Monday, May 17, 2021

स्वामी धर्मानन्द सरस्वती हिसार


स्वामी धर्मानन्द सरस्वती          खाबड़ा जिला हिसार 
संस्थापक आर्ष गुरुकुल आबूपर्वत 

लेखक :- आचार्य ओम्प्रकाश आर्य 
             आर्ष गुरुकुल आबूपर्वत 
प्रस्तोता :- श्री धर्मपाल आर्य मुकलान 

संस्कृत साहित्य में प्रसिद्ध श्लोक है:- 

              जीवन्ति च म्रियन्ते च मद्विधा क्षुद्रजन्तवः। 
              अनेन सदृशो लोके न भूतो न भविष्यति।। 

अर्थात् – हमारे जैसे लाखों छोटे - छोटे जन्तु प्रतिदिन जन्म लेते हैं और मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं , परन्तु इनके समान संसार में न हुआ न होगा। यह कहावत स्वामी धर्मानन्द जी सरस्वती के प्रति अक्षरशः घटित होती हैं।

            वीरभूमि हरियाणा प्रदेश के हिसार जनपद के अन्तर्गत खाबड़ा कला ग्राम में आज से 84 वर्ष पूर्व हमारे कथानायक पूज्य स्वामी जी का जन्म चौधरी जियाराम जी बैन्दा के घर दिनांक 25 सितम्बर 1937 को माता चावली देवी जी के कोख से हुआ था। चौधरी जियाराम जी बैन्दा एवं माता चावली देवी को प्रतापसिंह , शान्ति , पृथ्वीसिंह ( स्वामी जी ) , छोटूराम , रामचन्द्र ( पूर्व सांसद ) व सुमित्रा , इन चार पुत्ररत्नों व दो पुत्रियों की प्राप्ति हुई। 

            पृथ्वीसिंह ने अपने गाँव में कक्षा -8 तक अध्ययन किया, कक्षा -10 एवं कक्षा -12 का अध्ययन फतेहाबाद किया, तत्पश्चात् दयानन्द कॉलेज, हिसार में आपने B.A. तृतीय वर्ष तक अध्ययन किया, कॉलेज में अध्ययन करते हुए आपने डी. ए. वी. कॉलेज द्वारा आयोजित होने वाली धर्मशिक्षा की कई परीक्षाएं प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की। आपके गाँव में प्रतिवर्ष आर्यसमाज के भजनोपदेशक उपदेश हेतु पधारते थे। उनके आवास व भोजन की व्यवस्था आपके परिवार में ही होती थी। आपके पिताजी एवं चाचा रुपराम जी दृढ़ आर्यसमाजी थे। आपके चाचाजी ने विवाह नहीं किया था व पूरे दिन वैदिक, आर्ष ग्रन्थों के स्वाध्याय में निरत रहते थे। 

