Thursday, April 30, 2020

क्या वेदों के चार विभाग वेदव्यास ने किए?



क्या वेदों के चार विभाग वेदव्यास ने किए?

लेखक- प्रियांशु सेठ

प्रायः वेदों के विषय में इस भ्रांति को प्रचारित किया जाता है कि वेद पहले एक थे और द्वापरान्त उन्हें वेदव्यास द्वारा चार भागों में विभाजित किया गया। इस भ्रांति को आधार बनाकर विधर्मी हमारे पवित्र ग्रन्थ वेदों पर अनुचित आक्षेप करते हैं। जैसे, यदि वेदों का विभाजन मनुष्य द्वारा हुआ तो इससे वेदों की अपौरुषेयता पर प्रश्नचिह्न लगता है। क्या वैदिक ईश्वर का सामर्थ्य अल्प है जो वह वेदों को चार भाग में प्रकाशित न कर सका? इत्यादि। इन आक्षेपों के प्रभाव से धार्मिक जनों की वेदों के प्रति श्रद्धा न्यून हो जाती है। इस आलेख में हम विधर्मियों के आक्षेपों का सप्रमाण और युक्तियुक्त जवाब देकर वेदों की अपौरुषेयता को आलोकित करेंगे।
आर्यावर्तीय मध्यकालीन ग्रन्थकारों की वेदों के विषय में धारणा रही है कि वेद पहले एक था। उसे चार भागों में बांटने वाले भगवान् वेदव्यास थे। यथा-

१.  महीधर अपने यजुर्वेदभाष्य के आरम्भ में लिखता है-
"तत्रादौ ब्रह्मपरम्परया प्राप्तं वेदं वेदव्यासो मन्दमतीन्मनुष्यान्विचिन्त्य तत्कृपया चतुर्धा व्यस्य ऋग्यजु:सामाथर्वाख्यांश्चतुरो वेदान् पैलवैशम्पायनजैमिनीसमुन्तुभ्य: कमादुपदिदेश।"
अर्थात्- वेदव्यास को ब्रह्मा की परम्परा से वेद मिला और उसने उसके चार विभाग किए।

२. महीधर का पूर्ववर्ती भट्टभास्कर अपने तैत्तिरीय संहिता-भाष्य के आरम्भ में लिखता है-
"पूर्वे भगवता व्यासेन जगदुपकारार्थमेकीभूयस्थिता वेदा व्यस्ता: शाखाश्च परिच्छिन्ना:।"
अर्थात्- भगवान् व्यास ने एकत्र स्थित वेदों का विभाग करके शाखाएं नियत कीं।

३. भट्टभास्कर से भी बहुत पहले होने वाला आचार्य दुर्ग निरुक्त १/२० की वृत्ति में लिखता है-
"वेदं तावदेकं सन्तमतिमहत्त्वाद् दुरध्येयमनेकशाखाभेदेन समाम्नासिषु:, सुखग्रहणाय व्यासेन समाम्नातवन्त:।"
अर्थात्- वेद पहले एक था, पीछे व्यास रूप में उसकी अनेक शाखाएं समाम्नान हुई।

४. एक युक्ति यह भी दी जाती है कि व्यास के पूर्वकाल में ऋक्, यजु, साम एवं अथर्व मन्त्र यद्यपि अस्तित्व में थे, फिर भी वे सारे एक ही वैदिक संहिता में मिलेजुले रूप में अस्तित्व में थे। इसी एकात्मक वैदिक संहिता को चार स्वतन्त्र संहिताओं में विभाजित करने का अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य व्यास ने किया। इस युक्ति के समर्थन में अष्टादशपुराणों से एक श्लोक यह उद्धृत किया जाता है- 'तत: स ऋचमुद्धृत्य ऋग्वेदं समकल्पयत्।' -वायु० ६०/१९ एवं ब्रह्माण्ड० २/३४/१९
इसका अर्थ यह है कि व्यास ने ऋग्वेद की ऋचाएं अलग कर, उन्हें 'ऋग्वेद संहिता' के रूप में एकत्र किया।

