"विदेशियों के आर्यावर्त में राज्य होने का कारण आपस कि फुट-मतभेद, ब्रह्मचर्य का सेवन न करना, विद्या न पढ़ना पढ़ाना, बाल्यावस्था में अस्वयंवर विवाह, विषयासक्ति कुलक्षण, वेद-विद्या का अप्रचार आदि कुकर्म हैं"- स्वामी दयानंद।
स्वामी जी द्वारा कहे गये इस कथन पर पाठक गौर करेगए तो पायेगे कि पराधीन भारत और स्वाधीन भारत में सामाजिक और राजनैतिक परिस्तिथियों में कुछ विशेष अंतर नहीं हैं, क्यूंकि हम तब भी गुलाम थे और आज भी गुलाम हैं।
स्वामी जी द्वारा प्रथम कारण भारतियों में एकता कि कमी होना बताया गया हैं। भारतदेश कि जन व्यवस्था का अगर वृहद् रूप से आंकलन किया जाये तो हम पायेगे कि यहाँ पर अनेक स्थलों पर भिन्न भिन्न प्रकार से फुट और भेद प्रचलित हैं। कहीं हिन्दू-मुस्लिम के बीच में धर्म के नाम पर भेद हैं, कहीं स्वर्ण-दलित के नाम पर जातिगत भेद हैं , कहीं हिंदी अथवा प्रांतीय भाषा के आधार पर भेद हैं, कहीं तेलंगाना, गोरखालैंड, हरित प्रदेश आदि के नाम पर प्रान्त भेद हैं, कहीं इतिहास के नाम पर आर्य-अनार्य अथवा उत्तर भारतीय बनाम दक्षिण भारत का भेद हैं, कहीं क्षेत्रवाद के नाम पर नागालैंड आदि प्रांतों में भेद हैं, कहीं नक्सलवाद के नाम पर आदिवासी, शहरी आदि का भेद हैं , कहीं अधिकार के नाम पर दक्षिणपंथी अथवा साम्यवादी आदि का भेद हैं, कहीं आस्तिक और नास्तिक का भेद हैं, कहीं विभिन्न सम्प्रदायों अथवा मत मतान्तरों का आपसी भेद हैं, कहीं बहुसंख्यक अथवा अल्पसंख्यक का आपसी भेद हैं। कहने का अर्थ हैं कि जितने भेद, उतनी दूरियाँ, जितनी दूरियाँ उतने मन मुटाव, जितने मन मुटाव, उतनी आपसी कड़वाहट, जितनी आपसी कड़वाहट उतना विरोध, जितना विरोध उतना परस्पर मेल कि कमी, जितनी मेल कि कमी उतनी एकता कि कमी और अंत में जितनी एकता कि कमी, उतना मुट्ठी भर स्वार्थी, संकीर्ण मानसकिता रखने वाले, अवसरवादी, दूर दृष्टि से रहित, गैर ईमानदार, गैर जिम्मेदार लोगों द्वारा सामाजिक एकता कि कमजोरी का फायदा उठाते हुए देश कि जनता पर राज करने का और अपनी मनमानी करने का अवसर प्राप्त होना हैं। यह किसकी कमी हैं पाठक निष्पक्ष भाव से अगर चिंतन करेगे तो उत्तर मिलेगा कि स्वयं का ही दोष हैं। इन सभी भेदों को विभिन्न विभिन्न स्तरों पर प्रोत्साहन दिया जाता हैं जिससे भेद बने रहे और फुट डालो और राज करो कि नीति फलती फूलती रहे।
