Saturday, May 29, 2021

ईश्वर का स्वरूप


ईश्वर का स्वरूप

[ईश्वर के स्वरूप को लेखनीबद्ध करना सागर से जल को खाली करने के तुल्य है। मनुष्य ईश्वर की अनुभूति तो कर सकता है लेकिन उसके समस्त गुणों को लेखनीबद्ध करना मनुष्य के सामर्थ्य से बाहर है। ईश्वर अनन्त गुणोंवाला है। हम लेखनी के माध्यम से उसके स्वरूप के कुछ भाग का ही वर्णन कर सकते हैं। ईश्वर के स्वरूप को परिभाषित करते हुए आर्यसमाज के अद्वितीय विद्वान् 'शास्त्रार्थ महारथी श्री पण्डित शान्तिप्रकाश जी' ने एक बहुत ही ज्ञानवर्धक लेख लिखा था। यह लेख 'आर्योदय' के श्रावणी माह, विक्रम संवत् २०२१ के अंक में प्रकाशित हुआ था। इस लेख की उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए पाठकों की सेवा में प्रस्तुत किया जा रहा है। -प्रियांशु सेठ]

(१) ईश्वरीय सत्ता सर्वमान्य है। नास्तिक भी उसके संचालित नियमों का उल्लंघन नहीं कर पाते। ईश्वर नियामक होने से यम कहलाता है। यम का दूत मृत्यु है-
मृत्युर्यमस्यासी द् दूत: प्रचेत:।
चेताने वाला मृत्यु, यम नाम के नियामक परमेश्वर का दूत है। जो सर्वत्र मनुष्य और चौपाए पर छाया हुआ है। मृत्युरी द्वि पदां चतुष्पदाम्। मृत्यु दो पाऊं और चार पाऊं वाले सभी प्राणियों पर विराजमान है। कौन नास्तिक है? जो ईश्वरीय सत्ता से इनकारी होने के कारण उसके दूत मृत्यु से बच रहा हो। यदि अबोध बालक पिता की सत्ता से अनभिज्ञ हो तो इसे पितृ सत्ता के अभाव की सिद्धि का कारण नहीं माना जा सकता।

(२) हमारा शरीर बिना आत्म सत्ता के संचालित नहीं। इसी प्रकार ब्रह्माण्ड के संचालनार्थ विश्वात्मा की सत्ता का भान होता है। जीवात्मा अणु और एकदेशी तथा सीमित शक्ति के कारण विश्व की व्यवस्था का संचालक नहीं हो सकता। ब्रह्माण्ड की स्थिरता के कारण इसका व्यवस्थापक भी स्थिर ही हो सकता है। वेद ने इस सत्य का प्रकाश करते हुए कहा है कि-
अव: परेण पर एनावरेण। -ऋ० १/१६४/१७
इस अवर प्रतीयमान् जगत् से जीवात्मा अपनी चेतनता के कारण बड़ा है किन्तु महाचेतन प्रभु से यह छोटा है। अतः संसार का विश्वात्मा परमात्मा ही है।

(३) प्रकृति के अणु अपनी सूक्ष्मता के कारण परमाणु कहलाते हैं। जीवात्मा उनसे सूक्ष्मतर और परमात्मा सूक्ष्मतम है। उपनिषत्कार ने इस सिद्धान्त का विवाद वर्णन करते हुए कहा है कि-
इन्द्रियेभ्य: परह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मन:।
मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्पर:।। कठ० १/३/१०
इन्द्रियों से अर्थ सूक्ष्म है। अर्थों से मन तथा मन से बुद्धि सूक्ष्म है। बुद्धि से आत्मा और आत्मा से महान् आत्मा (परमात्मा) सूक्ष्म है।

(४) इस समस्त ब्रह्माणु का उत्पादक सर्वात्मा है, जो ज्ञानमय में है। बिना ज्ञान के संसार की नियमपूर्वक प्रवृत्ति असम्भव है। वेद में लिखा है कि-
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुष: पादोऽस्येहाभवत् पुनः।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशनेऽअभि।। -यजु० ३१/४
चतुष्पाद पुरुष का एक पद (बहिप्रज्ञ) इस लोक में प्रकट होता है। उससे भोगने वाला जीव-जगत् और भोग्य-जगत् अपने-अपने कार्य में प्रवृत्त होता है।

शरीर रूपी पुरी में शयन करने से जीव पुरुष है किन्तु ब्रह्माण्ड पुरी में व्याप्त होने से ईश्वर पुरुष है। इसीलिए इनको जीवात्मा और परमात्मा कहा जाता है। दोनों पुरुष हैं। किन्तु परमात्मा महान् और उत्तम है। वेद में कहा है कि-
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमस: परस्तात्।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय।। -यजु० ३१/१८
मैं उस महान् पुरुष को जानता हूं जो अजस्त्रज्योति है और अन्धकार से सर्वथा दूर है। उसको जान करके ही मनुष्य मृत्यु के दुःख को अतिक्रान्त कर सकता है। मोक्ष-प्राप्ति का अन्य कोई मार्ग नहीं है।

परमेश्वर ज्ञानमय है। ज्ञान-ज्योति से जगमगाता हुआ ही समस्त लोक-लोकान्तरों को नियम में चला रहा है। अतः वही एकमात्र भुवनों का प्रवर्तक है। प्रवृत्ति और उसका नियमपूर्वक संचालन परमात्मा की सिद्धि में सर्वतः प्रथम तर्क है जो अकाट्य है।

(५) प्रवृत्ति की युक्ति के पश्चात् धृति का प्रश्न है। परमात्मा धारक है। समस्त लोक-लोकान्तरों को धारण कर रहा है। उन्हें समय से पूर्व टूटने-फूटने से बचाता है। वेद में लिखा है-
हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।। -ऋ० १०/१२१/१
जिस परमात्म-तत्व में समस्त सूर्यादि लोक-लोकान्तर समाए हुए हैं। वही सबसे पूर्व वर्तमान सबका एकमात्र अधिपति है। वह अधीश्वर, प्रकाशमान् तथा अप्रकाशमान सब लोकों को धारण कर रहा है। उस सुख स्वरूप दिव्य-गुण-युक्त प्रभु के लिये हम श्रद्धा और भक्ति से पूजा करें।

सब लोक-लोकान्तर एक दूसरे के आकर्षणादिशक्ति से थमे हुए हैं। सूर्य ने पृथिवी को और पृथिवी ने सूर्य को आकर्षित कर रखा है। किन्तु यह आकर्षण भी किसी नियम विधान के आधीन है। जड़ पदार्थों को नियम में चलने चलाने का ज्ञान नहीं है। नियम में चलाकर धारण-शक्ति तो सर्वज्ञ सर्वान्तर्यामी परमेश्वर में ही है। वेद में स्पष्ट लिखा है कि-
स्कम्भेनेमे विष्टभिते द्यौश्च भूमिश्च तिष्ठत:।
स्कम्भ इदं सर्वमात्मन्वद्यत्प्राणन्निमिषच्च यत्।। -अथर्व० १०/८/२
धारण-कर्ता ईश्वर द्वारा ही द्यौलोक और भूमि-लोक धारित होकर थमे हुए हैं। प्राण लेने और आंख झपकने वाला आत्मवान् जगत् भी धारणकर्ता परमेश्वर में आधारित है। अर्थात् चेतन-अचेतन सभी का धारक परमेश्वर है।

(६) प्रत्येक उत्पत्ति मान पदार्थ का नाश भी आवश्यक है। अतः प्रवृत्ति और धृतिकं पश्चात् निवृत्ति का क्रम है। परमात्मा प्रवर्त्तक, धारक और निवर्श्रक है। पानी से मेघ और मेघ से पानी के चक्र की भांति प्रवृत्ति और निवृत्ति सदैव से चली आ रही है। किन्तु इसकी क्रमबद्धता ईश्वराधीन है। इसीलिये वेद में कहा है कि-
कालेनोदेति सूर्य: काले नि विशते पुन:। -अथर्व० १९/५४/१
काल का काल ईश्वर है। उसके द्वारा ही सूर्य उदय होता अर्थात् प्रवृत्ति मार्ग पकड़ता और उसी काल में पुनः निविष्ट होकर अपने काम में लीन हो जाता है।

परमात्मा सूर्यादि जगत् का निमित्त कारण है। उपादान कारण प्रकृति है। परमात्मा को उपादान मानने से चेतन से अचेतन और अचेतन से चेतन का प्रादुर्भाव और लय असम्भव कोटि में आता है। प्रवृत्ति और निवृत्ति परस्पर दो विरोधी मार्ग हैं। इनका परस्पर समन्वय होकर क्रमशः क्रियान्वित और कवहत होना जड़ प्रकृति का स्वतन्त्र धर्म प्रकृति और निवृति में से एक ही हो सकता है। वह या बनती जाए या बिगड़ती जाए। यान्त्रिक गति से चलने वाले यन्त्र भी स्वयं गतिमान् नहीं। वह भी किसी किसी मनुष्य के द्वारा बनाए जा कर गति करते हैं। इसी प्रकार सृष्टि प्रलय का चक्र भी किसी चेतन नियामक के आधीन है।
महर्षि व्यास जी का वचन है कि-
अथातो ब्रह्मजिज्ञासा। जन्माद्यस्य यत:। -वेदान्त १/१/१,२
ब्रह्म वह है जिसके द्वारा संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होती है।

वेद ने परमेश्वर को सूत्र का सूत्र कहा है जिसका अभिप्राय यह है कि वह नियम में बांधने वाला है। सब उसके नियम में बंधे हुए हैं।
यो विद्यात् सूतं विततं यस्मिन्नोता: प्रजा इमा:।
सुसूत्रंस्यात्रयो विद्यात् सो विद्यात् ब्राह्मणं महत्।। -अथर्व० १०/८/२७
जो प्रत्येक वैज्ञानिक क्षेत्र में विस्तृत सूत्र को जानता है। और उस सूत्र के सूत्र को जानता है। वह परब्रह्मा को जानता है।

संसार की स्थिति नियमों पर है। नियमों के समुञ्चय को ही विज्ञान कहते हैं। कृषि-विज्ञान, नक्षत्र विज्ञानादि प्रत्येक विज्ञान का पारस्परिक संश्लेषों का परम संश्लेष ब्रह्मा विज्ञान है। जिसे वेद ने महत् कहा है। जिसके जानने से सब कुछ जाना जाता है। विज्ञान हेय नहीं किन्तु उसका परम ध्येय परमेश्वर माना गया है। यही वेद की विशेषता है।

(७) ईश्वर कर्मफल प्रदाता है। कर्म भी स्वयं फलदाता नहीं। वह नष्ट हो चुका। उसका संस्कार चित्त में शेष है। यदि संस्कार को फल प्रदाता मानें तो यह भी सम्भव नहीं। संस्कार को फल प्राप्ति के साथ नष्ट हो जाना है। नश्वर वस्तु अनश्वर जीव के कर्म फल का प्रदाता नहीं हो सकती। जड़ होने से कर्म और संस्कार को अपने फल का ज्ञान भी नहीं है। अतः कर्म-फल प्राप्ति भी महाज्ञानी ईश्वर के आधीन है। जो किसी की सिफारिश आदि को स्वीकार नहीं करता।

न किल्बिषमत्र नाधारो ऽस्ति न यन्मित्रै: समममान एति।
अनूनं पात्रं निहितं न एतत्पक्तारं पक्व: पुनरा विशति।। -अथर्व० १२/३/४८
परमेश्वर को न्याय व्यवस्था में कोई दोष नहीं, कोई सिफारिस नहीं। यहां न मित्रों की चलती है, न महापुरुषों बाप-दादे की चलती है। चित्र के अनून पात्र (खेत) में कर्मों का बीज आत्मा ने बोया वैसा ही उसको फल काटना होगा।

वेद ने इस उपमा में अधिभौतिक और अध्यात्मिक नियमों को एक ही लड़ी में पिरो दिया है। जैसे पृथिवी में डाला हुआ बीज समय पाकर फल बनाता है वैसे ही चित्र में डाला हुआ कर्म संस्कार समय पाकर पारिपाक भी देता है। गीता में लिखा है कि-
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।। -गीता २/४०
इस संसार में कुछ भी किया हुआ नष्ट नहीं होता। परिपाक का प्रतिबन्धक कोई कारण नहीं। अतः इसके वृत पुण्य का स्वरूपमात्र भी महान् भय से बचा देता है।

परमेश्वर वेद-ज्ञान का दाता है। जिससे संसार में सभ्यता और संस्कृति का विकास हुआ। सत्यधर्म का प्रवर्तक भी भगवान् है क्योंकि वह स्वयं सत्यधर्मा है। वेद ने कहा कि-
निवेशन: संगमनो वसूनां देव इव सविता सत्यधर्मा। -अथर्व० १०/८/४२
प्रेरक प्रभु का धर्म अटल है। वही वेद ज्ञान का दाता और समस्त पदार्थों का निवेशक है।

पदार्थ रचकर पदार्थ विद्या का प्रदान उस प्रभु की देन है। अन्यथा पदार्थ रचना क्रिया व्यर्थ भी। वेद ने कहा है-
अच्छिन्नस्य ते देव सोम सुवीर्यस्य रायस्पोषस्य ददितार: स्याम।
सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्ववारा स प्रथमो वरुणो मित्रोऽग्नि:।। -यजु० ७/१४
हे सौम्य गुण-युक्त देव प्रभो! आपकी विनष्ट न होने वाली, महती शक्ति दात्री, विश्ववरणीय, प्रकृष्ट संस्कृति के हम लुटाने वाले बनें। उस संस्कृति का सतत दान करते चलें ताकि संसार के प्रियतम, न्यायकारी, दयालु, ज्ञानस्वरूप प्रभु का ज्ञान एक सभ्यता का संचार करके सबको एक सूत्र में पिरो दें।

वेदान्त दर्शन में महर्षि व्यास ने इसी युक्ति का प्रतिपादन करते हुए लिखा है कि-
शास्त्रयोनित्वात्। -वेदान्त० १/१/३
शास्त्र का आदि कारण परमात्मा है। सत्यप्रतिपादिका कोई भी व्यवस्था शास्त्र है जिससे शासन व्यवहृत होता है। अतः भौतिक विज्ञान भी शास्त्र है और आध्यात्मिक विज्ञान को भी शास्त्र कहते हैं। संसार की रचना में भौतिक नियमरूप शास्त्र को व्यवहार में लाने वाला परमात्मा है। इन नियमों का ज्ञान भी वेद के आविर्भाव के साथ ईश्वर कर देता है।

(८) ईश्वर पूर्ण है। उसकी रचना का ज्ञान भी पूर्ण है। कहा भी तो है-
पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।
सृष्टि में व्याप्त ईश्वरीय नियमों का समुच्चय व्यवहार पूर्ण है। उसका ज्ञान सर्गारंभ में भी ईश्वर की ओर से पूर्ण ही होता है। पूर्ण के पूर्ण को लेकर भी पूर्ण ही अविशिष्ट रहता है।

यही वेद की महत्ता है। वेद विद्या का जितना भी दान करें, प्रचार और प्रसार करें। यह ईश्वरीय ज्ञान-भण्डार कभी कम नहीं होता। पूर्ण ही रहता है।

ईश्वर पूर्ण है। उसका ज्ञान पूर्ण है। उसका सृष्टि रचना क्रम भी पूर्ण है। ईश्वर की पूर्णता पर वेद ने कहा है-
अकामो धीरो अमृत: स्वयंभू: रसेन तृप्तो न कुतश्चनोन:।
तमेव विद्वान्न बिभाय मृत्योरात्मानं धीरमजरं युवानम्।। -अथर्व० १०/८/४४
इच्छाओं के वशीभूत न होने वाला परमात्मा अमृत रूप, स्वयंभू, आनदघन है और वह किसी भी प्रकार से न्यून नहीं है। उसको जानकर ही मनुष्य मृत्यु के भय से विचलित नहीं होता। वह विनाश रहित, सर्वतः विद्यमान, सर्वज्ञानमय पूर्ण परमेश्वर है।

दूरे पूर्णेन वसति दूर ऊनेन हीयते। -अथर्व० १०/८/१५
परमात्मा परिपक्वता को प्राप्त हुये मुक्त जीवों से दूर अर्थात् उत्कृष्ट है अपरिपक्व जीव तो उसकी और जाता ही नहीं।

पूर्ण की सत्ता जिन भूतादि की भांति भ्रममात्र नहीं है। क्योंकि जिन भूत के विभ्रम में भी जिन मिश्रित अंगों का भान होता है। उनकी वास्तविक सत्ता है। इसी प्रकार से संसार में अनेक प्रकार के कल्पित ईश्वर माने जा रहे हैं। किन्तु एक पूर्ण सत्य की सत्ता कल्पना-मात्र नहीं है। क्योंकि अपूर्ण तभी कहलाता है जब उसके साथ पूर्ण भी माना जाये। पूर्ण को नसञ् समा होने से ही अपूर्ण की सिद्धि सम्भव है।

(९) योगी का अन्तःप्रत्यक्ष ईश्वर सिद्धि में सबसे बड़ा तर्क है। वेद ने इस युक्ति का उल्लेख इस प्रकार से किया है कि-
वेनस्तत्पश्यन्निहितं गुहा सद्यत्र विश्वं भवत्येकनीडम्।
तस्मिन्निदं सं च वि चैति सर्वं सऽ ओत: प्रोतश्च विभू: प्रजासु।। -यजुर्वेद ३२/८
मेघावान् योगी उसे देखता है। जो हर देश में छिपा है। जिस ईश्वर में समस्त विश्व एक घौंसला के रूप में विद्यमान है। उसी ईश्वरीय सत्ता में उसके आधार पर ही यह जगत् उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय को धारण करता है। वह ईश्वर जात मात्र वस्तु में विभू और सर्वत: ओत-प्रोत है।

