Wednesday, July 31, 2019

अकबर कैसा था?




वामपंथियों  हिन्दुओं को बांटकर  स्वार्थ में राजनीति करने वालों का अकबर महान था लेकिन  देश भक्तों के निगाह में अकबर गद्दार व घुसपैठिया जिहादी आतंकवादी था ! 👍

अकबर के समय के इतिहास लेखक अहमद यादगार ने लिखा-

“बैरम खाँ ने निहत्थे और बुरी तरह घायल हिन्दू राजा हेमू के हाथ पैर बाँध दिये और उसे नौजवान शहजादे के पास ले गया और बोला, आप अपने पवित्र हाथों से इस काफिर का कत्ल कर दें और”गाज़ी”की उपाधि कुबूल करें, और शहजादे ने उसका सिर उसके अपवित्र धड़ से अलग कर दिया।” (नवम्बर, 5 AD1556)
(तारीख-ई-अफगान,अहमद यादगार,अनुवाद एलियट और डाउसन, खण्ड VI, पृष्ठ 65-66)

इस तरह अकबर ने १४ साल की आयु में ही गाज़ी (काफिरों का कातिल) होने का सम्मान पाया।

इसके बाद हेमू के कटे सिर को काबुल भिजवा दिया और धड़ को दिल्ली के दरवाजे पर टांग दिया।

अबुल फजल ने आगे लिखा – ”हेमू के पिता को जीवित ले आया गया और नासिर-उल-मलिक के सामने पेश किया गया जिसने उसे इस्लाम कबूल करने का आदेश दिया, किन्तु उस वृद्ध पुरुष ने उत्तर दिया, ”मैंने अस्सी वर्ष तक अपने ईश्वर की पूजा की है; मै अपने धर्म को कैसे त्याग सकता हूँ?
मौलाना परी मोहम्मद ने उसके उत्तर को अनसुना कर अपनी तलवार से उसका सर काट दिया।”
(अकबर नामा, अबुल फजल : एलियट और डाउसन, पृष्ठ २१)

इस विजय के तुरन्त बाद अकबर ने काफिरों के कटे हुए सिरों से एक ऊँची मीनार बनवायी।

२ सितम्बर 1573 को भी अकबर ने अहमदाबाद में २००० दुश्मनों के सिर काटकर अब तक की सबसे ऊँची सिरों की मीनार बनवायी और अपने दादा बाबर का रिकार्ड तोड़ दिया।  यानी घर का रिकार्ड घर में ही रहा।

अकबरनामा के अनुसार ३ मार्च 1575 को अकबर ने बंगाल विजय के दौरान इतने सैनिकों और नागरिकों की हत्या करवायी कि उससे कटे सिरों की आठ मीनारें बनायी गयीं। यह फिर से एक नया रिकार्ड था। जब वहाँ के हारे हुए शासक दाउद खान ने मरते समय पानी माँगा तो उसे जूतों में भरकर पानी पीने के लिए दिया गया।
अकबर की चित्तौड़ विजय के विषय में अबुल फजल ने
लिखा था- ”अकबर के आदेशानुसार प्रथम ८०००
राजपूत योद्धाओं को बंदी बना लिया गया, और बाद में उनका वध कर दिया गया। उनके साथ-साथ विजय के बाद प्रात:काल से दोपहर तक अन्य ४०००० किसानों का भी वध कर दिया गया जिनमें ३००० बच्चे और बूढ़े थे।”
(अकबरनामा, अबुल फजल, अनुवाद एच. बैबरिज)

चित्तौड़ की पराजय के बाद महारानी जयमाल मेतावाड़िया समेत १२००० क्षत्राणियों ने मुगलों के हरम में जाने की अपेक्षा जौहर की अग्नि में स्वयं को जलाकर भस्म कर लिया। जरा कल्पना कीजिए विशाल गड्ढों में धधकती आग और दिल दहला देने वाली चीखों-पुकार के बीच उसमें कूदती १२००० महिलाएँ ।

अपने हरम को सम्पन्न करने के लिए अकबर ने अनेकों हिन्दू राजकुमारियों के साथ जबरनठ शादियाँ की थी परन्तु कभी भी, किसी मुगल महिला को हिन्दू से शादी नहीं करने दी। केवल अकबर के शासनकाल में 38 राजपूत राजकुमारियाँ शाही खानदान में ब्याही जा चुकी थीं। १२ अकबर को, १७ शाहजादा सलीम को, छः दानियाल को, २ मुराद को और १ सलीम के पुत्र खुसरो को।

अकबर की गंदी नजर गौंडवाना की विधवा रानी दुर्गावती पर थी
”सन् १५६४ में अकबर ने अपनी हवस की शांति के लिए रानी दुर्गावती पर आक्रमण कर दिया किन्तु एक वीरतापूर्ण संघर्ष के बाद अपनी हार निश्चित देखकर रानी ने अपनी ही छाती में छुरा घोंपकर आत्म हत्या कर ली। किन्तु उसकी बहिन और पुत्रवधू को को बन्दी बना लिया गया। और अकबर ने उसे अपने हरम में ले लिया। उस समय अकबर की उम्र २२ वर्ष और रानी दुर्गावती की ४० वर्ष थी।”
(आर. सी. मजूमदार, दी मुगल ऐम्पायर, खण्ड VII)

सन् 1561 में आमेर के राजा भारमल और उनके ३ राजकुमारों को यातना दे कर उनकी पुत्री को साम्बर से अपहरण कर अपने हरम में आने को मज़बूर किया।
औरतों का झूठा सम्मान करने वाले अकबर ने सिर्फ अपनी हवस मिटाने के लिए न जाने कितनी मुस्लिम औरतों की भी अस्मत लूटी थी। इसमें मुस्लिम नारी चाँद बीबी का नाम भी है।

अकबर ने अपनी सगी बेटी आराम बेगम की पूरी जिंदगी शादी नहीं की और अंत में उस की मौत अविवाहित ही जहाँगीर के शासन काल में हुई।

सबसे मनगढ़ंत किस्सा कि अकबर ने दया करके सतीप्रथा पर रोक लगाई; जबकि इसके पीछे उसका मुख्य मकसद केवल यही था की राजवंशीय हिन्दू नारियों के पतियों को मरवाकर एवं उनको सती होने से रोककर अपने हरम में डालकर एेय्याशी करना।

राजकुमार जयमल की हत्या के पश्चात अपनी अस्मत बचाने को घोड़े पर सवार होकर सती होने जा रही उसकी पत्नी को अकबर ने रास्ते में ही पकड़ लिया।
शमशान घाट जा रहे उसके सारे सम्बन्धियों को वहीं से कारागार में सड़ने के लिए भेज दिया और राजकुमारी को अपने हरम में ठूंस दिया ।

इसी तरह पन्ना के राजकुमार को मारकर उसकी विधवा पत्नी का अपहरण कर अकबर ने अपने हरम में ले लिया।

अकबर औरतों के लिबास में मीना बाज़ार जाता था जो हर नये साल की पहली शाम को लगता था। अकबर अपने दरबारियों को अपनी स्त्रियों को वहाँ सज-धज कर भेजने का आदेश देता था। मीना बाज़ार में जो औरत अकबर को पसंद आ जाती, उसके महान फौजी उस औरत को उठा ले जाते और कामी अकबर की अय्याशी के लिए हरम में पटक देते। अकबर महान उन्हें एक रात से लेकर एक महीने तक अपनी हरम में खिदमत का मौका देते थे। जब शाही दस्ते शहर से बाहर जाते थे तो अकबर के हरम
की औरतें जानवरों की तरह महल में बंद कर दी जाती थीं।

अकबर ने अपनी अय्याशी के लिए इस्लाम का भी दुरुपयोग किया था। चूँकि सुन्नी फिरके के अनुसार एक मुस्लिम एक साथ चार से अधिक औरतें नहीं रख सकता और जब अकबर उस से अधिक औरतें रखने लगा तो काजी ने उसे रोकने की कोशिश की। इस से नाराज होकर अकबर ने उस सुन्नी काजी को हटा कर शिया काजी को रख लिया क्योंकि शिया फिरके में असीमित और अस्थायी शादियों की इजाजत है , ऐसी शादियों को अरबी में “मुतअ” कहा जाता है।

अबुल फज़ल ने अकबर के हरम को इस तरह वर्णित किया है-
“अकबर के हरम में पांच हजार औरतें थीं और ये पांच हजार औरतें उसकी ३६ पत्नियों से अलग थीं। शहंशाह के महल के पास ही एक शराबखाना बनाया गया था। वहाँ इतनी वेश्याएं इकट्ठी हो गयीं कि उनकी गिनती करनी भी मुश्किल हो गयी। अगर कोई दरबारी किसी नयी लड़की को घर ले जाना चाहे तो उसको अकबर से आज्ञा लेनी पड़ती थी। कई बार सुन्दर लड़कियों को ले जाने के लिए लोगों में झगड़ा भी हो जाता था। एक बार अकबर ने खुद कुछ वेश्याओं को बुलाया और उनसे पूछा कि उनसे सबसे पहले भोग किसने किया”।

