मृतक श्राद्ध-खण्डन
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लेखक -
✍🏻पंडित बुद्धदेव मीरपुरी
प्रस्तुति -
📚 आर्य मिलन
महर्षि दयानन्दजी ने सत्यार्थप्रकाश आदि सम्पूर्ण ग्रन्थों में यह लिखा है कि श्राद्ध जीवित माता-पिता, आचार्य, गुरु आदि महापुरुषों का होता है, मरे हुओं का नहीं । ऐसा ही वेदादिशास्त्रों में लिखा है। इसके विपरीत पौराणिक लोग यह मानते हैं कि श्राद्ध मृतकों का ही सिद्ध होता है, जीवितों का नहीं । मरे हुए माता-पिता आदि की ही पितृसंज्ञा होती है, जीवितों की नहीं।
आर्यसमाज के सिद्धान्त की सच्चाई को सिद्ध करने के लिए श्राद्ध के विषय को चार भागों में बाँटकर लिखा जाएगा। प्रथम यह कि पितर किस-किसको कहते हैं? दूसरे, उनका भोजन क्या होना चाहिए? तीसरे, भोजन के अधिकारी कौन हैं ? चौथे, मरे हुए पितरों को भोजन पहुँचता कैसे है ?
हमारा विचार है कि यदि अभ्युपगमसिद्धान्त से विशेष परीक्षा करने के लिए मृतक श्राद्ध मान भी लिया जाए तब भी वह पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार नहीं हो सकता, बल्कि पौराणिक ग्रन्थों में लिखा है कि श्राद्ध असम्भव है। सबसे प्रथम पितर शब्द का विचार किया। जाता है।
ये समानाः समनसो जीवा जीवेषु मामकाः।
तेषा श्रीर्मयि कल्पतामस्मॅिल्लोके शतः समाः ॥
-यजुः० १९।४६
उब्वटभाष्य- यजमानाः ये समानाः समनसः जीवाः जीवनवन्तः । जीवेषु जीवनवत्सु मध्ये मामकाः मदीयाः ।।
यजमान कहता है कि जो समान मनवाले, जीते हुओं में मेरे सम्बन्धी पितर हैं, उनकी लक्ष्मी मुझको प्राप्त हो ।
इस मन्त्र में महीधर तथा उव्वट दोनों ने स्वीकार किया है कि जीवित प्राणियों को पितर कहते हैं तब पौराणिक पण्डितों की यह बात कि मुर्दो की ही पितृ-संज्ञा है, त्याज्य है।
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उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु ।
त आगमन्तु ते इह श्रुवन्त्वधि ब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान् ॥
यजुः० १९ । ५७
महीधरभा०—हे पितरः, इह यज्ञे आगमन्तु आगच्छन्तु । व्यत्ययेन शपो लुक् । ते श्रुवन्तु अस्मद्वचः शृण्वन्तु । श्रुत्वा च अधिब्रुवन्तु पितृभिः पुत्राणां यद्वक्तव्यं तद्वदन्तु । ते अस्मानवन्तु॥
हे पितर लोगो ! आप हमारे यज्ञों, घरों, खज़ानों में आओ, हमारी बातें सुनों और हमको उपदेश दो तथा हमारी रक्षा करो।
इस मन्त्र में महीधर तथा उव्वट ने इस बात को स्वीकार किया है कि पितर जीवित होते हैं, मृतक नहीं, क्योंकि पितरों का यज्ञ में आना और पुत्रों की बातें सुनना, उनको उपदेश देना व उनकी रक्षा करना-ये चार काम जीवितों में ही हो सकते हैं, मृतकों में नहीं।
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शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम्।
पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः॥
-यजुः० २५ । २२
महीधरभाष्य-यत्रास्माकं जरायां पुत्रासोऽस्मत्पुत्राः पितरो भवन्ति पुत्रवन्तो भवन्ति । यावदस्माकं पौत्रा भवन्तीत्यर्थः । तावत् मध्ये नोऽस्माकमायुर्मा रीरिषत मा हिंसिष्ट।।