आत्म प्रत्यक्ष में मूलभूत कारण पुरुषार्थ है। जिसे महर्षि कपिल ने मनुष्य का चरम लक्ष्य बताकर सांख्य शास्त्र की रचना की है।
अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्ति रत्यन्तपुरुषार्थ:।। -सांख्य० १/१
ईश्वर के स्वरूप वर्णन के साथ ईश्वर दर्शन से तीन प्रकार के दुःखों की अत्यन्त निवृत्ति द्वारा मोक्ष प्राप्ति ही मनुष्य का अत्यन्त पुरुषार्थ है।

वेद में कहा है कि-
अन्तरिच्छन्ति तं जने रुद्रं परो मनीषया।
गृभ्णन्ति जिह्वया ससम्।। -ऋग्वेद ८/७२/३
प्रलयंकारी, दुष्ट, दलनकर्ता रुद्ररूप ईश्वर को मनुष्य सूक्ष्म बुद्धि द्वारा अपने अन्दर में ढूंढते हैं। जिह्वा द्वारा भी उसके आनन्ददायक गुणों का गान ग्रहण करते हैं।

(१०) आर्यसमाज का प्रथम और द्वितीय नियम ईश्वर के स्वरूप का ही विशद वर्णन करता है।
प्रथम नियम यह है कि जिसकी अब तक व्याख्या की गई है। अर्थात् "सब सत्य विद्या और विद्या से जो पदार्थ जाने जाते हैं। उन सबका आदिमूल परमेश्वर है।"

दूसरे नियम में ईश्वर के स्वरूप का वर्णन कुछ विस्तार से किया गया है। जो वेद पर आधारित है।
सर्वप्रथम ईश्वर का लक्षण किया गया है जो सत्, चित्, आनन्द है। यजुर्वेद के एक मन्त्र में ईश्वर को सत्, चित् और आनन्द स्वरूप कहा है। वह निराकार है। वेद ने उसे "अकायम्" कहा है। सर्वशक्तिमान् को वेद में सुशक्ति और अजन्मा को अज कहा है। अनन्त के लिए वेद में आनन्त शब्द आया है और निर्विकार को अच्युत कहा है। वह सनातन अर्थात् अनादि और अपूर्ण=अनुपम है। सर्वाधार और सर्वव्यापक और सर्वज्ञ है। अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है। वेद में लिखा है कि-
दिव्यो गन्धर्वो भुवनस्य यस्पतिरेक एव नमस्यो विक्ष्वीड्य:।
तं त्वा यौमि ब्रह्मणा दिव्य देव नमस्ते अस्तु दिवि ते सधस्थम्।। -अथर्व० २/२/१
दिव्य स्वरूप परमात्मा, ज्ञान और ज्ञेय का धारक आदि मूल संसार के एकमात्र पति ही उपासना के योग्य हैं। उसे तुझको वेद ज्ञान द्वारा आत्म प्रत्यक्ष से प्राप्त करुंम हे प्रकाश स्वरूप परमात्मन्! आपको नमस्ते हो। आप सदैव दिव्य गुणों से विभूषित हैं।

परमात्मा पूर्ण है। उसका प्रत्येक गुण पूर्णतः की चरम सीमा को पहुंचा हुआ है। उसके गुण अनन्त हैं। कुछ का वर्णन ही अल्प शब्दों में यहां हो पाया है। किसी कवि ने क्या ही अच्छा कहा है कि-
असित गिरी समं स्यात् कज्जलं सिन्धु पात्रे।
सुर तरुवर शाखा लेखनी पत्रमुर्वी।।
लिखती यदि गृहीत्वा शारदा सार्वकालं।
तदपि तव गुणानामीश पायं न याति।।
समुद्रों के पात्र में पर्वतों को स्याही मानकर वृक्षों को लेखनी और भूमण्डल को कागज समझ संसार के सब पठित देव-देवी ईश्वरीय गुणों को लेखबद्ध करना चाहें तो हे ईश! तब भी तेरे गुणों का पारावार पाना कठिन है।

प्रतिवादी-भयंकर व्याख्यान-वाचस्पति श्री पं० गणपति शर्मा - एक संस्मरण


प्रतिवादी-भयंकर व्याख्यान-वाचस्पति श्री पं० गणपति शर्मा - एक संस्मरण

लेखक- स्व० श्री पं० नरदेव जी शास्त्री वेदतीर्थ

[स्व० श्री पण्डित गणपति शर्मा आर्यजगत् में अवतीर्ण शास्त्रार्थ कला के अतुल्य महारथी और व्याख्यान-वाचस्पति जाने जाते हैं। शास्त्रार्थ में आपके शास्त्रीय प्रणिनाद से विपक्षी घुटने टेक देते थे। आपने वैदिक धर्म के ध्वज की गरिमा को अपनी प्रौढ़ विद्वत्ता से जनमानस के हृदय में प्रतिष्ठित कर दिया था। दुबले-पतले होने के बावजूद ओजस्विनी भाषा में लगभग ५ घण्टे धाराप्रवाह व्याख्यान देना आपकी अद्भुत कला थी। आपका जन्म राजस्थान के चूरू नगर में सं० १९३० वि० में पण्डित भानीरामजी वैद्य नामक ब्राह्मण के घर हुआ था। २२ वर्ष की अल्पायु में ही आप काव्य और व्याकरण दर्शन साहित्य आदि विविध विषयों के तलस्पर्शी प्रगल्भ विद्वान् बन गये। महर्षि दयानन्द के समकालीन वैदिक धर्म के प्रचारक रामगढ़ शेखावटी निवासी ब्र० पं० कालूराम जी योगी ने आपको वैदिक धर्म में दीक्षित किया था। कतिपय वर्षों तक आपने काशी तथा कानपुर में रहकर अध्ययन किया था। आपकी विद्वता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि तार्किकशिरोमणि स्व० स्वामी दर्शनानन्द जी आपका व्याख्यान बड़ी उत्सुकता और तन्मयता से सुना करते थे। आपका २७ जून १९१२ को ३९ वर्ष की अल्पावस्था में स्वर्गवास हो गया। आपकी विद्वत्ता पर दृष्टि डालते हुए आर्यजगत् के सुप्रसिद्ध विद्वान्  स्व० श्री पं० नरदेव जी शास्त्री वेदतीर्थ का लिखा यह संस्मरण 'परोपकारी' के जून १९६१ के अंक में प्रकाशित हुआ था। -प्रियांशु सेठ]

स्व० श्री पं० गणपति शर्मा का और हमारा विशेष परिचय महाविद्यालय ज्वालापुर में सन् १९०८ के महाविद्यालय के महोत्सव के अवसर पर हुआ। पहिले हम उनका केवल नाम ही सुनते थे कि वह विद्वान् हैं, अनुपम व्याख्याता हैं, शास्त्रार्थ महारथी हैं, इत्यादि।
वे महाविद्यालय के प्रत्येक महोत्सव पर आते थे। पहिले उनका मेल महात्मा मुन्शीराम से था जब कि उनके साथ काम करते रहे। फिर उनका मुख्य क्षेत्र सामान्यतः आर्यसमाज रहा, और महाविद्यालय विशेष क्षेत्र बना। स्व० मास्टर आत्मारावजी (बड़ौदा) तथा गणपति शर्मा के व्याख्यान सुनने के लिए सहस्रों नर-नारी महाविद्यालय के महोत्सव पर आते थे। उस समय कांगड़ी गुरुकुल गंगा पार कांगड़ी में था, और महाविद्यालय ज्वालापुर में था। दोनों के महोत्सव एक ही तारीखों में होते थे। लोग कांगड़ी का उत्सव १-२ दिन देखकर पिछले दो दिन महाविद्यालय में आते थे। बड़ी भीड़ लगती रही।

व्याख्यान वाचस्पति
दीखने को तो गणपति शर्मा सांवले रंग के थे, दुबले-पतले थे। उनकी आकृति-विकृति को देखकर उनमें श्रद्धा ही नहीं जमती थी कि वे व्याख्यान वाचस्पति होंगे। पर जब वे व्याख्यान देने को खड़े हो जाते थे, तब न जाने उनमें कहां से बल आ जाता था कि दो-दो, तीन-तीन, चार-चार घण्टे बोलते थे। सहारनपुर के जलसे में खड़े हुए कि- 'मैं आज केवल दो प्रश्नों पर बोलना चाहता हूं।' ढाई घण्टे इधर उधर की बातें कहते रहे, पर उन दो प्रश्नों का नम्बर ही नहीं आने पाया।
महाविद्यालय के महोत्सव पर "वेद अपौरुषेय है" इस विषय पर दस सहस्र की उपस्थिति में ऐसा अपूर्व व्याख्यान दिया कि पचास अंग्रेजी पढ़े हुए विद्वानों की वेदसम्बन्धी शंकाएं दूर हो गईं। वे कहने लगे- ऐसा अपूर्व व्याख्यान हमने नहीं सुना। उस व्याख्यान की एक बात मुझे स्मरण है। वह यह कि-
देखो, वेद में 'गणानां त्वा गणपतिं हवामहे' यह मन्त्र आता है। उसमें गणपति शब्द को देखकर कोई यह कहेगा क्या, कोई यह कह सकता है क्या, कि वेद मेरे पीछे के बने हुए हैं? मैं वेदों से पहिले का हूं? इस पर श्रोतृवृन्द में बड़ा उल्लास और हर्ष रहा। उनके व्याख्यान शास्त्रीय ढंग के होने पर भी सरल (आम-फहम) होते थे। हर कोई समझ सकता था। उनके व्याख्यान विनोदप्रचुर होते थे। उनके व्याख्यान में लोग उकताते नहीं थे।

शास्त्रार्थ महारथी
महाविद्यालय के महोत्सव पर साक्षात् स्व० स्वामी दर्शनानन्दजी सरस्वती से "वृक्षों में जीव है कि नहीं" इस विषय पर बड़ा अद्भुत ऐतिहासिक शास्त्रार्थ रहा। जब गणपतिजी की बातें सुनते, तो श्रोतृवृन्द यह समझ जाता था कि वृक्षों में जीव अवश्य है। जब स्वामीजी के उत्तर सुनते थे, तो श्रोतृवर्ग स्वामी के पक्ष का हो जाता था।

काश्मीर का शास्त्रार्थ
एकबार जब गणपति शर्मा काश्मीर में थे, उसी अवसर पर पादरी जॉनसन वहां पहुंचा। और उसने काश्मीरी पण्डितों को वेदान्त विषय पर शास्त्रार्थ के लिये ललकारा। जॉनसन विद्वान् पादरी था। संस्कृत का पण्डित था। संस्कृत धाराप्रवाह बोलता था। उसने काशी, कुम्भघोण, कांची (दक्षिण की काशी) इत्यादि पचासों स्थानों में पण्डितों को ललकारा था। कुम्भघोण के पण्डितों ने जॉनसन को तीन-तीन अर्थों की संस्कृत बोलकर परास्त किया। वहां तो जॉनसन ने पण्डितों को हाथ जोड़कर उनसे पीछा छुड़ाया। शेष जहां-जहां गया, पण्डितों को हैरान ही करता रहा।

काश्मीरी पण्डितों को ललकारा, जब कोई पण्डित शास्त्रार्थ के लिए तैयार न हुआ, तब महाराजा प्रतापसिंह, जो स्वयं सभाध्यक्ष थे, आश्चर्य में पड़ गये कि क्या काश्मीर की नाक कटेगी? इतने में किसी ने महाराजा को सुझाया कि आर्यसमाज में पण्डित गणपति शर्मा ठहरे हुए हैं, उनको बुला लीजिए। वह जॉनसन की खबर लेंगे।
किसी सनातनी पण्डित ने कहा कि-
"महाराज! वे तो आर्यसमाजी पण्डित हैं।"
महाराजा प्रतापसिंह कट्टर सनातनी होते हुए भी बोले- क्या हर्ज है, यदि गणपति शर्मा आर्यसमाजी है। वह जॉनसन को तो ठीक कर देगा?
सनातनी पण्डित- महाराज! वैसे तो गणपति शर्मा तगड़े पण्डित, अद्भुत व्याख्याता, और शास्त्रार्थ-महारथी हैं।
महाराजा प्रतापसिंह- अरे! फिर तो उनको लाओ जल्दी बुलाकर।

महाराज का सन्देश गणपति को मिला। गणपति शर्मा तुरन्त उठे, और महाराज को भेंट करने के लिए गीता का छोटा गुटका जेब में रखा, और चल दिये। सभा में आकर गीता का गुटका और कुछ पुष्प महाराज के अपर्ण किये, और विनम्र होकर बोले- "महाराज! क्या आज्ञा है?"
महाराज- अरे! देखते नहीं कि वह जॉनसन खड़ा है। इसको परास्त करो।
गणपति- अच्छा, जो महाराजा की आज्ञा।

एक तरफ जॉनसन, दूसरी ओर गणपति शर्मा। हजारों श्रोता विस्मययुक्त थे कि देखें क्या होता है? गणपति शर्मा ने महाराज से कहा कि वह प्रश्न करें हम उत्तर देंगे। महाराज ने जॉनसन से कहा शुरू कीजिए, हमारा पण्डित आ गया है।

अब प्रश्नोत्तर होने लगे
जॉनसन- हम आपसे शास्त्रार्थ करने आये हैं।
गणपति शर्मा- पहिले यह बतलाइए कि शास्त्रार्थ शब्द के क्या अर्थ हैं? क्या शास्त्र से मतलब आपका छ: शास्त्रों से है? और क्या आपको यह ज्ञात है कि अर्थ शब्द भी अनेकार्थ वाचक हैं? अर्थ अर्थात् धन, अर्थ अर्थात् प्रयोजन, अर्थ अर्थात् द्रव्य, गुण, कर्म (वैशेषिक दर्शन के अनुसार)। शास्त्र भी केवल छ: नहीं हैं- धर्म शास्त्र है, अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र है। आप जरा समझाइये कि आप किस शास्त्र का अर्थ करने आये हैं? जब 'शास्त्रार्थ' शब्द का अर्थ समझायेंगे, तब हम उत्तर देंगे।
जॉनसन (गड़बड़ाये हुए बोले)- हम इसका उत्तर नहीं दे सकेंगे।
महाराज (हंसकर, सिर हिलाते हुये)- अब काहे को तुमको उत्तर आयेगा?
गणपति शर्मा- महाराज! जॉनसन उत्तर नहीं दे रहा है।
महाराज- जॉनसन आया तो था बड़े घमण्ड के साथ। आपके पहिले ही प्रश्न में उसका सिर नीचे हुआ। जॉनसन उत्तर नहीं देता, वह हार गया। जाये अपने घर। हमारा पण्डित विजयी हो गया।

सभा उठ गयी। सर्वत्र गणपति शर्मा का जय-जयकार होने लगा। महाराज ने गणपति शर्मा को बुलाकर पास बैठाया, उसकी पीठ थोपी, और प्रेम से पूछा- कहो गणपति शर्मा! तुम्हारे जैसा विद्वान् आर्यसमाजी कैसे हो गया? क्या सचमुच तुम आर्यसमाजी हो?
(शायद महाराज ने सोचा हो कि मेरे पूछने से गणपति शर्मा यह कह देंगे कि मैं आर्यसमाजी नहीं हूं।)

गणपति शर्मा- हां महाराज! मैं तो हूं आर्य समाजी।
महाराज- बस, यही खराबी है। तुम जैसा पण्डित सनातनियों में होना चाहिये था। आज आपने काश्मीर की नाक बचा दी।

जब से कश्मीर की विजय हुई, तब से गणपति शर्मा का नाम सर्वत्र भारत में फैल गया। और आने लगे चहुं ओर से निमन्त्रण। वे जहां-जहां जाते श्रोतृवर्ग उमड़ पड़ता था।

हास्यप्रिय
समय पड़ने पर ईसाई मुसलमान जैनियों से खुद शास्त्रार्थ कर लेते थे। पौराणिकों से तो मुठभेड़ रहती है थी। संस्कृत के पण्डित प्रायः शुष्क व्याख्याता होते हैं, पर पण्डितजी में विनोद की मात्रा प्रचुर थी। कोई छोटी-सी बात लेकर खड़े होते थे, और घण्टों बोलते थे। उनका रेवरेण्ड फ्रैंक (रुड़की) के साथ शास्त्रार्थ चिर-स्मरणीय रहेगा। वह तो उनको हाथ जोड़कर ही चला। इतना मधुर बोलते थे कि लोग उनके भाषणों में घण्टों बैठे रहते थे। जहां देखा कि लोग उकता रहे हैं, वहां गणपति शर्मा 'यही नहीं, और यह भी एक बात है' यह कह देते थे, तो उठते-उठते लोग भी बैठ जाते थे।
एक बार मैं और गणपति शर्माजी कहीं जा रहे थे। मार्ग में गाजियाबाद उतर पड़े।
गणपति शर्मा- शास्त्रीजी, यहीं उतर पड़ो न? देखो। अन्धेरा हो गया है, रात यहीं काटेंगे।
मैं- अच्छी बात है।
एक इक्का किया और चल दिये। मार्ग में एक मण्डी पड़ती थी। उसमें ऊपर की ओर स्व० बा० गोकुलचन्द्र वकील मन्त्री आर्यसमाज रहते थे। जब मण्डी के पास आये, मैंने कहा- मैं मन्त्रीजी को आपके आने की सूचना दे आता हूं। मेरे इतना कहते ही वे एकदम इक्के से उतर पड़े, और बोले- मैं तुम्हारे आने की सूचना मन्त्रीजी को दे आता हूं। आप इक्के को यहीं खड़ा रक्खें। मैं तो हैरान हो गया। पूछते-पूछते मन्त्रीजी के मकान पर पहुंचे पर अपनी धुन में पड़ोस के एक वकील के घर में घुस गये।

वकील (हैरान होकर)- आइये बैठिए।
गणपति शर्मा- भारतवर्ष के विख्यात, महापण्डित नरदेव शास्त्री आये हैं। मण्डी के बाहर इक्के में बैठे हैं।
वकील- हमने तो आज तक उनका नाम नहीं सुना।
गणपति शर्मा- आपने ऐसे बड़े पण्डित का नाम नहीं सुना? वे तो आपके यहां आये हैं।
वकील- मैं क्या करूँ? मैं तो उनको नहीं जानता। पण्डितजी उस वकील पर बहुत बिगड़े और उसको पचासों गालियां देते हुए वापस आये। बोले- यह आर्यसमाज का मन्त्री बड़ा दुष्ट है, उसने आपके नाम की परवाह ही नहीं की। चलो, समाज में आज मन्त्री की खबर लेंगे।