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गृहत्याग 
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           परिवार आर्यसमाजी होने के कारण आपने घर पर ही ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों व अनेक आर्ष ग्रन्थों का स्वाध्याय किया, विशेषरुप से योगदर्शन का स्वाध्याय किया ( अपने घर से लाया हुआ योगदर्शन आज भी स्वामी जी के पुस्तकालय में सुरक्षित है ) योगदर्शन के विशेष अध्ययन के फलस्वरुप आपके हृदय में वैराग्य के अंकुर प्रस्फुटित हुए और दिनांक 22 सितम्बर 1972 को सायं 7 बजे गृह का त्याग किया। अपने परिवारजनों को गृहत्याग का समाचार देने के लिये वे पत्र लिखकर एक व्यक्ति को दे आये थे और कहा कि यह पत्र हमारे घर पर पहुंचा देना। स्वयं ने विशेष लक्ष्य की प्राप्ति हेतु गृहत्याग किया है यह बात उन्होंने स्पष्ट रुप से पत्र में लिख दी थी। ( पत्र संलग्न हैं ) गृहत्याग से पूर्व उस समय की सामाजिक रीति के अनुसार 25 वर्ष की आयु में आपका विवाह हो गया था, इस विवाह से आपके तीन पुत्र भी हुए। “ यदहरेव विरजेत्तदहरेव प्रव्रजेदनाद्वा गृहाद्वा ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेत्।। ये ब्राह्मण ग्रन्थ का वचन है। अर्थात् जिस दिन वैराग्य प्राप्त हो उसी दिन घर अथवा वन से संन्यास ग्रहण कर लेवे, इस में विकल्प अर्थात् वानप्रस्थ न करें, गृहस्थाश्रम से ही संन्यास ग्रहण करें। ( सत्यार्थप्रकाश पंचम समुल्लास से उद्धृत )। गृहत्याग के समय आपकी आयु 35 वर्ष की थी। गृहत्याग के पश्चात् उत्तरप्रदेश के अनेकों आश्रमों में आप योगाभ्यास हेतु गये। देहरादून के तपोवन आश्रम की ऊपर वाली कुटिया में भी आपने कई दिनों तक निवास करके योगाभ्यास किया। उन दिनों ऋषिकेश में स्वामी योगेश्वरानन्द जी ने अपने आश्रम में एक उपदेशक विद्यालय प्रारम्भ किया था, इस विद्यालय के आचार्य चन्द्रदेव जी थे ( आप गुरुकुल झज्जर के स्नातक हैं व वर्तमान में स्वामी चन्द्रवेश जी के नाम से प्रसिद्ध हैं तथा संन्यास आश्रम गाजियाबाद में निवास कर रहे हैं ) इन्हीं आचार्य चन्द्रदेव जी ने आपको नैष्ठिक ब्रह्मचर्य की दीक्षा देकर ब्रह्मचारी कपिलदेव नाम प्रदान किया। इस आश्रम में कुछ माह अध्ययन करने के पश्चात् उत्तरप्रदेश के मुजफ्फर नगर जिले के गाँव टन्डेना में आप योगाभ्यास व स्वाध्याय करते रहें एवं कई युवकों को वैदिक धर्म में दीक्षित किया एवं ग्राम में आर्यसमाज की स्थापना की। इसी गाँव के नवयुवक श्री नरेन्द्र भी आपके सानिध्य में ही दृढ़ आर्य बने, आगे चलकर यहीं नरेन्द्र जी आर्य निर्मात्री सभा उत्तरप्रदेश के कई वर्षों तक प्रधान रहें। वहाँ से आप बागपत के पास मवीकला गाँव में आये व यहाँ भी आर्यसमाज की चारदिवारी, कार्यालय व यज्ञशाला के चबुतरे का निर्माण जनसहयोग से करवाया। 

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आबूपर्वत में आगमन
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            उत्तरप्रदेश में भ्रमण करते हुए आबूपर्वत के वेदधाम निवासी आर्य संन्यासी स्वामी काव्यानन्द जी से आपका सम्पर्क हुआ। ऋषि दयानन्द जी की जीवनी के अध्ययन से भी ज्ञात हुआ था कि ऋषि दयानन्द ने भी आबूपर्वत की विभिन्न गुफाओं में रहकर योगाभ्यास किया था, अतः योगाभ्यास हेतु आबूपर्वत उत्तम स्थान है यह निश्चय करके आप सन् 1975 के प्रारम्भ में आबूपर्वत के वेदधाम में पधारें। स्वामी काव्यानन्द जी की स्वीकृति प्राप्त करके आपने इसी परिसर में आर्यगुफा नामक एक कुटिया का निर्माण करवाया व 6 वर्ष तक इस स्थान पर ही रहते हुए घोर तपस्या एवं योगाभ्यास करते हुए आर्ष ग्रन्थों का स्वाध्याय किया। यहाँ रहते हुए ही आपके मन में विचार उत्पन्न हुआ कि आबूपर्वत में भी आर्यसमाज की स्थापना होनी चाहिए। तब नक्की झील के उत्तरी तट पर आपने चिन्तामणि नामक साधु की गुफा के समीप आर्यसमाज की स्थापना की, तब यहाँ के पौराणिक मठाधीशों ने बहुत विरोध किया था, स्वामी जी पर आक्रमण किया गया, पुलिस थाने में केस भी दर्ज हुए थे। किन्तु इस नर शार्दूल ने सभी विरोधियों को परास्त करते हुए ऐतिहासिक पर्वतीय स्थल आबूपर्वत पर आर्यसमाज मन्दिर का सफलतापूर्वक निर्माण करवाकर वैदिक धर्म के पवित्र ओम् ध्वज को आरोपित किया। विवेक तथा वैराग्य में निरत रहकर एकान्तिक तप साधना के अनन्तर अन्तःकरण में अपने सामाजिक कर्तव्य के निर्वाह करने की सात्विक कामना जागृत होने पर 1984 में एकमासीय विशाल आवासीय आर्यवीर दल का शिविर आयोजित किया जिसमें गुजरात व राजस्थान के लगभग 300 नवयुवकों ने भाग लेकर वैदिकधर्म के सिद्धान्तों का प्रशिक्षण प्राप्त किया, इस शिविर में युवकों को उपदेश व प्रेरणा प्रदान करने के लिये अनेकों आर्यनेता व संन्यासी भी पधारे थे। स्वामी ओमानन्द जी सरस्वती ( गुरुकुल झज्जर ), स्वामी आनन्दबोध जी ( सार्वदेशिक सभा के तत्कालिक प्रधान ), आर्यवीर दल के संचालक देवव्रत जी आदि। 

