Friday, January 31, 2025

अन्तिम हिन्दू भाग 2


 


अन्तिम हिन्दू


लेखक - पुरुषोत्तम

प्रेषक - #डॉ_विवेक_आर्य 


भाग 2 


"मैं पूछता हूँ एक सहस्र वर्षों में तुम्हें यह क्यों नहीं सूझा कि उस द्रव्य से तुम सेना और हथियार इकट्ठे करते । संगठन के लिये गाँव-गाँव में अखाड़े तथा शस्त्र शिक्षा का प्रबन्ध करते। ऐसी पाठशालायें खोलते जिसमें शस्त्र विद्या तथा युद्ध कौशल सीखे अर्जुन जैसे धनुर्धर, कर्ण जैसे दानी, भीम जैसे मल्ल, कृष्ण जैसे धर्म की स्थापना करने वाले, उसके मर्म के ज्ञाता, कौटिल्य जैसे कूटनीतिज्ञ सहस्रों की संख्या में निर्मित होते ?"


" मुसलमानों और ईसाइयों ने तुम्हारे देश में अपनी संस्कृति के प्रचारप्रसार के लिये सहस्रों मदरसे तथा स्कूल खोल डाले। वहाँ हिन्दू संस्कृति के मर्म पर चोट पहुँचाने की शिक्षा पा - पाकर लाखों भारतीय बच्चे प्रतिवर्ष युवा बनकर देश भर में फैलते रहे । तुमने अपनी भावी पीढ़ी में इन दोनों संस्कृतियों से श्रेष्ठ हिन्दू संस्कृति की छाप जमाने के लिये क्या किया ?"


क्या तुमने उनकी शिक्षा का भार विदेशियों, निरंकुश तथा अहिन्दू लोगों के हाथ में नहीं छोड़ दिया ? जब भारत गुलामी से स्वतन्त्र हुआ तो वहाँ कुल ८८ मुस्लिम मदरसे थे और कुछ ईसाई मिशनरी स्कूल । ५० वर्षों से भी कम समय में भारत में ३०००० मदरसे तथा असंख्य अंग्रेजी स्कूल खुल गये ।


कितना महत्त्वपूर्ण अन्तर था तुम्हारे पूर्वजों द्वारा अर्जित ज्ञान में और तुम्हारे विधर्मी आक्रमणकारियों में । उनके धर्म का सारा भवन टिका था मेरे द्वारा निर्मित एक मनुष्य के ऊपर। वह समझते थे कि मेरी कृपा प्राप्त करने के लिये उनमें से किसी एक पैगम्बर अथवा धर्मगुरु पर अन्धविश्वास होना ही पर्याप्त है। फिर उनके सभी दुष्कर्मों और पापों को मैं पैगम्बरों की मध्यस्थता के कारण क्षमा कर दूँगा । और तुम्हें बताया गया था कि कर्म तो अच्छे हों या बुरे भोगने ही पड़ते हैं। मेरे तुम्हारे बीच में कोई मध्यस्थ नहीं है। मैं भी अपने नियमों से बंधा हूँ ।


“मैं तो सत् चित् आनन्द हूँ । तुम मेरे गीत गाओ अथवा मुझे गाली दो, मन्दिर बनाओ या तोड़ो उससे न मैं प्रसन्न होता हूँ और न क्रुद्ध । यह दूसरी बात है कि मेरे गुणगान कर मेरे शाश्वत गुण तुम अपने अन्दर उत्पन्न करो। तुम्हें तो तुम्हारे कर्मों का फल ही प्राप्त होगा। तुम जड़ की पूजा करोगे तो जड़ता की ओर, चैतन्य की पूजा करोगे तो चैतन्य की ओर बढ़ते जाओगे। क्या गीता में कृष्ण ने तुम्हें नहीं बताया था-


यान्ति देवव्रता देवान् पितॄन् यान्ति पितृव्रताः । भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥- गीता ९ । २५


जो देवताओं की पूजा करते हैं वह देवताओं को, जो पितरों की पूजा करते हैं वह पितरों को, जो भूतों और जड़ पदार्थों की पूजा करते हैं वह जड़ता


