Sunday, April 26, 2020

परमात्मा के प्रतिद्वन्दी



◼️परमात्मा के प्रतिद्वन्दी (Rival of God)◼️
✍🏻 लेखक - पं० गंगाप्रसाद जी उपाध्याय
सम्पादन एवं प्रस्तुति - 🌺‘अवत्सार’

[पूज्य पं० गंगाप्रसादजी उपाध्याय उर्दू भाषा के भी अद्वितीय लेखक थे। ‘खुदा के रकीब' शीर्षक से उन्होंने यह विचारोत्तजक रोचक लेख लिखा था। यह एक से अधिक बार उर्दू पत्रों में छपा। मेरी दृष्टि में यह उनके सर्वश्रेष्ठ लेखों में से एक हैं। मेरी चिरकाल से यह इच्छा थी कि इसका हिन्दी अनुवाद करके प्रकाशित करवाऊँ। आशा है आर्य संसार के विचारशील पाठक महान् दार्शनिक लेखक के इस आध्यात्मिक एवं बौद्धिक प्रसाद को पाकर स्वयं को भाग्यशाली मानेंगे। अनुवादक - राजेन्द्र जिज्ञासु]

      ◾सारे आस्तिक आस्तिक नहीं हैं, न सारे नास्तिक नास्तिक हैं - सारे आस्तिक आस्तिक नहीं हैं, न सारे नास्तिक नास्तिक। नास्तिकों की संख्या तो उंगलियों पर गिनी जा सकती है और इनमें भी वास्तविक नास्तिक बहुत थोड़े हैं परन्तु यदि सब आस्तिकों के मन व मस्तिष्क को टटोला जाय तो इन आस्तिकों में ईश्वर के उपासकों की संख्या बहुत थोड़ी मिलेगी।

      ◾नास्तिकों का कोई मन्दिर नहीं - नास्तिकों के कोई मन्दिर नहीं हैं। न उनके पुजारी, न वे चेले बनाते हैं अथवा कण्ठी माला देते हैं। आस्तिकों के मन्दिरों, मस्जिदों व गिरजाघरों की भरमार है। एक लोकोक्ति प्रसिद्ध है -

      काशी का हर कंकर शङ्कर है

      यह बात केवल काशी तक ही नहीं है। प्रत्येक देश में ऐसा बातें मिलती है। परन्तु, यदि इतने नास्तिक होते जितनी की गिनती बताई जाती है तो संसार ऐसा न होता जैसा कि आज है।

      सच्चिदानन्द परमात्मा से व्याप्त सृष्टि में आनंद का अभाव है। घर में अशान्ति, मुहल्ले में अशान्ति, नगर में, प्रान्त में, देश में और सारे संसार में अशान्ति है। एक विचारशील मनुष्य प्रश्न उठता है, क्या वास्तव में मनुष्य ईशोपासक हैं? जो परमात्मा की सत्ता ही नहीं मानता वह प्रतिद्वन्द्विता भी क्या करेगा? उसकी दृष्टि में कोई ऐसा प्रतिद्वन्द्वी नहीं जिसे ईश्वर कहा जा सके अथवा जिसका उसको भय हो। अथवा दूसरी शक्तियां हैं जिनको वह अपना प्रतिद्वन्द्वी समझता है। तथा जिनको वश में करने के लिए वह सदा प्रयत्नशील रहता है परन्तु जो परमेश्वर की सत्ता को स्वीकार करते हैं वे तो सब प्रकार से ईश्वर को अपने वश में करने की चिन्ता करते रहते हैं।

      ◾भक्त के वश में हैं भगवान - अर्थात भक्ति क्या है? भगवान पर नियंत्रण करने का एक साधन। कहते हैं कि बाबा तुलसीदास जी एक मन्दिर में दर्शन के लिये गए। वह मन्दिर था कृष्ण भगवान का जिसमें कृष्ण की मूर्ति बांसुरी बजा रही थी। तुलसीदास थे राम के उपासक। राम के सच्चे भक्त थे। उनसे वह मन्दिर राम से रहित देखकर न रहा गया। (यह कहो कि सहा न गया)। मचल गए। “मैं तो तब दर्शन करूंगा जब मूर्ति धनुषवाण हाथ में लेकर राम का रूप धारण करेगी।”

