Monday, March 30, 2020

क्रान्तिकारी भगत सिंह



क्रान्तिकारी भगत सिंह

-प्रांशु आर्य
  
संसार एक विशाल रणस्थली है। यहां सदैव संघर्ष रहा है। संसार का इतिहास संघर्ष का इतिहास है। जो व्यक्ति, जो समाज, जो राष्ट्र संसार समर में कमर कस कर जूझने व मिटने के लिए तैयार नहीं होते वे इतिहास के गर्भ में खो जाया करते हैं। किसी कवि ने
बड़े ओजस्वी स्वर में लिखा है -

जिसे दुनिया कहते हैं ऐ दुनिया वालो !
यह रणक्षेत्र है कोई महफिल नहीं है,
हथेली में सर जिसका हो इसमे कूदे ।
यह दरिया है वो जिसका साहिल नहीं है ।।

संसार के इतिहास पर दृष्टिपात करने से पता चलता है कि यहां अच्छे और बुरे, न्याय और अन्याय करने वाले, सदाचारियों और दुराचारियों, पोषकों और शोषकों के बीच सदैव ही संघर्ष रहा है। विश्व के समस्त देशों ने इन्हीं संघर्षों के बीच में अपने को विकसित किया है। अन्याय, अत्याचार, परस्वहरण करने वाले शोषकों, लुटेरों की क्रूरता, निरंकुशता छल-कपट ने जब-जब अपनी चरम सीमा को पार किया है, जनता तिलमिला उठी है और तब-तब अपने अस्तित्व व आत्मरक्षा के लिए एवं दमनकारी शासकों को उखाड़ फेंकने के लिए वृहद् स्तर पर जनता ने विद्रोह के बिगुल फूँके हैं जिसे क्रान्ति कहा जाता है।

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है - जब बदलाव धीरे-धीरे आता है तो उसे विकास कहते हैं और जब बदलाव तेजी से आता है तो उसे क्रान्ति कहते हैं। क्रान्ति के बिना शांति स्थापित नहीं हो सकती और देश, समाज में शांति की स्थापना करना ही क्रांतिकारियों का काम होता है। किन्तु क्रान्ति का अर्थ तोड़-फोड़, धरने या हत्याएँ करना नहीं होता उसके पीछे एक दर्शन, एक विचार व परिवर्तन की एक स्पष्ट रूपरेखा होती है।

क्रांति का अर्थ है ‘क्रमु पाद विक्षेपे‘ अर्थात् आगे चलना। जब कभी गति चक्र रुक जाए तो उस अवरुद्ध गति चक्र को आगे बढ़ाना, आगे चलाना ही क्रांति कहलाती है। क्रांति भी दो प्रकार की होती है - एक वैचारिक क्रांति और दूसरी शारीरिक अथवा सशस्त्र क्रांति। किन्तु वैचारिक क्रांति के बिना सशस्त्र क्रांति का कोई अर्थ नहीं होता। सशस्त्र क्रांति की अपेक्षा वैचारिक क्रांति ही सदैव प्रभावशाली व चिरस्थाई होती है। इसमें भी मुख्य बात यह है कि इन दोनों प्रकार की क्रांतियों को केवल वे ही लोग कर सकते हैं जिनमें अन्याय, अत्याचार के विरुद्ध आक्रोश व विद्रोह करने की क्षमता व साहस हो। और ऐसे साहसी व क्रांति के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने वालों को ही क्रांतिकारी कहा जाता है और ऐसे ही सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी थे सरदार भगत सिंह। जिन्होंने अपनी छोटी सी आयु में ही अपने अदम्य साहस से बर्बर ब्रिटिश सरकार की नींव हिला कर समूचे देश में क्रांति मचा दी थी। भगत सिंह भी वैचारिक क्रांति के पक्षधर थे। अदालत में जब उनसे पूछा गया कि क्रांति से उनका क्या मतलब है ? तब इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा कि - क्रांति का मतलब केवल खूनी लड़ाइयां या वैयक्तिक वैर निकालना नहीं है । और न बम अथवा पिस्तौल का प्रयोग करना ही उसका एकमात्र उद्देश्य है । क्रांति से हमारा अभिप्राय केवल उस अन्याय को समूल नष्ट कर देना है, जिसकी भित्ति पर वर्तमान शासन-प्रणाली का निर्माण हुआ है।

भारत के इस वीर क्रांतिकारी का जन्म 27 सितंबर 1907 को लायलपुर जिले के बंगा नामक स्थान (वर्तमान में पाकिस्तान) पर हुआ था। आप बचपन से ही क्रांतिकारी स्वभाव के थे। आपके विचार बचपन से ही क्रांतिकारी थे। आपको ये क्रांति के विचार व संस्कार विरासत में अपने पुरखों से मिले थे। आपके पिता सरदार किशन सिंह देश की स्वतंत्रता के लिए जीवन भर जेलों की कठिन यातनाएं सहते रहे। आप को जन्म देने वाली वीरांगना माता विद्यावती देवी थी जो जीवन भर अनेक कष्टों को सहती हुई भी आपका और आपके परिवार का पालन पोषण करती रही। आपके मंझले चाचा सरदार अजीत सिंह बहुप्रतिभाशाली राष्ट्रभक्त एवं क्रांतिकारी थे। देश की आजादी के लिए वे 40 वर्षों तक विदेशों में रहकर लोगों को संगठित करने का कार्य करते रहें और देश को स्वतंत्र कराने के पश्चात् ही स्वदेश लौटे। आप के सबसे छोटे चाचा स्वर्णसिंह जी भी अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करते हुए युवावस्था में ही बलिदान हो गए।

आपके परिवार के मुखिया आपके दादा सरदार अर्जुन सिंह जी देशभक्त व धुन के धनी व्यक्ति थे। आपके परिवार में क्रांति की धुन आपके दादा सरदार अर्जुन सिंह जी ने ही जगायी थी और आपके दादा जी के अन्दर यह क्रांति की धुन जगाने वाले आधुनिक भारत के निर्माता, क्रांति व शांति दोनों धाराओं के जनक एवं आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती थे। महर्षि दयानंद के संपर्क में आने के बाद, उनके उपदेशों का आपके दादा सरदार अर्जुन सिंह जी पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह समस्त अंधविश्वासी और रूढ़िवादी मान्यताओं को छोड़कर कट्टर आर्य समाजी बन गए। आर्य समाज से इतर इस बात को भी कम ही लोग जानते हैं कि सरदार अर्जुनसिंह जी का यज्ञोपवीत संस्कार स्वयं ऋषि दयानंद ने अपने कर कमलों से किया था और अपने पौत्र भगत सिंह का यज्ञोपवीत संस्कार उन्होंने आर्य समाजी विद्वान् पंडित लोकनाथ तर्कवाचस्पति से करवाया था और भगत सिंह को पढ़ाने के लिए आर्य समाजी विद्वान् उदयवीर शास्त्रीजी को नियुक्त किया था। इतना ही नहीं सरदार अर्जुन सिंह जी पर आर्य समाज का जादू ऐसा चढ़ा कि वह घूम-घूम कर वैदिक धर्म का प्रचार व शास्त्रार्थ करने लगे। गुरु ग्रन्थ साहब की पोथी को मत्था टेकने के स्थान पर हवन करने लग गए। वे न सिर्फ स्वयं ही आर्य समाजी रंग में रंगे अपितु उन्होंने अपने पूरे परिवार को आर्य समाजी संस्कारों में रंग दिया। आर्य समाज एक क्रांतिकारी आंदोलन है, इस बात को वे गहराई तक समझ चुके थे और इसीलिए इस क्रांति रथ को आगे बढ़ाने के लिए वह अपने पूरे परिवार के साथ इसमें कूदे। क्रांति के इस यज्ञ में हवनकुंड वे स्वयं ही बने।  अपने तीनो पुत्रों सरदार किशन सिंह, अजित सिंह और स्वर्ण सिंह को समिधा बनाकर इस हवन कुंड में प्रवेश करवाया। बड़े पौत्र जगत सिंह से इस कुंड में अग्नि प्रज्वलित करवाई और इस प्रज्वलित अग्नि को ऊपर उठाने के लिए भगत सिंह ने इस हवनकुंड में अपनी आहुति दी और ऐसी आहुति दी जिसने देश में क्रांति के सैकड़ों जलते हुए हवन कुंड तैयार कर दिए।

पाठको ! यह भगत सिंह की पारिवारिक पृष्ठभूमि की वह झलक है जिसे आज तक एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत देशवासियों से छुपाया गया है। कम्युनिस्टों द्वारा भगत सिंह के लघु लेख मैं नास्तिक क्यों हूँ के आधार पर उनके नास्तिक होने का तो खूब प्रचार किया गया किन्तु उनके परिवार का आर्य सामाजी सिद्धांतों व संस्कारों से ओत-प्रोत होने को पूरी तरह से लोगो के सामने आने से दबाया गया जो वास्तव में भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारों का मूल है। याद रखिए जो संस्कार बालक को बचपन में मिलते हैं उसी पर ही उसके भावी जीवन की नींव शिला टिकी होती है। यह ठीक है कि लेनिन आदि का साम्यवादी साहित्य पढ़ने के बाद उनके विचारों में काफी हद तक परिवर्तन आया था तथापि इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि उनके जीवन कार्योें व विचारांे के मूल में, उनको घर से मिले संस्कार व ऋषि दयानन्द की प्रेरणा ही काम कर रही थी।

भगत सिंह के क्रांतिकारी जीवन में दो घटनाएं विशेष एवं ऐतिहासिक रही है जिनका उनकी फांसी से गहरा सम्बन्ध रहा। प्रथम तो 30 अक्टूबर सन् 1930 में जब साइमन कमीशन लाहौर पहुंचा तब लाला लाजपतराय के नेतृत्व में उसका बहिष्कार किया गया। प्रदर्शनकारियों और पुलिस में मुठभेड़ हुई। क्रूरता की हदें पार करते हुए निहत्थे लालाजी पर पुलिस द्वारा बर्बर लाठियां बरसाई गईं जिसके परिणामस्वरूप 17 नवंबर 1928 के दिन लाला जी का बलिदान हो गया। इस बलिदान ने सारे देश को आक्रोशित कर दिया। भगत सिंह और उनके साथियों ने बदला लेने की ठानी। पुलिस सुपरिटेंडेंट स्कॉट की हत्या करने की योजना बनाई गई किन्तु चूंक से मारा गया सांडर्स। अगले दिन लाहौर शहर की दीवारों पर पर्चे चिपके मिले, जिस पर मोटे अक्षरों में लिखा था - ‘सांडर्स मारा गया, लाला जी का बदला लिया गया।‘

प्रश्न उठ सकता है कि जब क्रांति का अर्थ हत्या करना नहीं होता तो फिर सरदार भगत सिंह ने और उनके साथियों ने ये हत्या क्यों की ? उत्तर यह है कि ये हत्या आवश्यक थी। क्योंकि जब शासक क्रूर व जालिम हो जाए, अपने नस्ली अहंकार के मद में चूर होकर अपने को मालिक और जनता को नौकर से भी बद्तर समझने लगे, उनकी आवाज को दबाने के लिए साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपनाकर उनहें कुचलने लगे तब क्रांति की मशाल को जलाए रखने के लिए भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों के समक्ष एक ही रास्ता रह जाता है कि शासन करने वाले ऐसे क्रूर भेड़ियों का वध कर दिया जाए और क्रांति की मशाल को दूसरे तक पहुंचाने के लिए रास्ता बनाया जाए। शास्त्रकारों ने भी कहा है - न आततायी वधे दोषः। अर्थात् आततायी, अत्याचारी का वध करने में कोई दोष, कोई पाप नहीं।

द्वितीय घटना तब घटी जब जालिम अंग्रेजों द्वारा इस देश के गरीब किसानों-मजदूरों की आवाज को कुचलने के लिए दो बिल लाने का निर्णय लिया गया पहला पब्लिक सेफ्टी और दूसरा ट्रेड डिस्प्यूट बिल। देश के अलग-अलग हिस्सों में इस बिल का विरोध होने लगा लेकिन पुनः अहंकार के मद में चूर अंग्रेज भारतीयों की आवाज सुनने को तैयार न थे। ऐसे में भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, चंद्रशेखर आजाद, बटुकेश्वर दत्त व उनके अन्य साथी इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि गोरों की जात बहरी है और बहरों को सुनाने के लिए धमाके की जरूरत होती है। इसी के परिणामस्वरूप बहरी अंग्रेज सरकार को सुनाने के लिए 8 अप्रैल 1929 को असेंबली हॉल में खाली स्थान को देखकर भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने बम फेंक दिए और इंकलाब जिंदाबाद के नारे के साथ स्वयं ही अपनी गिरफ्तारी दी। वस्तुतः बम फेंकने का उद्देश्य किसी की जान लेना नहीं था। वे बम भी केवल धुआं छोड़ने व आवाज करने वाले ही थे। किन्तु बम फेंकने के पीछे जो भगत सिंह का उद्देश्य था वे उसमें सफल हुए क्योंकि इस धमाके की गूंज पूरे देश में सुनी गई। इस धमाके की आवाज ने बहरी अंग्रेज सरकार के होश उड़ा दिए। भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त पर मुकदमा चलाया गया। अदालत की कार्रवाई शुरू हुई। भगत सिंह इसी अवसर की तलाश में थे। अदालत की कार्रवाई के दौरान अपने समस्त विचारों को अदालत में व देश की जनता के सामने रखते हुए अपने बयान में भगत सिंह ने कहा - यह काम हमने किसी व्यक्तिगत स्वार्थ अथवा द्वेष की भावना से नहीं किया है; हमारा उद्देश्य केवल उस शासन व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिवाद प्रकट करना था जिसके हर एक काम में उसकी अयोग्यता ही नहीं वरन उसकी दुष्टता तथा निरंकुशता प्रकट होती है। इस विषय में हमने जितना विचार किया उतना हमें इस बात का दृढ़ विश्वास होता गया कि अब समय आ गया है जब संसार को दिखा दे कि भारत आज किस लज्जाजनक तथा असहाय अवस्था के बीच गुजर रहा है; इसके द्वारा हमें गैरजिम्मेदार तथा निरंकुश शासन की पोल भी खोलना चाहते थे।

भगत सिंह के इन ओजस्वी विचारों ने सारे देश में क्रांति लाने का काम किया। देश का बच्चा-बच्चा भगतसिंह के नाम से परिचित हो गया और कुछ ही समय में भगत सिंह गांधी जी से भी अधिक लोकप्रिय हो गए।

इधर दूसरी ओर अंग्रेजी अदालतों में न्याय का नंगा नाटक चलता रहा। 24 मार्च 1931 के दिन तीनों अभियुक्तों भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु को फांसी देने का निर्णय हुआ। भगत सिंह के मन की हुई। वे चाहते भी यही थे कि उनको फांसी दी जाए। फांसी के कुछ दिन पूर्व जब उनके मित्र जयदेव कपूर जेल में उनसे मिलने पहुँँचे और पूछा कि - क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि इस तरह असमय फांसी चढ़ जाने से आपका जीवन व्यर्थ चला जाएगा। इस बात का उत्तर देते हुए भगत सिंह ने कहा था कि - नहीं! मुझे ऐसा नहीं लगता। क्योंकि जेल की बैरक में बैठ कर के मैं सुन सकता हूँ कि इंकलाब जिंदाबाद और साम्राज्यवाद मुर्दाबाद का जो नारा मैंने दिया है उसकी  गूंज आज सारे देश में सुनाई दे रही है। ऐसा ही हुआ भी। फांसी का समाचार पूरे देश में आग की तरह फैला। नवयुवकों का रक्त उबलने लगा। सारे देश में फांसी को रोकने के लिए आंदोलन, प्रदर्शन व धरने होने लगे। देश के जोश को देखकर अंग्रेज सरकार इतनी डर गई कि समय से पहले ही 23 मार्च 1931 को शाम 7 बजकर 33 मिनट पर तीनों क्रांतिकारियों को फांसी पर चढ़ा दिया। फांसी पर चढ़ते वक्त भगत सिंह और उनके साथियों ने इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगाया और इस तरह मात्र 23 साल 5 महीने और 26 दिन की आयु में भगतसिंह भारत माता की गोद में सदा के लिए सो गया। फांसी से पूर्व उन्होंने अपनी जेल कोठड़ी में बैठकर लिखा था - 