ईश्वर ने आदिसृष्टि में चार वेदों का प्रकाश किया, ऐसा पवित्र वेद सच्छास्त्रों का सिद्धान्त है। वेद का विभाग किसी मनुष्य ने किया, यह कहना मूर्खता का काम है। स्वयं वेद इस बात की साक्षी है कि सनातनकाल से ही वेद चार भागों में विभक्त थे। यथा-
१. यस्मादृचो अपातक्षन् यजुर्यस्मादपाकषन्।
सामानि यस्य लोमान्यथर्वाङ्गिरसो मुखम् स्कम्भं तं ब्रूहि कतम: स्विदेव स:। -अथर्व० १०/७/२०
अर्थ- (यस्मात्) जिस परमेश्वर से [ऋषियों ने] (ऋच:) ऋचाओं [ऋग्वेद] को (अपातक्षन्) प्राप्त किया, (यस्मात्) जिस परमेश्वर से (यजु:) यजुर्वेद को (अपाकषन्) प्राप्त किया। (सामानि) सामवेद के मन्त्र (यस्य) जिस परमेश्वर के (लोमानि) लोम सदृश हैं। (अथर्वाङ्गिरस:) अङ्गों के तथा औषधियों के रसों का वर्णन करने वाला अथर्ववेद (मुखम्) जिस का मुखवत् मुख्य है (तम्) उसे (स्कम्भम्) स्कम्भ (ब्रूहि) तू कह, (कतम: स्वित् एव स:) अतिशय सुखस्वरूप ही है [उस में दुःख का लेश भी नहीं] वह आनन्दरूप है। -पण्डित विश्वनाथ विद्यालंकारजीकृत भाष्य

वेद के इस प्रमाण के आगे आक्षेपकर्त्ताओं का यह आक्षेप धराशायी हो जाता है कि पहले वेद एक थे। अथर्ववेद के इस मन्त्र से स्पष्ट है कि वेदों का विभाग स्वयं ईश्वर ने किया, ना कि किसी मनुष्य ने। वेदमन्त्रों में दी गई शिक्षा सर्वकालों के लिए है; अतः यदि मन्त्रों में बहुवचनान्त 'वेदा:' पद आ जाए तो निश्चय जानना चाहिए कि आदि से ही वेद एक भाग में नहीं थे।
२. ब्रह्म प्रजापतिर्धाता लोका वेदा: सप्त ऋषयोऽग्नय:।
तैर्मे कृतं स्वस्त्ययनमिन्द्रो मे शर्म यच्छतु।। -अथर्ववेद १९/९/१२
इस मन्त्र में स्पष्ट रूप से वेदा: बहुवचनान्त पद आया है। इस मन्त्र पर भाष्य करते हुए सायणाचार्य्य लिखता है- "वेदा: साङ्गाश्चत्वार:" अर्थात्  इस मन्त्र में बहुवचनान्त वेद पद से चारों वेदों का अभिप्राय है।

३. चत्वारि शृङ्गास्त्रयोऽस्य पादा द्वे शीर्षे। -ऋग्वेद ४/५८/३ एवं यजुर्वेद १७/९१
यास्काचार्य्य ने 'चत्वारि शृङ्गा' (निरुक्त १३/७) से चार वेदों का ग्रहण किया है।

४. तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतऽऋच: सामानि जज्ञिरे।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद् यजुस्तस्मादजायत।। -यजुर्वेद ३१/७
अर्थ:- हे मनुष्यो! तुमको चाहिए कि (तस्मात्) उस पूर्ण (यज्ञात्) अत्यन्त पूजनीय (सर्वहुत:) जिसके अर्थ सब लोग समस्त पदार्थों को देते वा समर्पण करते उस परमात्मा से (ऋच:) ऋग्वेद (सामानि) सामवेद (जज्ञिरे) उत्पन्न होते (तस्मात्) उस परमात्मा से (छन्दांसि) अथर्ववेद (जज्ञिरे) उत्पन्न होता और (तस्मात्) उस पुरुष से (यजु:) यजुर्वेद (अजायत) उत्पन्न होता है, उसको जानो। -श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामीकृत भाष्य