बैरम खान जो अकबर के पिता जैसा और संरक्षक था,
उसकी हत्या करके इसने उसकी पत्नी अर्थात अपनी माता के समान स्त्री से शादी की ।

इस्लामिक शरीयत के अनुसार किसी भी मुस्लिम राज्य में रहने वाले गैर मुस्लिमों को अपनी संपत्ति और स्त्रियों को छिनने से बचाने के लिए इसकी कीमत देनी पड़ती थी जिसे जजिया कहते थे। कुछ अकबर प्रेमी कहते हैं कि अकबर ने जजिया खत्म कर दिया था। लेकिन इस बात का इतिहास में एक जगह भी उल्लेख नहीं! केवल इतना है कि यह जजिया रणथम्भौर के लिए माफ करने की शर्त रखी गयी थी।

रणथम्भौर की सन्धि में बूंदी के सरदार को शाही हरम में औरतें भेजने की “रीति” से मुक्ति देने की बात लिखी गई थी। जिससे बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि अकबर ने युद्ध में हारे हुए हिन्दू सरदारों के परिवार की सर्वाधिक सुन्दर महिला को मांग लेने की एक परिपाटी बना रखी थीं और केवल बूंदी ही इस क्रूर रीति से बच पाया था।

यही कारण था की इन मुस्लिम सुल्तानों के काल में हिन्दू स्त्रियों के जौहर की आग में जलने की हजारों घटनाएँ हुईं

जवाहर लाल नेहरु ने अपनी पुस्तक ”डिस्कवरी ऑफ इण्डिया” में अकबर को ‘महान’ कहकर उसकी प्रशंसा की है। हमारे कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने भी अकबर को एक परोपकारी उदार, दयालु और धर्मनिरपेक्ष शासक बताया है।
अकबर के दादा बाबर का वंश तैमूरलंग से था और मातृपक्ष का संबंध चंगेज खां से था। इस प्रकार अकबर की नसों में एशिया की दो प्रसिद्ध आतंकी और खूनी जातियों, तुर्क और मंगोल के रक्त का सम्मिश्रण था। जिसके खानदान के सारे पूर्वज दुनिया के सबसे बड़े जल्लाद थे और अकबर के बाद भी जहाँगीर और औरंगजेब दुनिया के सबसे बड़े दरिन्दे थे तो ये बीच में महानता की पैदाईश कैसे हो गयी।

अकबर के जीवन पर शोध करने वाले इतिहासकार विंसेट स्मिथ ने साफ़ लिखा है की अकबर एक दुष्कर्मी, घृणित एवं नृशंश हत्याकांड करने वाला क्रूर शाशक था।
विन्सेंट स्मिथ ने किताब ही यहाँ से शुरू की है कि “अकबर भारत में एक विदेशी था. उसकी नसों में एक बूँद खून भी भारतीय नहीं था । अकबर मुग़ल से ज्यादा एक तुर्क था”।

चित्तौड़ की विजय के बाद अकबर ने कुछ फतहनामें प्रसारित करवाये थे। जिससे हिन्दुओं के प्रति उसकी गहन आन्तरिक घृणा प्रकाशित हो गई थी।

उनमें से एक फतहनामा पढ़िये-
”अल्लाह की खयाति बढ़े इसके लिए हमारे कर्तव्य परायण मुजाहिदीनों ने अपवित्र काफिरों को अपनी बिजली की तरह चमकीली कड़कड़ाती तलवारों द्वारा वध कर दिया। ”हमने अपना बहुमूल्य समय और अपनी शक्ति घिज़ा (जिहाद) में ही लगा दिया है और अल्लाह के सहयोग से काफिरों के अधीन बस्तियों, किलों, शहरों को विजय कर अपने अधीन कर लिया है, कृपालु अल्लाह उन्हें त्याग दे और उन सभी का विनाश कर दे। हमने पूजा स्थलों उसकी मूर्तियों को और काफिरों के अन्य स्थानों का विध्वंस कर दिया है।”
(फतहनामा-ई-चित्तौड़ मार्च १५८६,नई दिल्ली)

महाराणा प्रताप के विरुद्ध अकबर के अभियानों के लिए
सबसे बड़ा प्रेरक तत्व था इस्लामी जिहाद की भावना जो उसके अन्दर कूट-कूटकर भरी हुई थी।

अकबर के एक दरबारी इमाम अब्दुल कादिर बदाउनी ने अपने इतिहास अभिलेख, ‘मुन्तखाव-उत-तवारीख’ में लिखा था कि १५७६ में जब शाही फौजें राणाप्रताप के खिलाफ युद्ध के लिए अग्रसर हो रहीं थीं तो मैनें (बदाउनीने) ”युद्ध अभियान में शामिल होकर हिन्दुओं के रक्त से अपनी इस्लामी दाढ़ी को भिगोंकर शाहंशाह से भेंट की अनुमति के लिए प्रार्थना की।”मेरे व्यक्तित्व और जिहाद के प्रति मेरी निष्ठा भावना से अकबर इतना प्रसन्न हुआ कि उन्होनें प्रसन्न होकर मुझे मुठ्ठी भर सोने की मुहरें दे डालीं।” (मुन्तखाब-उत-तवारीख : अब्दुल कादिर बदाउनी, खण्ड II, पृष्ठ ३८३,अनुवाद वी. स्मिथ, अकबर दी ग्रेट मुगल, पृष्ठ १०८)

बदाउनी ने हल्दी घाटी के युद्ध में एक मनोरंजक घटना के बारे में लिखा था-
”हल्दी घाटी में जब युद्ध चल रहा था और अकबर की सेना से जुड़े राजपूत, और राणा प्रताप की सेना के राजपूत जब परस्पर युद्धरत थे और उनमें कौन किस ओर है, भेद कर पाना असम्भव हो रहा था, तब मैनें शाही फौज के अपने सेना नायक से पूछा कि वह किस पर गोली चलाये ताकि शत्रु ही मरे।
तब कमाण्डर आसफ खाँ ने उत्तर दिया कि यह जरूरी नहीं कि गोली किसको लगती है क्योंकि दोनों ओर से युद्ध करने वाले काफिर हैं, गोली जिसे भी लगेगी काफिर ही मरेगा, जिससे लाभ इस्लाम को ही होगा।”
(मुन्तखान-उत-तवारीख : अब्दुल कादिर बदाउनी,
खण्ड II,अनु अकबर दी ग्रेट मुगल : वी. स्मिथ पुनः मुद्रित १९६२; हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ दी इण्डियन पीपुल, दी मुगल ऐम्पायर :आर. सी. मजूमदार, खण्ड VII, पृष्ठ १३२ तृतीय संस्करण)

जहाँगीर ने, अपनी जीवनी, ”तारीख-ई-सलीमशाही” में लिखा था कि ‘ ‘अकबर और जहाँगीर के शासन काल में पाँच से छः लाख की संख्या में हिन्दुओं का वध हुआ था।”
(तारीख-ई-सलीम शाही, अनु. प्राइस, पृष्ठ २२५-२६)

जून 1561- एटा जिले के (सकित परंगना) के 8 गावों की हिंदू जनता के विरुद्ध अकबर ने खुद एक आक्रमण का संचालन किया और परोख नाम के गाँव में मकानों में बंद करके १००० से ज़्यादा हिंदुओं को जिंदा जलवा दिया था।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार उनके इस्लाम कबूल ना करने के कारण ही अकबर ने क्रुद्ध होकर ऐसा किया।

थानेश्वर में दो संप्रदायों कुरु और पुरी के बीच पूजा की जगह को लेकर विवाद चल रहा था. अकबर ने आदेश
दिया कि दोनों आपस में लड़ें और जीतने वाला जगह पर कब्ज़ा कर ले। उन मूर्ख लोगों ने आपस में ही अस्त्र शस्त्रों से लड़ाई शुरू कर दी। जब पुरी पक्ष जीतने लगा तो अकबर ने अपने सैनिकों को कुरु पक्ष की तरफ से लड़ने का आदेश दिया. और अंत में इसने दोनों ही तरफ के लोगों को अपने सैनिकों से मरवा डाला और फिर अकबर महान जोर से हंसा।

एक बार अकबर शाम के समय जल्दी सोकर उठ गया तो उसने देखा कि एक नौकर उसके बिस्तर के पास सो रहा है। इससे उसको इतना गुस्सा आया कि नौकर को मीनार से नीचे फिंकवा दिया।

अगस्त १६०० में अकबर की सेना ने असीरगढ़ का किला घेर लिया पर मामला बराबरी का था।विन्सेंट स्मिथ ने लिखा है कि अकबर ने एक अद्भुत तरीका सोचा। उसने किले के राजा मीरां बहादुर को संदेश भेजकर अपने सिर की कसम खाई कि उसे सुरक्षित वापस जाने देगा। जब मीरां शान्ति के नाम पर बाहर आया तो उसे अकबर के सामने सम्मान दिखाने के लिए तीन बार झुकने का आदेश दिया गया क्योंकि अकबर महान को यही पसंद था।
उसको अब पकड़ लिया गया और आज्ञा दी गयी कि अपने सेनापति को कहकर आत्मसमर्पण करवा दे। मीराँ के सेनापति ने इसे मानने से मना कर दिया और अपने लड़के को अकबर के पास यह पूछने भेजा कि उसने अपनी प्रतिज्ञा क्यों तोड़ी? अकबर ने उसके बच्चे से पूछा कि क्या तेरा पिता आत्मसमर्पण के लिए तैयार है? तब बालक ने कहा कि चाहे राजा को मार ही क्यों न डाला जाए उसका पिता समर्पण नहीं करेगा। यह सुनकर अकबर महान ने उस बालक को मार डालने का आदेश दिया। यह घटना अकबर की मृत्यु से पांच साल पहले की ही है।

