यहाँ पर प्रश्न उत्पन्न होता है कि हम परमात्मा की भक्ति क्यों करें? ईश्वरभक्ति की हमें क्या आवश्यकता है? हम जड पदार्थों अथवा अल्प मनुष्यों की भक्ति क्यों न करें? ईश्वर की भक्ति से हमें क्या लाभ हो सकता है? यह प्रश्न वास्तव में बड़ा गम्भीर तथा विचारणीय है।
शास्त्र कहते हैं, कि जो जिसकी भक्ति करता है, वह तद्रूप हो जाता है। जो जिसका चिन्तन करता है वह उसी के रंग में रंगा जाता है, जो जिसका अधिक ध्यान करता है वह उसी का स्वभाव ग्रहण करता जाता है। जैसे लोहे का गोला अधिक काल तक अग्नि में रखे रहने से पहिले गर्म और फिर गर्म से लाल और फिर लाल से तद् रूप अर्थात् अग्नि का रूप ग्रहण करता जाता है, इसी प्रकार जो मनुष्य जिस चीज या वस्तु का अधिक ध्यान करता है वह उसी के रंग में रंगा जाता है।
यदि हम मनुष्यों की भक्ति करते हैं तो इसमें सन्देह नहीं कि हममें उन उपास्य देवताओं के गुण आवेंगे। क्योंकि मनुष्य सारे के सारे ही अल्पज्ञानी होते हैं उनमें कमजोरियाँ होती हैं इसलिए यह स्वाभाविक है कि मनुष्यों की पूजा और भक्ति करने से जहाँ हम उनके गुणों को ग्रहण करते हैं वहाँ अवगुण भी हममें आ जाते हैं। जड़ पदार्थों की पूजा करने से मनुष्य के अन्तरीय सूक्ष्म विचारों का नाश हो जाता है, और वह जड़ की न्याईं जड़ बन जाता है। इसलिए वेद भगवान् कहता है
अन्धंतमः प्रविशन्ति ये ऽविद्यामुपासते" (यजु० 40.9)
कई मनुष्य जो जड़ पदार्थों की पूजा करते हैं उनका हृदय जड़ पदार्थों के समान प्रकाशशून्य हो जाता है, और वे अन्धकार में ठोकरें खाते फिरते हैं। इसलिए पूजा का परिणाम यही है कि मनुष्य जिसकी पूजा करता है वह उसके रंग में रंगा जाता है। यदि जड़ पदार्थों की पूजा करने से मनुष्य को शांति मिल सकती तो इस संसार में जो सबसे ज्यादा जड़ पदार्थों की पूजा करते हैं अर्थात् जो सबसे अधिक धनी हैं, जो सबसे अधिक यश रखते हैं, वह कदापि दुःखी न देखे जाते।
वेद में भक्ति
परन्तु जिस अवस्था में जड़ पदार्थ प्रकाशशून्य हैं, शांति और शक्तिशून्य हैं, इस अवस्था में उनकी पूजा तथा भक्ति करने से मनुष्य को शान्ति क्यों कर मिल सकती है? पूजा के लिए आवश्यकता है एक महाशक्ति की, भक्ति के लिए आवश्यकता है एक महाशक्ति की, भक्ति के लिए आवश्यकता है एक सर्वव्यापक सर्व शक्तिमान् पापनाशक शान्ति के भण्डार परमात्मा की, भक्ति के लिए आवश्यक है एक शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वभाव सच्चिदानन्द की। वेद भगवान् कहता है -
“स पर्थ्यगच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरँ् शुद्धमपापविद्धम्।
कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान्व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः ”
(यजु० 40.8 )