दिल से निकलेगी न मर कर भी वतन की उल्फत,
मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आएगी।

प्रिय पाठको ! इस देश की आजादी के लिए अनेकों क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया किन्तु भगत सिंह का नाम अपना एक विशेष महत्व रखता है। उनके बलिदान के बाद उस समय के तत्कालीन अखबार च्मवचसम में उनके बारे में लिखा था - ‘‘देश की स्वतंत्रता के लिए एक ही नहीं, बल्कि हजारों वीरों ने अपने प्राणों की बलि दी है ; हम भगत सिंह का नाम उन शहीदों में जोड़ कर अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं समझ सकते। भगत सिंह ही ऐसे शहीद हैं, जिन्होंने एक ही नहीं, हजारों देशवासियों के हृदय में स्थान कर लिया है। उनकी यह कुर्बानी, जब तक देश का एक भी बच्चा जीवित है, तब तक नहीं भुलाई जा सकती। कितने व्यक्ति ऐसे होंगे जो इस प्रकार हंसते-हंसते मृत्यु को अपना सकेंगे ? दो वर्ष के लंबे अरसे को सब प्रकार की कठिनाइयों का सामना करते हुए, अपने उत्साह को पहले ही की तरह कायम रखने वाले, शहीदों में भी कम ही मिलेंगे। केवल यौवन की क्षणिक उत्तेजना के वशीभूत होकर इस आदर्श को अपनाने वाले व्यक्ति, इतने लंबे समय तक इस प्रकार की अग्नि परीक्षा का सामना कर भी कैसे सकते थे ? भगत सिंह अदालती अपीलों तथा फांसी स्थगित कराने के प्रयास के समय भी उसी प्रकार उदासीन रहे, जिस प्रकार मुकदमे के समय में दिखाई देते थे। इसके लिए एक शहीद की हिम्मत तथा जीवन के प्रति किसी दार्शनिक की-सी उदासीनता की आवश्यकता थी। भगतसिंह में तो इन दोनों गुणों का अभाव न था।

लोगों के ख्याल से, जनता पर, भगत सिंह के इस आदर्श बलिदान से अधिक, हाल में होने वाली अन्य किसी घटना का प्रभाव नहीं पड़ा। अभी से उन्हें परंपरागत महापुरुषों में स्थान मिल गया है। भारतीय युवक समाज को उन पर गर्व है और यह है भी ठीक ही। उनका वह अदम्य उत्साह, उच्च आदर्श तथा किसी के आगे सिर न झुकाने वाली वह निर्भीकता, सदियों तक कितने ही पथभ्रष्ट लोगों को रास्ता दिखाएगी।
  
भगत सिंह के इस साहस तथा आत्म-बलिदान ने राजनैतिक वातावरण से घुसी जड़ता को दूर निकालने में बिजली का सा काम किया। उन्होंने ‘इंकलाब जिंदाबाद‘ का नारा भारत के बच्चे-बच्चे के दिल में रमा दिया। उन्होंने यह नारा ब्रिटिश अदालतों में सबसे पहले लगाया था, उसी का परिणाम यह है कि आज यह नारा भारत की गली-गली में सुनने में आ रहा है। यह सच है कि भगत सिंह हमारे बीच में नहीं है परन्तु भारतीय जनता जब भी ‘इंकलाब जिंदाबाद‘ का नारा लगाती है तो इसमें ‘भगत सिंह जिंदाबाद‘ का स्वर भी तो छिपा रहता है।‘‘ 

ऐसे वीर बलिदानी, आदर्श क्रांतिकारी भगत सिंह के बलिदान दिवस पर हम उन्हें शत्-शत् नमन करते हैं।

सायणाचार्य का वेदार्थ



◼️सायणाचार्य का वेदार्थ◼️
✍🏻 लेखक - पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’

      सायणाचार्य से पूर्व उपलब्ध होनेवाले स्कन्द, दुर्ग आदि के वेदभाष्यों तथा सायणाचार्य के भाष्य में बहुत अधिक भेद नहीं, किन्तु सायण से पूर्ववर्ती भाष्यकारों तक वेदार्थ की विविध (आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधियज्ञ) प्रक्रिया पर्याप्त मात्रा में रही। याज्ञिक प्रक्रिया का शुद्ध स्वरूप बना रहता, तब तो कुछ भी हानि नहीं थी; त्रिविध प्रक्रिया में याज्ञिक प्रक्रिया भी एक है ही, तदनुसार भी मन्त्र का अर्थ होना ही चाहिए। पर सायणाचार्य ने तो अपने पूर्ववर्ती आचार्यों की प्रक्रिया को न जाने कैसे छोड़कर केवल याज्ञिक प्रक्रियापरक ही वेदमन्त्रों का अर्थ किया और वह भी अधूरा। अधूरा इसलिए कि सायण का वेदभाष्य केवल श्रौतयज्ञों की प्रक्रिया को लक्ष्य में रखकर ही किया हुआ है। गृह्य सूत्रों में विनियुक्त मन्त्रों के विषय में सायण का भाष्य कुछ एक स्थलों को छोड़कर प्रायः कुछ भी नहीं कहता। गृह्य अर्थात् स्मार्त्त प्रक्रिया में भी तो वेदमन्त्रों का अर्थ होना ही चाहिये। इस प्रक्रिया के लिए हमें गृह्य सूत्रों के भाष्यकारों के किये वेदार्थ से वेदमन्त्रों के अर्थ देखने होंगे। ऐसी दशा में सायण भाष्य को याज्ञिक प्रक्रिया में अधूरा ही कहेंगे। इतना ही नहीं, श्रौतप्रक्रिया के विषय में भी सायण कहां तक प्रामाणिक है, यह अभी साध्यकोटि में ही है। श्रोत विषय में भी सायण की अनेक भूलें हैं, जो कालान्तर में दिखाई जा सकती हैं।

      इसमें तो कुछ भी सन्देह नहीं कि सायणाचार्य ने अपने समय में वैदिक साहित्य में महान् प्रयास किया। वेदों के भाष्य तथा ब्राह्मणग्रन्थों और आरण्यकों के भाष्य बनाए। अन्य अनेक विषयों में भी बहत से प्रौढता पूर्ण ग्रन्थ लिखे, चाहे वे सब उनकी अपनी कृति न हों, उनके संरक्षण में बने हों, पर उनका उत्तरदायित्व तो उन पर ही है। सायणाचार्य के इस प्रयास के लिए प्रत्येक वेद प्रेमी को उनका अनुगृहीत होना चाहिए। उनके वेदभाष्य में व्याकरण और निरुक्तादि का प्रयोग भी हमें पर्याप्त मात्रा में मिलता है। परन्तु मूलभूत धारणा के अनिश्चित वा भ्रान्त होने के कारण उनका मूल्य कुछ भी नहीं है और कई स्थानों में विरुद्ध भी है।

      जब सायणाचार्य के मन में यह मिथ्या धारणा निश्चित हो चुकी थी कि वेदमन्त्र यज्ञप्रक्रिया का ही, प्रतिपादन करते हैं, ऐसी अवस्था में यह स्वाभाविक ही था कि वह अपना समस्त यत्न वा प्रमाणादि सामग्री यज्ञप्रक्रिया के लिए ही समर्पित करते। जब ऐनक ही हरी पहन ली तो सब पदार्थ हरे दिखाई देने में आश्चर्य ही क्या हो सकता है ? उपयुक्त धारणा के कारण उसका वेदार्थ में अनेक अनावश्यक और आधाररहित सिद्धान्तों तथा परिणामों पर पहुंचना अनिवार्य था। उदाहरणार्थ पाठक देखें -

      सायण के वेदभाष्य में प्रायः सर्वत्र जहां-जहां मूलमन्त्र में जन, मनुष्य, जन्तु, नर, विट्, मर्त आदि सामान्य मनुष्यवाचक शब्द आये हैं, वहां सर्वत्र निर्वचन के आधार को छोड़कर, वाच्यवाचक सम्बन्ध के सामान्य नियम की अवहेलना करके सामान्य ‘मनुष्य’ अर्थ न करके 'यजमानादि' ही किया है। जैसा कि ऋग्वेद १।६०।४ में 🔥'मानुषेषु यजमानेषु'। ऋ० १।६८।४ में 🔥'मनोरपत्ये यजमानरूपायां प्रजायाम्। ऋ० १।१२८।१ में 🔥'मनुषः मनुष्यस्याध्वर्योः'। ऋ० १।१४०।१२ में 🔥'जनान् यजमानान्' आदि। भला बताइये इन मनुष्य, जन्तु, जन आदि शब्दों के अर्थ 'यजमान' ही हों, इसमें क्या नियामक है ? कारण क्या ? कारण यही कि यज्ञप्रक्रिया की ऐनक चढ़ी है। प्रत्येक मनुष्य यजमान या ऋत्विक ही दिखाई दे रहा है। भला नेता या मननशील जो कोई भी हो, यह अर्थ क्यों नहीं लेते? सायण होते तो उनसे पूछा जाता।

      सब मन्त्रों का तीन प्रकार का अर्थ होता है। इतने से ही सायण का सारा वेदार्थ तीसरा भाग रह जाता है। शेष दो भाग (आध्यात्मिक तथा आधिदैविक) में उसकी अनभिज्ञता वा अपूर्णता स्पष्ट सिद्ध है।
      विविध प्रक्रिया की अवहेलना ही वेदार्थ में एक ऐसी हिमालय जैसी भूल है, जो कदापि क्षन्तव्य नहीं हो सकती। सायण की भूल की समाप्ति यहीं पर ही नहीं हो गई। उनकी अन्य मौलिक भूलों का भी निर्देश करना हम आवश्यक समझते हैं।

      ◾️(१) यज्ञ में अध्वर्यु आदि के कर्मों को बताने के लिए ही वेदभाष्य करता हूं, ऐसा सायण ने कहा है। (देखो सायण के ऋग्वेदभाष्य के उपोद्घात के प्रारम्भ में)।

      ◾️(२) सायण सामवेद-भाष्य-भूमिका के प्रारम्भ में -

      🔥यज्ञो ब्रह्म च वेदेषु द्वावर्थौ काण्डयोर्द्धयोः।
      अध्वयु मुख्यैर्ऋत्विग्भिश्चतुभिर्यज्ञसम्पदः॥६॥
      इसमें वेद के मन्त्रों का अर्थ यज्ञपरक तथा ब्रह्मपरक माना। हमें तो सायण के इस लेख से प्रति प्रसन्नता हई कि चलो ब्रह्मपरक अर्थ नहीं किया तो न सही, ब्रह्मपरक अर्थ का निर्देश तो कर ही दिया है। पर हमारी यह प्रसन्नता अधिक देर न रह सकी, जब हमने काण्व-संहिता-भाष्य की भूमिका में सायण का यह लेख देखा-

      🔥'तस्मिश्च वेदे द्वौ काण्डो कर्मकाण्डो ब्रह्मकाण्डश्च। बृहदारण्यकाख्यो ग्रन्थो ब्रह्मकाण्डस्तव्यतिरिक्तं शतपथब्राह्मणं संहिता चेत्यनयोर्प्रन्थयोः कर्मकाण्डत्वम्, तत्रोभयत्राधानाग्निहोत्रदर्शपूर्णमासादिकर्मण एवं प्रतिपाद्य स्वात्।
      यहां पर सायण शतपथब्राह्मण ही नहीं अपितु 'संहिता' में भी 'दर्शपूर्णमासादिकर्मण एवं प्रतिपाद्यत्वात्' इस वचन से केवल दर्शपूर्ण मासादि यज्ञकर्मों का ही प्रतिपादनमात्र मानता है। पाठक विचार करें कि स्कन्द स्वामी की विविध प्रक्रिया, जिसे वह यास्काभिमत मानता है, उपस्थित होने पर भी, सायण 'न हि स्थाणोरपराधो यदेनमन्धो न पश्यति' वा 'पश्यन्नपि न पश्यति' देखता हया भी नहीं देखता, यही तो कहना पड़ेगा। क्या सायण ने स्कन्द स्वामी का भाष्य देखा ही नहीं होगा, यह कभी हो सकता है ? जब कि इस समय भी सैकड़ों वर्ष पीछे सायण की जन्मभूमि दक्षिण प्रान्त में ही स्कन्द की निरुक्तटीका मिली है।

      कुछ भी सही, सायण वेदार्थ की दीवार बन गया। इतनी ऊंची और इतनी दृढ़ कि किसी को लांघने का साहस नहीं होता था। पर प्रभू की असीम कृपा से आचार्य दयानन्द उस दीवार को लांघ गए और उनकी कृपा से आज हम शास्त्र के आधार पर लांघ रहे हैं।

      ◾️(३) सायण ने ऋग्भूमिका में मीमांसा के सिद्धान्तानुसार वेद में अनित्य इतिहास का-व्यक्तिविशेषों के इतिहास का निषेध मान कर वा निषेध करके भी अपने वेदभाष्य में यत्र तत्र सर्वत्र अनित्य व्यक्तियों का इतिहास स्पष्ट दर्शाया है।

      ◾️(४) देखिए सायण ऋग्भूमिका में -
      ▪️(क) 🔥’शतं हिमा इत्येतद् व्याख्येयमन्त्रस्य प्रतीकम्, अविशिष्ट तु तस्य तात्पर्यव्याख्यानम्।’
      ▪️(ख) 🔥'शतपथब्राह्मणस्य मन्त्रव्याख्यानरूपत्वाद् व्याख्येयमन्त्रप्रतिपादकः संहिताग्रन्थः पूर्वभावित्वात प्रथमो भवति॥' (सायणकाण्व भूमिका)

      इन दोनों स्थलों में शतपथ को मन्त्र का व्याख्यान मान कर भी 🔥'मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्' (ऋगादिभाष्यभूमिका) की ही रट लगाई है।

      इतिहास तथा वेदलक्षण विषय के परस्पर विरोध को देखकर भला कौन थोड़ा-सा ज्ञान रखनेवाला भी सायण की विद्वत्ता का प्रशंसक हो सकता है ? इन विषयों में वास्तव में सायण के मन में सन्देह ही बना रहा, आध्यात्मिक भावना भी नहीं; नहीं तो आचार्य दयानन्द की भांति १८-१८ घण्टे समाधि द्वारा वेदार्थ के इन परमावश्यक मौलिक सिद्धान्तों का निर्णय आत्मा में करता तब लिखता तो ठीक था।