हम जब समाज में पहुंचे, तो शायद समाज की अन्तरंग हो रही थी। सब सभासद खड़े हो गये, स्वागत किया। जब सब बैठ गये, पण्डित गणपति शर्मा भिन्नाये हुए बोले- "देखोजी! हम मन्त्रीजी के घर गये। उनको कहा- महापण्डित नरदेव आये हैं। फिर भी उसने परवाह नहीं की, और कहा कि- 'मैं क्या करूं, मैं नहीं जानता नरदेव कौन है?' यहां का मन्त्री बड़ा दुष्ट है। ऐसे को मन्त्री क्यों बनाया, जो अतिथि सत्कार नहीं जानता?"
जब यह बात सुनी, तब असली मन्त्री गोकुलचन्द्र जी बोले- 'मैं तो यहां हूं। आप गलती से पड़ोस के घर में घुस गये होंगे।' यह सुनकर पण्डित जी सटापटाए और बोले- "तो फिर वह वकील, जिसके घर में हम गये थे, बड़ा दुष्ट है। हमको देखकर अपनी जगह से हिला तक नहीं। नरदेव शास्त्री से मिलने की बात तो दूर रही।"
उपस्थित सज्जनों में इस बात पर बड़ा कहकहा रहा। और वह हास्य विनोद का दृश्य देखते ही बनता था।

जिस दिन जिस समय पण्डितजी का व्याख्यान होता था, तब पण्डितजी के पास जाकर तीन चार बार जगाना पड़ता था अर्थात् कहना पड़ता था। तब वे धीरे-धीरे तैयार होते थे।
समझिए कि उनका व्याख्यान ४ बजे रखा गया है, तो एक व्यक्ति एक बजे जाकर कह आयेगा कि पण्डितजी आज आपका व्याख्यान सुनने के लिए बहुत लोग आये हैं।
पण्डितजी- अभी तो एक बजा है, थोड़ा सा लेवें।
दो ढाई बजे दूसरा आदमी गया। बोला- पण्डितजी आज आपके व्याख्यान में बड़ी भीड़ होगी।
पण्डितजी- अच्छा? चार बजे एक आदमी और गया- पण्डितजी आज जिधर देखो आदमी ही आदमी हैं।
पण्डितजी- अच्छा, अभी तो हमको शौच जाना है। अच्छा, लोटा भर लाओ। फिर वे शौच जायेंगे, आधे घण्टे में वे आयेंगे।
उनके शौच से लौटने तक एक और आदमी उनको बुलाने को तैयार रहे। पण्डितजी! आप चलिए। लोग दूर-दूर से आये हैं। आपका व्याख्यान सुनकर शाम की ६ बजे की गाड़ी से लौट जायेंगे।
पण्डितजी- अच्छा? क्या करें लोग सोने नहीं देते, शौच भी नहीं फिरने देते। चलो बाबा, चलो।
फिर प्लैटफार्म पर पहुंच कर सरस्वती का ऐसा प्रवाह बहाते कि लोग मन्त्रमुग्ध होकर २-२, ३-३ घण्टे बैठे रहते।

मैंने पण्डितजी से एक बार कहा- पण्डितजी! आप व्याख्यान के पहिले से ही क्यों नहीं तैयार होकर बैठ जाते? आपके लिए बड़ी प्रतीक्षा करनी पड़ती है। तब बोले- नरदेव! तुम शास्त्री हो गये, पर तुम्हें अकल नहीं आई।
मैं- कैसे?
गणपति शर्मा- श्रोतृवृन्द में एक प्रकार की उत्सुकता न हो, तो व्याख्याता का व्याख्यान फीका पड़ जायगा। श्रोतृवृन्द उत्सुक हो, तो व्याख्याता को भी उत्साह आता है, और फिर व्याख्यान ठीक बनता है। समझ कोरे शास्त्री!

हमको परिचयात्मक दो शब्द भी नहीं कहने दिये। एकदम बोले- मैं गणपति शर्मा हूं, जिसके व्याख्यान को सुनने के लिए आप लोग कृपापूर्वक एकत्रित हुए हैं। आज मुझे केवल दो प्रश्नों का उत्तर देना है।
दो ढाई घण्टे तक धाराप्रवाह व्याख्यान हुआ, पर उन दो प्रश्नों का उसमें उत्तर नहीं था। पता नहीं प्रश्न कहां रल गये?

ऐसे थे हमारे चूरू प्रदेश के गणपति शर्मा। जब उनको क्रोध चढ़ता था तब मेरे जैसा सपेरा ही उनको संभाल सकता था।
शोक कि पण्डित जी जैसा संस्कृत तथा हिन्दी में धाराप्रवाह वक्ता, शास्त्रीय जटिल विषयों को भी सरल से सरल शब्दों में समझानेवाला अब नजर नहीं आता। उनके विनोदपूर्ण स्वभाव के, उनके क्रोध के दो-चार छोटे छोटे उदाहरण मैं और दे सकता हूं। इधर लेख बढ़ता जा रहा है। मैं भी थक सा गया हूं, इसलिये यहीं समाप्त कर रहा हूं। आखिर गणपति शर्मा जी के अन्य सहयोगियों और भक्तों को भी तो कुछ लिखना है। संस्मरणात्मक लेख में संक्षेप से ही काम लेना चाहिये।

कटक का शास्त्रार्थ
पण्डित जी के कटक का शास्त्रार्थ-विवरण भी उल्लेखनीय है जो कि पण्डितजी के मुख से हमने सुना। कटक सनातनी उद्भट विद्वानों का अखाड़ा था। जिस समय पं० गणपति शर्मा उड़ीसा में पहुंचे थे, पण्डित जी का स्वभाव विनोदी था। छोटे बड़े सबके साथ मिल जाते थे, और बड़ा आनन्द रहता था। गणपति शर्मा जी ने स्वयं एक बार हमसे कहा, और हमने विनोदात्मक ढंग से सुना था-
"एक बार हम उड़ीसा (उत्कल प्रदेश) में जा पहुंचे। न जाने किस तरह पण्डितों में यह खबर पहुंची कि गणपति शर्मा आया है। आर्यसमाजी है, नास्तिक है (मैं आर्यसमाजी तो था, पर नास्तिक कभी नहीं था)। असली बात यह है कि मैंने जगन्नाथपुरी कभी नहीं देखी थी। उसी के देखने के लिये मैं पुरी पहुंचा था। पुरी में जगन्नाथ मन्दिर को देखने के पश्चात् मैंने एक पण्डित से पूछा कि- सब जगह मन्दिरों में पत्थर की, पीतल की, कहीं-कहीं सोने की मूर्तियां होती हैं। यहां यह जगन्नाथ जी की मूर्ति काष्ठ की क्यों? इतने में वहां दस पांच पण्डित एकत्रित हुये। तब हमने जगन्नाथ पुरी में विशेषतः मन्दिर के अहाते में, जगन्नाथ सबके हाथ का भात खाते हैं, इस विषय में विनोदात्मक बात चलायी। तब तो बहुत आदमी इकट्ठे हुये। लोगों ने पूछा क्या है? किसी ने कहा- कोई नास्तिक आया है, किसी ने कहा- आर्यसमाजी दीखता है। बातों-बातों में मेरी चर्चा प्रारम्भ हुई, और पूरा भरी भर में बात फैल गई कि कोई आर्यसमाजी आया है। मैं जहां ठहरा था वहां बहुत से लोग पहुंचे, और कहने लगे-

लोग- क्या आप आर्यसमाजी पण्डित हैं?
मैं- आर्य-पण्डित हूं।
लोग- आर्य-पण्डित कैसे होते हैं?
मैं- जैसा मैं हूं।
लोग- पण्डित के साथ आर्य शब्द अच्छा नहीं लगता।
मैं- क्यों? इस देश का प्रत्येक निवासी आर्य है। यह आर्यावर्त देश है। इसमें रहनेवाला प्रत्येक व्यक्ति आर्य है।
लोग- क्या आर्यावर्त में रहनेवाले मुसलमान ईसाई भी आर्य हैं?
मैं- देश के कारण आर्य कहला सकते हैं। धर्म के कारण नहीं।
लोग- आप किस धर्म को मानते हैं?
मैं- वैदिक धर्म को मानता हूं।
लोग- क्या सत्य सनातन धर्म को नहीं मानते हो?
मैं- वैदिक धर्म ही तो सत्य सनातन धर्म है।
लोग- क्या मूर्ति को मानते हो?
मैं- क्यों नहीं? मूर्ति को मूर्ति मानता हूं।
लोग- जगन्नाथ जी को क्या मानते हो?
मैं- जो हैं, सो मानता हूं।
लोग- जगन्नाथ जी को परमेश्वर की मूर्ति नहीं मानते हो?
मैं- हम सब भगवान् की बनाई हुई मूर्तियां हैं।
लोग- श्राद्ध को मानते हो?
मैं- क्यों नहीं? माता-पिता, गुरु आदि का श्राद्ध करना ही चाहिये, अर्थात् इनकी सेवा श्रद्धा से करनी चाहिए।
लोग- और पितरों की?
मैं- पितरों का भी श्राद्ध करो। पितर अर्थात् बड़े-बड़े बुजुर्ग विद्वान् आदि।
लोग (आपस में)- देखो यह कैसी गोल-गोल बात करता है? हम इसकी अपने पण्डितों से क्यों न बात-चीत करायें? (पण्डितजी से) आप हमारे पण्डितों से बात करेंगे?
मैं- क्यों नहीं?
लोग- कल हम आपको अपनी धर्मशाला में ले चलेंगे। वहां हमारे पण्डितों से मिलेंगे?
मैं- अच्छी बात है।

दूसरे दिन सायंकाल दो चार व्यक्ति आये, और मुझे ले गये। वहां देखा तो बड़ा जमघट था। पण्डितों से नमस्कार आदि होने के पश्चात् एक प्रमुख पण्डित ने पूछा- "क्या आप सनातनी पण्डित हैं? आप क्या मानते हैं? मूर्ति पूजा, श्राद्ध आदि मानते हैं या नहीं? जो लोग आपसे बात-चीत कर आये हैं, उनको सन्तोष नहीं हुआ। आप परमात्मा को मानते हैं कि नहीं?"
मैं- वाह! मैं परमात्मा को अवश्य मानता हूं।
पण्डित- साकार कि निराकार?
मैं (अब मुझे खुलकर बोलना पड़ा)- मैं तो परमात्मा को निराकार ही मानता हूं। देखो वेदों में 'स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणम्' इस मन्त्र में परमात्मा को 'अकायम्' लिखा है। एक मन्त्र में लिखा है- 'न तस्य प्रतिमा अस्ति'। सब से बड़ा प्रमाण वेद ही है। हम वेदों की बात को ही मानते हैं।

बस, शास्त्रार्थ छिड़ पड़ा। श्रोतृगण बहुत उत्साहित हुये, और अनेक चिल्ला उठे कि- 'ये नास्तिक हैं। इनके साथ शास्त्रार्थ कैसा?'
मैं- नास्तिक किसे कहते हैं?
पण्डित- नास्तिक वह जो वेदों का निन्दक हो। मनु लिखते हैं- 'नास्तिको वेदनिन्दक:।'
मैं- मैं तो वेदनिन्दक नहीं हूं, वेदों को स्वतः प्रमाण मानता हूं। अब स्वतः प्रमाण और परत: प्रमाण इस विषय पर चर्चा चली। फिर दूसरे दिन इसी बात पर चर्चा रही, तीसरे दिन मूर्ति-पूजा और श्राद्ध का विषय चला।

पण्डित गणपति शर्मा ने विनोदपूर्वक बताया कि सनातनी पण्डित ने मूर्ति-पूजा व श्राद्ध के विषय में कई जूतियां (मतलब युक्तियों से है) दीं। हमने भी इधर से कई जूतियां (युक्तियां) दीं। इस प्रकार घण्टे तक बराबर जूति-प्रजूति (युक्ति-प्रयुक्ति) होती रही। और अन्त में श्रोताओं के हुल्लड़ में शास्त्रार्थ बन्द करना पड़ा।

आपने कहा- उत्कल देश के पण्डित बड़े विद्वान् तथा सौम्य होते हैं। पण्डित जी कहते थे कि मैं पुरी में ८-१० दिन रहा। सर्वत्र मेरी चर्चा रहती रही। मैं जब रास्ते से निकलता था, तब लोग संकेत करते थे- 'देखो, यह नास्तिक जा रहा है'। इस प्रकार उत्कल देश में ५-६ स्थानों पर शास्त्रार्थ हुये। मैं अकेला था, और सौम्यरूप से उत्तर देता रहा। उग्र रूप पकड़ता, तो शायद झगड़ा बढ़ जाता, मैं सौम्य ही रहा।

विनोदी प्रकृति के
गणपति शर्मा स्वगृह में तथा मित्रमण्डली में बड़े विनोदपूर्वक व्यवहार करते थे।
इनके छोटे भाई का नाम श्यामलाल था। जब कुछ हंसने या विनोद के लिये नहीं रहता था, तो वे श्यामलाल से ही विनोद-वार्ता कर बैठते थे। श्यामलाल बेचारा बहुत सरल प्रकृति का व्यक्ति था।
पहिले यह भी पण्डित जी की बातों को वास्तविक समझता रहा।

गणपति शर्मा- श्यामलाल! जरा इधर आओ तो सही।
श्यामलाल- आया जी।
गणपति शर्मा- तेरे कपड़े मैले हो गये हैं।
श्यामलाल- हां जी।
गणपति शर्मा- फट भी गये हैं।
श्यामलाल- हां जी।
गणपति शर्मा- अब हम सोच रहे हैं कि तुम्हारे लिए इकट्ठे ही दस बारह कुरते सिलवा डालें, जिससे चिन्ता मिटे, और उनमें से कुछ मैले हो जायेंगे, कुछ धोबी के यहां धुलने जायेंगे। और ५-६ तुम्हारे पास भी रहेंगे, और तुम साफ सुथरे रहा करोगे। ठीक है न?
श्यामलाल खुश होकर चला जाता। फिर गणपति शर्मा श्यामलाल को बुलाते, और कहते- श्यामलाल तुम १०-१२ कुरते का क्या करोगे? कहीं खो दोगे। इसलिये अब सोचा है एक-दो कुरते ही अच्छे रहेंगे।
श्यामलाल- अच्छा जी।
गणपति शर्मा- श्यामलाल तुम्हारे पास घड़ी नहीं है। तुम कोई काम भी समय पर नहीं करते हो। तुम्हारे लिये एक अच्छी घड़ी मंगा देंगे। ठीक है न?
श्यामलाल (मन में सोचता हुआ कि १०-१२ कुरते तो बन गये, अब घड़ी मिलेगी) 'अच्छा जी घड़ी मिल जाय, तो अच्छा रहेगा'। ऐसा कहकर चला जाता है। थोड़ी देर में श्यामलाल को फिर बुलाते हैं और मुस्कराकर कहते हैं-
गणपति शर्मा- श्यामलाल!
श्यामलाल- हां जी।
गणपति शर्मा- तुम्हारे जाने के पश्चात् मैंने सोचा कि मैं श्यामलाल के लिये घड़ी तो ला दूं, पर उसके हाथ से कहीं कभी घड़ी गिर जाय और टूट जाय तो क्या होगा? घड़ी को कोई उठा ले जाय तो क्या होगा? यह सोचकर मेरा अब विचार हो गया है कि तुम्हारे लिये घड़ी लेना व्यर्थ है। घड़ी लेने में ६०-७० रु० खर्च हो जायेंगे और काम भी नहीं बनेगा। अभी तो तुम ऐसे ही काम करो जैसे पहले घड़ी के बिना काम चलाते रहते थे।
श्यामलाल- अच्छा जी।
इसी प्रकार कभी-कभी दो भाइयों में किस्सा चलता था। भोले श्यामलाल बहुत दिनों में समझ पाये कि पं० जी उसके साथ विनोद कर अपना जी बहला रहे हैं।

ऐसे थे हमारे गणपति शर्मा - उद्भट विद्वान्, सौम्यमूर्ति, विनोदी, मिलनसार, आर्यसमाज के दिग्गज पण्डित।

Sunday, May 23, 2021

गर्दन उतर सकती है जनेऊ नहीं


गर्दन उतर सकती है जनेऊ नहीं 
आर्यवीर चौधरी रामगोपाल आर्य छारा झज्झर 

      ये जिंदगी पथ है मंजिल तरफ जाने का, 
      जिंदगी गीत है तुफान से टकराने का, 
      आराम से सो जाने की बदनामी है, 
      जिंदगी गीत है मस्ती में सदा गाने का।। 

        हरियाणा के जाटों का इतिहास विरता से भरा पड़ा है। वैसे जाट किसी विशेष बिरादरी का नाम नहीं है। जो अधर्म के खिलाफ लड़े वो जाट कहलाए। आज सब बनी बनाई बाते हैं। लेकिन आजादी के योगदान में हरियाणा के आर्य समाजी जाटों ने जो करिश्मा कर दिखाया वो बेमिसाल है। हमें ऐसे ऐसे जाट नेताओं पर गर्व है। ऐसे ही जिला रोहतक के आर्य नेता (महर्षि दयानंद के भक्त )ने कमाल कर दिया। उनकी थोड़ी सी जीवनी प्रस्तुत है। 

🔥जन्म 🔥
  
            चौधरी रामगोपाल आर्य का जन्म रोहतक के छारा गांव में उन्नीसवीं सदी में हुआ।( तिथि ज्ञात नहीं ) 
ये १८ वर्ष की आयु में फौज में भर्ती हो गए। सेना में कुछ हिंदी सीखी और आर्य समाज के के प्रचार से प्रभावित होकर आर्य समाजी बन गए। सन् १९०१ई में चीन की लड़ाई में भी गए। जब गौरी सरकार बंगाल के दो भाग करना चाह रही थी,तो अंग्रेज सरकार के विरुद्ध बड़ा भारी असंतोष फैल गया। यह असंतोष सैना में भी फैल गया। अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत करने के लिए गुप्तरुप से सैनिकों ने खुन से हस्ताक्षर कराने आरंभ कर दिये। रामगोपाल ने भी खून से हस्ताक्षर किए थे। इनके हस्ताक्षर करने का अन्य कारण यह भी था कि उन दिनों अंग्रेज आर्य समाज को राजनैतिक पार्टी समझने लगे थे।  उन दिनों ये दीनापुर छावनी में थे। 