      ◾ईश्वर की आज्ञा या ईश्वर को आज्ञा - कहा जाता है कि ऐसा ही हुआ। कृष्ण की मूर्ति राम की मूर्ति बन गई। इस कहानी से पता चलता है कि भक्ति का उद्देश्य ईश्वर की आज्ञा का पालन करना नहीं है। प्रत्युत्त ईश्वर से अपनी आज्ञा का पालन करवाना है। क्या यह सच्ची ईश्वर भक्ति अथवा ईश्वर की पूजा हैं।

      ◾ईश्वर के इतने प्रतिद्वन्द्वी - आस्तिक संसार में ईश्वर के अनेक प्रतिद्वन्द्वी हैं। जो ईश्वर के भक्तों का ध्यान ईश्वर से हटाकर अपनी ओर खीचते रहते हैं। वे सब स्थान तो ईश्वर के स्थान पर पूजे जाते हैं, ईश्रर के प्रतिद्वन्द्वी हैं।

      इन सबमें प्रथम स्थान गुरुओं का है। कहावत प्रसिद्ध है जिसने गुरु के दर्शन कर लिये उसने ईश्वर के दर्शन कर लिए। अतः गुरु का स्थान ईश्वर के स्थान से अधिक समझा जाता है। संसार में चाहे हिन्दू धर्म, चाहे अन्य मतों में जितने भी सम्प्रदाय हैं सबमें गुरु की महत्ता पर बल दिया गया है। तर्क यह है कि तुम ईश्वर को साक्षात् नहीं देख सकते . . . . गुरु तो सामने खड़ा है अतः गुरु को पूजो! अनेक लोगों का यह विश्वास है कि गुरु ईश्वर का साक्षात स्वरूप है। इसलिये वे गुरु की पूजा को ही ईश्वर-पूजा समझते हैं।

      गुरु गिरिधर दोनों खड़े किसके लागूं पाय।
      गुरु को शीश नवाय जिन गिरिधर दिये बताय।

      इन सबका भाव यह है कि गुरु की पूजा पहले करो फिर ईश्वर की और जब गुरुओं की पूजा होने लगी तो ईश्वर की पूजा संसार से लुप्त हो गई क्योंकि गुरु की पूजा को ही पर्याप्त समझा गया। जिस गुरु ने गिरधर को बता दिया वह प्रसन्न हो जायेगा और गिरधर को भी प्रसन्न कर सकेगा।

      ◾ईश्वर को भौतिक वस्तुयें नहीं चाहिये - ईश्वर की पूजा में ईश्वर भौतिक वस्तु नहीं है। न ही उसको भौतिक पदार्थों की आवश्यकता है। इसलिये ईश्वर की पूजा भौतिक वस्तुओं से नहीं होती। मन से ईश्वर का ध्यान करना ही तो ईश्वर की पूजा करना है परन्तु, गुरु तो एक मनुष्य है। उसका शरीर है। उसको शारीरिक आवश्यकतायें होना स्वाभाविक व आवश्यक है। उसे भोजन चाहिये, वस्त्र चाहिये, भवन चाहिये। अन्य सुख सुविधायें चाहियें। ये सब प्राप्त होने चाहिये। उसके चेले व चेलियों से ये सभी कुछ तभी तो मिलेगा जब कुछ ढोंग किया जाय और गुरु की महिमा जताने के लिये अनेक प्रकार की व्याख्यायें गढ़ी जायें। इसलिये आप देखेंगे कि गुरुओं की प्रसन्नता के लिये कितने यत्न किये जाते हैं। उनसे मन्नतें (कामनाये) मांगी जाती है। उनको स्नान कराया जाता है। उनके चरण तक धोकर पिये जाते हैं।

      ◾एक राधा स्वामी मित्र का विचित्र उत्तर - मैंने एक बार  अपने एक राधा स्वामी मित्र से पूछा, “आप गुरु का जूठा क्यों खा लेते हो? क्या यह गन्दा काम नहीं? इससे तो गुरुओं का रोग भी लग सकता है।”

      उस प्रतिष्ठित मित्र ने मुझसे एक प्रश्न पूछा, “क्या जूठा खाने  से रोग लग सकता है? मैंने कहा, हाँ , अवश्य लग सकता है”

