Monday, July 19, 2021

धैर्य, दृढ़ता व वीरता की प्रतीक आदर्श महिला वीर सावरकर की सहर्धामणी माई


नारी जगत् 
धैर्य , दृढ़ता व वीरता की प्रतीक आदर्श महिला  
वीर सावरकर की सहर्धामणी माई
 -सत्यवती गोयल 

     माई की आयु केवल ११ वर्ष थी कि उसके पिता चिपलूणकर ने उसके माहाथ पीले करने की तैयारियां प्रारम्भ कर दीं। श्री चिपलूणकर जाव्हार राज्य के दीवान थे। अच्छे , खाते - पीते परिवार के सम्पन्न ब्राह्मण थे माई का विवाह सन् १६०१ में चितपावन ब्राह्मणवंशीय भगूर निवासी श्री दामोदर सावरकर के पुत्र १८ - वर्षीय युवक विनायक ' तात्याराव ' के साथ कर दिया गया। तात्याराव ' ने पूना के फग्र्युसन कालिज से बी० ए० किया। श्री तिलक जी के प्रयास से कानून की पढ़ाई के लिये लन्दन जाने की शिवाजी छात्रवृत्ति ' श्यामजी कृष्ण वर्मा से मिल गयी। तात्या के श्वसुर श्री विपलूणकर ने अपने दामाद को कानून की पढ़ाई के लिये विदेश जाते देखा तो उनका हृदय खुशी से भर गया। उन्होंने तुरन्त दो हजार रुपये अपने दामाद को अपनी ओर से भेंट किये।

    ' माई ' की आयु उस समय १६ वर्ष की थी। वह अपने सम्बन्धियों व परिजनों के साथ अपने पति ' तात्या ' को लन्दन के लिये विदाई देने बन्दरगाह तक गई थी। विदाई देते समय माई के हृदय में यही आशा थी कि यह बिछुड़ना क्षणिक ही है तथा कुछ ही वर्षों में जब उसके पति उच्चकोटि के बैरिस्टर बनकर लौटेंगे , तत्र कितने सुखद क्षण होंगे। ' माई ' भविष्य के सुखद जीवन की कल्पना में लीन थी कि एक दिन उसे समाचार मिला कि तात्याराव ने तो कानून की पढ़ाई के बदले लंदन में दूसरा कांटों का मार्ग , तेज छुरी की धार का रास्ता अपना लिया है। उसे लन्दन की तरह - तरह की घटनायें सुनने को मिलने लगीं। माई का अपने पति को बैरिस्टर के रूप में देखने का स्वप्न चकनाचूर हो गया। २३ मार्च १९१० को ' तात्या ' लन्दन में बन्दी बना लिये गये तो ' माई ' को अपने पति के जेल में कष्ट सहन करने के समाचार से भारी आघात लगा। 

उसने अपने पतिदेव की मुक्ति के लिये परमात्मा से प्रार्थना प्रारम्भ कर दी। तात्या भारत लाये जाते समय समुद्र में कूद पड़े व पुनः बन्दी बनाकर भारत लाये गये। समुद्र में कूद जाने की साहसिक व रोमांचकारी घटना से एक बार तो माई का सिर गौरव से ऊंचा हो उठा। अपने पति के अदम्य साहस की कथा सुनकर वह फूली न समाई। किन्तु जब बम्बई के न्यायालय ने ' तात्या ' को एक नहीं दो , आजीवन कारा वासों का दण्ड दिया , ५० वर्ष के लिये अण्डमान की काल - कोठरी में भेजने का आदेश दिया तो ' माई ' दहाड़ मारकर रो पड़ी। 

       उसकी समस्त आकांक्षाओं पर पानी फिर गया। माई अपने भाई के साथ डोंगरी के कारागृह में अपने पूज्य पति के दर्शनों के लिये गई तो उसके हृदय में यही आशंका थी कि वह उनके अन्तिम दर्शन कर रही है। बैरिस्टर की वेशभूषा में देखने की आकांक्षा रखने वाली आंखों ने तात्या को लोहे के मोटे सींखचों के पीछे लोहे की जंजीरों एवं हथकड़ी - बेड़ियों से जकड़ा हुआ पाया तो उसकी आंखों से आंसुओं की झड़ी लग गई। 

       माई का हृदय चीत्कार कर उठा। ' बेटे - बेटियों की संख्या बढ़ाना और चार तिनके ( लकड़ी ) बचा करके घर बांध लेना यदि संसार व सुख कहलाता है तो ऐसा संसार कौवे , कुत्ते व चिड़ियां भी बनाती रहती हैं। किन्तु अपने सुखों को मातृभूमि के चरणों पर न्यौछावर कर देना यह मानव का वास्तविक सुखद संसार है। तुम धैर्य करो , हमारा यह त्याग भविष्य में अन्य सैकड़ों घरों में तो आनन्द की वर्षा करेगा ही। ' १६ - वर्षीय तरुणी माई ने अपने बन्दी पति ' तात्या ' के मुख से ये शब्द सुने तो वह राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत भावनाओं को देख कर हृदय में प्रफुल्लित हो उठी। भीगी आंखों से वह पति से विदा हुई। 

       तात्याराव के अण्डमान रवाना होने के बाद माई ने पति के जीवन की रक्षा के लिये । रिहा होकर पुनः मिलन के लिये व्रत उपवास व ईश्वराराधना प्रारम्भ कर दी। वह पातिव्रत धर्म का पूर्णतः पालन करती रही। हृदय में केवल एक ही आशा - आकांक्षा थी कि एक दिन पतिदेव के साथ रहने का सौभाग्य अवश्य मिलेगा। १३ वर्षों की लम्बी प्रतीक्षा के बाद आशा का सूर्य प्रकट हुआ , निराशा के अन्धकार को उसने भगा दिया। तात्याराव ' को अण्डमान से लाकर रत्न गिरि में स्थानबद्ध कर दिया गया। पति - पत्नी दोनों मिले। माई का हृदय पति के चरणों में नतमस्तक हो उठा। उन्होंने अपने मृत्युंजयी बीर पति के मृत्यु को पराजित करके वापस आने पर भगवान् को धन्यवाद दिया। 

       माई का त्याग , माई का धैर्य एवं पातिव्रत धर्म , ' तात्या ' के त्याग - बलिदान से , समुद्र में कूद , पड़ने के अदम्य साहस से किसी भी प्रकार कम न रहा। माई के पातिव्रत धर्म के बल पर ही तो तात्या विश्व को अपने अदम्य साहस व त्याग के ' चमत्कार ' से चमत्कृत कर सके थे। माई सीता , सावित्री , पद्मिनी की तरह महान् पतिव्रता हिन्दू नारी थीं। उन्होंने अपने पातिव्रत धर्म का पालन जीवन के अन्तिम क्षण तक किया। उनके इष्टदेव ने ' मैं अपने पति के सम्मुख ही उनकी सेवा करती - करती मर जाऊ ' उनकी इस अन्तिम अभिलाषा को भी पूर्ण किया। सन् १९३३ में माई तात्या से बिछुड़ गई। उन्होंने अपने महान् पातिव्रत धर्म के पालन से हिन्दू नारियों के गौरवमय इतिहास में एक नया पन्ना जोड़ दिया।

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