हिन्दुस्तानी मुसलमानों को यह कह कर बेवकूफ बनाया जाता है कि अकबर ने इस्लाम की अच्छाइयों को पेश किया. असलियत यह है कि कुरआन के खिलाफ जाकर ३६ शादियाँ करना, शराब पीना, नशा करना, दूसरों से अपने आगे सजदा करवाना आदि इस्लाम के लिए हराम है और इसीलिए इसके नाम की मस्जिद भी हराम है।
अकबर स्वयं पैगम्बर बनना चाहता था इसलिए उसने अपना नया धर्म “दीन-ए-इलाही – ﺩﯾﻦ ﺍﻟﻬﯽ ” चलाया। जिसका एकमात्र उद्देश्य खुद की बड़ाई करवाना था। यहाँ तक कि मुसलमानों के कलमें में यह शब्द “अकबर खलीफतुल्लाह – ﺍﻛﺒﺮ ﺧﻠﻴﻔﺔ ﺍﻟﻠﻪ ” भी जुड़वा दिया था।
उसने लोगों को आदेश दिए कि आपस में अस्सलाम वालैकुम नहीं बल्कि “अल्लाह ओ अकबर” कहकर एक दूसरे का अभिवादन किया जाए। यही नहीं अकबर ने हिन्दुओं को गुमराह करने के लिए एक फर्जी उपनिषद् “अल्लोपनिषद” बनवाया था जिसमें अरबी और संस्कृत मिश्रित भाषा में मुहम्मद को अल्लाह का रसूल और अकबर को खलीफा बताया गया था। इस फर्जी उपनिषद् का उल्लेख महर्षि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश में किया है।

उसके चाटुकारों ने इस धूर्तता को भी उसकी उदारता की तरह पेश किया। जबकि वास्तविकता ये है कि उस धर्म को मानने वाले अकबरनामा में लिखित कुल १८ लोगों में से केवल एक हिन्दू बीरबल था।

अकबर ने अपने को रूहानी ताकतों से भरपूर साबित करने के लिए कितने ही झूठ बोले। जैसे कि उसके पैरों की धुलाई करने से निकले गंदे पानी में अद्भुत ताकत है जो रोगों का इलाज कर सकता है। अकबर के पैरों का पानी लेने के लिए लोगों की भीड़ लगवाई जाती थी। उसके दरबारियों को तो इसलिए अकबर के नापाक पैर का चरणामृत पीना पड़ता था ताकि वह नाराज न हो जाए।
अकबर ने एक आदमी को केवल इसी काम पर रखा था कि वह उनको जहर दे सके जो लोग उसे पसंद नहीं।

अकबर महान ने न केवल कम भरोसेमंद लोगों का कतल
कराया बल्कि उनका भी कराया जो उसके भरोसे के आदमी थे जैसे- बैरम खान (अकबर का गुरु जिसे मारकर अकबर ने उसकी बीवी से निकाह कर लिया), जमन, असफ खान (इसका वित्त मंत्री), शाह मंसूर, मानसिंह, कामरान का बेटा, शेख अब्दुरनबी, मुइजुल मुल्क, हाजी इब्राहिम और बाकी सब जो इसे नापसंद थे। पूरी सूची स्मिथ की किताब में दी हुई है।

अकबर के चाटुकारों ने राजा विक्रमादित्य के दरबार की कहानियों के आधार पर उसके दरबार और नौ रत्नों की कहानी गढ़ी। पर असलियत यह है कि अकबर अपने
सब दरबारियों को मूर्ख समझता था। उसने स्वयं कहा था कि वह अल्लाह का शुक्रगुजार है कि उसको योग्य दरबारी नहीं मिले वरना लोग सोचते कि अकबर का राज उसके दरबारी चलाते हैं वह खुद नहीं।

अकबरनामा के एक उल्लेख से स्पष्ट हो जाता है कि उसके हिन्दू दरबारियों का प्रायः अपमान हुआ करता था। ग्वालियर में जन्में संगीत सम्राट रामतनु पाण्डेय उर्फ तानसेन की तारीफ करते-करते मुस्लिम दरबारी उसके मुँह में चबाया हुआ पान ठूँस देते थे। भगवन्त दास और दसवंत ने सम्भवत: इसी लिए आत्महत्या कर ली थी।

प्रसिद्ध नवरत्न टोडरमल अकबर की लूट का हिसाब करता था। इसका काम था जजिया न देने वालों की औरतों को हरम का रास्ता दिखाना। वफादार होने के बावजूद अकबर ने एक दिन क्रुद्ध होकर उसकी पूजा की मूर्तियाँ तुड़वा दी।
जिन्दगी भर अकबर की गुलामी करने के बाद टोडरमल ने अपने जीवन के आखिरी समय में अपनी गलती मान कर दरबार से इस्तीफा दे दिया और अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए प्राण त्यागने की इच्छा से वाराणसी होते हुए हरिद्वार चला गया और वहीं मरा।

लेखक और नवरत्न अबुल फजल को स्मिथ ने अकबर का अव्वल दर्जे का निर्लज्ज चाटुकार बताया। बाद में जहाँगीर ने इसे मार डाला।

फैजी नामक रत्न असल में एक साधारण सा कवि था जिसकी कलम अपने शहंशाह को प्रसन्न करने के लिए ही चलती थी।

बीरबल शर्मनाक तरीके से एक लड़ाई में मारा गया। बीरबल अकबर के किस्से असल में मन बहलाव की बातें हैं जिनका वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं। ध्यान रहे
कि ऐसी कहानियाँ दक्षिण भारत में तेनालीराम के नाम से
भी प्रचलित हैं।

एक और रत्न शाह मंसूर दूसरे रत्न अबुल फजल के हाथों अकबर के आदेश पर मार डाला गया ।

मान सिंह जो देश में पैदा हुआ सबसे नीच गद्दार था, ने अपनी बेटी तो अकबर को दी ही जागीर के लालच में कई और राजपूत राजकुमारियों को तुर्क हरम में पहुँचाया। बाद में जहांगीर ने इसी मान सिंह की पोती को भी अपने हरम में खींच लिया।

मानसिंह ने पूरे राजपूताने के गौरव को कलंकित किया था। यहाँ तक कि उसे अपना आवास आगरा में बनाना पड़ा क्योंकि वो राजस्थान में मुँह दिखाने के लायक नहीं था। यही मानसिंह जब संत तुलसीदास से मिलने गया तो अकबर ने इस पर गद्दारी का संदेह कर दूध में जहर देकर मरवा डाला और इसके पिता भगवान दास ने लज्जित होकर आत्महत्या कर ली।

इन नवरत्नों को अपनी बीवियां, लडकियां, बहनें तो अकबर की खिदमत में भेजनी पड़ती ही थीं ताकि बादशाह सलामत उनको भी सलामत रखें, और साथ ही अकबर महान के पैरों पर डाला गया पानी भी इनको पीना पड़ता था जैसा कि ऊपर बताया गया है। अकबर शराब और अफीम का इतना शौक़ीन था, कि अधिकतर समय नशे में धुत रहता था।

अकबर के दो बच्चे नशाखोरी की आदत के चलते अल्लाह को प्यारे हो गये।

हमारे फिल्मकार अकबर को सुन्दर और रोबीला दिखाने के लिए रितिक रोशन जैसे अभिनेताओं को फिल्मों में पेश करते हैं परन्तु विन्सेंट स्मिथ अकबर के बारे में लिखते हैं-
“अकबर एक औसत दर्जे की लम्बाई का था। उसके बाएं पैर में लंगड़ापन था। उसका सिर अपने दायें कंधे की तरफ झुका रहता था। उसकी नाक छोटी थी जिसकी हड्डी बाहर को निकली हुई थी। उसके नाक के नथुने ऐसे दिखते थे जैसे वो गुस्से में हो। आधे मटर के दाने के बराबर एक मस्सा उसके होंठ और नथुनों को मिलाता था।

अकबर का दरबारी लिखता है कि अकबर ने इतनी ज्यादा पीनी शुरू कर दी थी कि वह मेहमानों से बात
करता करता भी नींद में गिर पड़ता था। वह जब ज्यादा पी लेता था तो आपे से बाहर हो जाता था और पागलों जैसी हरकतें करने लगता।

अकबर महान के खुद के पुत्र जहाँगीर ने लिखा है कि अकबर कुछ भी लिखना पढ़ना नहीं जानता था पर यह दिखाता था कि वह बड़ा भारी विद्वान है।

