क्रान्तिकारी भगत सिंह
-प्रांशु आर्य
संसार एक विशाल रणस्थली है। यहां सदैव संघर्ष रहा है। संसार का इतिहास संघर्ष का इतिहास है। जो व्यक्ति, जो समाज, जो राष्ट्र संसार समर में कमर कस कर जूझने व मिटने के लिए तैयार नहीं होते वे इतिहास के गर्भ में खो जाया करते हैं। किसी कवि ने
बड़े ओजस्वी स्वर में लिखा है -
जिसे दुनिया कहते हैं ऐ दुनिया वालो !
यह रणक्षेत्र है कोई महफिल नहीं है,
हथेली में सर जिसका हो इसमे कूदे ।
यह दरिया है वो जिसका साहिल नहीं है ।।
संसार के इतिहास पर दृष्टिपात करने से पता चलता है कि यहां अच्छे और बुरे, न्याय और अन्याय करने वाले, सदाचारियों और दुराचारियों, पोषकों और शोषकों के बीच सदैव ही संघर्ष रहा है। विश्व के समस्त देशों ने इन्हीं संघर्षों के बीच में अपने को विकसित किया है। अन्याय, अत्याचार, परस्वहरण करने वाले शोषकों, लुटेरों की क्रूरता, निरंकुशता छल-कपट ने जब-जब अपनी चरम सीमा को पार किया है, जनता तिलमिला उठी है और तब-तब अपने अस्तित्व व आत्मरक्षा के लिए एवं दमनकारी शासकों को उखाड़ फेंकने के लिए वृहद् स्तर पर जनता ने विद्रोह के बिगुल फूँके हैं जिसे क्रान्ति कहा जाता है।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है - जब बदलाव धीरे-धीरे आता है तो उसे विकास कहते हैं और जब बदलाव तेजी से आता है तो उसे क्रान्ति कहते हैं। क्रान्ति के बिना शांति स्थापित नहीं हो सकती और देश, समाज में शांति की स्थापना करना ही क्रांतिकारियों का काम होता है। किन्तु क्रान्ति का अर्थ तोड़-फोड़, धरने या हत्याएँ करना नहीं होता उसके पीछे एक दर्शन, एक विचार व परिवर्तन की एक स्पष्ट रूपरेखा होती है।
क्रांति का अर्थ है ‘क्रमु पाद विक्षेपे‘ अर्थात् आगे चलना। जब कभी गति चक्र रुक जाए तो उस अवरुद्ध गति चक्र को आगे बढ़ाना, आगे चलाना ही क्रांति कहलाती है। क्रांति भी दो प्रकार की होती है - एक वैचारिक क्रांति और दूसरी शारीरिक अथवा सशस्त्र क्रांति। किन्तु वैचारिक क्रांति के बिना सशस्त्र क्रांति का कोई अर्थ नहीं होता। सशस्त्र क्रांति की अपेक्षा वैचारिक क्रांति ही सदैव प्रभावशाली व चिरस्थाई होती है। इसमें भी मुख्य बात यह है कि इन दोनों प्रकार की क्रांतियों को केवल वे ही लोग कर सकते हैं जिनमें अन्याय, अत्याचार के विरुद्ध आक्रोश व विद्रोह करने की क्षमता व साहस हो। और ऐसे साहसी व क्रांति के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने वालों को ही क्रांतिकारी कहा जाता है और ऐसे ही सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी थे सरदार भगत सिंह। जिन्होंने अपनी छोटी सी आयु में ही अपने अदम्य साहस से बर्बर ब्रिटिश सरकार की नींव हिला कर समूचे देश में क्रांति मचा दी थी। भगत सिंह भी वैचारिक क्रांति के पक्षधर थे। अदालत में जब उनसे पूछा गया कि क्रांति से उनका क्या मतलब है ? तब इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा कि - क्रांति का मतलब केवल खूनी लड़ाइयां या वैयक्तिक वैर निकालना नहीं है । और न बम अथवा पिस्तौल का प्रयोग करना ही उसका एकमात्र उद्देश्य है । क्रांति से हमारा अभिप्राय केवल उस अन्याय को समूल नष्ट कर देना है, जिसकी भित्ति पर वर्तमान शासन-प्रणाली का निर्माण हुआ है।
