अहमदिया मुसलमानों से वार्तालाप
(पुस्तक मेलों में प्राय: इस्लामिक स्टाल पर आपको कुछ मुसलमान इस्लाम के विषय में बड़ी बड़ी हाकतें नज़र आएंगे। जब एक आर्यसमाजी इस्लामिक स्टाल पर जाता है। तब क्या होता है। 27 अगस्त को दिल्ली पुस्तक मेले में घटे वार्तालाप को पढ़कर पता चलता है। नोट- वार्तालाप करने वाले आर्यमित्रों का परिचय गुप्त रखा गया है। )
दिल्ली पुस्तक मेले में मैं अपने साथी के साथ कल रविवार को साहित्य खरीदने गया। वहां मिर्जा गुलाम अहमद द्वारा स्थापित अहमदिया फिरके का बुक स्टाल लगा था। उस बुक स्टाल पर हो रही वार्तालाप मैंने सुनी।
एक अहमदिया मुस्लिम एक हिन्दू को पट्टी पढ़ा रहा था।
"आपने इस्लाम और आतंकवाद के मध्य सम्बन्ध के विषय में सुना होगा। परन्तु यह कभी नहीं सुना होगा कि किसी अहमदिया सम्प्रदाय से कभी कोई आतंकवादी सम्बंधित हो। न ही कोई विषैला दुष्प्रचार आपने हमारे सम्प्रदाय से सुना होगा।"
जैसे ही ये शब्द मेरे कानों ने सुने। मुझे समझ आ गया कि ये लोग भ्रमित कर रहे है। सत्य नहीं बता रहे है।
मैंने कहा, "मियां आप गलत कह रहे है। वो बोले कैसे। मैंने कहा- आपके मिर्जा गुलाम अहमद ने आर्यसमाज के पंडित लेखराम का क़त्ल करवाया था। इसकी उन्होंने भविष्यवाणी भी की थी। बाद में किसी गुंडे को भेज कर उन्हें छुरा मरवा दिया। कमाल तो यह था कि आपके मिर्जा जी इतनी बड़ी भविष्यवाणी तो करपाए कि पंडित लेखराम की हत्या होने वाली है। मगर यह नहीं बता पाए कि मिर्जा जी की स्वयं की मृत्यु तड़प तड़प कर होगी। उन्हें इतनी भयंकर मधुमेह हो गई थी कि वो एक दिन में 20-20 बार पिशाब करते थे।"
यह सुनते ही वह मियां गुस्से में आ गया।
बोला आप गलत बोल रहे है।
मैंने कहा हम गलत कब है।आपका यह दावा भी गलत है कि आप लोग विषैला प्रचार नहीं करते। आपके मिर्जा जी ने बुराहिने-अहमदिया और सुरमा-ए-चश्मा-ए -आर्य जैसी किताबें लिखी थी। जिसमें आर्यसमाज जैसी संस्थाओं की भरपूर आलोचना थी।
आपके मिर्जा जी अंग्रेजों के इशारों पर काम करते थे। वे अंग्रेजों को ऐसा साहित्य लिख कर फुट डालों और राज करों की नीति में मददगार थे।
यह सुनते ही मियां के साथ खड़े साथी भी उग्र हो गए। वे बोले कि आपके दावें गलत है। हमारे मिर्जा जी तो शांति का पैगाम देने आये थे।
मैंने कहा यहाँ भी आप गलत है। आप कादियानी मुसलमान का दावा है कि मिर्जा जी पैगम्बर थे। बाकि मुसलमान फिरके मिर्जा जी के पैगम्बर होने की मान्यता को नहीं मानते। पाकिस्तान में तो आपकी जमात को मुसलमान ही नहीं माना जाता। न ही आपको वहां हज की इजाज़त है।
इस्लामिक कलमा के अनुसार मुसलमान मुहम्मद साहिब को अंतिम पैगम्बर मानते है। जबकि आप अपने मिर्जा जी को भी पैगम्बर मानते है। इस विवाद के चलते आपकी मस्जिदों में पाकिस्तान में बम विस्फोट, कत्लेआम आदि भी होते रहते है।
वह मियां मुझे पैगम्बर कितने प्रकार के होते है। इस बात में उलझने की कोशिश करने लगा।
इतने में मेरे साथ गए मित्र ने उनकी द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक "कल्कि अवतार- हिन्दुओं के धार्मिक ग्रंथों में ", लेखक - खुर्शीद अहमद प्रभाकर, दरवेश उठाकर उसमें पृष्ठ चार पर अथर्ववेद के 20/115/1 मंत्र में अहमिद्धि शब्द से 'अहमद' शब्द ग्रहण करने की चालाकी पकड़ ली। मैंने भी उनकी यह धांधलेबाजी देखी।
मैंने कहा वेद संस्कृत भाषा में है। उसकी व्याकरण भी संस्कृत की ही चलेगी। अरबी व्याकरण से वेदों का अर्थ थोड़े ही निकलेगा। क्यों सही कहा न।
वह बोला सही कहा।
मैंने कहा - फिर आप किस आधार पर अहमिद्धि शब्द से 'अहमद' शब्द का ग्रहण कर रहे हो। इस बात पर वह मियां निरुत्तर हो गया।
मैंने कहा अहमिद्धि से मैं शब्द का ग्रहण होना तो व्याकरण अनुकूल है। मगर अहमद शब्द किसी भी हाल में सिद्ध नहीं होता। दूसरा वेद कोई बाइबिल या क़ुरान के समान इतिहास पुस्तक नहीं है। सृष्टि के आदि में दिया हुआ ईश्वरीय ज्ञान है।
सत्य यह है की उन्हीं मिर्जा के एक शिष्य अब्दुल हक विद्यार्थी ने विश्व के धर्मग्रंथों में मुहम्मद के नाम से एक पुस्तक लिखी थी। उसी पुस्तक में उन्होंने यह दिखाने का प्रयास किया था कि मुहम्मद साहिब का वर्णन वेदों में मिलता है। उनकी इस चालाकी की तात्कालिक आर्यसमाज के विद्वानों ने खूब खिंचाई की थी।
हमारे कहने पर वो मियां बोले कि क्या आप लोग आर्यसमाजी है?
मैंने उत्तर दिया- आपको क्या लगता है। केवल अपने धर्म ग्रन्थ की ही नहीं अपितु दूसरे के मत की पुस्तकों की समीक्षा तो केवल स्वामी दयानन्द का शिष्य ही जानता है। बाकि हिन्दुओं को इतने पुरुषार्थ करने की आदत ही नहीं होती।
इतना कहकर वार्तालाप समाप्त हो गया। हमारे वार्तालाप को सुनने के लिए अनेक लोग इकट्ठे हो गए। हिन्दू मंद मंद मुस्कुराकर चल दिए। जबकि मियां लोगों के चेहरे लटके हुए थे।
अगर आपको यह वार्तालाप अच्छा लगा तो एक बार " स्वामी दयानन्द की जय" बोलना मत भूलियेगा।
आपका मित्र- एक आर्य
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