Monday, March 30, 2020

सायणाचार्य का वेदार्थ



◼️सायणाचार्य का वेदार्थ◼️
✍🏻 लेखक - पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’

      सायणाचार्य से पूर्व उपलब्ध होनेवाले स्कन्द, दुर्ग आदि के वेदभाष्यों तथा सायणाचार्य के भाष्य में बहुत अधिक भेद नहीं, किन्तु सायण से पूर्ववर्ती भाष्यकारों तक वेदार्थ की विविध (आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधियज्ञ) प्रक्रिया पर्याप्त मात्रा में रही। याज्ञिक प्रक्रिया का शुद्ध स्वरूप बना रहता, तब तो कुछ भी हानि नहीं थी; त्रिविध प्रक्रिया में याज्ञिक प्रक्रिया भी एक है ही, तदनुसार भी मन्त्र का अर्थ होना ही चाहिए। पर सायणाचार्य ने तो अपने पूर्ववर्ती आचार्यों की प्रक्रिया को न जाने कैसे छोड़कर केवल याज्ञिक प्रक्रियापरक ही वेदमन्त्रों का अर्थ किया और वह भी अधूरा। अधूरा इसलिए कि सायण का वेदभाष्य केवल श्रौतयज्ञों की प्रक्रिया को लक्ष्य में रखकर ही किया हुआ है। गृह्य सूत्रों में विनियुक्त मन्त्रों के विषय में सायण का भाष्य कुछ एक स्थलों को छोड़कर प्रायः कुछ भी नहीं कहता। गृह्य अर्थात् स्मार्त्त प्रक्रिया में भी तो वेदमन्त्रों का अर्थ होना ही चाहिये। इस प्रक्रिया के लिए हमें गृह्य सूत्रों के भाष्यकारों के किये वेदार्थ से वेदमन्त्रों के अर्थ देखने होंगे। ऐसी दशा में सायण भाष्य को याज्ञिक प्रक्रिया में अधूरा ही कहेंगे। इतना ही नहीं, श्रौतप्रक्रिया के विषय में भी सायण कहां तक प्रामाणिक है, यह अभी साध्यकोटि में ही है। श्रोत विषय में भी सायण की अनेक भूलें हैं, जो कालान्तर में दिखाई जा सकती हैं।

      इसमें तो कुछ भी सन्देह नहीं कि सायणाचार्य ने अपने समय में वैदिक साहित्य में महान् प्रयास किया। वेदों के भाष्य तथा ब्राह्मणग्रन्थों और आरण्यकों के भाष्य बनाए। अन्य अनेक विषयों में भी बहत से प्रौढता पूर्ण ग्रन्थ लिखे, चाहे वे सब उनकी अपनी कृति न हों, उनके संरक्षण में बने हों, पर उनका उत्तरदायित्व तो उन पर ही है। सायणाचार्य के इस प्रयास के लिए प्रत्येक वेद प्रेमी को उनका अनुगृहीत होना चाहिए। उनके वेदभाष्य में व्याकरण और निरुक्तादि का प्रयोग भी हमें पर्याप्त मात्रा में मिलता है। परन्तु मूलभूत धारणा के अनिश्चित वा भ्रान्त होने के कारण उनका मूल्य कुछ भी नहीं है और कई स्थानों में विरुद्ध भी है।

      जब सायणाचार्य के मन में यह मिथ्या धारणा निश्चित हो चुकी थी कि वेदमन्त्र यज्ञप्रक्रिया का ही, प्रतिपादन करते हैं, ऐसी अवस्था में यह स्वाभाविक ही था कि वह अपना समस्त यत्न वा प्रमाणादि सामग्री यज्ञप्रक्रिया के लिए ही समर्पित करते। जब ऐनक ही हरी पहन ली तो सब पदार्थ हरे दिखाई देने में आश्चर्य ही क्या हो सकता है ? उपयुक्त धारणा के कारण उसका वेदार्थ में अनेक अनावश्यक और आधाररहित सिद्धान्तों तथा परिणामों पर पहुंचना अनिवार्य था। उदाहरणार्थ पाठक देखें -