भारत के इस वीर क्रांतिकारी का जन्म 27 सितंबर 1907 को लायलपुर जिले के बंगा नामक स्थान (वर्तमान में पाकिस्तान) पर हुआ था। आप बचपन से ही क्रांतिकारी स्वभाव के थे। आपके विचार बचपन से ही क्रांतिकारी थे। आपको ये क्रांति के विचार व संस्कार विरासत में अपने पुरखों से मिले थे। आपके पिता सरदार किशन सिंह देश की स्वतंत्रता के लिए जीवन भर जेलों की कठिन यातनाएं सहते रहे। आप को जन्म देने वाली वीरांगना माता विद्यावती देवी थी जो जीवन भर अनेक कष्टों को सहती हुई भी आपका और आपके परिवार का पालन पोषण करती रही। आपके मंझले चाचा सरदार अजीत सिंह बहुप्रतिभाशाली राष्ट्रभक्त एवं क्रांतिकारी थे। देश की आजादी के लिए वे 40 वर्षों तक विदेशों में रहकर लोगों को संगठित करने का कार्य करते रहें और देश को स्वतंत्र कराने के पश्चात् ही स्वदेश लौटे। आप के सबसे छोटे चाचा स्वर्णसिंह जी भी अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करते हुए युवावस्था में ही बलिदान हो गए।
आपके परिवार के मुखिया आपके दादा सरदार अर्जुन सिंह जी देशभक्त व धुन के धनी व्यक्ति थे। आपके परिवार में क्रांति की धुन आपके दादा सरदार अर्जुन सिंह जी ने ही जगायी थी और आपके दादा जी के अन्दर यह क्रांति की धुन जगाने वाले आधुनिक भारत के निर्माता, क्रांति व शांति दोनों धाराओं के जनक एवं आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती थे। महर्षि दयानंद के संपर्क में आने के बाद, उनके उपदेशों का आपके दादा सरदार अर्जुन सिंह जी पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह समस्त अंधविश्वासी और रूढ़िवादी मान्यताओं को छोड़कर कट्टर आर्य समाजी बन गए। आर्य समाज से इतर इस बात को भी कम ही लोग जानते हैं कि सरदार अर्जुनसिंह जी का यज्ञोपवीत संस्कार स्वयं ऋषि दयानंद ने अपने कर कमलों से किया था और अपने पौत्र भगत सिंह का यज्ञोपवीत संस्कार उन्होंने आर्य समाजी विद्वान् पंडित लोकनाथ तर्कवाचस्पति से करवाया था और भगत सिंह को पढ़ाने के लिए आर्य समाजी विद्वान् उदयवीर शास्त्रीजी को नियुक्त किया था। इतना ही नहीं सरदार अर्जुन सिंह जी पर आर्य समाज का जादू ऐसा चढ़ा कि वह घूम-घूम कर वैदिक धर्म का प्रचार व शास्त्रार्थ करने लगे। गुरु ग्रन्थ साहब की पोथी को मत्था टेकने के स्थान पर हवन करने लग गए। वे न सिर्फ स्वयं ही आर्य समाजी रंग में रंगे अपितु उन्होंने अपने पूरे परिवार को आर्य समाजी संस्कारों में रंग दिया। आर्य समाज एक क्रांतिकारी आंदोलन है, इस बात को वे गहराई तक समझ चुके थे और इसीलिए इस क्रांति रथ को आगे बढ़ाने के लिए वह अपने पूरे परिवार के साथ इसमें कूदे। क्रांति के इस यज्ञ में हवनकुंड वे स्वयं ही बने। अपने तीनो पुत्रों सरदार किशन सिंह, अजित सिंह और स्वर्ण सिंह को समिधा बनाकर इस हवन कुंड में प्रवेश करवाया। बड़े पौत्र जगत सिंह से इस कुंड में अग्नि प्रज्वलित करवाई और इस प्रज्वलित अग्नि को ऊपर उठाने के लिए भगत सिंह ने इस हवनकुंड में अपनी आहुति दी और ऐसी आहुति दी जिसने देश में क्रांति के सैकड़ों जलते हुए हवन कुंड तैयार कर दिए।