      यदि अनिश्चयात्मकता सायण के हृदय में न होती, यथावत् व्यवसायात्मक बुद्धि से वेदभाष्य करता तो संसार का महान् उपकार होता। इस अनिश्चयात्मकता के कारण ही उसके 'तस्मात् सर्वैरपि परमेश्वर एव हूयते। यद्यपि इन्द्रादयस्तत्र तत्र हूयन्ते तथापि परमेश्वर स्यैवेन्द्रादिरूपेणावस्थानाद' …सायण ऋग्भाष्यभूमिका। अर्थात् परमेश्वर के ही इन्द्रादि रूप में होने से यह सब ईश्वर की ही स्तुति है। सायणाचार्य अपनी इस बात पर भी दृढ़ न रह सका। यह बात हम आचार्य दयानन्द में ही पाते हैं। जो बात लिखी निश्चयात्मकता से लिखी। संसार को सन्देह में नहीं डाल गए। किसी विषय पर न लिखा
हो यह दूसरी बात है।

      इस प्रकार की अन्य भी अनेक बातें दर्शाई जा सकती हैं, जिनसे प्रत्येक निष्पक्ष विद्वान् को इसी परिणाम पर पहुंचना होगा और हम इस विवेचना से इसी परिणाम पर पहुंचे हैं कि सायण वेद के मौलिक अर्थों तक नहीं पहुंच सका। सायण की हिमालय जैसी ये मौलिक भूलें कदापि क्षन्तव्य नहीं हो सकतीं।

◼️सायण की भूल के दुष्परिणाम -
      यह भूल सायण तक ही रह जाती या शताब्दियों तक भारत तक ही यह भूल रह गई होती तब भी कोई बात नहीं थी। इसके परिणाम बड़े भंयकर हुए । यह ठीक है कि महात्मा बुद्ध के काल में भी यज्ञयागादि की इस प्रधानता ने ही बुद्ध जैसे महापुरुष तथा उनके अनुयायियों को यह कहने पर बाधित कर दिया था कि हम ऐसे वेदों को मानने को तत्पर नहीं, जिनमें पशु-हिंसा का विधान हो।

      विदेशीय राज्य की रक्षा को लक्ष्य में रखकर या पीछे से भाषाविज्ञान में विशेष जानकारी प्राप्त करने के विचार से संस्कृत भाषा में सामान्यतया और वेद-विषय में विशेषतया लगनेवाले योरूप, अमेरिकादि देशों के अनेक विद्वानों को भी (अन्य कोई वेदार्थ उपलब्ध न होने से) सायण का ही अनुगामी बनना पड़ा और जो-जो सायण के भाष्य में पुरानी मिथ्या बातों वा मिथ्या धारणाओं पर प्रामाणिकता की मोहर लग चुकी थी, उसी के पीछे विदेशी विद्वानों का समूह चला। - ऐतिहासिक वाद के विषय में सायण से पूर्व आचार्य स्कन्दस्वामी का 🔥'एवमाख्यानस्वरूपाणां मन्त्राणां यजमाने नित्येषु च पदार्थेषु योजना कर्त्तव्या। औपचारिकोऽयं मन्त्रेष्वाख्यानसमय:' यह सिदान्त चला आता था। प्रत्येक मन्त्र का तीन प्रकार का अर्थ होता है, यह धारणा परम्परा से स्कन्द के काल तक चली आई थी। सायण ने उनका उल्लेख भी अपने भाष्य में किया होता, तब भी वेदार्थ की मौलिक धारणायें किसी प्रकार जीवित रह जातीं। तब इन विदेशीय स्कालरों को भी वेदार्थ के विषय में सोचने का अवसर होता कि 'आध्यात्मिक और आधिदैविक अर्थ तो अभी शेष है; सायण के भाष्य में ही वेदार्थ की परिसमाप्ति नहीं हो जाती और इतिहास का सारा वर्णन औपचारिक के रूप में है, न कि वास्तविक घटना' तब महान् उपकार होता। विदेशीय विद्वान् हमारी सारी संस्कृति, सभ्यता और साहित्य को उलटे रूप में सबके सामने न रख सकते।

      मैं तो कहता हूं कि यदि सायणभाष्य का ही हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू वा अन्य जिस किसी भाषा में अनुवाद करके किन्हीं शिक्षणालयों में रख दिया जावे तो निश्चय ही समझना चाहिये कि कुछ श्रद्धालुओं को छोड़ कर सबकी एक ध्वनि उठेगी कि ये वेद जङ्गलियों की यों ही बड़बड़ाहट या अण्ट-सण्ट कृत्तियां हैं, जिनसे मानव-समाज को कुछ भी लाभ नहीं हो सकता। पञ्जाब यूनिवर्सिटी की शास्त्री परीक्षा में जितना अंश सायण भाष्य का है उससे, सायण की छाप के कारण, शास्त्री प्राय: वेद विमुख ही हो जाते हैं। क्योंकि उन्हें वेद के वास्तविक स्वरूप का तो दर्शन भी नहीं हो पाता। इस सारे अनर्थ का मूल सायणाचार्य वेदार्थ ही है। यहां हम यह भी कह देना चाहते हैं कि ‘मुख्येन व्यपदेश’ नियमानुसार यदि सेना जा रही हो तो भी मुख्यता से यही कहा जाता है कि 'राजा जा रहा है।' इसी प्रकार याज्ञिक प्रक्रिया के अनुसार भाष्य करनेवाले अन्य सभी भाष्यकार इसी कोटि में आ जाते हैं। उनके प्रथम निर्देश की यहाँ आवश्यकता नहीं। सब 'यथा हरिस्तथा हरः' के अनुसार ही समझने चाहिये। सायण का नाम इसलिए भी बार-बार आता है कि वेदों तथा ब्राह्मण ग्रन्थों पर सबसे अधिक भाष्य सायणाचार्य के ही हैं जिनको लेकर आगे लोगों ने अनुवाद किये। सायण के भाष्य को पढकर कोई भी समझदार वेद के उस स्वरूप तक नहीं पहुंच सकता, जो ऋषि मुनि मानते हैं-

      🔥'स सर्वोऽभिहितो वेदे, सर्वज्ञानमयो हि सः'
      (मनु० २।७४)

      🔥अनादिनिधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा।
      आदौ वेदमयी दिव्या यतः सर्वाः प्रवृत्तयः ॥
      महाभारत शान्तिपर्व अ० २४।२३२॥
      वेद समस्त विद्याओं का स्रोत है, सम्पूर्ण ज्ञान वेद से ही मानवसमाज को प्राप्त हुआ। सार्वभौमिक नियमों का प्रतिपादन वेद में है, इत्यादि सब बातें सायणभाष्य को पढ़कर कभी मन में नहीं बैठ सकतीं।

◼️सायण और विदेशीय विद्वान् -
      विदेशीय विद्वानों को वेदविषय में सायणभाष्य ही एकमात्र आश्रय मिला। वह उनके अनुकूल निकला, क्योंकि वे तो चाहते ही थे कि भारतीयों को अपनी प्राचीन संस्कृति, सभ्यता और साहित्य के प्रति जितनी अश्रद्धा पैदा करने में हम सफल हो जायेंगे, उतना ही हमारा राज्य भारत में स्थायी दृढ़ होता जायगा। उन्होंने वेद के जो अनुवाद अंग्रेजी में किये, वे सब के सब सायण की छाया से ही किये। यह ठीक है कि इन विदेशीय विद्वानों ने भारतीय न होते हुए भी हमारे संस्कृत साहित्य में, विशेषकर वैदिक साहित्य में, अनुपम प्रशंसनीय तथा अनुकरणीय उद्योग किया। इसके लिये हम उनके अत्यन्त आभारी हैं। निस्सन्देह उन्होंने वैदिक साहित्य में खोज का उपक्रप करके हम भारतीयों के अपने साहित्य की रक्षा का उत्तम मार्ग दर्शा दिया। जिस-जिस का भी किसी विदेशी ने सम्पादन किया है, सर्वसाधारण की दृष्टि निस्सन्देह वह उनके अत्यन्त परिश्रम और निरन्तर धैर्य तथा गम्भीर विवेचना का परिचय देता है। यह दूसरी बात है कि उनका ज्ञान शास्त्र विषय में गहरा नहीं, अपितु बहुत थोड़ा है। अत: जिस विषय में उनका ज्ञान नहीं, उसमें उनसे भूलें रह जाना स्वाभाविक ही है। पर उन जैसा परिश्रम इस पराधीन देश के विद्वानों ने प्रायः नहीं किया वा उनके गुण की ओर ध्यान नहीं दिया, यही कहना पड़ता है। देश की पराधीनता के बन्धन ढीले होने पर आर्यों (हिन्दुओं) को वा कांग्रेस को समझ आ गई तो सम्भव है हमारी वैदिक साहित्य की यह अमूल्य सम्पत्ति फिर से पहले उच्च शिखर पर पहुंच जावे। (पर यह बात अभी कुछ कठिन प्रतीत होती है। प्रायः सब लोग विदेशी संस्कृति, सभ्यता और साहित्य के उपासक हो रहे हैं। यह विष भारत से न जाने कितने लम्बे काल के पश्चात् निकल सकेगा।)

      यह सब होते हुए भी हम यह कहे विना नहीं रह सकते कि उनकी भावना अच्छी नहीं थी, जिससे प्रेरित होकर वे हमारे साहित्य की खोज में लगे। अपने इस विचार की पुष्टि में विचारशील महानुभावों के सामने एक ही उदाहरण उपस्थित करना पर्याप्त होगा। मोनियर विलियम्स अपने कोश की भूमिका में लिखता है कि यह संस्कृत-अंग्रेजी डिक्शनरी या संस्कृत-ग्रन्थों के अनुवाद का कार्य, जो मि० बौडन के ट्रस्ट द्वारा हो रहा है, वह सब भारतीयों को ईसाई बनाने में अपने देश (इङ्गलैण्ड) वासियों को सहायता पहुंचाने के लिये है !!! इतने से ही विचारशील महानुभाव समझ सकते हैं कि विदेशियों ने किस ध्येय को लक्ष्य में रखकर हमारे वैदिक साहित्य तथा अन्य संस्कृत साहित्य में इतना घोर परिश्रम किया। सब योरूपीय तथा अन्य देशीय विद्वान् प्रायः इसी धारणा और भावना को लेकर हमारे सारे साहित्य की खोज में लगे, हमारे कल्याण के लिये नहीं, यह दुःख से कहना पड़ता है।

      हमें तो यहां यह बतलाना है कि सायण की वेदार्थ विषय की मिथ्या धारणा का कितना दुष्परिणाम हुआआ। सोचने की बात है कि इन विदेशी विद्वानों को यदि सायण की अपेक्षा वेद का उत्तम भाष्य मिला होता, तो निश्चय ही इनके अंग्रेजी वा अन्य योरोपियन भाषाओं में किये अनुवाद अवश्य ही भिन्न होते। अब तो वे सब के सब सायण से आगे नहीं जा सके। एक आध ने थोड़ा बहुत यत्न किया, पर धारणा सुदृढ़ न होने तथा प्रमाण न मिलने से रह गये। कर ही क्या सकते थे ? यदि सायण की मिथ्या धारणा और उसके आधार पर किया वेदार्थ अर्थात् वेदभाष्य न होता तो मैक्समूलर का ऋग्वेदभाष्य पर का लेख तथा ग्रिफिथ के ऋग्, यजुः, साम और अथर्व के अनुवाद, विलसन का ऋग्वेद का अंग्रेजी अनुवाद, लुड्विंग का ऋग्वेद का जर्मनानुवाद तथा ह्विटनो का अथर्ववेद का अंग्रेजी अनुवाद, वैनफी का सामवेद का जर्मनानुवाद, कीथ का तै० संहिता, ऐतरेय और कौषीतकी ब्राह्मण का अनुवाद, हाग का ऐतरेय ब्राह्मण का अनुवाद, ऐगलिङ्ग का शतपथब्राह्मण का अनुवाद - इन सब का स्वरूप अवश्य ही वह न होता, जो अब है। सायण के वेदार्थ ने इन की आंखों पर भी पट्टी बांध दी।

      इनसे अतिरिक्त ओल्डनबर्ग ब्लूमफील्ड, आफ्रैख्ट मैकडानल, बोटलिङ्ग आदि ने जो वैदिक साहित्य के भिन्न-भिन्न विषयों पर घोर परिश्रम किया, इसका स्वरूप भी अवश्य ही भिन्न होता। इसी प्रकार काए जी, क्रिस्ते, रियूटर, सोलोमन्स, बर्नेल, नेगलीन आदि श्रौत और गृह्यसूत्र आदि पर परिश्रम करनेवाले विद्वानों का दृष्टिकोण भी अवश्य ही भिन्न होता। इनमें जिनका स्वार्थ इसी बात में था कि भारत की संस्कृति, सभ्यता का निम्नतम स्वरूप ही संसार के सामने आवे और जिन्हें भारतवासियों को भी उनके वास्तविक स्वरूप से अपरिचित रखना ही अभिप्रेत था, उनको छोड़कर बहुत से विद्वान् वेदार्थ के शुद्ध स्वरूप को जान कर अवश्य प्रसन्न होते और भारत के सदा ऋणी रहते !!!

      वेदार्थ का सच्चा स्वरूप कभी भी सामने नहीं आ सकता, जब तक सायण के वेदार्थ की भित्ति (दीवार) बीच में खड़ी रहेगी। जो व्यक्ति उस दीवार को लांघ जाएगा, वही सच्चे वेदार्थ का दर्शन कर सकता है, दूसरा नहीं। यहां इस विषय के हमारे सारे कथन का सार यही है कि अन्य सामग्री के अभाव में सायण के कन्धे पर चढ़कर पूर्वोक्त धारणाओं के आश्रय से (उसकी मिथ्या धारणाओं को छोड़कर) हमें दूर की वस्तु देखने में कुछ सहायता भले ही मिले, परन्तु हमें वेदार्थ के लिये सायण से आगे चलना होगा।
[वेदवाणी, वर्ष १, अङ्क १, २]

✍🏻 लेखक - पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
(जन्म- १४ अक्तूबर १८९२, मृत्यु- २२ दिसम्बर १९६४)
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

महर्षि दयानन्द के वेदभाष्य की विशेषताएं




◼️महर्षि दयानन्द के वेदभाष्य की विशेषतायें◼️
✍🏻 लेखक - पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’

      परमपिता परमात्मा की असीम कृपा से महापुरुष दयानन्द का प्रादुर्भाव हुआ। ऐसा प्रतीत होता है कि जगन्नियन्ता अन्तर्यामी जगदीश्वर पर पूर्ण निष्ठावान होने के कारण ही उनको दैवी अन्तप्रेरणा हुई कि तुम वेद और वेदार्थ के सच्चे स्वरूप को संसार के सामने रक्खो, जिससे शताब्दियों से इस विषय की फैली हई भ्रान्ति दूर होकर विश्व का कल्याण हो। 

      दयानन्द ने घोषणा की -
      वेद प्रभु की पवित्र वाणी है, जो सृष्टि के आदि में जीवों के कल्याणार्थ संसार के अन्य योग्य पदार्थों की भांति कर्मों की यथार्थ व्यवस्था के ज्ञानार्थ तदनुसार आचरण करने के लिए परम पवित्र ऋषियों द्वारा प्रदान की गई है। भावी कल्प-कल्पान्तरों में भी यह वाणी इसी प्रकार प्रादुर्भूत होगी। यह किसी व्यक्ति या व्यक्तिविशेषों की कृति नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व के रचयिता परमपिता परमात्मा की ही रचना है। इसमें किसी प्रकार की न्यूनाधिकता कल्प-कल्पान्तरों में नहीं होती।