      सायण के वेदभाष्य में प्रायः सर्वत्र जहां-जहां मूलमन्त्र में जन, मनुष्य, जन्तु, नर, विट्, मर्त आदि सामान्य मनुष्यवाचक शब्द आये हैं, वहां सर्वत्र निर्वचन के आधार को छोड़कर, वाच्यवाचक सम्बन्ध के सामान्य नियम की अवहेलना करके सामान्य ‘मनुष्य’ अर्थ न करके 'यजमानादि' ही किया है। जैसा कि ऋग्वेद १।६०।४ में 🔥'मानुषेषु यजमानेषु'। ऋ० १।६८।४ में 🔥'मनोरपत्ये यजमानरूपायां प्रजायाम्। ऋ० १।१२८।१ में 🔥'मनुषः मनुष्यस्याध्वर्योः'। ऋ० १।१४०।१२ में 🔥'जनान् यजमानान्' आदि। भला बताइये इन मनुष्य, जन्तु, जन आदि शब्दों के अर्थ 'यजमान' ही हों, इसमें क्या नियामक है ? कारण क्या ? कारण यही कि यज्ञप्रक्रिया की ऐनक चढ़ी है। प्रत्येक मनुष्य यजमान या ऋत्विक ही दिखाई दे रहा है। भला नेता या मननशील जो कोई भी हो, यह अर्थ क्यों नहीं लेते? सायण होते तो उनसे पूछा जाता।

      सब मन्त्रों का तीन प्रकार का अर्थ होता है। इतने से ही सायण का सारा वेदार्थ तीसरा भाग रह जाता है। शेष दो भाग (आध्यात्मिक तथा आधिदैविक) में उसकी अनभिज्ञता वा अपूर्णता स्पष्ट सिद्ध है।
      विविध प्रक्रिया की अवहेलना ही वेदार्थ में एक ऐसी हिमालय जैसी भूल है, जो कदापि क्षन्तव्य नहीं हो सकती। सायण की भूल की समाप्ति यहीं पर ही नहीं हो गई। उनकी अन्य मौलिक भूलों का भी निर्देश करना हम आवश्यक समझते हैं।

      ◾️(१) यज्ञ में अध्वर्यु आदि के कर्मों को बताने के लिए ही वेदभाष्य करता हूं, ऐसा सायण ने कहा है। (देखो सायण के ऋग्वेदभाष्य के उपोद्घात के प्रारम्भ में)।

      ◾️(२) सायण सामवेद-भाष्य-भूमिका के प्रारम्भ में -

      🔥यज्ञो ब्रह्म च वेदेषु द्वावर्थौ काण्डयोर्द्धयोः।
      अध्वयु मुख्यैर्ऋत्विग्भिश्चतुभिर्यज्ञसम्पदः॥६॥
      इसमें वेद के मन्त्रों का अर्थ यज्ञपरक तथा ब्रह्मपरक माना। हमें तो सायण के इस लेख से प्रति प्रसन्नता हई कि चलो ब्रह्मपरक अर्थ नहीं किया तो न सही, ब्रह्मपरक अर्थ का निर्देश तो कर ही दिया है। पर हमारी यह प्रसन्नता अधिक देर न रह सकी, जब हमने काण्व-संहिता-भाष्य की भूमिका में सायण का यह लेख देखा-

      🔥'तस्मिश्च वेदे द्वौ काण्डो कर्मकाण्डो ब्रह्मकाण्डश्च। बृहदारण्यकाख्यो ग्रन्थो ब्रह्मकाण्डस्तव्यतिरिक्तं शतपथब्राह्मणं संहिता चेत्यनयोर्प्रन्थयोः कर्मकाण्डत्वम्, तत्रोभयत्राधानाग्निहोत्रदर्शपूर्णमासादिकर्मण एवं प्रतिपाद्य स्वात्।
      यहां पर सायण शतपथब्राह्मण ही नहीं अपितु 'संहिता' में भी 'दर्शपूर्णमासादिकर्मण एवं प्रतिपाद्यत्वात्' इस वचन से केवल दर्शपूर्ण मासादि यज्ञकर्मों का ही प्रतिपादनमात्र मानता है। पाठक विचार करें कि स्कन्द स्वामी की विविध प्रक्रिया, जिसे वह यास्काभिमत मानता है, उपस्थित होने पर भी, सायण 'न हि स्थाणोरपराधो यदेनमन्धो न पश्यति' वा 'पश्यन्नपि न पश्यति' देखता हया भी नहीं देखता, यही तो कहना पड़ेगा। क्या सायण ने स्कन्द स्वामी का भाष्य देखा ही नहीं होगा, यह कभी हो सकता है ? जब कि इस समय भी सैकड़ों वर्ष पीछे सायण की जन्मभूमि दक्षिण प्रान्त में ही स्कन्द की निरुक्तटीका मिली है।