जब वेदों में स्पष्ट रूप से चार वेदों का संकेत मिलता है फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि वेद पहले एक थे? इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि वेद सनातनकाल से ही चार भागों में चले आये हैं। वस्तुतः भट्टभास्कर, महीधरादि मध्यकालीन ग्रन्थकारों की मान्यता अष्टादशपुराणों से सम्बन्ध रखने वाली है। इनकी मान्यता का मूल स्रोत हमें अष्टादशपुराणों में प्राप्त होता है। इन मिथ्या ग्रन्थों से ही वेदों के विषय में यह भ्रान्ति फैली है कि वेद पहले एक थे और द्वापरान्त में वेदव्यास ने उसके चार विभाग किये। देखो-
(क) जातुकर्णो ऽभवन्मत्त: कृष्णद्वैपायनस्तत:।
अष्टाविंशतिरित्येते वेदव्यासा: पुरातना:।।
एको वेदश्चतुर्धा तु यै: कृतो द्वापरादिषु। -विष्णुपुराण० ३/३/१९,२०

(ख) वेदश्चैकश्चतुर्धा तु व्यस्यते द्वापरादिषु। -मत्स्यपुराण १४४/११

अष्टादशपुराणों की यह मान्यता सर्वथा भ्रममूलक है। क्योंकि-
प्रथम, एक ओर तो ये अष्टादशपुराण चतुर्मुख ब्रह्मा के चार मुख से चार वेद प्रकट हुआ मानते हैं (मत्स्य० ५३/२,३, शिवपुराण वायवीय० १/३१, वायु० १/५४, ब्रह्माण्ड० १/१/४०,४१, स्कन्दपुराण अवन्ती० १/२४,२५), तो दूसरी ओर उन्हें एक भी बताकर कहा जा रहा है कि उनके विभाजनकर्त्ता वेदव्यास थे?

द्वितीय, एक ओर अग्निपुराण (२७१/३) में कहा है- 'ऋग्वेदो हि प्रमाणेन स्मृतो द्वैपायनादिभि:।' अर्थात् श्रीकृष्ण द्वैपायनादि महर्षियों ने ऋग्वेद को प्रमाण रूप से स्वीकार किया है। जबकि दूसरी ओर अष्टादशपुराणों में यजुर्वेद को प्राचीन बताया गया है (अग्नि० ६०/१७, १५०/२४, कूर्म० ५२/१६, विष्णु० ३/४/११, ब्रह्माण्ड० ३४/१७, )।
यहां जब यजुर्वेद को प्राचीन घोषित किया गया है तो प्रमाण रूप से ऋग्वेद को स्वीकार करने का क्या आधार है? ऐसे में अष्टादशपुराणों की सत्यता पर ही सन्देह होता है।

तृतीय, स्कन्दपुराण में एक श्लोक आता है, जो सिद्ध करता है कि वेदों का विभाग व्यास ने नहीं किया। यथा-
सामवेदोअहंदेवि ब्रह्माऋग्वेदउच्यते।।६२।।
यजुर्वेदोभवेद्विष्णु: कलाधारोह्यथर्वण:।।६३।। -स्कन्दपुराण, प्रभासखण्ड, अध्याय १०३, पृष्ठ ४२८, मुन्शी नवलकिशोर (सी, आई, ई) छापाखाना, लखनऊ, प्रथम बार, सन् १९१० ई० से प्रकाशित
महादेव जी कहते हैं- हे देवी! मैं सामवेद हूं और ब्रह्मा ऋग्वेद कहे जाते हैं।।६२।। व यजुर्वेद और अथर्वा की कला को धरनेवाले विष्णु जी हैं।।६३।।

