Monday, December 21, 2020

गुरुद्वारा रकाबगंज और दिल्ली विजेता बघेल सिंह


 


गुरुद्वारा रकाबगंज और दिल्ली विजेता बघेल सिंह 


डॉ विवेक आर्य 

प्रधानमन्त्री मोदी जी गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान दिवस के अवसर पर रकाबगंज गुरुद्वारा गये और गुरु परम्परा के प्रति अपनी श्रद्धा व सम्मान व्यक्त किया। मीडिया में यह चर्चित हुआ।इसे लोगों ने अपने अपने नजरिये से देखा। अपने देश से प्यार करने वालों और गुरुओं के प्रति सम्मान की भावना रखने वालों के लिये इस ऐतिहासिक गुरुद्वारे के इतिहास को जानना जरूरी है।यह स्वयं एक महान गुरु और सच्चे नेता को मतान्धता के विरुद्ध अपने प्राण न्यौछावर करने के लिए दी गयी श्रद्धांजलि की यादगार है। उस बलिदान को भुला देना कृतघ्नता की पराकाष्ठा है। 
गुरूजी के बलिदान की महिमा को शब्दों में वर्णित करना असम्भव है। इस्लामिक कट्टरवाद के कारण आलमगीर का ओहदा जिसके नाम के साथ लगा था, जिसने अपने सगे भाइयों को सत्ता के लिए मरवा दिया और अपने बूढ़े बाप को बंदी बनवा दिया था, जिसके केवल एक बार के दौरे में पंजाब की धरती लहूलुहान हो गई थी, जो गैर मुसलमानों से इस हद तक नफरत करता था कि उनकी शक्ल तक देखना हराम समझता था, जो अपने आपको मुल्ला-मौलवियों के सामने सच्चा मुसलमान सिद्ध करना चाहता था, जिसने अपने पूर्वज अकबर की बनाई राजपूत सन्धि को तार-तार कर दिया था, जिसके लिए हिन्दुओं के मंदिर तोड़ना, ब्राह्मणों के जनेऊ तोड़ना, हिन्दुओं को पकड़कर उनकी सुन्नत कर कलमा पढ़वाना दीन के सेवा था, जो अपनी खुद के पुत्रों पर कभी विश्वास नहीं करता था क्योंकि वह सोचता था कि कहीं वे भी उसे न मरवा दे, जो हिन्दुओं की तीर्थ यात्रा में जाने वाले साधुओं तक से कर वसूलता था, जिसके लिए होली-दिवाली जैसे त्यौहार हराम थे, उस औरंगजेब के सताए कश्मीरी हिन्दुओं की धर्मरक्षा के लिए अपने प्राणों को आहूत करने वाले गुरु तेग बहादुर को हिन्द-की-चादर के नाम से श्रद्धा वश सुशोभित किया जाता है। ऐसे नरपिश्चाच औरंगज़ेब को खुली चुनौती देना कि उससे कहो मेरा धर्म परिवर्तन करके दिखा दे। खुलम-खुल्ला मृत्यु को दावत देना था। 

कुछ भटके हुए लोग औरंगज़ेब और गुरु साहिबान के संघर्ष को राजनीतिक संघर्ष कहते हैं। अगर यह संघर्ष विशुद्ध रूप से राजनीतिक होता तो औरंगजेब उनके सामने दो ही विकल्प क्यों रखता?  एक इस्लाम स्वीकार करो और दूसरा सर कटवाओ। गुरु जी ने अपने पूर्वजों की धर्म मर्यादा का सम्मान करना स्वीकार दिया और प्राण दान दे दिया। वो जानने थे कि उनके बलिदान की प्रेरणा से यह भारत भूमि ऐसे महान सपूतों को जन्म देगी जो आततायी औरंगजेब के क्रूर शासन की ईंट से ईंट बजा देंगे। इतिहास इस बात का साक्षी है कि यही हुआ। संसार का सबसे शक्तिशाली शासक औरंगज़ेब अपने कुशासन से इतनी चुनौतियों से घिर गया कि बुढ़ापे में उसे अपने साम्राज्य के टूटने की आहत महसूस होने लगी। ऐसा उसने अपने बेटों को लिखे खत में दर्शाया है। पंजाब से सिखों और खत्रियों, संयुक्त प्रान्त और प्राचीन हरियाणा से जाटों, राजपूताना से राजपूतों , बुंदेलखंड से बुंदेलों, असम से अहोम, मालवा से सिंधियाँ-होलकरों, महाराष्ट्र से मराठों आदि वीर क्षत्रियों की ऐसी सशस्त्र क्रांति की ज्वाला उठी। उस ज्वाला ने मुग़लों के करीब दो सदी पुराने शासन की नींवें ऐसी हिलाई कि उसका सूर्य सदा के लिए अस्त होकर दिल्ली की चारदीवारियों में कैद हो गया। 

