प्रियांशु सेठ
वेदों की विश्व-विश्रुति का अन्यतम कारण यह भी है कि जिस किसी भी कोण से हम इस अद्भुत ग्रन्थ का अध्ययन करें, यह अपने प्रस्तार से अमाप्य है। इसके एक मन्त्र का सम्पूर्ण आकलन समग्र जीवन-साधना की अपेक्षा रखता है। ईश्वर प्रदत्त ज्ञान की यही तो विशेषता रही है कि यह ज्ञान के अक्षय मधुकोष से सम्पृक्त होकर हृदय व आत्मा दोनों को आह्लादित कर देता है। यदि वेद-मन्त्रों के अलंकरण पर दृष्टि किया जाए तो यह अलंकारों का कुबेर कोष प्रतीत होगा। जिस प्रकार सुन्दर वस्त्राभूषणों से सुसज्जित और अलंकृत स्त्री और भी अधिक शोभायमान प्रतीत होती है तथा पति के चित्त को आह्लादित करती है, उसी प्रकार वेद के मन्त्र भी अलंकृत होने से अत्यधिक सुन्दर और हृदय-ग्राह्य होती है। इसी सम्बन्ध में एक कवि-उक्ति भी है-
युवतेरिव रूपमंग काव्यं स्वदते शुद्धगुणं तदप्यतीव।
विहितप्रणयं निरन्तराभि: सदलंकारविकल्पकल्पनाभि:।।
अलम् पूर्वक कृ धातु से भाव का कारण अर्थ में धञ् प्रत्यय करके अलंकार शब्द निष्पन्न होता है, इस प्रकार जो भूषित करे वह अंलकार है। अलंकारों का मुख्य कार्य है, किसी की सुन्दरता का संवर्धन करना। हमारे परस्पर सम्भाषण में भी अलंकार बिना प्रयास किये ही स्वतः आ जाते हैं। यद्यपि वैदिक ऋषि आलंकारिकों द्वारा निर्दिष्ट किये गए अलंकारों से परिचित नहीं थे, परन्तु अलंकार शब्द और उसके कार्य से वे भली भांति परिचित थे। हम उपनिषदों की ही बात करें तो उनमें भी अलंकार आपाततः आ गए हैं। ईशावास्योपनिषद् में जहां हिरण्यमय पात्र से सत्य के मुख को ढका हुआ बताया गया है (हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। -१५), वहां भी एक प्रकार से अलंकार की महत्ता को ध्वनित कर दिया गया है। ब्राह्मण ग्रन्थों में "असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्मा अमृतं गमय" एक सार्वभौम, सार्वजनीन प्रार्थना है। जीवन-संघर्ष में पड़े व्यक्ति के सामने सदा से दो पक्ष खुले रहे हैं- असत्-सत्-तमस्-ज्योति, मृत्यु-अमृत। विवेकशील व्यक्ति पहले को छोड़ दूसरे को अपनाता है। मन्दमति व्यक्ति ही सत्य की तुलना में असत्य का, ज्योति की तुलना में अन्धकार का और अमृत की तुलना में मृत्यु का वरण करेगा। इस उपर्युक्त उपदेश का सार उसका अन्तिम चरण 'मृत्योर्मा अमृतं गमय' ही है। इसी तथ्य को ईश्वरीय वाणी वेद में "मृत्योर्मुक्षीय मा अमृतात्" ऐसा कहा है- 'हे प्रभो! मुझे मृत्यु-बन्धन से छुड़ा, अमृतत्व से नहीं। यह टेक जिस मन्त्र की है, उसे वैदिक वांग्मय में "महामृत्युञ्जय" नाम दिया गया है। मन्त्र का पूर्ण स्वरूप निम्नलिखित है-
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्।
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम्। उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीय मामुत:।। -यजु० ३/६०
महर्षि दयानन्दजीकृत भाष्य- इस मन्त्र में उपमालंकार है। मनुष्य लोग ईश्वर को छोड़कर किसी का पूजन न करें, क्योंकि वेद से अविहित और दुःखरूप फल होने से परमात्मा से भिन्न दूसरे किसी भी उपासना न करनी चाहिए। जैसे खर्बूजा फल लता में लगा हुआ अपने आप पक कर समय के अनुसार लता से छूट कर सुन्दर स्वादिष्ट हो जाता है, वैसे ही हम लोग पूर्ण आयु को भोग कर शरीर को छोड़ के मुक्ति को प्राप्त होवें। कभी मोक्ष की प्राप्ति के लिए अनुष्ठान वा परलोक की इच्छा से अलग न होवें और न कभी नास्तिक पक्ष को लेकर ईश्वर का आनन्द भी करें। जैसे व्यवहार के सुखों का लिए अन्न, जल आदि की इच्छा करते हैं, वैसे ही हम लोग ईश्वर, वेद, वेदोक्तधर्म और मुक्ति होने के लिए निरन्तर श्रद्धा करें।
यहां एक प्रश्न मन में उठना स्वभावतः है कि इस मन्त्र में उपमा अलंकार ही क्यों विद्यमान है? इसका बहुत ही सरल उत्तर यह है कि उपमा सादृश्य-मूलक अलंकारों की बीजभूत है, उपजीव्य है, मेरुदण्ड है, प्राण-स्पंदन है। उपमा भिन्न स्तरीय वस्तुओं को एक स्नेह सूत्र में बांधती है, वैसा दृश्य में सादृश्य का अन्वेषण करती है, दो पदार्थों को बराबर-बराबर तोल (उप+मा) देने का यत्न करती है। भावनाओं के अयत्नज आप्लावन के साथ उपमा जिस सहजता से वह निकलती है, वैसा अन्य अलंकार में नहीं। यही कारण है कि वेद-मन्त्रों में उपमा अलंकार की ही अधिकता दिखलाई पड़ती है।