      मेरे मित्र ने उत्तर दिया कि “जिस प्रकार से शारीरिक रोग जूठा खाने से गुरु के शरीर से शिष्य के शरीर में आ सकता है  इसी प्रकार जूठा खाने से गुरुओं की आध्यात्मिकता भी चेले भीतर प्रविष्ट हो सकती है।”

      ◾प्रत्येक भद्दे काम के लिये युक्ति दी जाती है - उस दिन मुझे पता लगा कि प्रत्येक व्यक्ति का एक दर्शन है। गन्दे से गन्दे कार्य के लिये वह एक तर्क रखता है। भले ही कुतर्क हो परन्तु तर्क तो है और उस तर्क को परखना प्रत्येक छोटे - बड़े के बस की बात नहीं है। मेरे मित्र ने जो युक्ति दी थी वह सुनने में तो अच्छी ही लगती थी।

      ◾गुरु जूठा खिलाकर विचार प्रविष्ट नहीं करा सकता - कम से कम उस मित्र को पूर्ण विश्वास था कि वह ठीक तथा विरोधी को चुप करने वाली युक्ति दे रहा है। ऐसा लगता है कि इस प्रकार की युक्तियाँ चेलों के मध्य कहीं जाती होगी। यद्यपि युक्ति सर्वथा लचर व भ्रामक थी। रोग तो शारीरिक होने से जूठा खाने से एक शरीर से दूसरे में जा सकता है। रोग के कीटाणु थूक के साथ दूसरे शरीर में बहुत सुविधापूर्वक प्रवेश कर सकते हैं परन्तु, आध्यात्मिकता के तो कीटाणु नहीं होते। गुरु अपना जूठा खिलाकर अपने विचार तो चेले के भीतर प्रविष्ट नहीं कर सकता। यदि ऐसा होता तो विभिन्न विषयों के कालेजों के प्राध्यापक अपने शिष्यों को जूठन खिलाकर विद्वान बना दें। गुरु की जूठन खाने का व ईश्वर की पूजा का परस्पर कुछ भी सम्बन्ध नहीं है - परन्तु लोग ईश्वर के स्थान पर गुरु को पूजते हैं।

      ◾मेरी परिभाषा में गुरु ईश्वर के प्रतिद्वन्द्वी हैं - मेरी परिभाषा में तो जो गुरु अपने चेले से पूजा कराता है, वह ईश्वर का प्रतिद्वन्दी हैं। संसार के मन्दिरों में देवताओं अथवा पूर्वजों की जो मूर्तियाँ पूजने के लिये रखी हुई हैं, वे सब ईश्वर के प्रतिद्वन्द्वी क्योंकि उनकी पूजा करने वाला यह समझ बैठता है कि अब ईश्वर की पूजा की आवश्यकता नहीं।

      ◾ईश्वर नहीं देखा - मूर्ति दिखाई देती हैं - लोग कहा करते हैं कि हमने ईश्वर नहीं देखा, हम इस मूर्ति को देख रहे हैं इसलिये इसी की पूजा करते हैं। यदि ईश्वर को देख पाते तो ईश्वर को पूजते।

      ◾सो ईश्वर की खोज क्यों करें? - इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि हमने उसी को अपना ईश्वर मान लिया है। हमको अब किसी दूसरे ईश्वर की खोज में भटकने की आवश्यकता नहीं। कुछ लोगों को यह पट्टी भी पढ़ाई गई है कि ईश्वर की आत्मा गुरु के आत्मा में विलीन हो जाती है अत: गुरु के दर्शन भी ईश्वर के दर्शन हैं।
     
      ◾ईश्वर भक्ति का आसन रिक्त होता है - गुरु से आगे चलिये तो अवतार अथवा पैगम्बर लोगों के सामने आते हैं उन्होने अथवा उनके अनुयायियों ने सदा यह प्रयास किया है कि इन अवतारों अथवा पैगम्बरों को ईश्वर का प्रतिनिधि स्वीकार कर लिया जाय। एक बार परमात्मा का प्रतिनिधित्व प्राप्त हो जाय तो उनकी ही पूजा आरम्भ हो जाती है। ईश्वर की पूजा या तो सर्वथा विलुप्त हो जाती है अथवा अपना आसन पैगम्बर पूजा (Prophet worship) के लिये रिक्त कर देती है और सब लोग भगवान के स्थान पर पैगम्बर को मान लेते हैं। हजरत मुहम्मद ने अपने चेलों से स्पष्ट कहा है कि जो मेरे हाथ पर बैअत करेगा वह समझ ले की खुदा की बैअत (दीक्षा) कर रहा है।