माता-पिता कहते हैं जहाँ हमारे बुढ़ापे में हमारे पुत्र पितर हो जावें, अर्थात् पुत्रवाले हो जावें । जबतक हमारे पौत्र न हों, तब तक हे परमात्मन् ! आप हमारी आयु का नाश न कीजिए, यानी हम जीवित रहें।
इस मन्त्र में तो महीधर ने वेदभाष्य करते हुए पौराणिक मण्डल की कमर तोड़ डाली है। महीधर ने यह स्वीकार किया है कि पुत्रों की भी, जब उनके पुत्र हो जाते हैं पितर संज्ञा हो जाती है। पितरों की ओर से ही प्रार्थना है कि जब तक हमारे पुत्र पितर न बनें, पुत्रोंवाले न हों तब तक हमें जीवित रहें। इस वेदमन्त्र व महीधर के भाष्य से पौराणिक पण्डितों का दावा कि मृतकों की ही पितृसंज्ञा है, सर्वथा ग़लत सिद्ध हो जाता है।
ऊपर हमने तीन वेदमन्त्र महीधरभाष्य के साथ देकर यह सिद्ध कर दिया है कि जीवितों की ही पितृसंज्ञा है। इसकी पुष्टि के लिए अन्य प्रमाण भी दिये जाते हैं।
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विद्यादाताऽन्नदाता च भयत्राता च जन्मदः ।
कन्यादाता च वेदोक्ता नराणां पितरः स्मृताः ॥
-ब्रह्म० वै० गण० ९।४७।२१
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ज्यष्ठो भ्राता पिता वापि यश्च विद्यां प्रयच्छति।
त्रयस्ते पितरो ज्ञेयाः धर्मे च पथिवर्तिनः ।।
-वा०रा०कि० १८।१३
विद्या देनेवाला, अन्न देनेवाला, जन्मदाता, कन्या देनेवाला और बड़ा भाई इनकी ‘पितृ' संज्ञा है।
बड़ा भाई, पिता और विद्यादाता-ये तीनों पितर हैं, यदि धर्म के मार्ग पर चलते हों।
उपर्युक्त पुराण व वाल्मीकि रामायण के प्रमाणों से यही सिद्ध होता है कि जीवितों का नाम ही पितर है, मृतकों का नहीं।
द्वौ मासौ मत्स्यमांसेन त्रीन्मासान् हारिणेन तु ॥२६८॥
दशमासांस्तु तृप्यन्ति वराहमहिषामिषैः।
शशकूर्मयोस्तु मांसेन मासानेकादशैव तु ॥२७०॥
वाध्रीणसस्य मांसेन तृप्तिदशवार्षिकी॥२७१॥
कालशाकं महाशल्काः खड्गलोहामिषं मधु।
अनन्त्यायैव कल्प्यन्ते मुन्यन्नानि च सर्वशः॥२७२॥
-मनु० अ० ३
दो महीने मछली के मांस से, तीन मास हिरन के मांस से, दस महीने सुअर तथा भैंसे के मांस से, ग्यारह महीने खरगोश तथा कछुए के मांस से, वाध्रीणस हिरन के मांस से बारह वर्ष तथा लम्बे कानवाले बकरे के मांस से पितर अनन्त काल तक तृप्त रहते हैं।
कहिए पोपजी! मनुस्मृति में यह प्रक्षिप्त प्रकरण लिखकर भी भोजन कैसा बढ़िया बतलाया है ? बस, एक लम्बे कानवाले बकरे का मांस ब्राह्मणों को खिला दीजिए और मृतक श्राद्ध से हमेशा के लिए छुट्टी पाइए।
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शङ्का-यह जो मच्छी आदि का मांस लिखा है, यह राक्षसों के लिए लिखा है, श्रेष्ठ पुरुषों के लिए नहीं।
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समाधान-राक्षसों के लिए नहीं पितरों व ब्राह्मणों को ही खिलाना लिखा है। इसके कारण निम्नलिखित हैं-
१. यहाँ पर लिखा है कि मछली आदि के मांस से पितर तृप्त होते हैं। क्या आपका दिया हुआ भोजन पितरों को मिलता है या नहीं। अगर मिलता है तो आपके पितरों को मछली आदि का मांस मिला। क्या आपके पितर भी राक्षस हैं?