मैं प्रायः सोचा करता था कि जब सृष्टि पर खर्बूजे की तुलना में एक-से-एक उत्तम फल विद्यमान हैं तो ईश्वर ने खर्बूजे को ही उपमा क्यों बनाया? उर्वारुकमिव बन्धनात् ही क्यों? आम्रमिव, नारिकेलमिव, कदलीमिव, द्राक्षमिव क्यों नहीं? इनमें से किसी एक फल को उपमा बनाया होता तो क्या ही अच्छा होता! विचारने पर ज्ञात हुआ कि मनुष्य को इस बात का बोध कराने के लिए कि वह अपने जीवन को कैसे सफल करे, इससे बढ़िया उपमा दी ही नहीं जा सकती थी। वास्तव में इस वेद-मन्त्र में खर्बूजे को ही उपमा देना परमेश्वर का चमत्कार है। मनुष्य मृत्यु के बन्धन से तभी छूट सकता है जब तक वह पक न जाए और पकने के लिए जुड़ना आवश्यक है। मनुष्य के जीवन-फल के परिपक्व होने की पहचान खर्बूजे फल से जानी जा सकती है क्योंकि यही एक ऐसा फल है जो पकने के बाद डाल से स्वतः पृथक् हो जाता है। कच्चा फल तो किसी के उपयोग का नहीं रहता। वह सर्वथा नीरस, निर्गन्ध, नीरूप, स्वयं सड़ जाये, सम्पर्क में आने वालों को भी सड़ा दे, ऐसा रहता है। मनुष्य का कच्ची अवस्था में छूट जाना भी ऐसा ही है जैसे फल का कच्चा टूट जाना। हे मुमुक्षो! आओ खर्बूजे फल के पकने की पहचान कर उससे अपने जीवन की तुलना करें। जब उस पहचान-कसौटी पर हम अपने को कसकर खरा बना लेंगे तो हमारी परिपक्वता में कोई सन्देह नहीं रहेगा अर्थात् परिपक्व होते ही मुक्ति हो जाएगी।
पहली पहचान-
खरबूजे के फल के पकने की पहली पहचान यह है कि डाल सर्वथा बेल के साथ चली जाये, फल के साथ न आए। डाल अथवा डाल के किसी भाग का फल के साथ आना उसके कच्चेपन की निशानी है। पके फल में यह सम्भव नहीं। मुमुक्षु व्यक्ति भी यह देखे कि संसार से मुक्त होते हुए कोई वासना मेरे साथ तो नहीं आई। यदि वासना का एक तार भी मेरे साथ आयेगा तो वह पुनर्बन्धन का कारण होगा। झटका देकर कच्चे फल को तोड़ने से डाल के किसी भी तन्तु का साथ आना सम्भव है। इसलिए हे मुमुक्षो! किसी घबराहट से, अथवा किसी आधि-व्याधि से, उतावलेपन से झटका देने का साहस न करना। अन्यथा वासनाओं के ये तार तेरे-पीछे चले आयेंगे और कहीं-न-कहीं उलझा लेंगे।
दूसरी पहचान-
मुमुक्षो! खरबूजे फल के पकने की दूसरी पहचान है उसकी गन्ध। परिपक्व फल अपने पकने की सूचना गन्ध से देने लगता है। उसकी गन्ध से आसपास का वातावरण सुवासित हो उठता है। यह सुगन्ध तब तक रुकी हुई थी जब तक डाल जुड़ी हुई थी। डाल पृथक् हुई कि सुगन्ध फूट पड़ी। जिस प्रकार शीशी में बन्द पड़े हुए इत्र का कुछ पता नहीं कि इसमें क्या है, परन्तु जैसे ही डाट खुली कि सारा वातावरण सुवासित हो गया। अतः वातावरण को सुगन्धित करने के लिए डाल का पृथक् होना आवश्यक है। निष्कर्ष यह निकला कि बिना बंधे सुगन्ध उत्पन्न हो नहीं सकती और बिना छूटे सुगन्ध फैल नहीं सकती।
प्रायः देखा गया है कि घर में खरबूजे लाए गए और उन्हें बच्चों की आंख से बचाकर रख दिया गया। बच्चों ने घर में प्रवेश करते ही ताड़ लिया कि आज तो घर में खरबूजे आए हैं! देखकर नहीं, सूंघकर।
इसी प्रकार हे मुमुक्षो! तू मुक्ति का अधिकारी हुआ है या नहीं, इसकी जांच करनी हो तो खरबूजे फल को उपमा बना लेना। देखना कि तेरे जीवन-फल की पुण्य गन्ध दिग्दिगन्त में व्याप्त हुई है या नहीं; यदि हो गई है तो अपने को मुक्ति का पात्र मानना, अन्यथा समझना कि अभी मैं कच्चा हूं; डाल पृथक् नहीं हुई है। वासना-डाल ने अभी तेरी गन्ध को रोका हुआ है। इसलिए निरन्तर पकने के प्रयास करते रहना, उस समय तक जब तक तेरी पुण्य गन्ध सर्वत्र फैल नहीं जाती। यह जीवन-फल के पकने की दूसरी पहचान है। लोग सुगन्ध पाकर तेरी ओर खिंचे चले आएं। लाख छुपा हुआ हो, तुझे ढूंढ ही निकालें।
तीसरी पहचान-
खरबूजे के पकने की तीसरी पहचान है उसका रंग-रूप। जहां उसकी अन्तरात्मा सुगन्ध से परिपूर्ण हो, वहां बाहर का रूप-रंग भी आकर्षक हो, इतना कि साथी पर रंग छोड़े बिना न रहे।
फल की सुगन्ध जहां दूर जाते व्यक्ति को समीप लाती है, वहां उसका रूप समीप आए व्यक्ति को प्रभावित करता है, अपना रंग छोड़ने लगता है, हिलने नहीं देता। इसलिए प्रायः खरबूजा खरीदते समय लोग जहां बार-बार गन्ध लेकर फल पकने की पहचान करते हैं, वहां उसकी रंगत भी देखते हैं।