अकबर ने एक ईसाई पुजारी को एक रूसी गुलाम का पूरा परिवार भेंट में दिया। इससे पता चलता है कि अकबर गुलाम रखता था और उन्हें वस्तु की तरह भेंट में दिया और लिया करता था।

कंधार में एक बार अकबर ने बहुत से लोगों को गुलाम बनाया क्योंकि उन्होंने १५८१-८२ में इसकी किसी नीति का विरोध किया था। बाद में इन गुलामों को मंडी में बेच कर घोड़े खरीदे गए ।

अकबर बहुत नए तरीकों से गुलाम बनाता था। उसके आदमी किसी भी घोड़े के सिर पर एक फूल रख देते थे। फिर बादशाह की आज्ञा से उस घोड़े के मालिक के सामने दो विकल्प रखे जाते थे, या तो वह अपने घोड़े को भूल जाये, या अकबर की वित्तीय गुलामी क़ुबूल करे।

जब अकबर मरा था तो उसके पास दो करोड़ से ज्यादा अशर्फियाँ केवल आगरे के किले में थीं। इसी तरह के और
खजाने छह और जगह पर भी थे। इसके बावजूद भी उसने १५९५-१५९९ की भयानक भुखमरी के समय एक सिक्का भी देश की सहायता में खर्च नहीं किया।

अकबर के सभी धर्म के सम्मान करने का सबसे बड़ा सबूत-
अकबर ने गंगा,यमुना,सरस्वती के संगम का तीर्थनगर “प्रयागराज” जो एक काफिर नाम था को बदलकर इलाहाबाद रख दिया था। वहाँ गंगा के तटों पर रहने वाली सारी आबादी का क़त्ल करवा दिया और सब इमारतें गिरा दीं क्योंकि जब उसने इस शहर को जीता तो वहाँ की हिन्दू जनता ने उसका इस्तकबाल नहीं किया। यही कारण है कि प्रयागराज के तटों पर कोई पुरानी इमारत नहीं है। अकबर ने हिन्दू राजाओं द्वारा निर्मित संगम प्रयाग के किनारे के सारे घाट तुड़वा डाले थे। आज भी वो सारे साक्ष्य वहाँ मौजूद हैं।

२८ फरवरी १५८० को गोवा से एक पुर्तगाली मिशन अकबर के पास पंहुचा और उसे बाइबल भेंट की जिसे इसने बिना खोले ही वापस कर दिया।

4 अगस्त १५८२ को इस्लाम को अस्वीकार करने के कारण सूरत के २ ईसाई युवकों को अकबर ने अपने हाथों से क़त्ल किया था जबकि इसाईयों ने इन दोनों युवकों को छोड़ने के लिए १००० सोने के सिक्कों का सौदा किया था। लेकिन उसने क़त्ल ज्यादा सही समझा । सन् 1582 में बीस मासूम बच्चों पर भाषा परीक्षण किया और ऐसे घर में रखा जहाँ किसी भी प्रकार की आवाज़ न जाए और उन मासूम बच्चों की ज़िंदगी बर्बाद कर दी वो गूंगे होकर मर गये । यही परीक्षण दोबारा 1589 में बारह बच्चों पर किया ।

सन् 1567 में नगर कोट को जीत कर कांगड़ा देवी मंदिर की मूर्ति को खण्डित की और लूट लिया फिर गायों की हत्या कर के गौ रक्त को जूतों में भरकर मंदिर की प्राचीरों पर छाप लगाई ।

जैन संत हरिविजय के समय सन् 1583-85 को जजिया कर और गौ हत्या पर पाबंदी लगाने की झूठी घोषणा की जिस पर कभी अमल नहीं हुआ।

एक अंग्रेज रूडोल्फ ने अकबर की घोर निंदा की।
कर्नल टोड लिखते हैं कि अकबर ने एकलिंग की मूर्ति तोड़ डाली और उस स्थान पर नमाज पढ़ी।

1587 में जनता का धन लूटने और अपने खिलाफ हो रहे विरोधों को ख़त्म करने के लिए अकबर ने एक आदेश पारित किया कि जो भी उससे मिलना चाहेगा उसको अपनी उम्र के बराबर मुद्राएँ उसको भेंट में देनी पड़ेगी।

जीवन भर इससे युद्ध करने वाले महान महाराणा प्रताप जी से अंत में इसने खुद ही हार मान ली थी यही कारण है कि अकबर के बार बार निवेदन करने पर भी जीवन भर जहाँगीर केवल ये बहाना करके महाराणा प्रताप के पुत्र अमर सिंह से युद्ध करने नहीं गया की उसके पास हथियारों और सैनिकों की कमी है..जबकि असलियत ये थी की उसको अपने बाप का बुरा हश्र याद था।

विन्सेंट स्मिथ के अनुसार अकबर ने मुजफ्फर शाह को हाथी से कुचलवाया। हमजबान की जबान ही कटवा डाली। मसूद हुसैन मिर्ज़ा की आँखें सीकर बंद कर दी गयीं। उसके 300 साथी उसके सामने लाये गए और उनके चेहरों पर अजीबोगरीब तरीकों से गधों, भेड़ों और कुत्तों की खालें डाल कर काट डाला गया।

मुग़ल आक्रमणकारी थे यह सिद्ध हो चुका है। मुगल दरबार तुर्क एवं ईरानी शक्ल ले चुका था। कभी भारतीय न बन सका। भारतीय राजाओं ने लगातार संघर्ष कर मुगल साम्राज्य को कभी स्थिर नहीं होने दिया।

गंगाजमुनी तहजीब ?



गंगाजमुनी तहजीब ? 

-बृजनंदन शर्मा 


भारत सदा से एक शांतिप्रिय देश रहा है .यहाँ जितने भी धर्म और सम्प्रदाय पैदा हुए ,उन सबके मानने वाले मिलजुल कर रहते ए हैं ,और सब एक दूसरे के विचारों का आदर करते आये है .क्योंकि भारत के सभी धर्मों में ,प्रेम ,करुणा,मैत्री ,परस्पर सद्भावना और अहिंसा को धर्म का प्रमुख अंग कहा गया है .भारत की इसी विशेषता को भारतीय संस्कृति कहा जाता है .इसको कोई दूसरा नाम देने की जरुरत नहीं है .क्योंकि यह संस्कृति ही भारत की पहिचान है . 

लेकिन जैसे ही भारत में मुस्लिम हमलावर आये तो उन्होंने लूट के साथ भारत की संस्कृति को नष्ट करने की और हिन्दुओं को मुसलमान बनाने के हर तरह के प्रयत्न किये ,जो आज भी चल रहे हैं .मुसलमानों ने कभी हिन्दुओं को अपने बराबर नहीं समझा और उनको सदा काफ़िर कहकर अपमानित किया .लेकिन आज यही मुसलमान सेकुलरों के साथ मिलकर फिर हिन्दुओं को गुमराह कर रहे हैं .इन मक्कारों ने मुसलमानों के गुनाहों पर पर्दा डालने ,और वोटों की खातिर "गंगाजमुनी तहजीब "के नाम से एक ऎसी कल्पित संस्कृति को जन्म दे दिया है .जिसका कभी कोई वजूद ही नहीं था .लेकिन भोले भाले हिन्दू इसे हिन्दू -मुस्लिम एकता का प्रतिक मान रहे हैं .कोई नहीं जनता कि यह गंगाजमुनी तहजीब कहाँ से आयी ,देश में किस क्षेत्र में पायी जाती है ,या इसका क्या स्वरूप है .मुसलमान इसे मुगलकाल की पैदायश कहते हैं .लेकिन मुगलों का हिन्दुओं के प्रति कैसा व्यावहार था ,इसके नमूने देखिये - 

1 -मुगलों का हिन्दुओं के प्रति व्यवहार 

बाबर से लेकर औरंगजेब तक सभी मुग़ल शासक हिन्दू विरोधी थे .और हिन्दुओं के प्रति उग्र ,असहिष्णु थे .सभी ने हिन्दुओं पर अत्याचार किये . 

शिवाजी के कवि भूषण ने अपने ग्रन्थ "शिवा बावनी "में लिखा है - 

"देवल गिराउते फिराउते निशान अली ,राम नाम छूटो बात रही रब की . 

बब्बर अकब्बर हुमायूं हद्द बांध गए ,एक नाहिं मानों कुरआन वेद ढब की 

चारों बरन धरम छोड़ कलमा नमाज पढ़ें ,शिवाजी न होते तो सुनत होती सब की ."

कवि भूषण -शिवा बावनी.