स्वामी जी द्वारा दूसरा कारण ब्रह्मचर्य का सेवन न करना, बाल्यावस्था में अस्वयंवर विवाह और विषयासक्ति कुलक्षण आदि बताया गया हैं। इतिहास कि एक घटना मुझे स्मरण होती हैं। चीन देश पर राज करने के लिये अंग्रेजों ने वहाँ के नागरिकों को अफीम कि लत लगा दी थी, जिससे उस देश के वासी अफीमची बन जाये और उनमें प्रतिरोध करने कि क्षमता न रहे। अंत में चीन के सम्राट ने अंग्रेजों कि इस कुटिल नीति का विरोध किया जिसके स्वरुप अंग्रेजों और चीनी सम्राट के बीच में युद्ध हुआ था। इस युद्ध को opium war अर्थात अफीम युद्ध भी कहते हैं। आज भी उसी नीति का अनुसरण किया जा रहा हैं। पहले मीडिया के विभिन्न प्रकल्पों समाचार पत्र, सिनेमा, पत्रिकाए, टेलीविज़न आदि के माध्यम से अश्लीलता का नशा आधुनिकता के नाम पर परोसा जाता हैं। इसके अनेक दुष्प्रभाव होते हैं। इस अंधी दौड़ का कोई अंत नहीं हैं। इस सनक के पीछे पड़ने वाला स्वयं को बर्बाद कर लेता हैं और बर्बाद व्यक्ति भला क्या राष्ट्रहित की बात करेगा? जो खुद से चलने में आत्म निर्भर नहीं हैं वह क्या दूसरे को सहारा देगा? अश्लीलता के दुष्प्रभाव के कारण 2 माह कि बच्ची से लेकर 85 वर्ष कि वृद्धा तक को दरिंदगी का शिकार बनाया जाता हैं। फिर उस दरिंदगी को न्यूज़ बनाकर ब्रेकिंग न्यूज़ के रूप में चटकारे लेकर दिखाया जाता हैं। बात जहाँ आरम्भ होती हैं वही रह जाती हैं। युवक युवतियाँ जिन्हें देश कि शक्ति के रूप में विकसित होना था, अंतत भोगवाद कि अंधी गलियों में फँस कर समाप्त अथवा प्रभावहीन हो जाते हैं। इन्हीं के सरों पर पाँव रखकर कुछ अवाँछित लोग आगे बढ़कर देश का नेतृत्व ग्रहण कर लेते हैं। इस भोगवाद के कितने दुष्परिणाम हैं सोचिये। शिक्षा काल में अपने लक्ष्य से भटक कर, अपनी क्षमता को पूरा मौका देने से पहले, दोनों के गुण, कर्म और स्वाभाव के प्रतिकूल, अनैतिक सम्बन्ध बनाते हैं और इस सम्बन्ध में माता पिता कि इच्छा के विरुद्ध घर से भागने से लेकर, विवाहपूर्व माँ बनने से लेकर, आर्थिक स्तर पर कमी होने के कारण पति पत्नी के दांपत्य में सामंजस्य कि कमी से लेकर, तलाक तक कि आपदा आना सामान्य सी बात बन गई हैं। ऐसे परिवार जो खुद का भला नहीं कर पा रहे हैं वह भला देश और समाज का क्या भला करेगे?
