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🌿ओ३म्
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🌹ओंकार–स्तोत्र
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*सुखे वा दुःखे वा परिषदि नृणां वाति विजने,*
*गृहे वा वाह्ये वा गिरि-सुशिखरे वा सुपुलिने।*
*दिने वा रात्रौ वा उषसि दिवसान्तेऽथ रमणे,*
*भजध्वं हे धीराः सुमति विमला ओं ह्रदि सदा।।1।।*
*गृहे वा वाह्ये वा गिरि-सुशिखरे वा सुपुलिने।*
*दिने वा रात्रौ वा उषसि दिवसान्तेऽथ रमणे,*
*भजध्वं हे धीराः सुमति विमला ओं ह्रदि सदा।।1।।*
*अर्थ:* सुख में वा दुःख में, मनुष्यों की सभा में वा निर्जन स्थान में घर वा बाहर, पर्वत के सुन्दर शिखर पर या नदी के मनोहर तट पर, दिन में या रात्रि में, प्रातःकाल वा रमणीय सायंकाल में, हे सुमति से विमल, धैर्यशील विद्वान् पुरुषों ! तुम सदा ओम् की ही स्तुति, प्रार्थना और उपासना किया करो।
*रवौ चन्द्रे ज्योतिर्विविध–गण–रम्ये वियति च,*
*समीरेऽग्नौ भूमाविह निखिल–देहे स्वसुयुते।*
*वयं पश्यामस्ते शुभं–महिमानं समुदितं,*
*भजध्वं हे धीराः सुमति विमला ओं ह्रदिसदा।।2।।*
*समीरेऽग्नौ भूमाविह निखिल–देहे स्वसुयुते।*
*वयं पश्यामस्ते शुभं–महिमानं समुदितं,*
*भजध्वं हे धीराः सुमति विमला ओं ह्रदिसदा।।2।।*
*अर्थ:* सूर्य में, चन्द्रमा में, विविध नक्षत्रगणों में, रमणीय आकाश में, वायु, अग्नि और भूमि में सुन्दर प्राणी संयुक्त अखिल शरीर में हम लोग आपकी ही सुभग महिमा को प्रकाशित देखते हैं। हे उत्तम बुद्धि वाले सज्जन पुरुषो ! तुम सदा इस ओम् की ही पूजा करने वाले बनो।
*स नो बन्धुः पाता भुवनमखिल यो रचयति,*
*प्रजानां संहारे पुनरपि स एवाति बलवान्।*
*तमेकं जानीध्वं सकल सुखदं, दुःख हरणं,*
*भजत्वं हे धीराः सुमति विमला ओं ह्रदि सदा।।3।।*
*प्रजानां संहारे पुनरपि स एवाति बलवान्।*
*तमेकं जानीध्वं सकल सुखदं, दुःख हरणं,*
*भजत्वं हे धीराः सुमति विमला ओं ह्रदि सदा।।3।।*
*अर्थ:* वही हम लोगों का बन्धु और पालक है, जो कि अखिल भुवन को रचता है और जो कि सब प्रजाओं का पालन एवं संहार भी करता है। हे पुरुषों ! तुम उसी एक प्रभु को जानो वही सब सुखों का दाता और सब के, सब प्रकार के दुःखों को हरण करने वाला है। हे विद्वानो ! तुम उसी 'ओम्' प्रभु का भजन करो।
*इमं देवं रुद्रं गणपतिमजं विष्णुमजरं,*
*सुपर्णं ब्रह्माणं शिविदतिमीशानमनघम्।*
*तमेक व्याचष्टे बहुविध सुनाम्ना कुशलधी,*
*मजध्वं हे धीराः सुमति विमला ओं ह्रदि सदा।।4।।*
*सुपर्णं ब्रह्माणं शिविदतिमीशानमनघम्।*
*तमेक व्याचष्टे बहुविध सुनाम्ना कुशलधी,*
*मजध्वं हे धीराः सुमति विमला ओं ह्रदि सदा।।4।।*
*अर्थ:* इस एक देव को रुद्र, गणपति, अज, विष्णु, अजर, सुपर्ण, ब्रह्म, शिव, अदिति, ईशान, अनघ, आदि विविध नामों से विद्वान् लोग जानते और बखानते हैं। हे सज्जनों ! यह ओंकार ही भजन करने योग्य है। इसी का भजन करो।
*त्वमेकः पूज्योऽसि त्वमिह सदस्यत्वं हितकर,*
*त्वमेको ध्येयोऽसि त्वमसि रमणो योगि ह्रदये।*
*रमस्व त्वं चित्ते त्वमसि मम चित बहुमतं,*
*मजध्वं हे धीराः सुमति विमला ओं ह्रदि सदा।।5।।*
*त्वमेको ध्येयोऽसि त्वमसि रमणो योगि ह्रदये।*
*रमस्व त्वं चित्ते त्वमसि मम चित बहुमतं,*
*मजध्वं हे धीराः सुमति विमला ओं ह्रदि सदा।।5।।*
*अर्थ:* हे भगवान् ! तू ही पूज्य है। तू ही करुणाकर है। तू ही सबका हितकारी है। तू ही एक ध्येय है। योगियों के ह्रदयों में तेरा ही प्रकाश होता है। हे भगवन् ! मेरे चित्त में भी तू सदा ही विराजमान रहे। तू ही मेरा महान् धन है। हे धैर्यवान् विद्वानों आओ, इस ओंकार का भजन करके आत्म-कल्याण को प्राप्त करो।
*[श्री पं. शिवशंकरजी, काव्यतीर्थ कृत]*
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