2 -महाराजा छत्रसाल के विचार 

बुंदलखंड में छत्रसाल ने मुगलों को कई बार हराया था .शिवाजी उनको अपना पुत्र मानते थे .छत्रसाल ने मुसलमानों के बारे में जो कहा है वह ,उनके एक कवि "गोरेलाल "ने सन 1707 में "छत्र प्रकाश "लिखा है - 

हिन्दू तुरक धरम दो गाए ,तिन सें बैर सदा चलि आये 

जानों सुर असुरन को जैसो ,केहरि करिन बखान्यो तैसो 

जब तें साह तखत पर बैठे ,तब तें हिन्दुन सों उर ऐठे 

मंहगे कर तीरथन लगवाये ,देव दिवाले निदर ढहाए 

घर घर बाँध जन्जिया लीनी ,अपने मन भये सो कीनी " 

कवि गोरेलाल -छत्र प्रकाश .प्रष्ट 78 

3 -शिवाजी का छत्रसाल को उपदेश 

जब शिवाजी को लगा की मुग़ल हिन्दू धर्म और संस्कृति को मिटाने पर उतारू हैं ,और जब छत्रसाल शिवाजी से मिलने गये थे तो शिवाजी ने यह उपदेश दिया था .और छत्रसाल को मुसलमानों से सावधान रहने को कहा था - 

"तुरकन की परतीत न मानौ ,तुम केहरि  तुरकन  गज जानौ 

दौरि दौरि तुरकन को मारौ,दबट दिली के दल संहारौ 

तुरकन में न विवेक बिलोक्यो ,जहाँ पाओ तुम उनको रोक्यो ." 

छत्र प्रकाश -प्रथम अध्याय 

(भारत का इतिहास -डा ० ईश्वरी प्रसाद .पेज 542 )

4 -मुसलमान कैसी एकता चाहते हैं 

मुसममान सभी संस्कृतियों को नष्ट करके सिर्फ इस्लाम को बाकी रहना चाहते हैं .औरवह इसी को एकता का आधार मानते हैं .इकबाल ने यही विचार इस तरह प्रकट किये है - 

"हम मुवाहिद हैं ,हमारा कैस है तर्के रसूम , 

मिल्लतें जब मिट गयीं अज जाए ईमां हो गयीं " 

(अर्थात -हम ऐसी एकता चाहते हैं ,जब सारी संस्कृतियाँ मिट जाएँ ,और इस्लाम का हिस्सा बन जाएँ ) 

इकबाल चाहता था कि तलवार के जोर पर हरेक संस्कृति को मिटा दिया जाये ,और इस्लाम को फैलाया जाये .वह लिखता है - 

"नक्श तौहीद का हर दिल में बिठाया हमने ,जेरे खंजर भी यह पैगाम सुनाया हमने , 

तोड़े मखलूक खुदावंदों के पैकर हमने ,काट कर रखदिये कुफ्फार के लश्कर हमने " 

हम अब कैसे मानें कि ,मुसलमान शांति और समन्वय के पक्षधर हैं.

5 -मुसलमान युद्ध चाहते हैं 

मुसलमान इकबाल को अपना आदर्श मानते हैं .लेकिन इकबाल हमेशा मुसलमानों शांति कि जगह लड़ाई करने पर उकसाता था .उसने कभी आपसी भाई चारे की बात नहीं कही .इकबाल कहता है - 

"तुझ को मालूम है ,लेता था कोई नाम तेरा ,कुव्वते बाजुए मुस्लिम ने किया नाम तेरा , 

फिर तेरे नाम से तलवार उठाई किसने ,बात जो बिगड़ी हुई थी ,बनाई किसने "

 शिकवा 

(अर्थात -दुनिया में कोई अल्लाह को नहीं जनता था ,लेकिन मुसलमानों ने अपने हाथों की ताकत से ,और तलवार के जोर से अल्लाह को प्रसिद्द कर दिया .और बिगड़ी हुई बात को बना दिया )

6 -देशभक्त और ब्राहमण होना कुफ्र है 

इकबाल देश को मूर्ति (बुत )देशभक्तों की बिरहमन (ब्राहमण ) कहता है ,और मुसलमानों से इनसे दूर रहने को कहता है -

"मिस्ले अंजुम उफ़के कौम पै रोशन भी हुए ,

बुते हिन्दी की मुहब्बत में बिरहमन भी हुए "

(अर्थात -इकबाल मुसलमानों से कहता है कि तुम्हारा स्थान तो अकास के तारों कि तरह ऊँचा है ,लेकिन तुम हिंद के बुत (देश )के प्रेम में इतने गिर गए कि एक ब्राहमण कि तरह उसकी पूजा करने लगे )

- 7-इस्लाम का बेडा गंगा में डूबा 

इकबाल आरोप लगता है कि जैसे ही इस्लाम का संपर्क गंगा से हुआ ,इसलाम की प्रगति रुक गयी ,यानी हिन्दुओं का साथ लेने सी इस्लाम डूब जायेगा .-

वो बहरे हिजाजी का बेबाक बेडा ,न असवद में झिझका न कुलजम में अटका 

किये पय सपर जिसने सातों समंदर ,वो डूबा दिहाने में गंगा के आकर "

8 -सर्व धर्म समभाव पागलपन है 

अकबर इलाहाबादी ने सभी धर्मों का आदर करने को व्यंग्य से पागलपन तक कह दिया है -

"आता है वज्द मुझको हर दीन की अदा पर 

मस्जिद में नाचता हूँ नाकूस की सिदा पर "

(अर्थात -मुझे हर धर्म की अदा पर मस्ती चढ़ जाती है ,जब भी मंदिर में शंख बजता है ,मैं मस्जिद में नाचने लगता हूँ )

9 -मुसलमानों का उद्देश्य 

"चीनो अरब हमारा ,हिन्दोस्तां हमारा ,मुस्लिम हैं हमवतन हैं सारा जहां हमारा 

तेगों के साए में हम पल कर जवां हुए हैं ,खंजर हिलाल का है कौमी निशां हमारा " 

इकबाल -तराना 

10 -पाकिस्तान क्यों बना 

मुसलमान हिन्दुओं से नफ़रत रखते थे ,और उनके साथ नहीं रहना चाहते थे .मुहमद अली जिन्ना ने अपने एक भाषण में कहा था कि-

"कुफ्र और इस्लाम के बीच में कोई समझौता नहीं हो सकता .उसी तरह हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच दोस्ती और भाईचारे की कोई गुंजायश नहीं है .क्योंकि हमारी और हिन्दुओं की जुबाने अलग ,रिवायत अलग ,खानपान अलग ,अकायद अलग ,तहजीब अलग ,मजहब अलग हैं यहाँ तक हमारा खुदा भी अलग है .इसलिए हम मुसलमानों के लिए अलग मुल्क चाहते हैं " 

नवाए आजादी -पेज 207 

11 -सर्वधर्म समभाव कुरान के विरुद्ध है 

कुरआन धार्मिक एकता और गंगाजमुनी विचारों के विरुद्ध है .और मुस्लिमों और गैर मुस्लिमों के मेलजोल के खिलाफ है .कुरान कहता है - 

"(हे मुहम्मद ) कहदो हे काफ़िरो मैं उसकी इबादत नहीं करता ,तुम जिसकी इबादत करते हो .और न तुम उसकी इबादत करते हो ,जिसकी मैं इबादत करता हूँ .और न मैं उसकी इबादत करूँगा ,जिसकी इबादत तुम करते आये हो .और न तुम उसकी इबादत करोगे ,जिसकी इबादत मैं करता हूँ .तुम्हारे लिए तुम्हारा धर्म ,हमारे लिए हमारा धर्म " 

सूरा अल काफिरून 109 :1 से 6 तक 

12 -तहजीब या तखरीब 

एक मुस्लिम पत्रकार अलीम बज्मी ने गंगाजमुनी तहजीब की मिसाल देते हुए भोपाल के नवाब हमीदुल्लाह के ज़माने की होली का वर्णन इस प्रकार किया है .और इसे एक आदर्श तहजीब और हिन्दू मुस्लिम एकता का उदहारण बताया है ,अलीम लिखता है कि -

"होली के समय मस्जिदों के आसपास की सभी दुकाने बंद करा दी जाती थीं .कोई हिन्दू किसी मुसलमान को रंग लगाने कि हिमत नहीं कर सकता था .इसे बदतमीजी माना जाता था .नमाजियों को देखकर हुरियारों को रास्ता बदलना पड़ता था .नमाज के पाहिले ही रंग का खेल बंद करा दिया जाता था .अगर हिन्दू ख़ुशी के मौके पर किसी मुसलमान को मिठाई देते थे ,तो उसे कपडे में लपेट कर दिया जाता था .मुसलमान मिठाई को हाथों से नहीं छूते थे "

दैनिक भास्कर दिनांक 18 मार्च 2011 

क्या यही हिन्दू मुस्लिम एकता कि मिसाल है .इसे तहजीब (संस्कृति )नहीं तखरीब (تخريبबर्बादी )कहना उचित होगा .

मुसलमान मक्कारी से गंगा को हिन्दू का और जमुना को मुसलमानों का प्रतीक बताकर लोगों को धोखा दे रहे है .यह कहते हैं जैसे गंगा और जमुना मिलकर एक हो जाते हैं उसी तरह हिन्दू मुस्लिमएक होकर गंगाजमुनी तहजीब का निर्माण करते हैं .लेकिन जो लोग गंगाजमुनी तहजीब को हिन्दू मुस्लिम एकता का प्रतीक समझते हैं ,वह इतनी सी बात भी नहीं जानते कि गंगा और जमुना दोनो ही हिन्दुओं की पवित्र नदियाँ हैं .गंगाजमुनी तहजीब में मुसलमान कहाँ शामिल हैं 

मुसलमान मक्का के जलकुंड के पानी "زمزمजमजम "को पवित्र मानते हैं .यदि वह सचमुच हिन्दू मुस्लिम एकता दिखाना चाहते हैं तो ,उन्हें चाहिए कि "गंगाजमुनी "शब्द की जगह "गंगा जमजमी"शब्द का प्रयोग करें .तभी हम मानेंगे कि मुसलमान सचमुच हिन्दू मुस्लिम एकता चाहते हैं 

वास्तव में हमें "गंगाजमुनी तहजीब "नहीं "गंगा जमुना तखरीब "कहना चाहिए !