पाठको ! यह भगत सिंह की पारिवारिक पृष्ठभूमि की वह झलक है जिसे आज तक एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत देशवासियों से छुपाया गया है। कम्युनिस्टों द्वारा भगत सिंह के लघु लेख मैं नास्तिक क्यों हूँ के आधार पर उनके नास्तिक होने का तो खूब प्रचार किया गया किन्तु उनके परिवार का आर्य सामाजी सिद्धांतों व संस्कारों से ओत-प्रोत होने को पूरी तरह से लोगो के सामने आने से दबाया गया जो वास्तव में भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारों का मूल है। याद रखिए जो संस्कार बालक को बचपन में मिलते हैं उसी पर ही उसके भावी जीवन की नींव शिला टिकी होती है। यह ठीक है कि लेनिन आदि का साम्यवादी साहित्य पढ़ने के बाद उनके विचारों में काफी हद तक परिवर्तन आया था तथापि इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि उनके जीवन कार्योें व विचारांे के मूल में, उनको घर से मिले संस्कार व ऋषि दयानन्द की प्रेरणा ही काम कर रही थी।
भगत सिंह के क्रांतिकारी जीवन में दो घटनाएं विशेष एवं ऐतिहासिक रही है जिनका उनकी फांसी से गहरा सम्बन्ध रहा। प्रथम तो 30 अक्टूबर सन् 1930 में जब साइमन कमीशन लाहौर पहुंचा तब लाला लाजपतराय के नेतृत्व में उसका बहिष्कार किया गया। प्रदर्शनकारियों और पुलिस में मुठभेड़ हुई। क्रूरता की हदें पार करते हुए निहत्थे लालाजी पर पुलिस द्वारा बर्बर लाठियां बरसाई गईं जिसके परिणामस्वरूप 17 नवंबर 1928 के दिन लाला जी का बलिदान हो गया। इस बलिदान ने सारे देश को आक्रोशित कर दिया। भगत सिंह और उनके साथियों ने बदला लेने की ठानी। पुलिस सुपरिटेंडेंट स्कॉट की हत्या करने की योजना बनाई गई किन्तु चूंक से मारा गया सांडर्स। अगले दिन लाहौर शहर की दीवारों पर पर्चे चिपके मिले, जिस पर मोटे अक्षरों में लिखा था - ‘सांडर्स मारा गया, लाला जी का बदला लिया गया।‘
प्रश्न उठ सकता है कि जब क्रांति का अर्थ हत्या करना नहीं होता तो फिर सरदार भगत सिंह ने और उनके साथियों ने ये हत्या क्यों की ? उत्तर यह है कि ये हत्या आवश्यक थी। क्योंकि जब शासक क्रूर व जालिम हो जाए, अपने नस्ली अहंकार के मद में चूर होकर अपने को मालिक और जनता को नौकर से भी बद्तर समझने लगे, उनकी आवाज को दबाने के लिए साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपनाकर उनहें कुचलने लगे तब क्रांति की मशाल को जलाए रखने के लिए भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों के समक्ष एक ही रास्ता रह जाता है कि शासन करने वाले ऐसे क्रूर भेड़ियों का वध कर दिया जाए और क्रांति की मशाल को दूसरे तक पहुंचाने के लिए रास्ता बनाया जाए। शास्त्रकारों ने भी कहा है - न आततायी वधे दोषः। अर्थात् आततायी, अत्याचारी का वध करने में कोई दोष, कोई पाप नहीं।