२. हमारा चैलेञ्ज है कि इस पितृ-प्रकरण में यह कहीं नहीं लिखा कि मांस-भोजन राक्षसों के लिए है। अगर हिम्मत है तो दिखाओ ।
३. बल्कि इसके विपरीत लिखा है
🔥यत्र ये भोजनीयाः स्युर्ये च वज्र्या द्विजोत्तमाः।
यावन्तश्चैव यैश्चान्नैस्तान्प्रवक्ष्याम्यशेषतः ॥
उस मृतक श्राद्ध में जिन उत्तम ब्राह्मणों को खिलाना चाहिए और जिनको नहीं खिलाना चाहिए, जितनों को खिलाना चाहिए, जो अन्न खिलाना चाहिए, वह सब मैं बताऊँगा।
इस श्लोक में स्पष्ट लिखा है कि यह श्राद्ध उत्तम ब्राह्मणों के लिए है, अनधिकारियों को नहीं । जब अनधिकारी ब्राह्मणों को श्राद्ध
खाने पर अधिकार नहीं तब राक्षसों को कैसे हो सकता है ?
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नियुक्तस्तु यथान्यायं यो मांसं नात्ति मानवः।
से प्रेत्य पशुतां याति संभवानेकविंशतिम्॥
-मनु० ५। ३५
कुल्लूकभाष्य-श्राद्धे मधुपर्के च यथाशास्त्रं नियक्तुः॥
श्राद्ध में या मधुपर्क में शास्त्र की आज्ञानुसार नियुक्त हुआ जो मनुष्य मांस नहीं खाता वह मरकर इक्कीस बार पशुयोनि में जाता है।
कहिए पोपजी ! तुम तो कहते थे मांस राक्षसों के लिए है, परन्तु यहाँ तो मांस न खानेवाले के लिए बड़ा भारी दण्ड लिखा है। यदि यह राक्षसों का अन्न था तो न खानेवालों को इतना बड़ा दण्ड क्यों लिखा? दूसरी बात यह है कि यहाँ पर मनुष्य के लिए मांस का खाना लिखा है। आपके सिद्धान्त के अनुसार तो राक्षस मनुष्यों से भिन्न होते हैं। इसलिए आपका यह कथन मिथ्या है कि श्राद्ध में मांस-विधान राक्षसों के लिए है।
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नियुक्तस्तु यतिः श्राद्धे दैवे वा मांसमुत्सृजेत्।
यावन्ति पशुरोमाणि तावन्नरकमिच्छति॥
-वा० ३४॥ ११ (वा से क्या तात्पर्य है, हमें पता नहीं लगा। वायु, वामनपुराण और वाल्मीकि रामायण में तो यह श्लोक नहीं है। - जगदीश्वरानन्द)
जो कोई ब्राह्मण व संन्यासी श्राद्ध अथवा देवयज्ञ में मांस न रवावे, वह उतने वर्ष नरक में रहेगा, जितने उस पशु को बाल हैं।
यदि श्राद्ध का भोजन राक्षसों के लिए हो तो यह लाखों साल नरक में रहने का दण्ड क्यों दिया जाता। इससे सिद्ध है कि श्राद्धों में घणित मांस- भोजन का विधान है और श्राद्ध, वेदशास्त्र के विरुद्ध होने से अवैदिक हैं।
🌻अधिकारी
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तीसरी बात जो मृतक श्राद्ध में है वह यह है किनको भोजन खिलाना चाहिए। जहाँ तक हमने पौराणिक ग्रन्थों का अध्ययन किया है वहाँ तक यह पता चलता है कि मृतक श्राद्ध हो ही नहीं
सकता? प्रमाण निम्न हैं
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चिकित्सकान् देवलकान्मांसविक्रयिणस्तथा।
-मनु० ३।१५२
🔥सोमविक्रयिणो विष्ठा भिषजे पूयशोणितम्।
नष्टं देवलके दत्तमप्रतिष्ठं तु वार्धषौ ॥१८०॥
🔥यावतो ग्रसते ग्रासान् हव्यकव्येष्वमन्त्रवित्।
तावतो ग्रसते प्रेत्य दीप्तशूलष्र्झयोगुडान्॥१३३॥
-मनु० ३।१८०, १३३
🔥ज्योतिर्विदो ह्यथर्वाण: कीराः पौराणपाठकाः।
श्राद्धे यज्ञे महादाने न वरणीयाः कदाचनः ॥३८५॥