      ◾और पादरी कहेगा कि ईसा के बिना मुक्ति असम्भव है - हजरत ईसामसीह को लोगों ने खुदा का पुत्र कहा, खुदा कहा और खुदा का उत्तराधिकारी स्वीकार किया। परिणाम यह निकला कि परमात्मा को भूल गये। यदि किसी पादरी के सामने जाकर यह कहिये कि मैं ईश्वर को मानता हूँ परन्तु ईसा को नहीं तो वह अविलम्ब कहेगा कि हजरत ईसा के पास आये बिना मुक्ति का प्राप्त होना असम्भव है।

      ◾और मूर्तियाँ भी ईश्वर की प्रतिद्वन्द्वी बन गई - यही स्थिति अन्य मतों की है। श्रीकृष्ण की मूर्ति को पूज लो और ईश्वर की पूजा हो गई। राम की मूर्ति के सामने सिर झुका लो और ईश्वर की पूजा हो गई। इस प्रकार न केवल राम व कृष्ण हीं भगवान के प्रतिद्वन्द्वी हुए प्रत्युत उनकी मूर्तियाँ भी भगवान् की प्रतिद्वन्द्वी बन गई।

      एक बार एक व्यक्ति देहली में महात्मा गाँधी की समाधि पर माला फेर रहा था। गांधीजी आजीवन स्वयं को ईश्वर का सेवक मानते रहे परन्तु, उनके चेलों ने गांधीजी को ईश्वर का प्रतिद्वन्द्वी बना दिया। गांधी का पुजारी स्वयं को सीधा ईश्वर का पुजारी समझता है तथा आवश्यकता नहीं समझता कि दूसरे ईश्वर की खोज में यत्नशील रहे।

      ◾आस्तिकता का कितना अंश? - साधारण आस्तिकों में आस्तिकता का कितना अंश है? यह मैं एक घटना से स्पष्ट करता हूँ। प्राचीनकाल में राजाओं के सामने उनके शासन सम्बन्धी कोई शिकायत करने का किसी में साहस नहीं होता था। जब किसी को राजा का ध्यान किसी शिकायत की ओर खींचना होता था तो वह दरबार के बहुरुपिये की सहायता लेता था। केवल बहुरूपियों को यह अनुमति थी कि वे भली बुरी बातें अपने ढंग से कह सकते थे और शासक उससे परिणाम निकाल लेते थे।

      इस प्रकार अवध के नवाब के बहुरूपियों ने एक रूप बनाकर अपना खेल किया। एक बहुत बड़ा पीतल का हाण्डा भूमि पर रखा गया। उस पर एक छोटा हाण्डा, उस पर उससे एक छोटा हाण्डा - इस प्रकार से एक बड़े हाण्डे पर पच्चीस तीस छोटे हाण्डे रख दिये गए। सबसे ऊपर वाली हाण्डी बहुत छोटी थी। अब एक बहुरूपिये ने प्रश्न किया, यह नीचे का हाण्डा क्या?

      ◾अवध के नवाब के कर्मचारी - दूसरे बहुरूपिये ने उत्तर दिया, यह ग्राम के पटवारी की भेंट है। फिर दूसरे ने प्रश्न किया यह ऊपर का छोटा हाण्डा क्या है? उत्तर मिला, यह कानूँगों की भेंट है। तीसरा उससे छोटा तहसीलदार की घूस था। चौथा कोलैक्टर की और अन्त में सबसे छोटी हाण्डी के विषय में कहा गया कि यह माननीय नवाब साहेब का मालिया है। इस खेल में बहुरूपियों ने नवाब के सम्मुख यह प्रकट कर दिया कि आपके कर्मचारी सहस्रों रुपये की घूस डकार जाते है और स्वल्प राशि दरबार तक पहुँच पाती है।

      ◾थे तो प्रतिद्वन्द्वी परन्तु निष्ठावान - यह थी कहानी नवाब अवध के प्रबन्ध की जिसमें घूस में किसी प्रकार से कोई कमी नहीं छोड़ी गई थी। ये छोटे अधिकारी कर्मचारी नवाब के प्रतिद्वन्द्वी थे और ऐसे प्रतिद्वन्द्वी जो प्रतिद्वन्द्विता तो करते थे तथापि नवाब के आज्ञाकारी निष्ठावान कर्मचारी समझे जाते थे।
      परन्तु ये प्रतिद्वन्द्वी तो भीतर छुपकर भुजा को लिपटे साँप थे। उनको कैसे मारा जा सकता था।