चतुर्थ, महाभारत स्पष्ट रूप से चारों वेदों का उल्लेख करते हैं। यथा-
१. ऋग्वेद: सामवेदश्च यजुर्वेदोऽप्यथर्वण:। -वनपर्व (अ० १८७, श्लोक १४)
२. यज्ञा वेदाश्च चत्वारः। -वनपर्व (अ० २१५, श्लोक २२)
३. त्रयीविद्यामवेक्षेत वेदेषूक्तमथाङ्गत:। ऋक्सामवर्णाक्षरतो यजुषोऽथर्वण स्तथा।। -शान्तिपर्व (अ० २३५, श्लोक १)
४. ऋग्वेद: सामवेदश्च यजुर्वेदश्च पाण्डव। अथर्ववेदश्च तथा सर्वशास्त्राणि चैव हि।। -सभापर्व (अ० ११, श्लोक ३२)
क्या महाभारत के कर्त्ता महर्षि वेदव्यासजी को इतना ज्ञान न था कि एक ओर अपने ग्रन्थ में ऐसा मानते हैं कि सनातन काल से ही वेद चार हैं, तो दूसरी ओर उसका विभाजन भी स्वयं करके अपने वचनों में विरोधाभास प्रकट करेंगे। इससे यह भी सिद्ध है कि अष्टादशपुराण व्यास के बाद की कृति है तथा अवैदिक सिद्धान्तों का प्रतिपादक है।

पञ्चम, वाल्मीकि रामायण में वर्णन मिलता है कि श्रीराम अपने छोटे भाई लक्ष्मण से हनुमानजी को वेदपाठी घोषित करते हुए कहते हैं-
नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिण:।
नासामवेदविदुष: शक्यमेवं विभाषितुम्।। -किष्किन्धाकाण्ड ३/२९
अर्थात्- जिसे ऋग्वेद की शिक्षा नहीं मिली, जिसने यजुर्वेद का अभ्यास नहीं किया तथा जो सामवेद का विद्वान् नहीं है, वह इस प्रकार सुन्दर भाषा में वार्तालाप नहीं कर सकता।
इसके अतिरिक्त रामायण में कई स्थलों पर चारों वेदों का उल्लेख मिलता है। फिर सहस्रों वर्ष के बाद व्यास काल में उनका एक होना और व्यास आदि द्वारा उनका चार विभाग किया जाना किस प्रकार स्वीकार किया जा सकता है?

षष्ठ, अष्टादशपुराणों में वेदों की शाखादि का उल्लेख है। यदि वेदों का विभाग व्यास द्वारा मान लें तो यह बताइये कि व्यास के पूर्व जब वेद एक थे तो उस समय वेदों की शाखाओं का विभाजन कैसे सम्भव हुआ? क्या वेदों की शाखा पहले और वेदों का विभाजन बाद में मानना युक्तियुक्त है?

इससे सिद्ध है कि अष्टादशपुराणों के कर्त्ता ने अपनी कपोलकल्पित और खोखली कहानियों का कर्त्ता व्यासजी को ठहरा दिया। इन अवैदिक ग्रन्थों में परस्पर-विरोधी वचन पड़े हैं; अतः यह ग्रन्थ सर्वथा त्याज्य हैं। हम सिद्ध कर चुके हैं कि वेदों का विभाजन व्यास जी ने नहीं किया। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने अपने ग्रन्थ 'सत्यार्थप्रकाश' में वेदों के विषय में प्रचलित इन्हीं भ्रान्तियों का खण्डन किया है। वह ईश्वर द्वारा चार ऋषियों के हृदय में एक-एक वेद का प्रकाश होना मानते हैं। इसमें वह शतपथब्राह्मण का प्रमाण उद्धृत करते हुए लिखते हैं-
अग्नेर्वा ऋग्वेदो वायोर्यजुर्वेद: सूर्यात् सामवेद:।। -शतपथ० ११/५/८/३
प्रथम सृष्टि की आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अङ्गिरा इन ऋषियों के आत्मा में एक-एक वेद का प्रकाश किया। [देखो, स०प्र० सप्तमसमुल्लास]

महाराज मनु भी ईश्वर द्वारा वेदों का चार महर्षियों में प्रादुर्भूत होना मानते हैं। यथा-
अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम्।
दुदोह यज्ञसिद्धयर्थमृग्यजु:सामलक्षणम्।। -मनु० १/२३
(य) "जिस परमात्मा ने आदिसृष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न करके अग्नि आदि चारों महर्षियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराये और उस ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और अङ्गिरा से ऋग्, यजु:, साम और अथर्ववेद का ग्रहण किया।" [स०प्र० सप्तम०]