      🔥धाता यथापूर्वमकल्पयत्। ऋग्० १०।१९०
      समस्त संसार तथा तत्वसम्बन्धी ज्ञान, यह सब विधाता की यथापूर्व कृति है।

      यह है वेद के सम्बन्ध में वैदिकर्मियों की धारणा। यथार्थता की कसौटी पर ठीक उतरने से वैदिकर्मियों ने इस धारणा को अङ्गीकार किया है और उसके पुनरुद्धार का भार अपने ऊपर लिया है। वेद के इस स्वरूप को निर्धारित करने में वीतराग तपस्वी दयानन्द को कहां तक परिश्रम करना पड़ा, वह भी उस अवस्था में जबकि वेदों का पठन-पाठन लुप्त प्राय ही हो रहा था, इसके कहने की आवश्यकता नहीं। शास्त्र सम्बन्धी विविध रूढियों, प्रचलित रीतियों और शास्त्रकारों के कहे जानेवाले परस्पर विरोध की काली घटाओं, विविधवादों तथा मत-मतान्तरों के तूफान (झंझा) में दयानन्द चट्टान की तरह अविचल रहे। हम तो जब उस भयङ्कर तूफान का ध्यान करते हैं, स्तब्ध हो जाते हैं। उस तूफान में दयानन्द डिगे नहीं, अपने आपको दृढ़ता से सम्भाले रहे। इतना ही नहीं, अपितु उन्होंने एकदम इन सब परस्पर विरुद्ध रूढ़ियों और वादों के विरुद्ध घोषणा कर दी कि ‘वेद प्रभु की वाणी है, नित्य स्वतःप्रमाण है, इसमें किसी का इतिहास नहीं, अन्य सब शास्त्र वेदानकूलतया ही प्रमाण हैं।’ कल्पनामात्र से नहीं, अपितु प्रमाण और तर्क के आधार पर।
      ऋषि दयानन्द की इन धारणाओं का विशद निरूपण हमें उनकी 'ऋग्वेदादि-भाष्य-भूमिका' में बहुत उत्तम रीति से मिलता है। वेदविषय का यह एक अपूर्व ग्रन्थ है, जिसमें वेदविषय की सभी आवश्यक बातों का समावेश है, जो कि वेद का स्वाध्याय करनेवाले प्रत्येक व्यक्ति को जाननी चाहिये। उसको पढ़ने के पश्चात् ही उनके वेदभाष्य की प्रक्रिया ठीक तरह समझ में आ सकती है। यद्यपि इस वेदभाष्य का वास्तविक स्वरूप स्वयं पढ़ने पर ही बुद्धिगत होगा तथापि हम ऋषि दयानन्दकृत भाष्य की कुछ विशेषताएं दर्शाते हैं, जिससे पाठकों को इस विषय का ज्ञान सुगमता से हो सके।

◼️दयानन्द-भाष्य की विशेषतायें-
      ◾️(१) यह वेद-भाष्य वेदापौरुषेयत्वाद की धारणा के आधार पर है। इस वेदभाष्य में कहीं पर भी इस धारणा के विरुद्ध कुछ नहीं मिलेगा। वेद पूर्ण ब्रह्म जगदीश्वर द्वारा प्रदत्त होने से पूर्ण ज्ञान है। इसमें अज्ञान का लेश भी नहीं।
      ◾️(२) इसमें लौकिक और वैदिक शब्दों के भेद को ध्यान में रखकर यास्क-पाणिनि-पतञ्जलि आदि ऋषि-मुनियों के आधार पर वेद के शब्दों के लिए समस्त वैदिक नियमों का आश्रयण किया गया है।
      ◾️(३) वेद में पाए नाम शब्दों को धातुज [यौगिक] मानकर [जैसा कि यास्क और पतञ्जलि का सिद्धान्त है] प्रकरणादि के आधार पर उन के सभी सम्भव अर्थों का निरूपण किया गया है। निर्वचन भेद से भिन्न भिन्न अर्थों का निरूपण भी इसमें मिलता है।
      ◾️(४) धातुओं के अनेकार्थत्व का सिद्धान्त जो सभी वैयाकरणों का मुख्य सिद्धान्त है, जिसको प्रायः सब वेदभाष्यकारों ने अपने भाष्यों में माना है, उसके आधार पर मन्त्रों के अर्थ किये गये हैं।
      ◾️(५) आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधियज्ञादि तीनों प्रक्रियाओं के आधार पर वेदमन्त्रों के अर्थ होते हैं, इस सिद्धान्त के अनुसार दयानन्दभाष्य के संस्कृत पदार्थ में प्राय: सभी प्रक्रियाओ में अर्थ दर्शाया गया
      ◾️(६) अनेक स्थानों में वैदिक पदों के अर्थ वेदमन्त्रों के आधार पर किये गये हैं। जैसे यजुर्वेद अध्याय १ मन्त्र १३ को देखिये।
      ◾️(७) अग्नि शब्द से केवल भौतिक अग्नि का ही ग्रहण नहीं होता, अपितु 'अग्नि' शब्द के निर्वचन के आधार पर आध्यात्मिक, आधिदैविक प्रक्रिया में परमेश्वर, विद्वान्, राजा, सभाध्यक्ष, नेता आदि तथा विद्युत्प्रकाश, जठराग्नि आदि का भी ग्रहण होता है। इसी प्रकार वायु, आदित्य, इन्द्र, यम, रुद्र आदि शब्दों के विषय में भी समझना चाहिये। और ये इन्द्र, वरुण, मरुत्, अग्नि, वायु, मित्र आदि शब्द जहां भौतिक पदार्थों के नाम हैं, वहां मुख्य वृत्ति से ईश्वर के वाची हैं। यह प्रक्रिया सारे भाष्य में बराबर मिलेगी। सबसे बड़ा मौलिक भेद दूसरे भाष्यों से इस भाष्य में यही है। यही इसका मूलाधारभूत वाद वा सिद्धान्त है, जिसको लक्ष्य में रखकर इस भाष्य की रचना हुई है।
      ◾️(८) इसमें 🔥'बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे' (वैशेषिकदर्शन ६।१।१) अर्थात् 'वेद में कोई बात तर्क के विरुद्ध नहीं है' इस सिद्धान्त के अनुसार वेद मन्त्रों का अर्थ किया गया है।
     ◾️(९) यास्क, पाणिनि, पतञ्जलि आदि के दर्शाये नियमानुसार अनेक स्थानों में प्राचीन कहे जानेवाले पदपाठों से भिन्न पद विभाग भी इस वेदभाष्य में दर्शाये गए हैं। 🔥'यथाभिमतदृष्टयो व्याख्यातणाम्' अर्थात् व्याख्या करने वालों की भिन्न-भिन्न दृष्टियां होती हैं। 🔥'न लक्षणेन पदकारा अनुवर्त्त्याः, पदकारैर्नम लक्षणमनुवर्त्यम्' (महाभाष्य ३।१।१०९) अर्थात् पदकारों के पीछे सूत्रकार नहीं चलेंगे, अपितु पदकारों को व्याकरण के पीछे चलना होगा। अतः इस भाष्य में व्याकरणानुसार पदकारों से भिन्न पद-विभाग भी माना गया है। वेद में अर्थ के पीछे स्वर है न कि स्वर के पीछे अर्थ। स्वर के अनुसार ही अर्थ हो, इसमें वेद बंधा हुआ नहीं, अपितु अर्थ के अनुसार भी स्वर वेद में हो सकता है, यह नियम है।
      ◾️(१०) काव्य के अङ्गभूत श्लेष प्रादि अलङ्कारों का उपययोग इस वैदिक काव्य में सर्वप्रथम आचार्य दयानन्द ने ही किया है, और उन अलङ्कारों के द्वारा अर्थों में बहविध वैचित्र्य दर्शाया है।
      ◾️(११) वेद में अनित्य (अर्थात् व्यक्ति, जाति, देशविशेषों का) इतिहास नहीं, अपितु उसमें प्रकृति के औपचारिक वा आलङ्कारिक वर्णन है, ऐसा निरूपण किया गया है, जिसमें आज तक की परम्परा साक्षी है। तदनुसार इन्द्र, कण्व, अङ्गिरा आदि किन्हीं व्यक्ति-विशेषों के नाम नहीं हैं।
      ◾️(१२) इस भाष्य में 'देवता' को मन्त्र का प्रतिपाद्य विषय माना है तथा इन्द्र, मित्र, वरुण, प्रभृति सब देवतावाची शब्द उसी एक महान आत्मा परब्रह्म जगदीश्वर की विभूतियों के वाचक हैं; (जैसा निरु० ७।४ में माना है)।- ऐसा मानकर यौगिकवाद के आधार पर अनेक अर्थ दर्शाये गए हैं। सर्वानुक्रमणी से भिन्न कहीं-कहीं वाच्यार्थ को देवता मान कर मन्त्रों की व्याख्या की गई है।
      ◾️(१३) इस भाष्य में मन्त्रों के छन्द भी प्रायः अनुक्रमणी में कहे गये छन्दों से भिन्न दर्शाये हैं। यह छन्दोभेद भी प्राचीन आर्षपद्धति के मोलिक सिद्धान्त के अनुसार है।
      ◾️(१४) 'व्यत्यय' [काल, वचन, पुरुष, विभक्ति आदि में परिवर्तन के सिद्धान्त को मानकर ही वेद के विषय में 🔥'सर्वज्ञानमयो हि सः' यह बात ठीक-ठीक प्रमाणित हो सकती है, अन्यथा नहीं। यह सिद्धान्त मानकर अनेक स्थानों में व्याख्या की गई है।
      ◾️(१५) 🔥'वाक्यं हि वक्तुराधीनम्' [वाक्य का अर्थ बोलनेवाले की इच्छा के आधीन है] के अनुसार मन्त्र के पदों को अन्वय में सम्बद्ध करके अर्थ किया गया है।
      ◾️(१६) 'यज्ञ' आदि शब्दों से विविध- आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक यज्ञों का अर्थ लिया गया है। केवल भौतिक यज्ञों को लेकर आचार्य दयानन्द का भाष्य समझ में ही नहीं आ सकता। दूसरे शब्दों में समस्त शुभ कर्मों का नाम यज्ञ है- 🔥'यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म’ [शतपथब्राह्मण १।७।१।५], न कि हवन कुण्ड में आहति डाल देने मात्र का काम, यह बात समझकर ही इस भाष्य को पढ़ना होगा।
      ◾️(१७) पिङ्गलछन्दःसूत्रानुसार प्रत्येक मन्त्र के षड्ज आदि स्वर भी इस भाष्य में दर्शाये गये हैं।
      ◾️(१८) वेद सर्वनन्त्र सिद्धान्त अर्थात् सार्वभौमिक नियमों का प्रति पादन करता है, यह बात इस भाष्य से स्पष्ट विदित होती है।
      ◾️(१९) दयानन्द-भाष्य में नैरुक्त शैली के अनुसार अनेक ऐसे शब्दों के निर्वचन मिलते हैं, जिनके निर्वचन निरुक्त और ब्राह्मणादि ग्रन्थों में भी उपलब्ध नहीं होते।
      ◾️(२०) सबसे बड़ी और अन्तिम विशेषता दयानन्द के भाष्य की यह है कि उस में नैरुक्त शैली के अनुसार संस्कृतपदार्थ मन्त्रगत पदों के क्रम से रक्खा गया है और उसमें जहां-तहां मन्त्रों के तीनों प्रकार के अर्थों को लक्ष्य में रखकर निर्वचन तथा अर्थ दर्शाया गया है, जो अन्वय में नहीं हो सकता था। अन्वय को संस्कृतपदार्थ का एक अंश समझना चाहिये, और इस संस्कृत अन्वय का ही भाषार्थ हिन्दी अनुवाद किया गया है, जो भाषा करनेवालों से ठीक-ठीक पूरा हो भी नहीं सकता। इस वेद-भाष्य की इस विशेषता को न समझकर बहुत से सज्जन घबराने लगते हैं। इस का प्रकार समझ लेने से फिर कोई कठिनाई नहीं रहती।

      यहां पर हम यह कह देना आवश्यक समझते हैं कि जितना भी कोई विद्वान् विद्या के भिन्न-भिन्न अङ्गों का ज्ञाता तथा योगादि दिव्य शक्तियों से सम्पन्न होगा, उतना ही उसको वेदार्थ का भान अधिक होगा। [वेदवाणी, वर्ष १, अङ्क ७]

[सम्पूर्ण वेदभाष्य आप 👉🏻 https://www.vedrishi.com/book/sampurn-ved-bhasya-वेदभाष्य-सम्पूर्ण 'वेदऋषि' से घर बैंठे प्राप्त कर सकते हैं।]

✍🏻 लेखक - पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
(जन्म- १४ अक्तूबर १८९२, मृत्यु- २२ दिसम्बर १९६४)
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
॥ओ३म्॥

जिहाद का जवाब देने वाला पहला हिन्दू योद्धा 'तक्षक'



"जिहाद "का जवाब "जिहाद" से देने वाला पहला हिंदू योद्धा तक्षक

मुहम्मद बिन कासिम ने सन 712  में भारत पर आक्रमण किया।
वह बेहद क्रूर और अत्याचारी  था।
उसने अपने आक्रमण में एक भी युवा को  जीवित  नहीं छोड़ा।

कासिम के इस नरसंहार को 8 वर्ष का बालक तक्षक
चुपचाप देख रहा था। वही  इस कथा का मुख्य पात्र है।

तक्षक के पिता सिन्धु नरेश राजा दाहिर के सैनिक थे।
कासिम की सेना के साथ लड़ते हुए वह वीरगति को प्राप्त हुए थे।
राजा दाहिर के मरने के बाद लूट मार करते हुए अरबी सेना तक्षक के गांव में पहुंची, तो गांव में हाहाकार मच गया।

स्त्रियों को घरों से बाहर खींच-खींच कर सरे-आम इज्ज़त लूटी जाने लगी।
भय के कारण तक्षक के घर में सब चिल्ला उठे। तक्षक की दो बहनें डर से कांपने लगीं।

 तक्षक की मां सब परिस्थिति भांप चुकी थी। उसने कुछ पल अपने तीनों बच्चों की तरफ देखा।
उन्हें गले लगा लियाऔर रो पड़ी।

अगले ही पल उस क्षत्राणी  ने तलवार से दोनों बेटियों का सिर धड़ से अलग कर दिया।
उसकी मां ने तक्षक की ओर देखा और तलवार अपनी छाती में उतार ली।

यह सब घटना आठ वर्ष का अबोध बालक "तक्षक" देख रहा था।
वह अबोध बालक अपने घर के पिछले दरवाजे से बाहर निकल कर खेतों की तरफ भागा।
और समय के साथ बड़ा होता गया।
तक्षक भटकता हुआ कन्नौज के राजा "नागभट्ट" के  पास पहुँचा। उस समय वह 25 वर्ष का हो चुका था।
वह नागभट्ट की सेना में भर्ती हो गया।

अपनी बुद्धि बल के कारण वह कुछ ही समय में राजा का अंगरक्षक बन गया।
तक्षक के चेहरे पर कभी न खुशी न गम दिखता था।
उसकी आंखें हमेशा क्रोध से लाल रहतीं थीं। उसके पराक्रम के किस्से सेना में सुनाए जाते थे।
तक्षक इतना बहादुर था कि तलवार के एक वार से हाथी का सिर कलम कर देता था।