      कुछ भी सही, सायण वेदार्थ की दीवार बन गया। इतनी ऊंची और इतनी दृढ़ कि किसी को लांघने का साहस नहीं होता था। पर प्रभू की असीम कृपा से आचार्य दयानन्द उस दीवार को लांघ गए और उनकी कृपा से आज हम शास्त्र के आधार पर लांघ रहे हैं।

      ◾️(३) सायण ने ऋग्भूमिका में मीमांसा के सिद्धान्तानुसार वेद में अनित्य इतिहास का-व्यक्तिविशेषों के इतिहास का निषेध मान कर वा निषेध करके भी अपने वेदभाष्य में यत्र तत्र सर्वत्र अनित्य व्यक्तियों का इतिहास स्पष्ट दर्शाया है।

      ◾️(४) देखिए सायण ऋग्भूमिका में -
      ▪️(क) 🔥’शतं हिमा इत्येतद् व्याख्येयमन्त्रस्य प्रतीकम्, अविशिष्ट तु तस्य तात्पर्यव्याख्यानम्।’
      ▪️(ख) 🔥'शतपथब्राह्मणस्य मन्त्रव्याख्यानरूपत्वाद् व्याख्येयमन्त्रप्रतिपादकः संहिताग्रन्थः पूर्वभावित्वात प्रथमो भवति॥' (सायणकाण्व भूमिका)

      इन दोनों स्थलों में शतपथ को मन्त्र का व्याख्यान मान कर भी 🔥'मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्' (ऋगादिभाष्यभूमिका) की ही रट लगाई है।

      इतिहास तथा वेदलक्षण विषय के परस्पर विरोध को देखकर भला कौन थोड़ा-सा ज्ञान रखनेवाला भी सायण की विद्वत्ता का प्रशंसक हो सकता है ? इन विषयों में वास्तव में सायण के मन में सन्देह ही बना रहा, आध्यात्मिक भावना भी नहीं; नहीं तो आचार्य दयानन्द की भांति १८-१८ घण्टे समाधि द्वारा वेदार्थ के इन परमावश्यक मौलिक सिद्धान्तों का निर्णय आत्मा में करता तब लिखता तो ठीक था।

      यदि अनिश्चयात्मकता सायण के हृदय में न होती, यथावत् व्यवसायात्मक बुद्धि से वेदभाष्य करता तो संसार का महान् उपकार होता। इस अनिश्चयात्मकता के कारण ही उसके 'तस्मात् सर्वैरपि परमेश्वर एव हूयते। यद्यपि इन्द्रादयस्तत्र तत्र हूयन्ते तथापि परमेश्वर स्यैवेन्द्रादिरूपेणावस्थानाद' …सायण ऋग्भाष्यभूमिका। अर्थात् परमेश्वर के ही इन्द्रादि रूप में होने से यह सब ईश्वर की ही स्तुति है। सायणाचार्य अपनी इस बात पर भी दृढ़ न रह सका। यह बात हम आचार्य दयानन्द में ही पाते हैं। जो बात लिखी निश्चयात्मकता से लिखी। संसार को सन्देह में नहीं डाल गए। किसी विषय पर न लिखा
हो यह दूसरी बात है।

      इस प्रकार की अन्य भी अनेक बातें दर्शाई जा सकती हैं, जिनसे प्रत्येक निष्पक्ष विद्वान् को इसी परिणाम पर पहुंचना होगा और हम इस विवेचना से इसी परिणाम पर पहुंचे हैं कि सायण वेद के मौलिक अर्थों तक नहीं पहुंच सका। सायण की हिमालय जैसी ये मौलिक भूलें कदापि क्षन्तव्य नहीं हो सकतीं।