Tuesday, July 30, 2019

How Bhai Singha Purohit Killed Mughal Commander and Facilitated Sikh Army to Win Battle



How Bhai Singha Purohit Killed Mughal Commander and Facilitated Sikh Army to Win Battle
Dr. Vivek Arya
Sikhism was established as a Panth by Guru Nanak ji while it was transformed as a Militia under the guidance of Guru Govind Singh, the 10th Guru. The main motive of Sikhism was to fight against the .tyranny of Muslim rulers on our Country. The basis tenants of our Dharma like Vedas, Cow, Temples, Yajnopavit and Agnihotra were under threat. When no other alternative was left, the struggle with arm was the only option. Hindus gifted their elder son to join the Khalsa Army for protection of our Motherland and Dharma. Whoever embraced the teaching of Gurus and became their disciple was considered as Sikh. There are vast stories of numerous sacrifices and inspiring tales full of bravery and valor in the Sikh History. One such tale is of Bhai Singha Purohit.
Bhai ji was a Brahmin by Birth and Kul-purohit of Guru Hargobind Singh family. So, he was very close to his family as well as a trusted lieutenant. Once Shah Jahan with his army invaded Amritsar. He wanted to crush the power of the Sikhs forever. So the Moghul army prepared itself for a direct blow at the Sikhs. The Emperor, Shah Jahan, wanted the Guru to stop preaching his faith to the people. A large army of Moghuls set out for Amritsar under Mukhlis Khan's command. Guru Hargobind instructed his Sikhs to leave Amritsar complex and decided to fight Mukhlis Khan outside of Amritsar complex. He wanted to minimize casualties for the battle and not disrespect by starting battle within the complex of Amritsar. When Guru’s family reached Ramsar Sahib, they came to know that Bibi Viro, the daughter of Guru Hargobind Sahib was missing. She was just a child at that time. When the family was leaving the city, she was playing with dolls and other toys. In such haste, no one could know that she did not sit on any carts, which were being used to take the family members out of the city. Meanwhile, the Mughal Army had entered in the city. Mughal army men were roaming here and there. In such a dangerous situation, Bibi Viro was all-alone there in the complex.
It was a very difficult situation. Guru Hargobind Sahib thought that any reliable warrior should go there and bring Bibi to Ramsar Sahib safely. Guru needed a person, who was a fearless warrior, reliable, and above all, known to Bibi Viro. It was obvious that Bibi would not go with an unknown person. In such a critical time, Guru selected his ‘Purohit’ for this challenging job. Bhai Singha Purohit was a great warrior. He was a mighty commander of Sikh Army. Above all, he was like a family member to Guru and Bibi Viro knew him very well. He originally belonged to Brahmin Purohit family, so he is mentioned as ‘Singha Purohit’ in few Sikh history books. Bhai Singha was accompanied by Bhai Babak Rababi. Both went to Amritsar in disguise of Mughal Soldier. Both the brave Sikhs reached in front of Guru’s palace. Bhai Singha Purohit called Bibi Viro. Bibi Viro opened the window and saw Bhai Singha out there. Bibi Viro came out of the palace and sat behind Bhai Singha on his horse.
Bhai Singha said to Bhai Baabak, “Let us go without any delay”. They prayed to almighty and Guru and left from there. A Mughal chief was on guard duty in the front of ‘Darshani Deodi’ (entrance door of Darbar Sahib) along with other soldiers. He had a spear in his hand. When Bhai Singha and Bhai Baabak reached near him, he said, “Who are you? Where are you going?”
Bhai Baabak replied, “All are our brothers. Be careful. Everybody is looking for the Guru. Have you not seen the Guru yet?”
When Bhai Singha ran his horse, Bibi Viro’s shoe fell down. Some small bells were attached to that shoe, which ringed. Mughal chief heard this and yelled very loud. Bhai Singha and Bhai Baabak did not waste their time and ran away on their horses. Bibi Viro, as said earlier, was with Bhai Singha. Mughal army men started to chase them. They were shouting, “Enemies are running. They are carrying Guru’s family. Catch them, catch them”. Moghuls saw Bhai Singha and Bhai Babak running on their horses and they tried to chase them. When Bhai Singha saw enemies coming near he asked Bhai Babak to shoot and kill enemies. Bhai Babak followed the instructions and shot and killed. Both the warriors reached in front of Guru Hargobind Sahib and thus saved Bibi Viro.
While this rescue was going on, the battle outside of the city of Amritsar had already started. Sikhs were fighting bravely in the dark of night. Many Sikhs were martyred in the battlefield. Guru Hargobind called Bhai Singha Purohit when he saw Bhai Bhanu, a Sikh warrior martyred in the battle. Guru Hargobind asked him to go to the battle because other Sikh warriors were being martyred by the Mughal Army.
Next morning Five hundred warrior Sikhs were under the command of Bhai Singha Purohit .Riding on horse’s back, Bhai Singha reached the battlefield. As soon as he reached there with his jatha, guns started to fire all around them. The enemy attacked like a full flowing river. Mohammed Ali was leading the enemy’s army. Bhai Singha Purohit deployed his soldiers in a trench. When he saw the enemy shouting near the holy city, Bhai Singha said to his warriors, “Fire at once at these ‘Malechh’ people you are looking at. Kill all of them”. As soon as Bhai Singha ordered to fire, Sikhs started to fire their guns. Many Mughal Army men were killed in great numbers instantly. With the guns now unloaded, it was time to use swords, the common weapon of those days. Bhai Singha advanced towards the enemy. Other Sikh warriors followed him. The limbs of the warriors were being cut into pieces.
Bhai Singha started to shot his arrows towards enemies. Wherever he shots his arrows, they would cross the bodies of enemies. Hissing like snakes, Bhai Singha’s arrows were flying here and there. Bhai Singha Purohit killed whoever came in his way. The fight by Bhai Singha created tumult (commotion and disturbance) in the enemy’s camp. The enemies could not face the bloodthirsty arrows of Bhai Singha Sahib. At last, the enemies had to run away. Mohammed Ali, the enemy’s chief, gathered his army again and thus Mughal army men again came in the battlefield. Until now, Mohammed Ali had understood that it was Bhai Singha Purohit, who was creating trouble for Mughals. In anger, he came to fight with Bhai Singha. Bhai Singha was a target of many guns, he continued to shot his arrows and was killing the enemies continuously. This made Mohammad Ali very mad. Now, he fired at Bhai Singha Purohit’s horse. Bhai Singha’s horse was shot and Singha’s fell down on the ground. Bhai Singha was now without horse among the hundreds of enemy horsemen. Hundreds of Mughal horsemen surrounded Bhai Singha, who was fighting all alone there. He was very alert; he continued to shot his arrows towards enemies. Whoever came near to him, Singha donated him an arrow and sent him to the other world.
A single man was killing many Mughal soldiers. This made Mohammed Ali very angry. He ordered to fire at Bhai Singha from all the directions. It was not possible for Bhai Singha to save him from bullets. He was all alone there in the battlefield fighting against the hundreds of Mughal horsemen. Some bullets injured him. Even then, Bhai Singha Purohit continued to transfer enemies to the other world. Bhai Singha shot an arrow, which struck into Mohammed Ali’s forehead. The gun fell down from Ali’s hand. Now, Bhai Singha shot another arrow, which gave salvation to Mohammed Ali. Ali died there and his horse ran away.
Bhai Singha Purohit shot all of his arrows. Now he was without arrows. The enemies came forwarded towards Bhai and fired at once. Bhai Singha fell down. Even then, enemy’s soldiers continued to attack him using swords. His limbs were cut to small pieces. Thus, a wonderful warrior received a wonderful death. His martyrdom in the battlefield caused Guru’s participation in the battle. When Guru heard that Bhai Singha Purohit had been martyred, he himself came in the battlefield and won the battle.
Why I am writing this article is to give a remarkable message to all readers. We often see that few radicalized Sikhs are constantly attacking Hindus on name of Gangu Brahmin. Gangu is considered as the person who betrayed Sikhs and he told Nawab of Sirhind the hiding place of Mata Gujri and young sahibzadeys. Few Sikhs often tries to blame Brahmin Community for the betrayal of Gangu. I want to ask the same Sikhs that
1. Will they praise Brahmin community for giving birth to Bhai Singha Purohit, the Brave heart who saved the daughter of Guru Hargobind Singh?
2. How come a wrong act of one person is being considered as a crime done by the whole community?
3. Hindus provided their sons for joining Khalsa. Even Guru Nanak was born to a Hindu Family. Then how come few persons claim that Sikhs are not Hindus.
4. How come the great sacrifice of Guru Teg Bahadur who was also known as Hind-Ki-Chadar a messenger of Hindu-Sikh Unity be forgotten?
5. Why should majority of Sikhs listen to few radical Sikhs who are betraying Sikhs by playing as a tool in the hands of conspirators?
6. They are many instances in our History when Hindus, especially Brahmins sacrificed their lives for the Noble cause of Dharma. Are all such sacrifices goes vain?
7. We cannot change our History, our pride, our heritage, our sacrifices. So, instead of forgetting it we must take inspiration from it.