परमात्मा शुक्र अर्थात् आनन्द है, वह घावों आदि क्लेशों से रहित है, दु:ख का नाशक है, सुख का दाता है, वह निराकार है, वह आवरण अर्थात् रोग रहित है, वह अस्नाविर अर्थात् नस-नाड़ी के बन्धनों से मुक्त है, उसकी कोई मूर्ति नहीं है, वह शुद्ध पवित्र है, और पवित्र कर्ता है, वह पापाविद्ध अर्थात् पाप रहित और मनुष्य को पापों से मुक्ति देने वाला है, वह कवि अर्थात् अन्तर्यामी है, वह मनीषी अर्थात् मनुष्यों के मनों को देखने वाला है, वह परिभूः अर्थात् सर्वव्यापक है वह स्वयंभूः अर्थात् अपनी सत्यता में उपस्थित है, वही इस सृष्टि का हर्ता कर्ता और धर्ता है। वेद भगवान् कहता है कि ऐसे ही परमात्मा की भक्ति और पूजा करके मनुष्य का जीवन सफल हो सकता है, अन्यथा नहीं। यह एक साधारण नियम है कि एक महाशक्तिमान् की पूजा मनुष्य को स्वाभाविक शक्तिमान् बनाती है। जिस कदर हम इस सर्वशक्तिमान् की पूजा करते हैं और हृदय से पूजा करते हैं। अथवा प्रेम से भक्ति करते हैं उसी कदर हमारा आत्मा बलवान् होता जाता है और पुष्ट होता जाता है। वेद भगवान् कहता है:
“य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः।
यस्य च्छायाऽमृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा
विधेम।” (यजु० 25.13)
आत्मा का बल वही परमात्मा है। ऐसा क्यों हैं, इसलिए कि आत्मा एक चेतन वस्तु है, आत्मा जीवन है, एक चेतन वस्तु को जड़ वस्तु से बल नहीं मिला करता। जड पदार्थों की पूजा से आत्मा को कदापि बल प्राप्त नहीं हो सकता, प्रत्युत चेतन परमात्मा से ही बल पा सकता है। क्योंकि यह ईश्वरीय नियम है कि जहां जीवन होता है वहाँ से ही दूसरों को जीवन मिला करता है, जहाँ शक्ति होती है वहाँ से ही दूसरों को शक्ति मिला करती है। जड़ पदार्थों में जब जीवन ही नहीं है तो उनकी पूजा करके एक चेतन आत्मा कैसे जीवन पा सकता है? इसको क्या बल या ढाढस मिल सकता है? कुछ भी नहीं। इसलिए वेद भगवान् कहता है कि भक्ति के योग्य केवल एक परमात्मा ही है। अज्ञानी अज्ञानता के वश होकर जड़ पदार्थों की पूजा करते हैं परन्तु वे जो ज्ञानी हैं, वे जो देवता हैं, वे जिनका हृदय ज्ञान से दीप्यमान हैं वे कदापि जड़ वस्तुओं की पूजा नहीं कर सकते, किन्तु वे रात-दिन उसी परमपूज्य परमात्मा की भक्ति में मग्न रहते हैं। वेद भगवान् कहता है कि उसकी भक्ति में मग्न रहना मनुष्य को मृत्यु से बचा सकता है।
मृत्यु क्या है? साधारण शब्दों में हम आत्मा से शरीर की पृथक्ता का नाम 'मृत्यु' रखते हैं। यदि यह सत्य है कि आत्मा की पृथक्ता से शरीर की मृत्यु हो जाती है तो जब परमात्मा आत्मा के भी आत्मा है और वह आत्मा में इस तरह निवास करते हैं जिस तरह शरीर में आत्मा निवास करता है तो वह आत्मा चेतन होता हुआ भी मुर्दा नहीं होगा, जिसमें ईश्वर प्रेम नहीं है। ईश्वर ही तो आत्मा का जीवन है।
उपनिषद् कहता है:
श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद्वाचो ह वाचः स उ प्राणस्य प्राणः॥ (केनोप० १.२)
परमात्मा ही आत्मा के श्रोत्र का श्रोत्र है, परमात्मा ही आत्मा के मन का मन है, परमात्मा ही आत्मा की वाक्यशक्ति है और परमात्मा ही आत्मा का प्राणाधार है। इसलिए वेद भगवान कहता है:-
“यस्य च्छायाऽमृतं यस्य मृत्युः” ।
अर्थात् परमात्मा को अपने आत्मा में अनुभव करना और उसी को हर्ता-कर्ता अनुभव करते हुए रात-दिन उसी की शरण में और उसी की भक्ति में अपने आपको लीन रखना ही आत्मा का जीवन है, और उससे दूर हो जाना अर्थात् उसकी भक्ति से शून्य हो जाना, उसके प्रेम से खाली हो जाना मानो आत्मा से आत्मा का खाली हो जाना है। इस आत्मिक मृत्यु से मनुष्य उसी अवस्था में बच सकता है जबकि वह अमर परमात्मा को प्राप्त हो। मनुष्य जोकि स्वयं मृत्यु के मुँह में फंसा हुआ है उसकी पूजा करने से आत्मा इस आत्मिक मृत्यु से नहीं बच सकता। जड़ पदार्थ जो कि स्वयं शून्य हैं, उनकी पूजा करने से भी आत्मा आत्मिक मृत्यु से नहीं बच सकता। आत्मा का जीवन परमात्मा है। उसकी भक्ति करने से, उसी की शरण लेने से, उसी के प्रेम में मग्न होने से, उसकी शरण लेने से आत्मा जीवन पा सकता है, मुक्त हो सकता है। उपनिषद् कहती है:-