को प्राप्त होते हैं। केवल वही मुझे प्राप्त होते हैं जो मेरी पूजा करते हैं। ऐसा कर्मफल सिद्धान्त तुम्हारे पास था किन्तु तुमने उसके विरुद्ध जड़ पदार्थों की पूजा, मृत पुरुषों की कब्रों, समाधियों और लक्ष्मी की पूजा की। फलस्वरूप मृत्यु, जड़ता एवं धन ही तुम्हारे पल्ले पड़ा । तुम्हें स्पष्ट बताया गया था-


अपूज्या यत्र पूज्यन्ते, पूज्यानाम च निरादरः । त्रीणि तत्र प्रविशन्ति, दुर्भिक्षम्, मरणम् भयम् ॥


- -महाभारत


जो समाज उनकी पूजा करता है जो पूजा के योग्य नहीं है और उनका निरादर करता है जो पूजा के योग्य है उस समाज को दुर्भिक्ष, मृत्यु और भय भोगना पड़ता है ।


" मैंने तुम्हें विद्याध्ययन और स्वाध्याय के लिये आदेश दिया था । इसमें प्रमाद न करने को कहा था । " स्वाध्याय प्रवचनाभ्यां न प्रमादितव्यं । " स्वाध्याय और उससे प्राप्त ज्ञान के प्रचार-प्रसार में प्रमाद मत करना । क्या तुमने अपने और विदेशी आक्रमणकारियों के धार्मिक विश्वासों और इतिहास का स्वाध्याय किया ? जब स्वाध्याय ही नहीं किया तो उसका प्रचार-प्रसार क्या करते ? उसका प्रतिकार कैसे करते ? ज्ञानार्जन के स्थान पर तुमने सरस्वती की पत्थर की मूर्ति बनाकर उसकी आराधना प्रारम्भ कर दी । शक्ति की उपासना की जगह उसकी भी पत्थर की कपोल कल्पित मूर्ति बनाकर पूजा करना ही ध्येय बना लिया। अपने शस्त्रास्त्र इन निर्जीव मूर्तियों को पकड़ाकर तुमने अपनी रक्षा का भार उन पर छोड़ दिया। जब महमूद गजनवी के खूनी लुटेरों का टिड्डी दल सोमनाथ की ओर बढ़ रहा था तुम्हारे मूर्ख अन्धविश्वासी रक्षक मन्दिर की दीवारों पर बैठकर उनका उपहास कर रहे थे कि पास आते ही सोमनाथ उन्हें भस्म कर देंगे। वह सब गाजर मूली की तरह काट दिये गये सोमनाथ की प्रतिमा तोड़कर गजनी की मस्जिदों की सीढ़ियों पर और बाजार में डाल दी गई जिससे वह मुसलमानों द्वारा पद्दलित व अपमानित होती रहे । सोमनाथ का मन्दिर न जाने कितनी बार बना और टूटा। राजनीति में कभीकभी भूल हो जाती है । किन्तु उस भूल को बार-बार करने वाले समाज को जीने का अधिकार नहीं होता । तुमने तो गायत्री छन्द में दिये गये एक ज्ञानमय मन्त्र के अर्थों पर आचरण न कर उसकी भी मूर्ति बना डाली। पुत्र ! स्वर्ण की गउवें दूध नहीं देतीं। पत्थर के सिंह एक चूहा भी नहीं मार सकते । यह बात तुम्हारी समझ में क्यों नहीं आई।"