सिन्धु पर शासन कर रही अरब सेना कई बार कन्नौज पर आक्रमण कर चुकी थी लेकिन हमेशा नागभट्ट की बहादुर सेना उन्हें युद्ध में हरा देती थी।और वे  भाग जाते थे। युद्ध के सनातन नियमों का पालन करते हुए राजा नागभट्ट की सेना इन भागे हुए जेहादियों का पीछा नहीं करती  थी।

इसी कारण वे मजबूत होकर बार बार कन्नौज पर आक्रमण करते रहते थे।
एक बार फिर अरब के खलीफा के आदेश  से सिन्धु की विशाल सेना  कन्नौज पर आक्रमण करने आयी। 

यह खबर पता चली तो कन्नौज के राजा नागभट्ट  ने अपने सेनापतियों की बैठक बुलाई।     
सब अपने अपने विचार व्यक्त कर रहे थे।
इतने में महाराजा का अंग रक्षक तक्षक खड़ा हुआ।
उसने कहा महाराज हमें दुश्मन को उसी की भाषा में ज़बाब देना होगा।

एक पल नागभट् ने तक्षक की ओर देखा,
फिर कहा कि अपनी बात खुल कर कहो तक्षक क्या कहना चाहते हो।

तक्षक ने महाराजा नागभट्ट से कहा कि अरब सैनिक महा बरबर, जालिम, अत्याचारी, जेहादी मानसिकता के लोग हैं। उनके साथ सनातन नियमों के अनुसार  युद्ध करना अपनी प्रजा के साथ अन्याय होगा।
उन्हें उन्हीं की भाषा में ज़बाब देना होगा।

महाराजा ने कहा किन्तु हम धर्म और मर्यादा को कैसे छोड़ सकते हैं "तक्षक"।
तक्षक ने कहा कि मर्यादा और धर्म का पालन उनके साथ किया जाता है जो मर्यादा और धर्म का मर्म समझें। इन राक्षसों का धर्म हत्या और बलात्कार है। इनके साथ वैसा ही व्यवहार करके युद्ध जीता जा सकता है ।
राजा का मात्र एक ही धर्म होता है - प्रजा की रक्षा। राजन: आप देवल और मुल्तान का युद्ध याद करें। मुहम्मद बिन कासिम ने  युद्ध जीता, दाहिर को पराजित किया और उसके पश्चात प्रजा पर कितना अत्याचार किया।

यदि हम पराजित हुए तो हमारी स्त्रियों और बच्चों के साथ वे  वैसा ही व्यवहार करेंगे।
महाराज: आप जानते ही हैं कि भारतीय नारियों को किस तरह खुले बाजार में राजा दाहिर के हारने के बाद बेचा गया । उनका एक  वस्तु की तरह भोग किया गया।
महाराजा  ने देखा कि तक्षक की बात से सभा में उपस्थित सारे सेनापति सहमत हैं।

महाराजा नागभट्ट गुप्त कक्ष की ओर तक्षक के साथ बढ़े और गुप्तचरों के साथ बैठक  की।
 तक्षक के नेतृत्व में युद्ध लड़ने का फैसला हुआ। अगले ही दिन कन्नौज की सीमा पर दोनों सेनाओं का पड़ाव हो चुका था। आशा थी कि अगला प्रभात एक भीषण युद्ध का साक्षी होगा।

आधी रात बीत चुकी थी। अरब की सेना अपने शिविर में सो रही थी।
अचानक ही तक्षक के नेतृत्व में एक चौथाई सेना अरब के सैनिकों पर टूट पड़ी।
जब तक अरब सैनिक संभलते तब तक मूली गाजर की तरह हजारों अरबी सैनिकों को तक्षक की सेना मार चुकी थी। किसी हिंदू शासक से रात्री  युद्ध की आशा अरब सैनिकों को न थी। सुबह से पहले ही अरबी सैनिकों की एक चौथाई सेना मारी जा चुकी थी। बाकी सेना भाग खड़ी हुई।

जिस रास्ते से अरब की सेना भागी थी उधर राजा नागभट्ट अपनी बाकी सेना के साथ खड़े थे। सारे अरबी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। एक भी सैनिक नहीं बचा। युद्ध समाप्त होने के बाद राजा नागभट्ट वीर तक्षक को ढूंढने लगे।

वीर तक्षक वीरगति को प्राप्त हो चुका था। उसने अकेले हजारों जेहादियों को मौत की नींद सुला दिया था।
राजा नागभट ने वीर तक्षक की भव्य प्रतिमा बनवायी।
 कन्नौज में आज भी उस बहादुर तक्षक की प्रतिमा विद्यमान है।

यह युद्ध सन् 733 में हुआ था। उसके बाद लगभग 300 वर्ष तक अरब से दूसरे  किसी  आक्रमणकारी को आक्रमण करने की हिम्मत नहीं हुई।

यह इतिहास की घटना है जो सत्य पर आधारित है।

जागो हिन्दू जागो अपनी मातृभूमि की रक्षा करो।

राजेन्द्र सिंह आर्य

Sunday, March 29, 2020

Analysis of Atheist-Notion



Analysis of Atheist-Notion

Writer- Pandit Haridev Ji Tark Kesari
Presented By- Priyanshu Seth
Translated In English By- DS Balaji Arya

Question 1- What are the signs of an Athiest? Who is called an Athiest?
Answer- Who declines the existence of God/Creator/Lord is primarily known as an Athiest. But Swamy Dayanand has mentioned ten types of Atheists-
(1) Who does not Believe in God/Creator/Lord.
(2) Who does not believe in Soul/Reincarnation, believes that Soul is made of Fire, Water, Air, and Soul. And that Soul is destroyed after death so, it's useless to worry about the afterlife.
(3) Who does not believe in Vedas.
(4) Who believes the creation to be merely an accident.
(5) Who believes that God creates, destroys, boons and punishes randomly without a logical plan.
(6) Who believes that entire creation is just a Co-Incidence.
(7) Who himself claims to the Supreme Lord.
(8) Who claims the entire existence is all eternal and never-ending.
(9) Who only belives in the Visible proofs (Pratyaksha Pramana As Mentioned in Vedas).
(10) Someone who believes in absolute nothingness. Which means there is no authority nor any kind of Supreme Governance.

These are the ten kinds of Atheists mentioned by Swamy Dayanand in His Book - Satyarth Prakash.

Question 2- Where and when did Atheism Originate from?
Answer- There are different timelines and places from where atheism caught fire but it originated from Bharat. Charavak, Buddha and Jainism started the atheist theories when western civilization was not even born. Traces of Mayavad and Nastikvad (Atheism) is found in ancient India. Jabala Rishi at the time of Ramachandra and Beena King of Harivansha had the same views. But since the ancient time Bharat was an Orthodox Vedic region, hence atheism never got a good hold here. Since ancient times, Jeev, Brahma and Nature all were considered separate entities. Hence the atheistic theories were never tolerated In ancient Bharat. But, in present times, Jains, Buddhists and Communists are working head to toe in promoting these Atheistic ideas.

Question 3- Who were the most prominent founders and preacher of Atheism?
Answer- It's uncertain to claim who and when founded the idea of Atheism but most prominent founder and advocate of Atheism is considered as Charvaka.

Question 4- When did Charavak Principles originate and who founded them?
Answer- It is not possible to find out who founded the Charvak School of Thought. But the word meaning of Charavak is to Chew and to speak Politely. According to some Charvak means who speaks a lot. Some claim Charvak to be an Acharya who started this school of thought. But, Anveshan School of thought was started by Acharya Brihaspati who existed three hundred years before Buddha and eight hundred years before Jesus.

Question 5- Why Charvaka School Of Thought Become so popular?
Answer- Before Charavaka was popularized, society was moved towards Vam Marga. Vam Marga has two meaning. One means Beautiful and the other means Opposite. Vam Margis claim their ideology to be beautiful but considering their deeds they were termed as Opposite to Human Values. Due to the following reasons-
(a) Vam Margis practised Animal And Human Sacrifice.
(b) Illicit activities were a vital part of Vam Margi Philosophy. As prominently said in their Slogan-- "Mataramapi na jayate".
(c) Consuming Meat and Drinking alcohol had become common. Flesh and alcohol were used even in Yagya.
(d) Belief in Magic, Ghosts and supernatural superstitions was prevalent.
(e) Every Mis-Deed were being justified and all illicit activities were being normalized that too in the name of Shastras.

In the middle of all these debaucheries, Charvaka emerged. Today Communists, Marxists are promoting these philosophies. Let's try to understand this better using a conversation between a Theist and an Atheist.

Debate between an Atheist & a Theist

Atheist- Nobody governs this universe. Fire, Water, Soil, and Air, they combine and gives rise to existence.
Theist- Without a conscious being making all this, nothing can come into existence. If it was by default, why do we not have more suns stars and earth close to us?
Second, there cannot be a creation without a creator, and this universe is created. Hence, this world cannot be without a creator. Only a Super Power can possess such a power to create this beautifully perfectly designed world. According to Vedant Darshan- "जन्माद्यस्ययत:" (1/1/2) - Who creates and destroys this world is known as Ishwar/God.
Third, Look at our own body, how perfectly designed it is. Which is impossible for any mortal being to design. Hence, who designed this body, this entire functioning system is Ishwar/God.

Atheist- If a god creates every being, then why do we need a Mother and a Father? Why we need parents to be born?
Theist- There are two types of creation First, Godly and Second, Man-Made. Godly creation is all done by god and he has no responsibility for the man-made creations. Eg. Trees, plants, fruits are all god's creation but to obtain food from them is up to Man. Similarly in the very beginning creating Human was a Godly action but taking the progeny further was done by Human themselves.

Atheist- If God exists, why is he not visible and prominent. So that Humans can realize his presence?
Theist- It's wrong to say that God cannot be experienced. God can be experienced in two ways. First, A Brahm Pratyaksha which can be done through sense organs, through Visionary (Eyes), Olfactory (Smell), can be heard through ears. Hunger, Thirst, anger and all the humane feelings are evidence of godly experience. But to experience God in the divinely way is only possible for great Yogis. Swamy Dayanand says in Satyarth Prakash-

"Just like having sight cannot be processed through ear and words can be interpreted through eyes. Without proper education, exercise and yogic practices god cannot be experienced. Through words, we learn about the five elements. We need proper texts and knowledge to understand and experience god. Experience of fear, shame and doubts are all done by god, this is nothing but experiencing god. When the Human and its soul becomes pure and seeks God, he experiences his soul and god."

It is also said in the Kenopanishad-
"दृश्यते त्वग्रया बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्म दर्शिभि:।"
Yogis with a keen vision and a sharp mind can experience God.

Similarly, it is also said in the Swetaswatara Upanishad-
"ते ध्यान योगानुगता अपश्यन्"
Yogis have experienced god after reaching the state of Samadhi. And Those who experienced lord danced with supreme joy.

"त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि, त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि, ऋतं वदिष्यामि, सत्यं वदिष्यामि।। -Taittiriye Upanishad
Hey, Lord, I have witnessed you, you are the Supreme Brahma, I have experienced you. I will admire only you and you.

Hence, from the above quotes, it is proven that God can be experienced, but one should keep in mind that-
He is omnipresent but not Visible by eyes.
Without Yogic Practices, nobody can experience him.

Atheist- Kathopanishad says that God can be experienced through a pure mind and not through a corrupted mind. How do we judge a pure mind?
Theist- When the being is free from Greed, Attachment and Envy, he is ready to experience god. In other words, when the mind is free from all kinds of negative thoughts, then it can experience one true Lord.

Atheist- What do you mean by Envy, Greed and Attachment?
Theist- Feelings which promote hate towards others. Inherited Negative traits from past life experiences can be a hurdle in the journey to experience god. Arrogance built from this materialistic world creates resistance to experience god.

Athiest- Is that God one or more than one? When we say so many beings in the world, we believe in many different qualities. So we believe that this world with so many variations must be created by many different entities. Seems like there are many different entities which created suns, stars, moons, mountains, trees and so many things.
Theist- This is not a wise thought, as the superpower, entity we are talking about is capable to create anything. We judge someone's intellect based on how many different types of creations he is capable of. Similarly, the capability to create such different designs and the world is nothing but the sign of that perfect intelligent entity. Ved Darshan clearly states that the creator is one and only one.

य: एकश्चर्षणीनां वसूनामिरज्यति।
इन्द्र: पञ्च क्षितीनाम्।। -Rigved 1/7/9
The god which is one and is the master of everything and the five kingdoms, i.e. Brahmin, Kshatriya, Vaishya, Shudra and Nishad, Worship him.

भुवनस्य यस्पतिरेक एव नमस्यो -Atharvaved 2/2/1
He who is the master of all multiverse. Only he should be worshipped.

न द्वितीयो न तृतीयश्चतुर्थो नाप्युच्यते,
न पञ्चमो न षष्ठ: सप्तमो नाप्युच्यते।
नाष्टमो न नवमो दशमो नाप्युच्यते,
य एतं देवमेकवृतं वेद। -Atharvaved 13.4.16-21
He cannot be called, second, third, fourth, fifth, sixth, seventh, eighth, ninth or tenth. Only He knows him perfectly; who knows him as one and only one to govern and master of this multi-verse. This is the most accurate explaining about One - Omnipresent god. Not in any other Vedic Scripture.

Atheist- If he is only one, then is he stationary at one place or Omnipresent?
Theist- He is Omnipresent, if he was stationary at one place, he cannot govern, create and manage the entire creation.

(1) Reason for it not being visible is it being too far. Just like London and New York is not visible but that does not mean it does not exist.
(2) It is also not visible due to being too close, just like we cannot see our eyelashes as it's too close to our eyes or we cannot see the words in the book when brought to a close.
(3) We lose vision if something happens to our eyes. What if a blind man says that he cannot see Sun, Moon and Stars.
(4) Having a bad mental state makes many things non-experienceable. Like due to lack of attention not being able to notice who passed by when asked by somebody.
(5) Minute Things are not visible either. Eg. Soul, Intelligence, Nucleus, Feelings.
(6) Having blockage to something make it invisible too. Eg, something kept behind a wall.
(7) When the same things are inter-mixed together, they too become hard to be identified. Like Milk with water, oil in nuts, butter inside milk. Similarly, god gets mixed inside his creation and becomes implicit.
Just like the butter is present in every drop of milk. God is present in every part of this creation.

(8) Some things get suppressed due to their intensity too. Just like Stars are not visible in sunlight and the metal is not visible in the burning furnace. But the wise men know it's present right there.

Atheist- If he is present everywhere, then he is surely present in faeces, urine, garbage. He must be irritated by all the smell.
Theist- Right, but these feelings are limited to those who have sense. He is indeed above all these manly senses.
And how can he be irritated or smell which is indeed a part of his creation? Similarly, this entire creation is a part of that Lord, so he never feels bad or bliss about anything emitted by his creation. As rightly said in the Kathopanishad-

सूर्यो यथा सर्वलोकस्य चक्षुर्न लिप्यते चाक्षुषैर्बाह्यदोषै:।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा न लिप्यते लोकदुःखेन बाह्य:। -2.5.11

Just like the sun in the eyes of our planet but eyes never affect that Lord. Because it's controlled, managed and doing its job perfectly Which is yet another example of how the lord is present everywhere and manages everything perfectly.

Atheist- If he is free from all Human Sense then how can we be a Sensitive Being experience him? So isn't it just a waste of time?
Theist- No it's not a waste of time, because you cannot understand the world until you understand the creator, who created this perfect design. One can experience bliss when after yogic practices he experiences god. As rightly said in the Kathopanishad-

एको वशी सर्व भूतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा य: करोति।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम्। -2.5.12

He alone who controls everything and everyone lives inside the conscious of all living beings. Those wise people who experience that divine inside them reach the highest state of bliss.