🔥गर्दन उतर सकती है जनेऊ नहीं 🔥

           सेना में एक निर्देश जारी किया गया कि जो सैनिक आर्य समाजी है और इस नाते जनेऊ पहनते हैं, उन्हें जनेऊ उतान देना चाहिए, अन्यथा वे सजा के भागीदार बन सकते हैं। इस निर्देश से रामगोपाल तिलमिला उठे। उन्होने दृढ़ निश्चय कर लिया की गर्दन उतर सकती है, जनेऊ नहीं उतर सकता। कमांडिग आफिसर ने यह देखने के लिए कि किन किन सिपाहियों के गले में जनेऊ है, सब सिपाहियों को पक्तिबंध खड़ा कर दिया। रामगोपाल जी ने अपना जनेऊ कान पर टांग लिया। जब सैनिक अधिकारी ने इनकी यह हरकत देखी तो आग बबुला हो गया। अधिकारी ने जनेऊ उतारने के लिए कहा, तो रामगोपाल ने उत्तर दिया -- "यदि आप गिरजाघर जाना छोड़ दे , तो हम जनेऊ छोड़ने के लिए विचार कर सकते हैं " इस बात पर इनका कोर्ट मार्शल हुआ और सन् १९०७ ई० में इनको सेना से निकाल दिया। इसके बाद लार्ड हार्डिंग पर जो आक्रमण हुआ। अनेकों से पूछताछ की गई। इसी सिलसिले में रामगोपाल जी को भी पकड़ा। परंतु बाद में छोड़ दिया। 

🔥आर्य समाज के प्रति समर्पित 🔥

       रामगोपाल जी का जीवन आर्य समाज के लिए समर्पित था। इन्होने स्वामी ब्रह्मानंद और स्वामी परमानंद को गुरुकुल झज्झर के चलाने में पूर्ण सहयोग किया। इन्होने अछूतोद्धार के प्रसंग में अपने गांव छारा में ३६ बिरादरी का सहभोग कराया। इसी प्रकार इन्होने अपने गांव में हरिजनों के लिए कुआ बनवाया। 

हैदराबाद सत्याग्रह के आरंभ होने पर इन्होने रोहतक के छठे जत्थे का नेतृत्व किया और सत्याग्रह किया। वृद्धावस्था में अपने पुत्र चन्द्रसिंह दलाल वकील के पास रोहतक आ गए। रोहतक मॉडल टाउन में इनके प्रयास से आर्य समाज मंदिर का निर्माण हुआ। १०० वर्ष की आयु में इनका देहांत हुआ। छारा गांव में आर्य समाज मंदिर का निर्माण इन्हीं के प्रयत्नों से हुआ।  दादा बस्तीराम व अनेको भजनोपदेशक इनके यहां ठहरते थे।  हमे नाज है ऐसे ऐसे आर्य नेताओ पर जो धर्म के लिए तत्पर रहे। वैदिक धर्म की जय। 

पुस्तक : हैदराबाद सत्याग्रह में हरियाणा का योगदान 
लेखक :- डॉ० रणजीत सिंह

केरल में आर्य समाज के १०० वर्ष


केरल में आर्य समाज के १०० वर्ष

-के एम राजन, आर्यप्रचारक और अधिष्ठाता वेद गुरुकुलम, कारलमण्णा, केरल

आर्य समाज, राष्ट्रीय पुनर्जागरण आंदोलन, केरल में 1921 के मोपला दंगों से संबंधित राहत कार्य के साथ सक्रिय हो गया। केरल में यह एक ऐतिहासिक घटना थी कि हजारों धर्मान्तरित लोगों को शुद्धिकरण के माध्यम से जबरन पुरोहितों के पास वापस लाया गया। वह एक तरह का रूपांतरण का अंत था। याद रखें कि उस समय कुछ रूढ़िवादियों ने इसका विरोध किया था। ऐसा कहा जाता है कि स्वधर्म में लौटने वालों को 'चेला नायर' और 'चेला' नंबियार' कहा जाता था। उस समय के कुछ सनातन हिंदुओं का मानना ​​था कि जो लोग एक बार इस्लाम में परिवर्तित हो गए, उन्हें मृत्यु तक इस्लाम में ही रहना चाहिए। आर्य समाज ने इसे ध्वस्त कर दिया।
हमारे इतिहास की किताबों ने केरल में आर्य समाज द्वारा किए गए पुनर्जागरण आंदोलनों की अनदेखी की है। इसका मुख्य कारण कम्युनिस्टों का प्रसार है। भारत में साम्यवाद के आगमन से पहले हुई सामाजिक सुधार गतिविधियों को भी उनके नाम पर प्रचारित करने की प्रवृत्ति है।

इस संदर्भ में, पिछले सौ वर्षों के दौरान केरल में आर्य समाज की सामाजिक पुनर्जागरण गतिविधियों और शुद्धि अभियान को आर्य प्रचारों द्वारा मनाया जाना चाहिए जिन्होंने इसका नेतृत्व किया।

१९२१ में मलबार में मुस्लिम कलापकारियों से किया गया विशेष रूप से हिंदुओं पर क्रूर हमलों लाहौर आर्य समाज का ध्यान भौगोलिक रूप से सुदूर उत्तर पंजाब में केरल की ओर खींचा। यह खबर 30 अक्टूबर, 1921 को सिंध, बलूचिस्तान और लाहौर में आर्य स्थानीय आर्य प्रतिनिधि सभा के मुख्यालय तक पहुंची। जब सदन के अध्यक्ष महात्मा हंस राज ने यह खबर सुनी तो उन्हें बताया गया कि वे पूरी रात सो नहीं सो पाए। उन्होंने कहा, "जागृति के इस समय में भी, किसी को जबरन इस्लाम में परिवर्तित करना हमारे लिए एक बड़ी चुनौती है। हम इस चुनौती का सामना करेंगे" (भाग ए, पृष्ठ 130, इंद्र विद्या वाचस्पति के 'आर्य समाज का इतिहास' द्वारा प्रकाशित। सार्वदेशिक आर्यप्रतिनिधि सभा, दिल्ली।) उन्होंने अगली सुबह चर्चा की एक बैठक बुलाई। डीएवी कॉलेज, लाहौर से स्नातक आर्यप्रचारक पंडित ऋषिराम ने अगले दिन कुछ मिशनरियों को राहत कार्य करने के लिए मलबार भेजा। लाला खुशहाल चंद खुरसांड (बाद में आर्य समाज के एक प्रतिभाशाली भिक्षु महात्मा आनंद स्वामी के रूप में जाने गए), पंडित मस्तान चंद और महात्मा सावनमल भी मलबार आए। उनके साथ डीएवी कॉलेज, लाहौर, वेंकटचलमैयार के मलयाली विद्वान वेदबंधु शर्मा भी थे। वेदबंधु शर्मा पंडित ऋषिराम के सहायक और अनुवादक थे, जिनके पास समान शरीर, ध्वनि और वाक्पटुता और एक बड़े दर्शकों को प्रभावित करने का असाधारण साहस था। आर्य समाज ने कोष़िकोड और पोन्नानी में केंद्र स्थापित किए। वे शुद्धिकरण के मुख्य केंद्र भी थे। इसके अलावा, उन्होंने दंगा प्रभावित क्षेत्रों में बहादुरी से प्रवेश किया और पीड़ितों को दवा, भोजन और कपड़े उपलब्ध कराए। वेलिनेष़ि आर्य समाज की आगामी पुस्तक '1921- मलबारुं आर्यसमाजवुं' में इसका वर्णन किया है। 

मोपला दंगों से संबंधित राहत कार्य के बाद, आर्य समाज ने अपना ध्यान सामाजिक पुनर्जागरण गतिविधियों पर केंद्रित कर दिया।

कलपात्ती आंदोलन

पालक्काड़ जिले के कलपात्ती गांव में प्राचीन विश्वनाथ मंदिर के पास अग्रहारम की गलियों में निचली जातियों के चलने के अधिकार की मांग को लेकर कलपात्ती आंदोलन एक लोकपप्रसिद्ध आंदोलन था। वेदबंधु शर्मा के नेतृत्व में आर्य समाज ने इस प्रथा के खिलाफत आंदोलन किया। वेदबंधु शर्मा ने तथाकथित अवतारों के एक समूह के साथ वहां एक मार्च निकाला। ब्राह्मणों ने एक समूह के रूप में आकर उसका सामना किया। भूखी महिलाएं हंगामे के बीच सड़कों पर उतरीं। वेदबंधु ने चाकू निकाला। रास्ता रोकने आए नेता को चाकू मार दिया। ब्राह्मण डर के मारे भाग गए। मार्च फिर बिना किसी बाधा के आगे बढ़ा। एक प्रारंभिक आर्य समाज नेता, पी. केशव देव ने अपनी आत्मकथा 'विपक्ष' में इसका वर्णन किया है।

वाइकम सत्याग्रह

वैकम सत्याग्रह में स्वामी श्रद्धानंद और आर्य समाज की भूमिका सुनहरे अक्षरों में लिखी गई है। तथाकथित निचली जातियों को वैकम महादेव मंदिर और आसपास की सार्वजनिक सड़कों पर जाने का अधिकार नहीं था। लेकिन साथ ही, मुसलमान और ईसाई उस रास्ते से बिना रुके यात्रा कर सकते थे। इस तरह के अन्याय के कारण, कई निचली जातियाँ इस्लाम और ईसाई धर्म अपना रही थीं। आर्य समाज ने उन्हें शुद्ध किया और यज्ञोपवीत पहना कर वापस लाने लगे। इस भेदभाव ने राष्ट्रीय ध्यान आकर्षित किया। स्वामी श्रद्धानंद ने उसके बाद हुए प्रसिद्ध सत्याग्रह में सक्रिय भाग लिया। लेकिन हमारे इतिहास की किताबों में ऐसा कुछ नहीं मिलता।

आरंभिक आर्य समाज कार्यकर्ता

1920 के दशक में महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा स्थापित आर्य समाज से प्रेरित होकर, केरल में कई सामाजिक कार्यकर्ता आंदोलन से आकर्षित हुए। पी केशव देव, नारायण देव, अभय देव, आर. सी दास और रामकृष्ण दास सब इसमें हैं।

कोष़िकोड आर्य समाज के बुद्धसिंह ने सराहनीय सेवा की। १९४७ में, वह वह था जिसने उन्नीन साहिब और उसके परिवार को शुद्धिकरण के माध्यम से वैदिक धर्म में लाया। उनकी धर्मपत्नी सुगंधी बाई आर्य भी बहुत सक्रिय थीं। वेदबंधु शर्मा के समकालीन आर्य भास्करजी, आचार्य नरेंद्र भूषण, कीजानेल्लूर परमेश्वरन नंबूतिरी, वेलायुध आर्य, ए.पी. उपेंद्र और अन्य। उनमें से अधिकांश ने उत्तर भारत में आर्य समाज गुरुकुलों में अध्ययन किया है और केरल में वैदिक साहित्य का प्रसार और अध्ययन कक्षाएं संचालित करके लोगों को वैदिक पथ पर लाने के लिए कड़ी मेहनत की है। उन्होंने कड़ी चुनौतियों का सामना करते हुए प्रचार किया। कईं अभी भी अज्ञात के रूप में देखे जाते हैं। हम उन सभी को इस 100वीं वर्षगांठ पर सम्मानपूर्वक नमन करते हैं।

समकालीन केरल में आर्य समाज 

केरल के वर्तमान सामाजिक वातावरण में आर्य समाज का बहुत महत्व है। हिंदू समाज आज भीतर और बाहर से अभूतपूर्व चुनौतियों का सामना कर रहा है। वेदों को सर्वोच्च नियम मानकर इन आंतरिक चुनौतियों का कुछ हद तक सामना किया जा सकता है। ऐसा करने का तरीका वैदिक सत्यों का अध्ययन और अध्यापन करना है। बाहरी चुनौतियां दूसरे धर्मों, नास्तिक धर्मों और शहरी नक्सलियों से आती हैं। इनसे लड़ने के लिए युवाओं को तैयार रहने की जरूरत है। अध्ययन कक्षाएं और प्रचार गतिविधियां नियमित रूप से आयोजित की जानी चाहिए। उन शिक्षकों को ढालने के लिए और गुरुकुल होने चाहिए जो उन्हें संचालित करने में सक्षम हों। वेलिनेष़ि आर्य समाज के नेतृत्व में कारलमण्णा वेद गुरुकुलम् पिछले पांच वर्षों से ब्रह्मचारी तैयार कर रहा है। इस कम समय में हमने बहुत कुछ हासिल किया है। संगोपांग वेदों के अध्ययन के साथ, केरल शैली में वैदिक मंत्रोच्चारण और श्रौतयज्ञ करने का प्रशिक्षण भी यहां जाति या पंथ के बावजूद आयोजित किया जाता है।

आर्य समाज और मोपला दंगों की 100वीं वर्षगांठ के अवसर पर केरल में आर्य समाज अन्य हिंदू संगठनों के सहयोग से एक दीर्घकालिक कार्य योजना तैयार कर रहा है।

वैदिक काल में तोप व बन्दूक


वैदिक काल में तोप व बन्दूक

लेखक- वैदिक गवेषक आचार्य शिवपूजनसिंहजी कुशवाहा 'पथिक', विद्यावाचस्पति, साहित्यालंकार, सिद्धान्तवाचस्पति
प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ

वैदिक काल में आर्यों की सभ्यता अत्यन्त उन्नति के शिखर पर थी। वेदों में सम्पूर्ण विज्ञानों का मूल प्राप्त होता है। वैदिक काल में 'तोप' व 'बन्दूक' का प्रचार था कि नहीं? देखिये इस विषय में महर्षि दयानन्द जी महाराज स्पष्ट रूप में लिखते हैं कि-

प्रश्न- जो आग्नेयास्त्र आदि विद्याएं लिखी हैं वे सत्य हैं वा नहीं? और तोप तथा बन्दूक तो उस समय में थी या नहीं?
उत्तर- यह बात सही है, ये शस्त्र भी थे क्योंकि पदार्थ विद्या से इन सब बातों का सम्भव है।
पुनः- 'तोप' और 'बन्दूक' के नाम अन्य देशभाषा के हैं। संस्कृत और आर्यावर्त्तीय भाषा के नहीं, किन्तु जिसको विदेशीजन तोप कहते हैं संस्कृत और भाषा में उसका नाम 'शतघ्नी' और जिसको बन्दूक कहते हैं उसको संस्कृत और आर्यभाषा में 'भुशुण्डी' कहते हैं। इसकी पुष्टि स्वयं महर्षि दयानन्द जी महाराज वेद मन्त्र के द्वारा स्वयं इस प्रकार करते हैं। यथा-

स्थिरा व: सन्त्वायुधा पराणुदे वीलू उत प्रतिष्कभे।
युष्माकमस्तु तविषी पनीयसी मा मर्त्यस्य मायिन:।। (ऋग्वेद मण्डल १, सूक्त ३९, मन्त्र २)

इस मन्त्र की व्याख्या महर्षि दयानन्द जी महाराज इस प्रकार से करते हैं। देखिये-
(परमेश्वरो हि सर्वजीवेभ्य आशीर्ददाति) ईश्वर सब जीवों को आशीर्वाद देता है कि हे जीवो! "व:" (युष्माकम्) तुम्हारे लिए आयुध अर्थात् शतघ्नी (तोप), भुशुण्डी (बन्दूक), धनुष, बाण, करवाल (तलवार), शक्ति (बरछी) आदि शस्त्र स्थिर और "वीलू" दृढ़ हों। किस प्रयोजन के लिए? "पराणुदे" तुम्हारे शत्रुओं के पराजय के लिए जिस से तुम्हारे कोई दुष्ट शत्रु लोग कभी दुःख न दे सकें। "उत, प्रतिष्कभे" शत्रुओं के वेग को थामने के लिए। "युष्माकमस्तु, तविषी पनीयसी" तुम्हारी बलरूप उत्तम सेना सब संसार में प्रशंसित हो जिस से तुम से लड़ने को शत्रु का कोई संकल्प भी न हो परन्तु "मा मर्त्यस्य मायिन:" जो अन्यायकारी मनुष्य है उसको हम आशीर्वाद नहीं देते। दुष्ट, पापी, ईश्वरभक्तिरहित मनुष्य का बल और राज्यैश्वर्यादि कभी मत बढ़े। उसका पराजय ही सदा हो। हे बन्धुवर्गो! आओ अपने सब मिल के सर्व दुःखों का विनाश और विजय के लिए ईश्वर को प्रसन्न करें, जो अपने को वह ईश्वर आशीर्वाद देवे। जिस से अपने शत्रु कभी न बढ़ें।

जिह्वा ज्या भवति कुल्मलं वाङ्नाडीका दन्तास्तप साभिदग्धा:।
तेभिर्ब्रह्म विध्यति देवपीयून् हृद्बलैर्धनुर्भिर्देवजूतै:।। (अथर्ववेद ५/१८/८)

इस मन्त्र पर विद्या भास्कर पं० प्रेमचन्द्र जी काव्यतीर्थ लिखते हैं-
देवों का विरोध करने वालों के लिए ज्ञानी विद्वान् ब्राह्मणों की जिह्वा धनुष की डोरी का काम करती है। वाणी धनुष की कोटि का, दाँत बन्दूक के छर्रे या गोली का और हृदय बल धनुष का काम करता है।