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संन्यास दीक्षा
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              शिविर समाप्ति के पश्चात् स्वामी ओमानन्द जी ने आपको प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि शिविर के माध्यम से अस्थायी कार्य होता है। आपको यहाँ गुरुकुल की स्थापना करनी चाहिये जिससे वैदिक धर्म के प्रचार - प्रसार का स्थायी कार्य हो सके। दिनांक 17 जून 1984 को पूज्य स्वामी ओमानन्द जी सरस्वती ( गुरुकुल झज्जर ) ने आपको संन्यास दीक्षा देकर स्वामी धर्मानन्द सरस्वती नाम प्रदान किया। 

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आर्ष गुरुकुल की स्थापना
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             संन्यास दीक्षा के बाद स्वामी जी ने गुरुकुल की स्थापना का दृढ़ निश्चय करके उपयुक्त भूमि की खोज आरम्भ की , आबूपर्वत के अलग - अलग स्थानों पर कई जमीनों को देखने के पश्चात् एक हजार वर्ष प्राचीन विश्व प्रसिद्ध देलवाड़ा जैन मन्दिर से एक किलोमीटर की दूरी पर अरावली गिरीमालाओं के मध्य पन्द्रह बीघा भूमि दानदाताओं के सहयोग से खरीदी गई, वर्तमान में यहीं पर गुरुकुल स्थित हैं। यह स्थान विद्याध्ययन व योगाभ्यास हेतु यजुर्वेद के निम्न मन्त्र अनुरुप है " उपहरे गिरिणां संगमे च नदीनाम् । धिया विप्रो अजायत ।। " ( यजु , २६/१५ ) अर्थात् जो मनुष्य पर्वतों के निकट और नदियों के मेल में योगाभ्यास से ईश्वर की और विचार से विद्या की उपासना करे वह उत्तम बुद्धि वा कर्म से युक्त विचारशील बुद्धिमान् होता है। आर्षविद्या के प्रचारक मूर्धन्य आर्य संन्यासी पूज्य स्वामी ओमानन्द जी सरस्वती ( गुरुकुल झज्जर ) के करकमलों द्वारा 1 जून 1986 को गुरुकुल का शिलान्यास किया गया। इस कार्यक्रम में उपस्थित आर्य सज्जनों ने स्वामी जी से पूछा इस बीहड़ वन में जहाँ 50 व्यक्तियों के ठीक से बैठने का भी स्थान नहीं हैं, इस स्थान पर गुरुकुल का निर्माण कैसे होगा ? तब दृढ़ निश्चयी स्वामी जी ने कहा कि परमात्मा की कृपा से सब कार्य समय पर सम्पन्न होंगे। 1987,1988,1989 तीन वर्ष तक आबूपर्वत में वर्षा नहीं हुई थी , पुनरपि देलवाड़ा से गुरुकुल तक गाड़ी आने हेतु कच्चे मार्ग का निर्माण, 600 फिट नीचे झरने के समीप कुए का निर्माण, एक हॉल, तीन कमरों एवं तीन गुफाओं का निर्माण करवाकर 27 मई 1990 रविवार को छात्रों के प्रवेश व उपनयन व वेदारम्भ संस्कार के साथ गुरुकुल में पठन - पाठन का विधिवत् शुभारम्भ हुआ। इस ऐतिहासिक घटनाक्रम को परोपकारिणी सभा के तत्कालीन सम्पादक श्रद्धेय आचार्य डॉ.धर्मवीर जी ने "आबू पर्वत पर नया सूर्योदय आर्ष गुरुकुल महाविद्यालय ” के नाम से एक सम्पादकीय लेख लिखकर जुलाई 1990 में प्रकाशित किया था, पाठक इस लेख को परोपकारिणी सभा द्वारा प्रकाशित पुस्तक " कहाँ गये वे लोग " के पृष्ठ 120 से 123 तक पढकर ज्ञान वर्धन कर सकते है। गुरुकुल के प्रथम आचार्य भीमसेन जी वेदवागीश के शब्दों में धर्मानन्दो महात्यागी बालानां हितचिन्तकः। गुरुकुलमरचयत् अर्बुद पर्वत मस्तके।। अर्थात्- महान् त्यागी, तपस्वी पूज्य स्वामी धर्मानन्द जी ने बालकों के हित के लिए अरावली श्रृंखला के मस्तक आबू पर्वत पर एक गुरुकुल की रचना की। मुझे लेखक को भी गुरुकुल के प्रथम सत्र का विद्यार्थी होने का सौभाग्य प्राप्त है।