 ऐसे महान गुरु तेग बहादुर को हम नमन करते है। औरंगज़ेब के आदेश पर गुरु जी का कोतवाली के सामने चाँदनी चौक में जल्लाद ने 11 नवंबर 1675 को सर कलम कर दिया। जिस स्थान पर यह पाप हुआ। आज वहां गुरु द्वारा शीश गंज बना हुआ है।  उनके धड़ को हिन्दू लखी बंजारा अपनी जान को खतरे में डालकर उठा लाया और अपने घर में रखकर उसने आग लगा दी। इस प्रकार से गुरूजी का अंतिम संस्कार का किया गया। गुरु जी के सर को भाई जैता जी लेकर आनन्दपुर साहिब किसी प्रकार पहुंचे और उनके सर का अंतिम संस्कार उनके पुत्र गुरु गोविन्द राय द्वारा किया गया। इस घटना के 100 वर्ष बाद 1783 में सिख जनरल बघेल सिंहके नेतृत्व में  का दिल्ली पर कब्ज़ा हो गया। उसने तेलीवाड़ा में  माता सुंदरी और माता साहिब की स्मृति में प्रथम गुरुद्वारा बनवाया। दूसरा गुरुद्वारा जयपुर के महाराज जय सिंह के बंगले के स्थान पर बनाया गया जहाँ गुरु हरी किशन जी कभी रुके थे।  चार अन्य गुरुद्वारे यमुना के घाटों के समीप बनाये गए थे। मजनू का टीला और मोतीबाग में भी दो गुरूद्वारे बनवाये और उनके साथ स्थिर आय वाली संपत्ति भी जोड़ी। 

गुरु तेग बहादुर जी की स्मृति से जुड़े दो स्थल दिल्ली में थे।  एक कोतवाली जहाँ गुरु जी का बलिदान हुआ था दूसरा रकाबगंज जहाँ लखी बंजारा और उनके लड़के ने जान पर खेलकर उनके सर विहीन शव का अंतिम संस्कार किया था। इन दोनों स्थानों पर मुसलमानों ने मस्जिद बना ली थी। बघेल सिंह ने पहले रकाबगंज पर अपना ध्यान लगाया। स्थानीय मुसलमानों में मस्जिद हटाने की भीषण प्रतिक्रिया हुई। उन्होंने मुग़ल बादशाह से इसके विरुद्ध याचिका डाली। उनका प्रस्ताव था कि चाहे पूरी दिल्ली जल कर खाक हो जाये पर ये मस्जिद नहीं हटनी चाहिए। मुग़ल बादशाह ने कहा की उन्हें यह प्रस्ताव पहले लेकर आना चाहिए था और वो सिख जनरल से इस विषय में चर्चा करेंगे। 

बघेल सिंह के अधिकारी ने सूचना दी कि 1 अक्तूबर 1778 को मुसलमानों ने बादशाह को विश्वास में लेकर गुरुद्वारा को तोडा था। बघेल सिंह ने मिलने के लिए मुसलमानों के समूह को बुलाया जिसमें मुल्ला-मौलवी शामिल थे। उन सभी की सूची बनवाई। उनकी सबकी सम्पत्तियों की सूची बनवाई और उन्हें जब्त करने के लिए अपने घुड़सवार भेज दिए।उन्हें एक हफ्ते बाद मिलने के लिए बुलाया। उन्हें जब अपनी गंगा के दोआब में स्थित संपत्ति पर बघेल के घुड़सवार चढ़ते दिखे तो उनके होश उड़ गए। वे भागे भागे बघेल जनरल से समझौता करने आये। बघेल सिंह ने उनसे लिखित रूप में मस्जिद हटाने का प्रस्ताव ले लिया। उस प्रस्ताव को बादशाह के पास भेज दिया और मस्जिद तोड़ने के लिए अपने योद्धा भेज दिए। आधे दिन में 2000 घुड़सवारों ने मस्जिद की एक ईंट भी वहां न छोड़ी। गुरुद्वारा की नींव रखी गई ,गुरुबाणी का पाठ हुआ और कड़ा प्रसाद का वितरण हुआ। 

अब गुरुद्वारा शीशगंज की बारी थी। बघेल सिंह ने सिखों को एकत्र किया। मुस्लिम जनसमूह बादशाह और मुल्ला मौलवियों को दरकिनार कर इकट्ठा हो गया। उन्होंने सिखों से लोहा लेने का मन बना लिया था। एक पानी पिलाने वाली मशकन ने वह स्थान बघेल सिंह को बताया जहाँ पर गुरु जी का बलिदान उसके पिता के सामने हुआ था। उसके अनुसार हिन्दू फकीर पूर्व दिशा की ओर मुख किये मस्जिद की चारदीवाली के भीतर एक चौकी पर विराजमान थे। जब जल्लाद ने उन पर अत्याचार किया था। बादशाह के अधिकारी भी आ गए। उन्होंने मुसलमानों को यह विश्वास दिलाया कि मस्जिद को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया जायेगा। केवल उसकी चारदीवारी को तोड़ा जायेगा। वही हुआ। चारदीवारी गिराई गई। मस्जिद के प्रांगण में गुरुद्वारा की स्थापना हुई। यही गुरुद्वारा आजकल गुरुद्वारा शीशगंज कहलाता हैं। जनरल बघेल सिंह ने इतिहास में वो कारनामा कर दिखाया। जो कोई नहीं कर पाया। सिख संगत जनरल बघेल सिंह की दिल्ली विजय की बात तो करती है पर उनकी इस कूटनीतिक और रणनीतिक विजय की कोई चर्चा नहीं की जाती। क्यों?


(यह लेख सिख इतिहास के महान और प्रामाणिक इतिहासकार हरीराम गुप्ता द्वारा लिखित History of the Sikhs , भाग 3, पृ. 168-169 के आधार पर लिखा गया है)

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