Atheist- Believing in god creates a lot of resistance and limitations in one's life. So it's not good to believe in god as it takes away freedom.
Theist- Believing and worshipping god is for salvation. And salvation is freedom from everything. One's life will be blessed and one would experience freedom from all materialistic attachments. Hence believing in god is indeed true freedom.

Atheist- God is many times called as Agegya/अज्ञेय/Not Able To Understand. Then why bother trying to know him?
Theist-- The entire creation and every entity in it, their rules make us realize that God exists. Like space, air, nucleus, the atoms cannot be sensed. But they can be understood with knowledge. Similarly, with proper knowledge and practices, the Lord can be understood.

Atheist- Lord is full of qualities, everything with certain qualities is destructible. Hence god must be destructible too.
Theist- Everything with qualities should be destructible is not a thumb rule. When nature with Satva, Rajas and Tamas is not destructible. Then how can the supreme lord be destroyed? God is just, merciful, knowledgable, hence he is full of qualities. God is immortal, non-born, hence he has no qualities.

Atheist- The creation and this multiverse are present from the very beginning just like the lord himself. Everything in this multiverse is made and destroyed based on its qualities. So why bother about believing in this god?
Theist- Multiverse is made of many things, it's a mixture. Since everything is a mixture, they were created at some point in time. Hence the multiverse was created, if it is created, it needs to have a creator. Understanding the creator means having the supreme most knowledge. Hence, not useless.

Atheist- Everything happening in this world seems accidental. So why waste time believing in the god?
Theist- The world is bind by many rules, nothing happens accidentally. Sun rising and setting at the same time every day. Day and night happening one by one. Seasons, happening every year at the same phase. Origin of this world is definitely due to some rule. Hence if there are rules there must be a governer. Therefore the Upnishad says-

भयादस्याग्रिस्तपति भयात्तपति सूर्य:।
भयादिन्द्रश्च वामुश्च मृत्युर्धावति पञ्चम:।। -Kathopanishad 2.6.3
The fear of this lord makes the fire burn, his fear makes the sunshine, his rules make the thunder, air and death do their jobs without a miss.

Atheist- All the qualities god is said to be possing are their in Nature too. Then why bother with god?
Theist- It's not right to say that all qualities of god are there in nature. God is Conscious and Nature is Unconscious, without god commanding it, nature does not perform. When nature is in the mode of creation, it is working and when it is in the state of apocalypse it is in rest mode. The first condition is Importance, second is arrogance, third is known as minuscule, and the fourth condition has 10 senses and eleven mann and in the fifth condition, complex bodies are created. If the conscious god does not command nature, nothing will be created. Hence the creator itself has to be worshipped.

Atheist- What's the benefit and proof of worshipping that god?
Theist- There are innumerable reason to admire and worship the creator-

(1) The lord which is the creator, governor of this entire creation is the supreme. Hence without him, no creation or destruction possible. Vedant Darshan Says- "जन्माद्यस्यपत:" -Who causes the creation of maintenance and destruction of this world is supreme lord.
(2) He who rewards and punished the creator for their deed is the supreme lord. Because no creation will ever want to pay for his deed willingly.
(3) He who blessed the humans with knowledge in the very beginning is the supreme lord. Because without knowledge no civilization or society can grow out. And he was the first guru in the world. स: सर्वेषामपि गुरु कालेनानवछेदात्।
(4) The power which is running this entire world is the Supreme lord.
तदेजति तन्नैजति तद्द्रे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यत:। -Yajurved 40.5
He commands everything but never moves. He is omnipresent, present in every atom.
(5) The Samadhi state guides us towards that supreme lord, which is the extreme state of bliss. But today we have forgotten that and suffering.

Atheist - You say that God has no materialistic senses and no physical body. If he has no physical structure how can he create this physical, animate world?
Theist - All the tasks which are done by a physical body. He does that with his supreme abilities. Hence he doesn't require a body. The Upnishad says-

अपाणिपादो जबनो ग्रहीता, पश्यत्यचक्षु स: श्र्णोत्यकर्ण:।
सवेत्ति वेद्य न च तस्यास्ति वेत्ता, तमाहुरग्रयं पुरुषं महान्तम्।।
That god can handle everything without hands, can walk without legs, Can see without eyes and hear everything without ears. He knows everything but nobody knows him. He is indeed the most knowledgable and supreme.

महर्षि दयानन्द और युगान्तर



महर्षि दयानन्द और युगान्तर

-श्री सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' (हिन्दी के महाकवि)

[कवि स्वभाव से ही बागी होता है। काव्य-कला के नियम भी उस पर बन्दिश न लगा पाते हैं। बगावत अगर सत्य की स्वीकृति हो तो कविता का ही दूसरा नाम बन जाती है। भला बगावत के बगैर कविता का चरित्र ही क्या है? कवि के भावों की सजावट कविता है और चरित्र की बगावत कवि-ता। इस लेख में कवि-ता ऋषि को प्रणाम करने आयी है और कविता पुष्प बरसाने। और यह अधिकार मिला है महाकवि निराला को, कि वे अपनी कलम तोड़ दें और दवात फोड़ दें। निस्सन्देह यह अवसर 'निराला' ने हाथ से जाने न दिया। परोपकारी ऋषि के जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में यह लेख पाठकों की सेवा में प्रस्तुत करता है। जिसमें एक ओर ऋषि के चरित्र का दर्शन करेंगे तो दूसरी ओर साहित्य का आनन्द भी ले सकेंगे। -डॉ० सुरेन्द्रकुमार]

उन्नीसवीं सदी का परार्द्ध भारत के इतिहास का अपर स्वर्ण प्रभात है। कई पावन-चरित्र महापुरुष अलग-अलग उत्तरदायित्व लेकर, इस समय, इस पुण्य भूमि में अवतीर्ण होते हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती भी इन्हीं में एक महाप्रतिभामंडित महापुरुष हैं। हम देखते हैं, हमें इतिहास भी बतलाता है, समय की एक आवश्यकता होती है। उसी के अनुसार धर्म अपना स्वरूप ग्रहण करता है। हम अच्छी तरह जानते हैं, ज्ञान सदा एकरस है, वह काल के बन्धन से बाहर है और चूंकि वेदों में मनुष्य जाति की प्रथम तथा चिरन्तन ज्ञान-ज्योति स्थित है, इसलिए उसके परिवर्तन की आवश्यकता सिद्ध नहीं होती, बल्कि परिवर्तन भ्रमजन्य भी कहा जा सकता है। पर साथ-साथ, इसी प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि उच्चतम ज्ञान किसी भी भाषा में हो, वह अपौरुषेय वेद ही है। परिवर्तन उसके व्यवहार-कौशल, कर्म-काण्ड आदि में होता है, हुआ भी है। इसे ही हम समय की आवश्यकता कहते हैं। भाषा जिस प्रकार अर्थ-साम्य रखने पर भी स्वरूपत: बदलती गई है, अथवा भिन्न देशों में, भिन्न परिस्थितियों के कारण अपर देशों की भाषा से बिल्कुल भिन्न प्रतीत होती है। इसी प्रकार धर्म भी समयानुसार जुदा-जुदा रूप ग्रहण करता गया है। भारत के लिए वह विशेष रूप से कहा जा सकता है। बुद्ध, शंकर, रामानुज आदि के धर्म-प्रवर्त्तन सामयिक प्रभाव को ही पुष्ट करते हैं। पुराण इसी विशेषता के सूचक हैं। पौराणिक विशेषता और मूर्तिपूजन आदि से मालूम होता है, देश के लोगों की रुचि अरूप से रूप की ओर ज्यादा झुकी थी। इसीलिए वैदिक अखण्ड ज्ञान राशि को छोड़कर ऐश्वर्ययुगपूर्ण एक-एक प्रतीक लोगों ने ग्रहण किया। इस तरह देश की तरक्की नहीं हुई, यह बात नहीं। पर इस तरह देश ज्ञानभूमि से गिर गया, यह बात भी है। जो भोजन शरीर को पुष्ट करता है, वही रोग का भी कारण होता है। मूर्तिपूजन से इसी प्रकार दोषों का प्रवेश हुआ। ज्ञान जाता रहा। मस्तिष्क से दुर्बल हुई जाति औद्धत्य के कारण छोटी-छोटी स्वतन्त्र सत्ताओं में छँटकर एक दिन शताब्दियों के लिए पराधीन हो गई। उसका वह मूर्तिपूजन-संस्कार बढ़ता गया, धीरे-धीरे वह ज्ञान से बिल्कुल ही रहित हो गई। शासन बदला, अंग्रेज आए। संसार की सभ्यता एक नये प्रवाह से बही। बड़े-बडे पण्डित विश्व-साहित्य, विश्व-ज्ञान, विश्व-मैत्री की आवाज उठाने लगे, पर भारत उसी प्रकार पौराणिक रूप के माया-जाल में भूला रहा। इस समय ज्ञान-स्पर्धा के लिए समय की फिर आवश्यकता हुई और महर्षि दयानन्द का यही अपराजित प्रकाश है। वह अपार वैदिक ज्ञान राशि के आधार-स्तम्भ-स्वरूप अकेले बड़े-बड़े पण्डितों का सामना करते हैं। एक ही आधार से इतनी बड़ी शक्ति का स्फुरण होता है कि आज भारत के युगान्तर साहित्य में इसी की सत्ता प्रथम है, यही जनसंख्या में बढ़ी हुई है।

चरित्र, स्वास्थ्य, त्याग, ज्ञान और शिष्टता आदि में जो आदर्श महर्षि दयानन्दजी महाराज में प्राप्त होते हैं, उनका लेशमात्र भी अभारतीय पश्चिमी शिक्षा-संभूत नहीं, पुनः ऐसे आर्य में ज्ञान तथा कर्म का कितना प्रसार रह सकता है, वह स्वयं इसके उदाहरण हैं। मतलब यह है कि जो लोग कहते हैं कि वैदिक अथवा प्राचीन शिक्षा द्वारा मनुष्य उतना उन्नतमना नहीं हो सकता, जितना अंग्रेजी शिक्षा द्वारा होता है, महर्षि दयानन्द सरस्वती इसके प्रत्यक्ष खण्डन हैं। महर्षि दयानन्दजी से बढ़कर भी मनुष्य होता है, इसका प्रमाण प्राप्त नहीं हो सकता। यही वैदिक ज्ञान की मनुष्य के उत्कर्ष में प्रत्यक्ष उपलब्धि होती है, यही आदर्श आर्य हमें देखने को मिलता है।
यहाँ से भारत के धार्मिक इतिहास का एक नया अध्याय शुरू होता है, यद्यपि वह बहुत प्राचीन है। हमें अपने सुधार के लिए क्या-क्या करना चाहिए, हमारे सामाजिक उन्नयन में कहाँ-कहाँ और क्या-क्या रुकावटें, हमें मुक्ति के लिए कौन-सा मार्ग ग्रहण करना चाहिए, महर्षि दयानन्द सरस्वती ने बहुत अच्छी तरह समझाया है। आर्यसमाज की प्रतिष्ठा भारतीयों में एक नये जीवन की प्रतिष्ठा है, उसकी प्रगति एक दिव्य शक्ति की स्फूर्ति है। देश में महिलाओं, पतितों तथा जाति-पाँति के भेद-भाव मिटाने के लिए महर्षि दयानन्द तथा आर्यसमाज से बढ़कर इस नवीन विचारों के युग में किसी भी समाज ने कार्य नहीं किया। आज जो जागरण भारत में दीख पड़ता है उसका प्रायः सम्पूर्ण श्रेय आर्यसमाज को है। स्वधर्म में दीक्षित करने का यहां इसी समाज से श्रीगणेश हुआ है। भिन्न जातिवाले बन्धुओं को उठाने तथा ब्राह्मण-क्षत्रियों के प्रहारों से बचाने का उद्यम आर्यसमाज ही करता रहा है। शहर-शहर, जिले-जिले, कस्बे-कस्बे में इसी उदारता के कारण, आर्यसमाज की स्थापना हो गई। राष्ट्रभाषा हिन्दी के भी स्वामीजी एक प्रवर्तक हैं और आर्यसमाज के प्रचार की तो यह भाषा ही रही है। शिक्षण के लिये 'गुरुकुल' जैसी संस्थाएं निर्मित की गईं। एक नया ही जीवन देश में लहराने लगा।

स्वामीजी के प्रचार के कुछ पहले ब्रह्मसमाज की कलकत्ता में स्थापना हुई थी। राजा राममोहन राय द्वारा प्रवर्तित ब्राह्म- धर्म की प्रतिष्ठा, वैदान्तिक बुनियाद पर, महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर कर चुके थे। वहाँ इसकी आवश्यकता इसलिये हुई थी कि अंग्रेजी सभ्यता की दीप- ज्योति की ओर शिक्षित नवयुवकों का समूह पतंगों की तरह बढ़ रहा था, पुन: शिक्षा तथा उत्कर्ष के लिये विदेश की यात्रा अनिवार्य थी, इसलिए लौटने पर वे शिक्षित युवक यहाँ ब्राह्मणों द्वारा धर्म-भ्रष्ट कहकर समाज से निकाल दिये जाते थे, इसलिए वे ईसाई हो जाते थे, उन्हें देश के ही धर्म में रखने की जरूरत थी। इसी भावना पर ब्राह्मधर्म की प्रतिष्ठा तथा प्रसार हुआ। विलायत में प्रसिद्धि प्राप्त कर लौटने वाले प्रथम भारतीय वक्ता श्रीयुत केशवचन्द्र सेन भी ब्राह्मधर्म के प्रवर्तकों में एक हैं। इन्हीं से मिलने के लिए स्वामीजी कलकत्ता गये थे। यह जितने अच्छे विद्वान् अंग्रेजी के थे, इतने अच्छे संस्कृत के न थे। इनसे बातचीत में स्वामीजी सहमत नहीं हो सके। कलकत्ता में आज ब्राह्मसमाज मन्दिर के सामने कार्नवालिस स्ट्रीट पर विशाल आर्यसमाज मन्दिर भी स्थित है।
किसी दूसरे प्रतिभाशाली पुरुष से और जो कुछ उपकार देश तथा जाति का हुआ हो, सबसे पहले वेदों को स्वामी दयानन्द जी सरस्वती ने ही हमारे सामने रक्खा। हम आर्य हों, हिन्दू हों, ब्राह्मसमाज वाले हों, यदि हमें ऋषियों की सन्तान होने का सौभाग्य प्राप्त है और इसके लिए हम गर्व करते हैं, तो कहना होगा कि ऋषि दयानन्द से बढ़कर हमारा उपकार इधर किसी भी दूसरे महापुरुष ने नहीं किया, जिन्होंने स्वयं कुछ भी न लेकर हमें अपार ज्ञान-राशि वेदों से परिचित कर दिया।