🔥*पतन्ति पितरो ह्येषां दानं चैव तु निष्फलम् ॥३८६॥
(* इस श्लोक में पाठभेद है।)
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आविकश्चित्रकारश्च वैद्यो नक्षत्रपाठकः।
चतुर्विप्राः न भोज्यन्ते बृहस्पतिः समा अपि ॥ ३८५।।
-अत्रिस्मृ० ३८५-३८७
वैद्यों को, पुजारियों को, मांस बेचनेवाले को, दुकानदारों को, सोम बेचनेवाले को श्राद्ध में भोजन नहीं खिलाना चाहिए। जो इनको व वेद के न जाननेवालों को भोजन खिलाएगा अथवा जो खाएगा उन दोनों के मुख में गर्म करके लोहे के गोले, त्रिशूल आदि ठूँसे जाएँगे । ज्योतिषी तथा कंजूस व पुराण के पढ़नेवालों को, श्राद्ध, यज्ञ व महादान में भोजन के लिए कभी भी नहीं बैठना चाहिए, क्योंकि इनको भोजन खिलाने व दान देने से पितर पतित हो जाते हैं और दान निष्फल जाता है, इसलिए इनको कभी श्राद्ध में भोजन नहीं खिलाना चाहिए। भेड़ पालनेवाले, चित्रकार, वैद्य तथा ज्योतिषीइन चार ब्राह्मणों को बृहस्पति के समान होने पर भी भोजन नहीं खिलाना चाहिए।
मैं पौराणिक पण्डितों से पूछता हूँ कि इस लिस्ट के अनुसार क्या तुम्हारा मृतक श्राद्ध हो सकता है ? यहाँ पर पुजारी, व्यापारी, वैद्य, ज्योतिषी, दुकानदार, दस्तकार, वेद के न जाननेवाला-इन सबको भोजन न खिलाने का ही विधान नहीं है बल्कि खिलाने व खानेवालों को बड़ा भारी दण्ड लिखा है और पितरों का पतन लिखा है। इसलिए पौराणिक ग्रन्थों के अनुकूल भी मृतक श्राद्ध नहीं हो सकता । मृतक श्राद्ध करनेवालों को चाहिए कि वे इस दण्ड से बचने के लिए मृतक श्राद्ध को सर्वथा त्याग दें। एक तो श्राद्ध करना दूसरे दण्ड भोगना इससे क्या लाभ है?
🌻भोजन पहुँचने का साधन
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चौथा प्रश्न यह है मृतपितरों को भोजन कैसे पहुँचता है ? आर्यसमाजी व पौराणिक इस बात को स्वीकार करते हैं कि मरकर जीव का पुनर्जन्म होता है। फिर यह विचारणीय बात है कि जब उन्होंने जन्म ले-लिया फिर उन्हें भोजन कैसे पहुँचेगा? इस विषय में पौराणिकों का कोई निश्चित सिद्धान्त नहीं है। कई कहते हैं कि जिस-जिस योनि में पितर हैं, वहाँ-वहाँ उसी योनि के अनुकूल भोजन पहुँच जाता है। कइयों का कथन है कि पितर पितृलोक में जमा रहते हैं, वहीं भोजन पहुँचता है। तीसरे कहते हैं कि पितरलोग यहीं भोजन खाने के लिए आते हैं, क्योंकि पौराणिकों का इस विषय में कोई निश्चित सिद्धान्त नहीं है इसी से सिद्ध है मृतक श्राद्ध असत्य है। एक दो उदाहरण नीचे दिये जाते हैं
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निमन्त्रितास्तु ये विप्राः श्राद्धपूर्वदिने खग।
प्रविश्य पितरस्तेषु भुक्त्वा यान्ति स्वमालयम् ॥२६॥
🔥श्राद्धकर्जा तु यद्येकः श्राद्धे विप्रो निमन्त्रितः।
उदस्थः पिता तस्य वामपाश्र्वे पितामहः ॥२७॥
🔥प्रपितामहो दक्षिणतः पृष्ठतः पिण्डभक्षकः॥२८॥
-गरुड पु० प्रे० अ० १० । २६-२८
