सत्यार्थ प्रकाश के किसी प्रकरण को समझने के लिये आया। स्वामी जी ने सत्यार्थप्रकाश का नाम सुनकर अपनी घृणा प्रकट की। जिज्ञासु के बार बार आग्रह करने पर स्वामी जी ने सत्यार्थप्रकाश को देखा तो उसके अन्दर डूबते चले गए। जिज्ञासु को समझाते समझाते वे स्वयं ही समझ गए और उनका जीवन पूरी तरह से बदल गया। उस समय स्वामीजी की आयु 37 वर्ष की थी। उसके बाद तो स्वामी जी आर्यसमाज के प्रचारक बन गए। उन्होंने दिल्ली को अपना केन्द्र बनाया और देश भर में आर्यसमाज का प्रचार प्रसार किया। उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन में भी बढ़-चढ़ कर भाग लिया और अनेक क्रांतिकारियों से उनके आत्मीय संबंध रहे। स्वामी श्रद्धानन्द जी के अछूतोद्धार व शुद्धि के कार्यों में उनका अप्रतिम योगदान रहा। यहाँ तक कि स्वामी जी स्वामी श्रद्धानन्द जी के आदेश से विधर्मियों द्वारा अपहृत हिन्दू कन्याओं को छुड़ाकर लाते थे और उनको पुनः वैदिक धर्मी बनाते थे।
स्वामी भीष्म जी पूरे देश में विशेषकर उत्तर भारत में बहुत प्रभावशाली भजनोपदेशक के रूप में जाने गए। उनके प्रभाव का यह आलम था कि दिल्ली में एक बार एक पौराणिक साधु ने उनका भजनोपदेश सुना तो वह आर्यसमाजी हो गए। वे स्वामी रामेश्वरानन्द थे जो अनेक बार सांसद रहे। उनकी भजन पार्टी का अनेक बार सांगियों से मुकाबला हुआ। उनके शिष्य स्व0 पं0 चन्द्रभानु आर्य के अनुसार एक बार उ0 प्र0 के एक गांव में स्वामी जी की भजन मण्डली और वहाँ के मशहूर सांगी होशियारा का एक साथ ही एक गांव में जाना हो गया। कई दिन तक सांग और भजनों का आमना सामना होता रहा। सांग में हाजरी रोज घटती रही और स्वामी जी के प्रचार में बढ़ती रही। आखिर सांग पार्टी वहाँ से प्रस्थान कर गई और स्वामीजी ने जमकर प्रचार किया।
स्वामी भीष्म जी ने 124 वर्ष की दीर्घायु पाई। उन्होंने बहुत दीर्घकाल तक गाया और बहुत कुछ लिखा। डाॅ0 भवानीलाल भारतीय जी ने स्वामी जी द्वारा लिखित पुस्तकों की सूची स्वामी भीष्म अभिनन्दन ग्रंथ में दी है। खेद है कि उनका सम्पूर्ण साहित्य अभी तक पुनप्र्रकाशित नहीं हो पाया है। उनके भजनोपदेशक शिष्यों की सूची भी बहुत लम्बी है। हरियाणा में जन्मे उनके प्रमुुख शिष्य स्वामी विद्यानन्द, स्व0 चैधरी नत्थासिंह, स्व0 पं0 ताराचन्द वैदिक तोप, स्व0 पं0 चन्द्रभान, स्व0 पं0 ज्योति स्वरूप, स्व0 पं0 हरलाल, स्वामी रुद्रवेश आदि ने विशेष यश प्राप्त किया। 24 मई 1981 को कुरुक्षेत्र में भारत के गृहमंत्री ज्ञानी जैलसिंह की अध्यक्षता में आपका सार्वजनिक अभिनन्दन हुआ। 8 जनवरी 1984 ई0 को आपका निधन हुआ।
चौधरी ईश्वरसिंह गहलोत