इस मन्त्र में धनुष की डोरी, धनुष की कोटि, बन्दूक के छर्रे या गोली आदि का नाम आया है। यहाँ हमें 'नालीका' शब्द पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
महाभारत और शुक्र नीति आदि में बन्दूक और तोप का वर्णन 'नालीक' नाम से ही किया गया है। बन्दूक का नाम 'लघुनालीक' और तोप का नाम 'बृहन्नालीक' रूप में आया है।

नालीक शब्द पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता इसलिए है कि शायद विकासवाद और पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित मनुष्य यह समझे हुए हों कि वैदिक काल में तोप और बन्दूक आदि का आविष्कार भारत के प्राचीन आर्य नहीं जानते थे। परन्तु वेद के ऐसे-ऐसे स्थलों को देखकर उन्हें भी अपना यह विचार कि 'प्राचीन आर्य असभ्य थे', सर्वदा छोड़ देना चाहिए और इस बात पर विश्वास कर लेना चाहिए कि-
बन्दूक आदि का आविष्कार इस पाश्चात्य सभ्यता के युग में ही नहीं हुआ, अपितु वैदिक काल में भी इसका पूर्ण ज्ञान था।

यदि नो गां हंसी यद्यश्वं यदि पुरुषम्।
तं त्वा सीसेन विध्यामो यथानोऽसो अवीरहा।। (अथर्ववेद काण्ड १, सूक्त १६, मन्त्र ४)

इस मन्त्र की व्याख्या करते हुए वेदाचार्य पं० ब्रह्मदत्त जी जिज्ञासु लिखते हैं-
यदि कोई दुष्ट हमारी गौओं को मारता है, हमारे पुरूषों की, हमारे घोड़ों की हिंसा करता है, उसे हम सीसे की गोली से बींधते हैं, जिससे वह हमारे वीरों को न मार सके।

इसमें स्पष्ट ही सीसे की गोली चलाने का वर्णन मौजूद है। इसका प्रयोग प्राचीन काल में होता था। 'नालीक अस्त्र' द्वारा गोली और गोले का प्रयोग होता था। ये दो प्रकार के थे 'लघुनालीक' बन्दूक, पिस्तौल आदि और 'बृहन्नालीक' बड़ी नाली वाले तोप आदि। यह वर्णन शुक्रनीति के अन्दर 'चतुर्थाध्याय' में वर्णित है। वहां पर आग्नेयचूर्ण अर्थात् बारूद का भी वर्णन है।

ऋग्वेद का एक मन्त्र है-
सुदेवो असि वरूण यस्य ते सप्त सिन्धवः।
अनुक्षरन्ति काकुदं सूर्म्ये सुषिरामिव।। (ऋग्वेद मण्डल ८, सूक्त ६९, मन्त्र १२)

चतुर्वेद भाष्यकार पं० जयदेव शर्मा 'विद्यालंकार' मीमांसातीर्थ इस मन्त्र की व्याख्या करते हुए लिखते हैं-
हे वरूण! तू सुदेव है। तेरे छिद्र वाली सूर्मी के समान बने तालु की तरफ सात प्राण गति कर रहे हैं।

कपाल पर दृष्टि डालिए। मानो सात प्राणों के सात द्वार, सात छिद्रों वाली तोप के समान जंचते हैं, कैसी उत्तम उपमा है? नाक की छींक आना भी दो नाली बन्दूक के समान समझा जाता है। क्या यही मानस प्रवृत्ति प्राचीन आर्षकाल में असम्भव है? और देखिये-

प्रेद्धो अग्ने दीदिहि पुरो नोऽजस्त्रया।
सूर्म्या यविष्ठत्वां शश्वन्त उपयन्ति वाजा:।। (ऋग्वेद मण्डल ७, सूक्त १, मन्त्र ३)

पं० जयदेव शर्मा 'विद्यालंकार' मीमांसातीर्थ कृत भाष्य-
हे (अग्ने) अग्रणीनेता:! तू हमारे आगे न नष्ट होने वाली सुदृढ़ सूर्मी के साथ प्रज्वलित होकर आगे प्रकाशित हो। तुझे नित्य संग्राम प्राप्त हो।

इन वर्णनों से भी 'सूर्मी' युद्धोपयोगी महास्त्र प्रतीत होती है। कालान्तर में यह यन्त्र अवश्य अप्रसिद्ध हो गया ऐसा प्रतीत होता है। देखिये मनु जी ने लिखा है कि-
सूर्मीं ज्वलन्तीं स्वाश्लिष्येन्।
अपराधी जलती सूर्मी को पकड़े। इससे सूर्मी लाल तपे लोहे की लाल जंजीर होती है। कदाचित् दण्ड विधानकार के अभिप्राय से वहां भी सुलगती तोप को जो लिपेटने का आदेश है।

जब भी मनुष्य तोप के मुंह को पकड़ेगा कि गोला फटकर उस का नाश करे। तोप से उड़ा देना आदि दण्डलोक में बराबर प्रसिद्ध रहा है। परन्तु पिछले अक्षर पढ़े पण्डितों को वह तोप या सूर्मी का वास्तविक स्वरूप भूल गया प्रतीत होता है। इसलिए कईयों ने केवल इसको 'लोह-दण्ड' ही लिख दिया है।
'नैषधीय चरित' में आप शतघ्नी का भी अभिप्राय: टीकाकार नारायण ने लोहदण्ड ही कर दिया है, परन्तु नीतिप्रकाशिकाकार ने 'शतघ्नी' का वर्णन 'अष्टचक्रा, भीमाकार शक्ति' के रूप में किया है जो 'अयोंगुड' अर्थात् लोहे के गोलों को शत्रुसेना पर फेंकती थी।

एषा वै सूर्मी कर्णकावती। एतयाहस्म वै दैवा असुराणांशत तर्हा स्तृहन्ति। यदेतया समिधमादधाति। वज्रमेवैतच्छतघ्नींयजमानो भ्रातृव्याय प्रहरति स्तृत्या अच्छम्वट् कारम्।। [कृष्ण यजुर्वेद (तैत्तिरीय संहिता) १/५/७]

श्री सायणाचार्य भाष्यम्-
ज्वलन्ती लोहमयी स्थूणा सूर्मी। सा च कर्णकावती छिद्रवती। अन्तरपि ज्वलन्तीत्यर्थ:। तत्समानेयमृक्। एकेन प्रहारेण शतसंख्याकान्मारयन्त: शूरा: शततर्हा:। असुराणां मध्ये तादृशान् (सूर्म्मीयोद्धेन) एतयर्चा देवा हिंसन्ति। अनया समिदाधानेन शतघ्नीमेनामृचं वज्रं कृत्वा वैरिणं हन्तुं प्रहरति।।

अर्थात्- यह लोह का बना हुआ लम्बा यन्त्र है। उसके बीच में छेद होता है। छेद के बीच में आग रहती है। जो बाहर निकलती है वह भी जलती रहती है। असुर लोग जब सूर्मी के द्वारा युद्ध करते थे तो वह एक ही बार (फायर करने) में सैकड़ों लोग आहत और घायल हो जाते थे। देवता लोग भी उनको मारने के लिए शतघ्नी वज्र का प्रयोग करते थे।

इस पर चतुर्वेद भाष्यकार पं० जयदेव शर्मा 'विद्यालंकार' मीमांसातीर्थ की सम्मति है कि-
इससे सूर्मी का कुछ स्वरूप मोटी-मोटी लम्बी का साधन प्रकट होता है। संहिता में कहे 'शतघ्नी' और असुरों को हनन करने का साधन होने से हम इस परिणाम पर पहुंचते हैं कि वैदिक साहित्य में आयी 'सूर्मी' अवश्य ही 'तोप' है।

श्री पं० ज्योति प्रसाद मिश्र 'निर्मल' इस मन्त्र के सायण व्याख्या पर लिखते हैं-
यहां विचार करने की बात है कि लोहे का बना लम्बा यन्त्र जिसके बीच में सूराख हों और जिसमें से आग निकले तथा जिससे एक ही बार में सैकड़ों शत्रु काल-कवलित हो जायें, ऐसा यन्त्र सिवाय बन्दूक के और क्या हो सकता है?

अतः आकार-प्रकार के वर्णन से यह सिद्ध होता है कि आधुनिक बन्दूक 'सूर्मी' 'नालीका' का ही नया रूप है इसलिए हम आधुनिक बन्दूक को कोई नई वस्तु नहीं कह सकते।

महाकाव्यों के प्रमाण
वाल्मीकीय रामायण में 'शतघ्नी' (तोप) और 'भुशुण्डी' (बन्दूक) का वर्णन आया है, यथा-

स तु नालीकनाराचैर्गदाभिर्मुसलैरपि। (वाल्मीकि रामायण, युद्धकाण्ड ७३/३४)
सर्वयन्त्रायुधवती .........। शतघ्नीशतसंकुलाम्।। (वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड ५/१०-११)
अयोध्या नगरी सब यन्त्रायुद्धों से अथवा यन्त्रों और आयुधों से युक्त थी तथा सैकड़ों तोपों से युक्त थी।

तत्रेषूपलयन्त्राणि बलवन्ति महान्ति च। शतघ्न्यो रक्षसां गणै: ... यन्त्रैरूपेता ... यन्त्रैस्तैरवकीर्यन्ते परिखासु समन्तत:।। (वाल्मीकीय रामायण, युद्धकाण्ड ३/१२,१३,१६,१७)
यहाँ 'इषु-उपल' (गोलों) को फेंकने वाले यन्त्रों तथा तोपों का वर्णन है।

शतशश्च शतघ्नीभिरायसैरपि मुद्गरै:। (वाल्मीकि रामायण, युद्धकाण्ड ८६/२२)

रामायण के उत्तरकाण्ड में रावण दिग्विजय के स्थान पर 'नालीकैस्ताडयामास' आदि का उल्लेख है। रामायण के पश्चात् महाभारत में भी इन अस्त्रों का वर्णन है, यथा-

एवं स पुरूषव्याघ्र शाल्वराजो महारिपु:।
युद्धमानो मया संख्ये वियदभ्यगमत्पुनः।।१।।
तत: शतघ्नीश्च महागदाश्च, दीप्तांश्च शूलान् मुसलानसींश्च।
चिक्षेप रोषान्मयि मन्दबुद्धि: शाल्वो महाराज जयाभिकाङ्क्षी।।२।।
तानाशुगैरापततोऽहमाशु, निवार्य हन्तुं खगमान् ख एव।
द्विधा त्रिधा चाच्छिदमाशु, मुक्तैस्ततोऽन्तरिक्षे निनदो बभूव।।३।। (महाभारत, वनपर्व, अध्याय २१)

अर्जुन ने श्रीकृष्ण जी से कहा-
हे महाराज! वह शाल्वराज, मेरे साथ युद्ध करके फिर आकाश को ही उड़ गया और उसने आकाश में से ही शतघ्नी (तोप-गोला), महागदा, प्रकाशमान त्रिशूल, मसूल और खड्ग क्रोध में आकर मेरे ऊपर जय की आकांक्षा से फेंके। तब प्रतिकार में खड्ग नामक अस्त्रों से मैंने भी शीघ्रता से शीघ्रगामी शस्त्रों से उनको आकाश में ही निवारण कर दो तीन टुकड़े कर दिए। तब उनके टूटने से आकाश में भी एक महान् शब्द गुंजायमान हो गया।

नाराच नालीक वराह कर्णान्।
क्षुरांस्तथा साञ्जलिकार्ध चन्द्रान्।। (महाभारत, कर्णपर्व, अध्याय ८९)
... तीक्ष्णाङ्कुश शतघ्नीभिर्यन्त्रजालैश्चशोभितम्। (महाभारत, आदिपर्व, अध्याय २०६, श्लोक ३४)
पट्टिशाश्च भुशुण्ड्यश्च प्रपतन्त्यनिशं मयि। (महाभारत, वनपर्व, अध्याय २०, श्लोक ३४)
चतुश्चक्रा द्विचक्राश्च शतघ्न्यो बहुला गदा: ...। (महाभारत, द्रोणपर्व, अध्याय १९९)
......... कडङ्गरैर्भुशुण्डीभि: .........। (महाभारत, द्रोणपर्व, अध्याय २५, श्लोई ५८)

'शतघ्नी' के विषय में Rama and Homer, pp 55 में लिखा है-
Which Colonel Yule believed to have been a prehistoric Rocket or Torpedo अर्थात् बिजली की मछली से मिलता जुलता अस्त्र।

प्राच्य विद्वानों के मत
शास्त्रार्थ महारथी, विद्याभास्कर पं० बिहारीलाल जी शास्त्री काव्यतीर्थ लिखते हैं-
शतघ्नी और भुशुण्डी संस्कृत ग्रन्थों के टीकाकारों ने तो एक प्रकार के लोहे के कीलों से जड़े हुए लकड़ी के तख्त जैसे अस्त्र ही बताए हैं जिन्हें बलवान योद्धा हाथों से ही शत्रुओं पर फैंकते थे। परन्तु वाल्मीकीय रामायण के युद्धकाण्ड, सर्ग ३, श्लोक १३ से पता चलता है कि- शतघ्नी गोला फेंकने वाली तोपें ही हो सकती हैं।
ऋग्वेद में भी 'सीसेन विध्याम:' पद सीसे की गोली या गोलों से वेधने का ही द्योतक मालूम पड़ता है। वाल्मीकीय रामायण में भी आया है, देखिये श्लोक इस प्रकार है-
द्वारेषु संस्कृता भीमा: कालायसमया: शिता:।
शतशो रचिता वीरै: शतश्यो रक्षसांगणै:।।
यहां लोहे की भयंकर तेज सैकड़ों तोपों लडून के किले पर चढ़ी रहने का वर्णन श्री हनुमान जी ने भगवान् राम से किया है।

महामहोपाध्याय पं० आर्यमुनि जी लिखते हैं-
युद्ध के अस्त्र शस्त्रों का ऋग्वेद में पूर्णतया वर्णन मौजूद है, अधिक क्या तलवार, धनुष-निषंग तथा नानाविध विद्युत के अस्त्रों का वर्णन निम्नलिखित मन्त्र में स्पष्ट दर्शाया गया है-
वाशीमन्त ऋष्टिमन्तो मनीषिण: सुधन्वान इषुमन्तो निषङ्गिण:।
स्वश्वा: स्थ सुरथा: पृश्निमातर: स्वायुधा मरूतो याथना शुभम्।। (ऋग्वेद ५/५७/२)
इस मन्त्र में ही नहीं किन्तु सूक्त ५७ में विद्युत सम्बन्धी अनेक अस्त्र शस्त्रों का विस्तृत वर्णन विद्यमान है, उक्त मन्त्र में 'निषङ्ग' के अर्थ तोप तथा बन्दूक के हैं, जैसा कि-
निसज्यन्तेगोलकादिकं अत्र इति निषङ्ग।
जो गोली तथा गोलों के भरने या डालने का स्थान हो उसका नाम यहां 'निषङ्ग' है। जो लोग निषङ्ग के अर्थ 'बाण' मात्र के करते हैं, यह उनकी भूल है क्योंकि इसी मन्त्र में 'इषु' पद पड़ा है जिसका अर्थ 'बाण' है। यदि (निषङ्ग) शब्द का प्रयोग भी 'इषु' के अर्थों में किया जाये, तो अर्थ सर्वथा पुनरूक्त हो जाता है। अतएव 'निषङ्ग' शब्द के अर्थ यहां बन्दूक तथा तोप ही हैं।

डॉ० बालकृष्ण जी, एम०ए०, पी०एच०डी०, एफ०आर०एस०एस०, एफ०आर०ई०एस० लिखते हैं-
अब इस बात से कौन इन्कार कर सकता है कि प्राचीन भारत में आर्यों ने धर्म-दर्शन, विज्ञान, ज्योतिष, कला-कौशल, शिल्प-व्यापार, व्यवसाय में ईसा के जन्म से पूर्व ही कमाल हासिल कर लिया था। उनके विमान गगन में स्वच्छन्द रूप में उड़ा करते थे। उनकी तोपों, बन्दूकों, शतघ्नियों, भुशुण्डियों, विद्युत्अस्त्र, मोहनास्त्र, प्रज्ञानास्त्र, अन्तर्धानास्त्र, वारूणोयास्त्र, वायवास्त्र, आग्नेयास्त्र, पर्जन्यास्त्र, मौनास्त्र, पिनाकास्त्र, बिलापगास्त्र, तामसास्त्र, मातास्त्र, सौधास्त्र, वज्रास्त्र, ब्रह्मास्त्र, क्रौञ्चास्त्र और इसी प्रकार के सैकड़ों शास्त्रों के आविष्कारों के कारण सर्व जातियों पर आर्यों का चक्रवर्ती राज्य था।

प्रतीच्चों की स्पष्ट घोषणा
तोपों और मशीनगनों के सम्बन्ध में प्रख्यात पाश्चात्य पण्डित स्वीकार करते हैं कि ब्राह्मणों के पास इस प्रकार की मशीनें थीं।

प्रोफेसर विल्सन की राय है कि-
आग्नेयास्त्रों के प्रयोगों में प्राचीन भारतीय अत्यन्त पुरातन काल से ही होशियार थे।

प्रसिद्ध इतिहासकार एल्फिस्टन बहुत काल की बीती बातों का स्मरण दिलाते हैं कि-
विजयादशमी के दिन आग्नेयास्त्रों के आलोक में लंका बर्बाद हुई।

शतघ्नी का अर्थ होता है, एक बार में सौ मनुष्यों या उससे अधिक को नष्ट करने वाली। संस्कृत कोषों के अनुसार वह जो मशीन लोहे के टुकड़ों आदि के गोले के रूप में फैंककर बहुसंख्या में प्राणोपहरण करे। मिस्टर हार्लेड साहब भी खुले शब्दों में इसका अनुमोदन करते हैं।