श्राद्ध करनेवाला अगर एक ब्राह्मण को श्राद्ध में भोजन खिलाये तब ब्राह्मण के पेट में बैठकर श्राद्ध करनेवाले का पिता भोजन खाता बाँई कोख पर बैठकर दादा, दाँई पर परदादा और पीठ पर पिण्ड रवानेवाला। पौराणिको ! कहो, यह तुम्हारा भोजन खिलाने का कैसा तरीका है ? पेट के अन्दर क्या होता है, क्या वहाँ सोहन हलुवा रक्खा है वा ठाकुरजी का भोग? कुक्षी में बैठकर क्या ब्राह्मण जौंक की भाँति खून पीता है। इस गुरुड़पुराण के श्लोक से सिद्ध है कि पितर लोग यहाँ भोजन खाने आते हैं और वे ब्राह्मण के खाने के बाद उस के मल, खून आदि का भोजन खाते हैं। इससे उल्टा नीचे का सिद्धान्त देखिए।
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गान्धर्वे भोगरूपेण पशुत्वे तु तृणं भवेत् ॥५॥
🔥श्राद्धं तु वायुरूपेण नागत्वेऽप्यनुगच्छति।
फलं भवति पक्षित्वे राक्षसेषु तथामिषम् ॥६॥
🔥दानवत्वे तथा मांसं प्रेतत्वे रुधिरं तथा।
मनुष्यत्वेऽन्नपानादि बाल्ये भोगरसो भवेत् ॥
-ग० प्रे० अ० १० । श्लो० ५ से ७ तक
श्राद्ध में दिया हुआ अन्न किसी का पितर गन्धर्व बन गया हो तो भोगरूप से, पशु बन गया हो तो घास बनकर मिलता है। साँप बन गया हो तो हवा के रूप में, पक्षी की योनि में जन्म लिया हो तो फल बनकर, राक्षसों की योनि में मांस बनकर मिलता है। प्रेत हो तो खून बनकर, मनुष्य हो तो अन्नपान के रूप में, बच्चा हो तो रस बनकर मिलता है।
इस श्लोक ने तो पौराणिक मृतक श्राद्ध पर पानी फेर दिया है। इससे पौराणिकों की पितर, पितृलोक आदि सब बातें उड़ जाती हैं। जैसे ऊपर लिखा था कि पितर लोग यहाँ भोजन खाने आते हैं या उनको पितृलोक में पहुँचता है ? परन्तु यह सिद्धान्त सर्वथा ऊपर के सिद्धान्त के विरुद्ध है। अगर किसी का बाप मरकर सूअर बन गया हो तो क्या उसको विष्ठा के रूप में भोजन मिलेगा? अगर ऐसा है तो यह कितना अन्याय है। वह ब्राह्मणों को तो खीर-पूड़े खिलाता है। और उसका बदला मल है। अगर कोई वैष्णव श्राद्ध करेगा वह मांस के विरुद्ध है और उसका भोजन मांस बनकर मिलेगा। और यह प्रत्यक्ष के विरुद्ध भी है, क्योंकि जितने प्राणी हैं वे किसी-न-किसी के पितर हैं और उनमें से किसी को भी श्राद्धों का भोजन नहीं मिल रहा। इस सिद्धान्त के अनुसार श्राद्ध करनेवालों को चाहिए कि कभी ब्राह्मणों को घास खिलावें, कभी मांस, कभी रक्त पिलावें, कभी कंकर, क्योंकि चकोर कंकर-पत्थर खाता है।
अनेक योनियों का अनेक प्रकार का भोजन होता है वह बदलबदलकर खिलाना चाहिए, क्योंकि इस बात का तो निश्चय ही नहीं कि पितर किस योनि में गया है ? नीचे मृतक श्राद्ध के बारे में कुछ प्रश्न दिये जाते हैं, जिनसे पाठकों व शास्त्रार्थ करनेवालों को लाभ पहुँचेगा।
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१. ब्राह्मणों को खिलाया हुआ भोजन पितरों को पहुँच जाता है, इसके लिए युक्ति व वेद का प्रमाण दो।।
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२. जब मरने के पश्चात् मृतक की हड्डियाँ गङ्गा में डाल दी जाती हैं और पौराणिकों के अनुसार उस मृतक की मुक्ति हो जाती
है और मुक्तपुरुष का खाने-पीने आदि से कोई सम्बन्ध नहीं रह जाता वह ब्रह्म बन जाता है, फिर मृतक श्राद्ध खाने कौन आवेगा?