ऐ मुमुक्षो! अपने पकने की जांच करने के लिए खरबूजे फल को कसौटी बनाना। तू यह अवश्य देखना कि तेरे जीवन-फल की पुण्य गन्ध ने वातावरण को सुवासित किया अथवा नहीं? लोग तेरे पास खिंचे चले आ रहे हैं अथवा नहीं? तेरी संगति में बैठने को लालायित हैं वा नहीं? यह भी देखना कि तेरे निकट आये व्यक्तियों पर कुछ रंग चढ़ा वा नहीं? यदि तेरा रंग पड़ोसी पर चढ़ गया तो अपने को मुक्ति का अधिकारी समझना, यदि नहीं चढ़ा तो समझ लेना कि अभी तू कच्चा है, मृत्यु-बन्धन से छुटकारा न हो पाएगा। यह सर्वथा असम्भव है कि पके हुए व्यक्ति की संगति में कोई आए और उसपर रंग न चढ़े। कहावत है 'खरबूजा खरबूजे को देखकर रंग पकड़ता है।' यह मानना कि खरबूजे के समीप लगे करेले पर रंग चढ़ना असम्भव है, परन्तु समीप लगे खरबूजे पर तो रंग छोड़ ही देना। तेरी संगति में यदि मनुष्य आए तो तुझसे प्रभावित हुए बिना न लौटे। इसलिए अपने जीवनफल की परिपक्वता की जांच करने के लिए यह देख लेना कि पड़ोसी पर तू रंग छोड़ता है या नहीं? यह फल के पलने और जीवन को परखने की तीसरी पहचान है।
चौथी पहचान-
परिपक्व खरबूजे की चौथी विशेषता यह है कि खरबूजे में उसका रस समा नहीं पाता, वह फूटकर बहने लगता है। मानो निकट आए व्यक्ति को कहता हो कि मेरी सुगन्ध और रूप पर ही मोहित न होओ, मेरे हृदय को टटोलकर देखो, उसमें रस-ही-रस भरा हुआ है, मैंने अपना हृदय आपके सामने खोलकर रख दिया है। यदि फिर भी मुझे न पहचान पाओ तो यही समझूंगा कि मेरे पारखी दुनिया में नहीं रहे।
साधक! तुझे भी देखना होगा कि तेरा हृदय-स्त्रोत जनता-जनार्दन की प्यास बुझाने को फूटा पड़ा है कि नहीं? यदि तेरा हृदय नीरस है तो यह दूर तक गन्ध पहुंचाना और आकर्षक रूप दिखावा मात्र है, पाखण्ड है। इसलिए जैसे बाहर से हो वैसे अन्दर से भी रहो! हृदय में सरसता हो जिससे सरस्वती फूट पड़े, जिसका पान करके लोग तृप्त हो उठें। 'यदन्तरं तद् बाह्यम् (अथर्व० २/३०/४)'- बाहर से भी आकर्षक, अन्दर से भी सरस।
पांचवीं पहचान-
खरबूजे में यह रस इतना परिपूर्ण हो जाता है कि वह फूट पड़ता है। प्रायः इसीलिए लोग फटे हुए खरबूजे को खरीदना पसन्द करते हैं। उनको यह भरोसा होता है कि वह बड़ा मधुर होगा, और जैसे ही तराशकर एक फांक जिह्वा पर रक्खी कि सहसा मुंह से निकला- वाह! मिश्री-सा मीठा है! शहद-सा शीरीं है!
इसी प्रकार हे जिज्ञासो! यह व्यक्त होने वाली वाणी ही मधुर न हो, उसका मूल स्रोत हृदय भी माधुर्य से भरा हो। सरस्वती का प्रवाह जहां अक्षय हो, वहां माधुर्य से भरा होना चाहिए- 'जिह्वाया अग्रे मधु मे जिह्वामूले मधूलकम् (अथर्व० १/३४/२)'।
खरबूजे के पकने की पांचवीं पहचान से अपनी जांच कर लेना। ठीक इसी के तुल्य अन्तः करण को मधुर बना लेना। फिर कहीं मृत्यु से छूटने का नाम लेना।
छठी पहचान-
ऐ भक्त! खरबूजे के अन्दर जहां रस होता है, जहां माधुर्य होता है, वहां एकरूपता भी होती है। उसके पकने की यह छठी पहचान है। वह अन्दर से एकरस, एकरूप, एकरंग है। बाहर की विविधता का उसके अन्तःकरण पर कोई प्रभाव नहीं।
ऐ मुमुक्षो! अपने हृदय को जांचना, वहां इसी प्रकार की भावना की स्थापना कर लेना! अपने-पराये की भावना को उसमें स्थान न देना! समस्त वसुधा को अपने हृदय में संजो रखना! फिर तू अमृत का अधिकारी होगा। बिना हाथ छुआए सहज ही पृथक् हो जाएगा।
सातवीं पहचान-
सातवीं पहचान है उसके अन्दर के बीजों का गूदे में खुभे न रहना; गूदे को छोड़कर अलग हो जाना।
प्रत्येक जिज्ञासु को इस उपमा से यह उपदेश लेना होगा कि मृत्यु-बन्धन से छूटने के लिए जहां बाह्य विषय-वासनाएं उसे छोड़ जाएं, वहां अन्तःकरण में पड़े हुए गुप्त और सुप्त संस्काररूप बीज भी उसे छोड़ जाएं। जिस प्रकार बाह्य वासनाओं का एक भी कच्चा तार पुनर्बन्धन का कारण बन सकता है, वैसे ही अन्तःकरण में पड़े हुए संस्कार-बीज भी मृत्यु-बन्धन का कारण बन सकते हैं। इसलिए जीवन-फल को परिपक्व करने के लिए जहां बाह्य वासनाओं से छुटकारा पा लेना आवश्यक है, वहां अन्तःकरण में पड़े हुए संस्कार-बीज को निश्शेष कर देना भी आवश्यक है।
आठवीं पहचान-
हम खरबूजे फल के अन्दर की एकरसता, एकरूपता का वर्णन कर आए हैं। परन्तु खरबूजे का बाहरी रूप-रंग ठीक उससे भिन्न है। आप खरबूजे के ऊपर की फांकों की गणना कीजिए। वे गिनती में दस निकलेंगे। खरबूजे को दशांगुल कहने का कारण यही प्रतीत होता है। खरबूजे के ऊपर बनी दस फांकें दश अंगुल का प्रतीक है, मानो खरबूजा फल कहता है कि ऐ भक्त! अपने जीवन-फल को पकाने के लिए तेरे दोनों हाथों की ये दस अंगुलियां काम आनी चाहिए। इनकी छाप स्पष्ट नजर आनी चाहिए। किसी अन्य व्यक्ति के द्वारा पकाए फल के उपभोग की कामनामात्र भी तेरे लिए अभिशाप है। पुण्य कोई करे और फल तू खाए, यह पुरुष के लिए उचित नहीं। तुझे तो गर्व से ये शब्द कहने चाहिए- 'कृतं मे दक्षिणे हस्ते, जयो मे सव्य आहित: (अथर्व० ७/५०/८)' अर्थात् मेरे दाहिने हाथ में पुरुषार्थ है और बाएं हाथ में सफलता। जिस फल पर मेरे पुरुषार्थरूप दस अंगुलियों की छाप पड़ेगी, उसी का स्वयं उपभोग करूँगा और अन्यों को भी कराऊंगा। उसी फल को पाकर सफल बनूंगा।