पाद टिप्पणियां-
१. 'सत्यार्थप्रकाश' एकादश समुल्लास। -महर्षि दयानन्द कृत
२. 'सत्यार्थप्रकाश' एकादश समुल्लास। -महर्षि दयानन्द कृत
३. 'आर्याभिविनय:' प्रार्थना मन्त्र २२। -महर्षि दयानन्द कृत
४. 'वेद और विज्ञानवाद' प्रथम संस्करण, पृष्ठ १५।
५. मासिक पत्र 'दयानन्द सन्देश' देहली का 'असिधारा अंक माला' ३ जनवरी सन् १९४१ ई० मुक्ता १, प्रकाशित वेद और शस्त्रास्त्र प्रयोग शीर्षक लेख पृष्ठ २५-२६।
६. मासिक पत्र 'सार्वदेशिक' देहली फरवरी सन् १९३० ई०, पृष्ठ २१, कॉलम १।
७. मासिक पत्र 'सार्वदेशिक' फरवरी सन् १९३० ई०।
८. 'सार्वदेशिक' मासिक पत्र फरवरी १९३०।
९. मासिक पत्रिका 'प्रभा' कानपुर, वर्ष ५, खण्ड २, अक्टूबर १ सन् १९२४ ई०, संख्या ४, पृष्ठ २५१, कॉलम १ 'क्या आर्यों के पास बन्दूकें थी?' शीर्षक लेख।
१०. 'सुमन संग्रह' प्रथम संस्करण, पृष्ठ ४८ तथा मासिक पत्र 'दयानन्द सन्देश' का असिधारा अंक, पृष्ठ १२७।
११. 'वैदिक काल का इतिहास' प्रथम संस्करण, पृष्ठ ११९-१२०।
१२. 'ईश्वरीय ज्ञान वेद' प्रथमावृत्ति, पृष्ठ ४६।
१३. Elphinstons history of India PP. 178
१४. Code of gouto laws introduction PP. 52

Saturday, May 22, 2021

हरयाणा में शिक्षाप्रसार में आर्यसमाज का महान् योग


हरयाणा में शिक्षाप्रसार में आर्यसमाज का महान् योग 

लेखक :- स्वामी ओमानन्द सरस्वती 
हरियाणा संवाद :- 10मई 1975
प्रस्तुति :- अमित सिवाहा 

         महर्षि दयानन्द जी ने संसार का उपकार करने के लिए बम्बई में चैत्र शुक्ला प्रतिपदा विक्रमी सम्वत् १९३२ को आर्यसमाज की स्थापना की। उस समय आर्य जाति की रीति - नीति , सभ्यता , संस्कृति को पाचात्य सभ्यता का झंझावात समूल उखाड़ फेंकने में प्रयत्नशील था। ऐसी विकट परिस्थितियों में ऋषिवर दयानन्द ने अपने महान् कार्य का सभारम्भ किया। आज राष्ट्र ने जो करवट बदली है , देश में शिक्षा का जो प्रचार प्रसार हुआ है तथा जागृति के जो चिह्न दिखाई देते हैं जैसे देश की स्वतंत्रता , समाज का सुधार , शिक्षा का राष्ट्रीयकरण , वेदोद्धार , गुरुकुल शिक्षा प्रणाली से ब्रह्मचर्य प्रचार , बालविवाह का उन्मूलन , सतीप्रथा का उन्मूलन , विधवा विवाह का प्रचलन , छुआछूत का नाश , स्त्री - शिक्षा का प्रसार होरहा है , उसका सर्वाधिक श्रेय इसी बाल ब्रह्मचारी महर्षि दयानन्द को है। 

        महर्षि दयानन्द जी हरयाणा के दिल्ली , रेवाड़ी और अम्बाला में आर्यसमाज और वेदप्रचारार्थ अनेक बार पधारे। बेरी तथा भिवानी में उनके पधारने की बात सुनी जाती है। उनके उपदेशामृत से प्रभावित होकर रामपुरा , रेवाड़ी के रावराजा युधिष्ठिर अपने अनेक साथियों सहित उनके शिष्य बन गए। आर्यसमाज के प्रसिद्ध भजनोपदेशक दादा बस्तीराम भी रेवाड़ी में महर्षि के उपदेशों से प्रभावित होकर आर्यसमाजी बने और ११७ वर्ष की आयु तक आर्यसमाज के सिद्धान्तों और शिक्षा का प्रचार करते रहे। महर्षि दयानन्द की प्रेरणा से रावराजा युधिष्ठर ने भारतवर्ष में सर्वप्रथम गोशाला रेवाड़ी में ही खोली थी। महर्षि के उपदेशों से प्रभावित होकर हरयाणा के प्रसिद्ध ब्रह्मचारी जयरामदास ने बेरी और भिवानी में गोशालाएं खोली। 

       महर्षि दयानन्द के उपदेशों का सबसे अधिक प्रभाव पंजाब , हरयाणा , उत्तरप्रदेश और राजस्थान में पड़ा। पंजाब में ही ब्रह्मर्षि गुरु विरजानन्द जी महाराज का जन्म करतारपुर के निकट गंगापुर ग्राम में हुआ था। उन्हीं के चरणों में स्वामी दयानन्द ने आर्षशिक्षा की दीक्षा मथुरा में ली थी। स्वामी विरजानन्द जी के गुरु स्वामी पूर्णानन्द जी सरस्वती हरयाणाप्रदेश के ही थे। इस प्रकार आर्यसमाज का मूल - जन्मदाता हरयाणाप्रदेश ही था। यही नहीं , स्वामी दयानन्द के पूर्वज औदीच्य ब्राह्मण थे , अर्थात् उत्तरभारत के ही थे। संभव है कि उनके पूर्वजों का निवासस्थान प्राचीनकाल के हरयाणाप्रदेश में ही रहा हो। 

        महर्षि ने अमरग्रन्थ ' सत्यार्थप्रकाश ' में लिखा है कि कोई कितना ही करे , परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है , वह सवोपरि उत्तम होता है , अर्थात् मत - मतान्तर के -आग्रहरहित अपने और पराए का पक्षपातशून्य , प्रजा पर पिता - माता के समान कृपा , न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। परन्तु भिन्न भिन्न भाषा , पृथक् - पृथक् शिक्षा , अलग व्यवहार का छूटना अतिदुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर का पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है। इस निर्भीक संन्यासी ने कितने स्पष्ट शब्दों में विदेशीराज्य के दोष और स्वदेशीराज्य के गुण बताए हैं। यह राष्ट्रप्रेम और देशभक्ति की पराकाष्ठा है। अंग्रेजों के राज्य में उनके ही विरुद्ध इतना निर्भीक होकर बोलना और लिखना इसी वीर संन्यासी का कार्य था। वे लार्ड मैकाले द्वारा प्रचलित दूषित शिक्षाप्रणाली के दोषों से भलीभांति परिचित थे। इसीलिए उन्होंने ' सत्यार्थप्रकाश ' के तृतीय समुल्लास में और संस्कार विधि के वेदारम्भसंस्कार में प्राचीन आर्षशिक्षाप्रणाली को विस्तार से लिखा है। उसी के अनुसार स्वामी श्रद्धानन्द , स्वामी दर्शनान्द जी आदि महर्षि के एकनिष्ठ शिष्यों ने हरद्वार , ज्वालापुर , जालन्धर , देहरादून , सिकन्दराबाद आदि स्थानों पर राष्ट्रीयशिक्षा के उद्धारार्थ गुरुकुलों की स्थापना की। 

       इन महात्माओं से प्रेरणा लेकर स्वामी ब्रह्मानन्द , पंडित विश्वम्भरदत्त ( झज्जर ) , चौधरी पीरूसिंह ( मटिण्डू ) और महात्मा भक्त फूलसिंह आदि ने झज्जर , मटिण्डू , भैंसवाल और खानपुर में गुरुकुलों की स्थापना की। राष्ट्रीयशिक्षा अर्थात् वेदादि सत्य शास्त्रों की आर्षशिक्षा का प्रचार और प्रसार सारे उत्तरभारत में होने लगा। गुरुकुलों की बाढ़ - सी आगई। उनको देखकर ही डी.ए.वी. स्कूल , कॉलेज , आर्यस्कूल और आर्यकॉलेज भी धड़ाधड़ खुलने लगे। कन्याओं की शिक्षार्थ जालन्धर , देहरादून , कनखल , मीताथल ( भिवानी ) , सासनी , बड़ौदा , पोरबन्दर , खानपुर , नरेला आदि नगर उपनगरों में कन्या गुरुकुल , आर्य कन्या पाठशाला , आर्य कन्या स्कूल और कॉलेज आर्यसमाज ने ही खोलकर स्थापित किए। 

        पहले पहल कन्याओं की शिक्षा का विरोध हुआ। कन्याएं पढ़ानी चाहिएं या नहीं , इस विषय पर आर्यसमाज ने शास्त्रार्थ भी किए । आर्यसमाज के संन्यासी , विद्वान् , पण्डित , उपदेशक और भजनोपदेशकों ने सारे उत्तरभारत में राष्ट्रीयशिक्षा का इतना प्रबल प्रचार किया कि विरोधी मुंह देखते रहगए। कुछ ही वर्षों में सब विरोध ठण्डा होगया। हरयाणा में आगे चलकर कुरुक्षेत्र , इन्द्रप्रस्थ , सिंहपुरा , कालवा, गदपुरी , गणियार टटेसर , खेड़ाखुर्द , कुम्भाखेड़ा , आर्यनगर , कुरड़ी , धीरणवास , पंचगांवा , सिद्धिपुर लोवा आदि अनेक स्थानों पर नए नए गुरुकुल स्थापित होगए। हरयाणा में शिक्षा का तहलका मच गया। 

        कुछ अंग्रेजी पढ़े - लिखे लोग जो गुरुकुल खोलने या चलाने में असमर्थ थे , उन्होंने जाट स्कूल , वैश्य स्कूल , गौड़ स्कूल , जांगड़ा ब्राह्मण स्कूल ( विश्वकर्मा स्कूल ) , सैनी स्कूल , अहीर स्कूल , आर्य स्कूल , डी.ए.वी. स्कूल , भारी संख्या में रोहतक , हिसार , भिवानी , सोनीपत , पानीपत , वल्लभगढ़ , करनाल , जींद , हांसी , गुड़गांव , रेवाड़ी , पलवल , होडल , अम्बाला , यमुनानगर , जगाधरी आदि छोटे बड़े नगरों में खोल दिए। उनमें से कितने ही स्कूलों ने कॉलेजों का रूप धारण करलिया। अंग्रेजों ने सरकार की ओर से शायद ही कहीं भूलकर कोई स्कूल कॉलेज हरयाणा में खोला होगा। इन स्कूल कॉलेजों का रहन - सहन , खानपान प्रारम्भ में गुरुकुलों के समान ही था। प्रातः सायं इन सबमें वैदिक संध्या कराई जाती थी। साप्ताहिक यज्ञ भी होते थे। सर्वत्र वेदमंत्रों की गूंज सुनाई देती थी। छात्रावासों में सोने के लिए तख्त थे। मिर्च तक भी कोई विद्यार्थी नहीं खाता था। ब्रह्मचारियों के समान दैनिक व्यायाम करते थे। स्वांग , नाच देखने से बड़ी घृणा थी। व्यायाम , स्नान आदि ब्रह्मचारियों के समान प्रचलित थे। 

         स्वामी आनन्द मुनि , चौधरी छोटूराम , सेठ छाजूराम , लाला रामनारायण बी.ए. , चौधरी बलदेवसिंह , डॉ ० रामजीलाल , पंडित भूराराम , चौधरी रामप्रकाश , चौधरी टीकाराम , पंडित मुरारीलाल , पंडित जगदेवसिंह सिद्धांती , लाला श्यामलाल , लाला फतेहसिंह आर्य ये सभी आर्यसमाजी थे , जिन्होंने स्कूल कॉलेजों के द्वारा राष्ट्रीयशिक्षा और आर्यसमाज का प्रचार किया और हरयाणा की अनपढ़ जनता को शिक्षित और दीक्षित किया। आर्यसमाज के प्रचार का इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि चौ० लालचंद जी भालोठ जैसे धर्मनिरपेक्ष लोग भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। जब हरयाणा के सभी गणमान्य व्यक्ति आर्यसमाजी होगए। जब आर्यसमाजी होना आदर मान की वस्तु समझी जाने लगी , तो चौधरी लालचंद भी न रह सके और आर्यसमाज के संन्यासी स्वामी सत्यानन्द जी से जनेऊ लेकर गुरुकुल मटिण्डू के सेवक व प्रेमी बन गए 

         आर्यसमाज की देशभक्ति और राष्ट्रीयशिक्षा का ही प्रभाव था कि आर्यसमाजी लोग देशसुधार के सभी आन्दोलनों में सबसे आगे ही रहते थे। आर्यसत्याग्रह हैदराबाद में सबसे अधिक सत्याग्रही पंजाब से गए और पंजाब में भी हरयाणा भाग के सबसे अधिक सत्याग्रही थे। राष्ट्रभाषा हिन्दी के आन्दोलनों में भी आर्यसमाजी ही अग्रणी और प्रमुख रहे। महर्षि दयानन्द ने गुजराती होकर भी अपने सभी ग्रन्थ राष्ट्रभाषा हिन्दी में लिखे। 

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प्रजामण्डल आन्दोलन
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         मुगलों के राज्य में हरयाणा की जनता को वश में रखने के लिए अनेक नवाबों को बड़ी बड़ी जागीरें प्रदान की थीं । जैसे झज्जर , फरूखनगर , बहादुरगढ़ , दुजाना और लोहारू इत्यादि स्थानों पर अनेक मुसलमान नवाब व जागीरदार थे। उसी प्रकार अंग्रेजों ने हरयाणा को शक्तिहीन करने के लिए इसको अनेक भागों में बांटकर इसे इतस्ततः कर दिया। जैसे मेरठ , मुजफ्फरनगर , सहारनपुर , बिजनौर , देहरादून , मथुरा , आगरा , अलीगढ़ , एटा , मैनपुरी , मुरादाबाद , बदायूं , बरेली , शाहजहांपुर इत्यादि जिलों को हरयाणा से निकालकर उत्तरप्रदेश में मिला दिया। महेन्द्रगढ़ और नारनौल को नाभा और पटियाला में मिला दिया गया। दादरी , जींद , नरवाना , संगमा का क्षेत्र पृथक् करके जींदराज्य की स्थापना की गई। सन् १८५७ के प्रथम स्वातन्त्र्यसंग्राम में हरयाणा की देशभक्त जनता ने अंग्रेजों के विरुद्ध जमकर युद्ध किया था। उसी के फलस्वरूप हरयाणा के अनेक खण्ड करके हरयाणावासियों को यह दण्ड मिला था। हमारे हजारों पूर्वजों को गोली का शिकार बनाया था। छ: हजार से अधिक वीरों को आजीवन कारावास की सजा देकर काला पानी ( अण्डमान निकोबार ) भेज दिया गया था। सर्वप्रथम हरयाणा के पूर्वजों को ही सन् १८५८ में काले पानी के द्वीपों में बसाया था। हरयाणा को तो राष्ट्रभक्ति का उपर्युक्त दण्ड मिला , जींद , नाभा , पटियाला स्टेटों में हरयाणा के कई भाग सम्मिलित कर दिए गए। 

      झज्जर के नवाब तथा बल्लभगढ़ के जाटराजा नाहरसिंह को दिल्ली में कोतवाली के आगे फांसी देकर और उनका राज्य जब्त करके देशभक्ति का दण्ड दिया गया। आर्यसमाज के प्रचार से पूर्व सारा हरयाणा अशिक्षित था। पढ़ा - लिखा व्यक्ति कार्ड ढूंढने से ही कहीं - कहीं दिखाई देता था। मुस्लिमबादशाहों और अंग्रेजों की यही नीति थी कि यहां की वीरप्रजा मूर्ख और भूखी रहे , तभी ये अधीन रहसकेंगे। किंतु आर्यसमाज के प्रचार से शिक्षा का प्रचार इतना बढ़ा कि अंग्रेज इसे रोक नहीं सके। जितने शिक्षणसंस्थान आर्यसमाज ने प्रचलित किए वे अंग्रेजसरकार से सहायता नहीं लेते थे। उनका माध्यम भी राष्ट्रभाषा हिन्दी ही था। पाठविधि भी उनकी अपनी ही चलती थी। अंग्रेज वायसराय ने स्वयं गुरुकुल कांगड़ी में जाकर लाखों रुपए सहायतार्थ देने चाहे , किन्तु स्वामी श्रद्धानन्द जी ने लेने से निषेध कर दिय। स्वामी ऋद्धानन्द , स्वामी दर्शनानन्द आदि सैंकड़ों आर्यसंन्यासी और विद्वानों ने अपना तन - मन - धन ( अर्थात् सर्वस्व ) राष्ट्रीयशिक्षा पर न्यौछावर कर दिया। उसी के फलस्वरूप हरयाना के तपस्वी त्यागी दादा बस्तीराम , स्वामी ब्रह्मानन्द , स्वामी परमानन्द , स्वामी विद्यानन्द , पंडित विश्वम्भरदत्त ( झज्जर ) , चौधरी पीरूसिंह , भक्त फूलसिंह , स्वामी नित्यानन्द , चौधरी ईश्वरसिंह , पंडित बालमुकन्द , सेठ छाजूराम आदि ने अपना सर्वस्व लगाकर हरयाणा में गुरुकुल विद्यालय और पाठशालाओं की स्थापना की तथा विद्याप्रचार करके हरयाणा की जनता में देशभक्ति और राष्ट्रीय शिक्षा की ज्योति जलादी। इन्हीं महात्मा विद्वान् और दानियों की कृपा से कनीना , महेन्द्रगढ़ , नारनौल , दादरी , जींद , लोहारू , दुजाना आदि देशीराज्यों में पाठशालाएं खुली , स्कूल वने , आर्यसमाज स्थापित हुए और प्रजामण्डल की भी स्थापना हुई।