चौधरी ईश्वरसिंह आर्यसमाज के बहुत प्रभावशाली कवि एवं भजनोपदेशक थे। आपका जन्म सन् 1885 ई0 में दिल्ली के ग्राम काकरोला मेें हुआ था। आपके पिताजी का नाम श्री रामकिशन था जो एक साधारण किसान थे। ईश्वर सिंह किशोरावस्था में ही थे कि उनके पिता का देहान्त हो गया। ईश्वरसिंह बचपन से ही आर्यसमाज से प्रभावित थे। गाने का भी शौक था। पैतृक व्यवसाय कृषि करते करते आर्यसमाज की गतिविधियों में भाग लेते थे। इसी क्रम में आर्यसमाज नजफगढ़ के उत्सव में मास्टर नत्थूसिंह के भजन सुने और उन जैसा बनने का संकल्प ले लिया। मास्टर नत्थूसिंह बहुत पुराने और प्रभावशाली भजनोपदेशक थे। इनका उल्लेख हरयाणा आर्यसमाज के प्रारम्भिक नेता डाॅ0 रामजीलाल हुड्डा ने अपनी डायरियों में किया है। अगली बार के उत्सव में ईश्वरसिंह ने आर्यसमाज में भजन प्रस्तुत किये जो बहुत पसन्द किये। आर्यसमाज के वरिष्ठों ने उन्हें बहुत प्रोत्साहित किया।
चैधरी ईश्वरसिंह का कण्ठ बहुत सुरीला था। साथ ही वे बहुत ऊँची और मीठी आवाज में गाते थे। उन्होंने गायन और लेखन की एक नई शैली का विकास किया। उनकी प्रसिद्धि और प्रभाव के बारे में आज भी बुजुर्गों से अनेक किंवदन्तियाँ सुनी जा सकती हैं। कहते हैं कि उनके प्रचार में 80 लालटेन जलती थीं। यह उपस्थिति का पैमाना है। दूर दूर से लोग उनको सुनने आते थे। कुरुक्षेत्र और भैंसवाल के ऐेसे अनेक प्रसंग हैं जब ग्रामीणों ने आर्यसमाज के बड़े विद्वानों के भाषण को रोककर चैधरी ईश्वरसिंह के भजन सुनाने की मांग की। चैद्दरी ईश्वरसिंह के भजनों के आगे सांगियों के ठुमके फेल हो जाते थे। शांतिधर्मी के संस्थापक स्व0 पं0 चन्द्रभानु आर्य भजनोपदेशक अपने गुरु स्वामी भीष्म जी के हवाले से लिखते हेैं कि करनाल के गांव मुंडलाना में चैधरी ईश्वरसिंह का मुकाबला पं0 लखमीचन्द की सांग पार्टी से हुआ। 13 दिन तक मुकाबला चलता रहा। आखिर सांगी भाग गए और ईश्वर सिंह 14 वें दिन भी विजय पताका फहरा कर गए। चैधरी ईश्वरसिंह लेखनी के भी धनी थे। उन्होंने हजारों भजनों की रचना की जो सैंकड़ों पुस्तकों में समाहित है। उनकी रचनाओं का पुनप्र्रकाशन परममित्र मानव निर्माण संस्थान की ओर से दो खण्डों में हुआ है। चैधरी ईश्वरसिंह ने समुदाय के उत्थान में भी महत्त्वपूर्ण योगदान किया। हरयाणा में शिक्षा का प्रचार नहीं था। लाहौर में पढ़ने वाले चार मित्रों ने हरयाणा में शिक्षा संस्थान खोलने का निश्चय किया। रोहतक, हिसार और संगरिया में ये शिक्षण संस्थाएँ खुलीं। चैधरी ईश्वरसिंह ने इस प्रकरण पर ‘बलदेव भेंट’ लिखी और इन संस्थाओं का व्यापक प्रचार प्रसार किया। गुरुकुल कुरुक्षेत्र, गुरुकुल मण्टिडु के प्रचार में भी सहयोग किया। गुरुकुल भैंसवाल के लिये भी इनका विशेष सहयोग रहा। इनका देहान्त 1958 ई0 में हुआ।