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स्थापना का उद्देश्य
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              महर्षि दयानन्द सरस्वती का मन्तव्य है कि यदि संस्कृत भाषा व वेदों का पठन - पाठन समाप्त हो गया तो संसार का बड़ा अनिष्ट हो जायेगा, क्योंकि समस्त ज्ञान विज्ञान वेदों में ही स्थित है। महर्षि के इस वचन से प्रेरणा प्राप्त कर संस्कृत भाषा एवं संस्कृत विद्या के पठन - पाठन के लिये इस गुरुकुल की स्थापना पूज्य स्वामी धर्मानन्द जी द्वारा की गई। यहाँ पर देववाणी संस्कृत भाषा के माध्यम से वेद ब्राह्मणग्रन्थ, दर्शन, उपनिषद् , निरुक्त तथा व्याकरण आदि सभी विषयों को महर्षि दयानन्द द्वारा निर्दिष्ट शैली से पढ़ना - पढ़ाना हो रहा है। साथ ही प्राचीन आश्रम प्रणाली के अनुसार दिनचर्या का पालन करवाते हुए बलवान्, सदाचारी, धर्मात्मा, देशभक्त अनेकों विद्वान् तैयार किये जा चुके है / किये जा रहे हैं। 

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सफल संचालक
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            -जून 1990 में गुरुकुल प्रारम्भ होने के पश्चात गुरुकुल के भवन निर्माण एवं संचालन हेतु गुजरात एवं राजस्थान के विविध नगरों में प्रवास करके वहाँ के आर्य सज्जनों को प्रेरणा प्रदान करके दान लाना , गुरुकुल के 32 कमरों का निर्माण करवाना, गौशाला का निर्माण करवाकर 50 से 60 गीर नस्ल की गायों को लाकर उनका संवर्धन व संरक्षण करना, पाकशाला, भोजनशाला, दो स्नानागार, चार जलागार, शौचालय आदि समस्त आवश्यक भवनों का निर्माण कार्य पूज्य स्वामी जी ने ही सम्पन्न किये थे। गुरुकुल के परिसर में ही सम्पूर्णरुप से संगमरमर के प्रस्तर से निर्मित बारह स्तम्भों की एक अनुपम यज्ञशाला का निर्माण सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के यशस्वी प्रधान सुरेशचन्द्र जी अग्रवाल को प्रेरणा देकर उनके पूज्य पिताजी स्व . श्री बंशीधर जी अग्रवाल की पुण्यस्मृति में सन् 2009 में करवाया । पूज्य स्वामी जी के तप एवं पुरुषार्थ के कारण गुरुकुल में किसी भी भौतिक वस्तु की कमी नहीं हैं।

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गुरुकुल की विशेषताएँ
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              आबूपर्वत जैसी प्राचीन रमणीय तपस्थली की पर्वतमालाओं के मध्य सुरम्य घाटी में 15 बीघा का विशाल वृक्षों से सुसज्जित हरा - भरा परिसर। सात्विक भोजन। विद्वान् आचार्यों द्वारा अध्यापन कार्य। चार हजार पुस्तकों का विशाल पुस्तकालय, कम्प्यूटर एवं संगीत शिक्षण की उत्तम व्यवस्था , छात्रों द्वारा संस्कृत सम्भाषण किया जाता हैं। ग्रीष्मकाल में आर्यवीर दल के शारिरीक एवं बौद्धिक पाठ्यक्रम का छात्रों को प्रशिक्षण, वर्तमान में 95 ब्रह्मचारी आर्षपाठ विधि से विद्याध्ययन कर रहे है। गुरुकुल गौशाला में 60 गीर नस्ल की उत्तम गायों का लालन - पालन। इन गायों से प्राप्त दूध का छात्रों को निःशुल्क वितरण किया जाता है। 