देश में विभिन्न मतों का प्रचलन उसके पतन का कारण है, स्वामी दयानन्दजी की यह निर्भ्रान्त धारणा थी। उन्होंने इन मत-मतान्तरों पर सप्रमाण प्रबल आक्षेप भी किये हैं। उनकी इच्छा थी कि इस मतवाद के अज्ञान-पंक से देश को निकालकर वैदिक शुद्ध शिक्षा द्वारा निष्कलंक कर दें। वाममार्ग वाले तान्त्रिकों की मन्द वृत्तियों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा है कि मद्य, मांस, मीन, मुद्रा, मैथुन आदि वेद-विरुद्ध महाअधर्म कार्यों को वाममार्गियों ने श्रेष्ठ माना है। जो वाममार्गी कलार के घर बोतल पर बोतल शराब चढ़ावें और रात्रि को वारांगना से दुष्कर्म करके उसी के घर सोवें, वह वाममार्गियों में श्रेष्ठ चक्रवर्ती राजा के समान है। स्त्रियों के प्रति विशद कोई भी विचार उनमें नहीं। स्वामीजी देशवासियों को विशुद्ध वैदिक धर्म में दीक्षित हो आत्मज्ञान ही-सा उज्जवल और पवित्र कर देना चाहते थे। स्वामी विवेकानन्द ने भी वामाचार-भक्त देश के लिये विशुद्ध भाव वाले वैदान्तिक धर्म का उपदेश दिया है। आपने गुरु परम्परा को भी आड़े हाथों लिया है। योगसूत्र के 'स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्' के अनुसार, आप केवल ब्रह्म को ही गुरु स्वीकार करते हैं। रामानुज जैसे धर्माचार्य का भी मत आपको मान्य नहीं, और बहुत कुछ युक्तिपूर्ण भी जान पड़ता है। आपका कहना है कि लक्ष्मीयुक्त नारायण की शरण जाने का मन्त्र धनाढ्य और माननीयों के लिए बनाया गया- यह भी एक दुकान ठहरी।

मूर्ति-पूजन के लिए आपका कथन है कि जैनियों की मूर्खता से इसका प्रचलन हुआ। तांत्रिक तथा वैष्णवों ने भिन्न मूर्तियों तथा पूजनोपचारों से अपनी एक विशेषता प्रतिष्ठित की है। जैनी वाद्य नहीं बजाते थे, ये लोग शंख, घण्टा, घड़ियाल आदि बजाने लगे। अवतार आदि पर भी स्वामीजी विश्वास नहीं करते। 'न तस्य प्रतिमा अस्ति' आदि-आदि प्रमाणों से ब्रह्म का विग्रह नहीं सिद्ध होता, उनका कहना है।

ब्राह्मणों की ठग-विद्या के सम्बन्ध में भी स्वामीजी ने लिखा है- आज ब्राह्मणों की हठपूर्ण मूर्खता से अपरापर जातियों को क्षति पहुँच रही है। पहले पढ़े-लिखे होने के कारण ब्राह्मणों ने श्लोकों की रचना कर-करके अपने लिये बहुत काफी गुंजाइश कर ली थी। उसी के परिणामस्वरूप वे आज तक पुजाते चले जा रहे हैं। स्वामीजी एक मन्त्र का उल्लेख करते हैं-
दैवाधीनं जगत्सर्वं मन्त्राधीनाश्च देवताः।
ते मन्त्रा ब्राह्मणाधीनास्तस्माद् ब्राह्मणदैवतम्।।
अर्थात् सारा संसार देवताओं के अधीन है, देवता मन्त्रों के अधीन हैं, वे मन्त्र ब्राह्मणों के अधीन हैं, इसलिये ब्राह्मण ही देवता है। लोगों से पुजाने का यह पाखण्ड बड़ी ही नीच मनोवृत्ति का परिचय है।

स्वामीजी ने शैव, शाक्त और वैष्णव आदि मतों की खबर तो ली ही है, हिन्दी-साहित्य के महाकवि कबीर तथा दादू आदि को भी बहुत बुरी तरह फटकारा है। आपका कहना है- पाषाणादि को छोड़ पलंग, गद्दी, तकिये, खड़ाऊं, ज्योति अर्थात् दीप आदि का पूजना पाषाण-मूर्ति से न्यून नहीं। क्या कबीर साहब भुनगा था, वा कली था, जो फूल हो गया? जुलाहे का काम करता था, किसी पण्डित के पास पढ़ने के लिए गया, उसने उसका अपमान किया। कहा, हम जुलाहे को नहीं पढ़ाते। इसी प्रकार कई पण्डितों के पास फिरा, परन्तु किसी ने न पढ़ाया, तब ऊट-पटाँग भाषा बनाकर जुलाहे आदि लोगों को समझाने लगा। तंबूरे लेकर गाता था, भजन बनाता था, विशेष पण्डित, शास्त्र, वेदों की निन्दा किया करता था। कुछ मूर्ख लोग उसके जाल में फँस गये। जब मर गये, तब सिद्ध बना लिया। जो-जो उसने जीते-जी बनाया था, उसको उसके चेले पढ़ते रहे। कान को मूँदकर जो शब्द सुना जाता है, उसको अनहद शब्द सिद्धान्त ठहराया। मन की वृत्ति को सूरति कहते हैं उसको उस शब्द के सुनने में लगाया, उसी को संत और परमेश्वर का ध्यान बतलाते है, वहाँ काल नहीं पहुँचता। बर्छी के समान तिलक और चंदनादि लकड़ी की कंठी बाँधते है। भला विचार के देखो, इसमें आत्मा की उन्नति और ज्ञान क्या बढ़ सकता है?
इसी प्रकार नानकजी के सम्बन्ध में भी आपने कहा है कि उन्हें संस्कृत का ज्ञान न था, उन्होंने वेद पढ़ने वालों को तो मौत के मुँह में डाल दिया है और अपना नाम लेकर कहा है कि नानक अमर हो गये- वह आप परमेश्वर है। जो वेदों की कहानी कहता है, उसकी कुल बाते कहानियाँ हैं। मूर्ख, साधु वेदों की महिमा नहीं जान सकते। यदि नानकजी वेदों का मान करते, तो उनका अपना सम्प्रदाय न चलता, न वह गुरु बन सकते थे, क्योंकि संस्कृत नहीं पढ़ी थी, फिर दूसरों को पढ़ाकर शिष्य कैसे बनाते, आदि-आदि। दादू पंथ को भी आप इसी प्रकार फटकारते हैं। शिक्षा, मार्जन तथा अपौरुषेय ज्ञान-राशि वेदों का आपका पक्ष है। मत-मतान्तरों के स्वल्प जल में यह आत्मतर्पण नहीं करते। वहाँ उन्हें महत्ता नहीं दीख पड़ती। पुन: भाषा में अधूरी कविता करके ज्ञान का परिचय देने वाले अल्पाधार साधुओं से पण्डित श्रेष्ठ स्वामीजी तृप्त भी कैसे हो सकते थे? इन अशिक्षित या अल्पशिक्षित साधुओं ने जिस प्रकार वेदों की निन्दा कर-कर मूढ़ जनों में वेदों के प्रतिकूल विश्वास पैदा कर दिया था, उसी प्रकार नव्य युग के तपस्वी महर्षि ने भी उन सबको धता बताया और विज्ञों को ज्ञानमय कोष वेदों की शिक्षा के लिए आमन्त्रित किया। स्वामीनारायण के मत के विषय पर आप कहते हैं- 'यादृशी शीतलादेवी तादृशो वाहन: खरः श्री गुसाईं जी की धन-हरणादि में विचित्र लीला है वैसी ही स्वामीनारायण की भी है।' माध्व मत के संबन्ध में आपका कथन है- जैसे अन्य मतावलम्बी हैं वैसा ही माध्व भी है, क्योंकि ये भी चक्रांकित होते हैं, इनमें चक्रांकितों से इतना विशेष है कि रामानुजीय एक बार चक्रांकित होते हैं, और ये वर्ष-वर्ष फिर-फिर चक्रांकित होते जाते है, वे चक्रांकित कपास में पीली रेखा और माध्व काली रेखा लगाते हैं। एक माधव पण्डित से किसी एक महात्मा का शास्त्रार्थ हुआ था। (महात्मा) तुमने यह काली रेखा और चांदला (तिलक) क्यों लगाया? (शास्त्री) इसके लगाने से हम बैकुण्ठ को जायेंगे और श्रीकृष्ण का भी शरीर श्याम रंग था, इसलिए हम काला तिलक करते हैं। (महात्मा) जो काली रेखा और चांदला लगाने से बैकुण्ठ में जाते हो तो सब मुख काला कर लेओ तो कहाँ जाओगे?

स्वामीजी के व्यंग्य बड़े उपदेशपूर्ण हैं। आर्य-संस्कृति के लिए आपने नि:सहाय होकर भी दिग्विजय किया और उसकी समुचित प्रतिष्ठा की। स्वामीजी का सबसे बड़ा महत्त्व यह है कि उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा की ओर नहीं देखा, वेदों की प्रतिष्ठा की है। ब्राह्म-समाज और प्रार्थनासमाज के संबन्ध में आपका कहना है- 'ब्राह्म-समाज' और 'प्रार्थना समाज' के नियम सर्वांश में अच्छे नहीं, क्योंकि वेदविद्याहीन लोगों की कल्पना सर्वथा सत्य क्योंकर हो सकती है? जो कुछ ब्रह्म समाज, और प्रार्थना समाजियों ने ईसाई मत में मिलने से थोड़े मनुष्यों को बचाया और कुछ-कुछ पाषाण आदि मूर्तिपूजा से हटाया, अन्य जाल ग्रन्थों के फन्दे से भी कुछ बचाया इत्यादि अच्छी बात है, परन्तु इन लोगों में स्वदेश-भक्ति बहुत न्यून है, ईसाइयों के आचरण बहुत से लिए हैं। खान-पान-विवाहादि के नियम भी बदल गये हैं। अपने देश की प्रशंसा व पूर्वजों की बड़ाई करनी तो दूर रही उसके स्थान में पेट-भर निन्दा करते हैं, व्याख्यानों में ईसाई आदि अंग्रेजों की प्रशंसा भरपेट करते हैं। ब्रह्मादि महर्षियों का नाम भी नहीं लेते प्रत्युत ऐसा कहते हैं कि बिना अंग्रेजों के सृष्टि में आज पर्यन्त कोई भी विद्वान् नहीं हुआ, आर्यवर्ती लोग सदा से मूर्ख चले आये हैं, उनकी उन्नति कभी नहीं हुई। वेदादिकों की प्रतिष्ठा तो दूर रही, परन्तु निन्दा करने से भी पृथक् नहीं रहते, ब्रह्मसमाज के उद्देश्य की पुस्तक में साधुओं की संख्या में ईसा', 'मूसा', 'मुहम्मद', 'नानक' और 'चैतन्य' लिखे हैं, किसी ऋषि-महर्षि का नाम भी नहीं लिखा। आज शिक्षित सभी मनुष्य जानते हैं, भारत के अध:पतन का मुख्य कारण नारी-जाति का पीछे रह जाना है, वह जीवन-संग्राम में पुरुष का साथ नहीं दे सकती, पहले से ऐसी निरवलंब कर दी जाती है कि उसमें कोई क्रियाशीलता नहीं रह जाती। पुरुष के न रहने पर सहारे के बिना तरह-तरह की तकलीफें झेलती हुई वह कभी-कभी दूसरे धर्म को स्वीकार कर लेती है, आदि-आदि। पं० लक्ष्मण शास्त्री द्रविड़ जैसे पुराने और नये पण्डित अनुकूल तर्कयोजना करते हुए, प्रमाण देते हुए यह नहीं जानते कि भारत की स्त्रियाँ उनके पराधीन काल में भी किसी तरह दूसरे देशों की स्त्रियों से उचित शिक्षा, आत्मोन्नति, गार्हस्थ्य सुख-विज्ञान, संस्कृति आदि में घटकर है। इसी तरह धर्म और जाति के संबन्ध में उनकी वाक्यावली, आज के अंग्रेजी शिक्षित युवकों को अधूरी जँचने पर भी, निरपेक्ष समीक्षकों के विचार में मान्य ठहरती है। फिर भी, हमें यहाँ देखना है कि आजकल के नवयुवक समुदाय से महर्षि दयानन्द, अपनी वैदिक प्राचीनता लिए हुए भी, नवीन सहयोग कर सकते हैं या नहीं। इससे हमें मालूम होगा हमारे देश के ऋषि जो हजारों शताब्दियों पहले सत्य-साक्षात्कार कर चुके हैं, आज की नवीनता से भी नवीन है क्योंकि सत्य वह है जो जितना ही पीछे है, उतना ही आगे भी, जो सबसे पहले दृष्टि के सामने है वही सबसे ज्यादा नवीन है।

ज्ञान की ही हद में सृष्टि सारी बातें हैं । सृष्टि की अव्यक्त अवस्था भी ज्ञान है। स्वामीजी वेदाध्ययन में अधिकारी-भेद नहीं रखते। वह सभी जातियों की बालिकाओं-विद्यार्थिनियों को वेदाध्ययन का अधिकार देते हैं। यहाँ यह स्पष्ट है कि ज्ञानमय कोष चाहे वह जड़-विज्ञान से संबन्ध रखता हो, धर्म-विज्ञान से- नारियों के लिए युक्त है, वे सब प्रकार से आत्मोन्नति करने की अधिकारणी हैं। इस विषय पर आप 'सत्यार्थप्रकाश' में एक मन्त्र उद्धृत करते हैं-

'यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः।
ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय।' यजु० अ० २६/२
'परमेश्वर कहता है कि (यथा) जैसे मैं (जनेभ्यः) सब मनुष्यों के लिये (इमाम्) इस (कल्याणीम्) कल्याण अर्थात् संसार और मुक्ति के सुख देनेहारी (वाचम्) ऋग्वेदादि चारों वेदों की वाणी का (आवदानि) उपदेश करता हूँ, वैसे तुम भी किया करो। यहाँ कोई ऐसा प्रश्न करे कि जन-शब्द से द्विजों का ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि स्मृत्यादि ग्रन्थों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ही को वेदों के पढ़ने का अधिकार लिखा है, स्त्री और शूद्रादि वर्णों का नहीं (उत्तर) ब्रह्मराजन्याभ्याम् इत्यादि देखो, परमेश्वर स्वयं कहता है, कि हमने ब्राह्मण, क्षत्रिय, (अर्याय) वैश्य (शूद्रार्य) शूद्र और (स्वाय) अपने भृत्य वा स्त्रियादि (अरणाय) और अति शूद्रादि के लिये भी वेदों का प्रकाश किया है, अर्थात् सब मनुष्य वेदों को पढ़-पढ़ा और सुन-सुनाकर विज्ञान को बढ़ा के अच्छी बातों को ग्रहण और बुरी बातों को त्याग करके दुःखों से छूटकर आनन्द को प्राप्त हों। कहिये, अब तुम्हारी बात मानें या परमेश्वर की? परमेश्वर की बात अवश्य माननीय है । इतने पर भी जो कोई इसको न मानेगा, वह नास्तिक कहावेगा है, क्योंकि 'नास्तिको वेदनिन्दकः' वेदों का निन्दक और न मानने वाला नास्तिक कहाता है।

स्वामीजी ने वेद के उद्धरणों द्वारा सिद्ध किया है कि स्त्रियों की शिक्षा, अध्ययन आदि वेदविहित है। उनके लिए ब्रह्मचर्य के पालन का भी विधान है। स्वामीजी की इस महत्ता को देखकर मालूम हो जाता है कि स्त्री समाज को उठाने वाले पश्चिमी शिक्षा-प्राप्त पुरुषों से वह बहुत आगे बढ़े हुए हैं। वह संसार और मुक्ति दोनों प्रसंगों में पुरुषों के ही बराबर नारियों को अधिकार देते हैं। इस एक ही वाक्य से साबित होता है कि किसी भी दृष्टि से वह नारी-जाति को पुरुष-जाति से घटकर नहीं मानते।
आपका ही प्रवर्तन आर्यावर्त के अधिकांश भागों में, महिलाओं के अध्ययन के संबन्ध में प्रचलित है। यहाँ स्त्री-शिक्षा-विस्तार का अधिकांश श्रेय आर्यसमाज को दिया जा सकता है। यहाँ की शिक्षा की एक विशेषता भी है। महिलाएँ यहाँ जितने अंशों में देशी सभ्यता की ज्योतिस्वरूपा होकर निकलती हैं, उतने अंशों में दूसरी जगह नहीं। संस्कृति के भीतर से स्त्री के रूप में प्राचीन संस्कृति को ही स्वामीजी ने सामने खड़ा कर दिया है।