कहने का अर्थ यह हुआ कि आधुनिकता के नाम पर भोगवाद का नशा युवक युवतियों को पिलाया जा रहा हैं जिससे वे आपकी मनमानी के आगे कभी प्रतिरोध न बन सके और राज करने वाले आसानी से अपना कार्य करते रहे।
स्वामी दयानंद ने तीसरा कारण विद्या न पढ़ना पढ़ाना एवं वेद-विद्या का अप्रचार बताया हैं।
विद्या से सबसे बड़ा परिवर्तन मनुष्य कि सोचने समझने कि शक्ति का विकास होना हैं। मनुष्य उसी को कहते हैं जो चिंतनशील हैं, मनन करने वाला हैं। मनन करने वाला व्यक्ति समाज के हित कि सोचता हैं। समाज में जो कुछ भी अन्याय, अत्याचार हो रहा हैं उसका समाधान करना उसकी स्वाभाविक प्रवृति हो जाती हैं। वेद विद्या के ज्ञाता के चिंतन में राष्ट्रवाद और जनकल्याण कि भावना सर्वोपरि होती हैं। सर्वहित के स्थान पर परहित उनका मुख्या ध्येय बन जाता हैं। अंग्रेज जाति बड़ी चालाक थी। उन्हें ज्ञात था कि अगर सोई हुई आर्य जाति को अपने धर्म ग्रंथों में वर्णित राष्ट्रवाद और अध्यात्मवाद के विषय में ज्ञात हो गया तो वे दो दिन भी इस देश पर राज्य नहीं कर सकेगे। इसलिए उन्होंने सुनियोजित षड्यंत्र रचा। उन्होंने वेदों को जादू टोने कि पुस्तक, यज्ञ में पशुबली का समर्थन करने वाली, आर्य और दस्यु के मध्य युद्ध का वर्णन करने वाली, अश्लीलता को प्रोत्साहन देने वाली, बहुदेवतावाद और कर्म कांड कि पुस्तक घोषित करने का कुटिल प्रयास किया जिससे भारतीयों को वेदों से आस्था समाप्त हो जाये और वे लक्ष्य विहीन नौका के समान भटकते रहे। भला हो स्वामी दयानंद का जिन्होंने अंग्रेजों के इस षड्यंत्र का पर्दाफाश कर दिया। स्वतंत्र भारत में स्वामी दयानंद द्वारा बताये गई शिक्षा प्रणाली का अनुसरण नहीं किया गया। जिस अन्धकार से भारतवासियों को निकालने का स्वामी जी ने आवाहन किया था उसी अविद्या के अन्धकार में जनता को दोबारा से धकेल दिया गया। स्वामी दयानंद कि शिक्षाओं से जन जागरण तो हुआ जिससे भारत देश स्वतंत्र तो हो गया मगर इस जन चेतना को स्वतंत्रता के पश्चात प्रोत्साहन देने के स्थान पर उसे पीछे कि और धकेला जाने लगा। वेदों को भारत देश के पाठ्य क्रम में वह स्थान में नहीं दिया गया। उसके स्थान पर पाश्चात्य शिक्षा विधि को अपनाया गया जो मैकाले के कुटिल मस्तिष्क कि उपज थी और जिसका उद्देश्य पढ़े लिखे क्लर्क रुपी गुलाम बनाना था।
आज का समय में भी अंग्रेजों कि व्यवस्था सुचारु रूप से जारी हैं। जिससे पैदा हुआ पढ़ा लिखा समाज बौद्धिक गुलाम होने के कारण किसी भी प्रकार का विरोध करने कि योग्यता नहीं रखता।
संक्षेप में भारत देश कि समर्थ जनता कि सोच को मानसिक गुलाम बना लिया गया, जो गुलाम नहीं बन सके उन्हें आपसी फूट और भेदभाव के खेल में उलझा दिया गया, नवीन पीढ़ी इस व्यवस्था को देखकर विरोधी न हो जाये इसलिये उन्हें भोगवाद कि अंधी दौड़ में उलझा दिया गया। बाकि जो बचे वे असमर्थ हैं और खाने कमाने के ही फेर में उलझे उलझे उनका जीवन निकल जाता हैं।
१३५ वर्ष पूर्व कहे गये स्वामी दयानंद का कथन आज भी कितना प्रासंगिक और व्यवहारिक हैं, यह न केवल स्वामी जी कि दूर दृष्टि का उद्बोधक हैं अपितु ऋषि चिंतन का साक्षात प्रमाण हैं।
हमने एक बार स्वामी जी के सन्देश का पालन किया हम स्वराज्य प्राप्त कर गये, हम एक बार और स्वामी जी के सन्देश का पालन कर ले हम सुराज भी प्राप्त कर लेगे।
डॉ विवेक आर्य
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