द्वितीय घटना तब घटी जब जालिम अंग्रेजों द्वारा इस देश के गरीब किसानों-मजदूरों की आवाज को कुचलने के लिए दो बिल लाने का निर्णय लिया गया पहला पब्लिक सेफ्टी और दूसरा ट्रेड डिस्प्यूट बिल। देश के अलग-अलग हिस्सों में इस बिल का विरोध होने लगा लेकिन पुनः अहंकार के मद में चूर अंग्रेज भारतीयों की आवाज सुनने को तैयार न थे। ऐसे में भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, चंद्रशेखर आजाद, बटुकेश्वर दत्त व उनके अन्य साथी इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि गोरों की जात बहरी है और बहरों को सुनाने के लिए धमाके की जरूरत होती है। इसी के परिणामस्वरूप बहरी अंग्रेज सरकार को सुनाने के लिए 8 अप्रैल 1929 को असेंबली हॉल में खाली स्थान को देखकर भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने बम फेंक दिए और इंकलाब जिंदाबाद के नारे के साथ स्वयं ही अपनी गिरफ्तारी दी। वस्तुतः बम फेंकने का उद्देश्य किसी की जान लेना नहीं था। वे बम भी केवल धुआं छोड़ने व आवाज करने वाले ही थे। किन्तु बम फेंकने के पीछे जो भगत सिंह का उद्देश्य था वे उसमें सफल हुए क्योंकि इस धमाके की गूंज पूरे देश में सुनी गई। इस धमाके की आवाज ने बहरी अंग्रेज सरकार के होश उड़ा दिए। भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त पर मुकदमा चलाया गया। अदालत की कार्रवाई शुरू हुई। भगत सिंह इसी अवसर की तलाश में थे। अदालत की कार्रवाई के दौरान अपने समस्त विचारों को अदालत में व देश की जनता के सामने रखते हुए अपने बयान में भगत सिंह ने कहा - यह काम हमने किसी व्यक्तिगत स्वार्थ अथवा द्वेष की भावना से नहीं किया है; हमारा उद्देश्य केवल उस शासन व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिवाद प्रकट करना था जिसके हर एक काम में उसकी अयोग्यता ही नहीं वरन उसकी दुष्टता तथा निरंकुशता प्रकट होती है। इस विषय में हमने जितना विचार किया उतना हमें इस बात का दृढ़ विश्वास होता गया कि अब समय आ गया है जब संसार को दिखा दे कि भारत आज किस लज्जाजनक तथा असहाय अवस्था के बीच गुजर रहा है; इसके द्वारा हमें गैरजिम्मेदार तथा निरंकुश शासन की पोल भी खोलना चाहते थे।
भगत सिंह के इन ओजस्वी विचारों ने सारे देश में क्रांति लाने का काम किया। देश का बच्चा-बच्चा भगतसिंह के नाम से परिचित हो गया और कुछ ही समय में भगत सिंह गांधी जी से भी अधिक लोकप्रिय हो गए।
इधर दूसरी ओर अंग्रेजी अदालतों में न्याय का नंगा नाटक चलता रहा। 24 मार्च 1931 के दिन तीनों अभियुक्तों भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु को फांसी देने का निर्णय हुआ। भगत सिंह के मन की हुई। वे चाहते भी यही थे कि उनको फांसी दी जाए। फांसी के कुछ दिन पूर्व जब उनके मित्र जयदेव कपूर जेल में उनसे मिलने पहुँँचे और पूछा कि - क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि इस तरह असमय फांसी चढ़ जाने से आपका जीवन व्यर्थ चला जाएगा। इस बात का उत्तर देते हुए भगत सिंह ने कहा था कि - नहीं! मुझे ऐसा नहीं लगता। क्योंकि जेल की बैरक में बैठ कर के मैं सुन सकता हूँ कि इंकलाब जिंदाबाद और साम्राज्यवाद मुर्दाबाद का जो नारा मैंने दिया है उसकी गूंज आज सारे देश में सुनाई दे रही है। ऐसा ही हुआ भी। फांसी का समाचार पूरे देश में आग की तरह फैला। नवयुवकों का रक्त उबलने लगा। सारे देश में फांसी को रोकने के लिए आंदोलन, प्रदर्शन व धरने होने लगे। देश के जोश को देखकर अंग्रेज सरकार इतनी डर गई कि समय से पहले ही 23 मार्च 1931 को शाम 7 बजकर 33 मिनट पर तीनों क्रांतिकारियों को फांसी पर चढ़ा दिया। फांसी पर चढ़ते वक्त भगत सिंह और उनके साथियों ने इंकलाब जिंदाबाद का नारा लगाया और इस तरह मात्र 23 साल 5 महीने और 26 दिन की आयु में भगतसिंह भारत माता की गोद में सदा के लिए सो गया। फांसी से पूर्व उन्होंने अपनी जेल कोठड़ी में बैठकर लिखा था -
