Friday, January 31, 2025

अन्तिम हिन्दू भाग 3


 


अन्तिम हिन्दू


लेखक - पुरुषोत्तम

प्रेषक - #डॉ_विवेक_आर्य 


भाग 3 


नतमस्तक हो और हाथ जोड़कर वह हिन्दू भगवान् से बोला, “प्रभो ! समाज में अच्छे और बुरे लोग सर्वत्र ही होते हैं। भूल मनुष्य से ही होती है। आपने सब सत्य ही कहा किन्तु फिर भी मेरे समाज में दानी और परोपकारी मनुष्यों की, तपस्वी साधकों की कमी नहीं थी । दानी महानुभावों ने सहस्रों आश्रम खोले । एक- एक आश्रम में सैकड़ों साधक और परिव्राजक भोजन पाते थे । प्रवचन और पाठ होते थे ।" भगवान् उसे बीच में ही रोककर बोले, "हाँ मैंने तुम्हारे वह आश्रम देखे हैं वहाँ जो कुछ होता है वह मुझसे छिपा नहीं है । वह आश्रम कहाँ है ? विलास की क्या कमी है वहाँ ? जो सैकड़ों लोग नित्यप्रति मुफ्त भोजन पाते हैं उनमें गिनती के दो-चार भी तो साधक नहीं हैं ! अधिकांश निठल्ले लोग हैं जिन्हें बिना परिश्रम भोजन पाने की आदत पड़ गई है । वह समाज के परजीवी बन गये हैं। शेष जो श्रद्धावान लोग वहाँ आते हैं उनमें से कुछ तो वर्ष भर सांसारिक कार्यों में लिप्त रहकर वहाँ पर थोड़ी शान्ति की खोज में आते हैं। उनके लिये यह छुट्टी मनाने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं । अधिकांश आश्रमों में उनकी जमीन जायदात के मुकदमे चल रहे हैं । अध्यात्म, स्वाध्याय और समाजसेवा से यह आश्रम और उनके मठाधीश कोसों दूर तुम्हारे साधु-सन्तों की इस बुरी दशा को देखकर मैंने तुम्हें एक अन्तिम अवसर और दिया। अपने तेजस्वी, तपस्वी पुत्र दयानन्द को भेजा । उसने वेदों का उद्धार किया। उन सभी तत्त्वों का अध्ययन किया जो तुम्हारे समाज को पतन की ओर ले जा रहे थे । उनके विरुद्ध उसने युद्ध की घोषणा कर दी। किन्तु उसे तुम्हारी ही जाति के एक मनुष्य द्वारा विष दिया गया। उसके निधन के ५० वर्ष पश्चात् ही उसका संगठन स्वार्थी लोगों द्वारा विघटित होने लगा। सत्ता और धन के लोभी बलशाली हो गये । उसके बताये हुए अपने मुख्य ध्येय को भूलकर वह दूषित राजनीति में उन्हीं तत्त्वों की कृपा जोहने लगे जिनके विरुद्ध उसने तुम्हें सावधान किया था । अंग्रेजों के आने से पहले भारत में जनगणना की कोई पद्धति न थी, सन् १८६१ में पहली जनगणना हुई उस जनगणना में हिन्दू भारत में ७५.१ प्रतिशत रह गये । इसी समय मुसलमान १९.९७ प्रतिशत से आगे बढ़कर २४.२८ प्रतिशत हो गये। इसी प्रकार बढ़ोत्तरी ईसाइयों में भी हुई। "