खरबूजे फल पर बनी दस फांकें जहां दस अंगुलियों का प्रतीक है, जहां पुरुषार्थ की छाप का प्रतीक है, वहां पञ्च ज्ञानेन्द्रियों और पञ्च कर्मेन्द्रियों की छाप का भी प्रतीक है। जीवन-फल की उपलब्धि इन्हीं इन्द्रियों के माध्यम से सम्भव है। परन्तु पुरुषोत्तम व्यक्ति वह है जो इस फल की कामना से ऊपर रहता है। पुरुष-सूक्त में ऐसे ही व्यक्ति का वर्णन करते हुए कहा है- 'अत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् (ऋ० १०/९०/१)'- वह पुरुष दश अंगुल का अतिक्रमण करके ठहरता है। इसी वास्तविकता के दर्शन खरबूजे फल में भी किये जा सकते हैं। उसमें अन्तर्निहित रस और माधुर्य ऊपर के दशाङ्गुल छिलके का अतिक्रमण करके बहाता है।
उपासक! इस रस का आस्वादन छिलके को पृथक् करके ही किया जाता है। देखना, तुझे भी प्रकृतिरूपी छिलके को पृथक् करना होगा, तभी तू ब्रह्मानन्द-रस का आस्वाद ले पायेगा। निस्सन्देह परम रस और परम गन्ध, प्रकृति, छिलके में ही बन्द रहती है। तेरे अन्तर्हृदय में बहनेवाला रस भी नाभि-केन्द्र से ठीक दस अंगुल अतिक्रमण करके रहता है। यदि कहीं उसका स्त्रोत मस्तिष्क को मान लें, तो भी वह त्रिकुटि से दशाङ्गुल ऊपर सहस्त्रार चक्र में रहता है। अहा! खरबूजे के पकने की यह पहचान क्या सुन्दर उपदेश दे रही है।
नवीं पहचान-
वनस्पति-जगत् में वृक्षों की अपेक्षा बेलों में यह विशेषता है कि वे अपने समीपस्थ आश्रय पर फैल जाती हैं। वृक्षादि का सहारा पाकर लिपटती और चढ़ती चली जाती हैं। बेलों के हर जोड़ और फटाव पर कुछ तन्तु निकलते रहते हैं जो उनके जमाव में सहायता देते हैं। यह विशेषता खरबूजे की बेल में भी है। जहां हर जोड़ से निकले हुए ये तन्तु जड़ जमाते हैं, वहां भोजन भी ग्रहण करते हैं। इन्हीं के कारण बेल पनपती, फूलती, फलती है।
फल के मूल में भी इसी प्रकार का एक तन्तु लगा रहता है जिसे आप खरबूजे की मूंछ कह सकते हैं। इसका काम न पंजा जमाना है न खुराक लेना है; इसका काम फल पकने की सूचना देना है। जैसे ही फल के मूल में लगा हुआ यह तन्तु सूखा कि माली समझ गया कि फल पक गया। तरबूज फल, जिसकी डाल अन्तिम समय तक फल को नहीं छोड़ती, पकने की सूचना मूल में लगा हुआ यह तन्तु सूखकर ही देता है। इस प्रकार खरबूजे फल के पकने की यही नवीं पहचान है।
प्रिय मित्र! मृत्यु की यह बेल, जिसमें हम सब खरबूजे फल की भांति जुड़े हुए हैं, निकट की हर वस्तु पर छा जाने के लिए है और बराबर अपना पंजा जमाने के लिए है। तू भी अपने प्रकृति-पंजे को जमाना, भोजन लेना, पानी लेना, परिपक्व होना; और जब तेरे जीवन-फल के तृष्णा-तन्तु सूखने लगें, मूंछें पकने लगें तो समझ लेना कि अब छूटने के समय निकट है। गृहस्थाश्रम से मुक्त होकर वानप्रस्थ बनने की एक पहचान यह बाल पकना भी तो है। मनु महाराज लिखते हैं-
"गृहस्थस्तु यथा पश्येद् वलीपलितमात्मनः।
अपत्यस्यैव चापत्यं तदारण्यं समाश्रयेत्।। -मनु० ६/२
अर्थात् (गृहस्थः तु) गृहस्थ (यदा) जब (आत्मनः) अपने (वली पलितम्) शरीर को कमजोर (पश्येत्) देखे। (अपत्यस्य च अपत्यम्) और पुत्र के पुत्र को देखे (तथा) तब (अरण्यं समाश्रेयत्) वानप्रस्थी हो जावे।
ऐ साधक! बालों के साथ-साथ तेरी वासनाएं भी पक जानी चाहिए। जैसे बाल पककर स्वतः झड़ जाते हैं, वैसे ही जब तेरी वासनाएं पककर झड़ जायेंगी, तो तू मोक्ष का अधिकारी बन जायेगा।
ऐ मुमुक्षो! तुझे मुक्त होने के लिए पकना होगा, और पकने के लिए उक्त पहचानों का अनुष्ठान करना होगा। उसके बाद तू मृत्यु-बन्धन से छूटकर अमृतत्व का उपभोग करेगा और 'मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात' की प्रार्थना सफल होगी। सावधानी बरतना, जीवन-फल के पूर्ण परिपक्व होने तक फूंक-फूंककर कदम रखना! कहीं कोई ऐसा कार्य न कर बैठना कि लोगों की अंगुली तेरी ओर उठने लगे! देखना अंगुली उठी कि तेरा जीवन-फल मुरझाया। व्यक्ति तेरी ओर अंगुली न उठाकर तेरे से हाथ मिलाने, पञ्जा बढ़ाने अथवा दोनों हाथ मिलाकर नमस्ते करने में प्रसन्नता अनुभव करें। बस अंगुली न उठवाना। साधक! सावधान रहना।
सहायक ग्रन्थ-: 'मृत्युञ्जय सर्वस्व'- दीक्षानन्द सरस्वती