तुम्हारा मन्दिरों का मोह और पत्थर के देवी-देवताओं पर विश्वास बना रहा जितना कोलाहल तुम्हारे मन्दिरों में होता है उतना तो हाट बाजार में भी नहीं होता । और कौन जाता था तुम्हारे इन मन्दिरों में ? क्या करते थे वह वहाँ ? कितनी देर ? वहाँ अधिकतर जाते थे निकट आती मृत्यु से भयभीत वृद्ध और वृद्धायें ? जो लोग आते थे वह लोग भी वहाँ उतनी देर ही ठहरते थे जितना समय पुजारी को उनका प्रसाद मूर्ति पर चढ़ाने में लगता था । प्रसाद चढ़ाकर और शेष भाग लेकर उन्हें अपने व्यवसाय पर जाने की जल्दी रहती थी । तुम्हारे पुजारी भी अधिकतर ऐसे ही थे जिनका शास्त्र अध्ययन न के बराबर था। जो ज्ञान उन्हें स्वयं नहीं था वह तुम्हें क्या बताते ? कहीं-कहीं थोड़ा भजन कीर्तन होता था जिसका भाव होता था ईश्वर की भक्ति अथवा पौराणिक कथायें - कहानी मात्र सुनने का रस । प्रवचन यदि कहीं होता भी था तो केवल यह बताने के लिये कि संसार अनित्य है । सब माया है। सब छलावा है। जबकि सत्य यह है कि प्रवचन करने वालों और सुनने वालों के लिये वास्तव में संसार ही सब कुछ था । शेष सब झूठ था। वह अपनी जाति के लिये उस झूठे संसार का, उस माया का, जो उन्होंने उचित अनुचित का ध्यान किये बिना संचित किया था, एक पैसा भी समाज के लिये खर्च करने में संकोच करते थे। क्या वहाँ कभी इस पर प्रवचन होता था कि हिन्दू धर्म के मूल सिद्धान्त क्या हैं ? वह दूसरे मत-मतान्तरों से क्यों श्रेष्ठ है । होता भी कैसे वहाँ प्रवचन करने वालों को ही इसका ज्ञान कहाँ था ?"


I " इसके विपरीत मस्जिदों में क्या होता था ? वयस्क पुरुषों का ५३ प्रतिशत समाज वहाँ दिन में पाँच बार एकदम शान्ति के साथ मेरा ध्यान करता था। इनमें अधिकांश युवक और किशोर होते थे । उसके पश्चात् वहाँ इस्लाम धर्म की विधिवत शिक्षा प्राप्त इमाम श्रोताओं को इस्लाम धर्म के सिद्धान्तों का उपदेश करता था। उन्हें बताता था कि इस्लाम धर्म दूसरे धर्मों से श्रेष्ठ क्यों है । समाज में फैले इस्लाम विरोधी रीतिरिवाजों की वहाँ कड़ी आलोचना होती थी। उनको मिटाने पर बल दिया जाता था । साधन जुटाये जाते थे । गरीब से गरीब मुसलमान अपने समाज के लाभ के लिये बड़ी से बड़ी कुर्बानी करने को तत्पर रहता था। और तो और समाज का वातावरण बिगाड़ने वाले कानूनी मुकदमे भी वहाँ सामाजिक दबाव डालकर सुलह कराये जाते थे। समाज की सामाजिक, राजनीतिक समस्याओं से किस प्रकार जूझा जाय उस पर विचार होता था । सत्ता प्राप्त करना धर्म के प्रचार-प्रसार के लिये आवश्यक है । इसलिये सत्ता पर किस प्रकार कब्जा किया जाय, उसके लिये ध्यानपूर्वक कुशल लोगों द्वारा नियोजित ढंग से अमल होता है । वहाँ पर स्थापित लाखों मकतबों में चार - चार, पाँच-पाँच साल के बच्चों को कट्टर इस्लाम की शिक्षा दी जाती थी । कुफ्र और काफिरों से घृणा करना सिखाया जाता था। समाज के लिये बलिदान होने की भावना भरी जाती थी । "


" तुम्हारे समाज की मूर्खता और आपसी फूट के कारण मुस्लिम राज्य आया। उन्होंने तुम्हारे शास्त्रों और चरित्र का गहन अध्ययन किया । तुम्हारी पुस्तकों के फारसी में अनुवाद कराये। तुम्हारी कमजोरियों का लाभ उठाया । तुम्हारी पाठशालायें और पुस्तकालय इसलिये ध्वस्त कर दिये कि तुम अपने बच्चों को अपने धर्म और इतिहास की शिक्षा देकर उनकी शक्ति के लिये खतरा न बन जाओ। तुमने उनके धर्म और इतिहास का, उनके संगठन का, उनकी युद्ध और सैन्य प्रणाली का कोई अध्ययन नहीं किया। तुम एक दूसरे के साथ विश्वासघात करते रहे। वह एक एक कर तुम्हें परास्त करते रहे। मैंने तुम्हें जो संगठन सूत्र दिया उस पर तुमने कितना आचरण किया ? करोड़ों लोग मुसलमान बनाये गये । यदि उन्होंने अपने धर्म में वापिस आने की भी गुहार की तो वह अस्वीकार कर दी गई । "