गोविन्द सिंह और जफरनामा का सच





गोविन्द सिंह और जफरनामा का सच

गुरु गोविन्द सिंह जी एक महान योद्धा होने के साथ साथ महान विद्वान् भी थे. वह ब्रज भाषा, पंजाबी, संस्कृत और फारसी भी जानते थे. और इन सभी भाषाओँ में कविता भी लिख सकते थे. जब औरंगजेब के अत्याचार सीमा से बढ़ गए तो गुरूजी ने मार्च 1705 को एक पत्र भाई दयाल सिंह के हाथों औरंगजेब को भेजा. इसमे उसे सुधरने की नसीहत दी गयी थी. यह पत्र फारसी भाषा के छंद शेरों के रूप में लिखा गया है. इसमे कुल 134 शेर हैं. इस पत्र को "ज़फरनामा "कहा जाता है.
यद्यपि यह पत्र औरंगजेब के लिए था. लेकिन इसमे जो उपदेश दिए गए है वह आज हमारे लिए अत्यंत उपयोगी हैं . इसमे औरंगजेब के आलावा मु सल मानों के बारे में जो लिखा गया है, वह हमारी आँखें खोलने के लिए काफी हैं. इसीलिए ज़फरनामा को धार्मिक ग्रन्थ के रूप में स्वीकार करते हुए दशम ग्रन्थ में शामिल किया गया है.
जफरनामासे विषयानुसार कुछ अंश प्रस्तुत किये जा रहे हैं. ताकि लोगों को इस्लाम की हकीकत पता चल सके ---
1 - शस्त्रधारी ईश्वर की वंदना --
बनामे खुदावंद तेगो तबर, खुदावंद तीरों सिनानो सिपर.
खुदावंद मर्दाने जंग आजमा, ख़ुदावंदे अस्पाने पा दर हवा. 2 -3.
उस ईश्वर की वंदना करता हूँ, जो तलवार, छुरा, बाण, बरछा और ढाल का स्वामी है. और जो युद्ध में प्रवीण वीर पुरुषों का स्वामी है. जिनके पास पवन वेग से दौड़ने वाले घोड़े हैं.
2 - औरंगजेब के कुकर्म --
तो खाके पिदर रा बकिरादारे जिश्त, खूने बिरादर बिदादी सिरिश्त.
वजा खानए खाम करदी बिना, बराए दरे दौलते खेश रा.
तूने अपने बाप की मिट्टी को अपने भाइयों के खून से गूँधा, और उस खून से सनी मिटटी से अपने राज्य की नींव रखी. और अपना आलीशान महल तैयार किया.
3 - अल्लाह के नाम पर छल --
न दीगर गिरायम बनामे खुदात, कि दीदम खुदाओ व् कलामे खुदात.
ब सौगंदे तो एतबारे न मांद, मिरा जुज ब शमशीर कारे न मांद.
तेरे खु-दा के नाम पर मैं धोखा नहीं खाऊंगा, क्योंकि तेरा खु-दा और उसका कलाम झूठे हैं. मुझे उनपर यकीन नहीं है . इसलिए सिवा तलवार के प्रयोग से कोई उपाय नहीं रहा.
4 - छोटे बच्चों की हत्या --
चि शुद शिगाले ब मकरो रिया, हमीं कुश्त दो बच्चये शेर रा.
चिहा शुद कि चूँ बच्च गां कुश्त चार, कि बाकी बिमादंद पेचीदा मार.
यदि सियार शेर के बच्चों को अकेला पाकर धोखे से मार डाले तो क्या हुआ. अभी बदला लेने वाला उसका पिता कुंडली मारे विषधर की तरह बाकी है. जो तुझ से पूरा बदला चुका लेगा.
5 - मु-सलमानों पर विश्वास नहीं --
मरा एतबारे बरीं हल्फ नेस्त, कि एजद गवाहस्तो यजदां यकेस्त.
न कतरा मरा एतबारे बरूस्त, कि बख्शी ओ दीवां हम कज्ब गोस्त.
कसे कोले कुरआं कुनद ऐतबार, हमा रोजे आखिर शवद खारो जार.
अगर सद ब कुरआं बिखुर्दी कसम, मारा एतबारे न यक जर्रे दम.
मुझे इस बात पर यकीन नहीं कि तेरा खुदा एक है. तेरी किताब (कु-रान) और उसका लाने वाला सभी झूठे हैं. जो भी कु-रान पर विश्वास करेगा, वह आखिर में दुखी और अपमानित होगा. अगर कोई कुरान कि सौ बार भी कसम खाए, तो उस पर यकीन नहीं करना चाहिए.
6 - दुष्टों का अंजाम --
कुजा शाह इस्कंदर ओ शेरशाह, कि यक हम न मांदस्त जिन्दा बजाह.
कुजा शाह तैमूर ओ बाबर कुजास्त, हुमायूं कुजस्त शाह अकबर कुजास्त.
सिकंदर कहाँ है, और शेरशाह कहाँ है, सब जिन्दा नहीं रहे. कोई भी अमर नहीं हैं, तैमूर, बाबर, हुमायूँ और अकबर कहाँ गए. सब का एकसा अंजाम हुआ.
7 - गुरूजी की प्रतिज्ञा --
कि हरगिज अजां चार दीवार शूम, निशानी न मानद बरीं पाक बूम.
चूं शेरे जियां जिन्दा मानद हमें, जी तो इन्ताकामे सीतानद हमें.
चूँ कार अज हमां हीलते दर गुजश्त, हलालस्त बुर्दन ब शमशीर दस्त.
हम तेरे शासन की दीवारों की नींव इस पवित्र देश से उखाड़ देंगे. मेरे शेर जब तक जिन्दा रहेंगे, बदला लेते रहेंगे. जब हरेक उपाय निष्फल हो जाएँ तो हाथों में तलवार उठाना ही धर्म है.
8 - ईश्वर सत्य के साथ है --
इके यार बाशद चि दुश्मन कुनद, अगर दुश्मनी रा बसद तन कुनद.
उदू दुश्मनी गर हजार आवरद, न यक मूए ऊरा न जरा आवरद.
यदि ईश्वर मित्र हो, तो दुश्मन क्या क़र सकेगा, चाहे वह सौ शरीर धारण क़र ले. यदि हजारों शत्रु हों, तो भी वह बल बांका नहीं क़र सकते है. सदा ही धर्म की विजय होती है.

गुरु गोविन्द सिंह ने अपनी इसी प्रकार की ओजस्वी वाणियों से लोगों को इतना निर्भय और महान योद्धा बना दिया कि अब भी शांतिप्रिय -- सिखों से उलझाने से कतराते हैं. वह जानते हैं कि सिख अपना बदला लिए बिना नहीं रह सकते . इसलिए उनसे दूर ही रहो.
इस लेख का एकमात्र उद्देश्य है कि आप लोग गुरु गोविन्द साहिब कि वाणी को आदर पूर्वक पढ़ें, और श्री गुरु तेगबहादुर और गुरु गोविन्द सिंह जी के बच्चों के महान बलिदानों को हमेशा स्मरण रखें. और उनको अपना आदर्श मनाकर देश धर्म की रक्षा के लिए कटिबद्ध हो जाएँ. वर्ना यह सेकुलर और जिहा दी एक दिन हिन्दुओं को विलुप्त प्राणी बनाकर मानेंगे.
गुरु गोविन्द सिंह का बलिदान सर्वोपरि और अद्वितीय है

सकल जगत में खालसा पंथ गाजे, बढे धर्म हिन्दू सकल भंड भागे

The Zafarnāma ਜ਼ਫ਼ਰਨਾਮਾ, ظفرنامہ‎, > Declaration of Victory was a spiritual victory letter sent by Guru Gobind Singh Ji in 1705 to the Mughal Emperor of India, Aurangzeb after the Battle of Chamkaur. The letter is written in Persian verse.
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Source-Vedic Sikhism.

Delink religion, politics for peace in Punjab society



Delink religion, politics for peace in Punjab society

Sanjeev Nayyar

Recently, the Indian government banned the pro-Khalistan group, Sikhs for Justice. Earlier, there was a scuffle between a Sikh tempo driver and the Delhi police where the driver threatened the policemen with a sword. Later he was overpowered and beaten up by the cops. The video of the incident went viral. Soon a crowd of around 400 Sikhs gathered at the police station demanding Singh’s release. The group thrashed ACP Tyagi, raised slogans and damaged at least a dozen vehicles.  For one who lived in North India during the 1980s the incident brought back bad memories.