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अर्थ शुचिता
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         - गुरुकुल को प्राप्त होने वाले लाखों- करोडों रुपयों का हिसाब रखना, एक रुपये का भी दुरुपयोग न हो उसका ध्यान रखना स्वामी जी का स्वभाव था। स्वामीजी को प्राप्त होने वाली सम्पूर्ण दक्षिणा को भी वे गुरुकुल के खाते में जमा करवा देते थे, उनका व्यक्तिगत बैन्क बैलेन्स शून्य था। स्वामी जी जैसे महान् त्यागी व्यक्ति संसार में विरले ही होते हैं । स्वामी जी ने बहुत ही बुद्धिमत्ता व शुचिता के साथ गुरुकुल का संचालन किया था। गुरुकुल की कभी भी देनदारी नहीं रही है। एक रूपया भी उधार नहीं है। उधार रखकर काम करना उनके स्वभाव में नहीं था। वे कहा करते थे जितनी गुदड़ी हो उतने ही पॉव पसारने चाहिए। मनुस्मृतिकार कहते हैं कि सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं परं स्मृतम्। योऽर्थे शुचिर्हि स शुचिर्न मृद्वारिशुचिः शुचिः।। मनु . ५.१०६ अर्थात् जो धन संग्रह के विषय में पवित्र है अर्थात् अधर्म अन्याय से धन ग्रहण नहीं करता, वही सर्वश्रेष्ठ शुद्ध पवित्र हैं । सादगी वे सदा कोरा लट्ठा ( मोटा सुती ) कपड़ा 50 रूपये मीटर भाव वाला खरीदकर लाया करते थे , स्वयं भगवा रंग उस पर चढ़ाते थे। उनके एक जोड़ी जूते - चप्पल कई वर्षों तक चलते थे। गुरुकुल प्रारम्भ होने से पूर्व 1986 से 1990 चार वर्षों तक जब गुरुकुल का निर्माण कार्य चल रहा था तब आर्यसमाज में स्वयं भोजन बनाकर वे चार किलोमीटर पैदल चलकर गुरुकुल आया करते थे और उसी भोजन को दोपहर में खाकर सायंकाल पुनः पैदल चलकर आर्यसमाज में जाकर भोजन बनाते थे, गुरुकुल बनने से पहले 1975 से 1990 तक उन्होंने कभी घी व दूध खरीदकर नहीं खाया था। वे कहा करते थे दानदाताओं के दान का प्रयोग दिखावे में कभी भी खर्च नहीं करना चाहिए। वे एक कहावत प्रायः कहा करते थे कि ऊँट की गरदन लम्बी होती है तो काटने के लिए नहीं होती है अर्थात् यदि कोई श्रद्धालु आर्य सज्जन दान करता है तो उस सज्जन से भी आवश्यकता के अनुसार ही दान लेना चाहिए अधिक नहीं।