वेदों की विश्व-विश्रुति का अन्यतम कारण यह भी है कि जिस किसी भी कोण से हम इस अद्भुत ग्रन्थ का अध्ययन करें, यह अपने प्रस्तार से अमाप्य है। इसके एक मन्त्र का सम्पूर्ण आकलन समग्र जीवन-साधना की अपेक्षा रखता है। ईश्वर प्रदत्त ज्ञान की यही तो विशेषता रही है कि यह ज्ञान के अक्षय मधुकोष से सम्पृक्त होकर हृदय व आत्मा दोनों को आह्लादित कर देता है। यदि वेद-मन्त्रों के अलंकरण पर दृष्टि किया जाए तो यह अलंकारों का कुबेर कोष प्रतीत होगा। जिस प्रकार सुन्दर वस्त्राभूषणों से सुसज्जित और अलंकृत स्त्री और भी अधिक शोभायमान प्रतीत होती है तथा पति के चित्त को आह्लादित करती है, उसी प्रकार वेद के मन्त्र भी अलंकृत होने से अत्यधिक सुन्दर और हृदय-ग्राह्य होती है। इसी सम्बन्ध में एक कवि-उक्ति भी है-
युवतेरिव रूपमंग काव्यं स्वदते शुद्धगुणं तदप्यतीव।
विहितप्रणयं निरन्तराभि: सदलंकारविकल्पकल्पनाभि:।।
अलम् पूर्वक कृ धातु से भाव का कारण अर्थ में धञ् प्रत्यय करके अलंकार शब्द निष्पन्न होता है, इस प्रकार जो भूषित करे वह अंलकार है। अलंकारों का मुख्य कार्य है, किसी की सुन्दरता का संवर्धन करना। हमारे परस्पर सम्भाषण में भी अलंकार बिना प्रयास किये ही स्वतः आ जाते हैं। यद्यपि वैदिक ऋषि आलंकारिकों द्वारा निर्दिष्ट किये गए अलंकारों से परिचित नहीं थे, परन्तु अलंकार शब्द और उसके कार्य से वे भली भांति परिचित थे। हम उपनिषदों की ही बात करें तो उनमें भी अलंकार आपाततः आ गए हैं। ईशावास्योपनिषद् में जहां हिरण्यमय पात्र से सत्य के मुख को ढका हुआ बताया गया है (हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। -१५), वहां भी एक प्रकार से अलंकार की महत्ता को ध्वनित कर दिया गया है। ब्राह्मण ग्रन्थों में "असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्मा अमृतं गमय" एक सार्वभौम, सार्वजनीन प्रार्थना है। जीवन-संघर्ष में पड़े व्यक्ति के सामने सदा से दो पक्ष खुले रहे हैं- असत्-सत्-तमस्-ज्योति, मृत्यु-अमृत। विवेकशील व्यक्ति पहले को छोड़ दूसरे को अपनाता है। मन्दमति व्यक्ति ही सत्य की तुलना में असत्य का, ज्योति की तुलना में अन्धकार का और अमृत की तुलना में मृत्यु का वरण करेगा। इस उपर्युक्त उपदेश का सार उसका अन्तिम चरण 'मृत्योर्मा अमृतं गमय' ही है। इसी तथ्य को ईश्वरीय वाणी वेद में "मृत्योर्मुक्षीय मा अमृतात्" ऐसा कहा है- 'हे प्रभो! मुझे मृत्यु-बन्धन से छुड़ा, अमृतत्व से नहीं। यह टेक जिस मन्त्र की है, उसे वैदिक वांग्मय में "महामृत्युञ्जय" नाम दिया गया है। मन्त्र का पूर्ण स्वरूप निम्नलिखित है-
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्।
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम्। उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीय मामुत:।। -यजु० ३/६०
महर्षि दयानन्दजीकृत भाष्य- इस मन्त्र में उपमालंकार है। मनुष्य लोग ईश्वर को छोड़कर किसी का पूजन न करें, क्योंकि वेद से अविहित और दुःखरूप फल होने से परमात्मा से भिन्न दूसरे किसी भी उपासना न करनी चाहिए। जैसे खर्बूजा फल लता में लगा हुआ अपने आप पक कर समय के अनुसार लता से छूट कर सुन्दर स्वादिष्ट हो जाता है, वैसे ही हम लोग पूर्ण आयु को भोग कर शरीर को छोड़ के मुक्ति को प्राप्त होवें। कभी मोक्ष की प्राप्ति के लिए अनुष्ठान वा परलोक की इच्छा से अलग न होवें और न कभी नास्तिक पक्ष को लेकर ईश्वर का आनन्द भी करें। जैसे व्यवहार के सुखों का लिए अन्न, जल आदि की इच्छा करते हैं, वैसे ही हम लोग ईश्वर, वेद, वेदोक्तधर्म और मुक्ति होने के लिए निरन्तर श्रद्धा करें।
यहां एक प्रश्न मन में उठना स्वभावतः है कि इस मन्त्र में उपमा अलंकार ही क्यों विद्यमान है? इसका बहुत ही सरल उत्तर यह है कि उपमा सादृश्य-मूलक अलंकारों की बीजभूत है, उपजीव्य है, मेरुदण्ड है, प्राण-स्पंदन है। उपमा भिन्न स्तरीय वस्तुओं को एक स्नेह सूत्र में बांधती है, वैसा दृश्य में सादृश्य का अन्वेषण करती है, दो पदार्थों को बराबर-बराबर तोल (उप+मा) देने का यत्न करती है। भावनाओं के अयत्नज आप्लावन के साथ उपमा जिस सहजता से वह निकलती है, वैसा अन्य अलंकार में नहीं। यही कारण है कि वेद-मन्त्रों में उपमा अलंकार की ही अधिकता दिखलाई पड़ती है।