"फिर १९४७ में भारत का बंटवारा हुआ, हिन्दुओं के साथ मुस्लिम भारत में। जिन नदियों के तट पर बैठकर तुम्हारे ऋषियों ने वेदों के भाष्य किये और जिस तक्षशिला में तुम्हारे महान् विद्वानों का निर्माण हुआ था, पाणिनी की जन्मस्थली, वह सब मुस्लिम प्रान्त बन गये । ९७ प्रतिशत मुसलमानों ने पाकिस्तान के पक्ष में मत देकर सिद्ध कर दिया कि वह तुम्हारे साथ सह नागरिक बनकर नहीं रह सकते। तुम्हारी जाति जिनको शूद्र कहती थी, उन्हीं शूद्रों में से मेरे एक मनस्वी और तेजस्वी पुत्र अम्बेडकर ने तुम्हारे अदूरदर्शी और भ्रमित नेताओं को बार-बार चेताया कि मज़हब के नाम पर ९७ प्रतिशत मुसलमानों द्वारा पाकिस्तान की माँग उठाने के पश्चात् मुसलमानों का हिन्दू भारत में बने रहने का कोई औचित्य नहीं है । यदि वे भारत में बने रहे तो विभाजन से पूर्व की समस्यायें ज्यों की त्यों बनी रहेगी। किन्तु तुम्हारे पद लोलुप, दम्भी और अदूरदर्शी नेताओं ने उसकी एक न मानी। उन्होंने पाकिस्तान गये हुए मुसलमानों से लौट आने की अनुनय विनय की । फलस्वरूप हिन्दू भारत में वही मुस्लिम समस्यायें फिर खड़ी हो गईं जो पहले थीं । अपने M स्वप्नों में खोये तुम्हारे नेता टूटे हुए काँच के टुकड़ों को गोंद लगा-लगाकर जोड़ने का प्रयास करते रहे। उन प्रयासों की असफलता का दोष वह कभी काँच की कठोरता पर और कभी गोंद में चिपक की असफलता पर लगाकर रुदन करते रहे । १२०० वर्ष के अनुभव से वह काँच के कभी न जुड़ने वाले स्वभाव को क्यों नहीं समझ पाये ? ऐसे मूर्ख समाज को तो नष्ट होना ही था । " ८४.७८ प्रतिशत ।


"हिन्दू भारत में हिन्दू का प्रतिशत १९५१ में था बाद वह रह गया ८२.७२ प्रतिशत । "


१९७१ में अर्थात् केवल २० वर्ष " यह सीधा-सादा गणित तुम्हारे किसी नेता की समझ में क्यों नहीं आया कि बूँद-बूँद घटने पर भी समुद्र सूख सकता है। तुम अपने ही देश में एक प्रतिशत प्रति दस वर्ष की गति से कम होते जा रहे थे और मुसलमान, ईसाई लगभग इसी गति से बढ़ते जा रहे थे । संख्या की दौड़ में तुम उनसे दो प्रतिशत प्रति दस वर्ष की दर से पिछड़ते जा रहे थे । इसी प्रकार ईसाइयों से भी। किन्तु तुम्हारी जाति की यह संख्या ह्रास तो केवल जन्म दर के कारण था । विधर्मी पास के विदेशों से चोरी-छिपे तुम्हारी सीमाओं में घुसे चले आ रहे थे। नागालैण्ड में मुस्लिम १९६१ - १९७१ के बीच २३२ प्रतिशत और १९७१-१९८१ के बीच २९८ प्रतिशत बढ़े। जबकि हिन्दू लगभग ७५ प्रतिशत बढ़े। सिक्किम में मुस्लिम १९७१ - १९८१ में ८६७ प्रतिशत, अरुणाचल में ५०२, मिजोरम में १९६१ - १९७१ में ८०५ प्रतिशत बढ़े। तुम्हारे शासक और समाज चारों ओर से घिरती चली आ रही टिड्डी दल जैसी आपत्ति से कैसे आँखें मूँदें बैठे रहे।”


वह हिन्दू भगवान् की इन कटु बातों से तिलमिला उठा। उसने हाथ उठाकर कहा—“प्रभो ! क्षमा करें। क्या 'सर्वधर्म समभाव' और 'सत्यमेव जयते' जैसे सिद्धान्तों की संसार में घोषणा करने और उन पर आचरण करने वाले हिन्दू समाज को नष्ट हो जाना चाहिए था ? कौन सा दूसरा समाज है जो इन सिद्धान्तों पर आचरण तो दूर इनको मान्यता भी देता हो । "