'तुम्हारी निरन्तर पराजय से उत्पन्न हताश दशा को देखकर मैंने प्रताप, दुर्गादास, शिवाजी, गुरुगोविन्द सिंह जैसे योद्धा रासबिहारी बोस, जितेन्द्रनाथ, शचीन्द्र सान्याल, भगत सिंह, पिंगले, वीर सावरकर, मदनलाल धींगरा जैसे सैकड़ों क्रान्तिकारी युवक भेजे। एक बार को लगा कि तुम भारत में फिर से धर्म पर आधारित, संसार के लिये आदर्श राज्य स्थापित करोगे । किन्तु तुम आपस में मिलकर न बैठ सके। यह भूल गये कि वसुन्धरा वीरभोग्या है कायर भोग्या नहीं। तुमने अहिंसा का मर्म न समझ कर अहिंसा के नाम पर फिर कायरता को वरण किया। समाज को शौर्य और प्रतिघात की क्रान्तिकारी शिक्षा नहीं दी।"


" फिर मुसलमान निर्बल हो गये तो अंग्रेजों ने उन्हें परास्त कर तुम दोनों पर राज्य किया । उन्होंने भी तुम्हारी पुस्तकों का गहन अध्ययन किया। जिन धर्म पुस्तकों को तुमने अन्धेरी कोठरियों में बाँध बाँध कर रख दिया था उनको पैसे दे-देकर उन्होंने खरीदा। उनका अंग्रेजी में अनुवाद करवाया । उसमें दिये गये ज्ञान से लाभ उठाया । तुम्हारी कमजोरियों को समझा और तुम्हारे कमजोर मर्मस्थलों पर चोट की। उन्होंने भी करोड़ों लोगों को ईसाई बनाया । तुम्हारे सहस्रों वर्षों से प्रताड़ित धर्म बन्धु मुसलमान ईसाई बनकर तुम्हारी जड़ों को खोदने लगे । १२०० वर्ष पहले भी इन तथाकथित धर्मों की वास्तविकता को समझे बिना ही स्वयं तुम्हारे शासकों ने भारत में मस्जिदें तथा गिरिजाघर सरकारी धन से निर्माण कराये थे। मुस्लिम देशों से व्यापारिक लाभ उठाने के लिये स्वयं इस्लाम धर्म स्वीकार किया तथा अपने नाविकों को भी कराया। विदेशी नाविकों को हिन्दू स्त्रियाँ दे-देकर भारत में बसाया था। उन्हीं की सन्तानों मोपलों ने आगे चलकर तुम पर कहर ढाये । बलपूर्वक और छल द्वारा धर्मान्तरण किये । किन्तु १२०० वर्षों में क्या तुम्हारे विद्वानों ने कभी भी इन धर्मों का गहन अध्ययन कर उनके इरादों को समझा ? तुम्हारी संख्या कम होती गई। उनकी बढ़ती गई । तुम्हारा धर्म हो गया जैसे भी हो पैसा तथा क्षणिक सत्ता प्राप्त करना और सत्ता में बने रहना । फलस्वरूप पैसा तुमने पर्याप्त मात्रा में कमाया भी। सत्ता में भी तुम बने रहे किन्तु किसी संस्कृति को केवल पैसा नहीं बचा सकता । सत्ता भी नहीं बचा सकती । यह तो साधन मात्र है उसको बचाने के लिये ज्ञान, त्याग, लगन, तप एवं बलिदान की आवश्यकता होती है। इन गुणों का तुम्हारी जाति में नितान्त अभाव हो गया । त्याग तो तुम क्या करते, तुम लोगों ने अपनी उन सार्वजनिक संस्थाओं को भी लूट-लूट कर खोखला कर दिया जिनको जाति के भक्तों ने अपनी पसीने की कमाई का दान देकर खड़ा किया था । ऐसे लोभी, स्वार्थी, अज्ञानी लोग तपस्या और बलिदान नहीं किया करते।"

No comments:

Post a Comment