◼️सायण की भूल के दुष्परिणाम -
      यह भूल सायण तक ही रह जाती या शताब्दियों तक भारत तक ही यह भूल रह गई होती तब भी कोई बात नहीं थी। इसके परिणाम बड़े भंयकर हुए । यह ठीक है कि महात्मा बुद्ध के काल में भी यज्ञयागादि की इस प्रधानता ने ही बुद्ध जैसे महापुरुष तथा उनके अनुयायियों को यह कहने पर बाधित कर दिया था कि हम ऐसे वेदों को मानने को तत्पर नहीं, जिनमें पशु-हिंसा का विधान हो।

      विदेशीय राज्य की रक्षा को लक्ष्य में रखकर या पीछे से भाषाविज्ञान में विशेष जानकारी प्राप्त करने के विचार से संस्कृत भाषा में सामान्यतया और वेद-विषय में विशेषतया लगनेवाले योरूप, अमेरिकादि देशों के अनेक विद्वानों को भी (अन्य कोई वेदार्थ उपलब्ध न होने से) सायण का ही अनुगामी बनना पड़ा और जो-जो सायण के भाष्य में पुरानी मिथ्या बातों वा मिथ्या धारणाओं पर प्रामाणिकता की मोहर लग चुकी थी, उसी के पीछे विदेशी विद्वानों का समूह चला। - ऐतिहासिक वाद के विषय में सायण से पूर्व आचार्य स्कन्दस्वामी का 🔥'एवमाख्यानस्वरूपाणां मन्त्राणां यजमाने नित्येषु च पदार्थेषु योजना कर्त्तव्या। औपचारिकोऽयं मन्त्रेष्वाख्यानसमय:' यह सिदान्त चला आता था। प्रत्येक मन्त्र का तीन प्रकार का अर्थ होता है, यह धारणा परम्परा से स्कन्द के काल तक चली आई थी। सायण ने उनका उल्लेख भी अपने भाष्य में किया होता, तब भी वेदार्थ की मौलिक धारणायें किसी प्रकार जीवित रह जातीं। तब इन विदेशीय स्कालरों को भी वेदार्थ के विषय में सोचने का अवसर होता कि 'आध्यात्मिक और आधिदैविक अर्थ तो अभी शेष है; सायण के भाष्य में ही वेदार्थ की परिसमाप्ति नहीं हो जाती और इतिहास का सारा वर्णन औपचारिक के रूप में है, न कि वास्तविक घटना' तब महान् उपकार होता। विदेशीय विद्वान् हमारी सारी संस्कृति, सभ्यता और साहित्य को उलटे रूप में सबके सामने न रख सकते।

      मैं तो कहता हूं कि यदि सायणभाष्य का ही हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू वा अन्य जिस किसी भाषा में अनुवाद करके किन्हीं शिक्षणालयों में रख दिया जावे तो निश्चय ही समझना चाहिये कि कुछ श्रद्धालुओं को छोड़ कर सबकी एक ध्वनि उठेगी कि ये वेद जङ्गलियों की यों ही बड़बड़ाहट या अण्ट-सण्ट कृत्तियां हैं, जिनसे मानव-समाज को कुछ भी लाभ नहीं हो सकता। पञ्जाब यूनिवर्सिटी की शास्त्री परीक्षा में जितना अंश सायण भाष्य का है उससे, सायण की छाप के कारण, शास्त्री प्राय: वेद विमुख ही हो जाते हैं। क्योंकि उन्हें वेद के वास्तविक स्वरूप का तो दर्शन भी नहीं हो पाता। इस सारे अनर्थ का मूल सायणाचार्य वेदार्थ ही है। यहां हम यह भी कह देना चाहते हैं कि ‘मुख्येन व्यपदेश’ नियमानुसार यदि सेना जा रही हो तो भी मुख्यता से यही कहा जाता है कि 'राजा जा रहा है।' इसी प्रकार याज्ञिक प्रक्रिया के अनुसार भाष्य करनेवाले अन्य सभी भाष्यकार इसी कोटि में आ जाते हैं। उनके प्रथम निर्देश की यहाँ आवश्यकता नहीं। सब 'यथा हरिस्तथा हरः' के अनुसार ही समझने चाहिये। सायण का नाम इसलिए भी बार-बार आता है कि वेदों तथा ब्राह्मण ग्रन्थों पर सबसे अधिक भाष्य सायणाचार्य के ही हैं जिनको लेकर आगे लोगों ने अनुवाद किये। सायण के भाष्य को पढकर कोई भी समझदार वेद के उस स्वरूप तक नहीं पहुंच सकता, जो ऋषि मुनि मानते हैं-