मैं प्रायः सोचा करता था कि जब सृष्टि पर खर्बूजे की तुलना में एक-से-एक उत्तम फल विद्यमान हैं तो ईश्वर ने खर्बूजे को ही उपमा क्यों बनाया? उर्वारुकमिव बन्धनात् ही क्यों? आम्रमिव, नारिकेलमिव, कदलीमिव, द्राक्षमिव क्यों नहीं? इनमें से किसी एक फल को उपमा बनाया होता तो क्या ही अच्छा होता! विचारने पर ज्ञात हुआ कि मनुष्य को इस बात का बोध कराने के लिए कि वह अपने जीवन को कैसे सफल करे, इससे बढ़िया उपमा दी ही नहीं जा सकती थी। वास्तव में इस वेद-मन्त्र में खर्बूजे को ही उपमा देना परमेश्वर का चमत्कार है। मनुष्य मृत्यु के बन्धन से तभी छूट सकता है जब तक वह पक न जाए और पकने के लिए जुड़ना आवश्यक है। मनुष्य के जीवन-फल के परिपक्व होने की पहचान खर्बूजे फल से जानी जा सकती है क्योंकि यही एक ऐसा फल है जो पकने के बाद डाल से स्वतः पृथक् हो जाता है। कच्चा फल तो किसी के उपयोग का नहीं रहता। वह सर्वथा नीरस, निर्गन्ध, नीरूप, स्वयं सड़ जाये, सम्पर्क में आने वालों को भी सड़ा दे, ऐसा रहता है। मनुष्य का कच्ची अवस्था में छूट जाना भी ऐसा ही है जैसे फल का कच्चा टूट जाना। हे मुमुक्षो! आओ खर्बूजे फल के पकने की पहचान कर उससे अपने जीवन की तुलना करें। जब उस पहचान-कसौटी पर हम अपने को कसकर खरा बना लेंगे तो हमारी परिपक्वता में कोई सन्देह नहीं रहेगा अर्थात् परिपक्व होते ही मुक्ति हो जाएगी।
पहली पहचान-
खरबूजे के फल के पकने की पहली पहचान यह है कि डाल सर्वथा बेल के साथ चली जाये, फल के साथ न आए। डाल अथवा डाल के किसी भाग का फल के साथ आना उसके कच्चेपन की निशानी है। पके फल में यह सम्भव नहीं। मुमुक्षु व्यक्ति भी यह देखे कि संसार से मुक्त होते हुए कोई वासना मेरे साथ तो नहीं आई। यदि वासना का एक तार भी मेरे साथ आयेगा तो वह पुनर्बन्धन का कारण होगा। झटका देकर कच्चे फल को तोड़ने से डाल के किसी भी तन्तु का साथ आना सम्भव है। इसलिए हे मुमुक्षो! किसी घबराहट से, अथवा किसी आधि-व्याधि से, उतावलेपन से झटका देने का साहस न करना। अन्यथा वासनाओं के ये तार तेरे-पीछे चले आयेंगे और कहीं-न-कहीं उलझा लेंगे।
दूसरी पहचान-
मुमुक्षो! खरबूजे फल के पकने की दूसरी पहचान है उसकी गन्ध। परिपक्व फल अपने पकने की सूचना गन्ध से देने लगता है। उसकी गन्ध से आसपास का वातावरण सुवासित हो उठता है। यह सुगन्ध तब तक रुकी हुई थी जब तक डाल जुड़ी हुई थी। डाल पृथक् हुई कि सुगन्ध फूट पड़ी। जिस प्रकार शीशी में बन्द पड़े हुए इत्र का कुछ पता नहीं कि इसमें क्या है, परन्तु जैसे ही डाट खुली कि सारा वातावरण सुवासित हो गया। अतः वातावरण को सुगन्धित करने के लिए डाल का पृथक् होना आवश्यक है। निष्कर्ष यह निकला कि बिना बंधे सुगन्ध उत्पन्न हो नहीं सकती और बिना छूटे सुगन्ध फैल नहीं सकती।
प्रायः देखा गया है कि घर में खरबूजे लाए गए और उन्हें बच्चों की आंख से बचाकर रख दिया गया। बच्चों ने घर में प्रवेश करते ही ताड़ लिया कि आज तो घर में खरबूजे आए हैं! देखकर नहीं, सूंघकर।
इसी प्रकार हे मुमुक्षो! तू मुक्ति का अधिकारी हुआ है या नहीं, इसकी जांच करनी हो तो खरबूजे फल को उपमा बना लेना। देखना कि तेरे जीवन-फल की पुण्य गन्ध दिग्दिगन्त में व्याप्त हुई है या नहीं; यदि हो गई है तो अपने को मुक्ति का पात्र मानना, अन्यथा समझना कि अभी मैं कच्चा हूं; डाल पृथक् नहीं हुई है। वासना-डाल ने अभी तेरी गन्ध को रोका हुआ है। इसलिए निरन्तर पकने के प्रयास करते रहना, उस समय तक जब तक तेरी पुण्य गन्ध सर्वत्र फैल नहीं जाती। यह जीवन-फल के पकने की दूसरी पहचान है। लोग सुगन्ध पाकर तेरी ओर खिंचे चले आएं। लाख छुपा हुआ हो, तुझे ढूंढ ही निकालें।
तीसरी पहचान-
खरबूजे के पकने की तीसरी पहचान है उसका रंग-रूप। जहां उसकी अन्तरात्मा सुगन्ध से परिपूर्ण हो, वहां बाहर का रूप-रंग भी आकर्षक हो, इतना कि साथी पर रंग छोड़े बिना न रहे।
फल की सुगन्ध जहां दूर जाते व्यक्ति को समीप लाती है, वहां उसका रूप समीप आए व्यक्ति को प्रभावित करता है, अपना रंग छोड़ने लगता है, हिलने नहीं देता। इसलिए प्रायः खरबूजा खरीदते समय लोग जहां बार-बार गन्ध लेकर फल पकने की पहचान करते हैं, वहां उसकी रंगत भी देखते हैं।