स्वामी नित्यानन्द
स्वामी नित्यानन्द का संन्यास पूर्व नाम चैधरी न्योनन्दसिंह धनखड़ था। आप चैधरी ईश्वरसिंह के शिष्य थे। आपका जन्म किलोई जिला झज्जर में सन 1887 में एक धार्मिक किसान श्री झण्डाराम के गृह में हुआ था। आपने हरयाणा के ग्राम ग्राम में आर्यसमाज का प्रचार किया। आप खड़ताल पर गाते थे। इनका विशालकाय शरीर था। आपके भजन और उपदेशों का जनता पर जादू जैसा प्रभाव पड़ता था। वे पाखण्ड, अंधविश्वास और अविद्या पर कठोर प्रहार करते थे। वे निर्भीक, निर्लोभ और सच्चे साधु थे। इनका सादगीपूर्ण जीवन भी प्रेरणास्रोत था। स्वामी नित्यानन्द सरल और लोकप्रिय तर्जों पर भजनों की रचना करते थे। इनके भजनों के द्वारा आर्यसमाज का जबरदस्त प्रचार हुआ। ग्रामीण बहनों ने इनकी रचनाओं का बहुत प्रयोग किया। आज भी स्वामी नित्यानन्द के भजन गांव गांव में माताओं की जुबान से सुने जा सकते हैं। ये वास्तव में लोककवि थे। इनकी कुछ रचनाओं का संग्रह हरयाणा में प्रशासनिक अधिकारी श्री महेन्द्रसिंह धनखड़ ने प्रकाशित कराया था।
स्वामी नित्यानन्द जी ने गुरुकुलों, शिक्षण संस्थाओं के प्रचार में अप्रतिम योगदान किया। लड़कियों को गुरुकुलों में पढ़ाने के लिए प्रेरित किया और आर्य शिक्षा संस्थाओं के लिये धन संग्रह का कार्य किया। उन्होंने स्वयं भी कासनी में कन्या पाठशाला खोली। उन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन में भी बढ़ चढ़ कर भाग लिया। हैदराबाद और लोहारू के आन्दोलनों में आपने अनेक यातनाएँ सहीं। लोहारू में नवाब के गुण्डों के आक्रमण से आपको सिर पर गंभीर चोट आई थी। महात्मा भगत फूलसिंह के आप अनन्य सहयोगी थे। आपने अपने जीवन में अनेक आर्यसमाजों की स्थापना की। 24 अप्रैल 1977 को आपका देहान्त हो गया।
स्वामी केवलानन्द
आपका जन्म ग्राम कारौली जिला रेवाड़ी में एक ब्राह्मण परिवार में 1871 ई0 हुआ था। आप स्वामी श्रद्धानन्द के प्रभाव से आर्य समाज में आये। आप इकतारा और खड़ताल पर गाते थे। आपने पाखण्ड और अंधविश्वास के निवारण में और आर्य द्दर्म के प्रचार में आजीवन परिश्रम किया। उन्होंने अपना कोई मठ या आश्रम नहीं बनाया। वे त्यागी, तपस्वी साधु थे। प्रचार के साथ साथ उन्होंने समाज सुधार के लिए धरातल पर कार्य किया। उन्होंने कसाईयों को गाय बेचने पर अपने क्षेत्र में पंचायती तौर पर प्रतिबंध लगवाया। उन्होंने अनेक भजनों की रचना की। उनकी तीन भजनों की पुस्तकें प्रकाशित हुई थीं जो अब प्रायः नहीं मिलती हैं। (पोप की पोपणी हमारे संग्रह में है।) उन्होंने स्वतंन्त्रता आन्दोलन में भी भाग लिया। हैदराबाद आन्दोलन में जेलयात्रा की और लोहारू आन्दोलन में यातनाएँ सहीं। अहीरवाल क्षेत्र के आर्य नेता महाशय हीरालाल के साथ उनका अहीरवाल के गांव गांव में आर्यसमाज को पहुंचाने में अतुल्य योगदान रहा है। आपका निद्दन 1943 में हो गया।
