Monday, June 19, 2017

मानवता के सद्गुण











🌹मानवता के सद्गुण

मानवता के लक्षणों का वर्णन गीता में दैवी सम्पदा के अन्तर्गत किया है, सच्चे आदर्श रुप में ढल कर मानव अधिकारी बन सकते हैं।

*अभयं सत्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थिति: ।*
*दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ।।*
*अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्याग: शान्तिरपैशुनम् ।*
*दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ।।*
*तेज: क्षमाधृति: शौचमद्रोहो नातिमानिता ।*
*भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ।।*
―(गीता १३/१-३)

*भावार्थ―*_जिन व्यक्तियों को दैवी सम्पदाएँ प्राप्त हैं, उनके लक्षण इस प्रकार हैं―
१. *"अभयम्"* मन में भय का अभाव सर्वथा हो।
२. *"सत्वसंशुद्धि"* अन्त:करण की अच्छी प्रकार से स्वच्छता हो।
३. *"ज्ञानयोगव्यवस्थिति:"* तत्व-ज्ञान के लिए ध्यानयोग में निरन्तर दृढ़ स्थिति हो।
४. *"दानम्"* बिना फल की इच्छा किये देश-कालपात्रानुसार सात्विक दान हो।
५. *"दम:"* इन्द्रियों का दमन हो।
६. *"यज्ञ"* ईश्वर-भक्ति और अग्निहोत्रादि उत्तम कर्मों का आचरण हो।
७. *"स्वाध्याय"* वेद-शास्त्रों के पठन पूर्वक ईश्वर के "ओ३म्" नाम और गुणों का कीर्तन हो।
८. *"तप:"* स्वधर्म पालन के लिये कष्ट एवं प्रतिकूलताएं सहन करना,
९. *"आर्जवम्"* शरीर और इन्द्रियों सहित अन्त:करण की सरलता,
१०. *"अहिंसा"*–मन, वाणी और शरीर किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना।
११. *"सत्यम्"*–यथार्थ और प्रिय भाषण।
१२. *"अक्रोध:"*―अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोधित न होना।
१३. *"त्याग"*–कर्मों में कर्त्तापन के अभिमान का त्याग।
१४. *"शान्ति"*–चित्त की चञ्चलता का अभाव।
१५. *"अपैशुनम्"*–किसी की निन्दा न करना।
१६. *"भूतेषुदया"*–सब भूत-प्राणियों में हेतुरहित दया।
१७. *"अलोलुप्त्वम्"*–इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी आसक्ति का न होना।
१८. *"मार्दवम्"* मन-वाणी, कर्म और स्वभाव की कोमलता।
१९. *"ह्री:"*–लोक और शास्त्र के विरुद्ध आचरण में लज्जा।
२०. *"अचापलम्"*–व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव।
२१. *"तेज:"*–वह शक्ति जिसके प्रभाव से श्रेष्ठ पुरुषों के सामने विषयासक्त और नीच प्रवृति वाले मनुष्य भी प्राय: अन्यायाचरण से रुक कर उनके कथनानुसार श्रेष्ठ कर्मों में प्रवृत होते हैं।
२२. *"क्षमा"*–अपने अपकार करने वाले के दोष को क्षमा करके उसका भला करना।
२३. *"धैर्य"*–किसी भी विपत्ति में धैर्य रखना।
२४. *"शौच"*–बाहर-भीतर की पवित्रता।
२५. *"अद्रोह"*–किसी भी प्राणी में शत्रु-भाव न होना।
२६. *"नातिमानिता"*–अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव
दीर्घकालीन अभ्यास से इनका निश्चय ही आप में विकास होगा और आप सच्चे मानव बन सकेंगे।

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