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३. दसगात्र, सीण्डिकरण, पिण्डदान आदि बातों के लिए कोई वेदमन्त्र पेश करो। हमारा दावा है कि ये सब बातें अवैदिक व कपोलकल्पित हैं।
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४. अथर्ववेद के अट्ठारवें काण्ड के सब मन्त्रों का विनियोग सायणाचार्य ने अन्त्येष्टि संस्कार में किया है, फिर उनको मृतक श्राद्ध में लगाना क्या सायणाचार्य के विरुद्ध नहीं है ?
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५. भोजन पितरों को ब्राह्मण के द्वारा पहुँचता है या वैसे ही ? यदि कहो वैसे ही पहुँचता है तब फिर ब्राह्मणों को भोजन खिलाने की क्या आवश्यकता है? यदि कहो कि ब्राह्मण के द्वारा पहुँचता है। तब भोजन खिलाने के बाद व पहले ब्राह्मण को व भोजन को तोलना चाहिए। यदि भोजन खाने के पश्चात् भोजनसहित पूरा हो तब तो समझो कि भोजन नहीं पहुँचता। यदि वज़न कम हो जाए तब जानो पितरों को भोजन पहुँचा है।
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६. ब्राह्मण के खाने के बाद क्या पितरों को उसका रक्त-मांस आदि पहुँचता है या कुछ अन्य? इसके लिए प्रमाण दो।
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७. ब्राह्मण को खिलाया भोजन बिना पते के पितरों को पहुँच जाता है, इसमें क्या प्रमाण है ? किसी के जीवित माता-पिता को यदि एक मकान में बन्द करके बाहर ब्राह्मणों को भोजन खिलाया जावे तो क्या खिलानेवाले के माँ-बाप को मिल जाएगा? यदि पता होने पर भी भोजन नहीं मिलता तब जिन माता-पिता को कुछ भी पता नहीं है उनको लापता डाक कैसे मिल जाएगी?
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८. यदि पौराणिक मृतकों का श्राद्ध मानते हैं तब तीन पीढ़ी का ही श्राद्ध क्यों करते हैं, दूसरों का क्यों नहीं करते ? वास्तव में बात यह है कि पिता, दादा, परदादा जीवित रह सकते हैं, इसलिए तीन पीढी का श्राद्ध है। इससे भी सिद्ध है कि श्राद्ध जीवित का होता है। मृतक का नहीं।
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९. यदि किसी के चार पुत्र हैं और वे चारों भिन्न-भिन्न स्थानों में रहते हैं और एक ही दिन श्राद्ध करते हैं तब पितर किसका श्राद्ध खाने जावेगा? यदि एक का खाया तो तीन का तो ब्राह्मण मुफ्त में उड़ा जाएँगे।
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१०. देहली की शान्ति नाम की कन्या थी, उसने अपने पिछले जन्म के सास-ससुर, जेठ, पुत्रादि के मथुरा में सब हाल बतला दिये और उसके लिए बाकायदा कमिशन बैठा कि जिसमें मुसलमान भी शामिल थे और उन्होंने यह निश्चय किया कि यह सब हाल ठीक थे और उससे यह सिद्ध हो गया शान्ति का पुनर्जन्म हो गया। अब तुम्हारा पितृलोक, पितर व श्राद्ध खिलाना कहाँ गया? क्योंकि वह दिल्ली में मौजूद है और कहीं श्राद्ध खाने नहीं जाती।
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११. अगर किसी का पिता मरकर बकरा बन जाए और वह उसी को मारकर पिता का श्राद्ध करे, तब पिता को मार कर किया गया श्राद्ध किसको मिलेगा? कल्पना करो कि किसी का बाप मरकर उसी के घर में पैदा हो गया तब पिता तो पुत्र बन गया, मृतक श्राद्ध किसको मिलेगा?