      इस प्रकार यदि देखा जाय तो जो लोग ईश्वर पूजा की दुहाई देते हैं वहीं लोगों को ईश्वर के नाम पर अधिक ठगते हैं। जिस प्रकार मृतकों का श्राद्ध खाने वालों से कोई नहीं पूछता कि तुमने मृतकों के नाम पर जो भोजन प्राप्त किया वह मृतकों को पहुँचाया अथवा नहीं? इसी प्रकार किसी गुरू अथवा पैगम्बर से कोई नहीं पूछता कि जो बात आप भगवान् के प्रतिनिधि के रूप में कहते हो वह कहाँ तक भगवान् का प्रतिनिधित्व करती है।

      ◾कोई गुरू नहीं रोकता - सच्चे गुरुओं का काम अपनी पूजा करवाना नहीं है। प्रत्युत अपने अनुयायियों को यह बताना है कि ईश्वर के स्थान पर किसी अन्य की पूजा मत करो। सच्चा गुरु वह है जो अपने चेलों को ऐसी कुचेष्टा से बचाये व रोकता रहे कि मैं ईश्वर नहीं हूँ और ईश्वर वह है जो आपका भी उपास्य है और मेरा भी। मैं ईश्वर का उसी प्रकार का एक पूजक हूँ जैसे तुम हो परन्तु, कोई गुरू ऐसा नहीं करता। उसका लाभ इसी में है कि लोग उसे ईश्वर का प्रतिनिधि समझते रहें। जो ईश्वर से माँगना चाहते हैं, वह उसी से माँगते रहें और विचित्रता यह है कि यह मनुष्य - पूजा लोगों को ईश्वर से बहुत दूर कर देती।

      ◾चेले क्या माँगते हैं? - लोग गुरू के सामने जाकर यह नहीं कहते कि ईश्वरीय नियमों के पालन करने की विधियाँ बतायें कोई कहता है, मेरा उच्च अधिकारी रुष्ट हो गया है, प्रार्थना करें कि प्रसन्न हो जाय। कोई कहता है, मेरा बच्चा जो लम्बे समय से रोगग्रस्त हैं कैसे अच्छा हो जायेगा। कोई कहता है कि मेरे केस में मुझे सफलता मिल जाय।

      ◾गुरु क्या करता है? - और आप जानते है कि गुरु क्या करता है? वह दो मिनट के लिये आँखें बन्द कर लेता और फिर जो चाहे व्यवस्था दे देता है।

      ◾मरने वाले नरक में जाय अथवा स्वर्ग में - मुझे एक मित्र ने एक महात्मा का वृतान्त सुनाया जो बीस वर्ष पूर्व आर्यसमाजी थे परन्तु अब महात्मा बन गये हैं और लोगों को ईश्वर का दर्शन करवाने लगे और इस प्रकार उन्होने लाखों की सम्पत्ति एकत्र कर ली है। वह इसी प्रकार से कहते हैं कि तुम्हारा रोगी छ: मास में निरोग हो जायेगा। किसी से कहते हैं, विपदा तो आ पड़ी है, दूर हो जायेगी। चेले प्रसन्न होकर चले जाते हैं और सहस्रों रुपयों की भेंट चढ़ा जाते हैं।

      जहाँ वह महात्मा जाते हैं उनका राजाओं, सरीखा सन्मान होता है। ईश्वर कहाँ है? कैसा है? क्या चाहता है? उसको कैसे प्रसन्न कर सकते हैं? इनकी कतई चर्चा नहीं होती। बड़े बड़े भण्डारे होते हैं और चढ़ावे चढ़ते हैं। मरने वाला नरक में जाय अथवा स्वर्ग में, उनको अपने हलवे माण्डे से काम। ये सब भगवान् के प्रतिद्वन्द्वी और आस्तिकता के शत्रु हैं। जब तक ये पुजायें रहेंगे कोई ईश्वर-पूजक नहीं बन सकता।

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🌻वेदों की ओर लौटें🌻

॥ओ३म्॥

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