         हरयाणा तथा इसके अन्तर्गत देशीराज्यों में राष्ट्रभाषा हिन्दी की ५०० से अधिक पाठशालाएं चलती थीं। इन्हें सीधा आर्यसमाज ने चला रखा था। आर्यसमाज की सहायता व प्रचार के कारण बिरला बन्धुओं का ट्रस्ट चलरहा था। इन सभी पाठशालाओं में सभी अध्यापक आर्यसमाजी थे। उनके सात व आठ निरीक्षक भी आर्यसमाजी थे। इन निरीक्षकों के ऊपर प्रधान निरीक्षक प्रसिद्ध आर्यसमाजीनेता चौ० निहालसिंह जी तक्षक थे , जो रात दिन ऊंट की पीठ पर सवार रहते थे और इन सभीराज्यों में शिक्षा तथा आर्यसमाज दोनों का प्रचार करते थे। राजस्थान के अतिरिक्त लोहारू , महेन्द्रगढ़ , कनीना , दादरी , जींद और दुजाना आदि राज्यों में इन पाठशालाओं का इस धुन के धनी आर्यनेता ने जाल बिछा दिया था। सभी स्थानों पर शिक्षा के सच्चे प्रचारक और साधक आर्य अध्यापक नियुक्त कर दिए थे। दिन - रात पाठशालाएं चलती थीं। कितने ही अध्यापक तो रविवार को भी अवकाश नहीं करते थे। बीसलवास , गागड़वास , चांदवास , डालावास , बेरला , मानहेडू , रासीवास , दगड़ोली , बडेसरा , बिगोवा , ढ़ाणी , भागवी , इमलोटा , ऊण , रानीला , रावलधी , लूलोढ़ , लूखी , कनीना , पौली , जुलाना , जींद , नरवाना , बारवास , हरियावास , चेहड़नांगल , आर्यनांगल आदि ग्रामों में चारों ओर इन पाठशालाओं की धूमधाम थी। 

         इनके आदर्श अध्यापक राजेराम , कुन्दनसिंह , भूपसिंह , शिवराम , नानकचंद , फतेहसिंह , बनारसीदास , दीपचंद , लज्जेराम , कलवन्तसिंह , मांगेराम आर्य , हजारीलाल ( कर्मवीर वैद्य ) , दीपचन्द , रामस्वरूप , पंडित शिवकरण , पंडित सोहनलाल , हरिसिंह , सूबेराम आर्य , रामस्वरूप आर्य , रणसिंह आर्य , चौधरी सोहनलाल आर्य आदि सैंकड़ों अध्यापक थे जो इस शिक्षा यज्ञ को राष्ट्रीय धर्म समझकर भूखे प्यासे रहकर चला रहे थे। इनकी साधना ने शिक्षाप्रसार और आर्यसमाज के प्रचार को चार चांद लगादिए। ढाणी , बीसलवास , रावलधी , इमलोटा , डालावास , भागवी आदि अनेक पाठशालाएं तो गुरुकुल ही बने हुए थे। इन्हीं देशभक्त आर्य अध्यापकों ने देशभक्ति का प्रचार करके प्रजामण्डल की स्थापना की। इनमें से फतेहसिंह आर्य , बनारसीदास गुप्त , हजारीलाल ( कर्मवीर ) आदि अनेक अध्यापक जेलों में भी गए। 

       इन्हीं अध्यापकों ने कन्या गुरुकुल पंचगांवा , आर्यसमाज स्कूल लोहारू , आर्यसमाज लूलोढ , आर्यसमाज लूखी आदि में एक दर्जन से अधिक पाठशालाएं , स्कूल आदि की स्थापना की। ये अध्यापक दिन में पढ़ाते थे , रात्रि में आर्यसमाज और शिक्षा का प्रचार करते थे। दादरी में प्रजामण्डल की स्थापना करके जींद के राजा की तथा नवाब लोहारू की नींद हराम करदी थी। ये अध्यापक देशभक्ति के भजन , कविता बनाकर और गा गाकर प्रचार करते थे।

   भारत को छोड़ जाए यह गर्वनमैंट हत्यारी। 
   मांगेराम कथना करें और अनुमोदन करे हजारी।। 

     ' भारत छोड़ो ' का नारा इन अध्यापकों ने कांग्रेस से भी पहले लगा दिया था। पंडित रामरिछपाल , चौधरी मनसाराम ने आर्यसमाज तथा प्रजामण्डल के प्रचार खूब सहयोग दिया। चौधरी मंगलाराम जी नम्बरदार डालावास तथा चौधरी नत्थाम नम्बरदार बडेसरा ने अंग्रेजों की नम्बरदारी छोड़कर आदर्शभक्ति का परिचय दिया। चौधरी मनसाराम ने भूमि दान दी तथा मंगलाराम ने ५०००० ईंटें देकर कन्या गुरुकुल पंचगांवा डालावास की स्थापना की जो चौधरी भरतकुमार शास्त्री ने सेवाकर अनेक वर्षों तक चलाया। स्वामी ईशानन्द जी , स्वामी कर्मानन्द जी , पंडित समरसिंह वेदालंकार , ठाकुर भगवन्तसिंह , पंडित भरतसिंह आर्य , वैद्य दुलीचन्द ने भी आर्यसमाज के प्रचार में खूब बल लगाया। आर्यसमाजी अध्यापक रात्रिपाठशाला चलाकर हाली - पाली आदि प्रौढ़ों में शिक्षा का प्रचार करते थे। धर्मार्थ औषधालय चलाते थे। ईसाई , मुसलमान , पौराणिकमतों के पाखंड का खण्डन करते थे। लाला लाजपतराय तथा देवतास्वरूप भाई परमानन्द , स्वामी स्वतंत्रानन्द , स्वामी आत्मानन्द , स्वामी दर्शनानन्द , स्वामी श्रद्धानन्द , पंडित लेखराम आदि आर्यनेताओं ने भी हरयाणाप्रति का विशेष ध्यान रखा। इन सबकी कृपा से प्रोफेसर रामसिंह एम.ए. , पंडित हरिश्चन्द्र विद्यालंकार , पंडित प्रियव्रत वेदवाचस्पति , पंडित समरसिंह वेदालंकार , पंडित व्यासदेव शास्त्रार्थमहारथी आदि अनेक प्रकाण्ड पंडित और विद्वान् हरयाणा से आर्यसमाज को मिले। हजारों अध्यापक , शास्त्री , आचार्य , उपदेशक , सुधारक राष्ट्रीयशिक्षा के प्रचार के रूप में हरयाणा में उत्पन्न हुए। जितने भी सुशिक्षित पढ़े - लिखे समाजसुधारक राजनैतिक नेता हमारे से पहली पीढ़ी में हुए उनमें से अधिकतर सब आर्यसमाज की देन हैं। हरयाणा में जो शिक्षासंबंधी धार्मिक और राष्ट्रीयजागृति हुई , उसका भी सबसे अधिक श्रेय आर्यसमाज को है। 

         राष्ट्रवादी महर्षि दयानन्द के राष्ट्रीयशिक्षा के रंग में रंगे हुए शिष्य देश - विदेश , द्वीप - द्वीपान्तरों में जहां कहीं भी गए , सर्वत्र हलचल मचगई और राष्ट्रीयशिक्षा का प्रचार और प्रसार किया । मारिशस - अफ्रीका , फिजी - इण्डोनेशिया , ब्रिटिश , गयाना , कनाडा आदि देशों में सर्वत्र वेद धर्म और भारतीयसंस्कृति के प्रचार का श्रेय आर्यसमाज को ही है। अब किन्हीं कारणों से कहीं - कहीं प्रचारकार्य में शिथिलता आई दिखाई देती है।

Friday, May 21, 2021

दलितों के महान उद्धारक: मास्टर आत्माराम अमृतसरी


 


दलितों के महान उद्धारक:  मास्टर आत्माराम अमृतसरी 


डॉ विवेक आर्य 


मास्टर आत्माराम अमृतसरी का नाम आपने दलितों के उद्धारक के रूप में शायद ही सुना होगा। कारण दलित मुद्दों पर राजनीति करने वालों को उनके नाम से वोट नहीं मिलते। इसलिए दलित साहित्य, लेखन, प्रकाशन आदि से उनका नाम नदारद हैं। यहाँ तक की कभी उनके नाम पर किसी दलित चेयर से किसी विश्वविद्यालय में कोई गोष्ठी तक होती नहीं सुनी जाती। जबकि जिन लोगों का तुच्छ सा योगदान था उनका महिमा मंडन बढ़ा चढ़ा कर किया जाता हैं। आत्माराम अमृतसरी कौन थे? आपका जन्म अमृतसर में 1866 को हुआ था। आपके पिता जी संपन्न तहसीलदार थे। दसवीं कर आप लाहौर चले गए। वही आपका परिचय पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी जी से हुआ था। विद्यार्थी जी ने कहा कि जाति लिखना रूढ़ि है। यह गुण कर्म का बोधक नहीं है। उन्हीं के प्रभाव से आपने अपने गोत्र 'महेश्वरी' को हटाकर उसके स्थान पर अमृतसरी कर दिया था। 1891 में आपको सरकारी नौकरी का प्रस्ताव आया तो वह भी आपने गुरुदत्त जी  के प्रभाव से अस्वीकार कर आर्य संस्थाओं में नौकरी करना स्वीकार किया।   


बरोडा नरेश सयाजीराव गायकवाड़ आर्य विचारधारा के नरेश थे। आप स्वामी दयानन्द के क्रांतिकारी चिंतन से प्रेरित होकर दलितों के उद्धार के लिए प्रयासरत रहते थे। गुजरात के कट्टरपंथियों के कारण आपको सफलता नहीं मिल रही थी। इसलिए आपने स्वामी नित्यानंद को बरोडा प्रवास के समय किसी योग्य व्यक्ति को बरोडा भेजने के लिए आवेदन किया।  आपने कहा कि 'मैं चाहता हूँ कि मेरे राज्य में एक भी अछूत न रहे परन्तु यहाँ की ऊँची जाति वाले इसमें सहयोग नहीं देते और ये ईसाई और मुसलमान बनते जा रहे हैं। मुझे ऐसा हिन्दू उच्च जाति का कोई नहीं मिलता जो इनमें काम करे। पर धर्मी तो काम धर्म परिवर्तन के लिए ही करते है।' स्वामी जी ने महाराज को आश्वासन दिया और पंजाब जाकर मास्टर आत्माराम जी को योग्य समझकर बरोडा जाने की सलाह दी और सयाजी को सहमति मिलने पर सूचित कर दिया। लाहौर में मास्टर जी का भाषण महाराज ने सुन रखा था और उनसे प्रभावित भी थे।  सितम्बर 1909 में मास्टर जी पत्नी के संग पंजाब से चलकर बरोडा पहुंच गए। मास्टर जी पंजाब में रहतियों की शुद्धि कर चुके थे। रहतियें कहने को सिख थे मगर अछूत समझे जाते थे। आर्यसमाज ने जब उन्हें शुद्ध किया तो मास्टर से सबसे आगे बढ़कर उनके  हाथ से जल ग्रहण करने वाले थे। मास्टर जी की बिरादरी ने उनका इस कारण से बहिष्कार भी कर दिया था पर वे अडिग रहे। जीवन के आरम्भ काल से ही शुद्धि का काम, अछूतोद्धार, विधवा विवाह तथा सामाजिक कुरीतियों का प्रतिवाद उनके जीवन का महत्वपूर्ण अंग था। इसीलिए आपने अपनी संतानों के विवाह सम्बन्ध भी बिरादरी के बाहर किये। 


आपको बरोडा में अन्त्यजों (दलितों) के लिये आश्रम और पाठशालाएं खोलने का कार्य मिला। आप गुजरात में नये थे। यहाँ के रहन सहन, रीति रिवाज, भाषा  से अनभिज्ञ  और आपको काम मिला अनेक वर्षों से पीड़ित और दबाई जा रहे समाज के अंग का पुनरुद्धार। यह कार्य  बरोडा के शहर में नहीं अपितु ग्रामों में करना था। जहाँ पर निरक्षरता और सामाजिक पतन शहरों से अधिक होता हैं। स्वामी दयानन्द का यह शिष्य बिना निराशा के अपने कार्यों में लग गया। कार्य करते समय लोग इन्हें ढेढों (दलितों) के मास्टर आये अत: छुआछूत  सरकारी धर्मशाला में भी ठहरने नहीं देते थे। इनके कर्मचारियों को कुएँ से पानी नहीं भरने देते थे। इन पर पत्थर फेंके जाते और कोई इनसे व्यवहार नहीं करता था। इतनी परेशानियों के  बाद भी आपने महाराज से कभी इसकी शिकायत नहीं की क्योंकि आप बंजर भूमि को सींचने आये थे। बरोडा में आपने आश्रम जहाँ खोला था पहले वह स्थान भूतियाँ बंगले के नाम से प्रसिद्ध था। कोई  इस स्थान पर जाता नहीं था। इसलिए मास्टर जी ने इसी स्थान पर आश्रम खोलने का विचार बनाया। 


पुरुषार्थ से मास्टर जी ने राज्य में चार बड़े आश्रम और 300 शालाएं खोली। आप स्वयं बरोडा स्थित आश्रम के सुपरिटेंडेंट और 300 शालाओं के 'एजुकेशनल इंस्पेक्टर फॉर डिप्रेस्ड क्लास' नियुक्त हुए। आप इनमें पढ़ने वाले दलित बालकों द्वारा माता जी और पिताजी के नाम से सम्बोधित किये जाते थे। छोटे-बड़े, ऊंच-नीच सभी यह अनुभव करते थे कि पंडित जी की उनके प्रति अगाध सहानुभूति है। सयाजीराव ने अपनी पाठशालाओं में हिंदी को अनिवार्य किया था। यह उनका राष्ट्रभाषा के प्रति प्रेम था। मास्टर जी के प्रेम से बालकों ने  गुजराती भाषी होते  हुए भी जल्दी ही हिंदी को अपना लिया। 


मास्टर जी द्वारा खोले गए अत्यंज वसतिगृह में मुख्य रूप से जुलाहे समाज के बच्चे बड़ी संख्या में प्रविष्ट हुए थे। कुछ वर्षों के पश्चात एक भंगी कहलाने वाले समाज की कन्या प्रविष्ट हुई। इसका ऐसा प्रभाव और परिणाम हुआ कि सब छात्र-छात्राओं तथा रसोइयों ने विरोध किया और खाना बंद कर दिया। मास्टर जी   उनके ऐसे रवैये को देखकर तनिक भी विचलित नहीं हुए और उस कन्या को अपने घर में रख लिया। फिर उन्हें समझाया कि स्वच्छता मनुष्य के अछूतपन को दूर करती है। किसी के माथे पर जन्म से ऊंच-नीच का भेदभाव या जाति लिखी नहीं आती। उनकी पाठशालाओं में सभी सेवक अछूत समाज से ही होते थे। 


प्रभु भक्ति, नित्य संध्या, हवन प्रार्थना, भजन आदि आपके जीवन के अभिन्न अंग थे। इसलिए आपने इनको दलित बालकों में खूब प्रचारित किया। जब लोग यह मानते थे कि स्त्री और शूद्र वेद मंत्र न पढ़े , न सुने और न ही बोले तब आपने दलित लड़के-लड़कियों को वेद मन्त्रों का शुद्ध उच्चारण और गीता पाठ सिखाया। बड़े-बड़े विद्वान, सनातनी पंडित  उच्चारण सुनकर दंग रह जाते थे। आपकी संतान भी आपके समान दलितों के उद्धार कार्य में लगी। आपके अनेक दलित शिष्य पढ़कर बड़े बड़े पदों पर आसीन हुए। स्वयं महात्मा गाँधी ने बरोडा स्थित अत्यंज वसतिगृह को जब देखा तो उनके कार्यक्रम में दलितोद्धार शामिल हो गया।  मास्टर जी को महाराज ने पहले 'पंडितजी', फिर 'राज्यरत्न' और बाद मैं 'राजमित्र' की उपाधि से सम्मानित किया था। 


महाराजा छत्रपति शाहू कोहलापुर बरोडा के महाराज के सम्बन्धी थे।  जब आप बरोडा आये तो मास्टर जी के कार्यों को देखा तो उन्हें कोहलापुर आमंत्रित किया। महाराज ने आपको धर्मगुरु माना।  आपने कोहलापुर जाकर आर्यसमाज की संस्थाएं खोली एवं वहां के स्कूल और कॉलेज में वैदिक धर्म शिक्षा को प्रविष्ट करा राजाराम कॉलेज को आर्यसमाज को हस्तगत करा के वापिस बरोडा में प्रवेश किया।     


एक बार बरोडा के विद्याधिकारी एक अंग्रेज नियुक्त हो गए। आपको शिकायत मिली कि पंडितजी गाँवों में  इंस्पेक्शन करने जाते हैं, तब आर्यसमाज का भी प्रचार करते हैं और ईसाईयों तथा मुसलमानों का विरोध करते हैं। विद्याधिकारी ने पंडित जी को मना किया तो पंडित जी ने कहा आप भी तो सरकारी नौकर होते हुए हर रविवार  को चर्च में जाते हैं। अंग्रेज ने कहा कि मैं प्रचार नहीं करता। पंडित जी ने उत्तर दिया कि मैं भी तो रविवार को जिस गांव में होता हूँ वहां आर्यसमाज का सत्संग कर लेता हूँ। 


एक  बार बरोडा नरेश ने बिना सुचना दिए प्रो. शिंदे को अत्यंज वसतिगृह देखने भेज दिया। यहाँ की उत्तम व्यवस्था, साफ सफाई और रसोई घर देखकर आप चकित हो गए। आपने जाकर देखा कि हरिजनों के बच्चें वेदमंत्र और शुद्ध गायत्री पाठ सुनकर प्रसन्न हो गए। आपने महाराज को लौटकर कहा कि,' आपका अंतज्यों के उद्धार का स्वप्न पूरा हो रहा है। " ऐसे ही संत निहालचंद, सेठ घनश्याम दास बिड़ला महात्मा गाँधी आदि इनके प्रशंसक थे। 


मास्टर जी ने जो सेवा दलितों की गुजरात की धरती पर की उसका दूसरा उदाहरण हमें नहीं मिलता। खेद है कि उनका नाम विस्मृत कर दिया गया। 

Thursday, May 20, 2021

भक्ति मार्ग और वेद


 


भक्ति मार्ग और वेद 


डॉ विवेक आर्य

 

