From CROSS to AUM
(यह एक पादरी की सत्य कथा हैं जिसमे पादरी ने सत्य का ज्ञान होते ही अपनी आत्मा के साथ न्याय करते हुए असत्य को त्याग कर न केवल सत्य मार्ग का वरण किया अपितु औरों को भी सत्य मार्ग बताने में अपने जीवन को समर्पित किया)
यह घटना सन १९५४ या १९५५ की हैं। उन दिनों मिस्टर गिल नमक एक ईसाई पादरी अम्बाला में रहते थे जिन्हें लोग लाट साहिब के नाम से पुकारते थे। उन्हें उच्च स्तर के ईसाई मत का संरक्षण प्राप्त था। एक दिन पादरी साहिब ने घोषणा करी की वे ईसा मसीह पर पूर्ण श्रद्धा और विश्वास रखते हैं और किसी भी मृत व्यक्ति पर अगर वे हाथ फेर दे तो वह मृतक पुनर्जीवित हो जायेगा। डॉ हरीप्रकाश गुरुकुल कांगड़ी के स्नातक थे और पक्के आर्यसमाजी थे। उन्होंने इस चुनोती को स्वीकार कर लिया और यह निर्धारित कर लिया की जो भी पक्ष पराजित होगा वह जितने वाले के मत को स्वीकार कर लेगा। शास्त्रार्थ के लिए आर्यसमाज के प्रसिद्ध शास्त्रार्थ महारथी पंडित शांतिप्रकाश जी को बुला लिया गया पर समस्या यह हो गयी की शास्त्रार्थ से पहले दिन तक आर्यसमाज को किसी मृतक का शव प्राप्त नहीं हुआ। शास्त्रार्थ के दिन आर्यसमाज के मंत्री श्री चुनीलाल जी को प्रात भ्रमण करते हुए एक मृत कौवा मिल गया। उन्होंने उसे एक थैले में रख लिया और शास्त्रार्थ स्थल पर अपने साथ ले गए। पंडित शांति प्रकाश जी ने शास्त्रार्थ आरंभ होते ही पुछा की आप मनुष्य के शव को ही जीवित कर सकते हैं अथवा किसी पशु-पक्षी के मृत शरीर में भी आप प्राण डाल सकते हैं। पादरी ने कहाँ हम किसी भी मृतक के शरीर में प्राण डाल सकते हैं। पादरी को यह विश्वास था की आर्यसमाज के लोग किसी भी मृतक के शरीर को ला नहीं पाएंगे तो मेरी घोषणा की परीक्षा ही नहीं हो सकेगी। पंडित शांति प्रकाश जी ने घोषणा करी की हम तो किसी मृतक का शरीर नहीं ला पाए उपस्थित लोगो में से कोई यदि किसी व्यक्ति ने किसी भी प्राणी के शव का प्रबंध किया हो तो ले आये। यह सुनकर श्री चुन्नीलाल जी ने मंच पर मृत कौवा लाकर रख दिया। पंडित जी ने उसे पादरी साहिब के आगे रख कर कहाँ- पादरी जी, इसे जीवित करके दिखाए। पादरी साहिब निरंटर १५ मिनट तक उस कौवे के शरीर पर हाथ फेर कर प्रार्थना करते रहे। लोग दम साधे इस दृश्य को देखते रहे, पर कौवा जिन्दा नहीं हुआ। १५ मिनट के बाद आर्यसमाज की जय, स्वामी दयानंद की जय, पंडित शांति प्रकाश की जय के गगन भेदी नारों से समारोह स्थल गूंज उठा। पादरी गिल साहिब ने अपनी पराजय स्वीकार कर ली और ईसाई मत त्याग कर आर्यसमाज में प्रवेश कर लिया। उनका नाम बदल कर सुरजन दास रखा गया था और उन्होंने आर्यसमाज का अगले १० वर्ष तक आजीवन प्रचार किया।
अगर इसी प्रकार सभी ईसाई पादरियों की सत्य मार्ग दिखाया जाये तो न केवल उनका उद्धार होगा अपितु अनेक हिन्दुओं को धर्मांतरण से भी बचाया जा सकता हैं
डॉ विवेक आर्य
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