(र) इस श्लोक की टीका में कुल्लूकभट्ट लिखता है- "पूर्वकल्पे ये वेदास्त एव परमात्ममूर्तेर्ब्रह्मण: सर्वज्ञस्य स्मृत्यारुढा:। तानेव कल्पादौ अग्निवायुरविभ्य आचकर्ष।" -चौखम्बा संस्कृत सीरीज ऑफिस, बनारस, सन् १९९२ से प्रकाशित
अर्थात्- जो पूर्वकल्प में थे, वे ही वर्तमान कल्प के आदि में अग्नि आदि ऋषियों से प्रादुर्भूत हुए।

(ल) मनुस्मृति के इस श्लोक पर पण्डित गिरिजाप्रसाद द्विवेदी अपनी टिप्पणी में लिखते हैं-
"अग्नि, वायु और रवि से वेदत्रयी की उत्पत्ति, छान्दोग्य-उपनिषद् में इसी प्रकार है। जैसा- प्रजापतिर्लोकानभ्यतपत्। तेषां तप्यमानानां रसान् प्रावृहत्। अग्निं पृथिव्या, वायुमन्तरिक्षात्, आदित्यं दिव:। स एतास्तिस्त्रो देवता अभ्यतपत्। तासां तप्यमानानां रसान् प्रावृहत्। अग्नेर्ऋचो, वायोर्यजूंषि, साम आदित्यात्। स एतां त्रयीं विद्यां अभ्यतपत्। तस्या तप्यमानाया रसान् प्रावृहत्। भूरिति ऋग्भ्यो, भुवरीति यजुर्भ्य:, स्वरिति सामभ्य:।"
"अग्नि, वायु और रवि से वेदोत्पत्ति होने से ही, ऋग्वेद का पहला मंत्र अग्निस्तुति है। यजु का वायु और साम का सूर्यस्तुति विषय का है।" -मनुस्मृति अर्थात् मानवधर्मशास्त्र, पृष्ठ ६, मुंशी नवलकिशोर सी.आई.ई., के छापेखाने, लखनऊ, सन् १९१७ ई० से प्रकाशित

सायणाचार्य्य भी स्वीकार करता है कि परमात्मा ने अग्नि आदि ऋषियों द्वारा त्रयीविद्या "वेद" प्रकट किए-
जीवविशेषैरग्निवाय्वादित्यैर्वेदानामुत्पादितत्वात्। ऋग्वेद एवाग्नेरजायत यजुर्वेदो वायो: सामवेद आदित्यात् (ऐतरे० ब्रा० ५/३२)।। इति। श्रुतेरीश्वरस्याग्न्यादिप्रेरकत्वेन निर्मातृत्वं द्रष्टव्यम्।। -सायणभाष्यभूमिकासंग्रह, पृ० ४
भाषार्थ- अग्नि, वायु, आदित्य विशेष जीवों से वेद के पैदा होने से ऋग्वेद ही अग्नि से पैदा हुआ, यजुर्वेद वायु से, सामवेद आदित्य से, ऐसी श्रुति होने से, ईश्वर ने अग्नि आदि के प्रेरक होने से, ईश्वर से वेदों का निर्माण जानना चाहिए।

इन प्रमाणों से सिद्ध है कि ऋषियों द्वारा परमात्मा ने चार वेद प्रकट किए। ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिषद्, सूत्रादि ग्रन्थ सभी एकमत होकर इस सिद्धान्त पर अटल हैं कि वेद ईश्वर द्वारा विभाजित सनातनकाल से ही चार हैं। यथा-