ऐ मुमुक्षो! अपने पकने की जांच करने के लिए खरबूजे फल को कसौटी बनाना। तू यह अवश्य देखना कि तेरे जीवन-फल की पुण्य गन्ध ने वातावरण को सुवासित किया अथवा नहीं? लोग तेरे पास खिंचे चले आ रहे हैं अथवा नहीं? तेरी संगति में बैठने को लालायित हैं वा नहीं? यह भी देखना कि तेरे निकट आये व्यक्तियों पर कुछ रंग चढ़ा वा नहीं? यदि तेरा रंग पड़ोसी पर चढ़ गया तो अपने को मुक्ति का अधिकारी समझना, यदि नहीं चढ़ा तो समझ लेना कि अभी तू कच्चा है, मृत्यु-बन्धन से छुटकारा न हो पाएगा। यह सर्वथा असम्भव है कि पके हुए व्यक्ति की संगति में कोई आए और उसपर रंग न चढ़े। कहावत है 'खरबूजा खरबूजे को देखकर रंग पकड़ता है।' यह मानना कि खरबूजे के समीप लगे करेले पर रंग चढ़ना असम्भव है, परन्तु समीप लगे खरबूजे पर तो रंग छोड़ ही देना। तेरी संगति में यदि मनुष्य आए तो तुझसे प्रभावित हुए बिना न लौटे। इसलिए अपने जीवनफल की परिपक्वता की जांच करने के लिए यह देख लेना कि पड़ोसी पर तू रंग छोड़ता है या नहीं? यह फल के पलने और जीवन को परखने की तीसरी पहचान है।
चौथी पहचान-
परिपक्व खरबूजे की चौथी विशेषता यह है कि खरबूजे में उसका रस समा नहीं पाता, वह फूटकर बहने लगता है। मानो निकट आए व्यक्ति को कहता हो कि मेरी सुगन्ध और रूप पर ही मोहित न होओ, मेरे हृदय को टटोलकर देखो, उसमें रस-ही-रस भरा हुआ है, मैंने अपना हृदय आपके सामने खोलकर रख दिया है। यदि फिर भी मुझे न पहचान पाओ तो यही समझूंगा कि मेरे पारखी दुनिया में नहीं रहे।
साधक! तुझे भी देखना होगा कि तेरा हृदय-स्त्रोत जनता-जनार्दन की प्यास बुझाने को फूटा पड़ा है कि नहीं? यदि तेरा हृदय नीरस है तो यह दूर तक गन्ध पहुंचाना और आकर्षक रूप दिखावा मात्र है, पाखण्ड है। इसलिए जैसे बाहर से हो वैसे अन्दर से भी रहो! हृदय में सरसता हो जिससे सरस्वती फूट पड़े, जिसका पान करके लोग तृप्त हो उठें। 'यदन्तरं तद् बाह्यम् (अथर्व० २/३०/४)'- बाहर से भी आकर्षक, अन्दर से भी सरस।
पांचवीं पहचान-
खरबूजे में यह रस इतना परिपूर्ण हो जाता है कि वह फूट पड़ता है। प्रायः इसीलिए लोग फटे हुए खरबूजे को खरीदना पसन्द करते हैं। उनको यह भरोसा होता है कि वह बड़ा मधुर होगा, और जैसे ही तराशकर एक फांक जिह्वा पर रक्खी कि सहसा मुंह से निकला- वाह! मिश्री-सा मीठा है! शहद-सा शीरीं है!
इसी प्रकार हे जिज्ञासो! यह व्यक्त होने वाली वाणी ही मधुर न हो, उसका मूल स्रोत हृदय भी माधुर्य से भरा हो। सरस्वती का प्रवाह जहां अक्षय हो, वहां माधुर्य से भरा होना चाहिए- 'जिह्वाया अग्रे मधु मे जिह्वामूले मधूलकम् (अथर्व० १/३४/२)'।
खरबूजे के पकने की पांचवीं पहचान से अपनी जांच कर लेना। ठीक इसी के तुल्य अन्तः करण को मधुर बना लेना। फिर कहीं मृत्यु से छूटने का नाम लेना।
छठी पहचान-
ऐ भक्त! खरबूजे के अन्दर जहां रस होता है, जहां माधुर्य होता है, वहां एकरूपता भी होती है। उसके पकने की यह छठी पहचान है। वह अन्दर से एकरस, एकरूप, एकरंग है। बाहर की विविधता का उसके अन्तःकरण पर कोई प्रभाव नहीं।
ऐ मुमुक्षो! अपने हृदय को जांचना, वहां इसी प्रकार की भावना की स्थापना कर लेना! अपने-पराये की भावना को उसमें स्थान न देना! समस्त वसुधा को अपने हृदय में संजो रखना! फिर तू अमृत का अधिकारी होगा। बिना हाथ छुआए सहज ही पृथक् हो जाएगा।
सातवीं पहचान-
सातवीं पहचान है उसके अन्दर के बीजों का गूदे में खुभे न रहना; गूदे को छोड़कर अलग हो जाना।
प्रत्येक जिज्ञासु को इस उपमा से यह उपदेश लेना होगा कि मृत्यु-बन्धन से छूटने के लिए जहां बाह्य विषय-वासनाएं उसे छोड़ जाएं, वहां अन्तःकरण में पड़े हुए गुप्त और सुप्त संस्काररूप बीज भी उसे छोड़ जाएं। जिस प्रकार बाह्य वासनाओं का एक भी कच्चा तार पुनर्बन्धन का कारण बन सकता है, वैसे ही अन्तःकरण में पड़े हुए संस्कार-बीज भी मृत्यु-बन्धन का कारण बन सकते हैं। इसलिए जीवन-फल को परिपक्व करने के लिए जहां बाह्य वासनाओं से छुटकारा पा लेना आवश्यक है, वहां अन्तःकरण में पड़े हुए संस्कार-बीज को निश्शेष कर देना भी आवश्यक है।
आठवीं पहचान-
हम खरबूजे फल के अन्दर की एकरसता, एकरूपता का वर्णन कर आए हैं। परन्तु खरबूजे का बाहरी रूप-रंग ठीक उससे भिन्न है। आप खरबूजे के ऊपर की फांकों की गणना कीजिए। वे गिनती में दस निकलेंगे। खरबूजे को दशांगुल कहने का कारण यही प्रतीत होता है। खरबूजे के ऊपर बनी दस फांकें दश अंगुल का प्रतीक है, मानो खरबूजा फल कहता है कि ऐ भक्त! अपने जीवन-फल को पकाने के लिए तेरे दोनों हाथों की ये दस अंगुलियां काम आनी चाहिए। इनकी छाप स्पष्ट नजर आनी चाहिए। किसी अन्य व्यक्ति के द्वारा पकाए फल के उपभोग की कामनामात्र भी तेरे लिए अभिशाप है। पुण्य कोई करे और फल तू खाए, यह पुरुष के लिए उचित नहीं। तुझे तो गर्व से ये शब्द कहने चाहिए- 'कृतं मे दक्षिणे हस्ते, जयो मे सव्य आहित: (अथर्व० ७/५०/८)' अर्थात् मेरे दाहिने हाथ में पुरुषार्थ है और बाएं हाथ में सफलता। जिस फल पर मेरे पुरुषार्थरूप दस अंगुलियों की छाप पड़ेगी, उसी का स्वयं उपभोग करूँगा और अन्यों को भी कराऊंगा। उसी फल को पाकर सफल बनूंगा।