दिल से निकलेगी न मर कर भी वतन की उल्फत,
मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आएगी।
प्रिय पाठको ! इस देश की आजादी के लिए अनेकों क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया किन्तु भगत सिंह का नाम अपना एक विशेष महत्व रखता है। उनके बलिदान के बाद उस समय के तत्कालीन अखबार च्मवचसम में उनके बारे में लिखा था - ‘‘देश की स्वतंत्रता के लिए एक ही नहीं, बल्कि हजारों वीरों ने अपने प्राणों की बलि दी है ; हम भगत सिंह का नाम उन शहीदों में जोड़ कर अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं समझ सकते। भगत सिंह ही ऐसे शहीद हैं, जिन्होंने एक ही नहीं, हजारों देशवासियों के हृदय में स्थान कर लिया है। उनकी यह कुर्बानी, जब तक देश का एक भी बच्चा जीवित है, तब तक नहीं भुलाई जा सकती। कितने व्यक्ति ऐसे होंगे जो इस प्रकार हंसते-हंसते मृत्यु को अपना सकेंगे ? दो वर्ष के लंबे अरसे को सब प्रकार की कठिनाइयों का सामना करते हुए, अपने उत्साह को पहले ही की तरह कायम रखने वाले, शहीदों में भी कम ही मिलेंगे। केवल यौवन की क्षणिक उत्तेजना के वशीभूत होकर इस आदर्श को अपनाने वाले व्यक्ति, इतने लंबे समय तक इस प्रकार की अग्नि परीक्षा का सामना कर भी कैसे सकते थे ? भगत सिंह अदालती अपीलों तथा फांसी स्थगित कराने के प्रयास के समय भी उसी प्रकार उदासीन रहे, जिस प्रकार मुकदमे के समय में दिखाई देते थे। इसके लिए एक शहीद की हिम्मत तथा जीवन के प्रति किसी दार्शनिक की-सी उदासीनता की आवश्यकता थी। भगतसिंह में तो इन दोनों गुणों का अभाव न था।
लोगों के ख्याल से, जनता पर, भगत सिंह के इस आदर्श बलिदान से अधिक, हाल में होने वाली अन्य किसी घटना का प्रभाव नहीं पड़ा। अभी से उन्हें परंपरागत महापुरुषों में स्थान मिल गया है। भारतीय युवक समाज को उन पर गर्व है और यह है भी ठीक ही। उनका वह अदम्य उत्साह, उच्च आदर्श तथा किसी के आगे सिर न झुकाने वाली वह निर्भीकता, सदियों तक कितने ही पथभ्रष्ट लोगों को रास्ता दिखाएगी।
भगत सिंह के इस साहस तथा आत्म-बलिदान ने राजनैतिक वातावरण से घुसी जड़ता को दूर निकालने में बिजली का सा काम किया। उन्होंने ‘इंकलाब जिंदाबाद‘ का नारा भारत के बच्चे-बच्चे के दिल में रमा दिया। उन्होंने यह नारा ब्रिटिश अदालतों में सबसे पहले लगाया था, उसी का परिणाम यह है कि आज यह नारा भारत की गली-गली में सुनने में आ रहा है। यह सच है कि भगत सिंह हमारे बीच में नहीं है परन्तु भारतीय जनता जब भी ‘इंकलाब जिंदाबाद‘ का नारा लगाती है तो इसमें ‘भगत सिंह जिंदाबाद‘ का स्वर भी तो छिपा रहता है।‘‘
ऐसे वीर बलिदानी, आदर्श क्रांतिकारी भगत सिंह के बलिदान दिवस पर हम उन्हें शत्-शत् नमन करते हैं।