Friday, February 22, 2019

नमाज़ ए जनाज़ा और कुर्फ



नमाज़ ए जनाज़ा और कुर्फ

आर्यवीर पूर्व नाम मुहम्मद अली

हिन्दू समाज की एक पुरानी आदत है। वह है जल्दी भूल जाना और अपने इतिहास से सबक न लेना। अब देखिये 1947 में पाकिस्तानी क्षेत्र वाले पंजाब में हिन्दुओं पर असंख्य अत्याचार हुए। कितनों की बेटियां उठा ली गई। कितने अपना सब कुछ लुटवा कर भारत आ गए। मगर उन्हीं के वंशज आज अपने आपको सेकुलर सिद्ध करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। क्यूंकि हम सब कुछ भूलने के लिए प्रतिबद्ध हैं। हम यह भी भूल गए कि जब ओसामा बिन लादेन को अमरीका ने सुपुर्दे-खाक किया था और जब पाकिस्तानी आतंकवादी कसाब को भारतीय सरकार ने फाँसी पर लटका दिया गया था। तब उनकी आत्मा की शांति के लिए भारतीय मस्जिदों में नमाज़ ए जनाज़ा अर्थात अंतिम नमाज़ पढ़ी गई थी। ओसामा बिन लादेन का भारत से क्या सम्बन्ध था? प्रत्यक्ष कुछ भी नहीं। वह एक सऊदी मूल का अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी था जिसके षड़यंत्र से अमरीका के ट्विन टावर गिरे। उस ईमारत में उस वक्त कुछ भारतीय मूल के लोग भी अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए। अजमल कसाब पाकिस्तानी नागरिक था। जिसने मुंबई में हमला कर अनेक निर्दोष भारतीयों को क़त्ल किया। भारतीय न्याय व्यवस्था के अनुसार उसे यमलोक पंहुचा दिया गया। इन दोनों के लिए  नमाज़ ए जनाज़ा पढ़ने वाले भारतीय मुसलमान थे।
     कश्मीर के पुलवामा में आतंकवादियों ने सीआरपीएफ के जत्थे पर हमला कर 44 भारतीय सैनिकों को मार डाला। क्या आपने सुना की भारत की कितनी मस्जिदों में उनके बलिदान को स्मरण करते हुए याद किया गया। उस जत्थे में एक देशभक्त मुस्लिम कश्मीर निवासी  नसीर अहमद भी था।  कितनी मस्जिदों ने उनकी आत्मा की शांति के लिए नमाज़ ए जनाज़ा पढ़ा गया। बहुत कम। कुछ अपवादों को छोड़ दीजिये तो बहुत कम। इसका मुख्य कारण क्या है कि ओसामा बिन लादेन और कसाब के लिए तो नमाज़ ए जनाज़ा भारतीय मस्जिदों में पढ़ा जा सकता हैं।  मगर भारतीय सैनिकों की आत्मा की शांति के लिए अंतिम प्रार्थना करने से भारतीय मुसलमान हिचकते हैं। इसका उत्तर जानने के लिए आपको क़ुरान की मूल विचारधारा और मौलानाओं के द्वारा दिए गए फतवों के इतिहास को जानना होगा।

  इस्लाम में गैर मुस्लिम किसी भी प्रकार से सम्मान का पात्र नहीं हैं। क़ुरान की कुछ आयतें देखिये-

-काफिरों की मित्र नहीं समझना चाहिए।- क़ुरान 3/28

-तो वे (काफिर) तुम्हें जहाँ कहीं दिखाई दें, उन्हें मार डालो और जिस जगह से उन्होंने तुम्हें निकला है, तुम उन्हें वहां से निकाल दो। - कुरान 2/186 

-उनसे लड़ाई करो और उन्हें अपनी निष्ठुरता से परिचित होने दो- क़ुरान 9/125 

-यह सुनिश्चित का लो कि वे जहाँ कहीं भी तुम्हें मिलें, उन सबका वध कर दिया जाये।- क़ुरान 23.60-4-64

जब काफ़िरों से तुम्हारी मुठभेड़ हो, तो उनकी गर्दनें उड़ा दो और तब तक ऐसा करते रहो जब तक, उनमें से बहुत-सों का वध न हो जाए और बाकियों को जल्दी से बंधनों में जकड़ दो....(क़ुरान 47.4-5)

(सन्दर्भ- अरुण शौरी, फतवें, उलेमा और उनकी दुनिया, वाणी प्रकाशन, 2001, पृष्ठ 163-164)

मुस्लिम समाज में क़ुरान के पश्चात हदीसों और उनके आधार पर दिए गए फतवें मुसलमानों का सबसे अधिक मार्गदर्शन करते हैं।  लोकमान्य तिलक की मृत्यु पर ख़िलाफ़त समिति के सदस्य शोक प्रकट करते हुए एक पोस्टर छापते हैं।  दसवें दिन कुछ मस्जिदों में सभाएं होती हैं जिनमें दिवंगत नेता के लिए प्रार्थनाएं की जाती हैं। जिन लोगों ने पोस्टर छापा और जिन लोगों ने प्रार्थना सभाओं आयोजन किया और उनमें भाग लिया, उनके बारे में क्या हुकुम है?

मौलाना शमद रज़ा ने घोषणा की - ऐसे प्रार्थना सभाओं में शामिल होना हराम है. जो उनमें शामिल होता है, वह भर्तस्ना का पात्र है. वह नमाज़ नहीं करवा सकता। ईमान के दुश्मनों से खबरदार रहना फर्ज है।  एक मुशरिक (काफिर) के लिए दुआ करना और उसके लिए जनाज़ा नमाज़ और फ़ातिहा पढ़ना कतई कुफ्र है।
        इन लोगों ने एक मुशरिक के लिए मस्जिद में अपने सिरों को उघाड़ा और अल्लाह की नमाजगाह को एक मातम-स्थल में बदल दिया। जिन मुसलमानों ने ऐसा किया वे मुशरिकों की गाड़ी के बैल बन गए हैं। जिसने एक ग़ैर मुस्लिम का सम्मान किया है, वह इस्लाम को नष्ट करने में सहायक हुआ है। जिन लोगों ने पोस्टर छापे हैं, वे धर्मत्यागी हो चुके हैं। वे इस्लाम से बाहर हो चुके हैं और उनके साथ उनकी बीवियों का उनसे निकाह भी टूट गया है।
(सन्दर्भ-फ़तवा-ए-रिजविया, खंड 9, पुस्तक 2, पृष्ठ 270-271)

जो लोग ख़िलाफ़त के दौर में तिलक महोदय जैसे लोगों के महान योगदान को दरकिनार कर केवल गैर मुसलमान होने के नाते उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना पढ़ने को कुफ्र मानते हैं। वही लोग आज कश्मीर में बलिदान देने वाले सैनिकों के लिए कैसे प्रार्थना करेंगे? क्यूंकि उन्हें प्रेरणा तो इन्हीं मौलानाओं से मिलती हैं। उनके लिए कसाब और लादेन के लिए नमाज़ पढ़ने में कोई रूकावट नहीं हैं। क्यूंकि दोनों के मज़हब इस्लाम है।  मगर भारतीय सैनिकों के लिए प्रार्थना पढ़ना नाजायज हैं।

हिन्दू-मुस्लिम को गंगा-जमुनी एकता का बखान करने वाले इस विषय में अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दे कि क्या वाकई में किसी गैर मुसलमान के नेक कार्यों को देखते हुए उसकी स्मृति में प्रार्थना पढ़ना कुफ्र है?  

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