भगवान् अपने उस अबोध बालक पर करुणामयी दृष्टि डालकर बोले“वत्स ! तुम्हारे समाज जैसा भ्रमित समाज संसार में दूसरा न कभी रहा है और न कभी रहेगा तुम्हारे उपरोक्त दोनों ही सिद्धान्त तुम्हारी मूर्खता के परिचायक हैं। धर्मों में समानता कम विरोध अधिक । क्या तुम्हारे अतिरिक्त कोई भी धर्म दूसरे धर्म को आदर अथवा सम्मान योग्य घोषित करता है । कर भी नहीं सकता । अन्यथा उसके अस्तित्व की आवश्यकता ही क्या ? ईसाई, इस्लाम आदि मध्य एशिया में उत्पन्न मजहब हिन्दू धर्म के सिद्धान्तों के नितान्त विपरीत सिद्धान्त पर बल देते हैं। वह जिन धर्मों का कुफ्र और मूर्खता की उपज समझते हैं उनको आदर कैसा ? समान आदर तो असम्भव है ।"


“ अब सुनो ‘सत्यमेव जयते' का रहस्य । तुमने इसका अर्थ समझा कि सत्य पक्ष की सदैव विजय होती है असत्य पक्ष की नहीं । इस कारण से तुम अपने पक्ष को सत्य मानकर तुम सदैव आश्वस्त होते रहे कि विजय तुम्हारी ही होगी । किन्तु उपनिषद् वाक्य का अर्थ यह नहीं है कि सत्य पक्ष की सदैव विजय होती है। इसका अर्थ यह है कि सत्य सिद्धान्त की सदैव विजय होती है, असत्य सिद्धान्त की नहीं । सत्य सिद्धान्त यह है कि बलवान की विजय होती है निर्बल की नहीं । चातुर्य की विजय होती है मूर्खता की नहीं । शौर्य की विजय होती है कायरता की नहीं । संगठित समाज की विजय होती है 

असंगठित की नहीं। अनुशासित शासन की विजय होती है अनुशासनहीन की नहीं और जो विजयी होता है उसी का पक्ष सत्य मान लिया जाता है । इस कसौटी पर अपनी असफलताओं को परखोगे तो तुम्हें इस सिद्धान्त का वास्तविक अर्थ समझ में आ जायेगा। क्या तुमने कभी सोचा कि यदि सत्य पक्ष की ही सदैव विजय होती तो तुम यवनों और ईसाइयों से निरन्तर क्यों हारते रहे ? क्या इससे यह सिद्ध हो गया कि तुम्हारा पक्ष झूठा था और उनका सत्य ? नहीं पुत्र नहीं! इस उपनिषद् वाक्य का अर्थ यह नहीं है कि सत्य पक्ष की सदैव विजय होती है असत्य पक्ष की कभी नहीं। इसका अर्थ यह है कि सत्य सिद्धान्त की सदैव विजय होती है असत्य सिद्धान्त की नहीं ।"