अध्यात्म क्षेत्र में आजकल दो मार्ग प्रचलित है।  एक भक्ति मार्ग और दूसरा उपासना मार्ग। भक्ति का अर्थ है सेवा या सेवा का मार्ग। इस मार्ग में बाहरी साधनों से स्वामी को प्रसन्न करना उद्देश्य है। उपासना का अर्थ है समीप बैठना। उपासना में अपने को योग्य गुणवान बनाना अर्थात उपास्य के गुणों को धारण करना है। जैसे जैसे भक्ति मार्ग का अध्यात्म क्षेत्र में प्रचलन हुआ वैसे वैसे ईश्वर का अवतार मानना आरम्भ कर दिया। ईश्वर की मूर्तियों की पहले कल्पना करना फिर उन मूर्तियों को नहलाना, वस्त्र पहनाना, चन्दन तिलक लगाना, फूलमाला पहनाना, पालने में झुलाना, भोग लगाना, वस्त्र पहनाना आदि चल पड़ा। इस प्रकार से सेवा करने का नाम भक्ति मार्ग है। ईश्वर को ऐसी भक्ति की कोई आवश्यकता नहीं।  वह अपनी सेवा के लिए दूसरों के अधीन नहीं है। वह बाहरी आडम्बरों से प्रसन्न होने वाला नहीं है। वेदों में भक्ति मार्ग का विधान ही नहीं है। भक्ति शब्द वेदों में दो स्थलों पर आया है-


    

देव संस्फान सहस्रापोषस्येशिषे ।तस्य नो रास्व तस्य नो धेहि तस्य ते भक्तिवांसः स्याम ॥ अथर्ववेद 6/79/3 अर्थात हे संवर्धक देव! तू पुष्टिकारक समृद्धिकारक धन का स्वामी है। उस धन को हमें दे। उस धन को हमें धारण करा। तेरे उस धन के हम भागी हों। यहाँ  'भक्तिवांसः' वस्तुरूप पदार्थ को दर्शा रहा है। इसका सेवा भक्ति मार्ग से कोई सम्बन्ध नहीं है। 


दूसरा स्थल देखिये-


इदा हि व उपस्तुतिमिदा वामस्य भक्तये । उप वो विश्ववेदसो नमस्युराँ असृक्ष्यन्यामिव ॥ ऋग्वेद 8/27/11 अर्थात हे सब कुछ धन वाले देवो विद्वानों! मैं अंत धन का इच्छुक सम्प्रति तुम्हारे वननीय धन के भाग लाभ के लिये तुम्हारी अब अपूर्व गुण कीर्ति करता हूँ। 


यहां पर भक्ति का अर्थ लाभ दर्शाया गया है जिसका भक्ति मार्ग से कोई सम्बन्ध नहीं है। 


इस प्रकार से वेदों में कहीं भी भक्ति मार्ग  का वर्णन नहीं है। 


मध्य काल में वेदों की शिक्षा का ह्रास होने पर भक्ति मार्ग प्रचलित हुआ। जैसे गीता का यह श्लोक देखिये-



अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् । साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥9/30 अर्थात कृष्ण जी कहते है कि  चाहे बहुत दुराचारी भी हो परन्तु यदि वह अन्य को छोड़कर मुझे भजता हो तो उसे साधु सज्जन ही मानना चाहिए। 


अब इस श्लोक को आधार बनाकर भक्त अजामिल की कथा कल्पित कर ली गई। अजामिल व्यभिचारी था। उसने अपने पुत्र का नाम नारायण रखा था। जब काल के दूत  उसे लेने आये तो उसके मुख से उसके पुत्र का नाम नारायण निकला। यह सुनकर साक्षात नारायण उसे यम के दूतों से बचा गोलोक ले गए।  जन्म-मरण व्यवस्था ईश्वर अंतर्गत है और साक्षात नारायण का इतने अज्ञानी है जो यह भी समझ रहे कि यह उनका नाम स्मरण कर रहा है अथवा अपने पुत्र का। जबकि वेद कहता है कि ईश्वर को यह तक ज्ञात है कि मनुष्य अपने जीवन में कितनी बार आँखों की पलकें झपकता हैं। ऐसी ही अनेक वेद विरुद्ध कहानियां कल्पित  कर दी गई।  


एक अन्य उदहारण देखिये -


पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति । तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥ 9/26 अर्थात कृष्ण जी कहते है कि पत्ता, फूल, जल जो मेरे लिये भक्ति से देता है। उस भक्ति से भेंट किए हुए को मैं यत्न से खाता हूँ।  ऐसा प्रतीत होता है कि इस श्लोक के गीता में मिलाने के पश्चात मूर्तियों पर फल, फूल, जल, पत्ते आदि चढ़ाने का प्रपंच आरम्भ हुआ।  


भक्ति मार्ग के समर्थकों ने अनेक नवीन उपनिषद् मुक्तिकोपनिषत् कल्पित कर दी। एक उदहारण देखिये-


  दुराचाररतो वापि मन्नामभजनात्कपे ॥सालोक्यमुक्तिमाप्नोति न तु लोकान्तरादिकम् । काश्यां तु ब्रह्मनालेऽस्मिन्मृतो मत्तारमाप्नुयात् ॥ 18-19  अर्थात हनुमान से  राम कहते है कि ' हे हनुमान दुराचार में रत हुआ मनुष्य भी मेरा नाम भजने से सालोक्य मुक्ति को प्राप्त होता है।  अन्य लोक लोकांतर में नहीं जन्मता और काशी में ब्रह्मनाल स्थान में मरा हुआ मेरी शरण पाता है। यह ब्रह्मनाल काशी करवट अर्थात एक कुआँ था जिसमें जीवित मनुष्य आरे से काट बलि  कर दिया जाता था। 

पूरी रामायण में श्री राम ने कहीं भी अपने नाम को भेजने का सन्देश नहीं दिया है। जबकि वैदिक सिद्धांतों के अनुसार उपासना मार्ग में दुराचार सर्वथा वर्जित है।  जैसे- नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः । नाशान्तमानसो वाऽपि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ॥ कठोपनिषद 1/2/24 अर्थात दुराचार से जो हटा नहीं। वह प्रज्ञा द्वारा भी इसे नहीं पा सकता। 


भक्ति मार्ग के समर्थक बहते बहते गीता में वेदों की भी निंदा कर गये।  उदाहरण देखिये 


नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया ।शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा ॥

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ।ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप ॥ 11-53,54 अर्थात कृष्ण जी कहते है कि हे अर्जुन! मैं वेदों के पढ़ने जानने से, तप से, दान से और यज्ञ से देखा या जाना नहीं जाता। जैसा की तूने मुझे देखा है किन्तु केवल मेरी एक अनन्य भक्ति से ही इस प्रकार यथार्थ जानने देखने और प्रवेश करने योग्य हूँ। 


यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥ गीता 12/17 अर्थात पुण्य -अपुण्य या धर्म-अधर्म को छोड़कर जो भक्ति करने वाला है।  वह मेरा प्यारा है। पाठक स्वयं विचार करे भला धर्म और पुण्य को छोड़ने से ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है क्या?


भक्ति मार्ग के मानने वाले अनेक बार अति उत्साह में अनेक वेद विरुद्ध कृत्य भी कर देते है।  जिन्हें बुद्धि स्वीकार नहीं करती। जैसे गीता प्रेस गोरखपुर से स. २००६ में प्रकाशित 'श्रीरामचरित मानस' के तृतीय संस्करण में श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार ने 'गोस्वामी तुलसीदास जी की संक्षिप्त जीवनी' नामक प्रकरण में लिखा हैं-


'पंडितों को इस पर भी संतोष न हुआ। तब पुस्तक की परीक्षा का एक और उपाय  सोचा गया। भगवान् विश्वनाथ के सामने सब से ऊपर वेद, उस के नीचे शास्त्र , शास्त्रों के नीचे पुराण और सब से नीचे रामचरित मानस रख दिया गया। मंदिर बंद कर दिया गया। प्रात: काल जब मंदिर खोला गया तो लोगों ने देखा कि श्री राम चरित मानस वेदों के ऊपर रखा हुआ है।  अब तो पंडित लोग बड़े लज्जित हुए। उन्होंने तुलसीदास जी से क्षमा मांगी और भक्ति से उनका चरणोदक किया। '


यही कल्याण का मानस अंक के रूप में भी प्रकाशित हुआ। इसकी भूमिका में श्री अञ्जनीनंदनशरण यही कहानी दोहराते है। अब ऐसी कल्पनाओं पर कोई बुद्धिमान तो विश्वास नहीं कर सकता। हाँ अंधभक्त बनकर बहे जाओ। तो उसका कोई समाधान नहीं हैं।  एक अन्य उदाहरण लीजिये-


एक बार बरेली में कीर्तन और सत्संग हो रहा था। एक पंडित जी ने राम नाम कीर्तन की महिमा बताते हुये कहा कि वेद मंत्र पढ़ने में यदि अशुद्धि हो गई तो नाश हो जायेगा। ऐसा महाभाष्य में लिखा है कि स्वर या अक्षर से बिगड़ा अशुद्ध शब्द ठीक अर्थ नहीं देता है।  वह वाक वज्र  होकर यजमान का नाश करता है जैसे कि इंद्र शत्रु शब्द स्वर के अपराध से वृत्र मारा गया। इससे वक्त ने सिद्ध किए कि वेद मन्त्र जैसे गायत्री आदि नहीं पढ़ने चाहिये। हाँ राम नाम का जाप और गोपीवल्लभ राधेश्याम का कीर्तन आदि करना चाहिये क्योंकि इससे अशुद्ध बोलने से भी हानि नहीं। क्योंकि 


उल्टा नाम जपा जग जाना। वाल्मीकि भये ब्रह्मा समाना। तुलसीदास की इस चौपाई से यह निष्कर्ष निकाला गया कि मरा या राम कहने से ही सिद्धि हो जाती है। 


 अब आप बताये कि इन गपोड़ों से श्रद्धाजड़ हिन्दू जनता की वेद के प्रति भक्ति बढ़ेगी या घटेगी। एक अन्य प्रपंच भक्ति मार्ग के समर्थन करने वालों ने रचा। धन दीजिये और पाठ करवायें। प्रचलित यह कर दिया गया कि यजमान अपने पुरोहित अथवा कथा बाचने वाले को पारिश्रमिक देकर अपने लिये गायत्री मन्त्र, दुर्गापाठ आदि का पाठ कराता हैं। लोभी पाठकर्ता उसे यह विश्वास दिलाता है कि हमारे इस पाठ का फल तुमको मिलेगा। यह एक प्रकार के धंधा है। वेद में लिखा है-

स्वयं वाजिस् तन्वं कल्पयस्व स्वयं यजस्व स्वयं जुषस्व । महिमा ते ऽन्येन न संनशे ॥ यजुर्वेद  23.16 अर्थात हे ज्ञानी मनुष्य! अपने विस्तार को आप समर्थ कर। स्वयं यज्ञ कर और स्वयं उसका फल प्राप्त कर। तेरा महत्व तुझे दूसरे के द्वारा प्राप्त नहीं हो सकता।  मनु जी कहते है


आर्षं धर्मोपदेशं च वेदशास्त्राविरोधिना ।यस्तर्केणानुसंधत्ते स धर्मं वेद नेतरः ।12/106 अर्थात जो तर्क से खोज करता है।  वही धर्म का रहस्य जान सकता है।  दूसरा नहीं।  


अब एक शंका हमारे समक्ष आती है कि अगर भक्ति गलत है तो फिर भक्ति संतों ने इसका क्यों प्रचार किया? इस शंका का उत्तर यह है कि भक्ति काल जिस समय हमारे देश में हुआ उस समय हमारे यहाँ मुस्लिम राज था। पठन-पाठन की सारी व्यवस्था जीर्ण शीर्ण हो चुकी थी। ऐसे में कुछ सरल हृदय महापुरुषों को आत्मिक प्रेरणा से जो तात्कालिक परिस्थितियों को देखकर समुचित लगा उन्होंने उसका अनुसरण किया। मुस्लिम मार से चोट खाई जनता को यह मार्ग भी एक मरहम के समान आंशिक सुख देने वाला था। इसीलिए भक्ति मार्ग का बहुत प्रचार हुआ। 


वैदिक मान्यताओं के अनुसार ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करनी चाहिए। स्वामी दयानन्द के अनुसार जो ईश्वर वा किसी दूसरे पदार्थ के गुण, ज्ञान, कथन, श्रवण और सत्य भाषण करना है। वह स्तुति कहाती है। अपने पूर्ण पुरुषार्थ के उपरान्त उत्तम कर्मों की सिद्धि के लिए परमेश्वर वा किसी सामर्थ्य वाले मनुष्य के सहाय लेने को प्रार्थना कहते हैं। जिससे ईश्वर ही के आनन्द में अपने आत्मा को ना होता है उसको उपासना कहते हैं। स्तुति से मनुष्य की प्रीति ईश्वर में बढ़ती है, उसका ईश्वर में विश्वास होता है और ईश्वर के गुणों का स्मरण करने से उसके गुण, कर्म और स्वभाव में सुधार होता है। प्रार्थना से मनुष्य में निर अभिमानिता आती है और आत्मबल बढ़ता हैं। उपासना से परमात्मा का समीप्य और साक्षात्कार होता हैं। मनुष्य में कष्ट सहन की शक्ति बढ़ जाती है। वह बड़ी से बड़ी आपत्ति में नहीं घबराता, वह मृत्यु के मुख में भी शांत रहता है।


कुछ लोग शंका करेंगे कि आप भक्ति काल के संतों को प्रमाण नहीं मानते तो फिर आप स्वामी दयानन्द को प्रमाण कैसे मानते है? स्वामी दयानन्द को हम प्रमाण इसलिए मानते है क्योंकि उन्होंने जो कुछ कहा वह उनका निज मत नहीं था अपितु वह वेद का मत था। स्वामी जी स्पष्ट रूप से घोषणा करते है कि 'अब जो वेदादि सत्यशास्त्र और ब्रह्मा से लेकर जैमिनी-मुनि पर्यन्तों के माने हुये ईश्वरादि पदार्थ हैं। जिनको मैं भी मानता हूं सब सज्जन महाशयों के सामने प्रकाशित करता हूं। (स्वमन्त० प्रकाश) इसलिए स्वामी जी का मत वेद का मत होने से स्वीकार्य है।  


अंत में मैं वीतराग स्वामी सर्वदानन्द जी का एक उदाहरण देकर अपनी  समाप्त करूँगा। स्वामी जी कहा करते थे कि हम रात्रि में दीपक आदि से प्रकाश करते हैं।  जैसे ही सुबह होती है। हमें दीपक आदि अनावश्यक लगने लगते है क्योंकि सूर्य का प्रकाश हो जाता है।  इसी प्रकार से मत-मतान्तर आदि वेद विरुद्ध तभी प्रकट होती है।  जब वेद रूपी सूर्य के ज्ञान का प्रकाश नहीं होता।  इसलिए जैसे ही वेद के ज्ञान का प्रकाश होगा। वेद विरुद्ध मत मतान्तरों का लोप स्वयमेव हो जायेगा। इसलिए वेदों के प्रचार में अपना पूर्ण पुरुषार्थ करो। 


Hinduism has no provision for teaching the beauties of Hinduism


• Hinduism has no provision for teaching the beauties of Hinduism •

• One of the reasons why Christianity is increasing in India ? •
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- Pandit Ganga Prasad Upadhyaya

Hinduism has no provision for the teaching of the beauties of Hinduism. Even so-called higher castes are as ignorant. Take any unit of a ten thousand educated and enlightened Hindus, respected and respectable, and ask them about the Vedas. Hardly ten will say that they have ever seen the Vedas and hardly one that he has read any portion of them. No Hindu homes have the Vedas, and if any has, they are more the object of worship than of reading. If you ask them the essentials of Hinduism, they will scratch their head and look vacantly at you. Essentials? What does it mean? Are we not Hindus? Why? Because born in a Hindu home. They have seen the Hindu priest visit their houses on auspicious occassions. That is all.

The educational institutions of the Hindus are of two kinds. The first and foremost in number and importance are Anglo-Vernacular or Vernacular schools in which for reasons too well-known not only no religious instructions are imparted, but at the same time efforts are made to create in the minds of the young students a contempt for religion and God. For several generations the ordinary educated Indian has been breathing in the atmosphere of irreligion and materialism and even the old marks of old tradition are fast vanishing in Hindu homes. Upto a few decades ago, female education was absent or very rare among the Hindus. This was by itself a very bad thing. But this evil also had a bright aspect. It kept the old religious ideas alive. When males forgot all about their ancient culture, their women-folk, though ignorant and superstitious, and therefore quite ignorant of the spirit of religion, at least kept intact the form, though of course, a soulless form. Something was better than nothing. But now with the spread of modern education, what ever was left has also been swept away and nothing better has taken its place. The second type of institutions is Sanskrita Pathshalas. They are attended by a very infinitesimally small population- mostly a few old and orthodox Brahman families. You may, perhaps, say that at least these Brahmans or Sanskrit students know their religion. But that is not the case. Our Sanskrita Pathshalas concentrate their main attention to the Sanskrita Grammar, which is too dry to protect our culture from decay or foreign onslaughts. Our Pandits are as ignorant of the spirit of religion as uneducated persons. They do keep a form, but that form is quite useless or practically useless. There are no Pathshalas to teach Vedic Dharma. If there is any Sanskrita Pathshala where the Vedas are taught, it means nothing more than to memorize parrot-like a few Veda mantras or to learn to recite them at the Homas without understanding them. To recite a few formulas blindly is no teaching of religion. It cannot ennoble our life. It cannot imbibe us with spirituality. It cannot resist foreign onslaughts. It is why our so called Pandits have been either careless about or too weak to meet the alien religionists on their own ground. So much has been written against Vedic religion by Moslems and Christians and not a finger has ever been raised. Several English translations of Hindu religious books, done with the help or under the influence of Banares Pandits contain most damaging, and foully unfair remarks which have never been challenged or contradicted. When our youths receive only one sided notions about our religion and culture, it is but natural that they should be susceptible to alien influences and fall victim to foreign snares.

[Source: Christianity in India, second end, 1956, p. 132-135, presented by: Bhavesh Merja]