Monday, December 14, 2020

स्वामी दयानन्द: व्यक्तित्व, चिंतन एवं दर्शन

 


स्वामी दयानन्द: व्यक्तित्व, चिंतन एवं दर्शन

डॉ विवेक आर्य

प्रसिद्द राष्ट्रवादी लेखक पुरुषोत्तम द्वारा लिखित पुस्तक 'आधुनिक भारत के चार निर्माता' देखने को मिली। पुस्तक में वर्णित में चार राष्ट्र निर्माताओं में से एक स्वामी दयानन्द है जबकि अन्य स्वामी विवेकानंद, महात्मा गाँधी और डॉ अम्बेडकर है। 168 पृष्ठों की पुस्तक में स्वामी दयानन्द सम्बंधित सामग्री आरम्भिक 62 पृष्ठों में दी गई हैं।

इस लेख में मैं लेखक के स्वामी दयानन्द पर लिखे कुछ चुनिंदा, अत्यंत प्रभावशाली विचारों को प्रस्तुत करूंगा। पुरुषोत्तम जी के विचार अत्यंत सुलझे हुए, प्रासांगिक एवं यथार्थ सत्य होने से ग्रहण करने योग्य हैं। आप लिखते है-

 - विवेकानंद ने पादरियों के इन कृत्यों का जम कर कोसा और नंगा किया। शिकागो के धर्म संसद में अमरीकन नागरिकों ने खड़े होकर करतलध्वनि द्वारा स्वागत भी किया। परन्तु पादरी कम चतुर नहीं थे, उन्होंने अपनी गतिविधियों शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में बढ़ाकर विवेकानंद के बौद्धिक आक्रमण को कुंठित  कर दिया। वेदों को गडरियों के गीत प्रचारित करने वाले मैक्समूलर को जब विवेकानंद ने ऋषि मैक्समूलर कहकर उसकी प्रशंसा करनी प्रारम्भ की तो ईसाई देशों ने विवेकानंद की प्रशंसा के पुल तो बांधे परन्तु भारत में हिन्दुओं के ईसाई बनाने के मिशनरी कार्य में दी जाने वाली आर्थिक सहायता को लगातार बढ़ाना प्रारम्भ कर दिया। जिसके दुष्परिणाम आज हमारे सामने हैं।

   इसके विपरीत महर्षि दयानन्द ने भेद की खाल में छिपे इस्लाम और ईसाई धर्म प्रचारक भेड़ियों वास्तविक रूप को उन्हीं के धर्म ग्रंथों के व्यापक अध्ययन द्वारा भलीभांति समझ लिया था। इसलिए उन्होंने मैक्समूलर को इतना निवस्त्र किया कि अपने वास्तविक अभिप्राय को छिपाने के लिए उसको उन्हीं वेदों और वैदिक संस्कृति की प्रशंसा करनी पड़ी जिनको वह बर्बर गडरियों के गीत बताया करता था। यही हाल थियोसोफिकल सोसाइटी के प्रवर्तक ईसाई कर्नल 'आलकाट' और मैडम 'ब्लावस्टकी' का भी हुआ। उन्होंने प्रारम्भ में दयानन्द की खूब प्रशंसा की परन्तु वैयक्तिक यश अपयश के प्रति नितान्त उदासीन केवल सत्य के पुजारी दयानन्द को वह दिग्भ्रमित नहीं कर सके।

   वर्तमान काल में हिन्दू समाज के प्रमुख संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उससे सम्बन्धित अनेनानेक सांस्कृतिक और राजनितिक संस्थाओं द्वारा स्वामी विवेकानंद को एक सर्वांगीण पथप्रदर्शक के रूप में स्वीकार किया गया है और संस्थाओं द्वारा विवेकानंद के विचारों को प्रमाण स्वरुप उद्दृत किया जाता हैं।

यज्ञपि इन संस्थाओं से जुड़े नेता अपने गीतों से भारत के महापुरुषों में दयानन्द का नाम भी लेते हैं परन्तु अपने भाषणों और व्यक्तव्यों में अथवा अपने कार्य के सम्पादन में वह दयानन्द की घोर उपेक्षा करते हैं। विवेकानन्द के बाद यदि वह किसी का नाम लेते हैं तो गाँधी का। इसका मुख्य कारण यह है कि दयानन्द द्वारा शुद्ध वैदिक धर्म में प्रचलित मूर्तिपूजा, व्यक्तिपूजा इत्यादि पौराणिक विकृतियों की आलोचना और उसको त्यागने की बात उनको रास नहीं आती। (भूमिका, पृष्ठ 4-5)   

 