      🔥'स सर्वोऽभिहितो वेदे, सर्वज्ञानमयो हि सः'
      (मनु० २।७४)

      🔥अनादिनिधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा।
      आदौ वेदमयी दिव्या यतः सर्वाः प्रवृत्तयः ॥
      महाभारत शान्तिपर्व अ० २४।२३२॥
      वेद समस्त विद्याओं का स्रोत है, सम्पूर्ण ज्ञान वेद से ही मानवसमाज को प्राप्त हुआ। सार्वभौमिक नियमों का प्रतिपादन वेद में है, इत्यादि सब बातें सायणभाष्य को पढ़कर कभी मन में नहीं बैठ सकतीं।

◼️सायण और विदेशीय विद्वान् -
      विदेशीय विद्वानों को वेदविषय में सायणभाष्य ही एकमात्र आश्रय मिला। वह उनके अनुकूल निकला, क्योंकि वे तो चाहते ही थे कि भारतीयों को अपनी प्राचीन संस्कृति, सभ्यता और साहित्य के प्रति जितनी अश्रद्धा पैदा करने में हम सफल हो जायेंगे, उतना ही हमारा राज्य भारत में स्थायी दृढ़ होता जायगा। उन्होंने वेद के जो अनुवाद अंग्रेजी में किये, वे सब के सब सायण की छाया से ही किये। यह ठीक है कि इन विदेशीय विद्वानों ने भारतीय न होते हुए भी हमारे संस्कृत साहित्य में, विशेषकर वैदिक साहित्य में, अनुपम प्रशंसनीय तथा अनुकरणीय उद्योग किया। इसके लिये हम उनके अत्यन्त आभारी हैं। निस्सन्देह उन्होंने वैदिक साहित्य में खोज का उपक्रप करके हम भारतीयों के अपने साहित्य की रक्षा का उत्तम मार्ग दर्शा दिया। जिस-जिस का भी किसी विदेशी ने सम्पादन किया है, सर्वसाधारण की दृष्टि निस्सन्देह वह उनके अत्यन्त परिश्रम और निरन्तर धैर्य तथा गम्भीर विवेचना का परिचय देता है। यह दूसरी बात है कि उनका ज्ञान शास्त्र विषय में गहरा नहीं, अपितु बहुत थोड़ा है। अत: जिस विषय में उनका ज्ञान नहीं, उसमें उनसे भूलें रह जाना स्वाभाविक ही है। पर उन जैसा परिश्रम इस पराधीन देश के विद्वानों ने प्रायः नहीं किया वा उनके गुण की ओर ध्यान नहीं दिया, यही कहना पड़ता है। देश की पराधीनता के बन्धन ढीले होने पर आर्यों (हिन्दुओं) को वा कांग्रेस को समझ आ गई तो सम्भव है हमारी वैदिक साहित्य की यह अमूल्य सम्पत्ति फिर से पहले उच्च शिखर पर पहुंच जावे। (पर यह बात अभी कुछ कठिन प्रतीत होती है। प्रायः सब लोग विदेशी संस्कृति, सभ्यता और साहित्य के उपासक हो रहे हैं। यह विष भारत से न जाने कितने लम्बे काल के पश्चात् निकल सकेगा।)

      यह सब होते हुए भी हम यह कहे विना नहीं रह सकते कि उनकी भावना अच्छी नहीं थी, जिससे प्रेरित होकर वे हमारे साहित्य की खोज में लगे। अपने इस विचार की पुष्टि में विचारशील महानुभावों के सामने एक ही उदाहरण उपस्थित करना पर्याप्त होगा। मोनियर विलियम्स अपने कोश की भूमिका में लिखता है कि यह संस्कृत-अंग्रेजी डिक्शनरी या संस्कृत-ग्रन्थों के अनुवाद का कार्य, जो मि० बौडन के ट्रस्ट द्वारा हो रहा है, वह सब भारतीयों को ईसाई बनाने में अपने देश (इङ्गलैण्ड) वासियों को सहायता पहुंचाने के लिये है !!! इतने से ही विचारशील महानुभाव समझ सकते हैं कि विदेशियों ने किस ध्येय को लक्ष्य में रखकर हमारे वैदिक साहित्य तथा अन्य संस्कृत साहित्य में इतना घोर परिश्रम किया। सब योरूपीय तथा अन्य देशीय विद्वान् प्रायः इसी धारणा और भावना को लेकर हमारे सारे साहित्य की खोज में लगे, हमारे कल्याण के लिये नहीं, यह दुःख से कहना पड़ता है।