महाशय बुद्धिधर
आपका जन्म 1895 में लुहाना जिला रेवाड़ी में हुआ था। आप आर्य समाज के बड़े प्रभावशाली भजनोपेदेशक थे। आपने समाज को अंधविश्वासों से मुक्ति दिलाने में महती भूमिका निभाई। इनकी दो पुस्तकें प्रकाशित हुईं- ‘अमृतगीता’ और ‘सतसार’। आपका सिद्धान्त ज्ञान भी गहन था। अनेक स्थानों पर पौराणिकों और विधर्मियों से शास्त्रार्थ किये और विजय प्राप्त की।
चौधरी पृथ्वीसिंह बेधड़क
चौधरी पृथ्वीसिंह बेधड़क आर्यसमाज के अद्वितीय प्रतिभाशाली और प्रभावशाली भजनोपदेशक थे। आपने भजनोपदेश की नई फास्ट शैैली को जन्म दिया। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार आप अनेक प्रकरणों पर एक साथ शुरुआत करते थे और चामत्कारिक ढंग से उसका समापन करते थे। प्राचीन हरियाणा के गांव गांव में आपका यश अब भी दुखा सुना जा सकता है। आप अत्यंत प्रतिभाशाली कवि थे। आपकी रचनाओं में अनुप्रास की निराली छटा दिखाई देती है। आपने भारत वर्ष के प्राचीन इतिहास की अनेक कथाओं को भजनों के माध्यम से प्रस्तुत किया। उनके भजनों का संग्रह भी चैद्दरी मित्रसेन आर्य ने पुनः प्रकाशित करा दिया था। आपका जन्म ग्राम शिकोहपुर जिला बागपत में हुआ था। भजनोपदेश के साथ साथ आपका सामाजिक प्रभाव भी अद्वितीय था। आपके भजनों में एक अलग ही आकर्षण था। पृथ्वीसिंह बेधड़क के नाम में आज भी आकर्षण है।
पं0 बहोतराम
आपका जन्म ग्राम जुडौला, जिला गुड़गांव में एक सामान्य कृषक परिवार में हुआ। आपने पुराणों का विशेष अध्ययन किया था। आपके भजनों में अवैदिक मान्यताओं का तर्कपूर्ण प्रामाणिक खण्डन मिलता है। पोपों का तो आपका नाम सुनकर ही हृदय कांपता था। आप रात को प्रचार करते। सुबह लोगों को यज्ञ में भाग लेने के लिये पे्ररित करते। संध्या हवन सिखाते और यज्ञोपवीत प्रदान करते। इनकी एक पुस्तक हमारे संग्रह में विद्यमान है।
दादा शिवनारायण
पं0 शिवनारायण का जन्म जींद के गांव डहोला में हुआ था। आप लोकप्रिय तर्जों में गाते थे। आप पाखण्ड का बहुत कठोर शब्दों में खण्डन करते थे। आपने आर्य प्रतिनिद्दि सभा पंजाब संयुक्त के माध्यम से भी प्रचार किया। कठोर खण्डन और शास्त्रार्थ के बीच कई बार शस्त्रार्थ भी हो जाता था। 1953 ई0 (अनुमानित) में उचाना मण्डी में मृतक-श्राद्ध का खण्डन करने पर लोग लाठियाँ जेलियाँ लेकर लोग इनको मारने चढ़ आये थे। स्व0 पं0 चन्द्रभान आर्य ने चिमटा लेकर उनको ललकारा। कुछ समय में आर्य समाज के लोग भी आ गए और मुश्किल से मामला शांत हुआ। आर्यसमाज के पुराने बुजुर्ग अब भी इनका नाम बड़े सम्मान से लेते हैं। खेद है कि इनकी कोई भी रचना उपलब्ध नहीं है। इनके परिवार के लोग भी अब संभवतः दिल्ली में रहते हैं।