[स्त्रोत- परोपकारी : महर्षि दयानन्द सरस्वती की उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा का मुखपत्र का फरवरी (द्वितीय) २०२० का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]

मैक्समूलर के विचारपरिवर्तन में महर्षि दयानन्द का प्रभाव



मैक्समूलर के विचारपरिवर्तन में महर्षि दयानन्द का प्रभाव

लेखक- स्व० पं० युद्धिष्ठिर मीमांसक

मैक्समूलर के कुछ पत्र अपनी पत्नी, पुत्र आदि के नाम लिखे हुए उपलब्ध हुए हैं। पत्र-लेखक पत्रों में अपने हृदय के भाव बिना किसी लाग-लपेट के लिखता है। अतः किसी भी व्यक्ति के लिखे हुए ग्रन्थों की अपेक्षा उसके पत्रों में लिखे विचार अधिक प्रामाणिक माने जाते हैं।

प्रारम्भिक विचार- मैक्समूलर के आरम्भिक काल में वेदों के सम्बन्ध में क्या विचार थे, इसके निदर्शनार्थ उसके कुछ उद्धरण नीचे देते हैं-

१. सन् १८६६ के एक पत्र में मैक्समूलर अपनी पत्नी को लिखता है- "वेद का अनुवाद और मेरा यह संस्करण उत्तरकाल में भारत के भाग्य पर दूर तक प्रभाव डालेगा। यह उसके धर्म का मूल है और मैं निश्चय से अनुभव करता हूं कि उन्हें यह दिखाना कि यह मूल कैसा है, गत तीन सहस्त्र वर्ष में उससे उपजने वाली सब बातों के उखाड़ने का एक मात्र उपाय है।"
२. एक पत्र में वह अपने पुत्र को लिखता है- "संसार की सब धर्मपुस्तकों में से 'नई प्रतिज्ञा' (ईसा की बाइबिल) उत्कृष्ट है। इसके पश्चात् कुरान जो आचार की शिक्षा में 'नई प्रतिज्ञा' का रूपान्तर है, रखा जा सकता है। इसके पश्चात् पुरातन प्रतिज्ञा (यहूदी बाइबिल) दाक्षिणात्य बौद्धत्रिपिटक, ...वेद और अवेस्ता आदि हैं।"
३. १६ दिसम्बर सन् १८६८ में भारत सचिव ड्यूक ऑफ आर्गाइल को एक पत्र में मैक्समूलर लिखता है- "भारत का प्राचीन धर्म नष्टप्राय है और यदि ईसाई धर्म उसका स्थान नहीं लेता तो यह किसका दोष होगा?"
४. मैक्समूलर लिखता है- वैदिक सूक्तों की एक बड़ी संख्या परम बालिश, जटिल, अधम और साधारण है।
५. मैक्समूलर के नाम उसके घनिष्ठ मित्र ई०बी० पुसे का पत्र- "आपका कार्य भारतीयों को ईसाई बनाने के यत्न में नवयुग लानेवाला होगा।"

वाह क्या कहना? जैसा मैक्समूलर वैसा ही उसका मित्र? ऐसों के लिए ही तो कहावत है-
उष्ट्राणां विवाहेषु गीतं गायन्ति गर्दभा:।

वस्तुतः इस काल के जो भी ईसाई, यहूदी, वेद और संस्कृत भाषा पर काम कर रहे थे उन सबके मस्तिष्क में ईसाई, यहूदी मत का पक्षपात कार्य कर रहा था। मोनियर विलियम्स ने संस्कृत-अंग्रेजी कोश की रचना की, इसके पीछे भी ईसाइयत की भावना काम कर रही थी। उसने उक्त कोष भारतीयों को ईसाई बनाने में, अपने देशवासियों को सहायता पहुंचाने के लिए लिखा था। वह कोश की भूमिका में लिखता है-
"That the special object of his munificent bequest was to promote the translation of the scriptures into Sanskrit, so as to enable his countrymen to proceed in the conversion of the natives of India to the Christian Religion." (भूमिका पृष्ठ ९)

हमारा प्रयोजन मैक्समूलर के प्रारम्भिक विचारों को प्रस्तुत करना था, वह उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट हो गया। अब हम उसके उत्तरकालीन विचारों को प्रस्तुत करते हैं-

उत्तरकालीन विचार- मैक्समूलर के उत्तरकालीन विचारों का संकलन हम उसके उन व्याख्यानों से उद्धृत करते हैं, जिन्हें उसने भारत में प्रशासकीय सेवा में आने वाले उम्मीदवारों के सम्मुख सन् १८८२ में 'INDIA WHAT CAN IT TEACH US' (हम भारत से क्या सीखें?) शीर्षक व्याख्यानमाला में प्रस्तुत किया था।
सबसे पहले तो हमारा ध्यान उक्त व्याख्यानमाला का शीर्षक ही आकृष्ट करता है। यह शीर्षक ही मैक्समूलर के विचारों में आये परिवर्तन की घोषणा करता है। अन्यथा भारतीयों को असभ्य जाहिल माननेवाले व्यक्ति को तो भारत में प्रशासन चलाने आनेवाले व्यक्तियों को बताना चाहिए था कि तुम्हें वहां जाकर असभ्य भारतीयों को कैसे सभ्य बनाना है, न कि उन्हें यह बताया जाये कि 'हम भारत से क्या सीखें?'। अब हम इस पुस्तक के हिन्दी अनुवाद से कतिपय विचार उद्धृत करते हैं-

वैदिक धर्म ने कोई भी बाह्य प्रभाव ग्रहण नहीं किया- "वैदिक साहित्य को ऐतिहासिक महत्त्व देने में जब कोई आपत्ति नहीं मिल सकी तो भी अकारण आलोचकों ने एक महती और अन्तिम आपत्ति उठायी। ऐसे लोगों ने बल देकर कहना प्रारम्भ किया कि वैदिक काव्य यदि सम्पूर्णरूपेण विदेशी नहीं तो उस पर विदेशी प्रभाव और विशेषकर सेमेटिक प्रभाव तो अवश्य ही है। संस्कृत विद्वानों ने वेद के अनेक आकर्षक तत्त्वों का वर्णन किया है। उन्हीं के अनुसार वेद का सर्वाधिक आकर्षक तत्त्व यह है कि यह केवल धार्मिक विचारों की अति प्राचीन स्थिति से ही हमें परिचित नहीं कराता वरन् वैदिक धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है जिसने अपने सम्पूर्ण विकासकाल में कोई भी बाह्य प्रभाव नहीं ग्रहण किया तथा संसार के सभी धर्मों की तुलना में वह सर्वाधिक शताब्दियों तक निर्बाध रूप से चलता रहा है।"

वैदिक भाषा, साहित्य, धर्म वा यज्ञ पर कोई भी बाह्य प्रभाव नहीं है- "प्राचीन भारतीय साहित्य पर विदेशी प्रभाव सिद्ध करने के लिए जितने तर्क दिए जा चुके हैं उन सबको कसौटी पर कस लेने के पश्चात् अब हम इस स्थिति में आ गये हैं कि हम कह सकते हैं कि किसी भी प्रकार का बाह्य प्रभाव वैदिक भाषा, साहित्य, धर्म या यज्ञ पर नहीं है। वह जिस किसी भी रूप में हमारे सामने है उसका उसी रूप और उसी देश में विकास हुआ है जो उत्तर में अगम्य पर्वतश्रेणियों से, पश्चिम में सिन्ध तथा रेगिस्तान से, दक्षिण में अगाध सागर से एवं पूर्व में गंगा से पूर्णरूपेण रक्षित था। हमारे सामने एक ऐसा काव्य (वैदिक धर्म) है जो वहीं जन्मा और वहीं विकसित हूं" (पृष्ठ १४५)

बहुदेवतावाद वा एकदेवतावाद- "यदि आप हमसे यह पूछ बैठें कि वैदिक धर्म एकदेववादी है या बहुदेववादी। तो इसका उत्तर दे सकना मेरे लिए कम कठिन नहीं होगा। एकदेववाद का जो अर्थ लगाया जाता है, उस अर्थ में तो वैदिक धर्म एकदेववादी नहीं है। यद्यपि अनेक ऋचाएं ऐसी हैं जिनमें एकदेववाद की बात जितना बल देकर कही गयी है उतना बल देकर तो ओल्ड टेस्टामेण्ट में भी नहीं कही गयी है। न्यू टेस्टामेण्ट एवं कुरान की भी यही स्थिति है। एक वैदिक ऋषि का कथन है कि वह एक है, सन्त जन उसे विभिन्न नामों से पुकारते हैं जैसे अग्नि, यम, मातरिश्वन्।" (पृष्ठ १४८)
"यदि एकदेववाद या बहुदेववाद में निर्णय करना हो तो प्रथम दृष्टि में तो यही प्रतीत होगा कि वैदिक धर्म बहुदेववादी है, परन्तु बहुदेववाद से हम जो अर्थ लगाते हैं, उस अर्थ में यह शब्द वैदिक धर्म का विश्लेषण नहीं बन सकता। वास्तव में बहुदेववाद की विचारधारा को हमने ग्रहण किया है रोम और यूनान से। हम समझते हैं कि बहुदेव में देवताओं का एक संगठित रूप होता है, जिनमें प्रत्येक की शक्तिमात्रा दूसरे से भिन्न होती है और वे सब-के-सब उस परमेश्वर के सहायक हैं, जिसे वे जीसस या जुपिटर कहते हैं। वेदों का बहुदेववाद इससे भिन्न है। वह न केवल यूनानियों या रोमवालों से भिन्न है वरन् वह पॉलिनेशियन, अमेरिकन तथा अफ्रीकन भावनाओं से भी भिन्न है और यह भिन्नता उसी प्रकार की है जैसे स्वशासनाधिकार प्राप्त ग्रामों का संघ राजतन्त्रीय शासन से भिन्न होता है।" (पृष्ठ १४९)

केवल एक ही देव- "...ऋषियों ने स्पष्ट रूप से समझ लिया था कि यद्यपि ये नाम केवल नाममात्र हैं और जिसके ये नाम हैं वह एक है और केवल एक है।" (पृष्ठ १५१)
"उसी विद्वान् लेखक (यास्क) का कथन है कि देव तो वास्तव में एक ही है...ये ढेर सारे देवता उसी आत्मन् के विभिन्न सदस्य हैं।" (पृष्ठ २२३)

वेद का चरम लक्ष्य- "मैं तो यहां तक कह सकता हूं कि भारत का दर्शनशास्त्र ही वहां का सर्वोच्च धर्म है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि भारत प्राचीनतम दर्शनशास्त्र का प्राचीनतम नाम है- वेदान्त अर्थात् वेद का अन्त, वेद का लक्ष्य या वेद का सर्वोच्च उद्देश्य।" (पृष्ठ २२३)
"लोगों ने वेद की महत्ता को कम करने के कम प्रयत्न नहीं किए हैं, पर उसका महत्त्व आज भी वैसा ही है।" (पृष्ठ २२७)
"वेदान्तदर्शन के अनेक प्रमुख अङ्ग गंवई गांव के निरक्षर व्यक्ति भी पूरी तरह समझते हैं।" (पृष्ठ २२७)

मैक्समूलर ने अपने व्याख्यानों की समाप्ति 'शापनहावर' के उपनिषद् विषयक उद्गारों को उद्धृत कर इस प्रकार किया-
"यदि आप यह समझते हों कि मेरे द्वारा प्रस्तुत विवरण अतिरञ्जित हैं तो मैं आपके समक्ष एक महान् दार्शनिक-आलोचक के कुछ शब्द रखूंगा। उस विद्वान् की यही विशेषता थी कि दूसरों के विचारों की व्यर्थ प्रशंसा करना उसके स्वभाव के विपरीत था। इस प्रसिद्ध विद्वान् शापनहावर ने उपनिषदों पर अपना विचार प्रकट करते हुए लिखा है कि- समूचे संसार में कोई भी अध्ययन इतना लाभजनक और ऊंचा उठाने वाला नहीं है जैसा कि उपनिषदों का अध्ययन। यह मेरे जीवन का सन्तोष रहा है और यही मेरी मृत्यु का भी सन्तोष रहेगा।" (पृष्ठ २३०)

इन उद्धरणों से स्पष्ट होता है कि इन व्याख्यानों के समय (सन् १८८२) तक भारत, भारतीय धर्म और वेद के विषय में मैक्समूलर के विचारों में बहुत अन्तर हो गया था, परन्तु यह अन्तर किन कारणों से हुआ, क्या स्वामी दयानन्द सरस्वती का वेदभाष्य इसमें कारण था वा नहीं, इसका स्पष्ट संकेत नहीं मिलता। स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्य सम्बन्धी कार्य से मैक्समूलर भली प्रकार परिचित था और स्वामी दयानन्द सरस्वती भी अपने वेदभाष्य सम्बन्धी कार्य के विषय में मैक्समूलर और मोनियर विलियम्स की प्रतिक्रिया जानने को सदा उद्यत रहते थे, यह हम पूर्व लिख चुके हैं और इनके मध्य श्यामजीकृष्ण वर्मा जो संस्कृत अध्यापन के लिए लन्दन गए हुए थे, सम्पर्कमाध्यम के रूप में भूमिका निबाह रहे थे। इन सब घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि मैक्समूलर के विचारों में परिवर्तन का प्रमुख कारण स्वामी दयानन्द सरस्वती का वेदभाष्य अवश्य रहा होगा। इसकी पुष्टि मैक्समूलर के निम्न कथन से भी होती है-
"ऋग्वेदकाल से आरम्भ करके दयानन्द द्वारा सम्पादित ऋग्वेदादिभाष्य की भूमिका लिखे जाने के समय तक के सहित्य को दो भागों में बांट सकते हैं। यहां यह भी बता देना समुचित ही होगा कि दयानन्द द्वारा लिखी गई ऋग्वेद की भूमिका भी कम रुचिपूर्ण नहीं है।" (हम भारत से क्या सीखें -पृष्ठ १०२)

सबसे अधिक खेद का विषय यह है कि भारत के विश्वविद्यालयों में मैक्समूलर के वे ही विचार पढ़ाये जाते हैं, जो उसने प्रारम्भिक काल में ईसाई मत के जोश में लिखे थे। मेरा सुझाव है कि प्रत्येक विश्वविद्यालय में जिसमें भी संस्कृत भाषा से सम्बद्ध विषय पढ़ाये जाते हैं, वहां कम से कम मैक्समूलर के 'INDIA WHAT CAN IT TEACH US' (हम भारत से क्या सीखें?) शीर्षक व्याख्यान-संकलन पाठ्यपुस्तकों में अवश्य रखा जाय तभी मैक्समूलर-भक्त अपनी अन्धभक्ति को त्यागकर कुछ प्रकाश पा सकेंगे।

[स्त्रोत- परोपकारी : महर्षि दयानन्द सरस्वती की उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा का मुखपत्र का जनवरी (द्वितीय) २०२० का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]