भ्रमोच्छेदन
संस्कार विधि पर ज्योतिषाचार्य श्री कृष्ण चन्द्र शास्त्री का गर्हित आक्षेप
[क्या स्वामी दयानन्द कृत संस्कार विधि फलित ज्योतिष पर आधारित है?]
प्रियांशु सेठ (वाराणसी)
सोशल मीडिया के माध्यम से पौराणिक ज्योतिषाचार्य श्री कृष्ण चन्द्र शास्त्री का "ज्योतिष और आर्यसमाज" नामक शीर्षक से एक लेख प्राप्त हुआ है। इसमें शास्त्रीजी ने स्वामी दयानन्द के प्रसिद्ध ग्रन्थ संस्कार विधि से कुछ सन्दर्भ उठाकर यह सिद्ध करने की कुचेष्टा की है कि स्वामी दयानन्दजी को अपने ग्रन्थ में फलित ज्योतिष अभीष्ट है। उन्होंने कहीं फलित ज्योतिष का खण्डन नहीं किया है।
शास्त्रीजी ने यदि सत्यार्थप्रकाश ही ठीक से पढ़ लिया होता तो वह ऐसे आक्षेप कदापि न करते। स्वामी दयानन्द ज्योतिष को खगोलीय घटना, ग्रहों का विज्ञान, मौसमी विज्ञान, संवत्सर गणना, रश्मियों का प्रभाव, ऋतु परिवर्तन आदि की गणना करने वाला विज्ञान मानते थे। उन्होंने अपने कालजयी ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में स्पष्टतः फलित ज्योतिष पर प्रहार किया है। मगर ज्योतिष को फलित रूप देकर जनसामान्य को लूटने वाले लुटेरों को ढपोरशंख की भांति बजने का अभ्यास है। हम इस लेख में शास्त्रीजी के आक्षेपों का क्रमानुसार खण्डन करते हैं-
आक्षेप १- प्रत्येक गर्भाधान आदि संस्कार के लिए उत्तम मुहूर्त लिया जाना चाहिए। इसमें एकादशी, त्रयोदशी वर्जित हैं।
उत्तर- आपको दो रात्रियाँ ही वर्जित दिखती हैं, गर्भशास्त्र (Eugenics) तो छः रात्रियों को वर्जित मानता है और यही महर्षि दयानन्द ने भी कहा है। स्त्रियों का स्वाभाविक ऋतुकाल सोलह रात्रि का है- "ऋतु: स्वाभाविक: स्त्रीणां रात्रय: षोडश: स्मृता: (मनु० ३/४६)"। इन सोलह रात्रियों में प्रथम की चार रात्रियाँ तथा एकादशी व त्रयोदशी- ये छः रात्रियाँ निन्दित हैं। शेष दश रात्रियाँ ऋतुदान के लिए श्रेष्ठ हैं। मनुस्मृति (३/४७) में इन छः रात्रियों को महारोगकारक होने से निन्दित बताया है।
डॉ० बोध कुमार झा 'ब्रह्मबन्धु' (लब्धस्वर्णपदकत्रय-रजतपदकत्रय-कांस्यपदकद्वय, प्रवक्ता- संस्कृत दर्शन वैदिक अध्ययन विभाग, वनस्थली विद्यापीठ, राजस्थान) एवं पं० गेय कुमार झा 'गङ्गेश' (लब्धस्वर्णपदक, वेदाचार्य, गवेषक- स्ना० व्या० विभाग का० सिं० दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, बिहार) ने एक पुस्तक लिखी है- "षोडश संस्कार (एक वैज्ञानिक विवेचना)"। इसमें वे उपरोक्त प्रकरण के सम्बन्ध में लिखते हैं-
"वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करने पर ये वर्ज्य तिथि एवं दिन तर्क संगत प्रतीत होते हैं। आरम्भ के जो चार दिन प्रतिषिद्ध माने गये वे तो सर्वजनसंवेद्य हैं। इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं आनी चाहिये। पूर्णिमा और अमावस में क्रमशः सोमतत्त्व का आधिक्य और अल्पता वातावरण में निहित होती है, अतः ये दोनों तिथियाँ जातक सम्बन्धी स्वास्थ्य-परक दृष्टि के कारण वर्जित मानी गई हैं। जहां तक ११वीं और १३वीं रात्रि का प्रश्न है, वह भी शारीरिक विज्ञान सम्मत प्रतीत होता है। इन दोनों ही कालांशों में स्त्री का गर्भाशय जीवाणु को सर्वथा स्वीकार करने हेतु तैयार नहीं होता। फलतः विरुद्ध आचरण करने पर जातक के विकलांग होने की ज्यादा सम्भावना रहती है।[१]"
चरकसंहिता, शरीरस्थान (८/६) में इस सन्दर्भ में वर्णन आता है-
"६,८,१०,१२,१४,१६ ये युग्म रात्रियाँ हैं जो पुत्र की इच्छा हेतु श्रेष्ठ हैं। ५,७,९,१५ ये अयुग्म रात्रियाँ हैं जो पुत्री इच्छा के लिए श्रेष्ठ हैं।" इससे स्पष्ट है कि शेष छः रात्रियों में स्त्रीसमागम रोगकारी होने से निन्दित हैं। वास्तव में गर्भाधान विधि के इस प्रसंग में शास्त्रीजी का फलित ज्योतिष ढूंढना बौद्धिक दिवालियापन से कम नहीं है।