स्वामी बेधड़क
आपका जन्म जींद के धमतान गांव में एक दलित (द्दाणक) परिवार में हुआ था। आप आर्यसमाज के जांति पांति के विरुद्ध आन्दोलन के जीवित जाग्रत उदाहरण थे। आप अपने प्रचार में कहते थे- आर्यसमाज ने मुझे स्वामी बना दिया। आप वास्तव में ही बेधड़क थे। एक बार पानीपत के गांव बापौली में स्व0 पं0 चन्द्रभानु आर्य के साथ गये थे। (तब प्रायः जूनियर भजनोपदेशक की पार्टी के साथ सीनियर भजनोपदेशक भेजे जाते थे।) गांव में पहुंचने में देर हो गई। प्रधान लक्ष्मणसिंह वर्मा ने कहा- खाओ पीयो और सो जाओ, अब प्रचार में कौन आयेगा! बेधड़क जी और दादा शिवनारायण ने कहा- सोने नहीं, प्रचार करने आये है। पुराना टीन का पीपा लेकर चैपाल पर चढ़ गए और लगे रुक्के मारने- आओ भाईयो, आर्य समाज का प्रचार होगा। लोग इकट्ठे हो गए, जम कर प्रचार हुआ।
इस लेख की सीमाएँ हैं। वास्तव में आर्यसमाज के भजनोपदेशकों का इतिहास त्याग बलिदान और समर्पण का अप्रतिम इतिहास है। हरयाणा के भजनोपदेशकों में श्री बलबीर सिंह झाभर, पं0 प्रभुदयाल प्रभाकर पौली, महाशय प्यारेलाल भापड़ौदा, पं0 शिवलाल, हरलाल सिंह मंधार, महाशय भोलूराम अलाहर, रामकरण शामलो, रामपत वानप्रस्थी, पं0 शिवकरण जी, महाशय श्रीचन्द मतलौडा, कालूराम कोथ, लालसिंह मिलकपुर, इन्द्रसिंह पेटवाड़, पं0 भूराराम, नत्थूसिंह, नानूराम, रिछपालसिंह, हनुमंतराम, जौहरीसिंह, पं0 भगतराम, वैद्य मंगलदेव गोली आदि आदि ज्ञात-अज्ञात हजारों भजनोपदेशकों का इतिहास लुप्त ही हो रहा है, जिनका समाज के उत्थान में मौलिक योगदान रहा है। इनके विषय में अन्यत्र प्रकाश डालने का प्रयास किया जायेगा। अब तो उन सब ज्ञात अज्ञात नींव के पत्थरों को नमन करते हुए ठाकुर उदयसिंह जी के शब्दों में इस लेख का समापन करते हैं-
शीश पर बिस्तर और बगल में छतरी लगी,
एक हाथ बैग दूजे बालटी संभाली है।
दिन गया धक धक में रात गई बक बक में,
कभी है अपच और कभी पेट खाली है।
जंगल में सलूना और सड़क पे दशहरा मना,
मोटर में होली और रेल में दीवाली है।।
पुत्र मरा सावन में और पत्र मिला फागुन में,
‘ठाकुर’ इन उपदेशकों की दशा भी निराली है।।
संदर्भ ग्रंथ
1- आर्यसमाज का इतिहास सत्यकेतु, 2- आर्य लेखक कोश: डाॅ0 भवानीलाल भारतीय, 3- आर्यसमाज का इतिहास: डाॅ0 धर्मदेव विद्यार्थी, 4- चन्द्रभानु आर्योपदेशक व्यक्तित्व एव कृतित्व, 5- आदर्श भजनमाला: चैधरी ईश्वरसिंह, 6- बस्तीराम सर्वस्व: परममित्र मानव निर्माण संस्थान, 7- शांतिधर्मी मासिक पत्रिका, 8- बेधड़क भजनावली, 9- स्वामी भीष्म अभिनन्दन ग्रंथ
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