          पिछले तीस वर्षों में कभी भी उनका भोजन अलग से नहीं बनाया गया, वे स्वयं भी उसी भोजन को ग्रहण करते थे, जिस भोजन को गुरुकुल के ब्रह्मचारी किया करते थे। सत्यनिष्ठ सुलभाः पुरुषा राजन् सततं प्रियवादिनः। अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः।। ( विदुर निति ५.१५ ) अर्थात्- प्रिय बोलने वाले चाटुकार पुरुष सुगमता से प्राप्त होते हैं, परन्तु अप्रिय लगने वाले पथ्यरुप हितकारी उचित वचन कहने वाले और सुनने वाले दोनों दुर्लभ होते हैं। स्वामी जी ने कभी भी सिद्धान्तों से समझौता नहीं किया, वे बड़े से बड़े राजनेता , संन्यासी, श्रेष्ठी आदि से सत्य कहने में भय, शंका, लज्जा नहीं करते थे। आबूपर्वत में ब्रह्माकुमारी सम्प्रदाय का अन्तर्राष्ट्रीय मुख्यालय है। इस सम्प्रदाय के कार्यक्रमों में अनेक राजनेता, धर्मगुरु आते रहते थे, उनमे से कुछेक सज्जन गुरुकुल में भी पधारते थे, तब स्वामी जी सबसे पहले कठोर शब्दों में ब्रह्माकुमारी सम्प्रदाय की वास्तविकता व सिद्धान्तों को बतलाते हुए आने वाले महानुभावों को कहते थे कि आप वहाँ जाकर अपने भाषण में उस सम्प्रदाय की प्रशंसा मत करना किन्तु वहाँ भी वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार करना। स्वामी जी ने अनेकों बार ब्रह्माकुमारी सम्प्रदाय को शास्त्रार्थ हेतु आह्वान किया था, किन्तु उस सम्प्रदाय के व्यक्ति शास्त्रार्थ हेतु कभी भी तैयार नहीं हुए। 

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योग साधक
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          गृहत्याग के बाद अनेकों वर्षों तक वे भालू , तेन्दुआ , सॉप , बिच्छु , अजगर आदि हिंसक जन्तुओं से परिपूर्ण भयानक वन में अकेले रहकर योगाभ्यास व तपस्या करते रहे , उनका दृढ मत था जब मेरा किसी प्राणी से वैरभाव नहीं है तब तक अन्य प्राणी भी मुझसे वैर नहीं रख सकता हैं। योगदर्शन के तृतीय पाद में वर्णित सिद्धियों को अक्षरशः सत्य मानते थे। गुरुकुल के चारों ओर भयानक वन्यजीव अभ्यारण्य है, इसमें अनेकों हिंसक जन्तुओं का निवास है, अनेकों बार वन्यजीवों से ब्रह्मचारियों का आमना - सामना हुआ परन्तु पिछले तीस वर्षों में किसी भी ब्रह्मचारी या गुरुकुल परिसर में निवास कर रहे किसी भी व्यक्ति को किसी जीव जन्तु ने कोई हानि नहीं पहुंचाई है । यह उनकी योग साधना का ही प्रभाव था । स्वामी जी योगाभ्यास नियमित रुप से करते थे । सायंकाल सात बजे से अपने कमरे में ध्यान - योग में संलग्न हो जाते थे । प्रातःकाल ब्रह्ममुहुर्त में उठकर नित्यकर्म से निवृत्त होकर ईश्वरोपासना में बैठ जाते थे तथा आठ बजे से पहले कभी कक्ष से बाहर नहीं आते थे। 

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आदर्श संन्यासी
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              पुत्रैषणा वित्तैषणा लोकैषणा मया परित्यक्ता , मत्तः सर्वभूतेभ्योऽभयमस्तु।। ( शतपथ ) पुत्र - शिष्य आदि का मोह, धन प्राप्ति की इच्छा, समाज में मेरी प्रतिष्ठा हो इन तीनों प्रकार की ऐषणाओं को में आज से छोड़ रहा हुँ, सभी प्राणी मुझसे अभय हो। संन्यास दीक्षा के समय की जाने वाली इस प्रतिज्ञा को स्वामी जी ने अपने सम्पूर्ण जीवन में चरितार्थ किया। गृहत्याग के पश्चात् केवल एक बार वे आर्यसमाज की स्थापना हेतु अपनी जन्मभूमि में गये थे। कुछ वर्षों के अन्तराल में पूर्वाश्रम के परिवार के लोग जब गुरुकुल में स्वामी जी के दर्शन हेतु आते थे , तब वे उनको भी संन्ध्या , हवन , सद् ग्रन्थों का स्वाध्याय करने की प्रेरणा करते थे। उनसे कभी भी सांसारिक बात नहीं किया करते थे। गुरुकुल के निर्माण व संचालन के निमित्त दान प्राप्ति के लिये कभी भी उन्होंने सिद्धान्तों से समझौता नहीं किया। वे कभी भी किसी भी महिला का नाम लेकर नहीं बुलाते थे , बड़ी उम्र की महिलाओं को माता जी कहकर व छोटी उम्र की महिला को बहिन जी कहकर बुलाया करते थे। 