एतदालम्बनःश्रेष्ठमेतदालम्बनं परम्।
एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते।(कठो० 2.17)
परमात्मा ही एक आत्मा का आधार है और परमात्मा ही आत्मा के लिए सबसे श्रेष्ठ और परम पवित्र आधार है, परमात्मा ही आत्मा के लिए शरण है, वही इसके लिए मृत्यु के विरुद्ध एक सुरक्षित ढाल है जो इस आधार को अपना आधार बनाता है। जो इस आधार को अपने आत्मा का आधार बनाता है, जो इस Asylum को अपने आत्मा के लिए मौत के विरुद्ध Asylum बनाता है, वही है जो मृत्यु से ऊपर हो जाता है, अर्थात् ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है या दूसरे शब्दों में मुक्ति को प्राप्त होता है। मैंने कहा था कि लोग प्रश्न करते हैं कि ईश्वरभक्ति की क्या आवश्यकता है? क्यों आवश्यकता है यह अब पता लग गया कि यदि हम जड़ पदार्थों की भक्ति करते हैं तो हम जड़ की न्याईं विचारशून्य, जीवनशून्य, उत्साहशून्य हो जाते हैं। यदि हम परमात्मा की भक्ति करते हैं तो हममें जीवन आता है, उत्साह आता है, तेज आता है, बल और पराक्रम आता है क्योंकि यह एक साधारण बात है कि जितना हम अल्प वस्तुओं की भक्ति करेंगे उतना ही हमारा विचार, हमारा जीवन, हमारा तेज, हमारा बल भी अल्प होगा परन्तु जहाँ तक एक महान् और प्रभावशाली जीवन के आधार, आत्मा के आधार, सर्वशक्तिमान् तेजोमय परमात्मा की पूजा करेंगे उतने ही हम महान् होते जावेंगे। अपने ज्ञान के भण्डार वेद में ईश्वर में हमें शिक्षा देते हैं कि हे मनुष्यो! पदार्थों की पूजा छोड़ कर नित्य प्रति तुम यह प्रार्थना किया करो-
तेजो असि तेजो मयि धेहि।
वीर्यमसि वीर्यं मयि देहि।
बलमसि बलं मयि धेहि।
ओजोऽस्योजो मयि धेहि।
सहोऽसि सहो मयि धेहि॥ (यजु० 12.9)
अर्थात्-हे परमात्मन्! मैं तेरी भक्ति इसलिए करता हूं, क्योंकि तू तेज है, तेरी भक्ति द्वारा तेरे तेज को प्राप्त कर सकें। हे परमात्मन्! मैं तेरी भक्ति इसलिए करता हूँ कि तू शक्ति है, मैं तेरी भक्ति के द्वारा इस शक्ति को प्राप्त कर सकें। हे परमात्मन्! मैं तेरी भक्ति इसलिए करता हूँ क्योंकि तू बलपुंज है, मैं तेरी भक्ति के द्वारा इस बल को प्राप्त कर सकें। हे परमात्मन्! मैं तेरी भक्ति इसलिए करता हूँ क्योंकि तू जीवनाधार है, मैं तेरी भक्ति के द्वारा इस आधार को प्राप्त कर सकें। हे परमात्मन्! मैं तेरी भक्ति इसलिए करता हूँ क्योंकि तू सहनशील है, मैं तेरी भक्ति के द्वारा सहनशील बन सकें। हे परमात्मन्! मैं तेरी भक्ति इसलिए करता हूँ क्योंकि तू सबको यथावत् फल देने वाला है, मैं तेरी भक्ति के द्वारा इस न्यायशीलता को ग्रहण कर सकें, इत्यादि।
॥ ओ३म् ॥
साभार - स्वामी सत्यानंद जी (पुस्तक - सत्योपदेशमाला)
राजेंद्र जिज्ञासु जी
प्रस्तुति - आर्य मिलन
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