इसी भांति अग्निवेशगृह्यसूत्र (२/७/६) में आया है-
"षोडश्यां लभते पुत्रं ब्रह्मकीर्त्तनतादृशं तदूर्ध्वमुपयमं नास्ति कामभोगैव केवलम्।"
अर्थात् १६वीं रात्रि में स्त्री से समागम करने से ब्रह्मकीर्तन जैसा पुत्र मिलता है। उसके पश्चात् सन्तानार्थ स्त्रीसमागम वर्जित है। तब स्त्रीसमागम करना केवल कामचेष्टा है। अतः आपकी शंका का सम्बन्ध पदार्थविद्या, आयुर्वेद और गर्भशास्त्र (Eugenics) से है। किन्तु खेद है कि आपकी योग्यता शरीर विज्ञान (Physiology) में बिल्कुल शून्य है।
आक्षेप २- सीमन्तोन्नयन संस्कार में शुक्ल पक्ष हो तथा चंद्रमा पुनर्वसु, पुष्य, अनुराधा आदि पुल्लिंग नक्षत्रों में हो।
उत्तर- शुक्लपक्ष के चन्द्रमा से गर्भगत बालक की मानसिक उन्नति का प्रयोजन है। मूल, हस्त, श्रवण आदि नक्षत्र पुल्लिंग बोधक हैं और जब चन्द्रमा पुरुष नक्षत्र से युक्त होता है तब ऋतु प्रायः विषम नहीं होती। चन्द्रमा का किसी पुरुषवाची नक्षत्र से युक्त होने से ऋतु में समता रहती है, कारण यह है कि पुरुषवाची नक्षत्र अपने प्रभाव से चन्द्रमा की कोमलता का शोषण करता है। कोमलता तथा कठोरता एवं जलशक्ति तथा तेजशक्ति मिलकर ऋतु को विषमता रहित करते हैं।
जैसे भूमि में बीज बोने के लिए वर्षा होने का दिन अनुकूल होता है, उसी प्रकार चन्द्र का प्रकाश मानसिक शक्ति की वृद्धि के लिए उपयोगी होता है। मनुष्य का मन देवसंज्ञक है। मन के साथ चन्द्रमा का विशेष सम्बन्ध है। ऋग्वेद के "पुरुषसूक्त" के मन्त्र "चन्द्रमा मनसो जातश्च..." में भी यही सन्देश है। अतः आपका आक्षेप निर्मूल है।
आक्षेप ३- नामकरण संस्कार में कन्या का नाम रोहिणी, रेवती आदि नक्षत्रों के नाम पर नहीं रखना चाहिए।
उत्तर- आप नक्षत्रवाची नाम रखकर क्या सिद्ध करना चाहते हैं? ऐसा प्रतीत होता है कि आपको नक्षत्र की सामान्य जानकारी भी नहीं है। नक्षत्र असंख्य हैं तथापि हमारे सौरमण्डल का व्यवहार २७ नक्षत्रों से अति विशेष है। अश्विनी आदि नक्षत्र देवता- नक्षत्र पुंज हैं और इनके अश्विनी आदि नाम इनकी आकृति पर रखे गए हैं। जैसे कृत्तिका नक्षत्र का देवता अग्नि है, सो दूरबीन से देखने पर इसकी आकृति अग्नि सदृश मालूम होती है। इसी प्रकार अन्यान्य कई नक्षत्रों के देवता हैं; अतः आकृति परक होने से ये नक्षत्र पुंज की आकृति बोधक नाम हैं।
अब बताइये, क्या कन्याओं की आकृति नक्षत्रों से मिलती है जो उनके नक्षत्रवाची नाम रखे जाएं? यदि अपने मनुस्मृति के अध्याय ३ का ९वां श्लोक पढ़ा होता तो आप जड़वाची नामों के सम्बन्ध में कदापि शंका न होती।
आक्षेप ४- निष्क्रमण संस्कार भी शुक्ल पक्ष की तृतीया आदि तिथियों में करें।
उत्तर- शुक्लपक्ष की तृतीया अभ्युदयारम्भ की सूचक है। तृतीया में करने का यह प्रयोजन है कि बालक का उत्तरोत्तर अभ्युदय होता रहे। यह निष्क्रमण की न्यूनतम अवधि है।
आक्षेप ५- ब्राह्मणादि का उपनयन संस्कार वसंत, ग्रीष्म आदि ऋतुओं में करें।
उत्तर- वसन्त ऋतु सौम्य गुण प्रधान होने से ब्राह्मण-भावना, ग्रीष्म ऋतु तेजस्वी होने से क्षत्रिय-भावना तथा शरद् ऋतु शीतल होने से वैश्य भावना की प्रतीक है। इसलिए ये ऋतुएं क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के लिए उपयुक्त हैं।
आपके सभी आक्षेपों के उत्तर दिए जा चुके हैं। कृष्ण चन्द्र जी तो अपने फलित ज्योतिष से यह भी नहीं बता सकते थे कि उनके इस लेख का खण्डन कोई करेगा, अन्यथा वह अपने लेख में मेरा वर्णन कर सकते थे? आशा है, अब आप ऐसे ऊट-पटांग लेख नहीं लिखेंगे जो आपको हास्य का पात्र बनाये।
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१. "षोडश संस्कार (एक वैज्ञानिक विवेचना)"; पृष्ठ ३-४; संस्करण १९९७; सिंहसन्स ऑफसेट जयपुर से मुद्रित एवं हंसा प्रकाशन ५७ नाटाणी भवन मिश्रराजाजी का रास्ता, चांदपोल बाजार, जयपुर से प्रकाशित।