      हमें तो यहां यह बतलाना है कि सायण की वेदार्थ विषय की मिथ्या धारणा का कितना दुष्परिणाम हुआआ। सोचने की बात है कि इन विदेशी विद्वानों को यदि सायण की अपेक्षा वेद का उत्तम भाष्य मिला होता, तो निश्चय ही इनके अंग्रेजी वा अन्य योरोपियन भाषाओं में किये अनुवाद अवश्य ही भिन्न होते। अब तो वे सब के सब सायण से आगे नहीं जा सके। एक आध ने थोड़ा बहुत यत्न किया, पर धारणा सुदृढ़ न होने तथा प्रमाण न मिलने से रह गये। कर ही क्या सकते थे ? यदि सायण की मिथ्या धारणा और उसके आधार पर किया वेदार्थ अर्थात् वेदभाष्य न होता तो मैक्समूलर का ऋग्वेदभाष्य पर का लेख तथा ग्रिफिथ के ऋग्, यजुः, साम और अथर्व के अनुवाद, विलसन का ऋग्वेद का अंग्रेजी अनुवाद, लुड्विंग का ऋग्वेद का जर्मनानुवाद तथा ह्विटनो का अथर्ववेद का अंग्रेजी अनुवाद, वैनफी का सामवेद का जर्मनानुवाद, कीथ का तै० संहिता, ऐतरेय और कौषीतकी ब्राह्मण का अनुवाद, हाग का ऐतरेय ब्राह्मण का अनुवाद, ऐगलिङ्ग का शतपथब्राह्मण का अनुवाद - इन सब का स्वरूप अवश्य ही वह न होता, जो अब है। सायण के वेदार्थ ने इन की आंखों पर भी पट्टी बांध दी।

      इनसे अतिरिक्त ओल्डनबर्ग ब्लूमफील्ड, आफ्रैख्ट मैकडानल, बोटलिङ्ग आदि ने जो वैदिक साहित्य के भिन्न-भिन्न विषयों पर घोर परिश्रम किया, इसका स्वरूप भी अवश्य ही भिन्न होता। इसी प्रकार काए जी, क्रिस्ते, रियूटर, सोलोमन्स, बर्नेल, नेगलीन आदि श्रौत और गृह्यसूत्र आदि पर परिश्रम करनेवाले विद्वानों का दृष्टिकोण भी अवश्य ही भिन्न होता। इनमें जिनका स्वार्थ इसी बात में था कि भारत की संस्कृति, सभ्यता का निम्नतम स्वरूप ही संसार के सामने आवे और जिन्हें भारतवासियों को भी उनके वास्तविक स्वरूप से अपरिचित रखना ही अभिप्रेत था, उनको छोड़कर बहुत से विद्वान् वेदार्थ के शुद्ध स्वरूप को जान कर अवश्य प्रसन्न होते और भारत के सदा ऋणी रहते !!!

      वेदार्थ का सच्चा स्वरूप कभी भी सामने नहीं आ सकता, जब तक सायण के वेदार्थ की भित्ति (दीवार) बीच में खड़ी रहेगी। जो व्यक्ति उस दीवार को लांघ जाएगा, वही सच्चे वेदार्थ का दर्शन कर सकता है, दूसरा नहीं। यहां इस विषय के हमारे सारे कथन का सार यही है कि अन्य सामग्री के अभाव में सायण के कन्धे पर चढ़कर पूर्वोक्त धारणाओं के आश्रय से (उसकी मिथ्या धारणाओं को छोड़कर) हमें दूर की वस्तु देखने में कुछ सहायता भले ही मिले, परन्तु हमें वेदार्थ के लिये सायण से आगे चलना होगा।
[वेदवाणी, वर्ष १, अङ्क १, २]

✍🏻 लेखक - पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
(जन्म- १४ अक्तूबर १८९२, मृत्यु- २२ दिसम्बर १९६४)
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

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