 -सनातन हिन्दू धर्म में प्रवेश कर गयी भ्रांतियाँ और अन्धविश्वास ही वृहत हिन्दू समाज के धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक पतन के कारण हैं यह उनकी समझ में गया।  इनको मिटाये बिना हिन्दू समाज की रक्षा संभव नहीं। इन्हीं के कारण हिन्दू समाज मौलवियों और पादरियों के धर्मान्तरण का शिकार हो रहा था। इसलिए इन भ्रान्तियों और अंधविश्वासों को जड़ मूल से मिटाये बिना हिन्दुओं के चरित्र को सुधारना संभव है, मुसलमान प्रचारकों और पादरियों द्वारा किये जा रहे छल प्रचार से उनकी रक्षा करना।  ...... राजनीतिक स्वतंत्रता का ध्येय उन्होंने कभी भुलाया नहीं परन्तु उसके लिए मुसलमानों और ईसाईयों के सामने के सामने घुटने टेकना अथवा  हिन्दू धर्म पर उनके द्वारा आक्रमण का प्रतिरोध करना उन्होंने सहन नहीं किया ऐसा करना आवश्यक समझा।

                दयानन्द ने अनुभव किया कि यद्यपि देश से वेद लुप्त प्राय: हो गये थे हिन्दू मानस में वेदों के प्रति इतनी आस्था और श्रद्धा थी कि लोग " वेदों ने ऐसा कहा है' कह कर घोर वेद विरुद्ध बातों का सफल प्रचार कर रहे थे। वेदों का प्रमाण सामने रखकर यदि किसी कुप्रथा का खंडन किया जाय तो वह सहज ही सर्वसाधारण को ग्राह्य होगा। ऐसा सोच कर दयानन्द ने वेदों को ही, जिनका वह गहन अध्ययन वेद विरुद्ध कुरीतियों पर प्रहार करने का मुख्य हथियार बनाया। ……..मैक्समूलर ने कहा था कि यदि हिन्दुओं को यह विश्वास दिलाया जा सके कि वेद बर्बर आदिम गडरियों के गीतों के संग्रह मात्र हैं तो उन्हें ईसाई बनाने  लगेगी। किन्तु दयानन्द ने अपूर्व विद्वता द्वारा सिद्ध कर दिया कि वेद तो ज्ञान विज्ञान के भण्डार हैं और हिन्दुओं को उन पर गर्व होना चाहिए।  (पृ. 14-15)

    -दयानन्द जैसे समाज सुधारक की दृष्टि हिन्दू समाज के कोढ़ छुआछूत पर पड़ती यह कैसे सम्भव था? वह यह देखकर स्तब्ध रह गये कि ब्राह्मणों ने हिन्दू समाज के तीन चौथाई से भी अधिक भाग अर्थात स्त्रियों और शूद्रों को देव भाषा संस्कृत और वेद विद्या से वंचित कर दिया है। वेदों में स्त्रियों, शूद्रों और समाज के सभी वर्गों के लोगों को वेद पढ़ने का केवल अधिकार है अपितु आदेश हैं।.....दयानन्द ने स्त्रियों/अछूतों और दलितों को वेदों की शिक्षा दिलवा कर व्यास गद्दी पर ब्राह्मणों के समकक्ष ला बिठाया। वह शास्त्रों और आचार्य बन द्विजों आदर के पात्र बन गये। इस प्रकार उनमें आत्म सम्मान जाग्रत किया। दयानन्द का यह कार्य किसी राजनीतिक लाभ से प्रेरित होकर नहीं किया था। इसके पीछे समाज के एक महत्वपूर्ण अंग के प्रति सम्मान, मानवीय सहानुभूति।  कर्त्तव्य और दया ही एक मात्र प्रेरणा थी। आर्यसमाज के प्रति अछूतों, दलितों और स्त्रियों के प्रेम और आदर का भी यही कारण है। ( पृ. 21-22)

-उस काल में ईसाई मत के विरुद्ध जुबान खोलना अंग्रेजी शासन के विरुद्ध बोलना समझा जाता था। ऐसे कठिन समय में स्वामी दयानन्द ने हिन्दू समाज को इस खतरनाक स्थिति से उबारने का कार्य किया। (पृ. 37-38)

--दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के १३वें और १४वें समुल्लास में बाइबिल और क़ुरान की निर्भीक समीक्षा द्वारा सिद्ध कर दिया कि प्रचलित हिन्दू धर्म की अपनी लाख बुराइयों के बावजूद यह मत अपने को उससे उत्तम सिद्ध नहीं कर सकते। उन्होंने  इस मतों के विद्वानों को सार्वजानिक शास्त्रार्थ में अपने मतों की श्रेष्ठता सिद्ध करने का बार बार निमंत्रण दिया। उनका कहना था इन मतों के अंध विश्वासों और क्रूर सिद्धांतों को उजागर करने से ही इनके दुष्प्रचार को रोका जा सकता है और  जिन हिन्दुओं का भ्रम से , भय से अथवा लोभ से धर्मान्तरण कर दिया गया है उन्हें अपने पूर्वजों के मत में लौटाया जा सकता है। (पृ. 39)

 

-जैसा हम आगे चलकर देखेंगे स्वामी विवेकानंद ने भी ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों को खूब नंगा किया और उनके धर्मान्तरण प्रोग्राम के सहायक देशों की भी खबर ली परन्तु उसकी गति रोकने अथवा धर्मान्तरित लोगों को वापिस लाने का कोई महत्वपूर्ण प्रयास नहीं किया। मौलवियों के विषय में तो वे लगभग चुप ही रहे।

   कहा जाता है कि उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस ने तो ईसाई और मुसलमान मत के अनुसार भी साधना की थी जिसमें उनका साक्षात्कार ईसा और मुहम्मद साहब से हुआ था। इन साधनाओं द्वारा उनको यह अनुभव बताया जाता है कि इन दोनों मतों के अनुसार साधना करने पर भी उसी स्थान पर पंहुचा जाता है जिस स्थान पर काली पूजा द्वारा। इसलिए अपने गुरु की भांति विवेकानंद भी इस भ्रान्ति के शिकार थे कि ईसाई और इस्लाम मत स्वयं में हिन्दू मत से भिन्न नहीं हैं और उसके शत्रु हैं। दोष इन दोनों मतों के मानने वालों में है। इसलिए स्वामी विवेकानंद तथा उनके अनुयाइयों से दयानन्द की भांति इन मतों की आलोचना की आशा कैसे की जा सकती है? दयानन्द अकेले महापुरुष है जो विभिन्न मतानुयाइयों के सामूहिक चरित्र की जड़ें उनके मतों में खोज कर दिखाते हैं। वह मतों में प्रचलित अंधविश्वासों, ढोंगों और अमानवीय व्यवहारों को निर्दयता पूर्वक उजाकर करने से लेश मात्र भी डरते हैं संकोच करते हैं भले ही वह मत उनके अपने पूर्वजों का ही क्यों हो। उनकी दृढ़ता के कारण उनके विचारों में हमें कहीं भी विरोधाभास देखने को नहीं मिलता। (पृ. 39-40)

-सत्यार्थ प्रकाश के रूप में दयानन्द हिन्दू समाज को उसके कष्ट साध्य सभी रोगों से मुक्त करने और जगतगुरु की परम प्राचीन स्थिति में पहुंचाने का एक सम्पूर्ण वेदोक्त ब्लूप्रिंट ही दे जाते हैं। (पृ.42)

- [1877 के दिल्ली दरबार में] ऋषि ने प्रस्ताव दिया, ' आओ हम राजनीतिक एकता से अधिक व्यापक, अधिक प्रभावशालिनी धार्मिक एकता की उद्घोषणा करें। सब अपने अपने धर्म की बड़ाई बताओ। जो बात सबके स्वीकार करने योग्य हो, वह सब स्वीकार करें, और जो त्याग करने योग्य हो वह सब त्याग दें। यह थी दयानन्द की व्यापक दृष्टि। (पृ. 42)

-दयानन्द पहले हिन्दू समाज सुधारक थे जिन्होंने हिन्दू समाज के ऊपर इस्लाम और ईसाई मतों के आक्रमण से रक्षा करने के लिए सुरक्षात्मक दृष्टीकौन के स्थान पर आक्रामक व्यवहार का प्रयोग किया। उन्होंने इन मतों के तर्कों और आरोपों को उन्हीं के विरुद्ध प्रयोग कर उन्हें अपने मतों का बचाव करने पर बाध्य कर दिया। जो लोग भेड़ मूँड़ने गए थे वह स्वयं मुड़ने लग गये। उनके ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश ने सभी मतों में अन्ध विश्वासों और ढोंगों को निरावरण कर दिया। (पृ.44-45) 

प्रबुद्ध पाठकगण इस लेख के माध्यम से स्वामी दयानन्द के जीवन, उनके व्यक्तित्व, उनके विचार, उनकी दूरदर्शिता, उनके समर्पण भाव, उनके आर्यावर्त के पुनरुद्धार की रुपरेखा को समझ सकते हैं। यही चिंतन देश में विचारक्रांति लाने में सक्षम हैं।

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