Monday, November 2, 2015

मज़हबी करतूत बनाम धार्मिक सदाचार



मज़हबी करतूत बनाम धार्मिक सदाचार

मैं फेसबुक पर अनेक हिन्दुत्ववादी/ राष्ट्रवादी ग्रुप्स का संचालक हूँ। पिछले कुछ महीनों से सभी ग्रुप्स में अश्लील पोस्ट्स भारी मात्रा में की जा रही हैं। इन्हें हटाने में हमारा बहुमुल्य समय व्यर्थ होता है। सबसे बड़ी बात मुझे यह मिली की अधिकतर ऐसी अश्लील पोस्ट भेजने वालों का ID मुस्लिम पाया गया। अगर इनकी एक ID बैन करी जाती हैं तो दूसरी ID बना देते हैं। पहले किसी हिन्दू नाम से ID बनाकर ग्रुप में प्रवेश करते है। फिर उस छदम ID के माध्यम से अपनी मज़हबी करतूत को अंजाम देते है। गौरतलब बात यह है कि हिन्दू ग्रुप्स में अश्लीलता फैलाने को ये लोग धार्मिक कार्य समझते है। सत्य यह है कि यह धार्मिक कार्य नहीं अपितु मजहबी संकीर्णता है। धर्म और मजहब में अंतर की समझ रखने वाला व्यक्ति ऐसी करतूत नहीं करेगा।

धर्म की परिभाषा-

जो धारण किया जाये वह धर्म है। अथवा लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु सार्वजानिक पवित्र गुणों और कर्मों का धारण व सेवन करना धर्म है। दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं की मनुष्य जीवन को उच्च व पवित्र बनाने वाली ज्ञानानुकुल जो शुद्ध सार्वजानिक मर्यादा पद्यति है वह धर्म है। लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु गुणों और कर्मों में प्रवृति की प्रेरणा धर्म का लक्षण कहलाता है। मनु स्मृति के अनुसार धैर्य,क्षमा, मन को प्राकृतिक प्रलोभनों में फँसने से रोकना, चोरी त्याग, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि अथवा ज्ञान, विद्या, सत्य और अक्रोध धर्म के दस लक्षण हैं। सदाचार परम धर्म है। जिससे अभ्युदय(लोकोन्नति) और निश्रेयस (मोक्ष) की सिद्धि होती है, वह धर्म है।


मज़हब और धर्म में अंतर

धर्म और मज़हब समान अर्थ नहीं है और न ही धर्म ईमान या विश्वास का प्राय: है। धर्म क्रियात्मक वस्तु है मज़हब विश्वासात्मक वस्तु है। धर्म का आधार ईश्वरीय अथवा सृष्टि नियम है। परन्तु मज़हब मनुष्य कृत होने से अप्राकृतिक अथवा अस्वाभाविक है। धर्म सदाचार रूप है परन्तु मज़हबी अथवा पंथी होने के लिए सदाचारी होना अनिवार्य नहीं है। केवल सम्बंधित मज़हब के नियमों का पालन करने वाला होना चाहिए। धर्म ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है जबकि मज़हब मनुष्य को केवल पन्थाई या मज़हबी और अन्धविश्वासी बनाता है। धर्म मनुष्य को ईश्वर से सीधा सम्बन्ध जोड़ता है जबकि मज़हब बिचौलिये अथवा मत प्रवर्तक अथवा मत की मान्यताओं से जोड़ता है। धर्म का कोई बाहरी चिन्ह नहीं है जबकि मत में बिना चिन्ह ग्रहण किये कोई उसका सदस्य नहीं बन सकता। धर्म मनुष्य को पुरुषार्थी बनाता है जबकि मज़हब मनुष्य को आलस्य का पाठ सिखाता है। धर्म दूसरों के हितों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति तक देना सिखाता हैं जबकि मज़हब अपने हित के लिए अन्य मनुष्यों और पशुओं  के प्राण हरण का सन्देश देता है। धर्म मनुष्य को सभी प्राणी मात्र से प्रेम करना सिखाता हैं जबकि मज़हब मनुष्य को प्राणियों का माँसाहार और दूसरे मज़हब वालों से द्वेष सिखाता है। धर्म एकता का पाठ पढ़ाता है जबकि मज़हब भेदभाव और विरोध को बढ़ाता है।

संक्षेप में धार्मिक बने मजहबी नहीं। सदाचारी बने दुराचारी नहीं। विचारों में पवित्रता लाये द्वेष भावना नहीं।

डॉ विवेक आर्य

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