१. एवां वा अरेऽस्य महतोभूतस्य नि:श्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेद: समावेदोऽथर्वाङ्गिरस। -शतपथब्राह्मण १४/५/४/१०
उसी महान् सत्ता से ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद उत्पन्न हुए हैं। [द्रष्टव्य- बृहदारण्यक २/४/१०]
२. त्रयो वेदा अजायन्त ऋग्वेद एवाग्नेरजायत। यजुर्वेदो वायो: सामवेद: आदित्यात्।। -ऐतरेयब्राह्मण २५/७
३. चत्वारि शृङ्गास्त्रयोऽस्य पादा द्वे शीर्षे। - गोपथ ब्राह्मण १/१६
४. गोपथब्राह्मण ३/१ में चारों वेदों का नाम निर्देश करने पश्चात् चार ऋत्विजों में कौन किस वेद का पण्डित हो, इसका निर्देश करते हुए लिखा है- "ऋग्विदमेव होतारं वृणीष्व यजुर्विदमध्वर्य्युं सामविदमुद्गातरमथर्वाङ्गिरोविदं ब्रह्माणं।" अर्थात् इसलिए ऋग्वेद जानने वाले को ही होता चुन, यजुर्वेद जानने वाले को अध्वर्य्यु, सामवेद जानने वाले को उद्गाता, और [अथर्वाङ्गिरो] चारों वेद जानने वाले को ब्रह्मा।
५. स्तोम आत्मा छन्दांस्यङ्गानि यजूंषि नाम साम ते तनू:। -यजु० १२/४, शतपथब्राह्मण ६/७/२/६, तैत्तिरीय संहिता ४/१/१०/५, शांखायन गृह्यसूत्र १/२२/१६
६. जुहोत्यग्नये पृथिव्यै ऋग्वेदाय यजुर्वेदाय सामवेदाय अथर्ववेदाय। -वैखानस गृह्यसूत्र २/१२
७. तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदोऽथर्ववेद:। -मुण्डक० १/१/५
८. ऋग्वेदं भगयोऽध्येमि यजुर्वेदं सामवेदमाथर्वणं चतुर्थम्। -छान्दोग्योपनिषद् ७/१/२

आयुर्वेद शिरोमणि महर्षि चरक का यह वचन हृदय को आह्लादित कर देने वाला है-
तत्र चेत्प्रष्टार: स्यु:- चतुर्णामृक्सामयजुरथर्ववेदानां कं वेदमुपदिशन्त्यायुर्वेदविद:, किमायु: कस्मादायुर्वेद:, किं चायमायुर्वेद: शाश्वतोऽशाश्वतश्च। कति कानि चास्याङ्गानि, कैश्चयमध्येतव्य:, किमर्थं चेति।।
तत्र भिषजा पृष्टेनैवं चतुर्णामृक्सामयजुरथर्ववेदानामात्मनोऽथर्ववेदे भक्तिरादेश्या। (चरकसंहिता, सूत्रस्थानम् ३०/१८,१९)
"यदि कोई पूछे कि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में से आयुर्वेदज्ञ किस वेद का उपदेश करते हैं तो वैद्य को उत्तर देना चाहिए कि ऋग्वेदादि चारों वेदों में से अथर्ववेद में आयुर्वेद का उपदेश है।"

उपरोक्त प्रमाणों के आलोक में यह सिद्ध है कि वेद ईश्वर द्वारा सनातनकाल से ही चार भागों में प्रकाशित होते आये हैं। वेदों की अपौरुषेयता को कोई नकार नहीं सकता; अतः आक्षेपकर्ताओं को यह भलीभांति जान लेना चाहिए कि ईश्वरीय वाणी वेद सत्य का आधार है, जिसे पराजित करने के प्रयास से मनुष्य स्वयंमेव पराजय को प्राप्त हो जाता है।

पाद टिप्पणियां-
१. वैदिक वाङ्मय का इतिहास; प्रथम भाग; लेखक- पण्डित भगवद्दत्त बी०ए०।
२. यजुर्वेद का मन्त्र 'तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतऽऋच: सामानि जज्ञिरे...', ऋग्वेद (१०/९०/९) में भी आया है तथा ज्यों का त्यों 'छन्दांसि' के स्थान पर 'छन्दो ह' के साथ अथर्ववेद (१९/६/१३) में भी आया है।
३. स्कन्दपुराण, प्रभासखण्ड के उपरोक्त श्लोक वर्तमान संस्करणों में अध्याय १०५ में कर दिए गए हैं।
४. रामायण से उद्धृत श्लोक पर पाण्डेय पं० रामनारायणदत्त शास्त्री 'राम' कृत टीका, गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित।

[स्त्रोत- आर्ष क्रान्ति : आर्य लेखक परिषद् का मुख पत्र का अप्रैल २०२० का अंक]

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