"मैंने कहा था कि जो स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर सकते उनकी रक्षा मैं नहीं कर सकता हूँ । दुर्बल का मर जाना ही कल्याणकारी होता है, 'दैवो दुर्बल घातकः' दैव भी दुर्बल को ही मारता है ऐसा मेरा मत है। यदि तुम्हें अपने समाज को जीवित रहने की आकांक्षा होती तो तुमने उसके निरन्तर ह्रास को रोकने का कोई उपाय तत्काल सोचा और किया होता। तुमने साँपों, चीतों, बाघों, गैंडों इत्यादि पशुओं की सुरक्षा के तो कारगर उपाय किये जिससे उनकी प्रजाति लुप्त न हो जाय किन्तु अपने समाज, संस्कृति तथा धर्म को लुप्त होते हुए देखकर उसकी सुरक्षा का क्या कोई उपाय किया ? तुम और तुम्हारे द्वारा चुने हुए सत्ता प्राप्त शासक दशाब्दियों तक इस ह्रास को मूक बने देखते रहे। दूसरी ओर मुसलमानों और ईसाइयों ने वह सभी सम्भव उपाय किये जिससे इस दौड़ में उनकी तुम्हें पछाड़ने की गति तीव्र होती रही। इस आत्मघाती लापरवाही का जिम्मेदार तुम्हारा समाज स्वयं था । "


" 'तुम्हारे समाज ने बार-बार उन्हीं लोगों को सत्ता सौंपी जिन्हें तुम्हारे हितों की कोई चिन्ता नहीं थी । जो कहने को हिन्दू थे किन्तु विजातीय संस्कृति एवं धर्मों के प्रशंसक थे। उन्हें तो हिन्दू संस्कृति और हिन्दू ज्ञान छू भी नहीं गया था। कैसी अद्भुत बात है कि 85 प्रतिशत जनसंख्या के बल पर चुने हुये प्रतिनिधि उसी समाज के साथ विश्वासघात करने की हिम्मत करें। ऐसा व्यवहार केवल मृतप्रायः समाज के साथ ही किया जा सकता है।"


'तुम्हारे तथाकथित विद्वान् भी धन और सम्मान की लालसा से इतिहास को तोड़ने मरोड़ने लगे। उन्हें अपनी जाति में ही सब दोष दिखाई देते थे । विजातीय संस्कृति एवं धर्म की झूठी प्रशंसा ही मानो उनका कर्त्तव्य बन गया था । उनकी खोटी हिन्दू - घातक गति-विधियों को उजागर करने का साहस तुम में से किसी में न था । हिन्दू बाहुल्य के कारण धर्म के नाम पर बने तुम्हारे देश में मुसलमान समस्यायें पैदा करते रहे। पड़ोसी देश समस्यायें उत्पन्न करते रहे । न तुम्हारे नेताओं में और न तुम्हारे बुद्धिजीवियों में यह कहने का साहस हुआ कि यह समस्यायें उनका इस्लामी दर्शन उत्पन्न कर रहा है। वह उन समस्याओं को सदैव राजनीतिक कहकर अपने को धोखा देते रहे और समाज को भ्रमित करते रहे। क्या उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि इस्लाम का एकमात्र ध्येय विश्व पर शरीय शासन और इस्लाम की स्थापना है। जब तक यह ध्येय प्राप्त नहीं हो जाते इस्लाम चुप नहीं बैठ सकता । जिस समाज के विद्वत्जन भ्रष्ट हो जाते हैं वह समाज नष्ट हो जाता है । क्योंकि शिक्षा द्वारा भावी पीढ़ी की मनोवृत्ति बनाने वाले वह ही हैं। जिस जाति को अपने हित चिन्तकों और अहित चिन्तकों की पहचान न हो, जिसे अपने नित्यप्रति क्षीण होने वाले अस्तित्व की चिन्ता ही न हो वह कितने दिन तक जीवित रह सकता है ?" " तुम्हारे अन्दर पूज्य अपूज्य का भेद न रहा, मित्र और शत्रु का भेद न रहा, धर्म-अधर्म का भेद न रहा, ज्ञान-अज्ञान का भेद न रहा, शिक्षा कुशिक्षा का भेद न रहा। क्या अब तुम्हारी समझ में आया कि अपनी बर्बादी के जिम्मेदार तुम स्वयं हो। मैंने तुम्हें बचाने के सहस्रों उपाय किये बताओ वत्स ! मैं और क्या करता ? इसमें दोष तुम्हारी जाति का है कि मेरा ?"

No comments:

Post a Comment