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स्नातक व शिष्य परम्परा
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            आचार्य ओम्प्रकाश आर्य ( पिछले 31 वर्षों से गुरुकुल आबू में अध्ययन एवं निरन्तर निःशुल्क अध्यापन एवं व्यवस्थापक का कार्य ), डॉ . अभिमन्यु ( बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय में प्रोफेसर ), कीर्तिचन्द्र शास्त्री ( प्रधानाचार्य आदर्श विद्यालय कच्छ मांडवी ), पं . लाभेन्द्र शास्त्री ( पौरोहित्य कर्म , अहमदाबाद ), अशोक शास्त्री, डॉ . हंसराज शास्त्री, आचार्य गगेन्द्र शास्त्री, डॉ . केशरमल शास्त्री , डा . रामदयाल शास्त्री आदि अनेकों स्नातक व सैकडों पूर्व छात्र वैदिक धर्म के प्रचार - प्रसार में संलग्न हैं। 

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महाप्रयाण की ओर
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         सन् 2016 से स्वामी जी अल्जाईमर्स ( भूलने की बिमारी ) से पीड़ित थे, इस रोग की दवाई पिछले पांच वर्षों से वे निरन्तर ले रहे थे। यह रोग उनकी माता जी व बड़ी बहन को भी था। 18 जनवरी 2021 को स्थानीय डॉक्टर को दिखाने पर पता चला कि उनके शरीर में रक्त की कमी है, स्थानीय डॉक्टर की सलाह पर उन्हें गान्धीनगर, गुजरात ले जाया गया, वहाँ स्वामी जी को चार बोटल रक्त चढ़ाने के पश्चात् विभिन्न चिकित्सकीय परिक्षणों से ज्ञात हुआ कि स्वामी जी के आमाशय में अन्तिम स्टेज का कैंसर है। ( स्वामी जी के पूर्व उनके बड़े भाई , छोटे भाई एवं छोटी बहन का कैंसर से देहान्त हो चुका हैं ) जांच रिपोर्टो को महावीर कैंसर हॉस्पिटल जयपुर , दिल्ली एम्स , जोधपुर एम्स एवं अहमदाबाद के अनेक विशेषज्ञ डॉक्टरों को दिखाया गया। रिपोर्ट दिखाये जाने के बाद सभी डॉक्टरों ने कहा कि रोग के अधिक फैल जाने के कारण व स्वामी जी की उम्र अधिक होने के कारण अब इस रोग का उपचार सम्भव नहीं है। तब 25 जनवरी 2021 को स्वामी जी को गुरुकुल में लाकर सेवा - शुश्रुषा एवं चिकित्सा की गई और अन्त समय में जब माघी पूर्णिमा का चन्द्रमा पूर्ण यौवन के साथ निर्मल आकाश में प्रकाशित हो रहा था, उसी समय ब्राह्ममूहुर्त में 3 बजकर 5 मिनट पर दिनांक 28-02-2021 को स्वामी जी ने नश्वर शरीर त्याग दिया। महर्षि दयानन्द के आदर्श भक्त, वैदिक आर्ष परम्परा के सुदृढ़ उन्नायक के रुप में पूज्य स्वामी जी का जीवन सदा प्रेरक बना रहेगा। आर्ष गुरुकुल आबूपर्वत की स्थापना करके एवं दशकों तक इसका सफल संचालन करके आपने आर्ष परम्परा के संरक्षण एवं समुन्नयन लिए आने वाले युगों तक का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। यह गुरुकुल आपकी कालजयी कीर्ति का स्वर्ण स्तम्भ है। मेरे जीवन में तथा मुझ जैसे अनेकों छात्रों के जीवन में माता के बाद कदाचित् माता से भी बढकर उपकार करने वाले गुरुवर पूज्य यतिश्रेष्ठ स्वामी महाराज के देवलोक गमन करने से मैं तथा समस्त गुरुकुल परिवार अनाथ जैसा अनुभव कर रहे हैं। उनका देवलोक गमन मेरी, गुरुकुल की और समाज की अपूरणीय क्षति है। मैं पूज्य गुरुवर यतिश्रेष्ठ के प्रति विनम्र श्रद्धांजलि समर्पित करता हूँ। 

   जयन्ति ते सुकृतिनः तपसिद्धाः कवीश्वराः । 
    नास्ति येषां यशः काये जरामरणजं भयम् ।।

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