This article jogs your memory on what happened during the Khalistan movement, the cause and the effects. Read on.

From 1988 to 1990, for nearly three years, I was posted in Punjab’s Rajpura factory of Hindustan Levers. Our family retained many aspects of Punjabi culture. The mandir at home had a largish picture of Guru Nanak. My Ma’s grandmothers, on both sides, were Sikh and I am born Punjabi so I was comfortable working in the state of my origin.

Here is my first experience of an encounter with the situation in Punjab in April 1988.

A senior colleague and I were returning to Chandigarh from a factory visit to Ludhiana. It was about 9 pm. A CRPF barricade forced our car to stop. A jawan walked up to us with a fully loaded weapon, pointed it to my throat and asked who I was. I gave my visiting card and said I was an employee of the company that made Lifebuoy. That saved the day for us.

To get a sense of the conditions then in Punjab, here is what Sunil Sharan wrote in the Times of India: “It is estimated that between 1980 and 1984, thousands of Hindus lost their lives to Bhindranwale’s goons. I was a teenager applying to engineering college and wanted to travel to Kurukshetra to pick up the application forms. The bus drove through Punjab. Those were the days when Bhindranwale’s thugs would stop buses, separate Sikhs from Hindus, and then mow the Hindus down.”

Those who protested against the Army action during Operation Bluestar were earlier silent when the terrorists converted the holy shrine into an armed fortress.

Having said that, I am sad that those responsible for the unfortunate 1984 anti-Sikh violence were not convicted, be it H.K.L. Bhagat, Dharma Dass Shastri, Jagdish Tytler and Sajjan Kumar (recently sent to jail).

Yet, I am tired of the use of 1984 to paint a narrative as if Sikhs are continuously oppressed. Conversely, baring the late Khushwant Singh and Tavleen Singh how many Sikhs publicly criticised the Sikh militants?

Simultaneously there is a renewed campaign to malign K.P.S Gill, the then Director General of Punjab Police, but the truth is he restored peace.


SGPC booklet on Golden Temple says name is Hari Mandir.
Ajai Sahni, Director, Institute of Conflict Management wrote in the Tribune, Chandigarh, “For long, Khalistani formations alleging ‘genocide’ have claimed, with not a shred of evidence, that between 1 lakh and 2.5 lakh Sikhs were killed in the counterterrorism campaign in the state. The reality is, a total of 21,532 persons were killed between 1981 and 1995 in connection with Khalistani terror, including 8,090 categorised as terrorists; 11,696 civilians, almost all killed by the Khalistanis, but including some who lost their lives in ‘crossfire’; and 1,746 security force personnel (1,415 of the Punjab Police alone) killed by the terrorists.”

In the same article Ajai Sahni wrote about mass murders, e.g. train massacres of January, June and December 1991, the slaughter of 38 bus passengers in July 1987, among a numberless other acts of carnage.

There was not a word of regret about these mass killings from the Sikh community.

SEEDS OF PUNJAB PROBLEM

Whilst many blame the late Prime Minister Indira Gandhi for the Punjab problem, the seeds were sowed by the British starting from the 1860s. The Akalis and the Congress built on that. Here is a chronological sequence of key events between 1860 and 1995.

The British were grateful to the Sikh princes for assistance received during the mutiny of 1857 and seeing the bravery of the Sikh armies realised that they could be an effective buffer between Afghanistan and India. The British replaced the Bengali soldiers with loyal Sikhs and Punjabi Muslims. Only Sikhs who sported the five “k’s” or symbols of Sikhism, could join the army.

Kahan Singh Nabha’s book, Ham Hindu Nahin Hain was published in 1898. It was a vitriolic appraisal of Hinduism, focusing on why Sikhs were not Hindus.

* 1905: Idols were removed from the Golden Temple as a result of pressure applied by the Singh Sabha (A History of Sikhs, Volume II by Khushwant Singh).

* Between 1881 and 1931, large numbers of Hindus became Sahajdhari Sikhs, who were baptised to become Khalsa (A History of Sikhs, Volume II by Khushwant Singh).

* 1925: Sikh Gurudwaras Act was passed. This was the beginning of the intertwining of politics and religion.

* 1957 onwards the Akalis started to demand a state where Punjabi, in Gurumukhi script, would be the state language. Consequently, there was a Hindu-Sikh divide on which language constituted the mother tongue of Punjabis: Hindi or Punjabi.

* In 1966, Haryana consisting of the Hindi-speaking areas was carved out of Punjab, while the rest remained Punjab.

* 1967, for the first time the Akalis came to power (1967-1971), followed by Congress (1972-77), Akalis (1977-1980) and Congress (June 1980 to October 1983).

* In 1977, a coalition of the Akalis and Jan Sangh (now BJP) ruled Punjab. Sanjay Gandhi wanted to break the coalition. Senior Congress leader Zail Singh asked Sanjay to look for a new religious leader to discredit the traditional Akali Dal leadership. They zeroed in on Jarnail Singh Bhindranwale.

* In 1978, clashes took place between the Damdami Taksal, headed by Bhindranwale and the Nirankaris. The Damdami Taksal is an influential school founded by Baba Deep Singh, one of the greatest Sikh heroes.

* In 1982, protests by the Akali Dal took place at Delhi’s border during the Delhi Asian Games.

Bhindranwale’s strategy was to cause communal tension so that Hindus left Punjab in fear. He hoped a Hindu backlash elsewhere would make Sikhs realise they were safe only in Punjab.

Bomb blasts occurred across North India including those called “tiffin” and “transistor bombs”.

On 23 April 1983, Deputy Inspector General of Punjab, A.S. Atwal was shot dead in the Golden Temple.

* By March 1984, Bhindranwale and his men began fortifying the Golden Temple. Sandbag emplacements were seen on either side of the clock tower. Young Sikhs with automatic rifles had taken up positions on top of the tower.

* In April 1984, a prominent Sikh man in Delhi, H.S. Manchanda was shot in broad daylight. BJP’s prominent politician Harbans Lal Khanna killed in Amritsar.

* In June 1984 took place the Operation Blue Star.

* On 31 October 1984, Prime Minister Indira Gandhi was assassinated by her Sikh bodyguards. Anti-Sikh violence followed. All over Punjab, doctors, industrialists and businessmen moved to safer locations. People were compelled to sell their land and property for a pittance.

* In 1985, the bombing of Air India aircraft Kanishka killed 329.

* On 10-11 May 1985, 20 bombs exploded in Delhi and 18 bombs in other parts of North India, leaving 82 dead.

* In 1985, the Rajiv-Longowal accord was signed. Sant Longowal was killed on 20 August 1985.

* In 1988, terrorists occupying the Golden Temple were forced out by the Punjab Police and the security forces. Operation Black Thunder II was carried out under the supervision of K.P.S. Gill.

Punjab witnessed a complete breakdown of the judicial system.

* The Punjab Police under K.P.S. Gill and supported by other armed forces and under the political leadership of Congress Chief Minister Beant Singh, broke the back of the terror movement. Peace returned to Punjab in 1994.

* Beant Singh was killed in a bomb blast in 1995.

THE PROBLEMS

The problems in Punjab are deeper.

One is the intertwining of religion with politics. The Shiromani Gurdwara Parbandhak Committee, apex body for management of gurudwaras in Punjab, Haryana and Himachal, is the key to political power in Punjab. So both the Akalis and Congress try to control it.

Two, there exists a Sikh belief that their religion has nothing to do with Hinduism. Many ignore what Khushwant Singh wrote in the 29 March 1999 issue of Outlook: “There is a new breed of Sikh scholars who bend backwards to prove Sikhism has taken little or nothing from Hinduism. All they need to be told is that of the 15,028 names of God that appear in the Adi Granth, Hari occurs over 8,000 times, Ram 2,533 times, followed by Prabhu, Gopal Govind, Parbrahm and other Hindu nomenclature for the Divine. The purely Sikh coinage ‘Wahe Guru’ appears only sixteen times.”

When I say that name of the Golden Temple is Hari Mandir I am ridiculed and when point out that Maharaja Ranjit Singh donated gold to Kashi Vishwanath Mandir, Jwalukhi Mandir and Hari Mandir, the response is he was secular.

However, Hindus see Sikhs as part of the larger Hindu community, i.e. why, in spite of Sikh militants killing Hindus they continue to visit the Golden Temple.

Another problem is the picture of Bhindranwale in gurudwaras. Recently Haryana Chief Minister Khattar refused to enter a gurudwara in Karnal because it had a picture of Bhindranwale.

Simultaneously efforts are being made to keep Khalistani terror alive. Pakistan’s efforts are backed by radical elements in the Sikh diaspora, mainly based in Europe and North America. They continue to propagate, fund raise and recruit for the Khalistani cause.

Most Sikhs do not want to have anything to do with the extremist fringe. But if they see the government buckling under pressure the tide could turn. If Punjab takes to terrorism again there will be no Beant Singh and K.P.S. Gill to save my home state from self-destruction.

Until religion and politics are delinked, Punjabi society might never see lasting peace.

Sanjeev Nayyar is author of a mini book ‘How the British sowed the seeds for the Khalistani Movement before the Indians took over."

Source-Sunday Guardian