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१२. जीव की पितृसंज्ञा है वे शरीर की ? यदि कहो शरीर की तो वह जल गया। यदि कहो जीव की तब गलत है, क्योंकि अकेले जीव में पिता-पुत्र भाव नहीं होता और वह पुत्रों के घर में अथवा पशु-पक्षियों के घर में भी पैदा हो सकता है, इसलिए उसकी पितृसंज्ञा नहीं होती। इससे सिद्ध है कि जीवसहित शरीर का नाम ही पितर है। और वह जीवित होता है, मृतक नहीं।
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१३. पद्मपुराण के उतरखण्ड अध्याय ७८ में कथा आती है कि किसी के माँ-बाप मरकर उसी के घर कुतिया व बैल बन गये उसने उनका श्राद्ध किया और उनको नहीं मिला, अपितु कुतिया की कमर उसकी बहू ने तोड डाली और बैल भूखा मर गया। इससे साफ़ प्रकट है कि मृतकों को श्राद्ध नहीं मिलता।
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शङ्का-संस्कार विधि में स्वामी दयानन्दजी ने स्नातक का अपसव्य होकर ज़मीन पर पानी छोड़ना लिखा है, इससे मृतक श्राद्ध सिद्ध है।
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समाधान-अपसव्य के अर्थ जनेऊ बदलना नहीं है, बल्कि दक्षिण शरीर वा दक्षिण की ओर घूमना है। जैसे अमरकोष काण्ड ३ वर्ग १ में लिखा है।
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वामं शरीरं सव्यं स्यादपसव्यं तु दक्षिणम्॥८४॥
बायें शरीर का नाम सव्य और दाएँ का नाम अपसव्य है। ब्रह्मचारी का मुख पहले पूर्व की ओर होता है और फिर वह दक्षिण की ओर घूमकर आचार्यों से निवेदन करता है कि जैसे यह पानी शान्ति देनेवाला है वैसे आपने भी मुझे विद्यादि गुणों से शान्ति प्रदान की है, दूसरों को भी शान्ति दीजिए।
विवाह संस्कार में भी लड़के-लड़की पर जल के छीटें देकर जल की महिमा लिखी है। यहाँ पर मृतक श्राद्ध की गन्ध भी नहीं है।
🤔शङ्का-दुनिया में पिता का धन पुत्र को मिलता है, वैसे ही पिता का कर्म पुत्र को मिल जाएगा।
🌹समाधान-यह बात ग़लत है कि पिता का कर्म पुत्र को मिलता है, प्रत्युत सिद्धान्त यह है कि जो धनवान् वा गरीबों के घर में जन्मते हैं, वे अपनी प्रारब्ध के अनुसार जन्म लेते हैं। एक का कंगाल घर में तथा दूसरे का धनी घर में पैदा होना अपने प्रारब्ध कर्म के सिवाय नहीं हो सकता। कई पिता की सम्पत्ति से वञ्चित रह जाते हैं और कइयों को मिल जाती है, यह सब अपने कर्म का खेल है।
दूसरी बात यह है कि दुनिया की राज-प्रजाओं के कायदे में ग़लती व अन्याय भी हो सकता है, परन्तु परमात्मा का न्याय अटल है । जो कोई करेगा वही भरेगा। प्रभु के न्याय में दूसरे का कर्म दूसरे को नहीं मिलेगा। श्राद्ध के विषय में अधिक जाननेवाले मेरी श्राद्ध मीमांसा देखें।
॥ ओ३म् ॥
लेखक -
✍🏻पंडित बुद्धदेव मीरपुरी ( पुस्तक - मीरपुरी सर्वस्व )