खरबूजे फल पर बनी दस फांकें जहां दस अंगुलियों का प्रतीक है, जहां पुरुषार्थ की छाप का प्रतीक है, वहां पञ्च ज्ञानेन्द्रियों और पञ्च कर्मेन्द्रियों की छाप का भी प्रतीक है। जीवन-फल की उपलब्धि इन्हीं इन्द्रियों के माध्यम से सम्भव है। परन्तु पुरुषोत्तम व्यक्ति वह है जो इस फल की कामना से ऊपर रहता है। पुरुष-सूक्त में ऐसे ही व्यक्ति का वर्णन करते हुए कहा है- 'अत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् (ऋ० १०/९०/१)'- वह पुरुष दश अंगुल का अतिक्रमण करके ठहरता है। इसी वास्तविकता के दर्शन खरबूजे फल में भी किये जा सकते हैं। उसमें अन्तर्निहित रस और माधुर्य ऊपर के दशाङ्गुल छिलके का अतिक्रमण करके बहाता है।
उपासक! इस रस का आस्वादन छिलके को पृथक् करके ही किया जाता है। देखना, तुझे भी प्रकृतिरूपी छिलके को पृथक् करना होगा, तभी तू ब्रह्मानन्द-रस का आस्वाद ले पायेगा। निस्सन्देह परम रस और परम गन्ध, प्रकृति, छिलके में ही बन्द रहती है। तेरे अन्तर्हृदय में बहनेवाला रस भी नाभि-केन्द्र से ठीक दस अंगुल अतिक्रमण करके रहता है। यदि कहीं उसका स्त्रोत मस्तिष्क को मान लें, तो भी वह त्रिकुटि से दशाङ्गुल ऊपर सहस्त्रार चक्र में रहता है। अहा! खरबूजे के पकने की यह पहचान क्या सुन्दर उपदेश दे रही है।
नवीं पहचान-
वनस्पति-जगत् में वृक्षों की अपेक्षा बेलों में यह विशेषता है कि वे अपने समीपस्थ आश्रय पर फैल जाती हैं। वृक्षादि का सहारा पाकर लिपटती और चढ़ती चली जाती हैं। बेलों के हर जोड़ और फटाव पर कुछ तन्तु निकलते रहते हैं जो उनके जमाव में सहायता देते हैं। यह विशेषता खरबूजे की बेल में भी है। जहां हर जोड़ से निकले हुए ये तन्तु जड़ जमाते हैं, वहां भोजन भी ग्रहण करते हैं। इन्हीं के कारण बेल पनपती, फूलती, फलती है।
फल के मूल में भी इसी प्रकार का एक तन्तु लगा रहता है जिसे आप खरबूजे की मूंछ कह सकते हैं। इसका काम न पंजा जमाना है न खुराक लेना है; इसका काम फल पकने की सूचना देना है। जैसे ही फल के मूल में लगा हुआ यह तन्तु सूखा कि माली समझ गया कि फल पक गया। तरबूज फल, जिसकी डाल अन्तिम समय तक फल को नहीं छोड़ती, पकने की सूचना मूल में लगा हुआ यह तन्तु सूखकर ही देता है। इस प्रकार खरबूजे फल के पकने की यही नवीं पहचान है।
प्रिय मित्र! मृत्यु की यह बेल, जिसमें हम सब खरबूजे फल की भांति जुड़े हुए हैं, निकट की हर वस्तु पर छा जाने के लिए है और बराबर अपना पंजा जमाने के लिए है। तू भी अपने प्रकृति-पंजे को जमाना, भोजन लेना, पानी लेना, परिपक्व होना; और जब तेरे जीवन-फल के तृष्णा-तन्तु सूखने लगें, मूंछें पकने लगें तो समझ लेना कि अब छूटने के समय निकट है। गृहस्थाश्रम से मुक्त होकर वानप्रस्थ बनने की एक पहचान यह बाल पकना भी तो है। मनु महाराज लिखते हैं-
"गृहस्थस्तु यथा पश्येद् वलीपलितमात्मनः।
अपत्यस्यैव चापत्यं तदारण्यं समाश्रयेत्।। -मनु० ६/२
अर्थात् (गृहस्थः तु) गृहस्थ (यदा) जब (आत्मनः) अपने (वली पलितम्) शरीर को कमजोर (पश्येत्) देखे। (अपत्यस्य च अपत्यम्) और पुत्र के पुत्र को देखे (तथा) तब (अरण्यं समाश्रेयत्) वानप्रस्थी हो जावे।
ऐ साधक! बालों के साथ-साथ तेरी वासनाएं भी पक जानी चाहिए। जैसे बाल पककर स्वतः झड़ जाते हैं, वैसे ही जब तेरी वासनाएं पककर झड़ जायेंगी, तो तू मोक्ष का अधिकारी बन जायेगा।
ऐ मुमुक्षो! तुझे मुक्त होने के लिए पकना होगा, और पकने के लिए उक्त पहचानों का अनुष्ठान करना होगा। उसके बाद तू मृत्यु-बन्धन से छूटकर अमृतत्व का उपभोग करेगा और 'मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात' की प्रार्थना सफल होगी। सावधानी बरतना, जीवन-फल के पूर्ण परिपक्व होने तक फूंक-फूंककर कदम रखना! कहीं कोई ऐसा कार्य न कर बैठना कि लोगों की अंगुली तेरी ओर उठने लगे! देखना अंगुली उठी कि तेरा जीवन-फल मुरझाया। व्यक्ति तेरी ओर अंगुली न उठाकर तेरे से हाथ मिलाने, पञ्जा बढ़ाने अथवा दोनों हाथ मिलाकर नमस्ते करने में प्रसन्नता अनुभव करें। बस अंगुली न उठवाना। साधक! सावधान रहना।
सहायक ग्रन्थ-: 'मृत्युञ्जय सर्वस्व'- दीक्षानन्द सरस्वती